‘अफ्स्पा’ नाम के काले क़ानून का ख़ूनी इतिहास

December 15, 2021 0 By Yatharth

एस वी सिंह


नागालैंड के मोन ज़िले की थीरू घाटी में स्थित नागिनिमोरा कोयला खदान के 8 मेहनतक़श मज़दूर शनिवार, 4 दिसम्बर की शाम 3.30 बजे दिन भर की मेहनत के बाद एक टेम्पो से अपने घरों को लौट रहे थे. उनका टेम्पो जैसे ही ओटिंग गाँव से आगे असम राइफल्स कैंप के पास की पहाड़ी से नीचे उतरा, वहाँ मौजूद 21 वीं पैरा कमांडो की फौजी टुकड़ी ने बिना किसी चेतावनी के दो दिशाओं से मशीन गनों से अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी जिसमें गोलियों से छलनी 6 खदान मज़दूरों की घटना स्थल पर ही मौत हो गई और शीवांग उम्र 23 साल जिनके माथे और छाती में गोली लगी हैं और 30 वर्षीय यीवांग जिनके कान में गोली लगी है, अत्यंत गंभीर अवस्था में असम मेडिकल कॉलेज डिब्रूगढ़ में भरती हैं. उसके बाद वे सैनिक जब लाशों को नीचे खींचकर दूसरे वाहन में ले जाने की कोशिश कर रहे थे और ज़मीन से खून के धब्बे मिटा रहे थे तब ही बेक़सूर मज़दूरों के इस भयानक नरसंहार से आग बबूला आस पास के गाँव वालों ने उन्हें घेर लिया और सेना के वाहनों में आग लगा दी. सेना ने फिर गोली चलाई और एक ग्रामीण को मार डाला. उसके बाद जन आक्रोश की लपटें और दूर तक फ़ैल गईं और गुस्साए-तिलमिलाए ग्रामीणों ने अपने मज़दूर साथियों को बेवज़ह मार डालने वाली फौजी टुकड़ी पर फिर हमला बोला. फौजियों ने फिर गोली चलाई और 7 मज़दूरों को मार डाला. उस हमले में एक सैनिक की भी मौत की ख़बर है. दो ग्रामीण लापता बताए हैं. अपुष्ट खबरों के अनुसार वे भी मारे जा चुके हैं. सेना का कहना है कि उन्हें ‘विश्वस्त ख़ुफ़िया जानकारी’ मिली थी कि आतंकी हमला करने जा रहे हैं और जब टेम्पो ने ‘सहयोग’ नहीं किया तो उन्होंने गोली चला दी. कुल 15 (17) बेक़सूर मज़दूरों को मार डाला गया. अब ये बिलकुल स्पष्ट हो चुका है कि सेना ने उस टेम्पो पर अंधाधुंध गोलियां चलाने से पहले उसे रुकने की कोई चेतावनी नहीं दी. गृह मंत्री का पहला बयान क़ाबिल-ए-गौर है, ‘6 मज़दूर सेना की ग़लती से मारे गए जिसका हमें अफ़सोस है लेकिन 9 लोग आत्म सेना द्वारा आत्म रक्षा में मरे’. उत्तर पूर्व में सेना दमन की एक और बर्बरता प्रकट हुई जिसके परिणाम स्वरूप सारा नागालैंड जन आक्रोश से दहक रहा है. वही दंश जिसे उत्तर पूर्व के राज्य ‘आज़ादी’ हांसिल होने के बाद ना जाने कितनी बार झेल चुके हैं और ना जाने कब तक झेलेंगे.


केन्द्रीय गृह मंत्री ने 6 दिसम्बर को राज्य सभा में इस हत्याकांड की सूचना देते हुए एक दम झूठा बयान दिया कि सेना ने उक्त वाहन को रुकने के लिए कहा लेकिन जब ड्राईवर ने भागने की कोशिश की तब सेना को गोली चलानी पड़ी. इन्डियन एक्सप्रेस ने गंभीर घायल मज़दूरों शीवांग और यीवांग से अस्पताल में बात की है जिसमें उन्होंने बताया कि उन्हें कोई चेतावनी नहीं दी गई और ना ही रुकने को कहा गया. उनका टेम्पो जब पहाड़ी की ढलान से उतर रहा था तब ही दो तरफ से अंधाधुंध गोलियों की बौछार कर दी गई. उन्हें लगा मानो बम विस्फोट होने लगे और वे दहशत में नीचे लेट गए. टेम्पो ड्राईवर ने भागने की कोई कोशिश नहीं की, हमें बेवज़ह मार डाला. उन्होंने ये भी बताया कि उस वक़्त अँधेरा नहीं हुआ था और सैनिक हमें देख पा रहे थे. शिवांग ने ये भी बताया कि कैसे सैनिक लाशों को टेम्पो से खींचकर बाहर निकाल रहे थे. उन लाशों में में उनके सगे भाई की लाश भी थी जो उनके जैसे ही खदान मज़दूर थे. साथ ही उन्होंने बताया कि वे सब एकदम निहत्थे थे. डिब्रूगढ़ मेडिकल कॉलेज के सुपरिन्टेन्डेन्ट प्रशांत धिन्गिया ने इन्डियन एक्सप्रेस (8 दिसम्बर) के संवाददाता को बहुत अहम जानकारी देते हुए बताया कि गंभीर रूप से घायल दोनों मज़दूरों को सेना के जवान आधी रात को चुपचाप छोड़ गए. उन्हें नहीं मालूम था कि वे कौन हैं. सुबह जब सेना द्वारा मज़दूरों की हत्या की खबर फैली तब उन्होंने शिवांग और यिवांग की तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालीं तब मालूम पड़ा कि ये दोनों मज़दूर उन्हीं मारे गए मज़दूरों के साथी हैं.


