वैश्विक आपूर्ति श्रंखला संकट – पूंजीवादी उत्पादन की अराजकता का नतीजा

वैश्विक आपूर्ति श्रंखला संकट – पूंजीवादी उत्पादन की अराजकता का नतीजा

October 14, 2021 0 By Yatharth

मुकेश असीम

अचानक एकदम से चारों ओर से कोयले की कमी से बिजली एवं अन्य विभिन्न मालों के उत्पादन में रुकावट की खबरें आने लगी हैं। पर न तो अचानक से प्रकृति में कोयला इतना कम हो गया है, न कोई खान अचानक बंद हुई, न हाल फिलहाल कोई ऐसी बडी प्राकृतिक आपदा आई जिससे खनन रूक गया हो। न कोयला निकालने वाले मजदूर कम पड गये हैं, न उन्होंने कोई हडताल ही की है। न कोयला लाने ले जाने वाले जहाज-रेल-ट्रक ही नष्ट हो गए हैं, न ही उन्हें चलाने वाले श्रमिकों ने मजदूरी बढवाने के लिए काम बंद किया है।

फिर अचानक ये ‘सप्लाई चेन डिसरप्शन’ क्यों? वो भी कहीं एक दो जगह नहीं, पूरी दुनिया में।

कोई सामान्य तौर पर समझ में आ सकने वाली वजह?

फिर ये उत्पादन व आपूर्ति में रुकावट की स्थिति सिर्फ कोयले के मामले में ही नहीं है। अमरीका, यूरोप, एशिया अर्थात पूरी दुनिया से इसी तरह पेट्रोल-डीजल, कंप्यूटर चिप्स, जूतों, दवाइयों, आदि विभिन्न मालों की कमी की खबरें हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार अमरीकी बड़े स्टोर्स, माल्स में सामान की बहुत सी शेल्फ खाली पड़ी है। भारत में कार से कंप्यूटर, मोबाइल फोन व अन्य इलेक्ट्रोनिक निर्माता कह रहे हैं कि चिप्स की कमी से उत्पादन बाधित है।

उधर ब्रिटेन में पहले कहा गया कि माल की नहीं ट्रकों की कमी है जो माल ढो सकें। फिर खबर आई कि ट्रकों की नहीं ड्राइवरों की कमी है जो ट्रक चला सकें। अमरीकी मीडिया ने आरोप लगाया है कि चीन ने दो बार अपने बड़े बंदरगाह अचानक बंद कर दिये इसलिए जहाजों व कंटेनरों के संचरण में समस्या है, समय ज्यादा लग रहा है। फिर कहा गया वियतनाम ने जूते अमरीका भेजने के बजाय हैटी को दान कर दिये, इसलिए जूतों की कमी हो गई है। भारतीय मीडिया भी कह रहा है कि कोयले के जहाज चीनी बंदरगाह में अटक गए इसलिए कोयले की कमी है।

उधर चीन के शी जिन पिंग तो एक साल से शिकायत कर रहे हैं कि अमरीकी-यूरोपीय साम्राज्यवादी खेमा वैश्विक आपूर्ति श्रंखला को तोड़ रहा है जिससे चीन के औद्योगिक उत्पादन में बाधा पड़ रही है। इसलिए चीन को ‘आत्मनिर्भर’ होना पड़ेगा। शी जिनपिंग ने तो चीन के ‘विकास के नए चरण’ के लिए दोहरे संचरण अर्थात डुअल सर्कुलशन का पूरा सिद्धांत ही दे दिया है जिसके अनुसार चीन अपने घरेलू उत्पादन और वैश्विक व्यापार को पूरी तरह एकीकृत करने के बजाय दोनों को स्वतंत्र रखने की कोशिश कर रहा है ताकि अमरीकी खेमा उसे अलग-थलग करे या युद्ध की स्थिति हो तो उसकी अर्थव्यवस्था ठप न हो। पर अमरीका से मोदी तक चीन विरोधी खेमा भी चीन पर ठीक यही इल्जाम लगा आत्मनिर्भरता बढ़ाने की बात कर रहा है।

