किसान आंदोलन – लखीमपुर खीरी

किसान आंदोलन – लखीमपुर खीरी

October 16, 2021 0 By Yatharth

किसान आंदोलन के ऊपर ‘राज्य’ की तरफ से प्रथम गंभीर हमला और इसके अवश्यंभावी परिणाम

शेखर

जैसा कि सभी को ज्ञात है, विगत 3 अक्टूबर को उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी में हाथों में काले झंडे लिये किसानों के झुंड के ऊपर तेज रफ्तार ‘थार’ और ‘फाॅरचुनर’ गाड़ियां साजिशन चढ़ा दी गईं, जिसकी चपेट मेें आये चार किसान प्रदर्शनकारियों तथा एक पत्रकार की घटना स्थल पर ही मौत हो गई और दर्जनों अन्य लोग गंभीर रूप से घायल हो गये। कुल मिलाकर 9 लोगों की मौत उस घटना के कारण अब तक हो गई है।

सवाल है, क्या यह हत्याकांड महज एक दुर्दांत घटना भर है? या फिर यह हमारे द्वारा पहले दिन से ही इंगित किसानों के ‘राज्य’ से होने वाले भावी गंभीर टकरावों का पूर्वारंभ है जिसके बारे में हमने शुरूआत में जिक्र किया था? किसान आंदोलन की अब तक की यात्रा के दौरान जहां इसमें निरंतर तीव्रता आई है, वहीं लखीमपुर खीरीे में जो हुआ वह तीव्र से तीव्रतर होते किसान आंदोलन के ऊपर राज्य का प्रथम खुला हमला है जिसका अवष्यंभावी परिणाम निकट भविष्य में ‘राज्य’ और किसानों के बीच गंभीर टकरावों तथा भावी राजनीतिक विस्फोटों की शक्ल में प्रकट होगा। इसके बीज इस हमले ने रोप दिये हैं। यह हमला मौजूदा पूंजीवादी राज्य से व्यापक किसानों के अंतिम संबंध-विच्छेद का पूर्वाधार बनेगा यह भी लगभग निश्चित हो चुका है। कुलमिलाकर यह किसान आंदोलन के क्रांतिकारीकरण की ओर एक बहुत बड़ा कदम साबित होगा।

मसला सिर्फ हमले और इसके परिणामों का नहीं है। किसानों की मुख्य मांगें निम्नलिखित हैं- पहला, कानूनी गारंटी वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की मांग (सभी किसानों के लिए तथा सभी फसलों के ऊपर कानूनी गारंटी वाला एमएसपी) और दूसरा, पूंजीवादी कृशि के दूसरे चरण के विकास के दौर में काॅर्पोरेट खेती की ओर लक्षित कृषि कानूनों की पूरी तरह वापसी की मांग। इन दोनों मांगों के पूंजीवादी राज्य द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किये जाने की संभावना और भौतिक परिस्थितियां भी इस हमले को भावी गंभीर टकरावों की तरफ धकेलेंगी और धकेल रही हैं। हमलोगों ने इस आंदोलन की शुरुआत में ही इस ओर खुले तौर पर इंगित किया था कि ये मांगें किसी भी पूंजीवादी राज्य के द्वारा स्वीकार किया जाना संभव नहीं है और किसानों के जीवन की परिस्थितियां अगर इन्हें इन मांगों पर अंत तक टिके रहने को मजबूर करती हैं, तो फिर किसानों और पूंजीवादी राज्य के बीच होने वाले टकरावों को कोई रोक नहीं सकता है जिसके परिणामस्वरूप पूरे किसान आंदोलन का एक साथ क्रांतिकारीकरण भी संभव है। इजारेदार वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के दौर में नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ खड़े हुए किसान आंदोलन की ही नहीं, अपितु किसी भी वास्तविक जनांदोलन की इसे आम विशेषता ही मानी जानी चाहिए कि अगर उसमें बड़े पैमाने की जन भागीदारी है तथा वह जीवन की ठोस परिस्थितियों से परिचालित हो रहा है तो वह अक्सर निर्णायक लड़ाई का चरित्र ग्रहण करेगा, क्योंकि इजारेदार पूंजी के वर्चस्व के इस दौर में आम जनता के हितों की पूर्ति के लिए जगह कम से कमतर होती जा रही है, बल्कि इसके उलट उनके हितों पर सतत कुठाराघात ही इस दौर की मुख्य विषेशता है। यहां तक कि पूंजीवादी राज्य पूरी तरह (जाहिर है एक प्रवृत्ति के तौर पर), उस हद तक इजारेदार पूंजी के हितों के अधीन आ चुका है कि छोटी व मंझोली पूंजियों के हित भी कुचल दिये जा रहे हैं। इसलिए ऐसे में जैसे ही कोई वास्तविक जन भागीदारी वाला आंदोलन एक सीमा के आगे तीव्र होगा, ‘राज्य’ के साथ उसका टकराव अवश्यम्भावी हो जाता है, और इसके परिणामस्वरूप उस आंदोलन का क्रांतिकारीकरण भी तेज होने लगता है और अन्य सकारात्मक परिस्थितियों के मौजूद होने पर वह निर्णायक दौर की लड़ाई में भी तब्दील हो जा सकता है।

किसान अपने जीवन के कटु अनुभवों से गुजरते हुए, न कि किसी राजनीतिक या वैचारिक आंदोलन के प्रभाव में, और एकमात्र तीव्र गति से बदलते हालात में अपनी मांगों के विकासक्रम में, इसमें अंतर्भूत द्वंद्वात्मक गति के अधीन, जिन मांगों तक जा पहुंचे हैं, ये मांगें, जहां तक इन मांगों में क्रांतिकारी अंतर्य है, पूंजीवादी व्यवस्था की सीमा से टकरा रही हैं और उसके भीतर कभी पूरा होने वाली मांगें नहीं हैं, और अगर किसान इन मांगों पर तक अड़े रहते हैं, तो ये मांगें व इसके लिए होने वाली अनवरत लड़ाई किसानों को स्वयंस्फूत तरीके से पूंजीवाद की सीमा के पार जाने व सोंचने को विवश करेंगी तथा अंततः सर्वहारा राज्य को उनकी परिकल्पना में लायेंगी, जिसका अंतिम परिणाम पूंजीवाद राज्य से इनके होने वाले भावी टकरावों की तीव्रता और स्वयं पूंजीवाद को अमली तौर पर कब्र में दफनाने वाली मजदूर वर्गीय ताकतों की आत्मगत व वस्तुगत तैयारियों पर निर्भर करेगा। इसलिए ही हमलोग पहले दिन से यह कहते आ रहे हैं कि इन दो मुख्य मांगों के इर्द-गिर्द किसानों का राज्य के साथ होने वाला हर टकराव (जिसमें ‘राज्य’ के तरफ से होने वाला हमला ही टकराव का मुख्य संघटक तत्व होगा) किसानों को चाहे-अनचाहे सर्वहारा राज्य की अनिवार्यता को आत्मसात व स्वीकार करने की ओर भी प्रेरित करेगा और इसके सर्वोतम तत्व निस्संदेह इसके पक्ष में आगे आयेंगे। इन अर्थों में, और खासकर इन्हीं अर्थों में, यह आंदोलन सामान्य आंदोलन नहीं है और इसीलिए इस पर सामान्य तरीके से विचार नहीं किया जाना चाहिए। इन सबके बारे में हमने अब तक जो भी लिखा या कहा है वह अब तक हुए घटनाक्रम से पूरी तरह सच के अत्यंत करीब साबित हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो यह आंदोलन हमारी ही सोंच व परिकल्पनाओं की उपज है। इस आधार पर अपने विष्लेशण को आगे बढ़ाते हुए किसान आंदोलन के आगे के भविष्य के बारे में हम अगर ठोस रूप से कुछ कहना चाहें, तो हम स्वयं को यह साफ-साफ कहने की स्थिति में पाते हैं कि लखीमपुर खीरी में किसानों के ऊपर ‘राज्य’ की तरफ से हुआ यह प्रथम सुनियोजित हमला न सिर्फ व्यापक किसानों को, बल्कि, अगर यह गंभीर राजनीतिक टकरावों से भरे देशव्यापी राजनीतिक हलचलों व सरगर्मियों का कारण बनता है, तो यह देश की व्यापक जनता के भी ‘राज्य’ से पूर्ण ‘संबंध-विच्छेद’ और अंततः फेसलाकुन टकरावों की ओर ले जाएगा, जिसकी अंतिम परिणति कम से कम भावी सर्वहारा राज्य की अनिवार्यता को महसूस कराने वाली परिस्थितियों के प्रादुर्भाव में तो अवश्य होगी, बशर्ते मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी ताकतें भी परिस्थिति के अनुरूप आचरण करें और इन टकरावों में निहित क्रांतिकारी तत्वों की सही समझ के आधार पर क्रांतिकारी रणनीति बनाने और उस पर अमल करने की हिम्मत दिखा सकें।

