अंतिम जीत तक का सफर बाकी है, लेकिन फिर से यह साबित हुआ कि संसद नहीं जनता सर्वोपरि है
December 14, 2021किसान आंदोलन की जीत और उसकी वापसी पर
संपादकीय, दिसंबर 2021
इसमें कोई शक नहीं कि किसानों ने मोदी के अहंकार को धूल चटा दी और धुर कॉर्पोरेटपक्षीय कृषि कानूनों को रद्द करने पर इसे मजबूर कर दिया। हां, ऐंठन अभी भी बचा है जो कृषि कानूनों को रद्द करने हेतु पेश किये गये विधेयक में भी मौजूद था। लेकिन मुख्य बात जिसे दुनिया याद रखेगी वह यही है कि भाजपा के बहुमत वाली संसद ने हाथ ऊपर कर समवेत स्वर से जनता की ताकत को सलाम करते हुये शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही इन कानूनों को रद्द कर दिया। मोदी का ऐंठन इस बात में भी दिखा कि संसद में विपक्ष को बहस की अनुमित नहीं दी गयी, लेकिन इससे किसानों को क्या फर्क पड़ता है? किसानों ने तो गली-सड़क के मोर्चों पर, गांवों में और आम लोगों के बीच पहले ही यह बहस जीत ली थी। संसद में तो बस मुहर लगनी बाकी थी जो लग चुकी है। किसानों की यह जीत कुल मिलाकर फासिस्टों के ऊपर एक महान विजय का परिचायक है और इसे मानने से वे ही इनकार कर सकते हैं जिन्हें जनता और जनता की ताकत का सम्मान करना नहीं आता। निश्चय ही, इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो कल तक इन्हीं पराजित कृषि कानूनों के मार्फत इजारेदार पूंजीपतियों में ग्रामीण व शहरी गरीब जनता के मुक्तिदाता की छवि देखते और खोजते रहे हैं।
लेकिन यह भी सच है कि जब संयुक्त किसान मोर्चा का मोदी सरकार से पिछले 9-10 दिसंबर को आखिरी समझौता हुआ, तब यह महान ऐतिहासिक जीत किसान आंदोलन की आखिरी बात या चीज नहीं रह गयी। पहले तो किसान आंदोलन को इस बात के साथ खत्म करने की घोषणा की गयी कि “सरकार ने सारी मांगें मान ली है”, लेकिन बाद में जब स्थित की नजाकत प्रकट हुई, तो इसे स्थगन माना व घोषित गया। जो भी हो, आंदोलन की वापसी या इसका स्थगन आंदोलन की आखिरी बात बनी जिसमें एमएसपी गारंटी कानून, जो वास्वत में फसलों की खरीद गारंटी की एक महत्वपूर्ण मांग है, के प्रश्न को सरकारी कमिटी के रहमोकरम के हवाले कर दिया गया और इस पर सरकार से पहले की तरह सड़कों पर अंतिम मोर्चा लेने के बदले सरकारी कमिटी के अंदर लड़ाई का एक नया मोर्चा खोलने की बात की गयी और इसकी बाजाप्ता घोषणा की गई। यानी, संयुक्त किसान मोर्चा ने सड़क के मार्चे, जहां से किसानों ने फासिस्टों पर पुरजोर विजयी धावा बोला, से पीछे हटते हुए सरकार की कमिटी में सरकार से लोहा लेने का एक नया मोर्चा खोला। हो सकता है कि वर्तमान हालात में यही करना सबसे सही कदम हो, लेकिन जिस तरह से 9-10 दिसंबर को, यानी आखिरी समझौते के दिन, इसे भी जीत (कृषि कानूनों पर हुई जीत की तरह) बता दिया गया वह कतई सही नहीं था। जरूरत के हिसाब जे पीछे हटना गलत नहीं होता है, लेकिन पीछे हटने को पीछे हटना ही कहा जाता है, जीत नहीं, यह भुला दिया गया। बाद में प्रेस