किसान आंदोलन की दशा व दिशा तथा इसका समर्थन कर रही मजदूर वर्गीय ताकतों का कार्यनीतिक संकट

किसान आंदोलन की दशा व दिशा तथा इसका समर्थन कर रही मजदूर वर्गीय ताकतों का कार्यनीतिक संकट

September 11, 2021 0 By Yatharth

8 महीने बाद किसान आंदोलन की दशा व दिशा क्या है? यह किस ओर बढ़ रहा है? क्या किसान आंदोलन गहरे ठहराव में फंस गया है? प्रायः ऐसे ही प्रश्न किसान आंदोलन में लगे लोगों व इसके समर्थकों की जेहन में उठ रहे हैं। इसी के साथ दिल्ली के विभिन्न बॉर्डरों पर किसान प्रदर्शनकारियों की घटती उपस्थिति से इस बात के कयास भी लगाये जा रहे हैं कि आंदोलन का वजूद खत्म हो चला है। एक तरफ मोदी सरकार के अंध समर्थक तो दूसरी तरफ भारतीय कृषि में इजारेदार पूंजीपतियों के प्रवेश को प्रगतिशील मानने वाले ऐसा ही मानते हैं। कृषि कानूनों को भारतीय कृषि में उत्पादक शक्तियों के विकास हेतु सकारात्मक कदम मानने वाले, पूंजी के शासन के अंतर्गत बड़े पैमाने की आधुनिक खेती को गरीब किसानों के लिए फायदेमंद बताने वाले, उसी तरह इजारेदार पूंजीपतियां को ग्रामीण गरीब व मेहनतकश आबादी का मुक्तिदाता मानने वाले तथा कॉर्पोरेटपरस्त मीडिया – सभी एक स्वर में इस कयास को खूब हवा देने में लगे हैं।


जहां तक किसान आंदोलन के वजूद और उसके आकलन का सवाल है, दिल्ली के बॉर्डरों पर इसके घटते-बढ़ते शक्ति प्रदर्शन के आधार पर निष्कर्ष निकालना निराधार होगा। हम पाते हैं कि गांवों में आंदोलन का प्रभाव और आधार दोनों बढ़े हैं और इसलिए बॉर्डरों पर किसानों की उपस्थिति मात्र से इसके वजूद का सही-सही आकलन नहीं किया जा सकता है। ऐतिहासिक रूप से दीर्घजीवी आंदोलन (8 महीने से भी ज्यादा समय से चलने वाले लंबे आंदोलन) में किसी एक जुटान स्थल पर शक्ति प्रदर्शन का स्तर हमेशा एकसमान नहीं हो सकता है। हम पाते हैं कि किसानों ने खेती और आंदोलन के बीच समय व अवसर का अब तक बेहतर संयोजन किया है जो इसे लंबे समय तक चलाने के लिए आवश्यक है। खेती के मौसम में पंजाब व हरियाणा के किसान गांव में रहत हुए खेती और आंदोलन दोनों करने में सक्षम रहे। इन दोनों प्रदेशों में भाजपा नेताओं और मंत्रियों का गांव में घुमना मुश्किल हो चुका है। यहां तक कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर खट्टर भारी पुलिस बंदोवस्त के बीच भी किसी कार्यक्रम में शामिल होने में सक्षम नहीं हो पा रहे।ं दिल्ली बॉर्डरों के लिए वे जरूरत पड़ने पर कभी भी (पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा पश्चिमी यूपी से) ट्रैक्टरों में बैठ कर कुच करने को तैयार रहते हैं। किसान आंदोलन की यह रणनीति अभी तक सफल साबित हुई है और भाजपा के गुंडे या सरकार दिल्ली बॉर्डरों पर किसानों की उपस्थिति कम रहने का इसलिए ही फायदा नहीं उठा पाये, इन पर हमला करने या पुलिस दमन के बल पर उनके टेंट आदि उखाड़ने की हिम्मत तो दूर की बात है।

इतने लंबे समय तक किसान आंदोलन के जारी रहने की मूल वजह क्या है? मूल वजह लंबे समय में लेकिन निश्चित तौर पर सभी संस्तर के किसानों (किसानों की एक छोटी आबादी को छोड़कर) को उजाड़ने की दृष्टि से लाये गये कृषि कानूनों की वाससी पर उनका पूरी मुस्तैदी से डटा रहना है। उनका नारा ही है – कानून वापसी नहीं तो घर वापसी नहीं। कुछ लोग कह सकते हैं कि कृषि कानूनों की वापसी नहीं, समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग मुख्य मांग है। यह हो सकता है। इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि पहले नंबर पर दोनों में कौन सी मांग है। सरकार ने इन कृषि कानूनों के जरिये सरकारी मंडी और सरकार द्वारा प्रदत्त न्यूनतम समर्थन मूल्य को ही तो धीरे-धीरे खत्म करने का रास्ता लिया है। दूसरी तरफ, सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग मूलतः कृषि कानूनों को निरस्त करने की ही मांग है। अगर सरकार किसानों के लिए सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग मान लेती है, तो यह पहले वाले समर्थन मूल्य से गुणात्मक रूप से भिन्न चीज होगी, क्योंकि तब यह यह सभी किसानों की सभी फसलों की सरकारी खरीद की गारंटी की मांग का स्वरूप ग्रहण कर लेगी। इस मांग को अगर सरकार मान लेती है, तो फिर कृषि कानूनों का तीन चौथाई तो इसी से निपट जाएगा। इसलिए हम यह कहते आ रहे हैं कि इस मांग तक पहुंचना मोदी सरकार की कुटिल चाल को किसानों द्वारा समझ लिये जाने का परिचायक है। किसानों के अटल इरादे के पीछे का कारण यही है कि किसानो ने कृषि कानूनों के रूप में मोदी सरकार द्वारा चली गई कुटिल चाल को समझ लिया है। इसलिए आज किसानों को मोदी सरकार पर किसी तरह को कोई भरोसा ही नहीं है। सभी फसलों के लिए समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग के माध्यम से किसानों ने मोदी सरकार की इस कुटिल चाल को पटकनी दे दी है। यह मांग लोकप्रिय होने के अतिरिक्त कृषि कानूनों की वापसी की मांग से नाभिनालबद्ध भी है।


मोदी सरकार की इस दलील को लें कि कृषि कानून किसानों को फसलों को सरकारी मंडी के बाहर देशी तथा विदेशी व्यापारियों व कंपनियों के हाथों ऊंचे दाम पर बेचने व लाभ कमाने का अतिरिक्त मौका देते हैं और साथ में ये कानून बाध्यकारी भी नहीं हैं। इसकी असलियत यह है कि असल में सरकार का इरादा कुछ सालों तक किसानों को ऊंचे दाम के लालच में फंसा कर सरकारी मंडी व्यवस्था को इतना जर्जर और मरणासन्न बना देना है कि यह अपने आप खत्म हो जाए और धीरेः-धीरे अपनी स्वाभाविक मौत मर जाए। जब सरकारी पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगी और किसानों के पास व्यापारियों के हाथों अपनी फसल या उपज बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाएगा तो ये ही व्यापारी और कंपनियां किसानों को मजबूरी में सस्ते में बेचने के लिए मजबूर करेंगी। इस तरह सारे कृषि मालों को ये कंपनियां सस्तें में खरीद कर भंडारों में जमा कर लेंगे और फिर इन्हें उपभोक्ताओं को मंहगे दाम पर बेचेंगे। कृषि मालों के बाजार पर मुट्ठी भर कंपनियों का नियंत्रण होगा। मांग तथा आपूर्ति में असंतुलन के वक्त चढ़ी कीमतों पर सवार हो ये आपूर्ति को बाधित कर सट्टेबाजी करेंगी और मालामाल होंगी। इस बार दाल व खाने के तेलों में की कीमतों में जैसा उछाल आया वह बार-बार होगा। सरकारी मंडी के बाहर खुले बाजार में ऊंचे दाम का लोभ दिखाना और फिर कुछ दिनों बाद सरकारी मंडी के खत्म होने के बाद किसानों को सस्ते में बेचने के लिए मजबूर करना – मोदी सरकार की यही कुटिल चाल थी जिसे किसानों ने समझ लिया और अटल संघर्ष का बिगुल फूंक दिया।


कुछ लोग कहते हैं कि क्या किसान समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी के बाद खुले बाजार मेंं बेचना यानी खुले बाजार में मिलने वाले ऊंचे दाम का लोभ त्याग देंगे? दरअसल यह कठदलीली से भरा कुतर्क है। पहली बात तो खुले बाजार में अधिकांश कृषि मालों की कीमत आम तौर पर काफी कम रहती है। फिर अगर मान लिया जाए कि समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग पूरी हो गयी है, जिसके बारे में हम कह रहे हैं कि यह कदापि संभव नहीं है, तो निजी व्यापारियों को भी समर्थन मूल्य देना अनिवार्य हो जाएगा जो बाजार मूल्य से अक्सर ज्यादा होगा। क्या व्यापारी ऐसा कर सकेंगे? शायद कदापि नहीं। वे इसके बदले अनाज या फसल खरीदना बंद कर देंगे और बाजार से पलायन कर देंगे, क्योंकि समर्थन मूल्य पर खरीद करने से ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के इजारेदार कंपनियों के मंसूबे पर पानी फिर जाएगा।


