आधुनिक मौद्रिक सिद्धांत (MMT)

November 14, 2021 0 By Yatharth

पूंजीवाद की सेवा में छलिया अर्थशास्त्र

एम असीम

जब तक पूंजीवाद के आर्थिक संकट सावधिक थे और उतार-गिरावट के बीच में उछाल के दौर भी रहते थे, क्लासिकल बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र इन्हें बाजार असंतुलन जनित अनबिके मालों की भरमार के रूप में समझाता था। वे मानते थे कि यह असंतुलन कीमतों में उतार-चढाव के जरिये खुद ब खुद ठीक होने वाले थे, क्योंकि ‘आपूर्ति अपनी मांग खुद तैयार करती है’। इसलिए खुद को सुधार सकने वाले बाजारों में किसी बाहरी (सरकारी) हस्तक्षेप की नीति उनके लिए अस्वीकार्य थी।

किंतु जैसे-जैसे एकाधिकारी पूंजीवाद के विकास के साथ संकट दीर्घकालिक और निरंतर होते गए तथा पूंजीवाद मरणासन्न होकर सर्वहारा क्रांति को इतिहास के एजेंडे पर ले आया, बुर्जुआ वर्ग के तथाकथित ‘वामपंथी’ हिस्सों – जनतांत्रिक समाजवादियों, सामाजिक जनवादियों, ग्रीन समाजवादियों, समाजवादियों, ग्रीन्स (पर्यावरणवादी),  इत्यादि – ने पूंजीवाद के आर्थिक संकटों के ऐसे उपचार सुझाने के बारंबार प्रयास किये जो मौजूदा बुर्जुआ जनतंत्र के भीतर ही मजदूर वर्ग की तकलीफ में सुधार के लिए कुछ मरहम लगा सके, ताकि उन्हें वर्ग संघर्ष को तेज कर पूंजीवाद को उखाड़ फेंक मजदूर वर्ग के राज्य के तहत एक नियोजित समाजवादी समाज की स्थापना की जरूरत से गुमराह किया जा सके।

बुर्जुआ संसदीय जनतंत्र में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सही मायने में ‘जनपक्षीय’ सरकार द्वारा मौद्रिक या राजकोषीय हस्तक्षेपों के माध्यम से पूंजीवाद के भीतर ही पूर्ण रोजगार कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसके विभिन्न सिद्धांत पेश किए गए हैं। पूंजीवादी आर्थिक संकटों को हल करने के ऐसे सिद्धांत मूल रूप से आर्थिक संकटों की ‘कम खपत’ – ‘कम क्रय शक्ति’,  जिसके परिणामस्वरूप कुल मांग में गिरावट आती है, वाली व्याख्या द्वारा प्रेरित हैं। अतः अर्थव्यवस्था में कुल मांग का प्रबंधन करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप द्वारा व्यय या खपत को बढ़ाने का उपाय पेश किया जाता है। 1920-30 के दशक की महामंदी ने जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को तबाह कर दिया, तब कींसवादी ऐसा सुझाने वाले पहले थे। कींस स्वयं समाजवादी चुनौती के खिलाफ पूंजीवाद की हिफाजत के इच्छुक बुर्जुआ अर्थशास्त्री थे; लेकिन ठीक इसी वजह से उन्होंने असहनीय स्तर की बेरोजगारी को पूंजीवाद के घातक दोष के तौर पर पहचाना और इसे कम करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप की वकालत की।

खर्च बढाने हेतु बजटीय घाटा

कींसवादियों के मुताबिक बाजार अर्थव्यवस्था मंदी का सामना करती है जब कुल मांग कम होती है, और मुद्रास्फीति का जब मांग अधिक होती है। इन्हें सरकार की राजकोषीय नीति और केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति के बीच समन्वित आर्थिक नीति प्रतिक्रियाओं द्वारा कम कर आर्थिक स्थिरता हासिल हो सकती है और मुद्रास्फीति व बेरोजगारी पर नियंत्रण किया जा सकता है। केंद्रीय बैंक विस्तारित मौद्रिक नीति द्वारा मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि करके ब्याज दरों को कम कर सकता है जो सस्ते ऋण (घरों, ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं) के माध्यम से बड़ी उपभोक्ता बिक्री को प्रोत्साहित करेगा। साथ ही पूंजी सस्ती होने और उपभोक्ता मांग बढने से पूंजीपतियों द्वारा अधिक उत्पादक निवेश के रूप में भी मांग में वृद्धि होगी, और इस प्रकार ‘अर्थव्यवस्था का विकास’ भी। विस्तारित राजकोषीय नीति में सरकार द्वारा कम कर लगाकर और बुनियादी ढांचे पर अधिक खर्च करके वस्तुओं की मांग बढ़ाने और बदले में मजदूरी के माध्यम से शुद्ध सार्वजनिक खर्च बढ़ाना शामिल है। सरकार बांड्स के जरिए पूंजी बाजार से उधार लेकर अतिरिक्त व्यय का वित्तपोषण करती है, जिसे बजट घाटा आधारित खर्च कहा जाता है। शुरुआती सरकारी खर्च, बदले में, एक गुणक प्रभाव पैदा करता है क्योंकि श्रमिक और पूंजीपति इससे अपनी मजदूरी और मुनाफे में बढी आय को फिर से बाजार में खर्च करते हैं।

सैमुअल्सन आदि अर्थशास्त्रियों द्वारा कींसवादी गुणक का वर्णन ऐसा आभास देता है जैसे  समाज को समृद्ध बनाना दुनिया का सबसे आसान काम है: सरकार को बस कुल खर्च बढ़ाने की ही तो जरूरत है। मगर शास्त्रीय बुर्जुआ आर्थिक सिद्धांत के तहत यह असंभव है क्योंकि व्यय का स्तर अर्थव्यवस्था की आय/उत्पादन द्वारा सीमित है। इसलिए, उन्होंने इस बात पर आपत्ति जताई कि राजकोषीय घाटे के माध्यम से इस तरह के सार्वजनिक पूंजी व्यय से निजी पूंजी व्यय में कमी आएगी क्योंकि सरकार द्वारा पूंजी का यह उपभोग बाजार में निजी पूंजी के लिए ‘भीडभाड़’ पैदा कर उसके लिए पूंजी का अभाव कर देगा। किंतु जोन रॉबिन्सन और रिचर्ड कान जैसे कींसवादियों ने इन दावों को गलत सिद्ध कर दिखाया कि सरकार खर्च बढाने के लिए पूंजी बाजार से जितना कर्ज लेगी, अंततः अर्थव्यवस्था में गुणक प्रभाव (100 रु के अतिरिक्त खर्च से 400 रु अतिरिक्त आय) के जरिए बढी आय से निजी पूंजी को भी ठीक उतना ही (100 रु) मुनाफा होगा। अतः इससे निजी पूंजीपतियों पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होगा।

टैक्स द रिच – सोशल डेमोक्रेट्स

अधिक व्यय द्वारा मांग बढाने के कींसवाद के मूल सिद्धांत से सहमत होते हुए भी सोशल डेमोक्रेट्स राजकोषीय घाटे के माध्यम से व्यय में वृद्धि के वित्तपोषण का विरोध करते हैं। वे इसके बजाय ‘अमीरों पर कर’ लगाने का सुझाव देते हैं। हम प्रभात पटनायक को उद्धृत करते हैं, “वामपंथी बिल्कुल सही कहते हैं कि राजकोषीय घाटा किसी भी “भीड़भाड़” या मुद्रास्फीति (अप्रयुक्त संसाधनों वाली अर्थव्यवस्था में) की ओर नहीं ले जाता है, बल्कि इसके विपरीत मांग और इसलिए उत्पादन व रोजगार को बढाता है; लेकिन वामपंथी राजकोषीय घाटे का विरोध करते हैं क्योंकि यह बेवजह पूंजीपतियों की संपत्ति को उनके बिना कुछ किये बैठे ठाले ही बढ़ा देता है। … सरकार का 100 रुपये का खर्च, जबकि यह उत्पादन और रोजगार को बढ़ाता है, पूंजीपतियों की संपत्ति में भी 100 रुपये की वृद्धि करता है, जो उनके पास सरकारी बांड के रूप में होता है, यानी सरकार पर कर्ज का दावा। अगर सरकार राजकोषीय घाटे का सहारा न लेकर इस अतिरिक्त धन पर संपदा कर लगाये, जो कि कींस के अपने शब्दों में 100 रुपये का पूंजीपतियों की गोद में जाना एक “लूट” है, तो और कुछ नहीं बदलेगा: सरकारी खर्च से अतिरिक्त आउटपुट अभी भी 400 रुपये होगा; रोजगार में वृद्धि ठीक पहले की तरह ही होगी, मजदूरी व्यय में वृद्धि ठीक पहले की तरह होगी; लेकिन पूंजीपतियों के लिए कोई अतिरिक्त धन नहीं होगा, न उनकी गोद में कोई “लूट” गिरेगी।”

कितनी ‘न्यायसंगत’ बात है कि पूंजीपतियों को बैठे ठाले मिले लाभ को सरकार टैक्स के जरिए उनसे वसूल ले! शायद पूंजीपतियों का शेष लाभ तो श्रमिकों की मेहनत की लूट के बजाय पूंजीपतियों की कडी मेहनत का प्रतिफल होता है! और एक छोटी सी बात के जिक्र का लोभ संवरण करना मुश्किल है कि अमीरों पर कर लगाने के पक्षधर श्रीमान प्रभात पटनायक की प्रिय वाममोर्चा राज्य सरकारें भारत के बुर्जुआ जनतांत्रिक संविधान द्वारा प्राप्त कर लगाने के अपने सीमित अधिकारों को जीएसटी कानून के जरिए संघीय सरकार के हाथ सौंप देने की पंक्ति में अगुआ थीं क्योंकि भारत का इजारेदार पूंजीपति वर्ग इसकी मांग कर रहा था। अब टैक्स लगाने का अधिकार ही न रहा! न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी!