प्रतिनिधियों और दूरदर्शन के ऐंकरों से होने वाली बातचीत में किसान नेताओं ने वास्तविक स्थिति के अनुसार संभलते हुए अपनी भाषा बदल ली और दूसरी तरह बातें करने लगे जिसका अर्थ यह है कि “फिर से मोर्चे खोलने होंगे”, आदि। यानी, यह तो साफ दिखा कि ऐतिहासिक किसान आंदोलन के “दिग्गज” नेताओं ने अंत में किसानों के समक्ष पारदर्शी व्यवहार नहीं किया और आंदोलन के स्थगन या वापसी को लेकर हुए अंतिम फैसले को लेते वक्त उन्हें सीधे तौर पर शामिल नहीं किया गया। यह अपने-आप से ही मानकर चला गया कि किसान अब अन्य मसलों व मांगों को निपटाये बिना ही तंबू उखाड़कर घर जाना चाहते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है या कितनी कोरी कहानी यह बाद में पता चलेगा, लेकिन इतनी बात तो छिपते-छुपाते सबके सामने आ ही गई कि कुछ किसान संगठन पंजाब में चुनावों में ‘करिश्मा’ करने को बेताब थे और इसीलिये मोर्चे को जल्द से जल्द खाली करना चाहते थे, और अगर उनकी बात नहीं मानी जाती तो संयुक्त किसान मोर्चे की एकता भंग हो सकती थी। इसीलिए हमें बाद में किसान नेताओं का यह समवेत कोरस सुनने को मिलता है कि ”संयुक्त किसान मोर्चा की एकता को बचाना जरूरी था और हम उसमें सफल रहे।” इस कोरस में यह स्वर भी सुनाई दिया कि कुछ बाहरी लोग एकता तोड़ने में लगे थे जो विफल हो गये, खासकर ”गोदी” मीडिया द्वारा नेताओं के बीच फूट पड़ जाने के अप्रत्याशित प्रचार को निशाना बनाया गया। लेकिन जो बात सामने आयी, खासकर कॉमरेड दर्शन पाल के नेतृत्व वाले क्रांतिकारी किसान यूनियन के द्वारा, उससे यह स्पष्ट हो गया कि ”गोदी” मीडिया द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर कही बातों को तो दरकिनार किया जा सकता है, और किया भी जाना चाहिए, लेकिन इस बात से इनकार करना मुश्किल ही नहीं असंभव है कि कृषि कानूनों पर मिली जीत में, इससे प्रतिफलित हुये सुअवसर में, कुछ किसान संगठनों को आंदोलन को खत्म करने नहीं तो इसे स्थगित करने और अन्य मांगों व मसलों को पूरी तरह निपटाये बिना ही पीछे हटने का मौका जरूर दिखा और वे इस मौके को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, फिर कारण चाहे चुनाव हो या कुछ और। पूरे तथ्यों का बाहर आना और उस पर आधारित सटीक वैज्ञानिक विश्लेषण तो अभी भविष्य की बात है, लेकिन जिस हद तक तथ्य हमारे सामने हैं वे सीमित तौर पर ही सही लेकिन एक दोटूक वैज्ञानिक विश्लेषण की मांग तो करते ही हैं। यह अलग बात है कि इससे हम नहीं डरते कि कुछ लोग हमारे इस दोटूक विश्लेषण को “एकता तोड़ने वाला” या “छिद्रान्वेषण” करार देंगे या दे सकते हैं, लेकिन क्या यह संयुक्त किसान मोर्चा या उसके अतिउत्साही समर्थकों का फर्ज नहीं बनता है कि जिन लोगों ने इस आंदोलन को एक गैरमामूली जनांदोलन मानते हुए किसानों की तरफ से ही नहीं इजारेदार पूंजीपतियों और उसके तावेदारों के विरूद्ध भी इस आंदोलन में हस्तक्षेप करने हेतु एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया, उनके कटु से कटु लेकिन सार्थक विश्लेषणों को उचित तवज्जो दिया जाये, यानी उन पर ध्यान दिया जाए? किसानों के जश्न और विजयोल्लास के बीच आज किसी को तो आगे बढ़कर यह कहने की जुर्रत करनी ही होगी कि विजयी किसान आंदोलन को “एकताबद्ध” संयुक्त किसान मोर्चे ने अपने पैर पीछे खींचने के लिए नहीं भी तो आगे बढ़ने से रोक लेने के लिये अवश्य ही विवश कर दिया। अभी तक इसके लिए जो कारण दिये गये हैं (अव्वल तो कोई ठोस कारण दिये ही नहीं गये हैं), या फिर जो कारण अंदरखाने से छन कर बाहर आये हैं (जो ज्यादा विश्वसनीय प्रतीत होते हैं) उनमें से कोई भी तार्किक और सटीक प्रतीत नहीं होते हैं। जाहिर है, और यह दुखदायी है, कि इसे, यानी अतार्किकता से भरे कारणों को, या फिर किसी भी तरह के कारण की गैर-मौजूदगी को, ढंकने के लिए कृषि कानूनों तथा फासिस्ट मोदी की सरकार और उसकी अकड़ के ऊपर पर मिली एक महान जीत को एक पर्दे की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की गई, और सबसे बुरी बात यह है कि एक जीत से दूसरी जीत की ओर बढ़ते किसानों के कदम को पीछे खींचने की कार्रवाई को भी (चाहे इसके कारण जो भी हों) जीत कहकर प्रचारित करने का प्रयास किया गया। हालांकि जल्द ही सच्चाई सामने आ गयी और होश ठिकाने आ गये। टीभी स्टुडियो में बैठकर एैंकरों एवं बहस के पैनलिस्टों के सामने ही सही लेकिन यह माना गया कि कई बड़े मसले बने हुये हैं, उन पर पूरे देश के किसानों के बीच एक बार फिर से अलख जगाना होगा, और हम हमेशा के लिये पीछे नहीं लौटे हैं, आदि आदि।
यहां यह बात याद रखना चाहिए कि हम यह मूल्यांकन सर्वप्रथम और सीधे-सीधे आम किसानों के अपने खुद के जीवन के दुखों से पटे पड़े मुद्दों के बरक्स कर रहे हैं, न कि मजदूर वर्ग या अन्य मेहनतकशो के जीवन के मुद्दों के संदर्भ में, जिन्हें यह आंदोलन बीच-बीच में अपने शौर्य और संदर्भ को विस्तारित फलक देने के लिए उठाता रहा तथा जिस हद तक यह खुद किसानों द्वारा स्वाभाविक तौर से उठाया गया मसला था इसमें आपत्ति वाली कोई बात भी नहीं थी। एक तरह से ये सही था। लेकिन हम यहां यह बताना जरूरी मानते हैं कि किसान आंदोलन का लेखा-जोखा लेते वक्त आम किसानों के अपने दुखों की गाथा, जिसकी जड़ में भी पूंजी और खासकर बड़ी पूंजी की ग्रासलीला है, पर ही मुख्य रूप से बात करने चाहिये, क्योंकि किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति इसे अन्य वर्गों, खासकर मजदूर वर्ग की तात्कालिक या दूरगामी, दोनों में से किसी भी तरह की लड़ाई का अगुआ बनने की इजाजत नहीं देती है। न तो आज, और न ही भविष्य में। जिस हद तक वे मालिक किसान हैं उनकी यह सीमा बनी रहेगी। बल्कि, यहां यह कहना ज्यादा सही होगा कि स्वयं अपनी मुक्ति की लड़ाई भी किसान अकेले नहीं लड़ सकते हैं, भले ही किसान आंदोलन की मौजूदा जीत के विजयोल्लास की लहर में इस अकाट्य सत्य को कुछ क्रांतिकारी भी आश्चर्यजनक