फिर ब्रिटेन में ड्राइवरों की कमी की तरह ही विभिन्न देशो के कई पूंजीपति और कारोबारी मीडिया श्रमिकों की कमी का रोना भी रो रहा है। उधर हम सब जानते हैं कि बेरोजगारी चरम पर है, श्रमिकों को काम मिल नहीं रहा है। पर अभी कुछ महीने पहले ही तो ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग ने ब्रेक्जिट यह कहकर ही किया था कि पूर्वी यूरोप से बड़ी संख्या में आ रहे सस्ते आप्रवासी श्रमिक ब्रिटिश मजदूरों के रोजगार छीन रहे हैं। आप्रवास को ही वे देश की सबसे बड़ी समस्या बता रहे थे। अर्थात जिन सस्ते आप्रवासी ड्राइवरों को देश में आने से रोकने व भगाने को वे सबसे जरूरी काम बता रहे थे अब उनकी कमी को समस्या की वजह बता रहे हैं। खुद भारत में ही पूंजीपति वर्ग मजदूरों को रोजगार से निकालने की खुली छूट न होने को सबसे बड़ी समस्या बताते आए हैं, वे तो हायर व फायर का अधिकार मांगते आए हैं। लेकिन अब तो बेरोजगारी इतिहास के चरम पर है, श्रमिक काम के लिए परेशानहाल हैं, फिर मजदूरों की कमी क्यों है?

ऐसे ही बहुत से उदाहरण और सवाल हम प्रस्तुत कर सकते हैं कि जो बात दुनिया के पूंजीपति, उनके विशेषज्ञ और उनका मीडिया बता रहा है वह न सिर्फ पूरी तरह बेतुकी है बल्कि कुछ महीने पहले तक ही खुद वे ही ठीक इसकी उल्टी बातें बोल रहे थे। फिर असल समस्या कहाँ है? उसके लिए तो हमें अपनी पड़ताल को पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली और खास तौर पर उसकी वैश्विक आपूर्ति श्रंखला की मौजूदा स्थिति पर केन्द्रित करना होगा। इस अत्यंत संक्षिप्त टिप्पणी में हम इसके चार पक्षों का ही सरसरी तौर पर जिक्र करेंगे।

एक, पूंजीवादी उत्पादन का मूल मकसद हरेक पूंजीपति मालिक का अधिकतम मुनाफा है, सामाजिक अवश्यकता की पूर्ति करना नहीं। अतः हरेक पूंजीपति अपने उत्पादन को तो पूरी तरह एवं सूक्ष्म स्तर तक नियोजित करता है ताकि वह सस्ते से सस्ता कच्चा माल और कम से कम मजदूरी लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन करा बाजार होड़ में खुद को दूसरे पूंजीपतियों से आगे ले जा सके। पर पूरे समाज के तौर पर पूंजीवादी उत्पादन नियोजित होना मुमकिन नहीं क्योंकि हर पूंजीपति अपने मुनाफे के मुताबिक निरंतर अपनी स्थिति बदलता रहता है। यह पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में अराजकता की बुनियादी वजह है।