आइए, यह देखें कि हम शुरुआत से ही ठीक-ठीक ये ही बातें किस तरह कहते आ रहे हैं।

‘‘यथार्थ‘‘ के 9वें अंक (जनवरी 2021) में ही हमने ये सारी बातें साफ-साफ लिखी थीं जिसे किसान आंदोलन की अब तक की यात्रा पूरी तरह सही साबित करती है –

“इस आंदोलन ने यह दिखा दिया है कि इसमें पूरे देश को आंदोलित करने की क्षमता है। आंदोलन शुरू होने के 45 दिन बाद हम यह कह सकने की स्थिति में हैं कि इसमें आम व्यापक किसानों की कार्पोरेट से मुक्ति की गूंज समाहित हो चुकी है जिसे ‘राज्य’ के साथ इसके बढ़ते टकराव के मद्देनजर मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी प्रोग्रामशुदा हस्तक्षेप से पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ भी मोड़ा जा सकता है और मोड़ने की कोशिश करनी चाहिए, क्‍योंकि यह आंदोलन अपने आप से ही, यानी अपनी आंतरिक द्वंद्वात्‍मक गति के अधीन नयी संभावनाओं को समेटे नई तरह की जागृति से अनुप्राणित होने की ओर अग्रसर है। अगर आंदोलन और भी तीव्र होता है, तो मजदूर वर्ग के हिरावल संगठनों को द्रुत गति से सांगठनिक से ज्‍यादा वैचारिक तथा राजनैतिक हस्तक्षेप के लिए मैदान में अवश्य ही उतरना चाहिए।” (बोल्ड हमारा, पीआरसी सीपीआई(एमएल) द्वारा जारी ‘‘किसानों की मुक्ति और मजदूर वर्ग’’ नामक पुस्तिका पर आधारित लेख से)

‘‘हम पाते हैं कि पूरा किसान आंदोलन समस्त कृषि उत्पादों की सरकार द्वारा पूर्व में तय दाम पर खरीदने की मांग पर टिक गया है जिसका अर्थ यह है कि किसानों की मांग मूल रूप से सरकार के साथ कांट्रैक्ट खेती शुरू करने की है जिसे आज के फासीवादी उभार के दौर की बुरी तरह संकटग्रसत पूंजीवादी व्यवस्था तो क्या, कोई सामान्य पूंजीवादी व्यवस्था वाली सरकार भी पूरा नहीं कर सकती है, क्योंकि इसकी पूर्व शर्त समस्त उत्पादन को मुनाफा की हवस के दायरे से बाहर निकालना है जो उत्पादन के साधनों को सामाजिक स्वामित्व में लाये बिना और स्वयं उत्पादन का सामाजीकरण किये बिना, अर्थात पूंजी को सत्ता से हटाये बिना और समाज को समाजवादी ढांचे के आधार पर पुनर्गठित किये बिना संभव नहीं है। यहां स्पष्ट है कि इस मांग का अंतर्य पूंजीवादी राज्य का विरोधी है। इसलिए इसका हल कोई सर्वहारा राज्य ही वास्तविक किसानों को सामूहिक फार्म में संगठित करके उनके साथ कांट्रैक्ट खेती की व्यवस्था के माध्यम से कर सकता है, जैसा कि समाजवादी रूस में किया गया था।’’ (वही)

और आगे –

“मजदूर वर्ग के लिए इसमें सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि इस आंदोलन ने कृषि के पूंजीवादी विकास के रास्ते के दुष्परिणामों, जिसमें कार्पोरेट खेती भी शामिल है, को आम किसानों के प्रतिरोध के निशाने पर ले लिया है। यह आंदोलन पूंजीवादी कृषि से अमीर बनने की नाउम्मीदी को भी उजागर करता है। यह एक दूसरे की लाश पर पैर रखते हुए विकास हासिल करने के पूंजीवादी सिद्धांत का निषेध करता है। यह किसानों के बीच नूतन क्रांतिकारी विचारों के जन्‍म और प्रसार को प्रोत्‍साहित करने वाला वातावरण पैदा कर रहा है। इससे चाहे-अनचाहे और जाने-अनजाने किसान समुदाय के अंदर एक पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारी विचारधारा का प्रसार भी हो रहा है जिसे आगे पोषित करने का काम मजदूर वर्ग और इसकी अगुआ ताकतों का है। अगर ऐसा हो पाता है तो यह मौजूदा राज्य व समाज के क्रांतिकारी कायाकल्प को न सिर्फ प्रभावित करेगा, अपितु उसे द्रुत गति से पूरा करने की ताकत भी मजदूर वर्ग को प्रदान करेगा।” (वही)

“इस (तीखे होते जा रहे) आंदोलन से कुल मिलाकर मुख्य रूप से क्या परिलक्षित हो रहा है? यही कि आम किसान आज यह मानने को विवश हैं कि ऊंचे दाम पाने की पूंजीवादी होड़ में वे जमीन के एक छोटे टुकड़े के स्वामी होने तथा छोटे पैमाने के उत्पादन के आधार पर अब और नहीं टिक सकते तथा वे एक सुखी-संपन्न जिंदगी की चाहत को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने के पूंजीवादी कृषिउत्पादन के समक्ष प्रतिस्पर्धा में महज ऊंचे दाम की उत्प्रेरणा के भरोसे और ज्यादा दिन तक जोखिम नहीं उठा सकते। वे जानते हैं, छोटे उत्पादक के बतौर यही होड़ उन्हें कर्ज के भंवर में खींच लाई है और वे समृद्धि के विपरीत तंगहाली और कर्ज के शिकार होकर आत्महत्या करने तथा उजड़ने के लिए विवश हुए हैं। ये नये कृषि कानून पूंजीवादी कृषि के इसी अंतर्विरोधी विकास की निरंतरता को और इसी निरंतरता में इसके अगले पड़ाव (कार्पोरेट खेती) की अनिवार्यता को रेखांकित करते हैं। इस नये पड़ाव पर कार्पोरेट वर्ग नया शिकारकर्ता है जिसके शिकार का दायरा काफी बढ़ चुका है; यह दायरा ग्रामीण सर्वहारा, अर्ध-सर्वहारा और गरीब किसानों से कहीं आगे निकलते हुए (एमएसपी तथा पीडीएस को ध्वस्त करने और गांव व देहात पर कब्जे के मंसूबों के साथ) धनी किसानों के एक हिस्से के परंपरागत वर्चस्व के खात्मे और उनके भी संपत्तिहरण तक जाता है। आम किसान समुदाय प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी चेतना के अभाव में कृषि की मौजूदा विभीषिका के अंतर्निहित वास्तविक कारणों अर्थात इसमें पूंजीवाद की भूमिका को भले ही स्पष्ट रूप से नहीं देख या समझ पा रहे हों, लेकिन जब वे आक्रोश और अवसाद से भर कर सरकार को अपनी बर्बादी के लिए कोसते हैं, तो दरअसल उनका आक्रोश पूंजीवाद के विरूद्ध ही लक्षित होता है। जब वे पूछते हैं कि उन्हें ऊंचे दामों का लालच देकर सरकार उन्हें आखिर कहां ले आई है, तो भी वे जाने-अनजाने पूंजीवाद पर ही निशाना साध रहे होते हैं।” (वही)

“यहां समझने वाली मुख्य बात यह है कि कृषि में पूंजीवाद के प्रवेश की ऐतिहासिक भूमिका व्यापक किसानों को कृषि से बाहर निकालने व खदेड़ने की है जो आम तौर पर कई चरणों में संपन्न होती है। पहले के चरण में धनी किसानों ने मजे उड़ाये और वे मालामाल हुए जबकि गरीब किसान महंगी खेती, जो पूंजीवादी खेती के अंतर्विरोधी विकास की पहचान है, के कारण भारी कर्ज और तबाही के शिकार हुए। पूंजीवादी कृषि की मौजूदा मंजिल में, जो पूंजीवादी कृषि के विकास का दूसरा चरण है, जैसा कि कृषि कानूनों के संभावित परिणामों के मद्देनजर इंगित हो रहा है, छोटी मछलियों (ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसानों) का अकेले भोज उड़ाने वाले धनी किसानों व कुलकों के समय व अवसर का अंत होने वाला है। बड़े से बड़े मगरमच्छों (कार्पोरेट) के तालाब में अवतरित होने से वे आज स्वयं भी संपत्तिहरण की प्रक्रिया के शिकार होने वाले हैं।” (वही)