रूप से भूलते नजर आने लगे हैं, मानो वे मज़दूर वर्ग को नहीं किसानों को सबसे क्रांतिकारी वर्ग मानने लगे हों, वो भी सिर्फ इस तात्कालिक वजह के कारण कि आर्थिक संकट से ग्रस्त पूंजी की सत्ता के संकट के इस मोड़ पर किसानों और बड़ी पूंजी के बीच टकराव अत्यधिक तीखा हो पूरी तरह फूट पड़ा है! लेकिन यह टकराव जितना भी बड़ा क्यों न हो, किसान अपनी मुक्ति की दहलीज पर पहुंच कर भी मुक्त नहीं हो सकते हैं। उनकी मुक्ति का कार्यभार जिस पूंजीवाद के विरूद्ध होने वाली और इसे उखाड़-फेंकने वाली अंतिम लड़ाई से नाभिनालबद्ध है, उसमें सर्वहारा वर्ग ही इसकी एकमात्र असली सहायक वर्ग है, वही भी नेतृत्वकारी सहायक के रूप। जो लोग किसानों की इस जीत में मजदूर वर्ग की विश्व-ऐतिहासिक भूमिका की काट या उसका निषेघ देख या खोज रहे हैं, वे भारी ऐतिहासिक भूल तो कर ही रहे हैं, साथ में किसानों की मुंक्ति के वास्तविक क्रांतिकारी व मज़दूरवर्गीय परियोजना के विरूद्ध भी काम कर रहे हैं। इसे देखते हुए आज इस बात को और भी ज्यादा जोर से कहने की जरूरत है कि एकमात्र मजदूर वर्ग का भावी राज्य ही, जिसमें मेहनतकश किसान भी बराबर के भागीदार होंगे, तमाम तरह के शोषण, उत्पीड़न व लूट को हमेशा के लिये खत्म करके किसानों को भी अंतिम तौर पर शोषण व उत्पीड़न से मुक्त करेगा। इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है, किसानों को यह खुलकर बताया जाना चाहिए। उसके पहले की, बीच की ऐसी हजारों ‘मुकम्मल’ जीतों के बाद भी किसानों का दुख खत्म होने वाला नहीं है। इन विजयों का ज्यादा से ज्यादा सुखद परिणाम चंद (छोटी या बड़ी) राहतें ही हो सकते हैं, और पूंजीवादी व्यवस्था में ये राहतें जिस हद तक लागू हो सकती हैं, वे ज्यादातर आगे बढ़े हुए किसानों की जेबों में ही सिमट जायेंगी, उन्ही तक ही सीमित रहेंगी। इसके अतिरिक्त अन्य सारी बड़ी-बड़ी बातों का कोई वास्तविक महत्व नहीं है। खासकर इसलिए भी, कोई मजदूर वर्ग की सच्ची व क्रांतिकारी पार्टी किसान आंदोलन के क्रांतिकारीकरण और इसे अंतिम सीमा तक लड़े जाने की न सिर्फ वकालत करेगी, अपितु (किसानों की) ऐसी मांगें भी प्रस्तुत करेगी, जिससे इसकी अंतिम जीत के लिए जरूरी स्ट्रेटेजी और टैक्टिस का भौतिक रूप से रास्ता प्रशस्त होता हो।
जाहिर है, ऐसे में यह सोचना दुष्कर प्रतीत होता है, और होना चाहिए, कि किसान आंदोलन पर स्थगन की मुहर लग चुकी है और किसान वापस घरों की तरफ कूच कर चुके हैं। यह माना और स्वीकार किया जा सकता है कि किसान रूपी फौज के शीर्षस्थ संचालकों ने कुछ आराम का वक्त मांगा है ताकि वे थोड़ी लंबी सांस ले सकें! हां, यह माना जा सकता है। जरूर स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन तब भी यह देखना और साबित होना बाकी रह जायेगा कि आराम फरमाने का यह वक्त कितना सही है और इससे किसकी, संयुक्त किसान मोर्चा की या किसान आंदोलन से हलकान मोदी सरकार की, उखड़ती सांसों को सहारा मिला है!