नागालैंड के पुलिस महानिदेशक टी जॉन तथा कमिश्नर रोविलातो मोर ने राज्य सरकार को दिए संयुक्त बयान में कन्फर्म किया है कि “नागालैंड में कोयला खदान मज़दूरों पर गोलियां चलाने से पहले सैन्य बलों ने उनकी पहचान सुनिश्चित करने की कोई कोशिश नहीं की, सीधे गोलियां चला दीं”. दोनों शीर्ष पुलिस अधिकारीयों ने ये भी बताया कि सैनिक लाशों को चुपचाप वैन में डालकर ले जाना चाहते थे लेकिन तब ही गाँव वालों ने उन्हें घेर लिया. अस्पताल में गोलियों से गंभीर घायल मज़दूरों को भी चुपचाप छोड़ जाने का भी ये ही मक़सद था. अगर गाँव वालों ने अपनी जान पर खेलकर सेना के जवानों को ना घेरा होता तो शायद अगले दिन ‘खूंख्वार आतंकियों’ के सेना द्वारा मार गिरे जाने की ख़बर पढ़ने को मिलती और उन ग़रीब मेहनतक़श मज़दूरों के हाथों में हथियार भी पाए जाते, साथ ही उन हत्यारे सैनिकों के प्रमोशन भी हो चुके होते!!


आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पावर्स) एक्ट 1958; सुरक्षा बलों को मनमानी करने की छूट देने वाला बर्बर काला क़ानून
उत्तर पूर्व के हमारे खुबसूरत 7 राज्यों के नागरिकों द्वारा सरकारी दमन झेलने की दर्दनाक दास्ताँ 63 साल पुरानी है. संविधान द्वारा सुनिश्चित अधिकारों को छीनकर, जन भावनाओं को फौजी बूटों तले कुचलने के लिए हथियार बंद सुरक्षा एजेंसियों को मनमानी करने की छूट देने वाला ये क़ानून प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली संसद ने 11 सितम्बर 1958 को पास किया था. जी हाँ, उन्हीं नेहरू जी ने जिन्हें जनवाद का मसीहा और स्टेट्समैन बताकर उदारवादी ही नहीं कितने ही ‘वामपंथी’ भी स्तुति गीत गाते हुए झूम जाते हैं. दुनियाभर में जनवादी अधिकारों को कुचल डालने और आम जन मानस को हथियार बन्द सुरक्षा एजेंसियों के रहमो-करम पर छोड़ देने वाला ऐसा कानून बहुत ही कम देशों में हैं. दरअसल, पूरे आज़ादी आन्दोलन का सबसे अहम अध्याय 1942 का ‘भारत छोडो’ आन्दोलन था जिसने ना सिर्फ़ अँगरेज़ सत्ता की चूलें हिलाकर रख दी थीं बल्कि यदि हमारे देश की क्रांतिकारी शक्तियां मज़बूत होतीं और उन्होंने सही रणनीति अपनाई होती तो उस जन सैलाब के सडकों पर निकल पड़ने के फलस्वरूप सोवियत संघ जैसी सच्ची आज़ादी भी मिल सकती थी. उस वक़्त उस आन्दोलन को कुचलने के लिए अँगरेज़ एक क़ानून लाए थे जिसमें सशस्त्र सेना को किसी को भी गिरफ्तार कर मार डालने की छूट दी गई थी. नेहरू उस क़ानून की ‘उपयोगिता’ जानते थे इसलिए उसी क़ानून को और साथ ही बंटवारे के वक़्त हुए भीषण सांप्रदायिक नर संहार के वक़्त लाए गए कानूनों को मिलाकर ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट, 1958 पास कराया गया. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जन्मे इस क़ानून की पहली दो पंक्तियाँ ज्यों की त्यों पढ़ी जानी आवश्यक हैं;
“देश के अशांत राज्यों (अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा) में सशस्त्र सुरक्षा विशेष अधिकार प्रदान करने वाला क़ानून; उत्तर पूर्वी राज्यों में हिंसा लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गई है. सरकारी प्रशासन उसे नियंत्रित करने में नाकाम हो गया है”