इस तरह हम देख सकते हैं कि आज के दौर का कोई भी पूंजीवादी-फासीवादी राज्य इस स्थिति में जाना ही नहीं चाहेगा। मुनाफे पर आधारित इजारेदार पूंजीपतियों के प्रभुत्व वाली पूंजीवादी बाजार व्यवस्था चरमरा जाएगी। इसीलिए हम शुरू से यह कहते आ रहे हैं कि यह मांग अंतर्य में पूंजीवादी शासन की सीमा से टकराती है और इसीलिए कोई भी पूंजीवादी राज्य इसके लिए कभी भी राजी नहीं होगा। किसानों को इसकी स्पष्ट समझ नहीं हो सकती है, लेकिन कम्युनिस्टों को इसकी स्पष्ट समझ होनी चाहिए और किसानों की मांगों में हुई इस प्रगति का सर्वहारा राज्य कायम करने की राजनीति और इसके क्रांतिकारी प्रचार से जोड़ना चाहिए।


बड़ी इजारेदार कंपनियों के साथ अनुबंध या कांट्रैक्ट खेती के माध्यम से अत्याधुनिक और बड़े पैमाने की खेती से होने वाले लाभ के बारे में भी किसान अपने अनुभव के बल पर यह समझते हैं कि इससे खेती का कॉर्पोरेटीकरण हो जाएगा और वे अपनी जमीनों से हाथ धो बैठेंगे। किसान कॉर्पोरेट कंपनियों के दगाबाज चरित्र को आज भलिभांति समझते हैं। किसानों को कंपनियों के साथ कांट्रैक्ट खेती करने का छिटपुट ही सही लेकिन पुराना अनुभव है और वे जानते हैं कि इसका अवश्यंभावी परिणाम खासकर गरीब व निम्न मध्यम किसानों की पूर्ण बर्बादी होगा और गरीब किसान अंततोगत्वा खेती से बाहर भगा दिये जाएंगे। बुरी तरह ऋणग्रस्त मध्य व धनी किसानों के साथ भी देर-सवेर यही होगा। वे समझते हैं कि कॉर्पोरेट के चंगुल में एक बार फंसे तो फिर उससे निकलना मुश्किल होगा और वे बर्बाद हो जाएंगे। पंजाब, हरियाणा जैसे विकसित प्रदेशों के आम किसान भी कॉर्पोरेट के इस मुख्य मकसद को समझ चुके हैं कि इनका मुख्य मकसद किसानों से सस्ता अनाजा खरीदना और फिर उपभोक्ताओं को महंगे दाम पर बेचना है। कॉर्पोरेट के प्रति किसानों की इस जागरूकता को मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी प्रचार से जोड़ना इसीलिए आज अत्यावश्यक है।

सरकार लगातार कह रही है कि नये कृषि कानूनों को जबर्दस्ती नहीं थोपा जाएगा। ये कानून ऑप्शनल हैं और इसलिए किसानों को इसका विरोध खत्म कर देना चाहिए। कृषि कानूनों से डरने की बात बेमानी है, आदि आदि। असल में खेती में कॉर्पोरेटीकरण के लिए किसानों का झांसा देने का यही तरीका है। आज से चार दशक पहले की बात याद कीजिए। मेहनतकश गरीब व छोटे-मंझोले किसानों को इसी तरह से अमीर बनने का लालच का दिखाकर अतार्किक (उनके लिए) और महंगी पूंजीवादी खेती के भंवर में खींचा गया था। आज के लुटे-पिटे किसान उसके कडवे अनुभव से लैस हैं और वे इस दुष्चक्र से भलिभांति परिचित हैं और इस बार मोदी सरकार के अमीर बनने के प्रलोभन के झांसे में नहीं आ रहे हैं। तब भी कहा गया था कि रातो-रात अमीर बनना है तो बाजार के लिए लाभकरी खेती करो। आज सारे सपने धराशायी हो चुके हैं। वे उसकी कीमत कर्जग्रस्ता के बोझ तले आत्महत्या कर के आज तक चुका रहे हैं। इस अनुभव से लैस एक-एक किसान को यह पता है कि मोदी सरकार द्वारा कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के साथ मिलकर लाभ कमाने के लिए दिये जा रहे अतिरिक्त अवसर का अर्थ फिर से वही सुनहरे सपने में फंसना है। माली हालत किसी भी तरह सुधार लेने के चक्कर में वे अब किसी घनचक्कर में नहीं पड़ना चाहते हैं।


दरअसल कृषि कानून और कुछ नहीं कॉर्पोरेट कंपनियों के अधीन खेती की एक और नयी किसानहंता एवं आदमखोर व्यवस्था का आगाज है जिसमें किसानों को धीरे-धीरे खींच ले आने का षडयंत्र सरकार कर रही है। इसके अंतिम परिणाम पहले के चार दशकों की पूंजीवादी खेती के कुपरिणामों से कहीं ज्यादा घातक होंगे। कॉर्पोरेट कृषि का अर्थ कृषि से बड़े पैमाने पर कार्पोरेट द्वारा मुनाफा कमाना है जिससे गरीब किसानों के अतिरिक्त पूरे देश की गरीब-मेहनतकश जनता की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। भोजन के लिए लोगों को कॉर्पोरेट कंपनियों के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ेगा और वे इस स्थिति से भारी मुनाफा कमायेंगे। इसलिए किसानों को पहले कुछ सालों तक इसमें फंसाने के लिए ऊंचे दाम का चारा फेंका जाएगा और पुराने ढांचे को अपने-आप खत्म होने के लिए विवश किया जाएगा। सारी चीजें कॉर्पोरेट के हाथों में चली आएंगी, तो फिर बड़ी आसानी से सस्ता खरीदने और मंहगा बेचने का इनका खेल शुरू होगा। आज की स्थिति ही भविष्य का संकेत है। सरकारी मंडी, एफसीआई और न्यूनतम समर्थन मूल्य का ढांचा लगभग पूरी तरह बैठ चुका है। निजीकरण का एक जाना-पहचाना पूंजीवादी तरीका है। पहले सरकारी कंपनियों को भ्रष्टाचार और लूट का अड्डा बनाया जाता है। जब वे चरमराने-ढहने लगती हैं तथा जनता की नजरों में गिरने लगती हैं और पूरी तरह अक्षम तथा अलाभकारी एवं जनता की नजरों में बदनाम हो जाती हैं, तो फिर कहा जाता है कि सरकारी कंपनियां दक्ष नहीं होतीं। इसके मुकाबले निजी कंपनियों की दक्षता को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है जो कि गलत है। कोरोना महामारी के दौरान निजी अस्पतालों व ऑक्सीजन बनाने वाली निजी कंपनियों की दक्षता को लोगों ने देखा है। लोगों ने देखा कि ये किस तरह किसी बड़े संकट के वक्त न सिर्फ मुंह मोड़ लेते हैं, अपितु दक्षता में भी उपेक्षित सरकारी अस्पतालों और कंपनियों की तुलना पूरी तरह फिसड्डी हैं। यही चीज यूरोपीय देशों व अमेरिका तक में देखने का मिला। बीएसएनएल को खत्म करने और उसका निजीकरण करने का तरीका और भी घृणित है। उसके ही इन्फ्रास्ट्रक्चर, विधा व दक्षता के उपयोग कर के निजी मोबाइल कंपनियों बाजार में आगे बढ़ी और मालामाल हुयीं, यहां तक कि बीएसएनएल की सेवा को जानबूझ ध्वस्त करने के लिए इसके अधिकारियों को निजी मोबाइल कंपनियों के पे-रोल पर रखा गया और अंततः इसका ऐसा बुरा हस्र किया जैसा कि हम सबने देखा। यही हाल आज सरकारी तेल शोधक कंपनी ओएनजीसी का किया जा रहा है। मोदी सरकार ने इसे अपनी चरागाह बना लूट तथा कमाई का अड्डा बना दिया है और अब सरकार इसकी दक्षता व आधारभूत संरचना का फायदा निजी कंपनियों, जैसे कि अंबानी की कंपनियों को, देने पर आमादा है। इसके निजीकरण की घोषणा भी जल्द ही होने वाली है। सरकारी रक्षा उद्योगों का जबर्दस्ती निजीकरण किया जा रहा है और इसके कर्मचारियों के विरोध को दबाने के लिए ‘‘आवश्यक रक्षा सेवा कानून’’(इडीएसए) का उपयोग कर रही है। इसलिए सच्चाई यही है कि सरकारी मंडी और एफसीआई आदि का निजीकरण होना तय है। अनाजों के भंडारण की जिम्मेवारी को सरकार पहले ही अडानी को सौंप चुकी है। एफसीआई के गोदामों की आउटसोर्सिंग हो रही है। उनका निजीकरण हो रहा है। अडानी के गोदाम उठ खड़े हो रहे हैं। यही नहीं, अब तो किसानों के बदले निजी व्यापारी सरकार की मदद से फर्जी किसान बन रहे समर्थन मूल्य का फायदा भी डकार जा रहे हैं। सरकारी खरीद में हुई वृद्धि में इस फर्जीवाड़े की भूमिका है ऐसे खुलासे उत्तरप्रदेश में हो रहे हैं। गन्ने की पश्चिमी यूपी में ही नहीं पूरे देश में कहीं भी सही से बिक्री नहीं हो रही है, न ही घोषित दाम मिल रहे हैं। इसलिए इन क्षेत्रों के किसानों को वरगलाना मोदी सरकार के लिए आज टेढ़ी खीर हो गयी है। विपक्षी पार्टियों को भी किसानों के बीच की इस नयी चेतना का अहसास है। आने वाली विपक्षी सरकार को भी किसानों के आंदोलन का सामना करना पड़ेगा यह तय है, क्योंकि कॉर्पोरेटपक्षी कृषि कानूनों का वापस लेने की हिम्मत किसी विपक्षी पार्टी या उनके गठबंधन की सरकार के पास नहीं है। ये इजारेदार पूंजीपतियों के हितों को ठुकरा दें इनकी ऐसी कूवत नहीं है। किसान इन पर भरोसा कर के पछतायेंगे और किसानों में यह चेतना जल्द ही आएगी। इसलिए किसानों को यह बताना जरूरी है कि कृषि कानूनों को पूरी तरह पलटने के लिए और स्थायी खुशहाली के लिए स्वयं पूंजी की सत्ता को उखाड़ फेंकना और उसकी जगह सर्वहारा-मेहनतकश किसानों के राज्य की स्िापना करना क्यों जरूरी है।


किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी हासिल करना जीवन-मरण का सवाल बन चुका है, लेकिन उन्हें बताया जाना जरूरी है कि यह भी पूजीवादी राज्य की सीमाओं में संभव नहीं है। पूंजीवाद में इसकी पूर्ति संभव नहीं है। अगर ये उनके जीवन के वास्तविक मुद्दे हैं, जो कि हैं, तो इसका वास्तविक हल समाजवाद यानी सर्वहारा जनतंत्र में ही है।


धनी किसानों की आंदोलन में भागीदारी से आंदोलन को इतने लंबे समय तक चलाने के लिए जरूरी संसाधनों की कमी का सामना नहीं करना पड़ रहा है। इसके अंतिरिक्त सिख धर्म में लंगर की परंपरा के कारण भी लंबे समय तक हजारों लोगों के खाने व रहने-ठहरने की समस्या से निपटना आसान बना हुआ है। पंजाब, पश्चिमी यूपी तथा हरियाणा के किसान परिवारों से पुलिस तथा सैन्य बलों में बड़ी संख्या में नौजवान शामिल हैं। प्रत्येक घर से एक व्यक्ति का सेना में होना एक परंपरा बनी हुई है। इसलिए बड़े पैमाने पर दमन और खून-खराबा करने के पहले मोदी सरकार को सौ बार सोचना होगा।


भारत में पूंजीवादी शासन की रीढ़ व एक मजबूत अवलंब किसान समुदाय और उनकी हर प्रकार की पारंपरिक सोंच रही है। इसलिए किसानों से नाराजगी मोल लेना भी पूंजीवादी शासकों के लिए आसान नहीं है। भाजपा, आरएसएस तथा मोदी सरकार ने किसानों के दकियानुसी विचारों का बहुत हद तक वोटों के लिये उपयोग भी किया है, लेकिन कृषि कानूनों पर सरकार बुरी तरह फंस चुकी है और इनकी पोल-पट्टी खुल चुकी है। किसान कब तक अड़े रहेंगे कहना मुश्किल है, लेकिन उनके लिए पीछे हटना या मुड़ना भी फिलहाल नामुमकिन है। किसान स्वयं इसे पक्के तौर पर समझते हैं।


दूसरी तरफ, मोदी सरकार के लिए यह राहत की बात है कि देश के बाकी हिस्सों के किसान इन विकसित क्षेत्रों वाले किसानों की तुलना में कृषि कानूनों के प्रति उतने जागरूक नहीं हैं। लेकिन दिल्ली बॉर्डर पर बैठे किसानों के साथ इनकी सहानुभति और निष्क्रिय समर्थन में कोई कमी नहीं है, यह भी एक बड़ा तथ्य है जिसे किसी को नहीं भूलना चाहिए। आम शहरी का भी आंदोलन के प्रति समर्थन का भाव है। जिस तरह से एवं जिस तेजी से आम लोगों की जिंदगियां तबाही के कगार पहुंचती जा रही हैं उससे भी आंदोलन का समर्थन आधार बढ़ रहा है। सरकार से किसान आंदोलन का टकराव जितना अधिक तीव्र होगा दूसरे क्षेत्रों की आम जनता का समर्थन भी उतनी ही तेजी से बढ़ेगा। अनुकूल परिस्थितियों में या मोदी सरकार की किसी भारी गलती की वजह से आम जनता पूरे देश में सक्रिय हो जा सकती है। जैसे कि अगर सरकार भारी पैमाने पर दमन करेगी, तो इसकी प्रतिक्रिया पूरे देश के किसानों के बीच ही नहीं आम जनता के बीच भी होगी। इससे निष्क्रिय पड़ा समर्थन आधार भी सक्रिय हो जा सकता है। सरकार भी इसे लेकर किसी तरह के मुगालते या भ्रम में नहीं है। वह देख चुकी है कि इस आंदोलन को बदनाम करने की अब तक की सारी कोशिशें नाकाम रही हैं और इसलिए दमन उतारना भी संभव नहीं हो पा रहा है। किसानों के बीच फूट डालने में भी सरकार अब सफल नहीं हुई है।


किसी भी चीज की तरह किसान आंदोलन का भी एक गुरूत्व केंद्र या धुरी है जो पंजाब-हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश तथा दिल्ली से सटे अन्य प्रदेशों जैसे राजस्थान के दिल्ली से क्षेत्रों में स्थित है या उससे होकर जाती है। इसीलिए इन क्षेत्रों में आंदोलन में गहराई भी है और तीखापन भी। अनुकूल परिस्थितियों के संयोग से, जिनमें गहराता आर्थिक संकट और मजदूर वर्ग तथा आम लोगों की आसन्न तबाही मुख्य हैं, इसका पूरे देश में एक समग्र क्रांतिकारी जनउभार के रूप में तेजी से विस्तार हो सकता है। इसका मुख्य कारण इस लड़ाई में मौजूद कॉर्पोरेटविरोधी स्वर है जो पूरे देश के जनमानस का स्वर है। पूरे देश में यह समझा जाता है कि मोदी सराकर बड़े पूंजीपतियों, जिनके प्रतीक अडानी और अंबानी हैं, के लिए ही सब कुछ कर रही है। इसलिए यह आंदोलन कभी भी क्रांतिकारी जनउभार का स्वरूप ग्रहण कर सकता है।

जिन क्षेत्रों में पूंजीवादी विकास पहले हुआ है वहां एक दौर का पूंजीवादी विकास परिपक्व हो चुका है और उन क्षेत्रों में पूंजीवादी विकास का अंतर्विरोधी स्वरूप भी नग्न रूप में प्रकट हुआ है तथा इसके कारण सारे तरह के अंतर्विरोध सतह पर आ गये हैं जो आंदोलन को गहराई तथा तीखापन प्रदान कर रहे हैं। पूंजीवादी विकास के अगले दौर में किसानों के व्यापक तबके इसके विनाशकारी चपेट में आएंगे। इसे हम आंदोलन के सघन क्षेत्रों जैसे पंजाब में पूरी स्पष्टता से देख सकते हैं। धनी किसानों की भी कुल आबादी का व्यापक हिस्सा कर्जग्रस्तता के भंवर में बुरी तरह खींच आया है। यह आकस्मिक नहीं है। यह पूंजीवादी खेती की अतार्किकता के ही परिणाम हैं जिसकी पहली किस्त में गरीब व छोटे-मंझोले किसान तबाह हुए और अब दूसरी किस्त में धनी किसानों के बीच भी तबाही के मंजर देखे जा सकते हैं।


इसलिए किसान आंदोलन को करीब से जानने-समझने वाले लोग इस बात को मानेंगे कि नेतृत्व की राजनीतिक-वैचारिक दूरदृष्टि और इस आंदोलन की वास्तविक मंजिल तथा गतिकी को लेकर स्पष्ट समझ का प्रश्न ही आंदोलन में सर्वोपरि महत्व का प्रश्न है, न कि इसका क्षैतिज विस्तार। पहला प्रश्न हल होते ही इस आंदोलन का तीव्र क्षैतिज विकास होगा। जो लोग इस मूल कड़ी को नहीं समझते हैं वे न तो इस आंदोलन के वास्तविक महत्व को समझ सकेंगे और न ही इसकी अंतिम जीत के लिए जिन चीजों की जरूरत है उसकी पूर्ति हेतु किये जाने वाले कार्यों की ही पूरी स्पष्ट समझ बना सकते हैं।