लेकिन इस संशय से, जो हासिल हो चुका है उस पर, रत्ती पर भी प्रभाव नहीं पड़ता है; इस निष्कर्ष पर कुछ असर नहीं पड़ता है कि संसद को जनता की शक्ति के आगे झुकना पड़ा और धैर्यवान तथा जाबांज किसानों ने फासिस्टों से शानदार तरीके से लोहा लिया। सच में, यह बात अपने आप में इतनी महत्वपूर्ण है कि एमएसपी गारंटी कानून के सवाल पर पैर रोक लेने या खींच लेने की बात, अभी इस मौके पर, लेकिन महज ऊपरी तौर पर ही, एक छोटी चीज प्रतीत होती है। इस ऐतिहासिक बात का, 700 से अधिक किसानों की शहादत की कीमत देकर, फिर से यह स्थापित होना अत्यधिक महत्व की बात है कि आधुनिक समाज में जनवाद और जनतंत्र का वास्तविक तकाजा है कि संसद नहीं जनता सर्वोपरि होती है और यह बात स्वयं कृषि कानूनों के ऊपर मिली जीत से भी ऊपर की बात है। ठीक इसी चीज ने इस ऐतिहासिक जनांदोलन को हमेशा के लिए अजर तथा अमर बना दिया है। ऐसी ही जीत को इतिहास में हमेशा याद किया जाता है – एक ऐसी जीत जिसमें स्वयं जीत एक गौण पक्ष बन जाये, और इस जीत से निकले ऐतिहासिक चमकदार सबक मुख्य पक्ष। जीत के बाद भी हार हो सकती है और हार के बाद जीत, लेकिन अगर इसका सबक क्रांतिकारी है, इनमें दम है और इतिहास को गतिमान कर आगे बढ़ाने वाले हैं, तो जीत और हार से परे, पीछे हटने की तमाम तरह की भ्रममूलक व नकारात्मक गतियों के बावजूद, यह सामाजिक परिवर्तन की शक्तियों को असीम बल प्रदान करने वाला साबित होता है। और होगा। तब जीत की तो बात ही क्या, बहुत बड़ी हार को भी अंतिम जीत में परिणत किया जा सकता है।
विजयी किसान भी अभी अंतिम विजेता साबित नहीं हुए हैं! किसानों को यह समझ लेना चाहिए कि कृषि कानूनों पर मिली यह जीत कॉर्पोरेट पूंजी की रक्षा में ख़ड़ी पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंके जाने तक अस्थाई एवं आंशिक ही बनी रहने वाली है और कभी भी पूरी तरह पलटी जा सकती है, बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि पलटने की कवायद जारी है, और किसानों को इस बात का अहसास भी है, क्योंकि ठीक यही वह चीज (अहसास) है जो बारंबार किसानों को, मोर्चों को छोड़ने एवं घर पहुंचने के बाद भी, यह कहने के लिए मजबूर कर रही है कि आंदोलन स्थगित हुआ है खत्म नहीं, और हम आगे जल्द ही फिर से मोर्चों पर आयेंगे।
इसमें कोई शक नहीं है कि ये रूढ़ीवादी तथा अक्सर पुरानी गैरजनवादी परंपराओं से बंधे किसान अगर इस क्रांतिकारी सबक को आत्मसात करने में सफल होते हैं, तो वे एक दिन अंतिम विजेता भी बन सकते हैं। यही मुख्य चीज है। आंदोलन के बाद बहुतेरे नेता प्रेस द्वारा यह पूछने पर कि आंदोलन से किसानों को क्या मिला जब यह कहते पाये जा रहे हैं कि इस आंदोलन से किसानों को एकता और लड़ाई की महान तथा महत्वपूर्ण ट्रेनिंग मिली है; कि आगे कैसे लड़ना है इसकी सीख मिली है; कि किसानों को शासकों के दावपेंच समझने का इल्म