अफगान अवाम को साम्राज्यवाद व तालिबान दोनों से लड़ना होगा!

अफगान अवाम को साम्राज्यवाद व तालिबान दोनों से लड़ना होगा!

September 13, 2021 0 By Yatharth

एम असीम


कुछ हफ़्तों के अभियान के बाद ही तालिबान ने 15 अगस्त को काबुल पर कब्जा कर लिया। इस अभियान में उन्हें कहीं किसी गंभीर बाधा का सामना नहीं करना पड़ा। सेना/पुलिस इकाइयां, प्रशासनिक मशीनरी और स्थानीय सरदार क्रूर और जघन्य अमरीकी कब्जे के खिलाफ जनभावना और उभरते परिदृश्य में अपने स्वयं के हितों को देखते हुए अमरीकी समर्थित सरकार का साथ छोड़ तालिबान से जा मिले। उधर अमरीकी समर्थित राष्ट्रपति अशरफ गनी नकदी का एक बड़ा जखीरा लेकर संयुक्त अरब अमीरात भाग गए। लेकिन पूर्वघोषित कार्यक्रमानुसार 30 अगस्त तक अमरीका और उसके नाटो सहयोगियों ने काबुल हवाई अड्डे पर नियंत्रण रख अपने फौजी – गैर फौजी नागरिकों के साथ ही कुछ अफगान सहयोगियों और उनके परिवारों को निकालने का काम चालू रखा। इस निकासी में तालिबान ने न सिर्फ कोई बाधा नहीं डाली बल्कि कुछ रिपोर्टों के अनुसार अमरीकियों की मदद भी की। काबुल हवाई अड्डे पर जो एक बम विस्फोट हुआ वह भी इस्लामिक स्टेट – खुरासान (आईएस-केपी) द्वारा जो तालिबान और अमरीका दोनों का विरोधी है।

तालिबान को सत्ता का यह लगभग ‘शांतिपूर्ण’ हस्तांतरण अमरीका और तालिबान के बीच 29 फरवरी 2020 के दोहा समझौते अनुसार हुआ है, जिसके तहत अमरीका ने अपनी सेना को अफगानिस्तान से वापस बुलाने और तालिबान ने अफगान धरती पर अमरीका विरोधी गतिविधियां न होने देने और अल कैदा से संबंध विच्छेद के साथ ही वहां अमरीकी हितों और संपत्तियों की रक्षा का वचन दिया था। काबुल में फिलहाल दिखे दृश्यों की आशंका के कारण ही अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव से पहले ऐसा समझौता लागू नहीं किया जा सकता था। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन के बीच कटु चुनावी अभियान के दौरान अमरीकी शासक वर्ग में इस पर कोई असहमति नहीं देखी गई थी। अतः बाइडेन के पदभार संभालने के तुरंत बाद ही इस पर कार्यान्वयन शुरू किया गया जो 31 अगस्त तक समाप्त होना था।

यह हस्तांतरण दोहा सहमति अनुसार ही होता दिखा है – इस प्रक्रिया में अमरीका और तालिबान दोनों ने ही एक दूसरे पर हमला नहीं किया। जो भी अमरीकी ‘पराजय’ देखी गई, वह इसलिए कि अमरीका समर्थित हुकूमत व सेना ने अमरीकियों को पूरी ‘गरिमा’ के साथ विदा करना अपने हित में नहीं पाया और पूर्व साम्राज्यवादी आकाओं की योजना के दो हफ्ते पहले ही नए शासकों से जा मिले। इससे दुनिया और खास तौर पर अपनी घरेलू जनता के सामने ‘शक्तिशाली’ अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए कुछ शर्मिंदगी जरूर हुई मगर उनकी नींद में ज्यादा खलल नहीं पड़ा – बाइडेन कुछ समय के लिए जागा और फिर वापस तफरीह के लिए कैंप डेविड में छुट्टी पर चला गया।

दोहा समझौता क्यों?

अमरीका और तालिबान दोनों की अपनी मजबूरियों ने अफगानिस्तान में गतिरोध पैदा कर दिया। तालिबान अमरीकी समर्थित सरकार को उखाड़ फेंकने में असमर्थ थे क्योंकि विभिन्न युद्ध सरदारों को रिश्वत दे लड़ाई से हटा अपनी ओर मिला लेने का उनका सबसे शक्तिशाली हथियार, जिसे उन्होंने 1994-1996 में प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया था, भारी अमरीकी नकदी आपूर्ति के सामने बेकार था। यह भी समझना जरूरी है कि अमरीका के खिलाफ लड़ाई में तालिबान कोई एकीकृत व केंद्रीय अखंड संगठन नहीं बल्कि इसके नेतृत्व में विभिन्न समूहों का जमावड़ा था जिसमें अल कैदा, हक्कानी नेटवर्क, आईएस-केपी, आदि कई जमातें शामिल थीं। किन्तु जब इस प्रतिरोध में गतिरोध पैदा हुआ तो इन संगठनों की अपनी आकांक्षाएं भी बढ़ने लगीं, खास तौर पर तालिबान और आईएस-केपी के बीच द्वंद्व पैदा हो गया। आईएस-केपी ने तालिबान पर अमरीका के साथ मिलीभगत का इल्जाम लगा उसके लड़ाकों को तोड़ना शुरू कर दिया और दोनों के बीच कई बार भारी खूनी लडाइयाँ हुईं। अतः तालिबान की भी जरूरत थी कि वह इस लड़ाई को किसी तरह अंजाम पर पहुंचा सत्ता हासिल करे।

दूसरी ओर, यह युद्ध अमरीकी जनता में अत्यंत अलोकप्रिय बन गया था क्योंकि एक व्यापक धारणा थी कि भारी खर्च, कथित तौर पर ट्रिलियन डॉलर में, केवल पूंजीपतियों – रक्षा ठेकेदारों और हथियारों के आपूर्तिकर्ताओं को ही लाभ पहुँचा रहा था। इसलिए, अमरीकी साम्राज्यवादी युद्ध की रणनीति से ‘शांति’ की रणनीति अपनाने को बाध्य हो गए। जैसा क्लॉजविट्ज़ का प्रसिद्ध कथन है, ‘युद्ध अन्य तरीकों से राजनीति की निरंतरता है’, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अब उन ‘अन्य तरीकों’ को वापस ले लिया है और राजनीति द्वारा अपने प्रमुख हितों को सुरक्षित कर लिया है।

अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इस तथाकथित ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ में अल कैदा के कुछ आतंकवादियों से लड़ने के नाम पर 20 साल तक पूरी अफगान जनता पर कब्जा कर एक अत्यंत क्रूर, बर्बर और जनसंहारी अभियान चलाया। अमरीकी फौज अफगानिस्तान में ज्यादातर हवाई बमबारी-गोलीबारी का सहारा लेती थी, और अपने ठिकानों की बख्तरबंद बाड़ की सुरक्षा के पीछे से रिमोट-नियंत्रित ड्रोन द्वारा हमले करती थी। जब वे वास्तविक छापेमारी पर जाते भी थे, तो मौज-मस्ती और खेल के लिए निर्दोष लोगों की अंधाधुंध हत्याएं करते थे, यहां तक कि कुछ सैनिकों द्वारा मृत अफगानों की उंगलियों को ट्रॉफी के रूप में इकट्ठा करने तक की खबरें आ चुकी हैं। तालिबान को कुछ सीमित नुकसान पहुंचाने के लिए सैकड़ों-हजारों निर्दोष लोगों की बड़ी संख्या में बर्बर हत्याएं की गईं – शादी व जन्म समारोहों से जनाजों तक पर बमबारी की बहुत सी रिपोर्ट हैं। तालिबान के साथ सीधी झड़पों से बचने हेतु अमरीकी सेना इतनी सतर्क थी कि उसने 20 वर्षों में केवल 3,000 सैनिकों खोये, वे भी अधिकांश वास्तविक जमीनी लड़ाई के बजाय दुर्घटनाओं, ‘दोस्ताना’ फायरिंग और विस्फोटों में। झड़पों की अग्रिम फायरिंग लाइन पर मरने के लिए उन्होने अफगान सैनिकों का ही इस्तेमाल किया। इसने अमरीकी हताहतों की संख्या को तो जरूर कम किया, लेकिन दूर-दराज के इलाकों में तालिबान को खत्म करने में यह रणनीति पूरी तरह असफल रही। अमरीकी फ़ौजियों की बर्बरता का आलम यहाँ तक था कि पलायन के वक्त काबुल हवाई अड्डे पर बम विस्फोट के बाद मची भगदड़ को नियंत्रित करते हुये उन्होने जमकर गोलियां चलाईं जिसमें भी बहुत से निर्दोष नागरिक मारे गए।

अतः दोनों पक्ष एक गतिरोध की स्थिति पर पहुंच गए थे और समझौते के लिए अधीर थे क्योंकि यदि यह अंतहीन और घृणास्पद युद्ध जारी रहता तो दोनों बहुत कुछ खोने की स्थिति में आ गए थे। चुनांचे, 8 साल से जेल में बंद मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को रिहा कर और अमरीकी खेमे के कतर में तालिबान को दफ्तर व रिहाइश की जगह दे 2016 में बातचीत शुरू की गई। दोहा में लंबी वार्ता के बाद 2020 में आपसी समझौता हो गया। जब से बातचीत आरंभ हुई तभी से अमरीकियों और तालिबान ने एक दूसरे पर हमले बंद कर दिये थे, बल्कि यहां तक खबरें हैं कि अपने साझा दुश्मन आईएस-केपी के खिलाफ अमरीकी फौज व तालिबान 2018 से ही तालमेल कर रहे थे जिसमें तालिबान के दिशा-स्थान संकेत पर हवाई हमले का काम अमरीकी फौज का था और जमीनी कार्रवाई तालिबान करता था।

हालांकि अमरीकी कब्जे के बाद स्थापित सरकार ने अफगान अभिजात वर्ग की एक छोटी तादाद के लिए बहुत कुछ किया पर यह हुकूमत अत्यधिक भ्रष्ट और पतनशील थी। बताया जाता है कि करजई, गनी, अब्दुल्ला, आदि सभी ने इससे करोड़ों कमाए हैं। आम अफगानों का इससे खास लगाव-जुड़ाव नहीं था क्योंकि यह विदेशी सेना के समर्थन पर टिकी थी और आम लोगों की नजर में अत्यधिक घृणित थी। इसमें अमरीकी सेना और धन बिना अपने दम पर खड़े होने की जरा भी क्षमता नहीं थी। साथ ही अफगान समाज के छोटे से प्रगतिशील और जनवादी तबके ने भी खुद को साम्राज्यवादी ताकतों के साथ जोड़ अपनी जनता का समर्थन पूरी तरह खो दिया। इसलिए, तालिबान के खिलाफ अमरीकी समर्थित हुकूमत का अपना कोई वजूद ही नहीं था। इसके मुक़ाबले अफगान जनता की नजर में तालिबान जितने भी दमनकारी और प्रतिक्रियावादी हों, कम से कम एक नरसंहारी और बर्बर विदेशी साम्राज्यवादी कब्जे का विरोध तो कर ही रहे थे। अतः अमरीकी फौज की वापसी का मतलब अफगानिस्तान पर तालिबान का

कब्जा पूर्वनिश्चित ही था।

मौजूदा हालात

तालिबान के इतिहास ने एक बड़े तबके, खासकर महिलाओं में बहुत आशंकाएं पैदा की हैं। पर अब तक की रिपोर्टें बेहद अस्पष्ट व विरोधाभासी हैं। तालिबान काफी भली प्रतीत होती बातें कर रहा है – किसी भी देश के खिलाफ अफगान धरती से कोई आतंकवाद नहीं, सभी को माफी, महिलाओं को शरिया ढांचे के भीतर शिक्षा और काम से वंचित नहीं करना, प्रेस-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न नहीं, विकास परियोजनाओं को जारी रखना, आदि। उन्होंने व्यवस्था, शांति और स्थिरता बनाए रखने का आश्वासन देने वाले प्रेस कॉन्फ्रेंस और साक्षात्कार दिए हैं। तालिबान लड़ाकों की मौजूदगी में स्कूल जाने वाली छात्राओं और महिलाओं के विरोध प्रदर्शनों की तस्वीरें प्रसारित की हैं। इसलिए कई पर्यवेक्षकों का विचार है कि इस बार वे एक स्थिर शासन चाहते हैं। हालांकि, प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग, बामियान में मृत शिया सरदार मजारी की प्रतिमा को उड़ाने, एक महिला मेयर को कैद करने, महिला पत्रकारों को बर्खास्त करने, संगीत पर रोक, महिला बैंक कर्मचारियों को काम पर न आने के लिए कहने, घर-घर तलाशी, धमकियां, हत्याएं आदि की विपरीत खबरें भी हैं। इसलिए, वे किस दिशा में, कितनी दूर तक, जाएंगे, इस बारे में अभी अनिश्चितता है। किंतु इतिहास का सबक यही है कि इस तरह की विचारधारा ‘नेक इरादों’ की तमाम घोषणाओं के बावजूद केवल अधिक प्रतिक्रियावादी और दमनकारी शासन की ओर ही ले जाती है, जैसे, 1970 के दशक में ईरान, या मोदी सरकार के अच्छे दिन और सबका विकास!