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कींसवादियों और सोशल डेमोक्रेट दोनों ने पूंजीवाद के तथाकथित “स्वर्ण युग” के लिए श्रेय का दावा किया। किंतु एक ओर जब 1970 के दशक में संकट और भी अधिक गहनता-तीव्रता के साथ लौटा, एवं दूसरी ओर मजदूर आंदोलन भी कमजोर पड़ गया, तो बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र में इन दोनों के बजाय शक्तिशाली वित्त पूंजी द्वारा समर्थित नव-उदारवादी आर्थिक विचारों का प्रभुत्व कायम हो गया। यह रोजगार व सार्वजनिक कार्यक्रम-सुविधाओं को बढ़ाने के लिए राज्य के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का विरोध करता है। इसके बजाय राज्य निजी पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने हेतु सभी प्रकार के प्रोत्साहन प्रदान करेगा ताकि वे पूंजी निवेश करने या अधिक खर्च करने के लिए प्रेरित हों। साथ ही बुनियादी ढांचे के निर्माण, रियल एस्टेट निर्माण के ठेकों के जरिए राज्य इजारेदार पूंजीपतियों हेतु मांग का सृजन और प्रबंधन करे, चाहे इसका अधिकांश हिस्सा अनुत्पादक ही हो जैसे दिल्ली का सेंट्रल विस्टा या चीन में भूतिया शहर, और सबसे ज्यादा हथियारों और सैन्यीकरण पर खर्च में वृद्धि कर। उन्हें चिंता थी कि राज्य को पूंजीपतियों की भूमिका नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि कल लोग पूछ सकते हैं: यदि रोजगार बढ़ाने के लिए राज्य को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है, तो हमें पूंजीपतियों की जरूरत ही क्या है? इसके अलावा, उच्च रोजगारदर मजदूरी में वृद्धि के लिए श्रमिकों की सौदेबाजी क्षमता को बढ़ाती है। इसे नव-उदारवादी ‘मजदूरी मुद्रास्फीति’ कहते हैं जो उनकी नजर में आम मुद्रास्फीति से कहीं खतरनाक है क्योंकि यह कुल मूल्य सृजन में मजदूरों का हिस्सा बढा पूंजीपतियों के लिए अतिरिक्त मूल्य या मुनाफे की दर को कम करती है। इसलिए बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों और मीडिया ने सरकारी मितव्ययिता और कम कॉर्पोरेट करों वाले ‘संतुलित बजट’ को एक अनुल्लंघनीय पवित्र सिद्धांत के रूप में प्रचारित किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि नवउदारवादी अर्थशास्त्री राज्य द्वारा आर्थिक हस्तक्षेप के विरुद्ध हैं। वे सिर्फ मजदूर वर्ग व अन्य जनता को किसी प्रकार का भी लाभ पहुंचाने वाली नीतियों के विरोधी हैं। उनके अनुसार सरकार (राज्य) का काम पूंजीपति वर्ग को प्रोत्साहित करना है और पूंजीपतियों का लाभ बढेगा तो वह स्वतः नीचे रिसकर (ट्रिकल डाउन थ्योरी) जनता को लाभ पहुंचायेगा अर्थात पूंजीपतियों का लाभ ही पूरे समाज का लाभ है।

21 वीं सदी में जब पूंजीवादी आर्थिक संकट लगभग अंतहीन (‘स्थायी’) हो गया है, अधिकांश लोगों के लिए उपरोक्त सरकारी बचत/कटौती आधारित नवउदारवादी नीतियों का पूर्ण दिवालियापन स्पष्ट हो गया है। एक दशक से अधिक के निरंतर गहराते संकट और कटौतियों के बाद मजदूर, किसान, युवा, आदि सभी इस नवउदारवादी ‘आम सहमति’ पर सवाल उठा रहे हैं, जिसके बावजूद कभी न खत्म होने वाली ‘महान मंदी’ बदस्तूर कायम है। वृद्धि ठप है, व्यापार व निवेश स्थिर है, और मौद्रिक नीति अपनी चरम सीमा पर है, तो मुख्यधारा के कई पूंजीवादी अर्थशास्त्री (आमतौर पर कींसवादी किस्म के) भी ‘संतुलित बजट’ सिद्धांत को चुनौती दे रहे हैं। आखिर, मितव्ययिता की पूर्ण विफलता और 0% ब्याज दरों के बाद सरकारों के पास अपने शस्त्रागार में और कौन से हथियार बचे हैं?

पूंजीवादी नवउदारवाद के खिलाफ असंतोष के इस माहौल में बर्नी सैंडर्स और जेरेमी कॉर्बिन जैसे ‘वामपंथी’ नेताओं ने बुर्जुआ लोकतंत्र के भीतर ही ‘समाजवाद’ का वादा करना शुरू किया, जिसमें सभी के लिए रोजगार और सार्वजनिक आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल आदि शामिल होंगे, जो वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर ही एक ‘हरित नई डील’ होगी। स्वाभाविक रूप से, पूंजीपति वर्ग के ‘दक्षिणपंथी’ खेमे ने व्यावहारिकता या सामर्थ्य का तर्क उठाया – इन कार्यक्रमों हेतु भारी खर्चों को पूरा करने वास्ते संसाधन कहाँ से जुटाए जाएंगे? यहीं से, हाल के वर्षों में, बुर्जुआ या सामाजिक जनवादी ‘वाम’ की ओर से चर्चित आधुनिक मौद्रिक सिद्धांत (एमएमटी) सामने आया, जिसके समर्थकों ने इसे सभी सवालों-एतराजों के जवाब के रूप में पेश किया है। अमरीकी डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रमुख हस्तियों जैसे अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज़ (एओसी) द्वारा उन दक्षिणपंथी आलोचकों के लिए एक आसान जवाब के रूप में इसकी वकालत की गई है, जो पूछते हैं कि इन लोकलुभावन नीतियों हेतु भुगतान कैसे किया जाएगा क्योंकि एमएमटी एक तरह से इन सब के वित्त पोषण का दावा करता है। आपको लगता है कि ये मांगें चादर के बाहर पैर फैलाना है? मुफ्त स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा? हरित ऊर्जा में बड़े पैमाने पर निवेश? लाखों सार्वजनिक घरों का निर्माण? कोई बात नहीं, हम जितना चाहिए उतनी मुद्रा छाप लेंगे!

एमएमटी हिमायतियों को इस तथ्य से मदद मिली है कि लगातार उफनते-गहराते संकट ने नवउदारवादियों और उनके आर्थिक सिद्धांतों को व्यापक स्तर पर बदनाम कर दिया है। “एमएमटी केवल असाधारण स्थितियों में उपयुक्त है,” अमीर देशों के गठजोड़ ओईसीडी के एक पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री जॉन लेवेलिन ने दावा किया, “जहां अर्थव्यवस्थाएं पूर्ण रोजगार से दूर हैं, अपस्फीति दबाव जाहिर हैं, और ब्याज दरें शून्य की सीमा पर हैं”। किंतु लेवेलिन और उनके साथियों के लिए समस्या यह है कि ये “असाधारण” स्थितियां ही आज की ‘नई सामान्य स्थितियां’ बन गई हैं। वह जिस स्थिति का वर्णन करते हैं, वह बहुत कुछ वैसी ही लगती है, जिसका सामना विश्व अर्थव्यवस्था पिछले एक दशक से अधिक समय से कर रही है।

चुनांचे जो लोग एमएमटी की आलोचना दायें बाजू की ओर से कर रहे हैं, वे स्पष्ट रूप से बहुत मजबूत स्थिति में नहीं हैं, जैसा नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन ने 2008 संकट के मद्देनजर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एक भाषण में स्वीकार किया: “पिछले 30 वर्षों में मैक्रोइकॉनॉमिक्स में अधिकांश काम उदारता से कहें तो बिल्कुल बेकार और कठोरता से कहें तो हानिकारक रहे हैं।”

आधुनिक मौद्रिक सिद्धांत (एमएमटी) क्या है?