नेहरू जैसे ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष’ राजनेता और उनके विद्वान कैबिनेट मंत्रियों को ये चिंतन करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई कि ऐसी क्या बात है कि उत्तरपूर्व राज्यों के नागरिकों में हिंसा, उनके जीवन का अंग बन गई है? क्या वहाँ के लोगों में कोई आनुवंशिक, बायोलॉजिकल गड़बड़ी है? क्या वहाँ कोई हिंसक नस्ल पैदा हो गई है? क्या वे लोग बाक़ी देश के लोगों से अलग हैं, असभ्य हैं, उन्हें हिंसा करने में मज़ा आता है? क्या उत्तरपूर्वी राज्यों में अनेक राष्ट्रीयताएँ मौजूद नहीं हैं? क्या गुजरातियों, महाराष्ट्रियनों, पंजाबियों, बंगालियों, तमिलों आदि की तरह उनकी अपनी राष्ट्रीयताओं नागा, मिज़ो, खासी, कुकी, बोडो, त्रिपुर, कोन्याक,नोको, माकुरी, पारा, तंगशंग आदि के सम्मान के लिए लड़ना अपराध है? उनकी राष्ट्रीयताएँ छोटी हैं लेकिन अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों का गुलाम होना क्या ज़रूरी है, न्यायोचित है? अंग्रेज़ औपनिवेशिक लुटेरों के दमन, ज़ुल्म, ज़बर के विरुद्ध सैकड़ों साल के स्वाधीनता आन्दोलन से क्या हमने यही सीखा है? क्या जन भावनाओं को जोर-ज़बर से हमेशा के लिए कुचला जा सकता है? क्या डंडे के दम पर लोगों को देशभक्त बनाया जा सकता है जैसे आजकल कट्टर हिंदुत्व वादियों की स्वयं घोषित देशभक्त तालिबानी ब्रिगेड अल्पसंख्यकों को पीट पीटकर जय श्रीराम कहलवाती है? बंदूक के दम पर, फौजी बूटों तले कुचलकर लोगों का मुंह कुछ दिन बंद किया जा सकता है लेकिन क्या इस क्रूर, मानवद्रोही हरक़त से सतह के नीचे जन आक्रोश-क्रोध की ज्वाला को धधकते रहने से रोका जा सकता है? क्या राज्य द्वारा अपने ही लोगों पर बर्बर हिंसा जायज़ है? अगर हमारी यही मान्यता है तो किस मुंह से हम अपने उत्तर पूर्वी 7 राज्यों के अपने नागरिकों को अपना ‘अटूट अंग’ कहते हैं? दम्भपूर्वक अपने को कल्याणकारी जनवादी राज्य कहने और कहलवाने वाले राज्य के लिए ये प्रश्न एकदम बुनियादी हैं. लोगों के जीवन मरण के इन अहम सवालों को दरी के नीचे धकेलकर, जन मानस को सशस्त्र सेनाओं के रहमोकरम पर छोड़ देने वाला देश औपनिवेशिक लुटेरों से अलग नहीं हो सकता.


इस एक्ट कि धारा 3 में केंद्र सरकार या सम्बंधित राज्य का गवर्नर किसी भी राज्य को अशांत क्षेत्र घोषित करते हुए यह सूचित कर सकता है कि नागरिक प्रशासन की मदद के लिए सशस्त्र सेना की मदद की ज़रूरत है और ये भयानक बर्बर क़ानून लागू हो जाता है जिसके तहत घोषित राज्य के सभी नागरिक, सेना के रहमोकरम पर जीने को मज़बूर हो जाते हैं. विदित हो कि संविधान के अनुसार कानून व्यवस्था राज्य का प्रश्न है. नेहरू ने इस क़ानून को 1958 में पास करा कर तुरंत उत्तरपूर्व के राज्यों में इस्तेमाल किया जिसके तहत मिजोरम और नागालैंड में सेना ने हेलिकॉप्टर से गोलियां बरसाईं . हेलिकॉप्टर से गोली बारी में क़सूरवार और बेक़सूर में भेदभाव नहीं किया जा सकता, उसे तो लोगों को मारने और भयाक्रांत करने, जन मानस पर सत्ता की दहशत गाफ़िल करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इस एक्ट के तहत उत्तरपूर्व राज्यों के नागरिकों ने ताज़ा मिली आज़ादी का ऐसा स्वाद चखा जैसा अंग्रेजों के वक़्त भी नहीं हुआ. सत्ता के दमन के इस खूंख्वार औजार को बाद में आतंकवाद के दौर में पंजाब में भी इस्तेमाल किया गया लेकिन उत्तरपूर्व राज्यों के अतिरिक्त जिस राज्य ने इसके दमन और उत्पीडन को सबसे ज्यादा झेला वो है जम्मू कश्मीर, जहाँ ना सिर्फ़ इसे कई बार इस्तेमाल किया गया बल्कि 1990 में जम्मू कश्मीर के लिए अलग से ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स जम्मू & कश्मीर क़ानून, 1990’ बनाया गया जिसके तहत आज भी लोगों के संविधान प्रदत्त अधिकारों को बेरहमी से कुचला जा रहा है.