तालिबान भी जानते हैं कि उनके पूर्व-इतिहास ने लोगों में बहुत आशंका पैदा की है, और अमरीकी फौज के खिलाफ जनभावनाओं के बावजूद उनके पक्ष में भी भारी जनसमर्थन नहीं है। इसलिए, वे सभी ‘हितधारकों’ – निश्चित रूप से केवल सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग – की आशंकाओं-चिंताओं को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। यही कारण है कि गुलबुद्दीन हिकमतयार, हामिद करजई और अब्दुल्ला अब्दुल्ला की एक संक्रमण समिति को सत्ता के ‘हैंडओवर’ की प्रक्रिया में अहमियत दी गई है जबकि ये सभी अमरीकी साम्राज्यवादियों के करीबी रहे हैं। यह दर्शाता है कि, तालिबान अपने पीछे एक ‘राष्ट्रीय एकता’ बनाने के लिए अफगान शासक वर्ग के बहुमत के हितों को समायोजित करने की कोशिश कर रहा है पर 7 सितंबर को जिस अंतरिम सरकार की घोषणा हुई है उसमें 33 में से 30 सदस्य पश्तून होने से प्रतीत होता है कि यह काम आसान नहीं है। दूसरी ओर, हालांकि अमरीकी सेना चली गई है, लेकिन अमरीका ने अफगान मामलों में दखल की अपनी सारी शक्ति नहीं गंवाई है। नई सरकार के लिए बनते-बिगड़ते समीकरणों के बीच पहले अमरीकी सीआईए का डाइरेक्टर और फिर पाकिस्तानी आईएसआई के चीफ भी काबुल जाकर मुल्ला अब्दुल गनी बरादर सहित दूसरे तालिबान व अन्य नेताओं से सरगोशी कर आए हैं। काबुल हवाई अड्डे के संचालन से लेकर अन्य कई कार्यों के लिए भी तालिबान अमरीकी खेमे के कतर और नाटो सदस्य तुर्की के साथ ही बात कर रहा है। यह सब बताता है कि सारी बयानबाजी के बावजूद अफगान जनता के साथ फिर धोखा होगा और विदेशी व साम्राज्यवादी दखल अभी भी समाप्त नहीं होगा। उधर काबुल व अन्य शहरों में पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शन दिखाते हैं कि वहां विदेशी दखल के खिलाफ आक्रोश है।

यह भी साफ है कि साम्राज्यवादियों के साथ-साथ घरेलू युद्ध सरदारों और प्रतिक्रियावादियों द्वारा 4 दशकों की उथल-पुथल और उत्पीड़न के बाद भी अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक आकांक्षाओं वाले लोगों की एक ख़ासी तादाद मौजूद है। हालिया घटनाओं के प्रति उनकी प्रारंभिक प्रतिक्रिया किसी तरह देश से बाहर भागना था, जिसके कारण काबुल हवाई अड्डे पर कुछ दिल दहला देने वाले दृश्य देखे गए। लेकिन उन्होंने जल्द ही महसूस किया कि अमरीकी-यूरोपीय साम्राज्यवादी उनके असली दोस्त नहीं हैं, बल्कि उनमें से कुछ जैसे मैक्रों ने खुलेआम बेशर्मी से घोषणा की कि वे अफगान प्रवासियों को आने से रोकेंगे! इस समूह को अब पता चला है कि उन्हें अपने दम पर ही खड़ा होना और अपने जनवादी अधिकारों के लिए खुद ही लड़ना होगा, बजाय इसके कि अपनी रक्षा के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों का मुंह ताकें। विशेष रूप से महिलाओं द्वारा कुछ बहुत ही साहसी विरोध प्रदर्शनों से इसके संकेत पहले से ही दिखाई पड़ रहे हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : सौर क्रांति

20वीं सदी के मध्य के बाद पहले राजा जहीर शाह, फिर राष्ट्रपति दाउद खान ने आधुनिकीकरण की नीति अपनाई। पर वे अमरीका और सोवियत संघ से विदेशी सहायता पर बहुत अधिक निर्भर थे। दाऊद खान ने दोनों की होड़ का लाभ उठाने का प्रयास किया, यह कहते हुए कि वह रूसी माचिस की तीलियों से अपनी अमरीकी सिगरेट जलाना पसंद करते हैं। नतीजतन, अफगानिस्तान में प्रमुख नियोक्ता सरकार थी जो पूरी तरह से विदेशी सहायता पर निर्भर थी। परिणाम एक स्थायी आर्थिक संकट था जिसने भ्रष्टाचार, अभाव और आर्थिक असमानता को बेहद बढ़ाया।

आधुनिकीकरण के इन प्रयासों के परिणामों में से एक विश्वविद्यालय-प्रशिक्षित प्रोफेसरों, पत्रकारों, सैन्य अधिकारियों और सरकारी अधिकारियों की एक नई पीढ़ी थी। बुद्धिजीवियों की यह पीढ़ी उदारवादी सुधार चाहती थी और उसने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (पीडीपीए) का गठन किया जिसमें दो गुट बन गए – खल्की, जो हर संभव तरीके से राज्य को उखाड़ फेंक परिवर्तन चाहते थे और परचमी, जो राजनीतिक लामबंदी के आधार पर क्रमिक सुधारों के पक्षधर थे। दाउद खान और इन समूहों के बीच द्वंद्व होने और उन्हें दबाने के प्रयास के बाद, खल्की व युवा सैन्य अधिकारियों के -गठजोड़ ने अप्रैल 1978 में तख्तापलट कर दिया जिसे सौर क्रांति कहा जाता है।

अफगानिस्तान के नए लोकतांत्रिक गणराज्य का नेतृत्व सोवियत संघ के साथ संबद्ध नूर मुहम्मद तराकी ने किया। यह प्रगतिशील सरकार थी जिसने महिलाओं की शिक्षा, आर्थिक कठिनाइयों को दूर करने, साक्षरता और स्वास्थ्य सेवा प्रसार के काम किए। चूंकि यह ‘क्रांति’ लगातार राजनीतिक कार्य के परिणामस्वरूप बहुसंख्यक जनता द्वारा समर्थित एक लोकप्रिय विद्रोह के बजाय कुछ शहरी कार्यकर्ताओं व सैन्य अधिकारी गठबंधन द्वारा तख्तापलट का परिणाम थी, इन सुधारों को बल प्रयोग व दमन से ही लागू किया जा सकता था। चुनांचे प्रगति और सुधारों के बावजूद, तत्कालीन कबीलाई सरदार, बड़े भूस्वामी-जमींदार और मुस्लिम पादरी आम लोगों को यह समझाने में सक्षम थे कि यह ‘ईश्वरविहीन’ सरकार वास्तव में उनकी दुश्मन थी। इसके परिणामस्वरूप सशस्त्र प्रतिरोध खड़ा हुआ।