“समझने वाली बात यह है कि कानूनशुदा एमएसपी की मांग ही वह मांग है जो अतार्किक होते हुए भी आज की बदली हुई परिस्थितियों में इसके अंतर्य को एक क्रांतिकारी लक्ष्य की ओर प्रेरित करने वाला बनाती है, जो चाहे-अनचाहे या जाने-अनजाने किसानों की परिकल्पना में एक ऐसे राज्य को लाता है जैसा कि एक सर्वहारा राज्य होता है। और यह सौ फीसदी सच है कि एकमात्र मजदूर वर्ग ही भावी शासक के रूप में किसानों को यह वचन दे सकता है कि वह किसानों को पूंजीवादी सत्ता की निरंकुशता और उसकी उत्पादन प्रणाली की अराजकता को खत्म कर के उन्हें ‘किसान रहते’ ही बचा सकता है, बशर्ते किसान पूंजीवादी उत्पादन के दायरे से बाहर आ जाएं, जिसकी संभावना बदली हुए परिस्थितियों में काफी बढ़ गई है।” (वही)

स्पष्ट है, किसान आंदोलन को लेकर हमारा विष्लेशण अब तक सच्चाई के बिल्कुल करीब रहा है। इसमें आज कोई संदेह नहीं है कि किसानों की यह लड़ाई वर्तमान दौर के पूंजीवादी राज्य के लिए एक भयंकर सिरदर्द का रूप ग्रहण कर चुकी है और फासीवाद की पूर्ण विजय के रास्ते में भी एक बड़ा रोड़ा बनकर खड़ी हो गयी है।

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लखीमपुर खीरी में किसानों के ऊपर हुई हिंसा हृदयविदारक ही नहीं अविस्मरणीय है। लखीमपुर खीरी में उत्तरप्रदेश के उपमुख्यमंत्री को काले झंडे दिखा कर शांतिपूर्ण तरीके से घर लौट रहे किसानों के झुंड के ऊपर जिस तरह के वहशीपन के साथ हिंसा की गयी और उन्हें जिस बर्बर तरीके का शिकार हो अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, उसकी कोई दूसरी मिसाल भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में नहीं मिलेगी। यहां तक कि ब्रिटिश शासन के दौरान भी ऐसी (किसानों के ऊपर तेज रफ्तार गाड़ी चढ़ा कर किसानों को मार देने जैसी) नृशंसता का कोई उदाहरण नहीं मिलता है। इस बर्बरता को अजाम दिया हिस्ट्रीशीटर केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी उर्फ टेनी महाराज के बेटे आषीश मिश्रा उर्फ मोनू तथा उसके अन्य गुर्गों ने, लेकिन एक सप्ताह पूर्व के घटनाक्रम के बारे में हुआ खुलासा बता रहा है कि इस हत्याकांड की साजिष का वास्तविक रचयिता अजय मिश्रा टेनी था जिसने लखीमपुर खीरी में ही एक सप्ताह पहले आयोजित एक भरी सभा में अपने को कुख्यात अपराधी बताते हुए खास समुदाय के किसानों को ‘सुधर जाओ नहीं तो दो मिनट में सीधा कर देने’ की धमकी दी थी। उसी खुली धमकी को विगत 3 अक्टूबर को एक शाजिस के तहत अंजाम तक पहुंचाया गया। यह बिल्कुल सही विष्लेशण है, क्योंकि इनके शागिर्द (इनके पाले हुए गुंडे) घटना के वक्त पूरी तैयारी के साथ मौजूद थे, यानी कट्टे, बम सहित अन्य तरह के असलहों से पूरी तरह लैस थे।

सवाल है, क्या किसानों के ऊपर इस तरह की सुनियोजित जघन्य हिंसा करने का निर्णय, और निस्संदेह यह हर मायने में एक बड़ा निर्णय है, अकेले अजय मिश्रा टेनी ने लिया होगा? क्या वह ऐसा निर्णय अकेले ले सकता है? हत्याकांड के बाद निम्नलिखित तीन चीजों पर गौर करने से इस प्रष्न का जवाब आसानी से मिल जाता है। पहला, मोदी और अमित शाह द्वारा लगातार (इस लेख के पूरा होने तक भी) इस जघन्य हत्याकांड पर घनघोर चुप्पी साधे रहना, दूसरा, तमाम तरह के हुए पर्दाफाष और संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा दी जा रही चेतावनी के बावजूद मोदी सरकार में अजय मिश्रा टेनी का मंत्रीपद बचा और बरकरार रहना तथा तीसरा, अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा उर्फ मोनू को (सारे अकाट्य व दृष्यगत सबूतों के बावजूद) अंतिम दम तक बचाने की प्रशासन द्वारा अथक कोशिश करना। लेख लिखे जाने तक अजय मिश्रा का मंत्रीपद अक्षुण्ण बना हुआ है, हालांकि उसके बेटे को अंततः उच्चतम न्यायालय सहित देश-विदेश में हो रही भारी बेइज्जती और चैतरफा नैतिक व कानूनी दबाव बनने के बाद 9 अक्टूबर को लगातार चाय-बिस्कुट व मिठाई की आवभगत वाली लंबी पूछताछ के दिखावे के बाद तथा पूरी नरमी बरतते हुए गिरफ्तार करना पड़ा। 27 सितंबर के भारत बंद की सफलता के तुरंत बाद किसान आंदोलन की यह दूसरी भारी जीत थी, क्योंकि सब कुछ के बावजूद मोदी सरकार के रूख को देखते हुए उसकी गिरफ्तारी असंभव नहीं तो कठिन अवश्य दिखाई दे रही थी। इसके अलावे हिस्ट्रीशीटर गृह राज्य मंत्री की उसके मंत्रीपद से बर्खास्तगी और गिरफ्तारी तथा उसके बेटे के अतिरिक्त उसके अन्य नामित शागिर्दों की गिरफ्तारी अभी तक बाकी है। इसके लिये संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलन का एक पूरा लंबा कार्यक्रम घोषित कर दिया है जिसमें उत्तरप्रदेश सहित पूरे देश में लखीमपुर खीरी हत्याकांड में मारे गये किसानों के अस्थि कलश के साथ ‘‘शहीद किसान यात्रा’’ तथा 18 सितंबर को पूरे देश में ‘‘रेल रोको’’ आंदोलन भी शामिल है।

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में क्या हमारा यह मानना गलत होगा कि इस हत्याकांड की साजिश के तार देश के शासन के सबसे ऊंचे ओहदे और सर्वाधिक शक्तिशाली केंद्र, यानी सीधे मोदी-योगी-अमित शाह से जुड़े हैं? निस्संदेह, इस हत्याकांड के पीछे सरकारी तथा गैर-सरकारी फासीवादी गिरोहों के कई तरह के नापाक इरादे एक साथ काम कर रहे थे जिन्हें अजय मिश्रा टेनी के द्वारा एक-डेढ़ सप्ताह पूर्व लखीमपुर खीरी में हुई एक खुली सभा में सिख समुदाय के किसानों के खिलाफ दिये गये द्वेशपूर्ण भाषण में साफ-साफ देखा जा सकता है। इसमें इस हिस्ट्रीशीटर मंत्री ने सिख किसानों को लखीमपुर खीरीे छोड़ कर भाग जाने के लिए मजबूर करने की खुली धमकी तक दे डाली थी। इसी समय के आसपास हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर द्वारा भाजपा के कार्यकर्ता सम्मेलन में संघर्षरत किसानों के ऊपर लठ्ठ बजाड़ने के लिए हर जिले व क्षेत्र में 500-1000 के गिरोह बनाने की सलाह दी जा रही थी। इसे लखीमपुर खीरीे में हुई दुर्दांत घटना के साथ मिलाकर देखने से फासीवादियों की साजिश की – देश को अराजकता, मारकाट तथा खूनी संघर्ष की स्थिति में धकेलने के लिए किसानों को उकसाने के लिए की जा रही साजिशों की तथा इसकी एक पूरी की पूरी श्रंखला की तस्वीर उभरती है जो अपने आप में काफी भयावह है। फासीवादियों का इरादा संघर्षरत किसानों को उनके ही खून में सना एक ऐसा सबक सिखाने का है ताकि किसान डर कर संघर्ष से पीछे हट जायें, जबकि किसानों के लिए ऐसा करने का कोई भौतिक स्पेस आज मौजूद ही नहीं है, और ठीक यही बात फासीवादियों की समझ से बाहर है और वे इस बार भी किसान आंदोलन की गहराई नापने में गच्चा (धोखा) खा गये। किसान जानते हैं कि अगर आज वे नहीं लड़े तो उनमें से अधिकांश को बहुत जल्द ही और बाकियों को आगे चलकर कृशि से विस्थापित होना पड़ेगा। कृषि कानूनों का यही केंद्रीय उद्देश्य है जिसके देर-सवेर लागू होने के बारे में कोई संदेह नहीं रह गया है। आम किसानों के बीच भी इसे लेकर आज भ्रम नहीं रह गया है। यही चीज संघर्ष में उनकी पूर्ण दृढ़ता का मुख्य कारण बना हुआ है। 

