“वर्ग संघर्ष के बिना पर्यावरणवाद बागवानी समान है”

“वर्ग संघर्ष के बिना पर्यावरणवाद बागवानी समान है”

December 15, 2021 0 By Yatharth

जलवायु संकट और पूंजीवाद

अमिता कुमारी

दिसंबर का ही माह था, जब आज से चौंतीस साल पहले, 1988 में ब्राज़ील के पर्यावरण कार्यकर्ता, चिको मेंडिस को लकड़ी माफियाओं ने मार डाला था। मेंडिस अमेज़न के जंगलों के संरक्षण के लिए लड़ रहे थे। मेंडिस का वह प्रसिद्ध कथन – “ वर्ग संघर्ष के बिना पर्यावरणवाद बागवानी के समान है” (Environmentalism without class struggle is gardening) – जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण के “असुलझे” प्रश्न का एक सरल उत्तर पेश करता है। यह एक ऐसा उत्तर है जिसकी ओर विश्व भर के सैकड़ों जाने माने पर्यावरणविद, कार्यकर्ता व संगठनों ने देखना ज़रूरी नहीं समझा। मार्क्सवाद और साम्यवाद में भी वर्तमान पर्यावरण-संकट के उत्तर मौजूद हो सकते हैं, यह मुद्दा अधिकांश पर्यावरण संबंधी गंभीर बहसों से नदारद है। प्रस्तुत लेख इसी विषय पर प्रकाश डालने की एक कोशिश है। लेख के पहले हिस्से में गहराते जलवायु संकट के बीच पर्यावरणविदों के आदर्शवादी समाधानों की चर्चा की गयी है तथा दूसरा हिस्सा पूंजीवाद के स्वाभाविक चरित्र की पड़ताल करता है जो असल में वर्तमान संकट के मूल में है।


I


जलवायु परिवर्तन का संकट एक ऐसा विषय है जिसकी गंभीरता के प्रति अपने रोज़मर्रा के जीवन में या तो हम बिलकुल सचेत नहीं हैं या अगर हैं भी तो उसी गंभीरता के साथ इसके हल ढूंढ पाने में नाकाम रहे हैं। इस समस्या की विकटता और इसके प्रति हमारे नीति-निर्माताओं की प्रतिक्रिया में भी बहुत बड़ा फासला है। कुछ पर्यावर्णविदों ने वर्तमान संकट को हमारे “ग्रह का आपातकाल” (planetary emergency) माना है; और आंकड़े बताते हैं कि हम सचमुच आपातकाल की स्थिति में हैं। IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) के आंकलन के अनुसार अगर हमारी धरती पूर्व-औद्योगिक तापमान के स्तर से दो डिग्री ज्यादा गरम होती है, तो पूरे विश्व को अनगिनत विनाशपूर्ण परिणाम देखने होंगे – समंदर का स्तर एक मीटर से ऊपर जाते हुए तमाम तटीय व निचले द्वीपों की जनसंख्या को निगल जाएगा; जंगलों में आग प्रचंडता से फैलते हुए धरती के सभी बचे जंगलों का सफाया कर देगी; कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा होगा; और तूफान एवं बवंडर जैसी घटनाएँ आम हो जाएंगी। असल में इन परिणामों की झांकी हमें दिखनी शुरू हो चुकी है। इसी साल अक्तूबर में दिल्ली, उत्तर प्रदेश और केरल के कुछ इलाकों में हुई मूसलाधार बारिश ऐसी ही एक झांकी थी। एक अन्य रिपोर्ट (2012 के क्लाइमेट वल्नरेबल फोरम) बताती है कि हर वर्ष विश्व में वायु प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के कारण पचास लाख मृत्यु होती है और यह आंकड़ा वर्ष 2030 तक साठ लाख पहुँचने की आशंका है।


जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारक जीवाश्म ईंधन या fossil fuel है और वर्तमान में जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल व प्राकृतिक गैस) विश्व के 80% ऊर्जा की सप्लाई करते हैं। स्वीडन के केमिस्ट एस॰ अर्रिनियस (S॰ Arrhenius) पहले विद्वान थे जिन्होंने 1895 में अपने शोध द्वारा जीवाश्म ईंधन को ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना से जोड़ा था। 1950 के दशक के दौरान जलवायु विज्ञान एक अध्ययन क्षेत्र के रूप में उभरा और विश्व स्तर पर जलवायु और पर्यावरण को लेकर गंभीरता आई। पहली बार हमें यह समझ आया कि पृथ्वी के तापमान के लिए मनुष्य के क्रियाकलाप असल जिम्मेदार हैं। 1987 में IPCC का गठन हुआ जो जलवायु परिवर्तन की वैश्विक स्तर पर निगरानी के लिए बना और 1992 में UNFCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) की स्थापना हुई। इसी दौरान विश्व स्तर पर पर्यावरणविद, संरक्षणवादी, कार्यकर्ता, पर्यावरण संबंधी गैर-सरकारी संगठन इत्यादि सक्रिय भी हुए। प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, वन संरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर सेमीनारों-कांफ्रेंसों के अलावा, सड़कों पर भी आंदोलन हुए। वैश्विक स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों ने मिलकर अपनी जिम्मेदारियाँ भी तय कीं। परंतु, इन सब के बीच संकट टलने के बजाय लगातार गहराता रहा। इस विडम्बना का उत्तर अगर ढूँढना हो तो हमें पर्यावरणविदों व एक्टिविस्टों की समझ व उनके द्वारा सुझाए गए निवारण के नुस्खों पर एक नज़र डालनी होगी।


उड़ीसा के खड़िया जनजाति की अर्चना सोरेंग को इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने एक समूह, ‘यूथ एड्वाइज़री ग्रुप ऑन क्लाइमेट चेंज’, मे एक सदस्य के रूप में चुना है। इस समूह का काम संघ के सचिव को जलवायु संकट से निबटने के लिए नियमित रूप से सलाह देना है। सोरेंग को नामित किए जाने पर भारत भी गर्व से भर उठा और मीडिया ने उसे ‘ट्राइबल क्लाइमेट वारियार’ के नाम से नवाजा। आदिवासी और पर्यावरण के बीच की घनिष्ठता को तमाम पर्यावरणविद अपने डिस्कोर्स में एक अहम स्थान देते हैं और एक आदिवासी को ‘क्लाइमेट वारियार’ बनाया जाना मानो समस्या का सबसे प्रभावी समाधान हो। पर इस प्रश्न की पड़ताल आवश्यक है कि क्या हमारे आदिवासी पर्यावरणविद और कार्यकर्ता जलवायु संकट के मूल कारणों को चिन्हित करते हैं? अर्चना सोरेंग आदिवासी सांकृतिक प्रथाओं को रिकॉर्ड करने के लिए जानी जाती हैं। उनका मानना है कि आदिवासी, जिनका पर्यावरण के साथ पारस्परिक संबंध है, उनकी प्रथाओं को आम जनता तक पहुंचाना जलवायु परिवर्तन से निबटने का एक प्रभावी उपाय होगा। वे कहती हैं:
“Indigenous peoples should be leaders of climate actions and not victims of climate policies. The methods and tools used by the tribals in their daily lives, for green living, rainwater harvesting, organic farming, preserving bio-diversity, if adopted at a large scale by other people, it will help in preserving the environment and fighting the climate change.”


इसमें कोई दो राय नहीं कि जलवायु परिवर्तन का बोझ समाज के पिछड़े समुदायों पर सबसे भारी पड़ता है। आदिवासियों पर यह मार इसलिए दोहरी हो जाती है क्योंकि उनका भौतिक व सांस्कृतिक जीवन पर्यावरण से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है। पर क्या एक आदिवासी को ‘क्लाइमेट वारियार’ बनाकर या आदिवासी परम्पराओं का प्रसार कर वर्तमान संकट का हल निकाला जा सकता है? क्या इस विराट समस्या का उपाय हर व्यक्ति द्वारा अपने जीने के तरीके में सुधार कर होगा? क्या यह संकट जो व्यवस्था-जन्य है उसे व्यक्तिगत प्रयासों से हल किया जा सकता है?