परंतु मार्क्सवादियों के रूप में हमें आधुनिक मौद्रिक सिद्धांत का एक वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करने की आवश्यकता है हालांकि यह एक मिथ्या नाम है, न तो इसमें कोई खास सिद्धांत है और न ही यह विशेष रूप से आधुनिक है। यह एक नई बोतल में पेश कींसवाद ही है। इस ढीले-ढाले सिद्धांत के लगभग उतने ही संस्करण हैं जितने इसके अनुयायी हैं, जिनमें शामिल हैं: स्टेफ़नी केल्टन (बर्नी सैंडर्स की पूर्व वरिष्ठ आर्थिक सलाहकार), बिल मिशेल, एक मुखर एमएमटी प्रचारक जो ब्रिटेन में कुछ ‘वाम’ लेबर सांसदों के करीबी  हैं; और रिचर्ड मर्फी, ब्रिटेन के एक प्रमुख टैक्स विश्लेषक और राजनीतिक अर्थशास्त्री।

मुख्यतः एमएमटी का दावा है कि:

  1. एक सरकार जो अपनी संप्रभु, ‘स्वतंत्र’ मुद्रा जारी करती है, उसके पास कभी भी धन की कमी नहीं हो सकती है, क्योंकि वह हमेशा मुद्रा प्रसार बढाकर किसी भी ऋण का भुगतान करने का विकल्प चुन सकती है।
  2. अगर ऐसी सरकार स्वतंत्र रूप से खर्च करती है और बजट घाटा रखती है, तो तब तक मुद्रास्फीति की स्थिति नहीं आएगी, जब तक कि अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त उत्पादक क्षमता है।
  3. सार्वजनिक व्यय कर आय से नहीं होता। इसलिए सरकारों को बाद में खर्च करने के लिए पहले कर लगाने की आवश्यकता नहीं है। वास्तविक प्रक्रिया इसके विपरीत है – सरकारें वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च करती हैं, और फिर अर्थव्यवस्था में मांग को प्रबंधित करने के लिए कर दरों को समायोजित करती हैं।

हालांकि अर्थव्यवस्था का यह ‘विवरण’ स्पष्ट रूप से किसी भी नीतिगत निष्कर्ष की ओर नहीं ले जाता है, फिर भी एमएमटी को कुछ ‘वामपंथियों’ द्वारा इस रूप में उछाला गया है जिसका अनिवार्य रूप से अर्थ है कि सरकारों को अपने खातों (अकाउंट्स) को संतुलित करने के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है और किसी भी बिल का भुगतान करने के लिए पैसा हमेशा ही जुटाया जा सकता है। दरअसल, ऐसा प्रमुख एमएमटी समर्थकों द्वारा स्पष्ट रूप से कहा गया है। उदाहरण के लिए, ट्विटर पर यह पूछते हुए “क्या हम एक ग्रीन न्यू डील का खर्च उठा सकते हैं?” स्टेफ़नी केल्टन खुद जवाब देती हैं: “हाँ, संघीय सरकार जो कुछ भी बिक्री के लिए है अपनी मुद्रा में उसे खरीदने का जोखिम उठा सकती है।” रिचर्ड मर्फी ने कहा है कि: “इस [एमएमटी] का मतलब यह है कि सरकारी खातों को संतुलित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वास्तव में, ऐसा करना न केवल अतार्किक है, बल्कि आर्थिक रूप से पूरी तरह से विकृत है।”

क्या कम खपत (अल्प उपभोग) संकट का असली कारण है?

एमएमटी पर आगे चर्चा करने से पहले, हमें पूंजीवादी संकट के कारणों पर गौर करने की जरूरत है, यह देखने के लिए कि क्या एमएमटी या कोई मौद्रिक सिद्धांत इन संकटों का समाधान प्रदान कर सकता है। मार्क्स ने कहा, “(बुर्जुआ ~ जोड़ा गया) राजनीतिक अर्थशास्त्र का सतहीपन इस तथ्य में दिखता है कि यह क्रेडिट (ऋण) के विस्तार व संकुचन को औद्योगिक चक्र के आवधिक परिवर्तनों के कारण के रूप में देखता है, जबकि यह  उसका एक लक्षण मात्र है।” (पूंजी, खंड 1) यह सच है कि पूंजीवादी संकट अतिउत्पादन के संकट के रूप में प्रकट होता है जब बाजार बिना बिकी वस्तुओं से भर जाता है, मुद्रा आपूर्ति दुर्लभ हो जाती है और ऋण गायब हो जाता है, लेकिन यह संकटों का वास्तविक कारण नहीं है। स्टालिन ने कहा, “अतिउत्पादन के आर्थिक संकटों का स्रोत और कारण पूंजीवादी व्यवस्था में ही निहित है। संकट का स्रोत उत्पादन की सामाजिक प्रकृति और उत्पादों के स्वामित्व की पूंजीवादी प्रकृति के अंतर्विरोध में निहित है।” इसलिए पूंजीवाद में संकट अपरिहार्य हैं। यह बुनियादी अंतर्विरोध व्यवहार में कैसे प्रकट होता है?

श्रमिकों की क्रयशक्ति बाजार मांग का निर्धारक कारक नहीं है क्योंकि यह तो स्वयं उत्पादन के पूंजीवादी संबंधों से निर्धारित होती है। श्रमिकों की क्रयशक्ति पूंजीपतियों द्वारा उन्हें भुगतान की गई परिवर्तनशील पूंजी (श्रमिकों को दी जाने वाली मजदूरी की रकम) के बराबर होती है। यह उनकी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर होता है, जो उनके अपने पुनरूत्पादन के लिए आवश्यक न्यूनतम मालों के मूल्य के बराबर मूल्य के उत्पादन में लगने वाला आवश्यक श्रम समय है। अतः वे कभी भी उत्पादन में पूंजीपति द्वारा निवेशित परिवर्तनशील पूंजी से अधिक खरीद या उपभोग नहीं कर सकते हैं। मजदूरों द्वारा इस आवश्यक श्रम समय के अतिरिक्त लगाये गए श्रम समय में उत्पादित मूल्य को पूंजी मालिकों द्वारा अधिशेष मूल्य के रूप में हस्तगत कर लिया जाता है और यह पूंजीपति वर्ग के हाथों में अर्जित होने वाले सभी लाभ, ब्याज और लगान का स्रोत होता है।

इसलिए अधिशेष मूल्य के बराबर वस्तुओं का उपभोग केवल पूंजीपति वर्ग द्वारा या तो बुनियादी व विलासिता की वस्तुओं के व्यक्तिगत उपभोग के रूप में या उत्पादक उपभोग यानी अगले उत्पादक चक्र में विस्तारित पुनरूत्पादन के लिए स्थिर पूंजी के रूप में खपत के तौर पर ही किया जा सकता है। बेशक, खपत बढ़ाने के लिए ऋण (क्रेडिट) का उपयोग स्टेरॉयड के रूप में किया जाता है, लेकिन श्रमिकों के लिए यह केवल भविष्य की मजदूरी में से वर्तमान में की गई खपत है जिसमें जुडी ब्याज लागत उनकी भविष्य की आय को और भी कम कर देती है। चुनांचे ऋण रूपी स्टेरॉयड्स आधारित यह पंपिंग कृत्रिम व अस्थायी है। हालाँकि जब तक यह चलता है, पूंजीपति उत्पादक उपभोग के लिए अधिशेष मूल्य का उपयोग करते रहते हैं और एक चक्र में उत्पादित सभी मालों को विक्रय द्वारा मुद्रा पूंजी में बदल पाते हैं। इससे अस्थायी उछाल का दौर आता है क्योंकि उत्पादक पूंजी में अधिक निवेश श्रमिकों की अधिक मांग पैदा करता है और मजदूरी बढ़ाता है। लेकिन प्रत्येक पूंजीपति कम से कम संभव लागत पर अधिक से अधिक संख्या में मालों का उत्पादन करने की कोशिश करता है, पूंजी की जैविक संरचना या स्थिर पूंजी को परिवर्तनशील पूंजी यानी उत्पादन प्रक्रिया में नियोजित श्रमशक्ति की मात्रा के अनुपात में बढाता रहता है। इसलिए जबकि प्रत्येक पूंजीवादी उद्यम संगठित और सुनियोजित तरीके से कार्य करता है, पूंजीवाद में सामाजिक उत्पादन पूरी तरह अराजक होता है क्योंकि प्रत्येक पूंजीपति एक ओर समाज में कुल मांग (क्रयशक्ति) और दूसरी ओर कुल उत्पादन के बीच किसी भी समन्वय के बिना अधिकतम लाभ के लिए अपना उत्पादन बढ़ाता जाता है। यह अव्यवस्था और अराजकता देर-सबेर अनिवार्य रूप से अतिउत्पादन को जन्म देती है। इसलिए पूंजीवादी संकट आमतौर पर तब नहीं आता जब बेरोजगारी अधिक होती है और मजदूरी कम होती है बल्कि इसके ठीक विपरीत अक्सर तब आता है जब बाजारों में उछाल होता है और बेरोजगारी कम व मजदूरी अधिक स्तर पर होती है।

इसलिए पूंजीवाद का संकट श्रमिकों की कम क्रयशक्ति के कारण कम खपत का परिणाम नहीं, बल्कि उत्पादन संबंधों और उत्पादित माल पर स्वामित्व में बुनियादी अंतर्विरोध का नतीजा है। इसलिए, इन संकटों के समाधान की मांग है, निजी संपत्ति मालिकों के मुनाफे के लिए संचालित व्यवस्था के बजाय उत्पादन के समाजीकरण के साथ ही उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के भी समाजीकरण पर आधारित सामूहिक सामाजिक जरूरतों की पूर्ति के लिए योजनाबद्ध उत्पादन की समाजवादी प्रणाली।

मुद्रा क्या होती है?