व ज्ञान प्राप्त हुआ है, तो वास्तव में वे हमारी इसी बात को अन्य तरीके से व्यक्त कर रहे होते हैं कि वास्तविक जीत अभी दूर है और लड़ाई को अभी एक छोटा ठौर ही प्राप्त हुआ है, और मुकाबला काफी नजदीकी बना हआ है। जहां तक ट्रेनिंग की मुख्य बात का सवाल है तो इसका सबसे मजबूत पक्ष इस बात को आत्मसात करने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता है कि जनवाद और जनतंत्र की आत्मा संसद में नहीं जनता की सड़क की लड़ाइयों में बसती है। किसी भी संसदीय निकाय, संस्था या कानून का वजूद तभी तक अक्षुण्ण बना रहता है जबतक कि जनता उसका सम्मान करती है। जनता विद्रोह पर उतारू हो जाए तो अंतत: सम्मान सिर्फ उसी का बचा रहता है जिसका सम्मान स्वयं जनता करती है। यह ट्रेनिंग किसानों को ही नहीं सभी मेहनतकशों को अपने हृदय में संजो कर रखनी चाहिये। ये ही वह सबक है जो आने वाली सभी क्रांतियों का पथ ओलोकित करेगा। जहां तक किसान संयुक्त मोर्चे की बात है, तो हम बस यह उम्मीद ही कर सकते हैं कि इसके नेतागण इस सीख का सही-सही इस्तेमाल आगे की लड़ाइयों, जिसके बारे में वे रोज-ब-रोज घोषणा करने पर विवश हो रहे हैं, में जरूर करेंगे। अगर इनकी घोषणाओं में दम है, तो फिर यह उम्मीद बेमानी नहीं है।
भविष्य में चाहे जो भी हो, और इसके अनुमानित आकलन पर आज के लिये कोई सटीक मूल्यांकन तो नहीं ही किया जा सकता है, लेकिन यह सच है, और हमने यह देखा, कि किसान आंदोलन फासिस्टों के खिलाफ एक सबसे बड़ा, सर्वाधिक शक्तिशाली और सबसे स्वीकार्य व सफल मोर्चा बन कर उभरा। व्यवहार में अगर फासिस्टों के खिलाफ कोई देशव्यापी मोर्चा था तो यही था जिसके आदेशों को बिना किसी अपवाद के सारी शक्तियों ने (कॉर्पोरेट के चंद गैर-भाजपाई सिरफिरे समर्थकों व सिपहसालारों को छोड़कर), यहां तक कि शासक वर्ग के विपक्षी दलों ने भी शिरोधार्य किया। यही नहीं, उसके द्वारा दिये गये आह्वानों व पुकारों को भी सबने भरसक तवज्जो दी और लागू किया।
अपनी प्रतिष्ठा और प्रतिज्ञा के अनुरूप ही, पहले चरण में इसने न सिर्फ मगरूर फासिस्ट मोदी सरकार को धूल चटाई, अपितु मोदी के अहंकार और हठ को भी पूरी तरह मिट्टी में मिला दिया! हमने देखा कि जनता अगर विद्रोह कर दे तो उसके सामने कोई नहीं टिक सकता है – खुंखार से खुंखार तानाशाह भी नहीं। नहीं चली जब हिटलरशाही, तो नहीं चलेगी मोदीशाही के नारे को किसान आंदोलन ने जिस तरह से सरजमीं पर साकार करते हुए पूरे देश के न्यायपसंद और जनवाद पसंद लोगों में आत्मविश्वास और जोश का संचार किया, वह आज के फासिस्टों की चढ़ती के अंधकारमय दौर में वास्तव में अभूतपूर्व था और है। और यही कारण है कि इस आंदोलन के साथ अंत में किया जाने वाला कोई भी अन्याय सहनीय नहीं होना चाहिए, चाहे अन्याय करने वाला आंदोलन के भीतर का हो या बाहर का। जो भी इस आंदोलन के ऐतिहासिक महत्व को समझते हैं और इसे