परिवर्तन: बुद्ध या कार्ल मार्क्स

परिवर्तन: बुद्ध या कार्ल मार्क्स

September 14, 2021 0 By Yatharth

प्यारेलाल ‘शकुन’


डॉ अम्बेडकर अपने लेख के अंत में साम्यवाद के संबंध में दोनों तरह की टिप्पणी करते हैं। डॉ अम्बेडकर बांगमय खण्ड 7 में पृष्ठ 368 पर लिखते हैं कि “रूस में साम्यवादी तानाशाही के कारण आश्चर्यजनक उपलब्धियां हुई हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसी कारण मैं यह कहता हूँ कि रूसी तानाशाही सभी पिछड़े देशों के लिए अच्छी व हितकर होगी।” परंतु इस बात को तुरंत ही नकारते हुए कहते हैं कि “परंतु स्थाई तानाशाही के लिए यह कोई तर्क नहीं है।” यहां मैं कहना चाहूंगा कि मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन, माओ आदि किसी भी मार्क्सवादी ऑथोरिटी ने समाजवादी व्यवस्था में स्थायी तानाशाही की बात नहीं कही है। अतः डॉ अम्बेडकर ने ये स्थायी तानाशाही की बात कहाँ से ली है, इसका उन्होंने कोई संदर्भ भी नहीं दिया है। इसलिए उनका यह कथन बिल्कुल मनगढ़ंत कथन है। क्योंकि मार्क्सवादी विद्वानों ने मार्क्स से लेकर माओ तक सभी ने एक ही बात कही है कि पूंजीवाद से साम्यवाद में जाने के मध्य एक संक्रमण काल होता है जिसमें सर्वहारा की तानाशाही आवश्यक होती है। सर्वहारा की यह तानाशाही साम्यवाद की प्रथम मंजिल अर्थात समाजवाद में अनिवार्य होती है ताकि पूंजीवाद के अवशेषों को खत्म किया जा सके। और यह तानाशाही तब तक आवश्यक है जब तक कि विश्व में पूंजीवाद की समाप्ति नहीं हो जाती है। पूंजीवाद समाजवादी व्यवस्था का दुश्मन है क्योंकि वह फिर से सत्ता में आने का बार बार प्रयास करता है जैसा कि सोवियत रूस और अन्य समाजवादी देशों में फिर से सत्ता में आ चुका है।

दूसरी बात वे आरोप लगाते हैं कि “स्थायी तानाशाही ने आध्यात्मिक मूल्यों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। कार्लाइल को कोट करते हुए वे कहते हैं कि  “कार्लाइल ने राजनीतिक अर्थशास्त्र को ‘सुअर दर्शन’ की संज्ञा दी है। फिर कार्लाइल को गलत करार देते हुए कहते हैं कि “कार्लाइल का कहना वास्तव में गलत है क्योंकि मनुष्य की भौतिक सुखों के लिए तो इच्छा होती ही है।” और अपनी ही बात से पल्टी मारते हुए अम्बेडकर फिर कम्युनिस्ट दर्शन को सुअरो की तरह मोटा बनाने वालों का दर्शन बताया है। वे कहते हैं “परंतु साम्यवादी दर्शन समान रूप से गलत प्रतीत होता है क्योंकि उनके दर्शन का उद्देश्य सुअरों को मोटा बनाना प्रतीत होता है, मानो मनुष्य सुअरों जैसे हैं। उनका मानना है कि “मनुष्य का विकास भौतिक रूप के साथ साथ आध्यात्मिक रूप से भी होना चाहिए।” यहां मैं कहूंगा कि यदि रूसी साम्यवादी आर्थिक समानता के साथ साथ बौद्ध धर्म को भी अपना लेते तो साम्यवाद अम्बेडकर की नजर में सुअरों का दर्शन नहीं होता। क्या शानदार तर्क है?