एमएमटी के साथ समस्या मुद्रा और पूंजीवाद में इसकी भूमिका की इसकी गलत समझ है। एमएमटी हिमायती मुद्रा संबंधी एक पुराने सिद्धांत के अनुयायी हैं जिसे ‘चार्टलिज़्म’ के रूप में जाना जाता है। यह शब्द जॉर्ज फ्रेडरिक नैप नामक एक जर्मन अर्थशास्त्री द्वारा गढ़ा गया था, जिन्होंने ‘मुद्रा के राज्य सिद्धांत’ नामक परिकल्पना को सामने रखा था। नैप मुताबिक मुद्रा या धन की उत्पत्ति राज्य द्वारा लोगों पर कर लगाने से होती है अर्थात राज्य मुद्रा को बनाता है – और फिर ‘भुगतान के साधन’ के रूप में इसकी मांग कर इसके उपयोग पर जोर देता है।

किंतु मुद्रा की प्रकृति को वास्तव में समझने के लिए हमें कार्ल मार्क्स की ओर मुड़ना चाहिए। कैपिटल में मार्क्स ने उल्लेख किया है कि “माल-उत्पादकों के समाज के उत्तरोत्तर विकास ने एक विशिष्ट माल पर मुद्रा के चरित्र की मुहर लगा दी। अत: मुद्रा द्वारा प्रस्तुत पहेली मालों(पण्यों) द्वारा प्रस्तुत पहेली मात्र है।” दूसरे शब्दों में, समाज में मुद्रा की भूमिका को समझने के लिए, हमें पहले माल उत्पादन और विनिमय में इसकी वास्तविक उत्पत्ति को समझना होगा। मार्क्स ने समझाया कि मुद्रा का इतिहास मालों के उदय से जुड़ा हुआ है अर्थात वस्तुओं-सेवाओं का उत्पादन व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं बल्कि विनिमय के लिए। मार्क्स ने दिखाया कि सभी मालों का विनिमय मूल्य होता है जो एक संबंध है – एक अनुपात – वस्तुओं के बीच, यह व्यक्त करते हुए कि एक माल का दूसरे के साथ औसतन किस अनुपात में आदान-प्रदान किया जाएगा।

डेविड रिकार्डो जैसे अपने पूर्ववर्तियों के विचारों को आगे संवर्धित करते हुए, मार्क्स ने रेखांकित किया कि कैसे हर माल का मूल्य उसके भीतर सन्निहित श्रम पर निर्भर है। इस श्रम में इसके उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल, उपकरण आदि के भीतर निहित ‘मृत श्रम’ और श्रमिक द्वारा उत्पादन प्रक्रिया में जोड़े गए ‘जीवित श्रम’ दोनों शामिल हैं। मार्क्स ने इस कुल श्रम को ‘सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम समय’ कहा: एक समाज के भीतर प्रौद्योगिकी और उद्योग आदि के वर्तमान स्तर के आधार पर किसी वस्तु के उत्पादन के लिए आवश्यक समय। मार्क्स ने ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान‘ में समझाया कि कैसे मुद्रा कई कार्यों को पूरा करती है:

  1. खाते की इकाई या मूल्य की माप के रूप में। मुद्रा के संदर्भ में यह कीमतों द्वारा दर्शाया जाता है।
  2. विनिमय के माध्यम के रूप में। इस भूमिका में, मुद्रा मालों के संचरण को दो अलग-अलग कृत्यों में को तोड़ता है: बिक्री कृत्य (सी-एम, मुद्रा के लिए एक माल का आदान-प्रदान); और खरीद का एक कार्य (एम-सी, एक दूसरे माल के लिए मुद्रा का आदान-प्रदान)।
  3. मूल्य के भंडार के रूप में, संचित धन को समय के साथ बनाए रखने और संरक्षित करने की सहूलियत देता है।
  4. भुगतान के साधन के रूप में, ऋणों (एक निश्चित मुद्रा में मूल्यांकित) को निपटाने और करों का भुगतान करने की सहूलियत देना।

इसलिए, मुद्रा विनिमय मूल्य का प्रतिनिधित्व करता है: मूल्य के नियम के सामान्यीकरण की अंतिम अभिव्यक्ति; माल (कमोडिटी) उत्पादन और विनिमय के विकास का तार्किक निष्कर्ष, जिसके लिए एक सार्वभौमिक मानदंड की आवश्यकता होती है – एक मानक माप, जिसके समकक्ष अन्य सभी मालों के मूल्य को व्यक्त किया जा सकता है। मुद्रा किसी के दिमाग में पैदा विचार से नहीं बल्कि ऐतिहासिक रूप से माल (कमोडिटी) उत्पादन और विनिमय के विकास के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। यह मुख्य रूप से एक ‘मनी कमोडिटी’ के रूप में शुरू होता है, जैसे कि कीमती धातु, अपने स्वयं के मूल्य के साथ, लेकिन बाद में यह मूल्य का एकमात्र प्रतीक बन जाता है। आज यह सामान्यतः स्पष्ट नहीं है, जहां मुद्रा मुख्य रूप से सिक्के नहीं है, बल्कि नकद और क्रेडिट नोट और डिजिटल खातों में नंबर हैं। अतः बहुत से लोग मुद्रा के वास्तविक अर्थ की समझ में चूक जाते हैं। किंतु अब भी भुगतान के वास्तविक संकट में इसे सर्राफा द्वारा निपटाने की आवश्यकता होती है, उदाहरण के लिए, 1991 का भुगतान संकट, जब भारत को हवाई जहाजों में टनों असली सोना लाद कर मालों के आयात के भुगतान के रूप में स्विट्जरलैंड के बैंकों में गिरवी रखने को भेजना पडा था, क्योंकि बिना अंतर्निहित मूल्य के कुछ संख्या अंकित मुद्रा को स्वीकार करने से माल विक्रेताओं ने इंकार कर दिया था। मार्क्स ने इस बात पर भी जोर दिया कि हमें मुद्रा को एक सामाजिक संबंध के रूप में समझना चाहिए। मुद्रा अपने आप में धन-संपदा नहीं है बल्कि यह अंततः मजदूर वर्ग के श्रम द्वारा उत्पादन से सृजित कुल सामाजिक धन के एक हिस्से पर दावा है।

लेकिन चार्टलिज़्म और एमएमटी मूल्य या माल उत्पादन और विनिमय का कोई विश्लेषण पेश नहीं करते। नतीजतन, यह पूंजीवाद के सार और उसके भीतर मुद्रा की भूमिका को समझने में पूरी तरह असमर्थ है।

मुद्रा और राज्य

चार्टलिस्ट और एमएमटी हिमायतियों का यह कहना तो सही है कि राज्य पैसा या मुद्रा बना सकता है। लेकिन राज्य इस बात की गारंटी नहीं दे सकता कि इस पैसे का कोई मूल्य है। इसके पीछे एक उत्पादक अर्थव्यवस्था के बिना पैसा व्यर्थ है क्योंकि यह केवल मूल्य का प्रतिनिधित्व करता है। और उत्पादन में वास्तविक मूल्य सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम समय के उपयोग के परिणामस्वरूप निर्मित होता है। इसलिए राज्य जो पैसा बनाता है, वह केवल तभी तक किसी मूल्य का होगा, जब तक कि वह उस मूल्य को दर्शाता है जो अर्थव्यवस्था में मालों के उत्पादन और विनिमय के रूप में प्रचलन में है। जैसा मार्क्स ने उल्लेख किया है, प्रचलन में मूल्यों का योग अंततः इन वस्तुओं की कीमतों के योग के समान होना चाहिये। जहां ऐसा नहीं है, वहां यह महंगाई और अस्थिरता का नुस्खा है।