फासिस्ट और उनके हिमायती व दलाल चाहे जितने भी शातिर व चालाक हों, लेकिन वो वास्तव में होते हैं मूर्ख और डरपोक ही। उन्हें लगता है कि मेहनतकश जनता भी उनकी तरह के लोग ही होते हैं जो जरा से दमन के डर से पीछे हट जायेंगे और उनके पैरों में गिर जाएंगे, जैसा कि संघी फासिस्टों का अंग्रेजों के समय का इतिहास रहा है। जब कभी भी आजादी के लिए लड़ने के आरोप में उनमें से किसी को जेल जाने की नौबत आयी, वे अक्सर अंग्रेजों से माफी मांगते दिखे और जीवन भर अंग्रेजों के लिए मुखबिरी का काम करने की प्रतिज्ञा लेते पाये गये। आजादी की लड़ाई में यही उनका इतिहास रहा है। फासिस्ट क्योंकि स्वयं मूर्ख होते हैं इसलिए अक्सर वे जनता को भी मूर्ख समझते हैं और जनता की तात्कालिक राजनीतिक नासमझी, जिसके कारण वह फासीवादियों की साजिष व चाल को नहीं समझ पाती है, को स्थायी कमजोरी मान बैठते हैं। इसी तरह वे शासन-प्रशासन से उलझने के प्रति जनता के मन बैठे संकोच व डर को उन्हें गुलाम बना लेने का हथियार बना लेने की गलती कर बैठते हैं। जाहिर है वे जरूरत से ज्यादा शासन व प्रशासन के जोर-जुल्म के भरोसे जनता पर खुली तानाशाही थोपने का मंसूबा पाल बैठते हैं। फासिस्टों को लगता है बलपूर्वक वे कुछ भी कर या करा सकते हैं। जनता की ताकत को वे अक्सर नगण्य मानकर चलते हैं और वे समझते हैं अवाम को जब चाहे मूर्ख बनाया जा सकता है। यही गलती उनकी हार का एक बड़ा कारण बनता है। लखीमपुर खीरे में भी हम ठीक यही चीज देखते हैं। हम पाते हैं कि वे लखीमपुर खीरी में किसानों के मन में पुलिस-प्रशासन और गुंडों के बल पर भय पैदा कर किसान आंदोलन को दबा देने का दांव चले, जो इन्हें काफी महंगा पड़ गया। इनका दांव पूरी तरह उल्टा पड़ गया। दरअसल, किसान आंदोलन से निपटने में इनके द्वारा अब तक चला गया हर दांव उल्टा पड़ा है। परिणामस्वरूप, लखीमपुर खीरी में जघन्यता की सीमा लांघने के बाद भी ये किसान आंदोलन को खत्म नहीं कर सके, उल्टे किसान आंदोलन पहले की तुलना में और ज्यादा संगठित व फौलादी बन चुका है। चार किसानों के जीवन की कुर्बानी देकर किसानों का आंदोलन एक नये सिरे से और बिल्कुल ही नये तेवर के साथ धधक उठा है जिसकी ऊपर उठती लपटों की तेज रोषनी में यह साफ-साफ देखा जा सकता है कि मोदी-योगी-अमित शाह के पांव अगर उखड़ने नहीं लगे हैं, तो डगमगाने जरूर लगे हैं। संयुक्त किसान मोर्च के द्वारा इसके खिलाफ घोषित देशव्यापी आंदोलन, जिसमें 18 अक्टूबर को ‘‘रेल रोको’’ और चारों शहीद किसानों के अस्थिकलश के साथ उत्तरप्रदेश सहित पूरे देश में सघन रूप से ‘‘शहीद किसान यात्रा’’ का एक बड़ा आयोजन शामिल है, की सफलता से यह भी जल्द ही तय हो जाएगा कि मोदी-योगी के पैरों के ‘डगमगाने’ और ‘उखड़ने’ के बीच अब और कितना बड़ा फासला बचा हुआ है।

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लेकिन किसान आंदोलन मोदी-योगी-अमित शाह के पांव उखाड़ने के जितने करीब आता जाएगा, उतनी ही अधिक तीव्रता से यह प्रश्न बार-बार नेपथ्य से उठकर सीधे मंच पर आसीन हो जायेगा कि, क्या मोदी के हटने मात्र से किसानों की मुक्ति का रास्ता’ प्रशस्त हो जायेगा? यहां इस प्रश्न के उठने अर्थ यह नहीं है कि मोदी-योगी को तत्काल सत्ता से हटाना जरूरी नहीं है। नहीं, इसका अर्थ यह नहीं है। किसानों को मोदी-योगी को हराने की पूरी कोशिश की जानी चाहिए और इसके लिए किसान जो प्रचार कार्य चला रहे हैं उसकी जरूरत के बारे में कहीं कोई संदेह नहीं होना चाहिए। लेकिन यहां हमारा तात्पर्य एक संपूर्ण सामाजिक बदलाव की जरूरत की ओर किसानों का ध्यान खींचना है। किसान आंदोलन के एक साल पूरा होते-होते आज यह जिस ऊंचे स्तर की लड़ाई में तब्दील होता जा रहा है उसमें इस तरह के सवालों का बार-बार उठना लाजिमी भी है, क्योंकि किसान स्वाभाविक रूप से मोदी सरकार की जगह लेने वाली भावी विपक्षी सरकार से अपनी मांगों को पूरा करने की गारंटी चाहेंगे। वे चाहेंगे कि आने वाली सरकार किसानों की मांगें हर हाल में पूरी करे। सच्चाई क्या है? सच्चाई यही है कि अगर किसान मानसिक तौर पर सरकार परिवर्तन तक अपने लड़ाई को सीमित कर लेते हैं, तो इसमें कोई शक नहीं है कि वे एक बार फिर से छले जायेंगे। इसलिए किसानों के संज्ञान में यह प्रश्न बारंबार लाना अत्यंत जरूरी है कि मोदी के पैर उखड़ने के बाद भी किसानों की लड़ाई को अंतिम जीत तक जारी रखना  क्यों जरूरी है, इसका परिणाम चाहे जो भी हो, क्योंकि मोदी को हटाना काॅर्पोरेट से मुक्ति की लड़ाई का बस एक प्राथमिक कार्यभार है और इसमें मिली जीत महज प्राथमिक स्तर की जीत ही मानी जानी चाहिए, अंतिम और निर्णयकारी नहीं, हालांकि मोदी की हार निस्संदेह एक महत्वपूर्ण जीत होगी तथा इसमें कोई किंतु या परंतु का सवाल नहीं है। लेकिन साथ में यह बात बार-बार दोहराना भी जरूरी है कि किसानों की मुक्ति की लड़ाई को अंतिम रूप से जीतना है तो पूंजीवाद को पलटने तक इसे जारी रखना जरूरी है। मोदी की हार पर लगने वाली मुहर पर यही संदेश अंकित होना चाहिए। आज के भारत का काॅर्पोरेटपरस्त पूंजीवादी राज्य, जो आज मोदी-अमित षाह-योगी कीे अध्यक्षता में खूंखार फासीवादी स्वरूप ग्रहण कर चुका है, वास्तव में पूंजीवादी तानाशाही का ही एक नग्न रूप, पूंजीवादी तानाशाही का ही आवरणविहीन रूप है और इसलिए काॅर्पोरेटपरस्त फासीवाद का जड़मूल से खात्मा पूंजीवादी तानाशाही के खात्मे के बिना नहीं होने वाला है। किसानों को राजनीति का यह पाठ जल्द से जल्द आत्मसात कर लेना चाहिए।

