जनसंख्या विस्फोट के मिथकों का पर्दाफाश

जनसंख्या विस्फोट के मिथकों का पर्दाफाश

October 14, 2021 0 By Yatharth

एस वी सिंह स्रोत: द हिंदू

भारत में विभिन्न धर्मों के बीच तुलनात्मक प्रजनन दर पर वाशिंगटन डीसी की ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ की रिपोर्ट, विभिन्न राज्यों में भाजपा सरकारों द्वारा इन दिनों फैलाई जा रही इस कहानी की हवा निकाल देती है कि हमारे देश में एक बड़ा जनसंख्या विस्फोट हो रहा है जो बड़े पैमाने पर गरीबी, अभूतपूर्व बेरोजगारी और जनता के सभी दुख के लिए जिम्मेदार है तथा मुस्लिम आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है और वे जल्द ही हिंदुओं से अधिक हो जाएंगे। असल में यहां हिंदुओं पर कोई खतरा नहीं मंडरा रहा है। समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने और चुनाव जीतने का यह हथकंडा इस रिपोर्ट से धराशायी हो जाता है तथा 14.2% से बढ़कर 79.8% आबादी हो जाने के खतरे का सिद्धांत अपने पैरों खड़ा नहीं हो पाता।

ये इस मूल्यवान रिपोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं, विशेष रूप से भारत के संदर्भ में जहां दंगाइयों द्वारा एक गैर-मुद्दे को एक बड़ा मुद्दा बनाया जा रहा है।

• हाल के दशकों में भारत की प्रजनन दर में तेजी से गिरावट आई है। आज औसत भारतीय महिला के अपने जीवनकाल में 2.2 बच्चे होने की उम्मीद है। यह 1992 में 3.4 और 1950 में 5.9 थी। यह संयुक्त राज्य अमेरिका के 1.6 की तुलना में भी बहुत अधिक नहीं है। जैनियों की प्रजनन दर सबसे कम 1.2 है।

• मुस्लिम प्रजनन दर आज 2.6 है हालांकि हिंदू दर 2.1 से मामूली अधिक है, लेकिन हाल के दशकों में मुस्लिम प्रजनन दर में गिरावट हिंदुओं की तुलना में अधिक है। भारतीय मुसलमानों में प्रजनन दर 1992 में 4.4 से गिरकर 2015 में 2.6 हो गई है जबकि हिंदुओं के मामले में यह 1992 में 3.3 से गिरकर 2015 में 2.1 हो गई है।

• प्रजनन दर में मामूली अंतर के लिए धर्म ही एकमात्र कारक नहीं है। अध्ययन के अनुसार क्षेत्र भी एक भूमिका निभाता है। उच्चतम प्रजनन दर बिहार में 3.4 है, इसके बाद यूपी 2.7 आता है और सबसे कम तमिलनाडु में 1.7 और केरल में 1.6 है। यह पुष्टि करता है कि प्रजनन दर में अंतर में शिक्षा और वित्तीय स्थिति धर्म की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

• भारत के धार्मिक समूहों के बीच बच्चे पैदा करने में आपसी अंतर आम तौर पर पहले की तुलना में बहुत कम है। 1951 के बाद से जनसंख्या के समग्र धार्मिक स्वरूप में केवल मामूली परिवर्तन हुए हैं।

• 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदुओं की संख्या भारत के कुल निवासियों का 79.8% है जो 2001 की तुलना में केवल 0.7% कम है।

• आप्रवास जिसे वर्तमान फासीवादी सरकार द्वारा जीवन और मृत्यु का मुद्दा बनाया जा रहा है, वास्तव में, एक गैर-मुद्दा है, बल्कि कोई मुद्दा ही नहीं है। अध्ययन से पता चलता है कि भारत में रहने वाले 99% से अधिक लोग भी भारत में पैदा हुये हैं। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत छोड़ने वाले लोगों की संख्या भारत आने वाले लोगों से अधिक है। भारत छोड़ने वाले मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से ज्यादा है। अध्ययन ने भारत में आप्रवासियों की अनुमानित संख्या की जो अटकलें लगाई जा रही हैं उस पर भी रिपोर्ट में संदेह व्यक्त किया गया है, “यदि आस-पास के देशों के करोड़ों मुसलमान वास्तव में भारत में आते, तो अपने मूल के देशों के जनसांख्यिकी आंकड़ों में भी इस बड़े पैमाने पर प्रवास के सबूत देखने को मिलते, और ऐसा पलायन का कोई प्रमाण देखने में नहीं आया है।”

• संघियों का एक और झूठ नकारते हुये इस रिपोर्ट से पता चलता है कि धर्मांतरण का भारत की समग्र जन संरचना पर भी नगण्य प्रभाव पड़ा है, 98% भारतीय वयस्क अभी भी उस धर्म की पहचान के साथ ही रह रहे हैं, जिसमें उनका जन्म व पालन-पोषण हुआ था।

• बेटी पर बेटे को वरीयता, जो लिंग-चयनात्मक गर्भपात की ओर ले जाती है, जिसके कारण 1970 से 2017 के बीच 2 करोड़ लड़कियों की अनुमानित कमी हुई, किसी भी अन्य समुदाय की तुलना में हिंदुओं में अधिक प्रचलित है।

• अगर वास्तव में किसी को अपने धर्म पर खतरे की चिंता की बात है तो वे पारसी हैं। 60 वर्षों की अवधि के दौरान उनकी जनसंख्या आधी रह गई है, 1951 में 1,10,000 से 2011 में केवल 60,000।

• सबसे दिलचस्प बात यह है कि 2011 में कुल 120 करोड़ आबादी में से लगभग 80,00,000 किसी भी धर्म से संबंधित नहीं थे। वे ज्यादातर आदिवासी हैं (या कम्युनिस्ट भी हो सकते हैं!!)

• जैन, सिख, बौद्ध और ईसाई सभी में प्रजनन दर हिंदुओं की तुलना में कम है।

यह रिपोर्ट बिना किसी संदेह के इस बात की पुष्टि करती है कि जनसंख्या विस्फोट, मुसलमानों की संख्या अधिक होने का डर और हिंदुओं के लिए खतरा, बांग्लादेश से बड़ी संख्या में मुसलमानों का आप्रवास, मुसलमानों और ईसाइयों द्वारा हिंदुओं का धर्मांतरण, आदि की बातें झूठ, शरारतभरी और तथ्यों के विपरीत है। एक के बाद एक राज्य में भाजपा सरकार द्वारा जनसंख्या पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने का जमीनी हकीकत से कोई संबंध नहीं है। फासीवादियों के ये सभी कृत्य, जाहिर तौर पर, लोगों को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने, उन्हें एक-दूसरे से लड़ने और उन्हें मूर्ख बनाकर शासन करने के लिए परोक्ष उद्देश्य से किए जा रहे हैं। यह रिपोर्ट इस झांसे का पर्दाफाश कर देती है।