विश्व की जानी-मानी पर्यावरण एक्टिविस्ट, ग्रेटा थनबर्ग, जो अपने क्रोध और विश्व नेताओं से बेबाक प्रश्न करने के लिए जानी जाती हैं, आखिर में ऐसे कुछ व्यक्तिगत प्रयासों की ही बात करती हैं। जलवायु संकट से “लोहा लेने” के लिए वे चार “सरल” उपाय बताती हैं, जिन्हें उन्होंने अपने जीवन में अपनाया भी है – हवाई यात्रा पर रोक (थनबर्ग और उनके परिवार के सभी सदस्य हवाई यात्रा नहीं करते); शाकाहारी भोजन का सेवन (IPCC की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर ज्यादा से ज्यादा लोग शाकाहार को अपनाएँगे तो यह जलवायु परिवर्तन के संकट से लड़ने में “significant” (महत्वपूर्ण) होगा, इसलिए थनबर्ग और उनका पूरा परिवार शाकाहारी हो गया है); एक्टिविस्ट आंदोलन में शामिल होना और सुधार की मांग रखना; और वोट की शक्ति का “सदुपयोग” कर इस संकट से लड़ने वाले “योग्य” मुखिया को चुनना। थनबर्ग का गुस्सा चाहे जिनता भी प्रभावशाली और आकर्षक लगे, यह वर्तमान व्यवस्था को चुनौती नहीं देता। यह इसी व्यवस्था में व्यक्तिगत सुधार, वोट के अधिकार के उपयोग और एक्टिविज़्म द्वारा इसी व्यवस्था के सामने मांग पेश कर वर्तमान आपातकाल से लड़ने की हिमायत करता है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था जिसका स्वाभाविक चरित्र ही संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करना हो, क्या उसी में रहकर पर्यावरण को बचाया जा सकता है? क्या पर्यावरण संरक्षण और पूंजीवाद एक दूसरे के विरोधाभासी नहीं? इन्हीं प्रश्नों की पड़ताल हम अगले खंड में करेंगे।