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भारत में पूंजीवादी खेती के तहत किसानों की बर्बादी की बात करें, तो इनकी व्यापक आबादी पूंजीवादी कृषि के प्रथम चरण में ही बर्बाद हो चुकी थी, जबकि कृषि कानूनों के नाम से प्रस्तावित इसके दूसरे चरण के विकासक्रम में बाकी के बचे किसानों की तबाही होनी है। यह बात अघोषित है लेकिन किसान इसे घोषित मान चुके हैं और यही समझ संघर्ष के मैदान में उनकी दृढ़ता की मुख्य चालकशक्ति बनी हुई है। वे यह समझ चुके हैं कि यह दूसरा चरण और कुछ नहीं काॅर्पोरेट वर्चस्व वाली यानी काॅर्पोरेट खेती का ही आगाज है। काॅर्पोरेट पूंजीपति और कुछ नहीं बड़े पूंजीपति ही हैं। काॅर्पोरेट खेती और कुछ नहीं विस्तृत पैमाने की आधुनिक पूंजीवादी खेती ही है। पहले चरण की पूंजीवादी खेती ने जहां धनी किसानों और अपेक्षाकृत अमीर मध्यम किसानों के पूंजीवादी संस्तर और वर्ग पैदा किये जो खेती में पैदा हुए अधिशेष को डकारने का काम किया, तो दूसरे चरण में स्वयं धनी एवं मध्यम किसानों का संपत्तिहरण और उनका उजड़ना छुपे रूप में प्रस्तावित है, एक तरह से तयशुदा चीज है जो होकर रहेगी। दूसरे दौर की पूंजीवादी खेती की विशेषता को रेखांकित करें, तो हम कह सकते हैं कि गरीब व छोटे किसानों का कृशि से तत्काल और बलात निष्कासन होगा (इनका विस्थापन तो पहले ही हो चुका है, लगतार घाटे की खेती के फलस्वरूप कर्ज संकट में फंसे रहना, पूरे परिवार की मिहनत के बावजूद मजदूरी से प्राप्त आय पर जिंदा रहने को मजबूर होना आदि विस्थापन ही है), जबकि मध्यम व धनी किसानों के संकट में फंसने की प्रक्रिया फिलहाल नयी है जो आने वाले समय में और तेज होगी। ये देखना दिलचस्प होगा कि अंततः वे कब तक काॅर्पोरेट नियंत्रित बाजार में अपने उत्पादों को लेकर टिके रह सकते हैं। भविष्य और राजनीतिक व्यवहार दोनों से इस बात से तय होंगे कि इनका काॅर्पोरेट से टकराव कितना तीखा होता है और संपूर्णता में देश में राजनीतिक हलचल किस प्रकार तेज या मंद होती है, जिसका प्रत्यक्ष रिश्ता पूंजीवाद के आम संकट से है। इसलिए आने वाले समय में किसी भी पूंजीवादी पार्टी या पार्टियों के गठबंधन की सरकार के बनने से तात्कालिक राहत तो मिल सकती है, लेकिन किसानों की काॅर्पोरेट राज से मुक्ति एकमात्र मोदी सरकार के हटने से नहीं होने वाली है। इतना किसानों को साफ-साफ समझ लेना चाहिए, नहीं तो किसान आंदोलन अंधी गली में भटक जाएगा। आने वाले किसी भी पूंजीवादी दल या दलों के षासन के अंतर्गत सभी किसानों की सभी फसलों की खरीद की गारंटी नहीं मिलने वाली है, और न ही कृषि काूननों की समूल या वास्तविक रूप से वापसी ही होने वाली है, क्योंकि पूंजीवादी कृशि को इसके दूसरे चरण में जाने से किसी तरह रोका नहीं जा सकता है जब तक कि स्वयं पूंजीवाद को नहीं उखाड़ फेंका जाता है। पूंजीवादी कृषि के दूसरे चरण में प्रवेश का सीधा अर्थ इसमें बड़ी पूंजी (काॅर्पोरेट) की इजारेदारी का कायम होना भी है जो पूंजीवाद के अंतर्गत एक स्वाभाविक बात है। पूंजी की इस ऐतिहासिक गति को, जो एक ही साथ प्रगतिशील भी है और प्रतिक्रियावादी भी, एकमात्र मजदूरों-किसानों की क्रांतिकारी राज्यसत्ता ही प्रतिस्थापित कर सकती है या खत्म कर सकती है। इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन को ठीक इसी दिषा में आगे बढ़ना होगा, नहीं तो इसका परिणाम निराशा, अवसाद तथा हार के अतिरिक्त और कुछ नहीं होने वाला है। जारी किसान आंदोलन इस ऐतिहासिक गति को आगे बढ़ाने या इसकी गति को तेज करने से ज्यादा और कुछ नहीं कर सकता है, क्योंकि पूंजीवाद का खात्मा अंततः निजी संपत्ति का भी खात्मा है और इसलिए इसको अंजाम तक पहुंचाने का काम एकमात्र मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही किया जा सकता है। जहां तक किसानों की बात है तो वे मजदूर वर्ग के मानवजाति की पूर्ण मुक्ति के ऐतिहासिक मिशन का हिस्सा बन कर ही कारगर भूमिका निभा कर सकते हैं। क्योंकि मजदूर वर्ग आज आंदोलनरत नहीं है, वह निरीह अवस्था में पड़ा है और हुंकार नहीं भर रहा है, इसलिए किसान इनकी जगह ले सकते हैं, यह एक अत्यंत मूर्खतापूर्ण बात है। मजदूर वर्ग ही आज भी इतिहास की मुख्य चालक शक्ति है और इस बात से भी कुछ नहीं फर्क पड़ता है कि आज वे किस निरीह अवस्था में पड़े हुए हैं। मुख्य बात यही है कि वे इतिहास के इस मोड़ पर क्या करने के लिए बाध्य हैं और भावी इतिहास में उनका स्थान क्या है। वहीं हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज के दौर में मजदूर वर्ग की कोई भी देश्वयापी लड़ाई तीव्रता से देश्वयापी वर्ग-संघर्श में तब्दील होने की ओर बढ़ेगी। इस दृष्टि से मजदूर वर्ग की मामूली से मामूली लड़ाई भी किसानों की भारी से भारी लड़ाई से भारी साबित होगी। उसकी प्रकृति ही भिन्न होती है, क्योंकि वर्ग-संघर्ष में तब्दील होते ही इसमें अंतिम निर्णायक पल बहुत तेजी से प्रकट होता है। इसलिए मजदूर वर्ग की ऐसी कोई निर्णायक लड़ाई अन्य वस्तुगत कारकों के पूरी तरह परिपक्व हुए बिना न तो संभव है, न ही शुरू की जानी चाहिए, अगर मजदूर वर्ग की बाकी आत्मगत तैयारियां पूरी हो चुकी हों तब भी नहीं।

श्रीमान प्रभात पटनायक की नजर में किसान आंदोलन

आज, आंदोलन के दस महीने बीतने के बाद, जब सीपीएम से जुड़े प्रख्यात ‘वाम’ अर्थशास्त्री श्रीमान प्रभात पटनायक भी किसान आंदोलन के अंदर पल रहे क्रांतिकारी तत्वों को अस्पष्ट रूप से ही सही लेकिन देख पाने में सफल होते हैं तो यह अवश्य ही सुखद अहसास कराने वाली बात है, लेकिन वे अपनी संशोधनवादी राजनीति की वजह से न तो किसानों की मुक्ति के लिए सर्वहारा राज्य की अनिवार्यता को इंगित कर पाते हैं और न ही किसान आंदोलन के भीतर इस तरफ बढ़ने की कोई संभावना या ऐसी कोई अंदरूनी गतिकी की मौजूदगी ही देख पाते हैं। ‘‘टेलीग्राफ’’ में प्रकाशित उनका लेख (A Promethean moment: The farmers’ agitation challenges theoretical wisdom) लखीमपुर खीरीे में हुए टकराव के बाद किसानों के गुस्से व आक्रोष में आयी तीव्रता और धर्मनिरपेक्षता तथा जनवाद आदि की रक्षा में इस आंदोलन द्वारा निभायी जा रही भूमिका को जोर-षोर से रेखांकित जरूर करता है, लेकिन जिस तरह से इस लेख का प्रस्थान बिंदु और इसका मुख्य जोर, जैसा कि इस लेख के षीर्शक के द्वारा इंगित होता है, मजदूर वर्ग की भूमिका को कमतर करके देखने और दिखाने की कोषिष करता है वह निंदनीय है, इसलिए इसका जवाब दिया जाना जरूरी है। किसान आंदोलन की मांगों में अंतर्निहित क्रांतिकारी अंतर्य को वे उसी सीमा तक देखते हैं जिस सीमा तक उनकी संषोधनवादी राजनीति देखने की इजाजत देती है -यानी धर्मनिरपेक्षता व जनतंत्र व जनवाद की रक्षा आदि तक। जाहिर है, वे भिज्ञ कारणों से किसानों की मुक्ति के प्रष्न को सर्वहारा राज्य की ऐतिहासिक अनिवार्यता से जोड़ने की भूल कर भी बात नहीं करते हैं या करना चाहते हैं। वे लिखते हैं –