सिर्फ एक चलताऊ आंदोलन नहीं मानते हैं, तथा इसकी उपलब्धियों की महज पूर्जा-अर्चना नहीं करते हैं, उनके लिए आगे बढ़कर एक तरफ इसके ऐतिहासिक महत्व की रक्षा करना और दूसरी तरफ इसके महत्व को अंदर से खोखला करने या इसे अंत में धुमिल करने की किसी भी कोशिश के खिलाफ तनकर खड़ा होना जरूरी है। किसी उपलब्घि के महज गीत गाना, उसकी पूजा-अर्चना करना और एक ही जगह पर गैर-द्वंद्ववादी तरीके से कदम ताल करते रहना, यानी उसे ही क्रांतिकारी किसान आंदोलन का इतिश्री मान लेना, आदि, किसी ऐतिहासिक घटना या जीत को कुंठित कर देना और आगे के लिए उसकी उपयोगिता को धीरे-धीरे खत्म कर देना है। अक्सर स्वयं आंदोलन के भीतर से ही ऐसे “अन्याय” की शुरुआत होती है, क्योंकि बाहर से और बाहरी लोगों के लिए ऐसा करना अक्सर संभव नहीं होता है। इसलिए भी हमें अत्यधिक सचेत रहने की जरूरत है।
इसलिये, बात यहीं पर खत्म नहीं हो जाती है। खत्म हो भी नहीं सकती है। इतिहास यहां रूक नहीं जाएगा। इसकी यह आखिरी अदालत नहीं है। कृषि कानूनों की वापसी के बाद कई अन्य मुख्य मांगों व सवालों (जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग है) पर अगर संयुक्त किसान मोर्चा ने अपने कदम पीछे नहीं भी किये हैं मगर रोक अवश्य लिये हैं, तो इसके ठोस कारणों व वजहों पर आज न कल चर्चा करनी ही होगी। इस पर गंभीरता से विचार करना ही होगा कि एमएसपी की कानूनी गारंटी का महत्व क्या है, या क्या नहीं है और इस पर संभावित लड़ाई को, और जीती जा सकने वाली बाजी को, भविष्य के लिए क्यों टाल दिया गया? जगे हुए “अलख” को बुझाकर नये सिरे से अलख जगाना क्यों जरूरी हो गया? इसी तरह हमें कृषि-कानूनों पर हुई जीत के ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ इसकी सीमा पर भी गंभीरता से विचार करना होगा, खासकर कॉर्पोरेट यानी बड़ी पूंजी की सतत बढ़ती इजारेदारी के संदर्भ में। अगर घरों की ओर कूच करते व जश्न मनाते किसानों और आंदोलन को स्थगित करने वाले नेताओं को भी यह बारंबार यह कहना पड़ रहा है कि उन्हें सरकार व राज्य पर भरोसा नहीं है, और अगर वे कह रहे हैं या कहने पर विवश हो रहे हैं कि हम फिर से मोर्चा खोलने आयेंगे, तो यह अकारण नहीं है। अगर जीत का जश्न मनाते किसानों की नजर में भी आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ है, तो इसके कुछ तो गहरे मायने हैं। यह निश्चित ही एक गौरतलब बात है कि हमारे सामने एक ऐसी “जीत” है जिसका अहसास करते ही भावी लड़ाई की संभावना का विस्फोट होने लगता है! अगर इस जीत के जश्न में भी भावी लड़ाई की संभाव्यता और इसके गहरे अहसास की मौजूदगी है, और अगर इसके बीच यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि वर्तमान जीत और भावी लड़ाई दोनों में से कौन मुख्य पक्ष है और कौन गौण, तो हम आसानी से यह समझ सकते हैं कि इस ऐतिहासिक जीत की सीमा क्या है और इसका महत्व क्या है। यह भी साफ हो जाता है कि भावी किसान आंदोलन के एक बार फिर से फूट पड़ने की प्रबल संभावना क्यों और कैसे बनी हुई है। साफ दिखता है कि किसान आंदोलन देश की राजनीतिक सरगर्मियों के केंद्र में बना रहेगा और इसकी उर्जा अभी खत्म नहीं हुई है।