एक तरफ़ अम्बेडकर हिंदू धर्म से मुक्ति पाने के लिए बौद्ध धर्म को अपनाते हैं और समाज से हिंदू धर्म के पाखंड का खात्मा चाहते हैं, परंतु बौद्ध धर्म के रास्ते से आध्यात्मिक चिंतन को भी बनाये रखना चाहते हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या मनुष्य बिना धर्म के चरित्रवान नहीं रह सकता? क्या बुद्ध के समय जो आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानने वाले अजित केश कंबलि चरित्रवान नहीं थे? इसके अलावा उस समय जो लोकायतिक दार्शनिक थे जिनका कोई धर्म नहीं था क्या वे चरित्रहीन थे? वे इसी भौतिक जगत में विश्वास करने वाले थे और आध्यात्मिक चिंतन में विश्वास नहीं करते थे। परंतु फिर भी यज्ञ याग में विश्वास नहीं करते थे। डॉ अम्बेडकर के समय में शहीद भगत सिंह नास्तिक थे, वे नैतिक मूल्यों में तमाम स्वाधीनता सेनानियों में सबसे ऊपर थे और यह भी कि भगत सिंह के आदर्श तो मार्क्स और लेनिन थे। वे किसी भी धर्म और आध्यात्मिक चिंतन में विश्वास नहीं करते थे। क्या भगत सिंह का नैतिक मूल्य वोध किसी से कम था? इसके अलावा पेरियार रामास्वामी जो खुले आम कहते थे कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है, और न ही किसी धर्म और देवता को मानते थे। उन्होंने सोवियत रूस की यात्रा की और वहां की समाजवादी व्यवस्था को देखकर बहुत खुश हुए थे और भारत में भी इसी तरह की व्यवस्था चाहते थे। शहीद भगत सिंह के विचारों की वे प्रशंसा करते थे। तो हम कैसे कह सकते हैं कि साम्यवादी दर्शन सुअरों का दर्शन है?

आगे डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि “समाज का लक्ष्य एक नवीन नींव डालने का रहा है जिसे फ्रांसीसी क्रांति द्वारा संक्षेप में तीन शब्दों में- भ्रातृत्व, स्वतंत्रता तथा समानता कहा गया है। इस नारे के कारण ही फ्रांसीसी क्रांति का स्वागत किया गया था। वह समानता उत्पन्न करने में असफल रही। हम रूसी क्रांति का स्वागत करते हैं क्योंकि इसका लक्ष्य समानता उत्पन्न करना है”। परंतु साथ ही यह कह कर उसे खारिज भी कर देते हैं कि  “परंतु इस बात पर अधिक जोर नहीं दिया जा सकता कि समानता लाने के लिए समाज भ्रातृत्व और स्वतंत्रता का बलिदान किया जा सकता। भ्रातृत्व और स्वतंत्रता के बिना समानता का कोई मूल्य व महत्व नहीं।” और इन तीनों मूल्यों की स्थापना के लिए वे बौद्ध धर्म पर भरोसा करते हुए कहते हैं- “ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीनों तभी विद्यमान रह सकते हैं, जब व्यक्ति बुद्ध के मार्ग का अनुसरण करे। साम्यवाद एक ही चीज दे सकता है, सब नहीं।”

यहां हम पहले यह देखते हैं कि डॉ अम्बेडकर स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के नारे के लिए फ्रांसीसी क्रांति का स्वागत करते हैं परंतु समानता न ला पाने के कारण उसे खारिज कर देते हैं और समानता लाने के लिए रूसी क्रांति का स्वागत करते हैं। परंतु वे ये विचार नहीं करते कि क्या कारण था कि फ्रांसीसी क्रांति समानता लाने में विफल रही और रूसी क्रांति समानता लाने में क्यों सफ़ल हो सकी?

परंतु मुश्किल यह है कि डॉ अम्बेडकर का चिंतन करने का ढंग अनैतिहाासिक और अवैज्ञानिक है। क्योंकि समानता और स्वतंत्रता पर विचार करते समय उन्हें यह देखना चाहिए कि समाज जिसमें हम रह रहे हैं वह वर्ग विभाजित है और मोटे तौर पर यह शोषक और शोषित दो वर्गों में बंटा हुआ है। बुद्ध के समय में भी यह समाज वर्ग विभाजित हो चुका था। और उसके बाद दास स्वामी समाज, फिर सामंती समाज और फिर पूंजीवादी समाज व्यवस्थाएँ अस्तित्व में आ चुकी थीं। जिस फ्रांसीसी क्रांति की बात डॉ अम्बेडकर करते हैं, वह क्रांति यद्यपि स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का नारा देकर आई थी और उसने सामंतवाद से सत्ता छीन कर कानून का शासन स्थापित किया था जिसे जनता का शासन जनता के द्वारा और जनता के लिए लोकतंत्र का नाम दिया गया। परंतु क्या वास्तव में वह जनता का शासन स्थापित करने में सफल हुई? इतिहास कहता है कि वह जनता के नाम से पूंजी का शासन ही स्थापित कर सकी और इसी वजह से वह वास्तविक समानता स्थापित करने में असफल रही। इसलिए इस पूंजी के शासन में स्वतंत्रता भी केवल मुट्ठीभर शासक वर्ग के लिए थी। और जहाँ समानता नहीं वहां भ्रातृत्व कैसे संभव हो सकता है? पूंजीवादी लोकतंत्र में हम स्वतंत्रता का उपभोग तो करते हैं परंतु इसमें जिसके पास जितनी पूंजी होती है उसको उतनी ही स्वतंत्रता मिलती है। जैसे इस व्यवस्था में सामंतवाद की तुलना में मजदूरों को यह स्वतंत्रता मिल जाती है कि वे कहीं भी और किसी भी मालिक के यहां मजदूरी करने जा सकते हैं जबकि सामंतवाद में वह भू स्वामी के यहां पुश्तैनी ढंग से मजदूरी करता था और वह आजाद नहीं था। इसलिए उसे भूदास कहते थे, मजदूर नहीं।