यह राज्य नहीं है जो पैसे की मांग पैदा करता है, बल्कि पूंजीवादी उत्पादन की जरूरतें हैं, जो लाभ से संचालित होती हैं। राज्य निश्चित रूप से अपनी अर्थव्यवस्था में मूल्य के लिए लेखांकन करते समय माप की किसी भी इकाई का उपयोग कर सकता है, जैसे अमरीकी दूरी को फुट में मापते हैं, जबकि यूरोपीय मीटर में, लेकिन इससे वास्तविक दुनिया में वस्तुओं की ऊंचाई का परिमाण नहीं बदल सकता। इसी तरह, कोई समाज खुद के अधिक समृद्ध होने की कल्पना करने से या अधिक पैसे छापने से समृद्ध नहीं हो जाता है। इसीलिए 17 वीं शताब्दी के अंग्रेजी दार्शनिक जॉन लॉक ने मुद्रा सिद्धांत का जिक्र करते हुए कहा कि कोई चांदी के एक छोटे टुकड़े को ‘शिलिंग’ कहकर इसकी मात्रा को नहीं बढा सकता है, और न ही यह घोषणा करके कि एक फुट अब से 15 इंच का होगा, एक नाटे आदमी को लंबा बना सकता है।

नैप और एमएमटी अनुयायियों का यह कहना गलत है कि राज्य पैसे की मांग पैदा और नियंत्रित करता है। पूंजीवाद के तहत, प्रचलन में मुद्रा का बड़ा हिस्सा सरकारों या केंद्रीय बैंकों द्वारा नहीं बल्कि वाणिज्यिक बैंकों द्वारा बैंक जमा के रूप में बनाया जाता है। यह पैसा उपभोक्ताओं और निवेशकों की मांगों के जवाब में क्रेडिट और ऋण के रूप में अस्तित्व में आता है – यह प्रक्रिया बैंकों के मनी मल्टीप्लायर फ़ंक्शन के रूप में जानी जाती है। जहां घरेलू खपत और/या व्यावसायिक निवेश में गिरावट के मामले में यह मांग सूख जाती है, वैसे ही पैसे की मांग भी कम हो जाती है। किसी समाज में मुद्रा का परिमाण राज्य के सनकी फैसलों से नहीं, उत्पादन की वस्तुगत स्थितियों से तय होता है, इसकी गलत समझ का एक बडा उदाहरण नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 2016 में की गई नोटबंदी है, जब जबर्दस्ती मुद्रा की बडी मात्रा को संचरण से अचानक बाहर कर देने से उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था ही बाधित हो और मेहनतकश जनता के जीवन में एक बडी आफत आ गई थी। और इस मशक्कत के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में नकदी-जीडीपी अनुपात 12.4% से बढकर अभी 14.5% हो गया है।

हां, राज्य मुद्रा या पैसा सृजित कर सकता है। लेकिन यह सुनिश्चित नहीं कर सकता कि इस पैसे का उपयोग कैसे किया जाए। वास्तव में, 2008 संकट के बाद से पूंजीवादी दुनिया मे मात्रात्मक सुगमता (quantitative easing) के विशाल कार्यक्रम इस बात का प्रमाण हैं। पिछले एक दशक में केंद्रीय बैंकों द्वारा अर्थव्यवस्था में खरबों डॉलर का नकदी प्रवाह किया गया है, और इसका प्रभाव क्या पड़ा है? भारतीय बैंकिंग प्रणाली में ही रिजर्व बैंक द्वारा 2 साल से अधिक समय से हर हफ्ते औसतन 8-12 ट्रिलियन रुपये की अतिरिक्त नकदी तरलता को लेते हैं। नतीजा? व्यापार, निवेश और सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि अभी भी मंद बनी हुई है, पर संपत्ति की कीमतें – शेयर बाजार और जड़ संपत्ति, सोना, क्रिप्टोकरेंसी, और यहां तक ​​​​कि कलाकृति और बढ़िया वाइन – सभी की कीमतें फिर भी ऊपर और ऊपर ही जा रही हैं। संक्षेप में, सट्टेबाजों के पास खेलने के लिए पूरी दुनिया है, जबकि आम लोग अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

असल में प्रकृति और समाज दोनों की ही गति के कुछ वस्तुगत नियम हैं जो हमारी इच्छा और इरादे से स्वतंत्र अपना काम करते हैं। हम इन नियमों को जानकर सामाजिक अग्रगति में अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं मगर इन्हें मनमर्जी से तोड मरोड़ नहीं सकते। अर्थव्यवस्था में मुद्रा व नकदी की मात्रा भी ऐसे ही तय होती है, मोदी या एमएमटी वालों की मनमर्जी से नहीं। एक उत्पादन चक्र में सकल उत्पादित मूल्य और उस खास समाज में मुद्रा का वेग इस मात्रा के निर्धारक होते हैं। किंतु एमएमटी वाले इन नियमों के अनुसार विश्लेषण के बजाय मेहनतकश जनता के सामने उनकी समस्याओं के हल के लिए ये अतार्किक व भ्रामक बातें करते हैं ताकि उसे शोषण मुक्ति के वास्तविक पथ से गुमराह कर सकें। क्लासिकल से कींसवादी, सोशल डेमोक्रेट विश्लेषकों के साथ भी हम निष्कर्ष में असहमत हैं पर कम से कम वो भी हमारे दृष्टिकोण से गलत ही सही पर एक तर्क आधारित विचार तो प्रस्तुत करते थे। इसके मुकाबले एमएमटी पूंजीवाद के मौजूदा आम व लगभग चिरस्थायी संकट के दौर के अन्य उत्तरआधुनिक पोस्टट्रुथ विचारों की तरह तथ्यों और तर्कों को ही मटियामेट करने वाला एक छलिया ‘सिद्धांत’ मात्र है।

संक्षेप में, यह राज्य नहीं है जो मुद्रा या पैसे की मांग को पैदा करता है, बल्कि यह पूंजीवादी उत्पादन की जरूरत है और यह उत्पादन अंततः लाभ से संचालित होता है। व्यवसाय लाभ कमाने के लिए निवेश, उत्पादन और बिक्री करते हैं। जहां पूंजीपति लाभ नहीं कमा सकते, वे उत्पादन नहीं करेंगे। किंतु चार्टलिज्म – व एमएमटी – के पास लाभ के बारे में कहने के लिए कुछ भी नहीं है जबकि यह पूंजीवादी व्यवस्था की प्रेरक शक्ति है। नतीजतन, यह पूंजीवाद के तहत अर्थव्यवस्था की वास्तविक गतिशीलता की व्याख्या नहीं कर सकते।

वैश्वीकृत पूंजीवाद के तहत स्वतंत्रता व सार्वभौमिकता?

आइए हम एमएमटी के पहले प्रमुख सिद्धांत को लें: जो सरकारें अपनी ‘स्वतंत्र’ मुद्रा चलाती हैं, वे दिवालिया नहीं हो सकती हैं। यह सच है कि

अमरीका, ब्रिटेन या भारत जैसी सरकार – जिनकी मुद्रा किसी और देश की मुद्रा से नहीं आंकी जाती है, और जहां केंद्रीय बैंक मुद्रा आपूर्ति बढ़ा सकता है – अपने ऋण दायित्वों या बजटीय घाटे को पूरा करने वास्ते मुद्रा छापने (या डिजिटल सृजन करना) का विकल्प चुन सकता है।

लेकिन हमें यह पूछना चाहिए कि दुनिया में ऐसी सरकारें और उनकी मुद्रायें कहां है जो वास्तव में ‘स्वतंत्र’ और ‘संप्रभु’ है? चलिए हम पूर्व-औपनिवेशिक (‘विकासशील’/’उभरते’) देशों को भूल जाएं, जिनमें से अधिकांश बड़ी साम्राज्यवादी शक्तियों के कर्ज के बोझ तले दबे हैं – वे कर्ज जो ज्यादातर अमरीकी डॉलर में अंकित हैं। चलिए हम अर्जेंटीना, जिम्बाब्वे, वेनेजुएला, पूंजीवाद बहाली के बाद के रूस, आदि के प्रसिद्ध उदाहरणों को भूल जाएं, जब पूंजी बाजार ने इनकी मुद्राओं को धूल चटा दी थी। चलिए हम 1973 के चिली या कांगो के पैट्रिस लुमुंबा या बुर्किना फासो के थॉमस संकरा और ऐसे ही अनेक अफ्रीकी, एशियाई या लैटिन अमरीकी उदाहरण भी भूल जायें जब साम्राज्यवादी रक्तरंजित दखलंदाजी से इन देशों की सरकारों को ही अपनी स्वतंत्र आर्थिक नीतियां लागू करने के जुर्म में पलट दिया गया था।

इनके बजाय हम सबसे पुराने पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ब्रिटेन को देखें तो वहां भी मौद्रिक स्वतंत्रता भ्रमपूर्ण धारणा ही है। सही है कि बैंक ऑफ इंग्लैंड ब्याज दरें निर्धारित कर सकता है, पैसा प्रिंट कर सकता है और सरकार को अपनी मुद्रा में उधार दे सकता है। लेकिन मान लें कि एक ‘वामपंथी’ सरकार सत्ता में आ इस शक्ति का उपयोग बड़े वित्तीय घाटे और ढीली मौद्रिक नीति के जरिए बड़े पैमाने पर सार्वजनिक सुविधाओं-कार्यक्रमों को अंजाम देने के लिए करे, तो यह बाजारों के विश्वास को जल्दी ही हिला देगा। पूंजीवाद की सीमा के भीतर यह एक आर्थिक तबाही की ओर ले जाएगा। अमीर अपना पैसा देश से निकाल लेंगे; पूंजीपति पूंजी की हड़ताल करेंगे; और सरकार को निवेशकों को आकर्षित करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। मुद्रा का मूल्य जल्द ही ढह जाएगा, जिससे बड़े पैमाने पर मुद्रास्फीति हो सकती है – मुद्रास्फीति जो श्रमिकों को सबसे ज्यादा प्रभावित करेगी क्योंकि वास्तविक मजदूरी बढ़ती कीमतों से कम हो जायेगी।