मुजाहिदीन

इस प्रतिरोध और अमरीकी साम्राज्यवादी दखलंदाज़ी का नतीजा मुजाहिदीन थे। वे कोई एकीकृत समूह नहीं थे, न ही उनकी कोई एकीकृत विचारधारा थी। ये मोटे तौर पर 4 समूहों से बने थे। सबसे अधिक संगठित प्रतिक्रियावादी इस्लामी गुट थे, जिनका नेतृत्व गुलबुद्दीन हिकमतयार जैसे कट्टरपंथी, महिलाओं पर एसिड हमले करने और सईद कुतब (इस्लामिक ब्रदरहुड) जैसा जिहाद चाहने वाले व्यक्तियों के हाथ में था। वह विभिन्न ग्रामीण मुल्लाओं के साथ संबद्ध था। दूसरा हिस्सा, ख़लक़-परचम के सत्ता टकराव से बाहर वाले वामपंथी और माओवादी थे जिन्हें नई सरकार ने कुचला था। तीसरे, सेना के कनिष्ठ अधिकारी थे जो ‘क्रांति’ में शामिल थे लेकिन जो जल्द से मोहभंग और दलबदलू बन गए। अंत में, उनमें से बहुत से साधारण अफगान थे जिन्होंने बहुत बाद में सोवियत फौजी दखल, हिंसा और दमन के परिणामस्वरूप हथियार उठाए। अमरीका ने मुजाहिदीन के अधिक संगठित व कट्टरपंथी तत्वों के साथ खुद को जोड़ इसका फायदा उठाया और इस काम में पाकिस्तान की आईएसआई को सहयोगी बनाया।

यह प्रतिरोध सोवियत संघ के लिए चिंता का विषय था। मार्च 1979 में, ब्रेझनेव ने तराकी को चेतावनी भी दी कि उसकी दमनकारी रणनीति एक प्रतिरोध को बढ़ावा दे रही है। तराकी ने चिंता को खारिज कर दिया। पर पीडीपीए में आंतरिक विभाजन हाफिजुल्लाह अमीन द्वारा तराकी की हत्या कर सत्ता संभालने के साथ बढ़ गया। इस आंतरिक गुटीय रक्तपात ने प्रतिरोध को और मजबूत किया। अमीन ने सलाहकारों और हथियारों-उपकरणों के रूप में सैन्य सहायता के लिए सोवियत संघ की मदद मांगी, लेकिन सोवियत संघ इस वजह से हिचक रहा था कि किसी भी विदेशी हस्तक्षेप से स्थिति बिगड़ जाएगी। उनकी नजर में बहुसंख्यक मुजाहिदीन सिर्फ सामान्य लोग थे और उन्हें उम्मीद थी कि रणनीति बदलकर उन्हें संतुष्ट-शांत किया जा सकता था।

सोवियत दखल

हालात बदल गए जब सोवियत संघ तक यह अफवाह पहुंची कि अमीन अमरीका से भी बात कर रहा है। इससे पहले सोवियत संघ का सटीक आकलन था कि किसी भी हस्तक्षेप से न केवल अधिक गड़बड़ होगी बल्कि प्रतिरोध को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन अमरीका के पैर जमाने के खतरे (और वास्तविकता यह है कि अमरीका पहले से ही हस्तक्षेप कर रहा था) का मतलब था कि हस्तक्षेप न करने की कीमत बहुत अधिक थी। सोवियत संघ की फौज आई, अमीन मारा गया और परचम गुट के बबरक करमाल राष्ट्रपति बने।

अमरीका ज्यादातर मुजाहिदीन के अधिक संगठित समूहों जैसे हिकमतयार के साथ संबद्ध था। अमरीका ने पाकिस्तान के शरणार्थी शिविरों के बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन भी शुरू किया। इनमें हिंसा और उग्रवादी बयानबाजी की छवियां शामिल होती थीं, जिसका मकसद बच्चों को जिहाद के साथ अमरीकी शैली की देशभक्ति में अनुशासित करना था। इनमें बम और गोलियों की तस्वीरें और ऐसे वाक्यांश शामिल थे जैसे ‘मेरे चाचा रूसियों के खिलाफ अपने जिहाद में इस बंदूक का इस्तेमाल करते हैं’। मौलाना फजलुर रहमान के जेयूआई जैसे कट्टरपंथी संगठनों द्वारा शरणार्थी शिविरों में चलाए जा रहे मदरसों में इन पाठ्यपुस्तकों का इस्तेमाल किया जाता था। इन मदरसों के छात्रों से ही तालिबान का जन्म हुआ।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सोवियत सेना के अंतिम सैनिकों के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद भी, नजीबुल्लाह के नेतृत्व वाली पीडीपीए सरकार कई वर्षों तक कायम रह सकी, अर्थात इसका कम से कम कुछ तो लोकप्रिय आधार था। लेकिन अमरीकी साम्राज्यवाद समर्थित सरकार तो इतनी निराधार व अफगान लोगों की नजर में इतनी घृणित थी कि अमरीकी फौज के अफगानिस्तान छोड़ने के पहले ही माचिस की तीलियों के महल की तरह बिखर गई।

तालिबान का उदय

तालिबान अमरीकी साम्राज्यवादियों और सोवियत विस्तारवादी संशोधनवादियों के बीच शीतयुद्ध की संतान हैं। वे शरणार्थी शिविरों में पैदा हुए थे, युद्ध से बने और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप से पोषित थे। सोवियत संघ की वापसी के बाद मुजाहिदीन सरदारों के विभिन्न गुट एक-दूसरे से भिड़ गए। सभी ने छोटे-बड़े इलाकों पर कब्जा कर अपने अपने मनमाने नियम लागू किए जिसके परिणामस्वरूप मुल्क प्रभावी रूप से विभिन्न इकाइयों में विभाजित हो गया। कंधार, हेरात और क्वेटा के ट्रक और पहले फल-मेवा, बाद में अफीम-ड्रूग व्यापार माफिया के लिए यह एक बड़ी समस्या थी। कंधार एक बड़ा फल-मेवा उत्पादक केंद्र था और वहां के ट्रक भारत के विभाजन से पहले कोलकाता तक चलते थे। इन खेतों-बागानों के युद्ध में नष्ट होने के बाद, वहां भारी मात्रा में अफीम उगाना शुरू हुआ और अफीम व इस तरह का अन्य व्यापार पैसा कमाने का एक बड़ा जरिया बन गया। छोटे मुजाहिदीन सरदार इनके लिए बड़ी समस्या बन गए क्योंकि पैसे और अन्य मांगों के लिए ट्रकों को हर कुछ मील पर रोक दिया जाता था। दूसरे, पाकिस्तान भी चाहता था कि नए टूटे पूर्व-सोवियत मध्य एशियाई गणराज्यों के लिए व्यापार मार्ग खोले जाएं। वह चाहता था कि कंधार या हेरात के रास्ते चमन सीमा चौकी से इन गणराज्यों तक एक सड़क बनाई जाए। ये मुजाहिदीन सरदार इसमें बाधक थे। इसलिए उन्हें दबा एक ही शासन को लागू करने के लिए किसी ताकत की आवश्यकता थी। तीसरे, ये सरदार आम जनता पर भी अत्याचार कर रहे थे। नशा, ड्रग्स, हत्याएं, बलात्कार और लड़कों- लड़कियों दोनों का सेक्स गुलाम के रूप में अपहरण सरदारों द्वारा बड़े पैमाने पर किया जाता था। इसलिए आम लोग भी मुजाहिदीन गुटों के सरदारों को दबाने के लिए किसी ताकत की उम्मीद कर रहे थे।