यहां यह बात उल्लेखनीय है कि पूंजीवादी व्यवस्था सामंतवाद के गर्भ से पैदा हुई थी। सामंतवाद में भी दो वर्ग थे- भू-स्वामी या सामंत और दूसरा था भू-दास। यहां भू-दास का अर्थ है कि वह खुद की जमीन पर तो काम करता ही था साथ ही भू-स्वामी की जमीन पर भी काम करता था, यह काम वह बेगार के रूप में करता था जिसका मेहनताना पूरी तरह भू-स्वामी पर निर्भर करता था कि उसे कितना देना है या नहीं भी देना। और यह काम वह पुश्तैनी रूप से करता था। यानी उसके मरने के बाद उसका बेटा करेगा। उसके बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। वह पक्का मकान नहीं बना सकता था, उसे कच्चे मकान या झोंपड़ी में ही रहना पड़ता था। भारत में शूद्र और अतिशूद्रों की यही स्थिति थी। परंतु पूंजीवादी व्यवस्था जो इसी सामंतवाद के गर्भ से पैदा हुई उसमें दो नये वर्ग पैदा हुए – पूंजीपति और मजदूर। यहां मजदूर भू-दास से किस तरह भिन्न है, इसे भी समझने की जरूरत है। जहाँ भू-दास अपनी मजदूरी बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं था वहीं मजदूर को अपनी मजदूरी किसी भी मालिक को बेचने की स्वतंत्रता थी। और वह अपनी मजदूरी बेगार के रूप में नहीं देगा, बल्कि मजदूरी के बदले पैसे लेगा। यदि कोई मालिक पैसे नहीं देता है तो वह उसके यहाँ अपनी मजदूरी नहीं देगा। वह अपने बच्चों को पढ़ा सकता था और पक्का मकान भी बना सकता था। परंतु वह रहेगा पूंजीवादी व्यवस्था का गुलाम ही।

कारखाने में मजदूर जब एक ही जगह सैकड़ों और हजारों की तादाद में काम करते हैं तो उसे एक दूसरे से अपना दुख दर्द बाँटने की भी सुविधा हो गयी जो कि सामंतवाद में नहीं थी। अब वह अपनी ट्रेड यूनियन भी बना सकता था। और अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष कर सकता था। कार्ल मार्क्स से पहले इन सब चीजों को काल्पनिक समाजवादियों ने देखा।