“Quite apart from its effect on caste, community and gender relations, the peasant struggle has been remarkable for lending support to a range of pressing democratic issues not directly connected with the peasants’ own demands. Thus, opposing the government’s proposed ‘monetization’ drive, the privatization of public sector assets, the attack on civil liberties, the use of State agencies like the Enforcement Directorate and the Central Bureau of Investigation to intimidate opponents and critics and the continued incarceration without trial of a large number of people, including the Bhima-Koregaon accused, the kisan movement has broken completely new ground. No kisan struggle in the past had been as comprehensive as the current one as regards to the democratic issues it has taken up for the country as a whole.”

उपरोक्त बातों में थोड़ी अतिश्योक्ति मौजूद है, लेकिन फिर भी मूल रूप से किसान आंदोलन आज जिस भूमिका में उतरता जा रहा है या उतरने के लिए बाध्य होता जा रहा है, उसके बारे में यह सही तस्वीर पेश करता है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह भी है कि किसान आज मजदूर वर्ग को मानवजाति को हर तरह से शोषण से मुक्त करने की उसकी ऐतिहासिक जिम्मेवारी से हटाकर खुद इसकी जिम्मेवारी में आ गये हैं? ऐसा इशारे में भी कहना किसान आंदोलन का गलत तरीके से महिमामंडन करना है और यह स्वयं किसान आंदोलन के लिए अत्यंत घातक है। इसके बहाने धुर संशोधनवादी राजनीति को आगे बढ़ाने कीे बात इसके मूल में है। किसानों की स्वयं की मुक्ति भी मजदूर वर्ग के द्वारा पूंजीवाद को खत्म कर उसकी जगह नये समाज की नींव डाल कर होगी। किसान अपने प्रयासों से इसकी दहलीज तक, इसकी जरूरत महसूस करने तक ही आ सकते हैं, यानी किसान आंदोलन अपने आप से नये समाज के गठन की आवश्यकता की एक धुंधली तस्वीर उकेरने तक ही जा सकता है। जहां तक उस तस्वीर को जीवित शक्ल देने का सवाल है, इस कार्यभार को अंजाम तक पहुंचाने का काम मजदूर वर्ग के नायकत्व में ही होगा, और किसान आंदोलन का सर्वहारा क्रांति के साथ होने वाला अनोखा मिलन इसका सर्वोत्तम माध्यम हो सकता है। नया शोषणमुक्त समाज निर्मित करने की ऐतिहासिक चालक शक्ति के रूप में किसानों की क्षमता उसके निजी संपत्ति के मालिक होने के कारण बाधित होती है। जहां तक मजदूर वर्ग के अंदर व्याप्त मौजूदा दौर के पिछड़ेपन की बात है, उसकी मूल वजह तात्कालिक परिस्थितियों के मद्देनजर सांगठनिक कमजोरियों में ज्यादा निहित है, न कि किसी तरह की सैद्धांतिक वजहों में। इसलिए किसान आंदोलन की वर्तमान भूमिका में पूर्व निर्धारित किसी सैद्धांतिक बंधन से मुक्ति का क्षण खोजना और मजदूर वर्ग की विश्व ऐतिहासिक भूमिका के बारे पूर्व निर्धारित समझ को इसके द्वारा चुनौती दिये जाने की बात करना पूरी तरह बकवास है। वे लिखते हैं –

“This sort of Promethean role, according to Marxist theory, is supposed to be played by the working class, with the peasantry remaining, at best, an ally of the workers, but never by the peasantry on its own. It is often argued that when the peasantry leads the anti-colonial struggle, it lacks any clear idea of the society that should be built after the end of colonial rule; but here we have the peasantry defending secularism, democracy and the Constitution against attempts to subvert them.”

श्रीमान प्रभात पटनायक के द्वारा किसान आंदोलन का किया जा रहा ऐसा प्रस्तुतीकरण दूसरे कारणों से भी गलत है। वे ऐसा लिख रहे हैं मानो किसान आंदोलन के भीतर जनवादी तत्व की मौजूदगी सिर्फ इस आंदोलन में दिखाई दे रही है या फिर ऐसा पहली बार हो रहा है। ऐसा प्रस्तुतीकरण जाहिर है गलत है। किसान आंदोलन में जनवाद की मौजूदगी होने रहने के कारण ही किसान मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनवाद के लिये होने वाली सभी निर्णायक लड़ाइयों में एक मजबूत संश्रयकारी वर्ग के बतौर शामिल रहा है तथा आगे भी रहेगा। और यह पहली बार नहीं हुआ है। अमूमन सभी तरह की जनवादी क्रांतियों में किसानों की लगभग ऐसी ही भूमिका रही है, यहां तक कि रूसी अक्टूबर क्रांति में भी। अगर पेरिस कम्यून में पेरिस के कम्यूनार्डों ने किसानों का समर्थन हासिल करने में देरी की, तो यह उनकी हार का भी एक प्रमुख कारण बना। मुख्य रूप से जो बात इस संदर्भ कही जानी चाहिए थी वह धनी किसानों से संबंधित है, क्योंकि यह वर्ग आज से पहले प्रतिक्रियावादी भूमिका में रहा है, खासकर भारत में पूंजीवादी कृषि के विकास के प्रथम चरण में। आज के बदले हालात में, जब इजारेदार पूंजी की कृषि क्षेत्र मे निर्णायक चढ़ाई की स्थिति बनी हुई है, तो धनी किसानों के संकटग्रस्त तबकों के राजनीतिक व्यवहार में भी कुछ नये बदलाव आये हैं, लेकिन यह कितना स्थायी है यह इसके काॅर्पोरेट से होने वाले भावी टकरावों तथा उन टकरावों में इस वर्ग की आखिरी दिन वाली भूमिका के मद्देनजर ही तय होगा। उसके पहले अगर कुछ ठोस से इनके बारे में कहा जा सकता है तो यही कहा जा सकता है कि इनका एक बड़ा हिस्सा निश्चित ही इस नये दौर में तबाही का शिकार होगा और वे इसे भलिभांति समझते-जानते भी हैं, और इसीलिए आंदोलन में शामिल हैं। इसके अतिरिक्त बाकी सारी चीजें प्रवाहमान अवस्था में हैं और मुकम्मल तौर पर उनके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। फिलहाल मजदूर वर्ग और गरीब व छोटे किसानों की दृष्टि से वे एकमात्र इसलिए ही महत्वपूर्ण बने हुए हैं, क्योंकि धनी किसानों की वर्तमान में आंदोलनकारी की भूमिका पूंजी के फ्रंट में एक बड़ी दरार की परिचायक है और हमारा काम अपने प्रयासों से इसे चैड़ा व गहरा बनाना है न कि इसे पाटना या भर देना है।