अफ्स्पा क़ानून कितना बर्बर है, ये इस एक्ट की धाराएं 4 (a, b, c, d, e), 5 और 6 को पढ़ने से पता चलता है. अफ्स्पा लागू हो जाने के बाद सेना के किसी भी अधिकारी, यहाँ तक की सूबेदार को भी यदि ये लगता है कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ को खतरे की आशंका है तो वह किसी भी घर में किसी भी वक़्त बिना किसी चेतावनी के घुस सकता है, तलाशी ले सकता है, लोगों को गिरफ्तार कर ले जा सकता है, गोली चला सकता है, मार सकता है. ये सब करने के लिए उसे किसी अदालत में जाने या सर्च वारंट की ज़रूरत नहीं है. वह किसी भी वाहन को कहीं भी रोक कर तलाशी ले सकता है, संदेह होने पर उस वाहन को अपने क़ब्ज़े में ले सकता है. उसे अगर लगता है कि किसी घर, दुकान या दफ्तर से भविष्य में सुरक्षा को खतरा हो सकता है तो वह बल प्रयोग कर उसे बम से उड़ा सकता है. यहाँ तक कि तालाबंद घर, दुकान या दफ्तर का ताला तोड़ कर तलाशी ले सकता है. उसके द्वारा बल प्रयोग ‘संभावित ख़तरे’ के अनुरूप ही हो ज़रूरी नहीं. सबसे ख़तरनाक प्रावधान ये है कि ऐसी किसी भी कार्यवाही के बाद यदि उस अधिकारी का संदेह एकदम झूट या मनगढ़ंत साबित होता है जैसा कि अभी 4 दिसम्बर को नागालैंड में मज़दूर नरसंहार में हुआ है तब भी उसके विरुद्ध कोई मुक़दमा दर्ज़ नहीं हो सकता. कितना भी जघन्य कांड किया हो, ये सब उसने नेक इरादे से किया, ये ही माना जाएगा. यहाँ तक कि यदि किसी राज्य के पीड़ित लोग इस बर्बर क़ानून को हटाने के लिए सरकार को मज़बूर भी कर देते हैं जैसा कि पंजाब, त्रिपुरा और मेघालय के लोग कर चुके हैं तब भी इस एक्ट के दौरान ढाए गए ज़ुल्मों के लिए किसी अधिकारी पर कोई मुक़दमा दर्ज नहीं किया जा सकता. नागालैंड में बेक़सूर मज़दूरों का क़त्ल करने वाले इन हत्यारे सैनिकों को भी कोई सज़ा नहीं होगी. घाव ताज़ा रहने तक ‘जाँच हो रही है’ या ‘निलंबित कर दिया गया है’ ऐसा नाटक चलेगा, बाद में ये सब अपनी जगह काम करते पाए जाएँगे. ये हकीक़त नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार असम रायफल्स के ये सैनिक भी जानते हैं क्योंकि वे ऐसे कांड कई बार कर चुके हैं. ऐसा 1958 से अब तक ना जाने कितनी बार हो चुका है.


अफ्स्पा काले क़ानून की बर्बरता, ख़ुद सरकार की ज़ुबानी
ये क़ानून इतना क्रूर है कि 1958 से आज तक, 63 सालों में सभी पार्टियों ने इसकी क्रूरता और अमानवीयता का उल्लेख किया है लेकिन सिर्फ़ तब जब वे विपक्ष में रहे हैं. सत्ता में आने के बाद हर एक पार्टी ने अपनी आँखों पर बेशर्मी की एक जैसी काली पट्टी बांध ली है. ये हकीक़त बुर्जुआ सत्ता का असली खूंख्वार चेहरा रेखांकित करती है. इंदिरा गाँधी ने 1972 में त्रिपुरा सरकार और लोगों के विरोध के बावजूद अफ्स्पा लगाया जबकि क़ानून व्यवस्था राज्य का विषय है. पी चिदंबरम कह चुके हैं कि ‘इस क़ानून को अगर रद्द भी नहीं किया जा सकता तो कम से कम संशोधित तो कर ही दिया जाना चाहिए, ये सेना को असीमित अधिकार देता है’. दस साल वही चिदंबरम सत्ता के शीर्ष पर विराजमान रहे, गृह मंत्री भी रहे लेकिन उस वक़्त अपने ये बोल-वचन भूल गए. 2004 में यूपीए सरकार ने इस अमानवीय क़ानून के ख़ूनी पहलुओं का अध्ययन करने के लिए जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया जिसने 2005 में सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए बताया कि अफ्स्पा क़ानून लोगों पर क्रूर दमन का एक घृणित औजार बन चुका है, इसे तुरंत रद्द कर दिया जाना चाहिए. वीरप्पा मोईली की अध्यक्षता में बने दूसरे प्रशासनिक आयोग ने उस रिपोर्ट की पुष्टि करते हुए कहा कि इस काले कानून को वाक़ई रद्द किया जाना चाहिए. सरकार की संवेदनहीनता पर, लेकिन, कोई फर्क नहीं पड़ा. दोनों रिपोर्ट गृह मंत्रालय के किसी कोने में पड़ी सड़ रही होंगी. अपने कार्यकाल के अंत में यूपीए सरकार ने गृह सचिव पिल्लई की अध्यक्षता में एक और समिति बनाई. उसने भी वही कहा लेकिन कोई बदलाव नहीं हुआ. मोदी-शाह सरकार ने तो इन आयोगों-कमिटियों का पाखंड ही ख़त्म कर दिया है. इन ‘राष्ट्रवादियों’ के लिए तो सेना को अभी और छूट दी जानी चाहिए. इनकी देशभक्ति को तो मापने का पैमाना ही ये है कि मेहनतक़श अवाम जितना ज्यादा कुचला जाएगा, संविधान प्रदत्त जनवादी अधिकारों को जितना छीना जाएगा राष्ट्र उतना ही मज़बूत होगा. पूंजीवाद की अन्तिम वेला के मरणासन्न संकट के मौजूदा दौर में इजारेदार कॉर्पोरेट ने बड़ी उम्मीदों से सत्ता इन्हें सौंपी है. अपने आकाओं को कैसे निराश कर सकते हैं!! उत्तर पूर्व के सातों राज्यों की सभी पार्टियाँ, सत्ता में इसी वादे के साथ पहुँचती आई हैं कि सत्ता में आने के बाद वे अफस्पा को हटा देंगी लेकिन सत्ता में आने के बाद या तो वे खुद ही बेशर्मी की पराकाष्ठा करते हुए उस वादे को भूल जाती हैं या केंद्र सरकार उनके प्रस्ताव को कोई महत्त्व नहीं देती और दिल्ली में बैठकर उन्हें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. 4 दिसम्बर के भयानक गोली कांड के बाद नागालैंड विधान सभा ने केंद्र से इस दमनकारी औजार को वापस लेने का लिखित प्रस्ताव किया है लेकिन पराक्रमी शूरवीर गृह मंत्री ने उस पर टिपण्णी करने की भी ज़हमत नहीं उठाई!!