इन्हीं जरूरतों ने तालिबान को पैदा किया। वे दूसरी पीढ़ी के ‘मुजाहिदीन’ थे, जो शरणार्थी शिविरों में पले-बढ़े, देवबंदी मदरसों में अमरीकी पाठ्यपुस्तकों द्वारा प्रशिक्षित हुये, और फिर मुजाहिदीन गृहयुद्ध के दौरान अफगानिस्तान लौट आये। सोवियत वापसी के बाद, पाकिस्तान की आईएसआई को उम्मीद थी कि उनका सहयोगी हिकमतयार उपयोगी होगा, लेकिन वह मुकर गया। हिकमतयार और मुजाहिदीन गृहयुद्ध से चिंतित बेनजीर भुट्टो सरकार और आईएसआई ने तालिबान की ओर रुख किया। मेजर-जनरल नसीरुल्लाह बाबर ने तालिबान को “मेरे लड़के” कहा। नए हथियारों और प्रशिक्षण के साथ वे एक पुराने मुजाहिदीन कमांडर, मुल्ला उमर के नेतृत्व में मैदान में उतरे। इस्लाम के बारे में उनका दृष्टिकोण अत्यंत रूढ़िवादी पश्तून कबीलाई रीति-रिवाजों के साथ मिश्रित ‘शुद्धतावादी’ था। उदाहरण के तौर पर उन्होंने फतवा दिया कि मुसलमानों के लिए नशा करना हराम है लेकिन जिहाद वास्ते पैसे कमाने के लिए काफिरों को बिक्री हेतु अफीम उगाना हलाल (इस्लाम द्वारा अनुमोदित) है। उन्होंने जहां भी मुजाहिदीन को हराया, महिलाओं और बच्चों पर यौन उत्पीड़न के मुजरिमों को सजा दी। इससे उन्हें जनता की सहानुभूति मिली। लेकिन साथ ही उन्होंने सभी स्कूलों को बंद कर दिया और लड़कियों के घर के अंदर पढ़ने तक को प्रतिबंधित कर दिया। महिलाओं को बिना शिक्षा और काम के अधिकार और सामाजिक मामलों में किसी भागीदारी बगैर घरों तक ही सीमित रखा जाना था, केवल एक पुरुष अभिभावक के साथ बाहर जाने की अनुमति थी। यह इस्लाम का भी अत्यंत संकीर्ण व कट्टरपंथी कबीलाई दृष्टिकोण था जिसकी हमास जैसे कट्टरपंथी संगठनों तक ने भी आलोचना की थी, जिन्होंने कहा कि उन्होंने तो फिलिस्तीनी महिलाओं पर इस तरह की पाबंदी कभी नहीं लगाई, और ये प्रतिबंध उनके विचार में गैर-इस्लामी थे।

1994 में तालिबान का जन्म हुआ। 1996 तक उन्होंने मुजाहिदीन के आपसी टकरावों और एक बड़ी विदेशी शक्ति द्वारा छोड़े गए निर्वात का लाभ उठाते हुए अफगानिस्तान में इस्लामी अमीरात की स्थापना की, हालांकि उन्होंने अफगानिस्तान पर पूरी तरह से विजय प्राप्त नहीं की थी। मुजाहिदीन के कुछ हिस्सों ने तालिबान के खिलाफ अपना प्रतिरोध जारी रखा और उज्बेक-ताजिक सहित महत्वपूर्ण इलाकों पर अपना कब्जा बनाए रखा।

तालिबान किस तरह का समाज बना सकते हैं?

वर्तमान में अफगानिस्तान के पास अपनी कोई विकसित अर्थव्यवस्था नहीं है। अब तक केवल अमरीकी डॉलर का निरंतर प्रवाह अमरीका और अन्य निजी आपूर्तिकर्ताओं/ठेकेदारों के साथ-साथ अफगान अभिजात वर्ग को लाभ पहुंचा विकास का भ्रम पैदा कर रहा था। वह प्रवाह फिलहाल रुक गया है। अभी किसी अन्य विदेशी पूंजी निवेश की बड़ी मात्रा की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। इस्लामिक शासन की तालिबान शैली केवल सऊदी अरब की तरह का एक अत्यंत पृथक, बंद, रूढ़िवादी और दमनकारी समाज बना सकती है, पर सऊदी अरब के पास कम से कम पेट्रोलियम भंडार संकट मोचक के रूप में है। अफ़ग़ानिस्तान में इस का भी अभाव है। केवल एक प्रमुख वस्तु जो अब बेचने के लिए है वह है अफीम और विभिन्न ड्रग्स, जिन पर तालिबान ने हलाल का लेबल लगाया है। यही कारण है कि वह पाकिस्तान को अपने साथ वीजा मुक्त सीमा बनाने के लिए दबाव डाल रहा है, क्योंकि यह व्यापार सामान्य कानूनी व बैंकिंग चैनलों के माध्यम से नहीं चलाया जा सकता है। हालाँकि, फिलहाल पाकिस्तान ने अपने साथ सीमा पर आवाजाही को प्रतिबंधित कर दिया है और वीजा मुक्त सीमा पार आवाजाही में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। इस प्रस्ताव में पाकिस्तान के लिए समस्या यह है कि सीमा के दोनों किनारों पर एक ही पश्तून कबीलाई समाज है जो अंग्रेजों द्वारा बनाई गई काल्पनिक डूरंड रेखा से विभाजित है और सीमा के दक्षिण में पहले से ही एक तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) मौजूद है। तालिबान ने बगराम और अन्य जेलों से 2,000 से अधिक टीटीपी कैदियों को भी रिहा किया है। यह पाकिस्तान के लिए एक बड़ा सिरदर्द है और टीटीपी के लिए वीजा मुक्त सीमा पार आवाजाही पाकिस्तान में उसकी गतिविधियों के लिए एक बड़ा वरदान होगा क्योंकि जब भी उसके बलों द्वारा पीछा किया जाएगा तो वे सीमा पार भागने में सक्षम होंगे। उधर अफगानिस्तान के घटनाक्रम से उत्साहित टीटीपी द्वारा पाकिस्तान में हमलों की खबरें पहले ही आने लगी हैं। चीन पाकिस्तान कॉरिडोर पर कार्यरत चीनी कर्मियों के खिलाफ पहले ही जूझते पाकिस्तान के लिए यह चिंताजनक सिद्ध होने वाला है।