धीरे-धीरे ही सही लेकिन कई भ्रम दूर हुए हैं और हो रहे हैं। जैसे, आंदोलन के नेतृत्व को ही नहीं कम्युनिस्ट जमातों को भी यह लग रहा था कि अन्य आंदोलनों की तरह ही यह एक और आम मामूली आंदोलन है और मोदी सरकार को ‘‘वोटों का डर’’ दिखाकर बाजी मार ली जाएगी। समय ने दिखा दिया है कि बात उतनी सरल व सीधी नहीं है। आंदोलन के मुद्दे, खासकर सभी फसलों के लिए और सभी किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी वाली मांग, जो वास्तव में कृषि कानूनों के विरोध शुरू होने के बाद में प्रकट हुई, कृषि के कॉर्पोरेटीकरण के रास्ते में बुनियादी अवरोध खड़े करती है, जबकि पूंजीवाद में आज इजारेदाराना विकास ही कृषि के दूसरे दौर के पूंजीवादी विकास की मुख्य दिशा है। हमने यथार्थ के पन्नों में शुरू से इस ओर इशारा किया है और यह साफ-साफ कहा है कि यह आंदोलन अपने अंतर्य में मामूली आंदोलन कतई नहीं है और यह पूंजीवाद के विश्वव्यापी आम संकट के जिस सूरतेहाल में हो रहा है उसके कारण शुरू से ही आंदोलन की आंतरिक गतिकी जाने-अनजाने पूंजीवादी व्यवस्था की सीमाओं से टकरा रही है, भले ही किसान और उनके नेता इसे नहीं समझ या देख पा रहे हों। इसलिए इसका तात्कालिक या बीच का कोई हल नहीं निकल पा रहा है, जबकि मोदी सरकार को वोटो के क्षरण के रूप में इसका बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। मौजूदा किसान आंदोलन की इस आंतरिक गति को समझे बिना हम आंदोलन की अग्रगति में आने वाली बाधा को दूर नहीं रक सकते हैं। अन्यथा आंदोलन की असफलता के लिए हम इसमें शामिल बुर्जुआ नेताओं को ही जिम्मेवार ठहराकर या फिर इसमें नेतृत्व के स्थान पर काबिज धनी किसानों के मत्थे इसका ठीकरा फोड़ के ही हमें अपने कार्यभारों की इतिश्री मान लेना होगा।
इस आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता इस बात में निहित है कि इसने सघन क्षेत्रों में आम किसानों की भावना व सोंच को कॉर्पोरेट और मोदी सरकार के खिलाफ मोड़ दिया है। आंदोलन के सघन क्षे़त्रों में आम किसान मोदी सरकार के खिलाफ गुस्से से भरे हैं और कॉर्पोरेट पूंजीपति वर्ग के भारतीय प्रतीक अडानी व अंबानी को अपना दुश्मन मानते हैं। भाजपा सरकार तथा भाजपा नेताओं के साथ आम किसानों का टकराव, खासकर पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश में काफी बढ़ा है। पंजाब तथा हरियाणा में तो गांव-गांव में जन भावना भाजपा के खिलाफ हो गयी है। आगामी चुनावों में इसका असर पड़ना लाजिमी है। आंदोलन की इस गहराई ने पूरे देश की जनभावना पर भी असर डाला है और कॉर्पोरेट और मोदी सरकार दोनों के प्रति जनसाधाण की भावना को इसने काफी कुछ बदला है। उदाहरण के लिए, जब से खाद्य पदार्थों, खासकर दाल व तेलों की कीमतों में अंबानी तथा अडानी जैसे इजारेदार पूंजीपतियों के द्वारा की जा रही सट्टेबाजी के कारण (अन्य कारण सहित) उछाल आया है, उसके बाद से आम लोगों को भी यह बात समझ में आने लगी है कि अगर खेती व कृषि उपजों पर इजारेदार पूंजीपतियों का पूर्ण एकाधिकार व कब्जा हो जाएगा तो गरीबों व कम आय वाले लोगों की स्थिति अत्यंत दर्दनाक हो जाएगी। लोग यह समझने लगे हैं कि इजारेदार बड़े पूंजीपति किसानों से सस्ता खरीदेंगे और फिर महंगा बेचेंगे। मोदी कृषि कानूनों के जो फायदे गिनाने की कोशिश कर रहे हैं, उस पर न तो किसानों को भरोसा है और न ही आम लोगों को। जाहिर है, इसमें इस आंदोलन की एक बड़ी भूमिका है।


किसानों के अलग-अलग तबकों पर इस आंदोलन के कारण पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में आंदोलन की गहराई की बात करें, तो हम पाते हैं कि सभी संस्तर के किसानों की भावना कॉर्पोरेट के खिलाफ एकजुट हुई है। मध्यम व धनी किसान भी भाजपा से बड़े पैमाने पर दूर हुए हैं। जिन मध्य तथा बड़े या धनी किसानों को यह उम्मीद थी कि मोदी सरकार दौड़कर उन्हें मनाने आयेगी और हमारी मांग मान लेगी वे सभी आज इस बात पर सहमत दिखते हैं कि मोदी सरकार की चाभी पूरी तरह इजारेदार पूंजीपति वर्ग के कब्जे में है और देश में परदे के पीछे से इन्हीं की सरकार और व्यवस्था चल रही है। इस तरह किसानों की चेतना में पूंजीवाद विरोधी स्वर आने के रास्ते खुले हैं। उन्हें साफ दिखता है कि संसद तथा बाकी संस्थायें बस कॉर्पोरेट की इच्छा पर मुहर लगाने वाली संस्थायें बन कर रह गई हैं। राकेश टिकैत के इन शब्दों में धनी व मध्यम किसान तबकों का गुस्सा और दर्द दोनों एक साथ व्यक्त होता है – ‘‘यह भाजपा की नहीं मोदी की सरकार है और इसे कंपनियां चला रही हैं। अगर भाजपा की सरकार होती तो अब तक वार्ता हो जाती और समझौता हो जाता।’’ अप्रत्याशित महंगाई भी आम व्यापक किसानों की माली हालत खराब कर रही है और वे खुलकर मोदी सरकार से बदला लेने की बातें करते हैं।

पूंजीवाद का आम संकट किसान आंदोलन को अंदर और बाहर दोनों तरफ से प्रभावित व त्वरित कर रहा है। इजारेदार पूंजीपति वर्ग के हित मोदी सरकार को कदम पीछे हटाने नहीं दे रहे। मोदी सरकार, भाजपा तथा आरएसएस की दिक्कत यह है कि आज धनी किसान उनके अपने नहीं पराये की तरह व्यवहार कर रहे हैं। किसान भी मोदी सरकार के बारे में ऐसा ही सोंचते हैं। आज ये किसान मोदी सरकार की चिकनी-चुपड़ी बातों तथा छोटे-मोटे लॉली पॉप के प्रलोभन में नहीं आ रहे। अगर मोदी सरकार किसान आंदोलन को निपटने में कोई बड़ी गलती करती है, तो इस बार धनी-मध्यम किसानों सहित पूरे किसान समुदाय का पूंजीपति वर्ग के साथ लंबे समय के लिए, संभवतः हमेशा के लिए भी, सौहार्द बिगड़ सकता है। दोनों के बीच एक गहरी खाई बन जा सकती है। आंदोलन और सरकार जहां अटके पड़े हैं वहां से कोई भी पीछे नहीं हट सकता है। इसका इधर या उधर कोई रास्ता नहीं है। दूसरी तरफ, आंदोलन से गद्दारी करने वाले नेताओं को सबक सिखाने के लिए किसान चाबुक लिए बैठे हैं।


फिर भी, आंदोलन की दिशा का सवाल अनुत्तरित है और अनुत्तरित ही रहेगा जब तक कि मजदूर वर्ग की ताकतों की इस आंदोलन में हस्तक्षेप के महत्वपूर्ण सवाल पर कोई समझ स्पष्ट नहीं बन जाती है। हमारा स्पष्ट मानना है कि आज तात्कालिक मांग जैसी दिखने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग भी पूंजीवाद की सीमा में प्राप्त नहीं हो सकती है। हम देख रहे हैं कि इसकी महज स्वीकृति देने में भी सरकार अक्षम है। किसान परेशान हैं, तो नेतागण आगे के रास्ते के बारे में अनभिज्ञ हैं। वहीं किसान पीछे हटने की बात तो दूर वे नेताओं से आंदोलन को तेज करने की रणनीति की मांग कर रहे हैं। वे पूछ रहे हैं कि ‘‘किसान संसद’’ के आगे का क्या प्लान है। यहां स्पष्ट है कि आंदोलन दिशा के सवाल पर अटक गया है। किसानों का अपनी मांगों के प्रति पूर्ण समर्पण है, लेकिन नेतागण इसके लिए आंदोलन को इसके अंतिम ठौर तक ले जाने के लिए तैयार हैं या नहीं यही मुख्य प्रश्न है। यह प्रश्न अभी तक हल नहीं हुआ है और इसीलिए इसका निदान टुकड़ों में अन्य वर्गों को इस आंदोलन के साथ जोड़ने की कवायद में खोजा जाता है। सवाल है, आखिर मजदूर वर्ग इस आंदोलन को अपना आंदोलन क्यों मानेगा अगर यह पूंजीवाद विरोधी रास्ता नहीं अख्तियार करता है। किसानों की मुक्ति के सवाल को पूंजीवाद के खात्मे की राजनीति के साथ जोड़े बगैर, यानी इसे मानवजाति का मुक्ति अभियान बनाये बगैर, जिसके बारे में किसान नेता अक्सर बोलते भी रहते हैं, मजदूर वर्ग की खुली भागीदारी इसमें नहीं होने वाली है। श्रमकोड को हटाने की मांग को किसान आंदोलन की मांगों की लिस्ट में जोड़ देने से या पोस्टरों पर उसे अंतिक कर देने से मजदूर वर्ग की विशाल आबादी की मुक्ति की आकांक्षा और भावना इससे नहीं जुडेगी। इसमें मजदूर वर्ग की ताकतों को लुका-छिपी का खेल नहीं खेलना चाहिए। समाजवादी क्रांति को देश की क्रांति का स्टेज मानने वाले ग्रुपों के बीच यह खूब देखा जा रहा है। इस पर खुलकर बिरादराना बहस की जानी चाहिए।