हेगड़े आयोग ने उजागर की अफ्स्पा की बे-इन्तेहा हैवानियत
मणिपुर में सेना द्वारा युवकों को गिरफ्तार कर ले जाने और फिर उन्हें आतंकी, अलगाववादी बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की घटनाएँ सबसे ज्यादा होने पर वहाँ 2012 में अपने बच्चों को खो चुके बिलखते परिवारों ने ‘ग़ैर कानूनी हत्या पीड़ित परिवार संघ, मणिपुर’ (Extra-judicial Killing Victim Family’s Association, Manipur, EKVFAM) गठित किया और ‘मानव अधिकार चेतावनी’ (Human Rights Alert, HRA) के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें उन्होंने प्रमाण और साक्ष्य सहित अदालत को बताया कि 1979 से 2012 के बीच 33 साल में अकेले मणिपुर में सशस्त्र सुरक्षा एजेंसियों द्वारा कुल 1528 लोगों को फर्जी मुठभेड़ बताकर मार डाला गया है, इसकी जाँच होनी चाहिए. चूँकि अकाट्य साक्ष्य याचिका के साथ संलग्न थे, सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस संतोष हेगड़े की अध्यक्षता में एक जाँच समिति नियुक्त की जिसके अन्य दो सदस्य थे, भूतपूर्व चुनाव आयुक्त एम लिंगदोह और कर्णाटक के भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक अरुण कुमार सिंह. हेगड़े आयोग ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ों के इन 1528 में से टेस्ट केस के रूप में 6 मामलों की जाँच की और अपनी रिपोर्ट में बताया कि इनमें एक भी मुठभेड़ सच्ची नहीं है, एक भी हत्या सुरक्षा एजेंसियों द्वारा आत्म रक्षा में नहीं की गई, एक भी पीड़ित व्यक्ति किसी भी रूप में कभी भी आतंकी कार्यवाही में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लिप्त नहीं रहा, किसी भी व्यक्ति का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं रहा. इतना ही नहीं, रिपोर्ट आगे बताती है, कि मणिपुर में घुसपैठ विरोधी कार्यवाहियों के नाम पर क़ानून की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं. यह क़ानून सुरक्षा एजेंसियों को असीमित अधिकार देता है और पीड़ित नागरिकों के पास बचाव का कोई रास्ता नहीं बचाता, ना ही इसमें इसके दुरुपयोग की निगरानी करने की कोई गुंजाईश है. फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गए लोगों की लिस्ट में 12 वर्षीय आज़ाद खान का भी नाम था. आयोग ने बताया कि आज़ाद खान फुबकचाओ हाई स्कूल का 8 वीं कक्षा का छात्र था, 8.1.2009 को जब वह अपने घर में पढाई कर रहा था, उसके घर में 30 सैनिक घुसे और उसे घसीटते हुए बाहर ले गए, उसे बेरहमी से पीटा, ठोकरों से मारा और वहीँ गोली मार दी. बीस वर्षीय सोनजीत टाटा इंडिकोम में मज़दूर था. जब वह अपनी ड्यूटी कर रहा था उसे गोली से मार डाला गया. उसके मृत शरीर में कुल 10 गोलियां पाई गईं.
12 वर्षीय आज़ाद खान के भयानक क़त्ल की असलियत उजागर होने के बाद और इस जघन्य अपराध में पकडे जाने के बाद जब सेना के पास कुछ भी कहने को नहीं बचा तब सुप्रीम कोर्ट को ये मामला सीबीआई को सोंपना पड़ा. क़त्ल के अपराध में मेजर विजय सिंह बल्हारा को सज़ा हुई लेकिन इसके आलावा किसी भी मामले में सेना द्वारा बेक़सूर नागरिकों पर ढाए गए ज़ुल्मों को अफ्स्पा क़ानून के प्रावधानों से ढका जाता रहा है, कभी कोई सज़ा नहीं हुई.


अफ्स्पा के विरुद्ध उत्तरपूर्व के नागरिकों के ज़बरदस्त आन्दोलन और सरकारी हठधर्मिता