II


उदारवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा सैद्धान्तिक तौर पर, पूंजीवादी व्यवस्था को एक ऐसी प्रणाली माना गया जो मांग और आपूर्ति के संतुलन से संचालित होता है: यानि उपभोक्ता द्वारा तर्कसंगत cost-benefit analysis (खर्च-लाभ का विश्लेषण) कर बाज़ार में मांग लायी जाती है तथा उत्पादों की खरीद की जाती है। इस तरह यह बताया गया कि स्वाभाविक रूप से पूंजीवाद सकारात्मक सामाजिक परिणामों को जन्म देता है क्योंकि लोग वह नहीं खरीदेंगे जिसकी उन्हें ज़रूरत नहीं और उत्पादक वह नहीं बनाएँगे जो लोग नहीं खरीदेंगे। मुक्त बाज़ार में मांग और आपूर्ति के इसी संतुलन को बनाए रखने वाले कारक को प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, एडम स्मिथ ने ‘invisible hand’ की संज्ञा दी थी। मैथ्यू काह्न (Mathew Kahn) ने अपनी पुस्तक Climatopolis: How our cities will thrive in a Hotter Future (2010) में पूंजीवाद के इसी “संतुलन” में जलवायु संकट के उत्तर ढूँढ निकाले हैं। उनके अनुसार चूंकि पूंजीवादी समाज में उपभोक्ता विवेकी होता है जो अपने क्रय-संबंधी निर्णयों के परिणामों का आंकलन करता है, इसलिए वह लगातार वैसे उत्पादों की मांग करेगा जो समाज और पर्यावरण को समृद्ध बनाएँगे। इस तरह काह्न पर्यावरण के बचाव के लिए पूंजीवाद के विस्तार की वकालत करते हैं। लेकिन क्या उपभोक्ता इतना विवेकी होता है जितना इन अर्थशास्त्रियों ने हमें बताया है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए किसी विशेष शोध की ज़रूरत नहीं। हम खुद पर और अपने आसपास के बाज़ारों, खरीदारों, उत्पादकों, और मार्केटिंग-एड्वेर्टाइज़िंग (marketing-advertising) की दुनिया पर नज़र डालें तो जल्द समझ आ जाएगा कि उपभोक्ता ना तर्कसंगत निर्णय लेता है और न ही बाज़ार में मांग उत्पन्न करने में उसका सचेत नियंत्रण होता है। मार्केटिंग-एड्वेर्टाइज़िंग हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके है और वर्तमान डिजिटल दुनिया में इससे पीछा छुड़ाना मुमकिन नहीं। कृत्रिम मांग उत्पन्न करना और उपभोक्ताओं को लगातार यकीन दिलवाना कि उन्हें उस मांग को पूरा करने के लिए उत्पाद की ज़रूरत है, यह प्रचार की बड़ी सी दुनिया का एकमात्र काम है। लेकिन पूंजीवाद किसलिए कृत्रिम मांगों को रचता है? इस प्रश्न का उत्तर पूंजीवाद के स्वाभाविक चरित्र में ढूँढना होगा। पूंजीवाद लाभ के नियमों से चलने वाली व्यवस्था है। अर्थशास्त्री अपने हास्यास्पद तर्कों से चाहे जितने पन्ने भर डालें, पूंजीवाद कभी मनुष्य की मांगों की आपूर्ति के लिए उत्पादन नहीं करता, बल्कि उसका एकमात्र उद्देशय लाभ कमाना है और यही इसका नैसर्गिक गुण है।
जब हम इस चरित्र को समझ लेते हैं, तब जलवायु संकट के लिए पूंजीवाद की जवाबदेही को तय करना मुश्किल नहीं रह जाता। जैसा कि हमने अभी-अभी देखा कि यह व्यवस्था आवश्यकता नहीं,बल्कि लाभ से संचालित है, और इसमें अनावश्यक मांग कृत्रिम रूप से लगातार बनाए जाते हैं जिसकी पूर्ति के लिए लगातार उत्पादन किया जाता है। यानि पूंजीवाद का अस्तित्व लाभ और उत्पादन पर टिका है। लेकिन उत्पादन के लिए संसाधन चाहिए – कच्चे माल के रुप में और ईंधन के रूप में भी। और हम जानते हैं कि जीवाश्म ईंधन पर्यावरण संकट का सबसे बड़ा कारक है। यानि हमारे सीमित प्राकृतिक संसाधन मात्र पूँजीपतियों के लाभ के लिए लगातार खत्म किए जा रहे हैं और इसके साथ-साथ जलवायु संकट भी गहराता जा रहा है। अगर अपने सीमित संसाधनों और पर्यावरण को बचाना है तो इस अंधाधुंध और अविवेकी उत्पादन-उपभोग के चक्र को रोकना होगा। पर क्या यह पूंजीवाद में संभव है? जोनाथन पार्क (2015) नामक अर्थशास्त्री इस विरोधाभास को निम्नलिखित शब्दों में समेटते हैं:
“Any viable solution to climate change will therefore require a global agreement to drastically inhibit the extraction, production and consumption of natural resources. Yet, the capitalist system as it currently stands is neither designed for nor capable of consciously inhibiting its own propensity for unsustainable growth. The basic assumptions under which neo-liberal capitalism operates renders it incapable of correcting climate change.”


जोनाथन पार्क के कथन से स्पष्ट है कि पूंजीवाद का स्वाभाविक चरित्र ही उसे जलवायु संकट का असल जिम्मेदार और इसके समाधान निकालने के लिए अक्षम बनाता है। यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर काम कर रहे संगठन और समझौते– IPCC, UNFCC, क्योटो प्रोटोकॉल, इत्यादि – कारगर बदलाव लाने में नाकाम रहे हैं। पूंजीवादी राष्ट्रों द्वारा संचालित व नियंत्रित ये संगठन असल में पर्यावरण संरक्षण का मात्र बाहरी आभास बनाए रखने का काम करते हैं। पिछले खंड में वर्णित IPCC की वह रिपोर्ट जिसके अनुसार शाकाहार जलवायु संकट से निबटने का प्रभावी उपाय है, असल में समस्या से लड़ने का आभास ही बनाती है। कॉर्पोरेट यूरोप ओब्ज़र्वेटरी द्वारा तैयार किया गया एक शोध पत्र उजागर करता है कि किस प्रकार शक्तिशाली कॉर्पोरेट अपनी लॉबियों द्वारा इन संगठनों की वार्ता व निर्णयों को अपने पक्ष में प्रभावित करते हैं। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत CDM (Clean Development Mechanism) की व्यवस्था इस बात का साफ सबूत है कि ये संगठन, उनकी वार्ताएं और समझौते किस कदर पूंजीवाद-परस्त हैं। CDM एक कार्बन-ट्रेडिंग उपकरण है जिसके तहत विकसित देश, क्योटो प्रोटोकॉल द्वारा निर्धारित टार्गेट को पूरा करने के लिए स्वयं प्रदूषण में कमी ना कर, असल में विकासशील देशों से कार्बन क्रेडिट खरीदते हैं। खरीद-मुनाफे-बाज़ार पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था जलवायु संकट को भी खरीद-बिक्री से हल करने के उपाय ही सुझा सकती है।