जारी किसान आंदोलन में किसानों की पूर्ण मुक्ति का सवाल : कुछ अधूरे पड़े कार्यनीतिक सवाल व कार्यभार


किसान आंदोलन में मजदूर वर्गीय दृष्टि से समर्थन या हस्तक्षेप करने को अनिवार्य मानने वाली क्रांतिकारी शक्तियों के बीच इस बात की आम स्वीकृति है कि ‘भारत के वर्तमान कृषि संकट का खासकर छोटी-मंझोली किसानी की तबाही का पूंजीवाद के भीतर कोई हल नहीं है’, वहीं इस आंदोलन में शामिल व नेतृत्व के स्थान पर काबिज धनी किसानों के साथ हमारा क्या रवैया होगा इस पर किसी तरह की स्पष्ट कार्यनीति का अभाव है। वे इस आंदोलन में इतना बढ़-चढ़कर क्यों शामिल हैं, इसके क्या निहितार्थ हैं तथा इसके क्या परिणाम होंगे, और इस आकलन के आधार पर मजदूर वर्ग की मौजूदा किसान आंदोलन में ठोस युद्धनीति क्या होगी तथा पूरे किसान आंदोलन के समक्ष इससे जुड़ा मुख्य क्रांतिकारी नारा क्या होगा, इन सब बातों को लेकर, जो समग्रता में इस आंदोलन के प्रति हमारी पहुंच व हस्तक्षेप को आकार देता है, उसमें बारीक ही सही लेकिन स्पष्ट मतभेद दिखते हैं। इसके कारण संयुक्त पहल का अभाव भी साफ दिखता है। शायद यही कारण है कि समाजवादी क्रांति मानने वाला कोई भी ग्रुप किसान आंदोलन में अभी तक कोई ज्यादा कारगर हस्तक्षेप नहीं कर पाया है।

कुछ ग्रुप धनी किसानों और उनकी प्रमुख मांग समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग पर साफ-साफ अपना स्टैंड रखे बगैर ही आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, तो कुछ लोग यह मानते हुए भी कि समर्थन मूल्य का सवाल मुख्यतः धनी किसानों की मांग है जिससे छोटे-गरीब किसान कतई लाभान्वित नहीं होंगे समर्थन मूल्य का समर्थन करते हुए आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं। कुछ लोग समर्थन मूल्य का विरोध करते हैं लेकिन आंदोलन का समर्थन करते हैं। ये किसानों के बीच, जैसे दिल्ली के बॉर्डरों पर प्रचार करने जाते हैं तो समर्थन मूल्य के सवाल पर चुप्पी साध लेते हैं। शायद उन्हें डर है कि समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी का समर्थन नहीं करेंगे या इसका विरोध करेंगे तो किसान नाराज हो जाएंगे और उनकी बात नहीं सुनेंगे।


यहां स्पष्ट दिखता है कि धनी किसानों के इस आंदोलन में शामिल होने से समाजवादी क्रांति मानने वाले गु्रपों में एक अजीबोगरीब उलझन की स्थिति व्याप्त है। यहां तक हम सभी के विचारों में समानता है कि धनी किसान के साथ मजदूर वर्ग का संश्रय कायम नहीं हो सकता है, लेकिन इस आंदोलन में शामिल धनी किसानों के कारण उलझन की स्थिति से निपटा कैसे जाए इस पर मतभेद है। धनी किसानों का सवाल हमारे लिए एक कार्यनीतिक मसला है लेकिन इस पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है और परिणाम स्वरूप गोल-मटोल बातें करके इस प्रश्न से बच निकलने की कोशिश की जाती है, जबकि जरूरत इस पर साफगोई से बात करने की है।
एक ग्रुप लिखता है –


‘‘इनके (बड़े पूंजीपति और इनकी चाकर मोदी सरकार – लेखक के द्वारा जोड़ा गया वाक्यांश) इस बेलगाम हमले के कारण खेती किसानी के धनी-मानी लोग यानी धनी किसान और पूंजीवादी फार्मर भी बौखला गये हैं। बड़ी कॉरपोरेट पूंजी के सामने इनकी वास्तव में कोई औकात नहीं है। किसी धीमी प्रक्रिया के तहत ये खेती में कारपोरेट पूंजी के साथ कोई सामंजस्य बैठा लेते -उसके स्िानीय एजेट बन जाते या फिर उसके ‘वैल्यू चेन’ का हिस्सा बन जाते। पर अभी उन्हें दिख रहा है कि बड़ी पूंजी उनकी परवाह नहीं करने वाली। इसलिए वे विरोध पर उतर आये हैं। किसानों के विरोध प्रदर्शनों में यही आगे-आगे हैं। इन्हीं के कारण अकाली दल और कांग्रेस पार्टी को भी किसानों के साथ सड़क पर उतरना पड़ रहा है। समय के साथ धनी किसान और पूंजीवादी फार्मर कार्पोरेट पूंजी के साथ सामंजस्य बैठायेंगे, यह अलग बात है कि इनका एक अच्छा-खासा हिस्सा बर्बादी की चपेट में आयेगा।’’ (सर्वहारा प्रकाशन की पुस्तिका ’’खेती किसानी का संकट और उसका समाधान’’ की भूमिका से उद्धृत)


हम यहां देख सकते हैं कि धनी किसानों पर बात करते हुए काफी उलझन और संशय है। यह कहना कि कॉर्पोरेट पूंजी के साथ सामंजस्य बैठाने के बाद भी धनी किसानों का ‘‘एक अच्छा-खासा हिस्सा बर्बादी की चपेट में आयेगा’ अंतर्विरोधों से भरा है। दूसरी तरफ यहां बर्बादी के लिए अभिशप्त धनी किसानों के उक्त अच्छे-खासे हिस्से के बारे में कोई कार्यनीतिक बात नहीं की गई है। इस ग्रुप के अन्य प्रकाशनों में भी धनी किसानों की संकटग्रस्त स्थिति पर चर्चा की गई है एवं आंकड़े दिये गये हैं और बड़े पूंजीपति वर्ग द्वारा किये जा रहे इन बड़े हमलों से इनके ‘‘भौंचक होने‘‘ की बात भी स्वीकार की गई है, लेकिन उनमें भी इनके प्रति ली जाने वाली कार्यनीति पर कुछ नहीं बोला गया है।
हम सभी यह भी स्वीकार करते हैं कि समर्थन मूल्य की मांग प्रथमतः अपने प्रारंभिक रूप में धनी किसानों की मांग है क्योंकि वे ही अब तक इनसे लाभान्वित होते आये हैं। बेशी उत्पादन धनी किसान ही सबसे अधिक करते हैं इसलिए समर्थन मूल्य की मांग मूलतः उन्हीं के हित में है। लेकिन दूसरी तरफ इसी पुस्तिका में न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी का कुछ शर्तो के साथ (सभी छोटे-मंझोले किसानों की सभी फसलों व उपजों की सरकारी खरीद सुनिश्चित करने और शहरी व ग्रामीण गरीब लोगों की खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था की गारंटी करने की शर्तों के साथ) समर्थन किया गया है। हम पाते हैं कि यहां से यह पुस्तिका किसान आंदोलन के क्रांतिकरण की दिशा से हट कर सुधारवाद की दिशा में मुड़ जाती है। उक्त सुधारवादी सोच का आधार यह है कि सरकार समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी, यानी सभी किसानों की सभी फसलों की खरीद की गारंटी के लिए जरूरी विशाल धन राशि की व्यवस्था कर सकती है। पुस्तिका में कहा गया है कि मोदी सरकार बड़े तथा इजारेदार पूंजीपतियों के मुनाफे पर हाथ डाल कर ये काम आसानी से कर सकती है। हमारी नजर में यह बात और इस पर आधारित निष्कर्ष ऐतिहासिक किसान आंदोलन को सुधारवादी मांगों तक सीमित कर देता है।


कोई कह सकता है कि इसके लिए दबाव क्यों नहीं बनाया जा सकता है, जबकि इससे सरकार और व्यवस्था को इससे एक्सपोज करने में मदद मिलेगी! यह ठीक बात है। लेकिन जब हम यह मान लेते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग पूंजीवाद में माना जा सकता है तो फिर इसके बाद यही बचता है कि हम सरकार से इसे मांगने के लिए दवाब बनायें। इस तरह इसका प्रस्तुतीकरण सुधारवाद की तरफ मुड़ जाता है। यह चीज किसान आंदोलन को सुधारवादी मांगों तक सीमित करती है, न कि इसका क्रांतिकारीकरण करता है, जबकि सतत गहराता आर्थिक संकट व इससे जनित अत्यंत बेहद जनविरोधी परिस्थितियों में समर्थन मूल्य की गारंटी की मांग जैसी सुधारवादी मांगों के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। पुस्तिका में लिखा गया है कि –