साम्राज्यवादी योजनाएं-साजिशें

उभरती स्थिति में हिस्सेदारी चाहने वाले विभिन्न देशों के दीगर मकसद भी हैं। अफगानिस्तान की सीमा पाकिस्तान, चीन, ईरान और मध्य एशियाई गणराज्यों से लगती है। अमरीका के लिए यह एक ऐसे युद्ध से बाहर आने का अवसर है जिसे वह जीत नहीं सका पर इसे चीन, रूस और ईरान के खिलाफ लाभ के मौके में बदल सकता है। हम सभी जानते हैं कि ‘लोकतंत्र की स्थापना’, मानवाधिकार या स्त्रियों की स्वतंत्रता का समर्थन अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा दूसरे देशों में दखलंदाजी के लिए आवरण तैयार करने हेतु एक धोखाधडी भरे प्रचार से अधिक कुछ नहीं है। अमरीकी साम्राज्यवाद किसी भी रूढ़िवादी और निरंकुश शासन को तब तक स्वीकार कर सकता है जब तक कि उसके अपने हितों के खिलाफ न हो। एशिया में ही उसके इज़राइल, सऊदी अरब और कतर के साथ लंबे समय से गहरे संबंध हैं, जो सभी इसकी गुप्त और खुली लड़ाई की चौकियों के रूप में कार्य करते हैं। इसलिए तालिबानी शासन अमरीका शैली वाले ‘जनतंत्र’ के लिए कोई समस्या नहीं है। बल्कि वह इसे एक अवसर के रूप में देख सकता है। उसके हितों पर कोई हमला नहीं होने का आश्वासन भी पहले ही दिया गया है और गुलबुद्दीन हिकमतयार जैसे इसके पुराने दोस्त और सहयोगी तालिबान के साथ नई सरकार के गठन में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।

चीन के मामले में, अफगानिस्तान शिनजियांग की सीमा पर है, जहां पहले से ही पूर्वी तुर्केस्तान की वीगर नाम वाली तुर्क आबादी में किसी स्तर का असंतोष है। रूसी सैन्य प्रभाव क्षेत्र में आने वाले मध्य एशियाई गणराज्य मुख्य रूप से तुर्की मूल के मुसलमानों की आबादी वाले हैं। वहां पहले से ही एक संगठन है जो खुद को मध्य एशियाई तालिबान कहता है। ईरान में पहले से ही एक लाख से अधिक अफगानी शरणार्थी हैं और इसके साथ लगने वाले अफगान क्षेत्र में एक शिया आबादी है जिसे हजारा कहा जाता है। यह भी आशंकित है क्योंकि देवबंदियों का बहुत ही संकीर्ण विचारधारा वाला संप्रदाय  तालिबान शियाओं के प्रति पहले से बहुत कट्टर रहा है। इन कारणों से ये देश तालिबान के साथ सक्रिय रूप से बातचीत कर रहे हैं क्योंकि वे आश्वासन चाहते हैं कि वह उनके हितों के खिलाफ किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होगा और बदले में वे आर्थिक विकास में मदद की पेशकश कर रहे हैं। अभी तालिबान भी अपने शासन को स्थिर व मजबूत करने के लिए सार्वजनिक रूप से, और जोर से, सभी को आश्वस्त कर रहे हैं कि अफगानिस्तान की धरती किसी भी देश के खिलाफ मंच नहीं बनेगी।

अमरीका को उम्मीद है कि तालिबान जिहाद के आधार पर लामबंद हुआ है अतः वह चाहे तो भी आईएस-केपी, अल कैदा, हक्कानी नेटवर्क, लश्कर झांगवी, आदि संगठनों के लड़ाकों को अपने अनुशासन में रखने में सक्षम नहीं होगा और देर-सबेर वे कहीं न कहीं संघर्ष में उतर ही जाएंगे। चीन, रूस और ईरान, विशेष रूप से चीन जिसके खिलाफ अमरीका पहले ही शिनजियांग में वीगर मुसलमानों के नरसंहार के इल्जाम का बड़ा अभियान शुरू कर चुका है। तालिबान की मदद करने वाले इन संगठनों में से कुछ ने पहले से ही काफिरों के साथ ‘समझौता’ करने के लिए तालिबान की आलोचना करना शुरू कर दिया है। अतीत में भी, हालांकि तालिबान द्वारा अल्पसंख्यकों पर हमलों की रिपोर्ट नहीं है, लेकिन हक्कानी और आईएस-केपी को शियाओं, हिंदुओं और सिखों पर आतंकवादी हमले करने के लिए जाना जाता है।

तालिबान की विचारधारा पर संक्षिप्त टिप्पणी

ऐतिहासिक हिजरत (तीर्थयात्रा) केंद्र और महत्वपूर्ण कारवां व्यापार मार्गों के संगम पर स्थित मक्का में व्यापार से बढ़ते धन संकेंद्रण से उभरते वर्ग विभाजनों की प्रतिक्रिया में कबीलाई साम्य और भ्रातृत्व के मूल्यों के पतन और टूटन के प्रति आक्रोश-घृणा भी बहुत से लोगों के दिलों में थी क्योंकि कबीलाई समाज का साम्य अभी भी स्मृति में ताजा था। इस्लाम का उदय इसी स्थिति में हुआ। इसीलिए मक्का, जहां नई ताकतें मजबूत थीं, में शुरुआती हार के बाद इसे यश्रिब (मदीना) में स्वीकृति मिली, जहां कबीलाई समता का विचार अभी भी तुलनात्मक रूप से मजबूत था। साथ में व्यापार के विस्तार के लिए कबीलों के आपसी टकराव को रोकना था तो हर कबीले के अपने सर्वेश्वरवादी इलाहों की बजाय एक ही इलाह (“ला इलाहा इल्लल्लाह” अर्थात “अल्लाह के अलावा कोई दूसरा भगवान नहीं है”) का विचार वजूद में आया। इसीलिए, हालांकि इस्लामिक उम्मा की रचना कबीलाई परिषद से प्रेरित है, जहां हर कोई अभी भी काफी हद तक समान था और खलीफा शासक के रूप में बल द्वारा थोपे जाने के बजाय उम्मा के सदस्यों द्वारा चुना और स्वीकार किया जाता था, किन्तु यह कबीलाई रक्त संबंधों के परे भी जाता था – एक ही इलाह है तो सभी व्यक्ति भी कबीलाई भेदों के परे जाकर एक समान ही हैं। इसलिए सभी मुसलमानों के भ्रातृत्व का सिद्धांत सम्मानित व्यक्ति के नेतृत्व में एक ही पंक्ति (सफ) में नमाज और एक ही दस्तरखान पर उंच-नीच समझे बिना भोजन करना के रूप में अभिव्यक्त हुआ। व्यापार संबंधी नियम, जैसे, सूद की मनाही, भी कुछ हाथों में धन के संकेंद्रण को रोकने के मकसद से ही थे।