बड़े पूंजीपति वैश्विक मंच पर पर्यावरण संकट से निबटने के लिए जहां लॉबियों का इस्तेमाल और कार्बन क्रेडिट की खरीद करते हैं, वहीं अपने देश के भीतर राज्य की सत्ता से मिलीभगत कर अपने पक्ष में कानूनों व नीतियों को प्रभावित करते हैं। भारत में Ease of Doing Business के नाम पर पर्यावरण संरक्षण संबंधी क़ानूनों से छेड़छाड़ अब धड़ल्ले से किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि इन क़ानूनों में कमियाँ नहीं थीं या इनका दुरुपयोग नहीं होता था। परंतु वर्तमान पूंजीवादी-फासीवादी सरकार में अब क़ानूनों में परिवर्तन पूरी बेशर्मी के साथ किए जा रहे हैं। वर्ष 2020 को केंद्र सरकार द्वारा प्रकाशित Draft Environment Impact Assessment Notification (EIA) और वन संरक्षण कानून (FCA), 1980, में हाल में (अक्तूबर 2021) सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन, पूँजीपतियों और वर्तमान सरकार के घनिष्ठ सम्बन्धों को रेखांकित करते हैं। जहां EIA नोटिफ़िकेशन पर्यावरण क्लियरेंस के नियमों को प्रभावहीन बनाने की कोशिश है, वहीं FCA के प्रस्तावित संशोधन भारत के बचे-खुचे जंगलों को पूँजीपतियों के लाभ के लिए उपलब्ध कराने के प्रयास है। इस तरह एक तरफ जंगल खुले हाथों पूँजीपतियों के दोहन के लिए बांटे जा रहे वहीं दूसरी ओर पर्यावरणविद तुलसी गौड़ा को पद्मश्री से नवाजा भी जा रहा है। ऐसे सांकेतिक कदम पूंजीवाद और सत्ता का हित कई तरह से साधते हैं – आदिवासी समुदाय, जो जलवायु संकट की सबसे ज्यादा मार झेल रहा,उसका तुष्टीकरण; सरकार के पर्यावरण संरक्षण के प्रति “गंभीरता” का प्रदर्शन; और सबसे अहम यह कि जलवायु संकट के प्रश्न से पूंजीवाद से ध्यान हटाकर वृक्षारोपण जैसे आदर्शवादी समाधानों का प्रचार करना।

निष्कर्ष


हम देखना चाहें अथवा नहीं, जलवायु परिवर्तन एक सच्चाई है और ठीक इसी तरह हम स्वीकारे अथवा नहीं, पूंजीवाद जलवायु संकट का सबसे बड़ा अपराधी है। जैसे-जैसे पूंजीवाद का संकट गहराता जाएगा, जलवायु संकट का हल निकालना उतना ही चुनौतीपूर्ण होगा। हम वाकई में आपातकाल जैसी स्थिति में जी रहे हैं। दोनों संकटों – जलवायु और पूंजीवादी – को स्वीकारना और उसके प्रति सचेत होना समय की मांग है। सरकार, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और पर्यावरणविदों द्वारा परोसे जा रहे आदर्शवादी समाधानों की राजनीति को समझना होगा। तेज़ होते वर्ग संघर्ष के इस दौर में अगर धरती को वर्तमान आपातकाल से निकालना है तो हमारे पास एकमात्र रास्ता वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को धाराशायी करना है।