1976 में लेबर सरकार को ठीक इसी स्थिति का सामना करना पड़ा था। दशकों की विफल कींसवादी नीतियों के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में मंदी की स्थिति में पूंजीवाद के विश्व संकट के बीच 1974 में जनकल्याण के सार्वजनिक कार्यों के वादे पर यह सत्ता में आई थी। पर हेरोल्ड विल्सन को उलटे कटौती के प्रस्ताव रखने पडे। इन्हें लेबर के वाम धडे ने पारित नहीं होने दिया जिससे विल्सन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। जेम्स कैलाहन प्रधानमंत्री बने। पर पाउंड में गिरावट से चिंतित हो झोली फैला आईएमएफ से 3.9 बिलियन डॉलर का बेलआउट मांगना पडा जो उस समय तक आईएमएफ से किसी देश द्वारा लिया सबसे बड़ा ऋण था। बेशक कर्ज सशर्त था और शीर्ष 25 एकाधिकारी कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करने के वादे पर ’74 का चुनाव जीतने वाली लेबर पार्टी ने इसके बजाय खुद को कटौती की नीतियां लागू करते पाया। फिर ‘ब्लैक बुधवार’, जो 16 सितंबर 1992 को हुआ, और उस दिन के रूप में जाना जाता है जब सट्टेबाजों ने “पाउंड तोड़ डाला”। इस व्यंजना का उपयोग इस बात का वर्णन करने के लिए किया जाता है कि बाजार की ताकतों ने ब्रिटिश सरकार को यूरोपीय विनिमय दर तंत्र (ईआरएम) से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिया था।

हम एक और विकसित साम्राज्यवादी फ्रांस में फ्रांस्वा मित्तरां सरकार के अनुभव को भी देख सकते हैं। मित्तरां को 1981 में एक ‘वामपंथी’ कींसवादी कार्यक्रम के आधार पर चुना गया था जिसमें राष्ट्रीयकरण, न्यूनतम वेतन में वृद्धि और 39 घंटे के सप्ताह का वादा किया गया था। लेकिन केवल दो वर्षों के बाद, पूंजी पलायन और फ्रांसीसी उद्योग की प्रतिस्पर्धात्मकता में गिरावट का सामना करते हुए, राष्ट्रपति को मुद्रास्फीति से लड़ने और बाजारों का विश्वास हासिल करने के लिए कटौती नीतियों को लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह सब तब हुआ जब फ्रांस एक ‘संप्रभु’ देश था।

ऐसा अमरीका में भी हो सकता है। विश्व मुद्रा के रूप में कार्य करने की डॉलर की क्षमता अमरीका की अपेक्षाकृत आधिपत्यपूर्ण साम्राज्यवादी स्थिति से उत्पन्न होती है जो अमरीकी पूंजीवाद की ताकत और स्थिरता का नतीजा है। केवल इसी कारण से अंतरराष्ट्रीय निवेशकों द्वारा डॉलर को ‘सोने के समान’ माना जाता है। परंतु वित्तीय बाजारों द्वारा अमरीका की ‘मजबूत और स्थिर’ अर्थव्यवस्था पर सवाल उठाया जाए, तो डॉलर भी जल्द गिर सकता है। 2018 में अमरीका में उच्च सरकारी खर्च के सैंडर्स/वारेन आदि के आह्वान पर लिबरल भोंपू ‘द इकोनॉमिस्ट’ की टिप्पणी थी, “डॉलर का प्रभुत्व अनिश्चितकाल तक चलने की गारंटी नहीं है। जब 1930 के दशक की शुरुआत में पाउंड स्टर्लिंग ने अपनी श्रेष्ठता खो दी तो ब्रिटेन, जिसका ऋण-जीडीपी अनुपात 150% से अधिक था, को मुद्रा संकट का सामना करना पड़ा। ऐसा कोई कारण नहीं है कि इतिहास अमरीकी पूंजीवाद और डॉलर के संबंध में खुद को दोहरा न सके।”

संक्षेप में, पूंजीवाद के भीतर किसी भी देश के लिए आर्थिक, वित्तीय, या मौद्रिक ‘आजादी’ जैसी कोई चीज नहीं हो सकती है, जो आज पूरी तरह से एकीकृत विश्व बाजार और प्रमुख साम्राज्यवादी शक्तियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्व पर आधारित एक वास्तविक वैश्विक प्रणाली है। केवल पूंजीवादी प्रणाली के एकाधिकार को तोड़कर – समाज के समाजवादी रूपांतरण के माध्यम से – ही हम वास्तव में स्वतंत्र और समाज हेतु आवश्यक आर्थिक नीतियों को लागू करने के लिए स्वतंत्र हो सकते हैं।

पूंजीवाद में कोई मुफ्त लंच नहीं

भले ही हम एमएमटी के इस दावे को स्वीकार कर लें कि कुछ देश मौद्रिक रूप से ‘संप्रभु’ हैं और मुद्रा छापने के लिए स्वतंत्र हैं, क्या वास्तव में इसका मतलब यह है कि ‘वामपंथी’ सरकार के रास्ते में कोई वित्तीय बाधा नहीं है? एमएमटी वाले स्वयं ही इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि किसी भी सरकार की पैसा बनाने और खर्च करने की क्षमता की सीमा होती है – सीमा जिसके आगे मुद्रास्फीति के रूप में प्रभाव पड़ेगा। यह सीमा अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता है: किसी देश में उसके उद्योग, बुनियादी ढांचे, शिक्षा, जनसंख्या आदि के संदर्भ में उपलब्ध आर्थिक संसाधन। यदि सरकारी खर्च मांग को आपूर्ति की जा सकने वाली सीमा से ऊपर धकेलता है, तो बाजार की ताकतें पूरी अर्थव्यवस्था में कीमतों को बढ़ा देंगी – यानी यह मुद्रास्फीति उत्पन्न करेगी।

यदि यह बिंदु आ जाता है तो एमएमटी हिमायती कहते हैं कि सरकार का काम है कि वह मांग को कम करके अर्थव्यवस्था को ‘ओवरहीटिंग’ से रोके। कींसवादियों की तरह वे दावा करते हैं कि यहां करों की भूमिका है – अर्थव्यवस्था से पैसे (सरकार द्वारा निर्मित) को वापस चूसने के लिए, जैसे परमाणु रिएक्टर में नियंत्रण छड़ें, जो न्यूट्रॉन को अवशोषित करती हैं और एक अनियंत्रित श्रृंखला प्रतिक्रिया को रोकती हैं।

लेकिन सरकारें मांग को नियंत्रित करने के लिए ही पहले पैसा और फिर टैक्स नहीं बनाती हैं। ठीक है, पैसा ‘हवा में से’ बनाया जा सकता है, लेकिन मूल्य और मांग ऐसे पैदा नहीं हो सकती। उत्पादन में ही मूल्य उत्पन्न होता है। जब पूंजीवाद की बात आती है तो मुफ्त लंच जैसी कोई चीज नहीं होती है। हालांकि राज्य पैसा छाप सकता है, पर वह शिक्षकों और स्कूलों, डॉक्टरों और अस्पतालों, इंजीनियरों और कारखानों को तो नहीं छाप सकता। बेशक, अगर ये चीजें निजी क्षेत्र द्वारा प्रदान और उत्पादित नहीं की जा रही हैं, तो सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से सीधे कदम उठा इन्हें उत्पादित कर सकती है। लेकिन इसका तार्किक निष्कर्ष तो अधिक पैसा पैदा करना नहीं है, बल्कि एक समाजवादी परिवर्तन के हिस्से के रूप में अर्थव्यवस्था का समाजीकरण करके उत्पादन को बाजार से बाहर निकालना है।

जब तक अर्थव्यवस्था पूंजीवादी रहेगी, व्यवस्था में डाला गया कोई भी पैसा पूंजीपतियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं – भोजन और आश्रय, आदि – के भुगतान के लिए ही जाएगा। दूसरे शब्दों में, यह सारा पैसा मुनाफाखोरों के हाथ में चला जाएगा।