लोह महिला, इरोम चानू शर्मीला का नाम दुनियाभर में जन विरोधी काले कानूनों के विरुद्ध शांतिपूर्ण प्रतिकार आन्दोलन चलाने वाले लोगों की लिस्ट में सबसे टॉप पर आता है. दरअसल, अफ्स्पा काले क़ानून की आड़ लेकर सताए गए उत्तरपूर्व के 7 राज्यों में भी मणिपुर में सबसे ज्यादा ज़ुल्म ढाए गए हैं. 1958 में दमन के इस भयानक औजार के वजूद में आने के बाद हेलिकॉप्टर द्वारा गोलियां मणिपुर के नागरिकों पर ही बरसाई गई थीं. ज़ुल्मों की उसी ख़ूनी श्रंखला के तहत नवम्बर 2000 में ‘मलोम नरसंहार’ हुआ था. नागालैंड में हुए मौजूदा नरसंहार की तरह ही, असम राइफल्स की आठवीं बटालियन ने इम्फाल के तुलीहाल एअरपोर्ट के नज़दीक मलोम माखा लिखाई नमक जगह पर 10 बेक़सूर लोगों को गोलियों से मार डाला था जिसके विरुद्ध ऐसा ही जन आक्रोश फूट पड़ा था जैसा इस वक़्त नागालैंड में हो रहा है. जब हत्यारे सुरक्षा कर्मियों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई तब इरोम शर्मीला जो उस वक़्त 28 वर्ष की थीं, इम्फाल में आमरण भूख हड़ताल पर बैठ गईं. तीन दिन बाद उन्हें आत्म हत्या करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था और फिर पूरे 16 साल मतलब 2016 तक लगातार वे भूख हड़ताल पर रहीं. पुलिस ज़बरन नाक में नली डालकर दूध पिलाकर उसे तोड़ने की कोशिश करती रही. ज़ालिम नहीं थके लेकिन 16 साल के बाद ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ने वाली ये बहादुर महिला हार मान गईं. राज सत्ता को दमन के औजारों की कितनी ज़रूरत होती है, कितने प्रिय हैं, इससे बड़ा और क्या सबूत चाहिए? जनवाद का ये आवरण कितना कमजोर और दिखावटी है!!
‘भारतीय सेना, हमारा बलात्कार करो’, मणिपुर की ही बहादुर महिलाओं ने 2004 में दमन के इस घातक औज़ार अफ्स्पा के ख़िलाफ़ रोंगटे खड़े करने वाला एक ऐसा शांतिपूर्ण आन्दोलन कर दिखाया जैसा दुनिया में कहीं नहीं हुआ. थान्गजम मनोरमा नाम की युवती के घर पर असम राइफल्स की एक टुकड़ी ने 10 जुलाई 2004 को सुबह 3 बजे उन्हें पीएलए की जासूस बताकर धावा बोला. सभी घर वालों को एक कमरे में बंद कर दिया गया और मनोरमा को बाल पकड़कर घसीटते हुए बाहर चबूतरे में लाया गया, उन्हें उनके घर वालों के सामने ही नंगा कर बेदम मारा और गिरफ्तार कर ले गए. तीन दिन उनका शव घर लौटा. असम राइफल्स ने बताया कि उन्होंने भागने की कोशिश की थी, मुठभेड़ में मारी गईं. भागने वाले व्यक्ति की टांगों में गोली लगनी चाहिए थी, मनोरमा की टांगों में कोई गोली नहीं लगी थी जबकि उनके गुप्तांगों में 16 गोलियां मारी गई थीं. ज़ुल्म की इस इन्तेहा ने जन मानस को हिला दिया. प्रचंड जन आक्रोश के बावजूद भी जब हत्यारे सैनिकों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई तब महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘द्रौपदी’ की पटकथा को साकार करते हुए 12 महिलाओं ने महिला विरोध- नूपी लेन (महिला युद्ध) का वो तरीका अपनाया जो पूरी दुनिया में कहीं नहीं हुआ. ये 12 महिलाएं मणिपुर में सेना मुख्यालय के सामने पहुँचीं और उन्होंने एक- एक कर अपने बदन से सारे कपड़े उतार दिए. बिलकुल निर्वस्त्र होकर ये महिलाएं चिल्ला रही थीं, ‘हम सब मनोरमा की माँ हैं’ ‘भारतीय सेना, हमारा बलात्कार करो, हमें मार डालो’ (Indian Army, Rape Us, Kill Us). अगले दिन देश-विदेश के मीडिया में उन 12 नग्न महिलाओं की तस्वीरें छपीं. तस्वीर देखने वाले आक्रोशित और शर्मसार थे लेकिन सत्ता नहीं पिघली. अफ्स्पा नहीं हटा.


63 साल के इतिहास में आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट, अफ्स्पा की आड़ में सुरक्षा एजेंसियों द्वारा ढाए गए ज़ुल्मों के विरुद्ध हुए जन संघर्षों की पूरी दास्ताँ लिखी जाए तो एक महाकाव्य बन जाएगा. शायद ही कोई दिन जाता हो जब इसका विरोध उत्तर पूर्व के राज्यों में कहीं ना कहीं ना होता हो. सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेक बार इस क़ानून को औज़ार की तरह इस्तेमाल करते हुए सुरक्षा एजेंसियों द्वारा ढाए जा रहे ज़ुल्मों के मामले में दखल दिया है लेकिन सुप्रीम कोर्ट बस इतना कहकर ही अपनी ज़िम्मेदारी पूरी हुई समझती आई है कि, ‘सुरक्षा बलों को गोली चलाने से पहले आवश्यक सावधानी बरतनी चाहिए, चेतावनी देनी चाहिए, ‘आवश्यकता’ से अधिक बल प्रयोग नहीं करना चाहिए.’ यही वज़ह है कि अफ्सपा के 63 साल के इतिहास में सशस्त्र सैनिक बलों द्वारा ढाए गए ज़ुल्मों की लिस्ट बहुत लम्बी होने के बावजूद अभी तक बस आज़ाद खान की बर्बर हत्या के मामले में ही मेजर विजय सिंह को सज़ा हुई है. दरअसल हर बार जब भी सेना का दमन एकदम नंगे और खूंख्वार रूप में घटित हुआ है और पीड़ित समुदाय क्रोध और आक्रोश में अपनी जान कि परवाह छोड़कर उठ खड़ा हुआ है, अदालतों की ओर से प्रतिकार आक्रोश की धधकती ज्वाला पर ठण्डा पानी छिड़कने का ही काम किया गया है. हमारे सभ्य होने पर प्रश्न चिन्ह, आफ्सपा, उसी तरह बना हुआ है, ज़ुल्म, दमन बदस्तूर ज़ारी है. गला घोटने में प्रयुक्त रस्सी मुलायम, नरम और मखमली रहे तब भी जान उतनी ही दर्दनाक प्रक्रिया से जाती है इसलिए इसे नरम बनाने की नहीं बल्कि घृणित रस्सी को ही दफ़न करने की ज़रूरत है.