दो, सस्ते से सस्ते कच्चा माल एवं सस्ते श्रमिकों द्वारा उत्पादन की इस होड़ ने मौजूद वैश्विक आपूर्ति श्रंखला को जन्म दिया है जहां हर माल का उत्पादन स्थानीय या एक देश तक सीमित नहीं रहकर एक वैश्विक उत्पादन व्यवस्था का हिस्सा बन गया है अर्थात बाजार में अंतिम उपभोग के लिए बिक्री हेतु पहुंचने वाले हर माल के उत्पादन में बहुत सारे देशों के पूंजीपति व श्रमिक जुड़े हैं। उदाहरण के तौर पर अनुमान है कि एक मोबाइल फोन के अंतिम रूप में बाजार में आने में लगभग सत्तर देशों की उत्पादन प्रणाली का योगदान होता है – सभी मूल तत्वों के खनन, शोधन, रूपांतरण, पुर्जों का उत्पादन, सॉफ्टवेयर, डिजाइन, आदि सभी मिलाकर। यातायात के तीव्र विकास एवं सस्ता होने ने, खास तौर पर बड़े समुद्री जहाजों की गति व क्षमता में वृद्धि, ने इसे संभव व सुगम बनाया है। अतः अब कोई देश उत्पादन को सुचारु रूप से चलाने के लिए पूरे विश्व पर निर्भर है।

तीसरे, ‘जस्ट इन टाइम’ या ‘ऐन मौके पर उत्पादन’ वाला तकनीकी प्रबंधन। अंतिम उत्पाद हो या बीच में पुर्जो का उत्पादन उसके बनाने वाले उद्योग के लिए बने माल को भंडार करने की लागत है, उससे चालू पूंजी की जरूरत बढ़ जाती है जिस पर ब्याज चुकाना पड़ता है। फिर एक और तो तकनीक लगातार बदल रही है, पुराने उत्पाद और मॉडल तेजी से बाजार से बाहर हो जाते हैं। साथ ही होड़ की अनिश्चितता भी है। अतः कोई भी पूंजीपति बिना बिक्री की निश्चितता के माल का उत्पादन नहीं करना चाहता। उसे भरोसा नहीं कि बिना ऑर्डर के बनाया माल बिक ही जाएगा। अतः ऐन मौके पर उत्पादन – यह भी तीव्र एवं सस्ते यातायात की वजह से ही विकसित हुआ है। हालांकि भी अति-उत्पादन या बिक्री से अधिक उत्पादन की समस्या हो जाती है, उसकी बात अभी हम नहीं करेंगे, पर उसका राज पूंजीवादी उत्पादन की अराजकता को जो जिक्र हमने किया उसी में छिपा है।

चौथा, पूंजीवादी होड़ ने इजारेदारी को जन्म दिया है। अब अधिकांश उद्योगों में दो-चार इजारेदार पूंजीपतियों का प्रभुत्व है जो उसके उत्पादन से वितरण तक को अपने कब्जे में ले चुके हैं। फिर इस आपूर्ति श्रंखला में जुड़े पूंजीपति एक दूसरे के साथ समझौते और एक-दूसरे की कंपनियों में शेयर खरीद एक साथ जुड़ रहे हैं ताकि दूसरे प्रतिद्वंद्वियों के बजाय एक दूसरे से खास डील कर सकें, जैसे पेट्रोकेमिकल्स के कच्चे माल में विशेष समझौते के लिए अंबानी सऊदी अरामको को रिलायंस इंडस्ट्रीज के बोर्ड में जगह दे रहा है और गेल ने अमरीकी प्राकृतिक गैस कंपनी में हिस्सेदारी खरीदी है या अडानी ऑस्ट्रेलियाई कोयला खदान में निवेश कर रहा है या अमेजन ने अपने प्लेटफार्म पर बिक्री के लिए क्लाउडटेल के साथ विशेष समझौता किया है जिसमें अमेजन का 25% हिस्सा है जबकि नारायण मूर्ति की कंपनी का 75%। इन आपसी समझौतों-निवेश के जरिए कच्चे माल के उत्पादन से अंतिम उत्पाद की बिक्री तक की इन श्रंखलाओं पर इजारेदार पूंजीपतियों के गिरोह आधिपत्य कर रहे हैं और होड भी कर रहे हैं। इनमें सस्ते माल के लिए सहयोग-समझौते भी होते हैं पर मुनाफे में अधिक हिस्से के लिए द्वंद्व, खींचतान, दांवपेंच भी चलते हैं।    