‘‘जहां तक तात्कालिक राहत की बात है, सरकार द्वारा बड़ी पूंजी की ओर से किसानों पर इस हमले का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए। यह मांग की जानी चाहिए कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की (सभी फसलों के लिए) कानूनी गारंटी करे। छोटे-मंझोले किसानों की उपज की सरकारी खरीद हो। इसके साथ उपभोक्ताओं (खासकर मजदूर वर्ग) पर इसका बोझ नहीं पड़े इसलिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को और मजबूत बनाया जाये तथा इसे सार्विक किया जाए। इस सबके लिए धन जुटाने के लिए सरकार द्वारा बड़ी पूंजी पर लुटायी जा रही दौलत पर रोक लगायी जाये तथा उल्टे उस पर और कर लगाया जाये। …वैसे यह उतना मुश्किल काम भी नहीं है। ….सरकार पिछले सालों में बड़े पूंजीपतियों को सालाना पांच-छः करोड़ रूपये की करों छूट देती रही है। इसके अलावा निर्यात प्रोत्साहन से लेकर अन्य प्रोत्साहन भी बड़े पूंजीपति वर्ग की जेब में लाखों-करोड़ रूपये डालते रहे हैं। इन्हें बद कर के आसानी से किसानों व गरीब जनता को राहत देने के लिए पैसे जुटाये जा सकते हैं।’’ (पृष्ठ 29, वही)


तात्कालिक राहत की बात करते हुए जो ऊपर कहा गया है उससे हमारा विरोध नहीं है, लेकिन इसके प्रस्तुतीकरण का प्रश्न यहां भी दिक्कत पैदा कर रहा है, क्योंकि इससे यहां मुख्य नारा मोदी सरकार पर कुछ सुधारवादी कदमों के लिए दबाव बनाने तक सीमित होता है। इसके बाद इस आंदोलन का समर्थन करना हमारा मुख्य काम रह जाएगा, ताकि सरकार इस मांग को पूरा कर दे।


ऐसा प्रस्तुतीकरण अन्य कारणों से भी सही नहीं है। सभी किसानों की सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी अर्थात एक तरह से सरकारी खरीद की गारंटी तथा साथ में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्विक बनाने के लिए जितनी विशाल धनराशि चाहिए उसकी उपलब्धता सुनिनिश्चत करने हेतु मोदी सरकार बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे पर हाथ डाल ही नहीं सकती है। यह कहना कि मोदी सराकर बड़े पूंजीपतियों पर वार कर सकती है अनाड़ीपन ही है। पुस्तिका में व्यक्त भरोसे का आधार क्या है, इसे बताया जाना चाहिए था, क्योंकि मौजूदा परिस्थितियों में यह भरोसा आश्चर्य पैदा करता है और एक ऐतिहासिक आंदोलन को सुधारवाद के दलदल में फंसाता है।


ऐसा प्रस्तुतीकरण करते हुए जब यह कहा जाता है कि कृषि संकट व किसानों की दुर्दशा का दूरगामी हल समाजवाद और सामुहिक खेती में है, तो यहां तात्कालिक और दूरगामी दोनों अलग-अलग खड़े दिखाई देते हैं और दोनों में स्वाभाविक कनेक्ट स्थापित होता नहीं दिखता है। किसानों की दुर्दशा के हल के लिए समर्थन मूल्य की काननी गारंटी करने हेतु मोदी सरकार कॉर्पोरेट के सुपर मुनाफे के हितों के खिलाफ जा सकती है इसमें किसी भी व्यक्ति को आश्चर्य ही हो सकता है। हम अपने पिछले अंकों में यह लिख चुके हैं कि समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी किसानों की बदहाली का तात्कालिक हल भी क्यों नहीं है।


पुस्तिका जैसे ही दूरगामी लक्ष्य की विवेचना की ओर मुड़ती है इसे हर दूसरी सांस में या हर दूसरी पंक्ति में धनी किसानों को अन्य किसान तबकों के दुश्मन के रूप में चित्रित करना पड़ता है। सवाल है, जब आंदोलन में शामिल धनी किसान शोषणकर्ता और दुश्मन है और समर्थन मूल्य मुख्य रूप से उसी की मांग है, और वे बर्बाद होकर भी इजारेदार पूंजी के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए अभिशप्त हैं, तो फिर इस आंदोलन के समर्थन की नीति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है, क्योंकि ये धनी किसान तो आंदोलन के नेतृत्व में भी हैं। तब तो समर्थन के बजाय हमें आंदोलन से सीधे-साधे मांग करनी चाहिए कि धनी किसानों को पहले निकाल बाहर करो, तभी हम समर्थन करेंगे। तब इस स्थिति से बचने के लिए कुछ शर्तों के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग का समर्थन किया गया है जबकि यह आश्चर्यजनक बात भी पूरे भरोसे से कह दी गई है कि मोदी सरकार कॉर्पोरेट के मुनाफे पर हाथ डाल सकती है।


इस उलझन का क्या नतीजा हो सकता है? यही कि हम किसान आंदोलन में या तो खुलेआम धनी किसानों की आलोचना करें या फिर उसकी आलोचना अपने मंचों या पुस्तिकाओं तक सीमित रखें। पहले की वजह से हम पर आंदोलन में फूट डालने का आरोप लगेगा, और दूसरे से अवसरवादी व्यवहार करने का। अगर हम इनके मंचों पर धनी किसानों की आलोचना पर चुप्पी साध लेते हैं और अपने मंचों से इन्हें ग्रामीण आबादी का दुश्मन प्रचारित करते हैं तो जाहिर है कि हम पर दोहरे आचरण और अवसरवाद का आरोप लगेगा।
इसी तरह, जब कुछ लोग न्यूनतम समर्थन मूल्य का विरोध करते हुए भी इस पर चुप्पी साधते हुए तीन कृषि कानूनों के विरूद्ध आंदोलन का समर्थन करते हैं, तो यह भी एक तरह का अवसरवाद है।


इसलिए जो ग्रुप समाजवादी क्रांति को भारत में क्रांति का स्टेज मानते हैं और इस कारण जिनके लिए धनी किसानों का विरोध करना एक पवित्र नियम की भांति लाजिमी हो जाता है उनके लिए बहुधा इस आंदोलन का समर्थन करते हुए क्रांतिकारी नारे पेश करने में स्वाभाविक रूप से दिक्कत हो रही है। यह एक बंधे-बंधाये फ्रेम में अपने को कस लेना है और कार्यनीतिक रूप से दरिद्रता का प्रदर्शन करना भी है। आम तौर पर इस आंदोलन में शामिल धनी किसानों से जुड़े कार्यनीतिक सवालों से कन्नी काट लिया जा रहा है।


सवाल है, पूरे आंदोलन के लिए तात्कालिक मांग से दूरगामी से मिलाते एक समग्र क्रांतिकारी नारा कैसे दिया जाए? इसका हल निकाले बगैर धनी किसानों को वास्तव में अलग-थलग कर पाने की नीति का अनुसरण करना मुश्किल है। मुख्य प्रश्न है कि क्या हम कोई ऐसी कार्यनीति बना सकते हैं जिससे फिलहाल आंदोलन में बिना फूट डाले ही गरीब किसानों से अपने संश्रय की दिशा में आगे बढ़ने में हम सक्षम हो सकते हों, समाजवादी तथा सामूहिक कृषि कार्यक्रम पेश कर सकते हों तथा प्रकारांतर में गरीब किसान तथा मजदूर वर्ग के वैचारिक व राजनीतिक नेतृत्व से धनी किसानों के नेतृत्व को प्रतिस्थापित भी कर सकते हैं? हमारी समझ से ऐसा कार्यनीति बनाना संभव है और इस पर हमें खुले मन से चर्चा करनी चाहिए।


हमारी समझ : चंद मुख्य बिंदु


हमारे अनुसार, भारत का कृषि संकट इतना गहरा है और व्यापक किसान तबकों की बद से बदतर होती आर्थिक स्थिति इतनी अधिक अनमनीय हैं तथा छोटे-गरीब व निम्नमध्यम किसान ही नहीं, मंध्य किसानों सहित धनी किसानों के एक तबके की आर्थिक स्थिति पहले की तुलना में इस कदर डांवाडोल हो चुकी है कि वे चाहकर भी शांत नहीं बैठ सकते या आंदोलन वापस नहीं ले सकते। दूसरी तरफ, इस आंदोलन में मध्यम व धनी किसानों के शामिल हो जाने से बड़े पूंजीपति वर्ग और मोदी सरकार को इससे दमन के सहारे निपटने में नहीं बन रहा है, लेकिन सार्थक वार्ता भी होने की गुंजायश नहीं है, क्योंकि पीछे हटने का रास्ता किसानों के सामने नहीं है तो सरकार के पास भी नहीं है।
धनी किसानों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति ग्रामीण सर्वहाराओं तथा अर्ध-सर्वहाराओं के प्रत्यक्ष शोषण तथा निम्न मध्यवर्ती किसान तबकों के अप्रत्यक्ष शोषण पर टिका है। इस अर्थ में वे ग्रामीण इलाके के शोषणकर्ता रहे हैं और हैं। ग्रामीण भारत में समाजवादी क्रांति के ये मुख्य निशाने हैं, क्योंकि सर्वहारा राज्य और समाजवादी कृषि कार्यक्रम के ये ही सबसे प्रबल विरोधी रहे हैं और हैं। लेकिन दूसरी तरफ, यह भी एक अकाट्य तथ्य है कि धनी किसानों का एक अच्छा खासा हिस्सा व मध्य किसानों का ऊपरी संस्तर मोदी सरकार से नाराज है और बाकी किसान तबकों के साथ सुर में सुर मिलाकर कृषि कानूनों तथा कॉर्पोरेट का विरोध कर रहा है, और आंदोलन में अभी तक पूरी मुस्तैती से शामिल है। इसका अर्थ यह है कि वर्तमान परिस्थिति में इनको लेकरं कुछ नये और महत्वपूर्ण कार्यनीतिक सवाल खड़े हो गये हैं जिनसे कन्नी काटना मुश्किल है क्योंकि इससे किसान आंदोलन में मजदूर वर्गीय नजरिये से समग्रता में कारगर हस्तक्षेप करने में कठिनाई होगी और हो रही हैं।