इसलिए मजदूर वर्ग का उद्देश्य मुद्रा व्यवस्था को मजबूत करना नहीं, बल्कि उसे खत्म करना होना चाहिए। एमएमटी के नीतिगत निष्कर्षों को लागू करने से मुद्रा का मूल्य गिर या नष्ट हो सकता है, लेकिन यह पैसे की शक्ति को समाप्त नहीं करेगा। यह केवल माल उत्पादन और विनिमय की उस प्रणाली को समाप्त करके किया जा सकता है जिसमें से ऐतिहासिक रूप से मुद्रा का उदय हुआ है। इसका अर्थ है पूंजीवादी व्यवस्था की जड़ों से निपटना अर्थात निजी स्वामित्व और लाभ के लिए उत्पादन। केवल उत्पादन के साधनों पर साझा स्वामित्व लाकर और समाजवादी आर्थिक योजना को लागू करके ही हम समाज की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। हम समाजवाद के लिए अपना रास्ता मुद्रा छाप कर नहीं बना सकते।

पूंजीवाद और वर्ग

एमएमटी आर्थिक स्वामित्व के इस प्रमुख प्रश्न से ही बचता है। वास्तव में, यह बड़े पैमाने पर पूंजीवादी उत्पादन और इसे पूरी तरह से नियंत्रित करने वाले आर्थिक नियमों के सवाल से ही बचता है। आखिरकार, अपनी स्वयं स्वीकृति से ही यह पूंजीवादी व्यवस्था का विश्लेषण नहीं है, बल्कि सरकारी खर्च, करों और मुद्रा आपूर्ति के बीच संबंधों का विवरण है। इसकी मूल धारणा है कि संसदीय शासन प्रणाली बुर्जुआ वर्ग के वर्गीय राज्य का हिस्सा नहीं है, बल्कि ‘जनता’ का प्रतिनिधि है और उपरोक्त सभी समस्याओं का समाधान पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने का सवाल नहीं है, बल्कि एक जनपक्षधर सरकार की इच्छा और दृढ़ संकल्प का सवाल है। इसलिए, मजदूर वर्ग को  जागरूक और संगठित तो होना चाहिए लेकिन केवल इतना कि वह ऐसी ‘लोकतांत्रिक समाजवादी’ सरकार का चुनाव कर सके जो एमएमटी जैसी नीतियों को लागू करेगी। दरअसल, कींसवाद की तरह, एमएमटी का आर्थिक विश्लेषण वर्ग के मुद्दे और इस तथ्य से पूरी तरह से रहित है कि हम एक वर्ग समाज में रहते हैं, जो विरोधी आर्थिक हितों से बना है: शोषकों के और शोषितों के।

उदाहरण के लिए, जब एमएमटी राज्य के बारे में बात करती है, तो किस तरह के राज्य का उल्लेख किया जा रहा होता है? जैसा कि मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में पूंजीवाद के तहत उल्लेख किया है, “आधुनिक राज्य की कार्यपालिका कुछ और नहीं बल्कि पूरे पूंजीपति वर्ग के सामान्य मामलों के प्रबंधन के लिए एक समिति है”। लेनिन ने एक बार टिप्पणी की थी कि पूंजीवाद, जनतंत्र से बहुत दूर, ‘बैंकों की तानाशाही’ का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन इस तानाशाही को उखाड़ फेंकने के बजाय, एमएमटी के अधिवक्ता इसे दूसरे बैंक के साथ बदलने का सुझाव देते हैं अर्थात एक बैंक – केंद्रीय बैंक – की तानाशाही।

एमएमटी के बताये इस भविष्य में, इस सर्वशक्तिमान केंद्रीय बैंक का अधिशासी कौन होगा – मजदूर वर्ग या पूंजीपति वर्ग? इसी तरह, पूंजीवाद के तहत अर्थव्यवस्था पर हावी होने वाले बड़े इजारेदारों की बात। क्या ये निजी हाथों में रहेंगे, लाभ के लिए उत्पादन करेंगे? एक राष्ट्रीय बैंक, जो समाज के संसाधनों को अर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द निर्देशित करता है, निश्चित रूप से उत्पादन की समाजवादी योजना का एक महत्वपूर्ण तत्व होगा। लेकिन इस व्यवस्था में ऐसे बैंक को मजदूर वर्ग के नियंत्रण में रखना होगा। क्या एमएमटी के समर्थक यही कल्पना करते हैं?

एमएमटी हिमायतियों का कहना है कि उनका सिद्धांत “हमें वास्तव में परिवर्तनकारी राजनीति की कल्पना करने की शक्ति देता है”। लेकिन, अंत में, वे पूंजीपति वर्ग की शक्ति को बुनियादी रूप से चुनौती देने और वर्तमान आर्थिक संबंधों को बदलने का प्रस्ताव नहीं करते हैं। उनके लिए निजी संपत्ति अनुल्लंघनीय और पवित्र रहती है। बाजार की अराजकता अछूती बनी रहती है। एमएमटी के प्रमुख सिद्धांतकार बिल मिशेल का दावा है कि “उत्पादन के साधनों को जब्त करने वाले मजदूर वर्ग” के बजाय, “यह पैसे के उत्पादन के साधनों को जब्त करने वाला श्रमिक वर्ग है” (उनका जोर)। रिचर्ड मर्फी एमएमटी के दक्षिणपंथी आलोचकों को आश्वस्त करते हुए आगे बढ़ते हैं कि इसके समर्थकों की “निजी क्षेत्र को अलग करने की कोई योजना नहीं है”।

अपने कींसवादी पूर्ववर्तियों की तरह, एमएमटी हिमायतियों की रणनीति भी वही है जो पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार का भ्रम पैदा कर उसको उखाड़ फेंकने के बजाय बचाती है।

हरित नया सौदा (ग्रीन न्यू डील)

इसलिए एमएमटी की ये ‘नई’ बातें मांग-पक्ष प्रबंधन के पुराने कींसवादी अर्थशास्त्र के अलावा और कुछ नहीं है। लेकिन इस तरह के कींसवाद को पहले भी आजमाया जा चुका है – और अवांछित पाया गया है। आर्थिक प्रबंधन का यह टॉप-डाउन प्रयास 1960 और 1970 के दशक के दौरान उन्नत पूंजीवादी देशों में प्रचलन में था, जब तक कि इसकी मुद्रास्फीति की नीतियों ने अतिउत्पादन, मुद्रास्फीति, मंदी और ब्रेटन वुड्स प्रणाली के पतन के वैश्विक पूंजीवादी संकट को जन्म नहीं दिया।

आज ग्रीन न्यू डील (जीएनडी) का आह्वान इस सामाजिक लोकतांत्रिक ‘वामपंथ’ में लोकप्रिय हो गया है, जिसकी वकालत अमेरिका में एओसी और यूके में वामपंथी लेबर कार्यकर्ताओं द्वारा की जा रही है। अटलांटिक के दोनों किनारों पर रखे गए जीएनडी प्रस्तावों का एक प्रमुख तत्व ‘नौकरियों की गारंटी’ का विचार है: बेरोजगार लोगों के लिए न्यूनतम मजदूरी, सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरी का प्रावधान। इस तरह, एमएमटी हिमायतियों का तर्क है, सरकारें अर्थव्यवस्था में मांग के ‘उपयुक्त’ स्तर को बनाए रख सकती हैं। पूर्ण रोजगार बनाए रखना प्राथमिक लक्ष्य बन जाता है। जैसे-जैसे पूंजीवाद की ‘श्रम की आरक्षित सेना’ फैलती-सिकुड़ती है, वैसे ही सरकार की अपनी श्रम सेना भी इसकी भरपाई करती है।

यह निश्चित रूप से मूल न्यू डील का अनुकरण ही है अर्थात राष्ट्रपति रूजवेल्ट के सार्वजनिक कार्यों का कार्यक्रम जिसका उद्देश्य महामंदी के दौरान अमेरिकी आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना था। न्यू डील को आकार देने में कींस के विचार स्पष्ट रूप से अहम थे। अपनी जनरल थ्योरी में इस अंग्रेजी अर्थशास्त्री ने यहां तक ​​​​सुझाव दिया कि सरकार जमीन में पैसा गाड़कर और श्रमिकों से इसे वापस खुदवा मांग को बढ़ावा दे सकती है। “अब और बेरोजगारी नहीं। वास्तव में, मकान और इस तरह का निर्माण करना अधिक समझदारी होगी, लेकिन अगर इसके रास्ते में राजनीतिक और व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं, तो उपरोक्त कुछ भी नहीं से यही बेहतर होगा।”

समस्या केवल इतनी है कि ‘नौकरी की गारंटी’ के पैरोकार यह उल्लेख करने में विफल रहते हैं कि यह ‘नया सौदा’ काम का नहीं निकला। इसके लागू होने के बाद भी मंदी लंबे समय तक जारी रही (वास्तव में, यह बदतर हो गई)। बेरोजगारी भी बढ़ी। केवल द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत और सेना व हथियारों के क्षेत्र में श्रमिकों की भर्ती के साथ ही बेरोजगारी में गिरावट आई। खुद कींस को भी हार मानने के लिए मजबूर होना पड़ा।

“ऐसा लगता है, एक पूंजीवादी लोकतंत्र के लिए यह राजनीतिक रूप से असंभव है कि वह मेरे तर्कों को साबित कर सकने लायक भव्य प्रयोग करने हेतु आवश्यक पैमाने पर खर्च को व्यवस्थित कर पाये – युद्ध की स्थितियों के अपवाद को छोड़कर।”