उपरोक्त के साथ ही विजय होने पर माले-गनीमत (लड़ाई में जीत से प्राप्त लूटा हुआ माल) के सभी में बंटवारे के आर्थिक वितरण के सिद्धांत और लड़ाई में काम आने पर अनंत स्वर्गिक जीवन के विचार ने कबीलाई साम्य और भ्रातृत्व पर आधारित उम्मा को वो ऊर्जा व शक्ति प्रदान की, जिस शक्ति के बल पर अरब मरुस्थल के कबीलों में शांति (=इस्लाम) स्थापित हुई। ‘शांति के धर्म’ का अर्थ यही है। पर तीसरे खलीफा उस्मान के वक्त जैसे ही इस सशस्त्र उम्मा ने बाईजैंतियम रोमन साम्राज्य अंतर्गत दमिश्क (सीरिया) के समृद्ध, उपजाऊ, सभ्य क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की, तो जैसा इतिहास में कई बार हुआ है, सैनिक विजय प्राप्त करने वाले कबीलों को सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में पराजित पर खुद से उन्नत व सभ्य सामाजिक व्यवस्था के सामने हार स्वीकार करनी पड़ी। मोहम्मद साहब की मृत्यु के 39 साल बाद ही चौथे खलीफा अली की मृत्यु के साथ ही साम्य आधारित उम्मा समृद्ध भूमि की धन-संपदा से उत्पन्न होने वाले नए वर्ग विभाजनों द्वारा रौंद डाला गया। इसके अंदर से ही एक खास या कुलीन वर्ग निकल आया और उसने समुदाय के सदस्यों द्वारा चुने/स्वीकारे जाने के बजाय तलवारों के बल पर खलीफा को स्वीकार करा लिया – समतावादी उम्मा अब एक सामंती पदानुक्रम में बदल गया था। जब आधुनिक चीन व साइबेरिया के पड़ोसी मैदानों से उठे तुर्क घुड़सवारों ने अरबों पर विजय प्राप्त कर मौजूदा तुर्की तक अपना शासन स्थापित कर लिया, तो उनके सैन्य संगठन ने इन उभरते हुए सामंती समाजों को सल्तनत में बदल दिया। खलीफा अब केवल नाम के रह गए, सामंती सुल्तान और शाह वास्तविक शासक बन गए।

इस सामंती शहंशाहियत वाले इस्लाम के भारत आने के बाद, यहां के समाज के तत्कालीन संगठन के साथ एक और संघर्ष हुआ। खिलजी और तुगलक के समय के कई संकटों के बाद, अकबर खुद इस्लाम को ही त्याग देने के समाधान पर पहुंचा और एक समन्वित धर्म की शुरुआत की। जहांगीर ने उसका अनुसरण किया। इसकी प्रतिक्रिया में इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों के पुनरुद्धार की नीयत से एक प्रतिगामी आंदोलन शुरू हुआ, ताकि इस दारुल हरब (गैर-इस्लामी शासन) को दारुल इस्लाम (इस्लामी शासन) में परिवर्तित किया जा सके। इस विचारधारा के एक शिक्षक द्वारा शहज़ादे के रूप में पढ़ाए जाने के बाद, औरंगज़ेब ने ऐसा करने की कोशिश की। लेकिन यह वह युग था जब सामंतवाद खुद ही अपने अंतर्विरोधों के चरम पर था, किसानों के असंतोष और विद्रोह फूट पड़ने से उखड़ रहा था। इसलिए यह संकट अनसुलझा ही रहा – 6ठी-7वीं शताब्दी के कबीलाई समतावाद का पुनरुद्धार औरंगजेब की सारी व्यक्तिगत सादगी-पवित्रता के बावजूद मुमकिन नहीं था, क्योंकि सामंती समाज के संकट का ही कोई समाधान नहीं था। इस संकट का समाधान केवल उत्पादक शक्तियों और पूंजीवाद के विकास द्वारा आधुनिक लोकतांत्रिक समाज को अस्तित्व में लाकर ही किया जा सकता था। यह एक अलग इतिहास है कि भारत में इस बीच में औपनिवेशिक शासन के आ जाने से वह नहीं हो पाया, पर वह इस लेख का विषय नहीं। इस्लाम को उसकी दूसरी सहस्राब्दी में पुनर्जीवित करने के इरादे वाले इस आंदोलन की परिणति देवबंद का दारुल उलूम और उसके नाम पर देवबंदी फिरका है जिसका एक अति संकीर्ण रूप तालिबान है।