जरा सोचिए, आखिर क्या वजह है कि धनी किसानों से अब तक मोदी सरकार का समझौता नहीं हुआ है जबकि आंदोलन के 8 महीने पूरे हो गये हैं? इसकी वजह आर्थिक संकट के कारण और इसके परिप्रेक्ष्य में इजारेदार पूंजी का दिन-प्रति-दिन खुंखार एवं हमलावर होता जा रहा व्यवहार है। पूंजीवादी व्यवस्था का आम संकट इतना गहरा है और भारत की अर्थव्यवस्था इतनी अस्थिर हो चुकी है कि बड़ा पूंजीपति वर्ग और उसकी लठैत मोदी सरकार को धनी किसानों के साथ मोल-भाव कर उनके साथ शांति-समझौता करने का अवसर भी प्राप्त नहीं हो पा रहा है। मोलभाव के लिए सरकार को किसानों को कुछ तो भाव देना पड़ेगा, लेकिन इसकी परिस्थिति नहीं है। धनी किसानों का अच्छा खासा हिस्सा कर्जग्रस्त है और पूंजीवादी बाजार की दगाबाजी से भी ये पूर्व परिचित हैं, इसलिए वे न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी के बिना कोई मोलभाव करने को तैयार नहीं हैं। वे चाहते हैं कि सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन की गारंटी भी मिल जाए और इसी के माध्यम से कृषि कानूनों से भी पिंड छुट जाए। लेकिन मोदी सरकार समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी कर नहीं सकती है क्योंकि तब कृषि कानूनों में निहित मुख्य उद्देश्य – इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा कृषि उत्पादों को सस्ता खरीदने और महंगा बेचने का केंद्रीय उद्देश्य – पूरा नहीं होता है। यह भी विचारनीय है कि मोदी सरकार अगर इजारेदार पूंजीपतियों की इस मांग को पूरा नहीं कर सकती तो फिर वे इसे दुध में पड़ी मक्खी की तरह उठाकर फेंक देंगे।
छोटे-मंझोले किसानों, खासकर छोटे व गरीब किसानों को तो समर्थन मूल्य की गारंटी वास्तव में मिल जाए तो भी उसे इससे कुछ ऐसा हासिल नहीं होने वाला है जिससे उसे कुछ तत्काल राहत भी मिल सके। ये छोटे गरीब किसान बेशी उत्पादन ही नहीं करते हैं, तो समर्थन मूल्य से इन्हें आखिर कितना लाभ मिल पायेगा! सरकार भी इन्हें कोई भाव देने वाली नहीं है। इनकी तो तत्काल मुक्ति का सवाल भी एकमात्र समाजवाद में ही हल होने वाला है। नये कृषि कानूनों के तहत खेती में पूंजीवादी विकास के अगले दौर में, जिसमें कृषि पर कॉर्पोरेट कंपनियों का कब्जा होना तय है, इनका पूरी तरह बर्बाद होना तय है। वहीं यह भी स्पष्ट है कि धनी किसान अपने अस्तित्व पर मंडराते संकट को देखते हुए छोटे-मोटे स्तर के लेन-देन से मानने को तैयार नहीं हैं।


इसे पुनः दुहराना जरूरी है कि धनी किसानों की मुख्य मांग पहले से मिल रहा समर्थन मूल्य नहीं, कानूनी गारंटी वाला समर्थन मूल्य है, क्योंकि वे यह समझ चुके हैं कि कृषि कानूनों में निहित खतरों का काट इसी मांग में है। कृषि कानूनों से मंडी और समर्थन मूल्य ही हैं जो खतरे में आते है।ं इसलिए भी वे कृषि काननों के खिलाफ मजबूती से खड़े हैं। दूसरी तरफ, अगर सरकार सभी फसलों पर और सभी किसानों के लिए समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग मान लेती है तो कृषि कानूनों का उद्देश्य ऐसे ही परास्त हो जाता है जिसे इजारेदार पूंजीपति कभी स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन ये सभी काल्पनिक बाते हैं क्योंकि समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग सरकार मानेगी इसकी संभावना न के बराबर है। मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल लगभग सभी लोग व ग्रुप इस बात से सहमत हैं कि सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन की कानूनी गारंटी और साथ में सार्वजनिक वितरण को भी सार्विक बनाने तथा पहले से और ज्यादा कारगर बनाने के लिए बहुत बड़ी विशाल धनराशि की जरूरत होगी और यह बड़े पूंजीपति वर्ग के मुनाफे पर हाथ डाले बिना संभव नहीं है। हमारा मानना है कि आज के दौर के इजारेदार पूंजीवाद और उसकी तावेदार किसी भी सरकार के लिए यह संभव नहीं है। सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग सरकार टेक्टिकली यानी दबाव की वजह से मान भी ले तब भी इसे लागू करने के लिए जरूरी विशाल धन राशि के लिए बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे पर हाथ नहीं डाल सकती। इसकी उम्मीद करना अनाड़ी बनना होगा। इसलिए इस मांग का माना जाना ज्यादा से ज्यादा एक और जुमला साबित होगा।


इसीलिए हम यह शुरू से कहते आ रहे हैं कि यह मांग दरअसल घुमाफिराकर सभी फसलों की सरकारी खरीद की गारंटी की मांग है जिसे मानना पूंजीवादी राज्य के लिए बिल्कुल ही संभव नहीं है। 8 महीने के बाद स्वयं किसान यह समझने लगे हैं। दूसरे शब्दों में, यह मांग ऐसी मांग है जो पूंजीवादी व्यवस्था की सीमा में रहते हुए मानी और लागू की ही नहीं जा सकती है और अगर किसान इस पर अंत तक अड़ते हैं जो कि उनकी आवश्यकता है तो फिर आंदोलन का पूंजीवाद की सीमा से टकराना अवश्यंभावी है।


धनी किसानों को भी पता है कि हवा का रूख किस दिशा में है और वे अपने अनुभव से यह मानने लगे हैं कि यह मांग मानी जाने वाली मांग नहीं है। दूसरी तरफ, वे यह भी समझते हैं कि कॉर्पोरेट के एकाधिकार की स्थिति में उनकी स्थिति दयनीय हो जाएगी तथा आज वे ग्रामीण गरीबों का शोषण करके भी अपनी वर्तमान आर्थिक स्थिति को कायम नहीं सकते है या और इसे और ज्यादा सुदृढ़ नहीं बना सकते हैं। उसके सामने एक तरफ मजदूर वर्ग का समाजवाद है, जिसे वह नापसंद करता है या घृणा करता है, वहीं दूसरी तरफ इजारेदार पूंजीपति है और उसकी सरकार है जिसके खिलाफ वे आंदोलनरत हैं। दोनों ही स्थितियां एवं विकल्प उनके लिए फिलहाल अमान्य हैं। वहीं, इजारेदार पूंजीपति वर्ग के वर्चस्व के तहत अंततोगत्वा न तो उनकी हैसियत बचने वाली है और न ही प्रतिष्ठा या गरिमामय जीवन। लेकिन मजदूर वर्ग के समाजवाद में वह प्रतिष्ठा और गरिमा से जी सकता है अगर वह शोषण करना बद कर दे और अपने श्रम पर जिंदा रहना शुरू कर दे। यानी, उसके वर्तमान शोषक स्वरूप का अंत हर हाल में निश्चित है और उसका भविष्य मजदूर वर्ग के साथ खड़ा होने में ही है। लेकिन यह आज की बात नहीं है। आज उनसे मजदूर वर्ग के साथ खड़ा होने की उम्मीद करना वेवकूफी होगी। फिलहाल उसके लिए एक तरफ कुंआ तो दूसरी तरफ खाई है। इसलिए इस वर्ग के आगे की नियति एक तरफ मजदूर वर्ग की ताकतों के उठान पर तो दूसरी तरफ सतत आर्थिक संकट झेल रहे पूंजीपति वर्ग के मुनाफे में आने वाली गिरावट और उसके फलस्वरूस्प सभी दरमियानी वर्गों की तबाही पर निर्भर करती है। अगर आर्थिक संकट और गहराता है और पूंजीपति वर्ग का कॉर्पोरेट तबका हमला और तेज करता है तो इसका कुप्रभाव धनी तबके पर भी पड़ेगा और वे तेजी से दयनीयता की स्थिति में जाने को बाध्य होंगे।