कार्ल मार्क्स को यूरोप तक सीमित नहीं किया जा सकता है।

मार्क्स ने ही सबसे पहले नारा दिया था: “दुनिया के मजदूरो एक हो”। उन्होंने कहा था कि केवल मजदूर वर्ग ही है जो एक प्रगतिशील वर्ग है जो खुद को तो शोषण से मुक्त करेगा ही, साथ ही वह अन्य वर्गों को भी शोषण से मुक्त करेगा। दूसरी बात जो उन्होंने कही वह यह थी कि “समाज वर्ग विभाजित है और आदिम युग के बाद जो पहला वर्ग विभाजन था उसमें मनुष्य दास और दासों के स्वामी, शोषित और शोषक थे, इसके बाद भू दास और भूस्वामी (सामंत) वर्ग आया और वर्तमान में पूंजीवादी समाज भी वर्ग विभाजित है जिसमें पूंजीपति वर्ग और श्रमिक वर्ग हैं जो शोषक और शोषित हैं, यह वर्ग संघर्ष पूरे विश्व में चल रहा है जिसकी दिशा वर्ग विहीन कम्युनिस्ट समाज की ओर अग्रसर है। परंतु पूंजीवाद से कम्युनिज्म के बीच में एक संक्रमण काल भी आता है जो मजदूर वर्ग अर्थात सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व (Dictatorship) ही हो सकता है जिसे उन्होंने कम्युनिज्म की प्रथम अवस्था यानि समाजवाद कहा।” कम्युनिज्म वर्ग विहीन व्यवस्था होती है और यह तभी आयेगी जब विश्व के अधिकतर देशों में समाजवादी क्रांति के द्वारा समाजवाद स्थापित हो जायेगा। समाजवाद में वर्ग बने रहते हैं फर्क यह होता है कि जहाँ पूंजीवादी व्यवस्था में शासन पूंजीपति वर्ग के हाथ में होता है वहीं समाजवाद में सत्ता मजदूर वर्ग की होती है। मजदूर वर्ग अपनी एक कम्युनिस्ट पार्टी की रचना करता है जिसे मजदूर वर्ग का अगुआ दस्ता कहा जाता है। समाजवादी व्यवस्था में सर्वहारा की dictatorship होना लाजिमी होता है क्योंकि इस व्यवस्था में पूंजीपति वर्ग सत्ता में नहीं होता और वह किसी न किसी प्रकार फिर से सत्ता में आने का प्रयास करता है और प्रतिक्रांति की चाहत रखता है। इसीलिए समाजवादी व्यवस्था में प्रतिक्रांति को दबाने के लिए सर्वहारा की dictatorship चाहिए। और इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि जिस पूंजीवादी व्यवस्था में हम रह रहे हैं पूंजीपति वर्ग उसे पूंजीवाद नहीं कहता बल्कि लोकतंत्र कहता है। लोकतंत्र तो है परंतु 5% लोगों के लिए ही होता है और मजदूर किसानों के श्रम की लूट के लिए लोकतंत्र होता है और जब मजदूर किसान अपना हक मांगने के लिए आंदोलन करते हैं तो उनके आंदोलनों को राज्य द्वारा कुचल दिया जाता है पुलिस, फ़ौज और कोर्ट कोई भी उनके साथ न्याय नहीं करता। इसलिए यह लोकतंत्र नहीं बल्कि पूंजीपति वर्ग की तानाशाही है। और जब पूंजीपति वर्ग की तानाशाही हो सकती है तो मजदूर वर्ग की क्यों नहीं। हाँ ये अवश्य है कि मजदूर वर्ग के अधिनायकत्व में सिर्फ उन 5% पूंजीवादी तत्वों को दबाया जाता है जो सर्वहारा की सत्ता को खत्म कर देना चाहते हैं। इसलिए मजदूर वर्ग की तानाशाही 100 प्रतिशत जायज है न्याय संगत है। कारण कि समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन के साधनों से निजी स्वामित्व को खत्म करके सामूहिक स्वामित्व स्थापित किया जाता है और उत्पादन का उद्देश्य निजी मुनाफा नहीं बल्कि सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु उत्पादन होता है जिससे पूंजीपति वर्ग के समस्त उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित हो जाता है और पूंजीपति वर्ग जिसका अवशेष काफी लम्बे समय तक बना रहता है, कम्युनिस्ट पार्टी में घुसपैठ करके पुनः सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास करता है। जैसाकि सोवियत रूस और चीन में हो चुका है। समाजवादी व्यवस्था में मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण खत्म हो जाता है। अतः कम्युनिस्ट पार्टी में क्रांति के वाद भी खतरा बना रहता है और वर्ग संघर्ष जारी रहता है। इसलिए सर्वहारा वर्ग को पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर भी सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति को जारी रखना ही चाहिए।

आज दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर कम्युनिस्ट पार्टी न हो और समाजवादी व्यवस्था के लिए संघर्ष न किया जा रहा हो। यहां तक कि जहाँ समाजवादी देशों प्रति क्रांति हो चुकीं हैं वहाँ भी फिर से मजदूर वर्ग समाजवादी क्रांति के लिए प्रयास कर रहा है। भारत में भी संघर्ष जारी है। यहां लोग जाति व्यवस्था के कारण भ्रमित हो जाते हैं। डॉ अम्बेडकर ने भी सबसे पहले स्वतंत्र मजदूर दल के नाम से महाराष्ट्र में मजदूर वर्ग की पार्टी बनाई थी। संविधान बनाने से पूर्व डॉ राजेंद्र प्रसाद जो कि संविधान सभा के अध्यक्ष थे, को ज्ञापन देकर मांग की थी कि उद्योगों और कृषि को राज्य अपने अधिकार में ले अर्थात उन्होंने राज्य समाजवाद की बात की थी। परंतु वे इसे संविधान में लागू नहीं करा सके। अतः हम यह नहीं कह सकते कि मार्क्स की प्रासंगिकता केवल यूरोप तक सीमित है। मार्क्सवादी विचारधारा एक वैज्ञानिक दर्शन है जो सर्वहारा वर्ग की मुक्ति का सिद्धांत है। जिस प्रकार किसी विज्ञान की खोज को संपूर्ण मानवता के लिए उपयोगी मानते हैं उसी तरह यह मार्क्सवादी विचारधारा भी विश्व की समस्त मानव जाति के लिए तथा शोषित वर्ग की मुक्ति के लिए एक वैज्ञानिक विचारधारा है।