आगामी 15 जनवरी, 2022 को संयुक्त किसान मोर्चा ने भी इस बीच किसानों की लंबित मांगों के मद्देनजर सरकार और अपने बीच उभरी नयी परिस्थितियों का जायजा लेने और साथ उसके मद्देनजर आगे की स्ट्रेटजी बनाने के लिए बैठक करने का एलान किया है। देखा जाये, तो यह भी उपरोक्त भावी स्थिति की ही एक और तस्वीर पेश करने वाली बात है, जिसका निस्संदेह ठीक वही अर्थ है जिसकी हम लगातार चर्चा कर रहे है, यानी किसान आंदोलन की यह एक ऐसी ‘जीत’ है जिस पर स्वयं इसकी घोषणा पर मुहर लगाने वाले को भी पूर्ण रूप से विश्वास नहीं है। यह उनलोगों को करारा जबाव है जिन्होंने अभी चंद दिनों पहले ही हमारे संपादकमंडल द्वारा जारी एक त्वरित टिप्पणी की इसलिए ‘भारी’ मजम्मत की थी कि ”हम इस किसान आंदोलन को महज एक आंदोलन नहीं एक क्रांति मानकर चल रहे हैं और इसीलिए आंदोलन की वापसी पर बेकार की तीखी उग्र टीका-टिप्पणी कर रहे हैं।” लेकिन आज की सच्चाई क्या है? आज की सच्चाई यही है कि किसान स्वयं और इनके नेता भी, इस जीत का जश्न मनाते हुए भी, जो बातें कह रहे हैं वह अंतर्य में किसी भी अन्य दूसरी तीखी या उग्र टीका-टिप्पणी से ज्यादा सख्त, कठोर और गहरी हैं। जब जीतने वाले खुद इस ‘जीत’ पर, यानी 9-10 दिसंबर को हुए समझौते पर, सवाल उठा रहे हों, यहां तक कि गुस्से से बिफर कर फिर से नये मोर्चे खोलने और पूरे देश में अलख जगाने की बात कह रहे हों, तो इस ‘जीत’ (9-10 दिसम्बर के समझौते) की इससे ज्यादा जीवंत, कठोर और सारगर्भित आलोचना भला और क्या हो सकती है? जहां तक इस “सारगर्भित आलोचना” पर हमारी आज की टिप्पणी व समालोचना की बात है, तो हम साफ-साफ यह कहना चाहते हैं कि किसानों द्वारा फिर से मोर्चा खोलने की बात का हम खुली बाहों और उल्लसित मन से स्वागत करते हैं। हमारे द्वारा की गई तीखी टीका-टिप्पणी और आलोचना का भला इससे बड़ा इनाम और क्या हो सकता है? हम इस इनाम से खुश हैं।
अंत मे, और जो बात इससे भी महत्वपूर्ण है, वह यह है कि यह बात (किसानों द्वारा एक बार फिर से मोर्चों पर आ डटने की बात) एक बार फिर से इस चीज को साबित कर रही है कि यह किसान आंदोलन कोई मामूली आंदोलन नहीं था और न ही है, और इसलिए इसके वर्तमान परिणाम ही नहीं भावी परिणाम भी निस्संदेह मामूली नहीं होंगे।
मैंने इस सम्पादकीय टिप्पणी को पढ़ा. यथार्थ के संपादक मंडल ने जो विश्लेषण किया है, वह यथार्थ का उल्लेख ही नहीं बल्कि एक सही वैज्ञानिक विश्लेषण है. किसान आंदोलन का इससे सही मार्क्सवादी विश्लेषण नहीं हो सकता है.
P L ‘Shakun’ संयोजक सर्वहारा एकता मंच राजस्थान.