ऐसे में, क्या मजदूर वर्ग का हित इसमें है कि ये धनी किसान फिलहाल आंदोलन में बने रहें? हमारा मानना है कि हां इनका आंदोलन में फिलहाल बना रहना मजदूर वर्ग के फायदे में है। मजदूर वर्ग का तात्कालिक हित इसमें है कि वर्तमान आंदोलन में फिलहाल कोई फूट न पड़े। लेकिन यह फायदा हम तभी उठा सकते हैं जब मजदूर वर्ग की ताकतें इस आंदोलन में किसानों का पिछलग्गू बनने के बजाय वैचारिक व राजनीतिक तौर पर किसानों के समक्ष समाज की नेतृत्वकारी शक्ति एवं भावी शासक वर्ग के रूप में पेश आयें तथा पूरे आंदोलनरत किसान समुदाय के समक्ष उनकी मुक्ति के सवाल पर साफगोई के साथ पूंजीवाद के खात्मे, सर्वहारा राज्य की स्थापना की जरूरत और समाजवादी-सामूहिक खेती को समग्र किसानों के एकमात्र मुक्तिपथ के रूप में प्रस्तुत करने की स्थिति में हों। जाहिर है, यह सब रखते हुए हम धनी किसानों को छांट कर बात नहीं रखेंगे। हम ये बातें सकारात्मक तरीके से फिलहाल हर दूसरी पंक्ति में किसी की आलोचना करते हुए भी रख सकते हैं। जाहिर है, हमारी बातों का पूरा झुकाव गरीब-मंझोले किसानों के साथ संश्रय कायम करने तथा सर्वहारा राज्य के लिए बड़ी पूंजी के साथ निर्मम वर्ग-संघर्ष की तरफ होगा।


सवाल है, क्या तब भी धनी किसान हमसे नहीं बिदकेंगे? हां, जरूर बिदकेंगे, लेकिन हम पर फूट डालने का खुला आरोप धनी किसान या आम किसान नहीं लगा सकेंगे। धनी किसानों के लिए हमारे द्वारा सुझाये गये समाजवाद के रास्ता को चुनना संभव नहीं है जब तक कि बड़ी पूंजी उन्हें सही मायने में उजाड़ नहीं देती है। इसलिए फिलहाल उनके साथ संश्रय कायम करने की भी हीं कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता है। लेकिन हमारे सामने समस्या यह है कि अगर धनी किसान आंदोलनरत हैं और आंदोलन का हिस्सा हैं तो किसानों की मुक्ति के प्रश्न हम स्वयं उन्हें अलग करके आंदोलन के बाकी हिस्से को संबोधित क्यों करें, जबकि हम जानते हैं कि इससे आंदोलन में गलत समय पर फूट पड़ने का खतरा उपस्थित होगा। हम क्यों नहीं उनके अस्तित्व के भावी संकट के बारे में ज्यादा बात करें, जिसके लिए हमारे पास उनकी संकटग्रस्तता से जुड़ी काफी सामग्री है, और हम समग्रता में समाजवाद का विकल्प रखें, यह जानते हुए भी कि फिलहाल यह रास्ता धनी किसान स्वीकार नहीं करेंगे। अगर हम बाकी किसानों के संस्तर को अपने पक्ष में कर लेते हैं, तो धनी किसानों के मसले पर हमारी कार्यनीति का दोहरापन स्वयं दूर हो जाएगा।


इसलिए अगर वे (धनी किसान और मध्य किसानों का ऊपरी हिस्सा) हमारे सुझाये रास्ते से इनकार करते हैं, जो कि अवश्य करेंगे, तो यह उनकी बात होगी और वे हम पर आंदोलन को विभाजित करने या फूटपरस्ती का बीज बोने का खुला आरोप नहीं लगा सकते हैं। बल्कि हम उन्हीं पर तथ्यों से आंख मूंदने का आरोप लगा सकते हैं, और यह बनावटी नहीं अपितु सच होगा। अगर वे हमारे द्वारा सुझाये गये रास्ते का विरोध करते हैं तो यह उनका दायित्व होगा कि वे आम किसानों को बतायें कि किसानों की मुक्ति का रास्ता समाजवाद से होकर नहीं तो और किस चीज से होकर जाता है। अगर वे अड़ियलपन दिखाते हैं या हमसे गलत तरीके से उलझते हैं तो भी हमारी बातों से किसानों के बाकी तबके सहमत हो सकते हैं और इस तरह किसानों के व्यापक हिस्से तक हम समाजवाद के बारे में अपनी बातें व बहस को ले जाने का अवसर पाते हैं। अगर वे फूट डालते हैं तो इसे भी किसान देखेंगे।


इस तरह गहरा आर्थिक संकट और व्यापक किसान तबकों के ऊपर छाया अस्तित्व का संकट हमें यह अवसर देता है कि हम धनी किसानों के समक्ष पूरे हालात का बिना डरे या सहमे भंडाफोड़ कर सकते हैं। उसके आधार पर उन्हें हम यह साफ-साफ कह सकते हैं : इधर मजदूर वर्ग है उधर इजारेदार पूंजीपति वर्ग हैं ; ये आप तय कीजिए कि किधर जाना है, किसका साथ देना है।


कॉर्पोरेट की तरफ उनका एक हिस्सा जाकर अपना तात्कालिक उद्धार कर सकता है, लेकिन बाकियों की स्थिति आगे-पीछे खराब होने वाली है जिसे सभी किसान समझते हैं। इसलिए सबसे पहले हमें उनकी किसी भी तरह की प्रतिक्रया की बिना चिंता किये हुए इस आंदोलन में मजदूर वर्गीय हस्तक्षेप करना चाहिए। अगर आर्थिक संकट के बारे में हमारी यह समझदारी सही है कि यह निकट भविष्य में खत्म होने वाला नहीं है, अर्थात लंबे समय के लिए यह संकट दूर होने वाला नहीं है, बल्कि और गहराने वाला है, तो हमारी यह रणनीति सही है और हमें किसान आंदोलन में समग्रता में हस्तक्षेप करने की नीति का अनुसरण करने के लिए सक्षम बनाती है। हमें उन्हें यह साफ-साफ कहना चाहिए कि उनकी भलाई इसी में है कि वे मजदूर वर्ग के पीछे लामबंद हों और पुराने शोषण को जारी रखने का ख्वाब देखना छोड़ दें।


अंत में ……


अगर धनी किसान वर्ग का एक अच्छा-खासा हिस्सा इस आंदोलन में शामिल है और कृषि कानूनों का विरोध कर रहा है तो यह बनावटी कारणों से नहीं है, बल्कि उसकी ठोस वजहें हैं और ये ठोस वजहें हमें एक ऐसी रणनीति अख्तियार करने का मौका देती है जिससे हम आंदोलन में फिलहाल फूट डाले बिना ही समाजवाद और समाजवादी-सामूहिक कृषि कार्यक्रम को किसानों की मुक्ति के रास्ते के तौर पर मजबूती से पेश कर सकते हैं और उचित समय पर आंदोलन को क्रांतिकारी दिशा में मोड़ने की कार्रवाई भी कर सकते हैं। अगर यह आंदोलन खत्म भी हो गया या दबा भी दिया गया, तो भी यह कुछ दिनों बाद फिर से उठ खड़ा होगा और आज की तुलना में यह ज्यादा असरदार होगा, इस मायने में भी असरदार होगा कि व्यापक किसानों के बीच हम आज की तुलना में समाजवादी कृषि कार्यक्रम को स्वीकार कराने में ज्यादा सफल होंगे। ऐसा करना आज की तुलना में ज्यादा सुगल व सरल होगा। लेकिन उसकी शर्त यह है कि हम आज सभी आंदोलनरत किसानों को यह साफ-साफ बता दें कि सर्वहारा राज्य के अधीन ही उनकी गरिमामय और खुशहाल जिंदगी संभव है। एकमात्र सर्वहारा-मेहनतकश किसानों के राजनीतिक प्रभुत्व वाला शोषणमुक्त समाज व राज्य ही किसानों को किसान रहते उनके लिए विकास के सारे रास्ते व दरवाजे खोल सकता है। एकमात्र सर्वहारा राज्य ही किसानों की सभी फसलों की उचित दाम पर खरीद की गारंटी दे सकता है, क्योंकि एकमात्र वही राज्य है जो मुनाफा के लिए नहीं मेहनतकशों की जिंदगी में बुनियादी सुधार तथा खुशहाली लाने के लिए उत्पादन व्यवस्था का संचालन कर सकता है। जहां तक छोटे, गरीब व मंझोले किसानों की खुशहाली का सवाल है, तो शोषण की व्यवस्था को पूरी तरह खत्म व नष्ट किये बिना तथा समाजवाद कायम किये बिना इनकी जिंदगी में थोड़े से तात्कालिक सुधार भी नहीं हासिल किये जा सकते हैं, बुनियादी सुधारों की तो बाद ही दूर है। हम धनी किसानों से कहेंगे : अगर वे चाहते हैं तो मजदूर वर्ग का प्रभुत्व स्वीकार कर हमारे पीछे लामबंद हो सकते हैं, अन्यथा कॉर्पोरेट के सरपट दौड़ते रथ के नीचे आने के लिए वे स्वतंत्र हैं।

दिल्ली पार्टी सेल,

प्रोलेटेरियन रिऑर्गनाइजिंग कमेटी, सीपीआई (एमएल)