वर्तमान पूंजीवादी समाज इस्लाम, ईसाई, बौद्ध या किसी अन्य धार्मिक आदर्शों पर आधारित आदिम कबीलाई समतावाद की ओर वापस नहीं जा सकता। घरेलू पूंजीपतियों और उनके वरिष्ठ सहयोगियों वैश्विक साम्राज्यवादियों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न और शोषण को खत्म करने का समाधान निजी संपत्ति को खत्म करके सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए योजना अंतर्गत प्रचुर उत्पादन वाले समाजवाद की ओर आगे बढ़ना ही है। वही आज के वक्त में एक वास्तविक साम्य आधारित शोषणमुक्त समाज के निर्माण का आधार बन सकता है। लेकिन अन्य धर्मों के पुनरुत्थानवादियों की तरह इस्लामी पुनरुत्थानवादी भी इस्लाम के पिछले गौरवपूर्ण इतिहास का हवाला देते हुए, अभी भी आम लोगों से इसे फिर से पुनर्जीवित करने की कल्पना करने के लिए कह रहे हैं। मौजूदा सड़ते हुये पूंजीवाद और उसके नतीजे में उभरते जालिम फासीवाद ने सामाजिक जीवन में जो दुख-तकलीफ पैदा की है, वे पूंजीवाद-साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़ित जनता के समक्ष इस पश्चगामी विचार को समाधान के रूप में पेश कर दिग्भ्रमित कर रहे हैं। वास्तव में देखें तो सभी धर्मों के पुनरुत्थानवादियों की तरह ही इस्लामी पुनरुत्थानवादी भी जनता को पूंजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के रास्ते से भ्रमित कर पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की ही सेवा करते हैं, खास तौर पर अमरीकी-यूरोपीय साम्राज्यवाद की ही सेवा करते हैं, हालांकि उनका दावा और प्रचार उससे लड़ने का होता है। यह धार्मिक आदिम समतावाद एक ऐसा विचार है जिसका समय बहुत पहले बीत चुका है, और कभी अरब समाज और सभ्यता को महान ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाले ऐतिहासिक इस्लामी आंदोलन की जगह अब यह तालिबान की तरह केवल उसके विकृत और बर्बर संस्करणों का ही उत्पादन कर सकता है। यह सहस्त्राब्दि से भी अधिक पुराना समतावाद अब शासक वर्ग के हाथों में केवल मेहनतकश जनता को वर्ग संघर्ष के रास्ते से हटाने और शासकों के हितों की रक्षा के लिए अवाम की आकांक्षाओं को कुचलने वाला एक दमनकारी शासन बनाने का उपकरण मात्र रह गया है।

भारत सरकार और हिंदुत्व फासिस्टों की भूमिका

ऐसा लगता है कि अमरीकी साम्राज्यवाद की दुम बनने में शान समझ रहे भारतीय शासक वर्ग ने अफगान मामलों में अपनी प्रासंगिकता खो दी है, हालांकि तालिबान ने उन्हें आश्वासन दिया है कि वह उन्हें कश्मीर सहित भारत-पाक संघर्ष में गैर-हस्तक्षेप की नीति का पालन करेगा और चल रही परियोजनाओं को पूरा करने देगा। भारत सरकार के ‘रणनीतिक’ विशेषज्ञ इसे लंबे समय से तालिबान के साथ संबंध सुधारने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन इसकी जहरीली सांप्रदायिक और वैचारिक स्थिति इसे खुले तौर पर ऐसा करने से रोकती है, हालांकि छिपछिपाकर तो यह उनसे एक साल से अधिक समय से बात कर रही है और अब तो खुलकर भी।

लेकिन सांप्रदायिक कट्टरवाद की घरेलू राजनीतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए, यह एक घृणित भूमिका निभा रहा है। नागरिकता कानून संशोधन (सीएए) के अनुरूप यह अफगान हिंदुओं और सिखों की सहायता के दावे कर, वास्तव में इस तरह के खुले सांप्रदायिक दृष्टिकोण से उन्हें अधिक जोखिम में डाल देगा। भारत के भीतर भी कट्टरवादी तालिबान का विरोध करने के नाम पर हिंदुत्ववादी सभी भारतीय मुसलमानों को तालिबान का समर्थक बताकर उन्हें निशाना बना रहे हैं। वे सभी अब बेशर्मी से मानव, लोकतांत्रिक और महिला अधिकारों के रक्षक बन गए हैं, जबकि भारत में दिन-ब-दिन क्रूरता के साथ उन्हीं अधिकारों को कुचलते जा रहे हैं। वे इस घटनाक्रम का उपयोग विशेष रूप से आगामी यूपी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सांप्रदायिक जहर फैलाने के लिए

कर रहे हैं। हम सभी वाम लोकतांत्रिक लोगों से अनुरोध करते हैं कि तालिबान की आलोचना करते हुए भी हिंदुत्ववादी फासीवादियों के इस प्रचार से खुद को बिल्कुल अलग रखें।

अफगान अवाम को तालिबान व साम्राज्यवादियों दोनों से लड़ना होगा

हम दृढ़ता से मानते हैं कि, हालांकि बाहरी ताकतें किसी समाज के सामाजिक परिवर्तन में सहायक या कभी-कभी उसे तेज या धीमा करने वाली भूमिका निभा सकती हैं, यह आंतरिक द्वंद्व ही हैं जो इस प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इसलिए, चाहे विस्तारवादी सोवियत संशोधनवादियों द्वारा या अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा विदेशी हस्तक्षेपों के माध्यम से अफगानिस्तान में एक ‘आधुनिक जनतांत्रिक समाज’ के निर्माण की बार-बार की परियोजनाओं की विफलता पूर्वनिश्चित है। यह केवल पुनरुत्थानवादी तालिबान की विचित्र परिघटना जैसी आपदाओं को ही जन्म दे सकता है। इसलिए, अफगानिस्तान या किसी अन्य देश पर अमरीकी साम्राज्यवादी कब्जे का किसी भी हाल में समर्थन नहीं किया जा सकता है। ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे वह किसी भी समाज का आधुनिकीकरण कर सके और लोकतंत्र की स्थापना कर सके।हमारा विचार है कि वर्तमान स्थिति पीडीपीए के जनता को सचेत-संगठित कर जनसंघर्षों के जरिये क्रांतिकारी परिवर्तन के बजाय तख्तापलट का ब्लांकीवादी नजरिया अपनाने और अमरीकी/नाटो साम्राज्यवादियों और तत्कालीन सोवियत संशोधनवादियों द्वारा हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। इसी से एक ऐसी स्थिति पैदा हुई जहां तालिबान जैसी पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी और कट्टरपंथी ताकत को विदेशी कब्जे से मुक्तिदाता बनने का ताज पहनने का मौका मिला। अतः सभी प्रकार के साम्राज्यवादियों के हस्तक्षेप के सभी प्रयासों का अफगानों और विश्व के सभी स्वतंत्रता-प्रेमी लोगों द्वारा विरोध किया जाना चाहिए क्योंकि केवल अफगान समाज का एक स्वतंत्र विकास ही अपना एक ऐसा आंदोलन निर्मित कर सकता है जो इसे एक आधुनिक लोकतांत्रिक गणराज्य में बदल देगा और समाजवाद की ओर आगे बढ़ेगा। हमारा दृढ़ मत है कि ऐसी ताकतों के बीज अफगानिस्तान में मौजूद हैं, लेकिन इस या उस बाहरी हस्तक्षेपकर्ता के साथ वास्तविक या कथित निकटता या पहचान बन जाने के कारण जनता से अलग-थलग रहे हैं। इन बेड़ियों से मुक्त ये प्रगतिशील ताकतें आने वाले समय में एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज और समाजवाद की लड़ाई का नेतृत्व करने में जरूर सक्षम होंगी।