इस प्रकार उत्पादन की पूरी व्यवस्था सिर्फ क्षेत्र या देश ही नहीं वैश्विक स्तर पर एकीकृत व सामाजिक होती जा रही है। इसके जरिए उत्पादकता को बढाने और मानवता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन में असीम वृद्धि की संभावनाएं खुल गई हैं। परंतु इस एकीकृत सामाजिक उत्पादन को सुचारू ढंग से चलाने के लिए जो नियोजन व आपसी सहयोग-संयोजन चाहिए वह निजी मालिकाने और मुनाफे के लिए चलने वाली उत्पादन प्रणाली में मुमकिन नहीं है क्योंकि मुनाफे के लिए होड, जोडतोड, खींचतान, दांवपेंच इस व्यवस्था का अनिवार्य चरित्र है।

जब तक पूंजीवादी उत्पादन में इजारेदारी नहीं थी, एक पूंजीपति पूरी उत्पादन व्यवस्था को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होता था पर मौजूदा उत्पादन में सामान्य इजारेदारी ही नहीं पूरी उत्पादन श्रंखला पर आधिपत्य के लिए वैश्विक इजारेदार पूंजीपति गुटों गिरोहों में होड व द्वंद्व है। अतः उत्पादन में कहीं एक जगह बाधा पडने या किसी एक पूंजीपति के दिवालिया हो जाने से पूरी वैश्विक श्रंखला में ही बाधा उत्पन्न हो रही है। अब तो यह द्वंद्व साम्राज्यवादी पूंजी के विभिन्न खेमों में टकराव के रूप में सामने आ रहे हैं जो युद्ध या तनाव की स्थिति भी पैदा कर रहे हैं। उदाहरणार्थ अभी हाल में अमरीका व ब्रिटेन ने ऑकस बना ऑस्ट्रेलिया को अपने खेमे में खींच लिया और ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस को पनडुब्बी खरीद का पहले का दिया ऑर्डर रद्द कर अमरीकी ब्रिटिश पूंजीपतियों को दे दिया। फ्रांस ने इसे पीठ में छुरा घोंपना करार दिया। इससे पनडुब्बी उत्पादन में शामिल पूरी श्रंखला को अपनी योजनाएं बदलनी होंगी।

पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के ये आपसी टकराव और मुनाफे की लडाई का नतीजा इस प्रकार के सप्लाई चेन डिसरप्शन के अलावा और क्या हो सकता है? इजारेदार पूंजीपति पूरी दुनिया को ब्लैकमेल कर कीमतों को आसमान पर पहुंचा रहे हैं, सुपर मुनाफा लूट रहे हैं, यह भी इसका एक पहलू है। भारत में ही कोयले की समस्या से जहां सार्वजनिक उत्पादन इकाइयों को बंद करना पड रहा है, खुले बाजार में निजी इकाइयों की बिजली के दाम 14-17 रू प्रति यूनिट तक पहुंच गए हैं। जहाजरानी के क्षेत्र में देखें तो कंटेनर भाडा कुछ महीनों में ही तीन गुना तक बढ गया है।

लब्बोलुआब यह है कि आज उत्पादक शक्तियां और तकनीक विकसित हो जहां पहुंच गई है उसे समाज हित में चलाने में निजी मालिकाने पर आधारित दिवालिया पूंजीवादी उत्पादन संबंध सक्षम ही नहीं हैं। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था की अराजकता विकसित उत्पादक शक्तियों को संचालित नहीं कर सकती, उसके लिए सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नियोजित उत्पादन व्यवस्था अर्थात समाजवादी व्यवस्था चाहिए। पर एक ओर जहां पूंजीवाद पूरी दुनिया को हर तरह के विनाश के मुहाने पर ला खडा कर रहा है तो यहां बहुत से लालबुझक्कड़ वही तोतारटंत बोलते जा रहे हैं कि मजदूर काम नहीं करते इसलिए समस्या है, निजी क्षेत्र में दे दो, सब सही हो जायेगा।