दूसरी बात, किसान आंदोलन चाहे जितना भी जनवादी तत्व ग्रहण किये हुए हों, अकेले उसका ऐतिहासिक महत्व नगण्य ही होगा। वे ‘जनवाद के लिए होने वाली निर्णायक लड़ाई’ में भी मजदूर वर्ग को इसकी विश्व-ऐतिहासिक भूमिका के शीर्ष से कभी भी विस्थापित नहीं कर सकते हैं। जहां तक उत्तरोत्तर रूप से सतत एवं सुसंगत जनवाद की प्रस्थापना की बात है तो इसमें भी वह मजदूर वर्ग की भूमिका में कभी नहीं आ सकता है, क्योंकि यह चीज पूंजीवाद की सीमा व उसके चैखटे से समाज को बाहर ले जाने तथा आगे समाजवाद तक जाने की मांग तक जाती है, यानी जनवाद के अधिकतम प्रसार के समक्ष सबसे बड़ी बाधा के रूप में खड़ी निजी पूंजी व संपत्ति के पूर्ण रूप से खात्मे की मांग तथा इसके लिए एक सफल लड़ाई तक जाती है। इसलिए किसान आंदोलन चाहे जितना भी आगे बढ़ जाए, यह निजी संपत्ति के खात्मे तक तथा सुसंगत जनवाद की स्थापना तक अपने आप से कभी नहीं जा सकता है। यह काम हर हाल में मजदूर वर्ग के द्वारा पूरा होना है। किसान आंदोलन का पिछलग्गु बनना और उसे ही किसानों की मुक्ति की लड़ाई का इतिश्री मानना विशुद्ध रूप से संषोधनवादी राजनीति का हिस्सा है और जाहिर है श्रीमान पटनायक सीपीएम से जुड़े होने की वजह से स्वयं इसके शिकार हैं।

इसलिए यहां यह प्रश्न बेमानी बन जाता है कि ‘‘श्रीमान प्रभात पटनायक किसान आंदोलन का ऐसा बेतुका महिमामंडन क्यों कर रहे हैं?’’ जाहिर है, एक संशोधनवादी पार्टी से जुड़े होने के कारण उनकी आंखों पर उसकी संसदीय अवसरवादी राजनीति का परदा हमेशा पड़ा रहेगा और यह लाजिमी है। सभी जानते हैं कि वे संशोधनवादी-संसदीय राजनीति के दायरे में अपने को बुरी तरह सीमित कर लेने वाली पार्टी सीपीएम के कार्ड होल्डर पार्टी सदस्य रहे हैं और शायद अभी भी हैं। इतना ही नहीं, इस पार्टी की आर्थिक विषयों पर तय होने वाली राजनीतिक दिशा के वे मुख्य सिद्धांतकार भी हैं। इसलिए पूरे संशोधनवादी खेमें में किसान आंदोलन के प्रति जिस तरह के पिछलग्गुपन की राजनीति हावी है और मजदूर वर्ग को किसानों का दुमछल्ला बनाने की जो राजनीति चल रही है, ठीक वही चीज इनके लेखों में भी अक्सर धारदार प्रस्तुतीकरण के साथ तथा ज्यादा स्पष्टता के साथ प्रतिबिम्बित होती रही है। संशोधनवादी राजनीति की कैद में लाल झंडे की राजनीति करने वालों की तरह ही इनके लिए भी यह सर्वथा उचित है कि वे इस किसान आंदोलन को ही सबकुछ मान बैठें, जिसका अवश्यम्भावी परिणाम किसान आंदोलन को क्रांतिकारी राह पकड़ने से रोकने के प्रयासों के रूप में ही सामने आयेगा, क्योंकि उनकी राजनीतिक सीमा यही है कि वे इस किसान आंदोलन को संसदीय राजनीति के दायरे में सीमित रखना चाहेंगे और क्रांति की राह पर इसके निकल पड़ने से रोकने के लिये हर संभव प्रयास करेंगे। उनका, जैसा कि सभी संशोधनवादी के मामले में सही है, मूल विरोध पूंजीवाद से नहीं, काॅर्पोरेट से है (ये भी दिखावे के लिए ही है जिसके बारे में चर्चा करना यहां संभव नहीं है) और वे इससे लड़ने के लिए बस कुछ नीतियों को बदलना या पलटना चाहते हैं, ताकि काॅर्पोरेट पर कुछ अंकुश लग सके, जबकि सच्चाई यह है कि काॅर्पोरेट यानी बड़ी वित्तीय पूंजी का उदय और अर्थव्यवस्था पर उसका वर्चस्व पूंजीवादी विकास की स्वाभाविक गति का ही परिणाम मात्र है और पूंजीवाद के खात्मे के बिना इससे बचा नहीं जा सकता है। यहां संशोधनवादियों के लिए दिक्कत यह पैदा हो गई है कि आज के लगभग स्थायी पूंजीवादी संकट के दौर में थोड़े बहुत सुधारों तक सीमित संशोधनवादी-अवसरवादी राजनीति के लिए कोई ज्यादा स्पेस ही नहीं बचा है और यह संकट हर दिन जिस तरीके से व्यापक जनता की बर्बादी की परिस्थितियां पैदा कर रहा है उससे मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश किसानों के लिए पूंजीवाद को ही निर्णायक रूप से पलटने की लड़ाई में उतरने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। यह संकट दरअसल किसानों सहित समस्त मेहनतकश वर्गों को स्वयं पूंजी के विरूद्ध ही फैसलाकुन लड़ाई के लिए मजबूर कर रहा है।

लेकिन बावजूद इसके संशोधनवादी राजनीति करने वालों को यह दौर क्रांतिकारी नहीं बना सकता है, उल्टे उन्हें संशोधनवादी राजनीति से और भी ज्यादा चिपके रहने के लिए और इसलिए इनको अवश्यम्भावी रूप से पतन की ओर धकेलेगा, जैसा कि श्रीमान पटनायक के इस लेख में हल्के रूप में हीे सही लेकिन गौर करने पर साफ-साफ दिखाई दे रहा है।

लखीमपुर खीरी की घटना, फासीवाद उभार की एक मंजिल का द्योतक

फासीवाद के उभार की मंजिल के आकलन की दृष्टि से देखें तो लखीमपुर खीरी का हत्याकांड फासीवादियों द्वारा किये जाने वाले हमलों के स्तर में एवं इसके चरित्र में आ रही क्रमिक नग्नता में हुए एक खास इजाफे को और इसलिए फासीवादी उभार की एक खास मंजिल को दर्शाने वाली घटना भी है। वहीं दूसरी तरफ, घटना के पहले ही दिन से मोदी-योगी के खिलाफ पूरे देश के जनमानस में आये उबाल तथा सभी तबकों के बीच इसके विरूद्ध उभरे एक सशक्त प्रतिकार की भावना के हुए जबर्दस्त इजहार को ध्यान में रखते हुए इसका मूल्यांकन करें, तो हम पाते हैं कि यह घटना किसान आंदोलन को पूरी तरह एक देश्वयापी जनांदोलन में तब्दील करने वाली घटना भी है, यानी किसान आंदोलन को यह घटना उस निर्णायक मुकाम की तरफ मोड़ने वाली असंख्य घटनाओं में से सबसे महत्वपूर्ण घटना है जो निस्संदेह इसके क्रांतिकारीकरण की गति को तीव्रता प्रदान करेगी या कर रही है, जिसके मूल में है – पूरे जनगण की बड़ी पूंजी के विरूद्ध लामबंदी जिसकी प्रेरणा किसान आंदोलन लगातार पैदा कर रहा है।

वैसे भी जब किसान आंदोलन को एक धुर जनविरोधी एवं प्रतिक्रियावादी आंदोलन मानने वाले काॅर्पोरेट के निर्लज्ज हिमायतियों और कृषि में काॅर्पोरेट इजारेदारी को एक प्रगतिशील कदम मानने वाले गालीबाज ‘‘अतिक्रांतिकारियों’’ की जमात भी किसान आंदोलन पर हुए फासीवादी हमलों के खिलाफ सयानापन दिखाते हुए मुखर हो जाए और अविश्वसनीय तरीके से काइयांपन के प्रदर्शन के लिए मजबूर हो जाए, कुछ इस तरह कि काॅर्पोरेट के छुपे हिमायती अपने असली बदनुमा चेहने को और भी ज्यादा छुपाने के लिए मजबूर हो जायें, तो यह बात एक तरीके से स्वयंसिद्ध ही हो जाती है कि आंदोलन तेजी से पूंजीवादी राज्य से उस टकराव दिशा में जा रहा है जिसके बारे में हम शुरु से ही कहते और लिखते आ रहे हैं तथा राज्य के साथ इसके टकराव के और बढ़ने से किसान आंदोलन का क्रांतिकारी आंदोलन में बदलाव अवश्यम्भावी बन जाएगा, जिसका एक अर्थ निस्संदेह यह है कि फासीवाद भी अपने असली रंग में आने की कोशिश करेगा जिसकी जरूरत उसे अभी तक महसूस नहीं हो रही थी।

सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि स्थायी संकट में फंसे पूंजीवाद के दौर में मजदूर वर्ग की शक्तियों को किसान आंदोलन पर तथा इससे जुड़े पूरे घटनाक्रम पर मजूदर वर्ग की छाप अंकित करने में लग जाने का यह वक्त है, न कि महज इसका पिछलग्गु बनने या विरोध करने का। इसे हीे हम मजदूर वर्ग द्वारा किसान आंदोलन में किया जाने वाला क्रांतिकारी हस्तक्षेप कह रहे हैं। धनी किसानों के विरोध के नाम पर काॅर्पोरेट कीे गोद में बैठ जाना तो पतन की पराकाष्ठा ही है।[1] दूसरी तरफ, यह प्रश्न बार फिर स्वाभाविक बन जाता है कि लखीमपुर के आगे का रास्ता क्या है और वह किधर से गुजरता है? क्या इस पर विचार करने का समय आ गया है कि ‘मोदी-योगी के पांव उखड़ने वाले हैं’? इसी के साथ यह प्रश्न पूछना भी लाजिमी हो जाता है कि अगर हां, मोदी के पांव उखड़ने वाले हैं, तो कौन है जिसके पांव जमने वाले हैं? क्या कोई ऐसी बुर्जुआ या संशोधनवादी पार्टी है जिसके कार्यक्रम में काॅर्पोरेट को इसके जड़मूल सहित उखाड़ फेंकने की बात या प्रस्तुती की गई होे? लखीमपुर खीरी की घटना पर किसान संगठनों और लाल झंडे उठाये तरह-तरह के संशोधनवादी कम्युनिस्ट संगठनों व दलों की तुलना में राहुल और प्रियंका गांधी काफी मुखर होकर सामने आये हैं, तो क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि मोदी सरकार की जगह बनने वाली कांग्रेसी सरकार काॅर्पोरेट की सत्ता व लूट को चुनौती देगी और किसानों की इसकी लूट से मुक्ति दिलायेगीं? जैसा कि हम बारंबार कह रहे हैं, काॅर्पोरेट को उखाड़ फेंकने का अर्थ स्वंय पूंजी की सत्ता का खात्मा भी है। क्या किसानों के दिमाग में कोई ऐसी संसदीय पूंजीवादी या संशोधनवादी पार्टी है जो पूंजीवादी सत्ता को उखाड़ फेंकने का जुमला भी बोलता हो? अगर नहीं तो क्या किसान स्वयं अपनी पार्टी बनायेंगे? क्या वह पार्टी पूंजीपति वर्ग को उखाड़ फेंकने का दम भर सकेगी? इन सारे प्रश्नों को लखीमपुर की घटना ने मानो दुबारा पुनर्जीवित कर दिया है और तत्काल विचारयोग्य बना दिया है।


[1] किसानों पर हुए फासीवादी हमलों की गंभीरता तब एक क्षण के लिए खंडित महसूस होती है जब किसान आंदोलन का कोई धुर विरोधी भी किसान आंदोलन पर हुए फासीवादी हमले का विरोध करने की खानापूर्ति करने निकल पड़ता है। जो कल तक किसान आंदोलन के जल्द ही पूरी तरह खत्म हो जाने और इसके अंतिम सांस लेने के मात्र कयास ही नहीं लगा रहे थे अपितु इसकी हार की कामना करते हुए तथा इसका अधिकतम भद्दे तरीके से मजाक उड़ाते हुए इसके पतन का जश्न मनाने की तैयारियां भी पूरी कर चुके थे, आज वे भी ‘‘फार्मर आंदोलन पर फासीवादी हमले की निंदा’’ करते हुए लेख लिख रहे हैं! दरअसल ये बेचारे क्या करें? एक तरफ काॅर्पोरेट से यारी निभानी है, उस पर केंद्रित हमले को हर हाल में गोदी मीडिया की तरह पूरी तरह नंगा होकर भी बाउंस बैक करना है, तो दूसरी तरफ क्रांतिकारी दिखते रहने की जद्दोजहद भी करनी है। इसके लिए इस मंडली के विचारकों ने तर्क भी लाजवाब गढ़ लिये हैं – प्रतिक्रियावादियों के भी जनवादी अधिकारों – आंदोलन करने, प्रदर्शन करने आदि के जनवादी अधिकारों – की रक्षा में खड़ा होने का तर्क। कहा जा रहा है कि जिस तरह हम पूंजीवादी जनतंत्र पर हो रहे फासीवादियों के हमले से उसकी रक्षा करने उतरते हैं उसी तरह प्रतिक्रियावादी किसान आंदोलन की अधिकार-रक्षा में भी उतरना चाहिए (आज ये प्रतिक्रियावादी किसान आंदोलन के अधिकारों की रक्षा करने निकले हैं, कल ये इसी नीति के तहत किसी भी प्रतिक्रियावादी आंदोलन का समर्थन करने निकल सकते हैं, याद रहे फासिज्म भी एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन ही है) और यह उनके अनुसार बिल्कुल सही नीति है। पूंजीवादी जनतंत्र की फासीवादी हमलों से रक्षा का तर्क तो समझ में आता है, क्योंकि यह एक हद तक मजदूर वर्ग को अपना आंदोलन चलाने का जनतांत्रिक राजनीतिक वातावरण प्रदान करता है और इस अर्थ में पूंजीवादी जनतंत्र या जनवाद की रक्षा का प्रष्न फासीवाद विरोधी आंदोलन का शुरूआती गियर बाॅक्स माना जा सकता है, लेकिन कोई जिसे प्रतिक्रियावादी आंदोलन कहता व समझता हो, यहां तक कि उसके समर्थन में उतरे लोगों को बुरी तरह से गालियों की भाषा में बात करता हो, मानों उसने काॅर्पोरेट से उसके बौद्धिक बचाव और किसान आंदोलन को नेस्तनाबूद करने की सुपारी ली हुई हो, उसकी भी फासीवादी हमलों से रक्षा करने की जिममेवारी की बात वह करता हो या यह समझता है कि यह जिम्मेवारी भी मजदूर वर्ग को निभानी है, तो यह बात किसी की भी समझ से परे है! यानी, ये किसान आंदोलन को धुर प्रतिक्रियावादी भी कहेंगे, और उनके जनवादी अधिकारों की रक्षा भी करेंगे! ये वे लोग हैं जो डंके की चोट पर कहते रहे हैं कि यह किसान आंदोलन पूरी तरह जनविरोधी, मेहनतकश विरोधी तथा प्रतिक्रियावादी आंदोलन, मेहनतकश जनता से खिराज वसूलने के लिए चलाया जाने वाला आंदोलन, यानी गरीबों के खून चूसने वाला आंदोलन है। दरअसल ये ऐसे लोगों में से हैं जो काॅर्पोरेट के प्रति आशक्ति में पूरी तरह लीन हैं। काॅर्पोरेट की शान के खिलाफ बोली हर बात इनके दिल को छलनी कर देती है। पूरे ग्रामीण अंचल को काॅर्पोरेट के हवाले करने के मोदी सरकार के फैसले को प्रगतिवादी कदम मानने वालों से किसी और चीज की उम्मीद करना भी बेमानी है। पाठकों को हम यह याद दिलाना चाहते हैं कि ये वो लोग हैं जो इस सनक में काॅर्पोरेट को ग्रामीण गरीब व मेहनतकश आबादी के मुक्तिदाता तक समझ बैठने का तर्क गढ़ चुके हैं। इसलिए ये लोग जब फार्मर आंदोलन पर हुए फासीवादी हमले के खिलाफ लिखते हैं (क्या लिखते हैं यह एक अलग ही बात है!) तो इन पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है। इनका पूरा राजनीतिक भविष्य आज महज इस बात पर टिका है कि किसान आंदोलन जितनी जल्द हो पतन की गर्त्त में चला जाए और इसकी हार हो, ताकि इनकी काॅर्पोरेट पक्षीय राजनीतिक समझ सही साबित हो सके। लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा, तब भी नहीं जब किसान आंदोलन फासीवादियों द्वारा पूरी तरह कुचल दिया जाएगा। इसलिए ‘अतिक्रांतिकारियों’ का यह कुनबा फार्मर आंदोलन पर हुए फासीवादी हमले का चाहे जितना विरोध करे, यह मात्र दिखावा ही हो सकता है। बाकी बात तो यही है कि क्रांतिकारियों को इनकी गालियों सहित अन्य सभी तरह के हमलों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें इनकी गालियों को अपने लिए सर्टिफिकेट मान कर चलना चाहिए।