ज़ुल्म-ओ-ज़बर के खौफ़नाक औज़ार अफ्स्पा को तत्काल रद्द करो

देश में मौजूदा राजसत्ता का चरित्र क्या है और उसकी ताबेदारी करने वाले रंगबिरंगे राजनीतिक दलों में कितना महीन फर्क है, इस हकीक़त को जानने के लिए सितम्बर 1958 से वज़ूद में आए आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (अफ्स्पा) के इतिहास को जानना काफ़ी है. ग़ुरबत और मज़हबी ज़हालत में डूबे हमारे समाज में, लेकिन, फिर भी बहुतांश लोग सत्ता की मूल धारणा और उसके चरित्र से अंजान हैं और ये स्थिति सत्ताधीशों के लिए बहुत मुफ़ीद है. इसीलिए दमनकारी सत्ता द्वारा किए जा रहे अन्याय के विरोध में और न्याय के पक्ष में संघर्षरत कार्यकर्ताओं द्वारा आम जन को इसे बार-बार समझाया जाना, दोहराया जाना ज़रूरी है. बुर्जुआ जनवाद के अलमबरदार, स्टेट्समैन नेहरू से शुरू कर, जनवाद के विचार से ही नफ़रत करने वाले फासिस्ट मोदी-शाह शासन तक मतलब, इंदिरा गाँधी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, राजीव गाँधी, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंहराव, मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी सभी इस बात पर सहमत पाए गए हैं कि सत्ता के पास जन आक्रोश को कुचलने के लिए जितना खूंख्वार औजार हो उतना अच्छा है. यही वज़ह है कि ऐसे जघन्य अपराध होने के बावजूद भी अफ्सपा, जिससे मानवता शर्मसार हो जाए, जिसे सही ठहराने में शैतान भी हाथ खड़े कर दे, बना हुआ है.


पूंजीवादी सत्ता में, जिसे हम भुगत रहे हैं, सरकार का काम 1% पूंजीपतियों की हित रक्षा और 99% शोषित-पीड़ित वर्ग को शांतिपूर्वक अपनी श्रम शक्ति का शोषण-दोहन करवाते जाने के लिए तैयार बनाए रखना होता है. शोषण की प्रक्रिया ‘वस्तु-उत्पादन’ और वस्तु-विनिमय’ द्वारा अमल में लाई जाती है जिसके लिए उद्योग और बाज़ार की ज़रूरत होती है. पूंजी के निज़ाम का मूल मन्त्र वही होता है जो हमें हर रोज़ बताया जाता है, ‘ये सब बाज़ार की ताक़तों को तय करने दो’. जब कभी ये हकीक़त छुपाई जाती है तब भी सिद्धांत यही काम करता है, बाज़ार ही सब कुछ तय करता है. यही वज़ह है कि जब तक बाज़ार बढ़ता रहता है, श्रम शक्ति -शोषण की धारा निर्बाध बहती रहती है तब तक ही जनवाद का समां सुहाना-सुहाना बना रहता है. मोटा-तगड़ा मध्यम वर्ग, उपभोक्ता वर्ग के रूप में माल खपाने के लिए तैयार रहता है, बस तब तक ही जनवाद और विकास की हरी कोपलें नज़र आती हैं. बाज़ार के इसी नियम के ‘विकास क्रम’ के तहत ही, लेकिन, समाज में एक छोर पर पूंजी का संकेन्द्रण होकर पूंजी के चंद पहाड़ बन जाता है और दूसरे छोर पर कंगाली- दारिद्र्य का महासागर विकराल रूप में तैयार होता जाता है. जैसे ही बाज़ार का आकार बढ़ना बंद हो जाता है, मध्यम वर्ग पिघलकर सर्वहारा वर्ग में घुलने लगता है, सरकार को अपनी कुर्सी में चुभन महसूस होनी शुरू हो जाती है तब उसे उस सीमित बाज़ार पर क़ब्ज़े के लिए शोषक सरमाएदार वर्ग में भी सब समूहों के हित साधना मुमकिन नहीं रह जाता. चूँकि बाज़ार का नियम पूंजी से संचालित है इसलिए सरकार बड़ी पूंजी के सामने दंडवत होकर छोटी पूंजी को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ देती है. मतलब कल का सरमाएदार आज का मध्यम वर्ग और आने वाले कल का सर्वहारा बनने को विवश हो जाता है. सर्वहारा सेना और बलवान हो जाती है जो कालांतर में शोषण की इस घिनौनी चक्की को ही उखाड़ फेंकती है. भले पिसने वाले लोगों में बहुतों को इस बाबत मुगालता, भ्रम बना रहे, पीसने वालों को ये ‘क्रोनोलोजी’ अच्छी तरह मालूम है. यही वज़ह है कि सत्ताधीश अच्छी तरह जानते हैं कि आगे निश्चित रूप से आने वाले बुरे दिनों में जनवादी पाखण्ड की ओढ़ी गई ये चादर फाड़कर फेंकनी पड़ेगी जिससे जन आक्रोश पैदा होगा जिसे कुचलने के लिए दमन के घातक औजारों की ज़रूरत होगी. इसीलिए सत्ताधीश, चाहे वे दाढ़ी वाले हों या क्लीन शेव, इन औज़ारों को नहीं छोड़ते. ये ‘सामान्य’ पूंजीवादी प्रक्रिया सारे देश में सामान्य रूप से लागू है इसीलिए भयानक दमनकारी यूएपीए और देशद्रोह क़ानून सारे देश में लागू हैं. इन कानूनों की हैवानियत के दो उदहारण ही काफ़ी हैं. केरल का एक पत्रकार एक साल से भी अधिक समय से यूएपीए में जेल में बंद है, सरकार को ख़ुद नहीं मालूम कि उसका क़सूर क्या है और एक स्कूल में बच्चों को दोपहर के ‘पौष्टिक भोजन’ में रोटी और नमक दिए जाने को रिपोर्ट करने वाले पत्रकार को राष्ट्र द्रोह के आरोप में बंद किया जा चुका है.