अर्थात पूंजीवादी व्यवस्था के संकट का अंतिम उपाय युद्ध और महामारी का विनाश ही है। कोविड महामारी से इजारेदार पूंजीपतियों की लाभ दर में सुधार की चर्चा हम पहले अलग से कर ही चुके हैं।  यही आज चीन में देखा जा सकता है, जहां वैश्विक पूंजीवादी संकट के प्रभाव से बचने के प्रयास में, पिछले दशक में निर्माण का अब तक का सबसे बड़ा कींसवादी कार्यक्रम शुरू किया गया था। लेकिन परिणाम एक तरफ सार्वजनिक ऋणों में भारी वृद्धि और विशाल आवास संकट के साथ भुतहा शहरों का अजीब विरोधाभास, दूसरी तरफ, एवरग्रैंड मामला पहले से ही परिणामी संकट को इंगित कर रहा है। नतीजा चीनी सत्ता निरंतर सैन्यीकरण और युद्धोन्माद की परीक्षित साम्राज्यवादी नीति पर आगे बढ़ रही है।

मार्क्सवाद बनाम एमएमटी/कींसवाद

एमएमटी वाले समान आर्थिक रणनीतियों की ऐतिहासिक विफलताओं से विचलित नहीं होते हैं। रिचर्ड मर्फी फाइनेंशियल टाइम्स में बताते हैं, हमें अर्थव्यवस्था को उसकी उत्पादक सीमाओं से आगे बढ़ाने की चिंता क्यों करनी चाहिए, जब “कोई भी अर्थव्यवस्था एक दशक से अधिक समय से ‘सामान्य रूप से’ संचालित नहीं हुई है”। वास्तव में, ‘उछाल’ के समय में भी वैश्विक अर्थव्यवस्था अपनी उत्पादक क्षमता से काफी नीचे चलती रही है, केवल अति-ढीली मौद्रिक नीति और सस्ते ऋण की भरमार के कारण यह लंगड़ा कर चल पाने में सक्षम हुई है। ‘फालतू क्षमता’ एक ऐसी प्रणाली की पहचान बन गई है मानवता के लिए जिसकी उपयोगिता बहुत पहले समाप्त हो चुकी है। यहां तक ​​कि अपने चरम पर भी पूंजीवाद केवल 80-90% उत्पादक क्षमताओं का ही सफलतापूर्वक उपयोग कर सकता है। मंदी के समय में यह 70% या उससे कम हो जाता है। पिछली कुछ मंदियों में यह आंकड़ा 40-50% तक गिर गया था। अभी, उदाहरण के लिए, कोविड वेव 2 पश्चात ‘शानदार वृद्धि’ का दावा करते हुए भारतीय स्टेट बैंक प्रबंधन ने 2021 दूसरी तिमाही कारोबारी नतीजों पर विश्लेषकों के साथ चर्चा में कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में क्षमता उपयोग 60% पर बना हुआ है!

आज दुनिया भर में, उद्योग के विशाल समूह बेकार पड़े हैं। बाजार स्टीलसे लेकर स्मार्टफोन तक से संतृप्त हैं। और लाखों श्रमिक बेरोजगार या अल्प-रोजगाररत हैं। लेकिन एमएमटी समर्थकों या अधिक पारंपरिक कींसवादियों द्वारा यह सवाल कभी नहीं पूछा गया है कि है कि हम इस स्थिति में कैसे पहुंचे हैं? द गार्जियन के आर्थिक संपादक लैरी इलियट कहते हैं, “एमएमटी का उपयोग एक फ्लैट टायर को पंप करने के समान है।” “एक बार जब यह पूरी तरह से फुला जाता है तो पम्पिंग जारी रखने की कोई आवश्यकता नहीं होती है।” लेकिन मूल पंचर का कारण क्या है? व्यवसायी निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? पूरी उत्पादक क्षमता का उपयोग क्यों नहीं किया जा रहा है? हम एक स्थायी ‘श्रम की आरक्षित सेना’ क्यों देखते हैं? सरकार को ‘मांग को प्रोत्साहित’ करने के लिए कदम क्यों उठाना चाहिए? संक्षेप में, विश्व अर्थव्यवस्था ‘स्थायी मंदी’ में क्यों है?

एमएमटी वाले हों या कींसवादी दोनों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। बाद वाले केवल यह बताते हैं कि ‘फालतू क्षमता’ प्रभावी मांग की कमी का परिणाम है। व्यवसाय निवेश नहीं कर रहे हैं क्योंकि उनके द्वारा उत्पादित माल की पर्याप्त मांग नहीं है। लेकिन क्यों? कम निवेश, बेरोजगारी और स्थिर मांग के इस अधोमुखी सर्पिल में अर्थव्यवस्था कैसे फंस गई है? और उछाल और धड़ाम का यह चक्र (इन दिनों, मुख्य रूप से धड़ाम) पूंजीवाद की ऐसी कभी न खत्म होने वाली विशेषता क्यों है?

स्पष्टीकरण के तौर पर कींस खुद जो सबसे बडी पेशकश कर सकते थे, वह था पूंजीवाद की ‘पशु आत्माओं’ (animal spirits) का आह्वान। उनके मुताबिक पूंजीपति केवल ‘व्यावसायिक भरोसे’ से प्रेरित होते हैं। लेकिन यह तो श्री श्री, सद्गुरु और निर्मल बाबा जैसों के धूर्तता भरे ‘ज्ञान’ के अलावा और कुछ नहीं है। किंतु असली बात है कि पूंजीवाद के तहत भरोसे का एक भौतिक आधार है: लाभप्रदता। अगर मुनाफा कमाना मुमकिन है तो पूंजीपति आत्मविश्वास से भरे होंगे और निवेश करेंगे। यदि नहीं, तो निराशा, हताशा – और मंदी।

इसके विपरीत मार्क्सवाद पूंजीवादी व्यवस्था, उसके उत्पादन संबंधों और नियमों और ये अनिवार्य रूप से संकट क्यों पैदा करते हैं, का एक स्पष्ट वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। अंतिम विश्लेषण में ये इसके बुनियादी ‘उत्पादन की सामाजिक प्रकृति और उत्पादों के स्वामित्व की पूंजीवादी प्रकृति के विरोधाभास’ द्वारा निर्मित अतिउत्पादन के संकट हैं। अर्थव्यवस्था केवल मांग (या आत्मविश्वास) में गिरावट के कारण नहीं गिरती है, बल्कि इसलिए क्योंकि उत्पादक शक्तियाँ स्वामित्व और हस्तगतकरण की प्रकृति के साथ संघर्ष में आ जाती हैं।

पूंजीवाद के तहत उत्पादन लाभ के लिए है। लेकिन लाभ प्राप्त करने के लिए पूंजीपतियों को अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को बेचने में सक्षम होना चाहिए। किंतु यह लाभ, पूंजीपतियों द्वारा मजदूर वर्ग के बिना भुगतान श्रम से हस्तगत किया जाता है। श्रमिक मजदूरी के रूप में वापस प्राप्त होने वाले मूल्य से अधिक मूल्य का उत्पादन करते हैं। अंतर अधिशेष मूल्य का है, जिसे पूंजीपति वर्ग लाभ, लगान और ब्याज के रूप में आपस में बांटता है। इसका परिणाम यह होता है कि पूंजीवाद के तहत व्यवस्था में एक अंतर्निहित अतिउत्पादन होता है। यह केवल ‘मांग की कमी’ नहीं है। श्रमिक की कभी ऐसी क्षमता होना नामुमकिन है कि वे पूंजीवाद द्वारा उत्पादित सभी मालों को वापस खरीद लें। उत्पादन करने की क्षमता बाजार द्वारा खपाये जाने की क्षमता से आगे निकल जाती है।

बेशक, पूंजीवाद कुछ समय के लिए इन सीमाओं को पार कर सकता है – उत्पादन के नए साधनों में अधिशेष का पुनर्निवेश कर, या ऋण के जरिए बाजार का कृत्रिम रूप से विस्तार कर। लेकिन ये केवल अस्थायी उपाय हैं, जो मार्क्स के शब्दों में भविष्य में “अधिक व्यापक और अधिक विनाशकारी संकटों के लिए”, “मार्ग प्रशस्त करने” वाले हैं। 2008 के ध्वंस ने इस प्रक्रिया की परिणति को चिह्नित किया – एक चरमोत्कर्ष जो कींसवादी नीतियों और ऋण में भारी विस्तार के आधार पर दशकों तक विलंबित रहा। लेकिन अब जब संकट आ गया है, और न तो कींसवादी, न एमएमटीवादी, और न ही मार्क्सवादियों के अलावा कोई और, यह बता सकता है कि निजी संपत्ति को खत्म करके समाजवादी समाज बनाने के लिए पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने और मजदूर वर्ग के राज्य की स्थापना करके ही कैसे इन संकटों का अंत किया जा सकता है।