पूंजीवाद में सारा वस्तु उत्पादन और विनिमय मुनाफ़े के लिए ही होता है. यही वज़ह है कि उसका समाज की ज़रूरतों अथवा सामाजिक न्याय से कुछ लेना-देना नहीं होता. सूक्ष्म अल्पमत वालों को विशालकाय बहुमत पर शासन करना होता है इसीलिए उसे इस तंत्र के कभी भी बिखर जाने का डर लगातार बना रहता है. उसे हर वक़्त डर लगा रहता है कि लोगों को असलियत समझ आ गई तो क्या होगा इसीलिए जैसे-जैसे संकट बढ़ता है वह सत्ता के हर औज़ार को और मज़बूत बनाने में लगा रहता है और लोगों की एकता को खण्डित करने के कुकर्म करता रहता है. यही वज़ह है कि इस व्यवस्था में किसी भी प्रकार के अम्पसंख्यक को कभी न्याय नहीं मिल सकता चाहे वो धार्मिक, भाषाई अल्पसंख्यक हो या फिर राष्ट्रीयता का अल्पसंख्यक. हर प्रकार के अल्प संख्यक से ये ही अपेक्षा रहती है कि वो बहुसंख्यक के सामने बेशर्त समर्पण करे. पूंजीवादी निज़ाम में हर अल्प संख्यक को अतिरिक्त ज़ुल्म झेलना होता है. अल्पसंख्यक समुदाय चाहे वो किसी भी प्रकार का हो, उसके सामने दमनकारी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करने के अतिरिक्त कारण मौजूद होते हैं इसीलिए वहाँ अतिरिक्त दमनकारी औजारों की ज़रूरत होती है. यही वज़ह है कि उत्तर पूर्व के राज्यों में यूएपीए और देशद्रोह क़ानून भी हैं और अफ्स्पा भी है. उत्तर पूर्व राज्यों में अनेक राष्ट्रीयताएँ हैं. हर राष्ट्रीयता, हर भाषा को चाहे उसे मानने वाले चंद लोग ही क्यों ना हों, समान सम्मान, गौरव मिलना ही न्याय है लेकिन ये न्याय पूंजीवादी निज़ाम में कहीं भी नहीं मिल सकता चाहे वो भारत हो, श्रीलंका-पाकिस्तान हों या फिर इंग्लॅण्ड, जर्मनी या अमेरिका. अपनी राष्ट्रीयताओं और सम्मान के लिए लड़ रहे सभी आन्दोलनकारियों को भी ये सच्चाई समझना ज़रूरी है कि वे कितनी भी कुर्बानियां क्यों ना दें पूंजीवादी व्यवस्था में उन्हें न्याय, सम्मान, गौरव, बराबरी नहीं मिल सकते. इस अन्यायतंत्र को दफ़न करने के लिए अल्पसंख्यकों के पास बहुसंख्यकों से ज्यादा वज़ह मौजूद हैं. दूसरी ओर ये कड़वी हकीक़त बहुसंख्यकों के ऊपर ये अतिरिक्त ज़िम्मेदारी आयद करती है कि वे अतिरिक्त दमन झेल रहे अल्पसंख्यकों के संघर्ष में उनका हर तरह साथ दे. दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं. उत्तर-पूर्व के दमित लोगों के संघर्ष में ‘मेनलैंड’ के लोग शरीक़ नहीं हुआ. ऐसा हुआ होता तो ये मानवद्रोही अफ्स्फा पंजाब, त्रिपुरा और मेघालय की तरह उत्तर-पूर्व के बाक़ी राज्यों और कश्मीर में भी दफ़न हो गया होता. दमनकारी कानूनों के विरुद्ध जन आक्रोश को समूचे देश में जन आन्दोलनों की प्रचंड लहर में बदलकर इसके निशाने पर इस अन्यायकारी व्यवस्था को ही लेना होगा, यही आज का यथार्थ है.