हरिद्वारधर्म संसदसे फासीवाद के नंगे नाच का खुला ऐलान

January 16, 2022 0 By Yatharth

शासन की आपराधिक चुप्पी उसका चरित्र बता रही है

एस वी सिंह

‘हिन्दू स्वाभिमान’ की रक्षा और हिन्दू युवाओं को ‘आत्म रक्षा’ के लिए ‘धर्म सेना’ के गठन के उद्देश्य से हरिद्वार में 16 से 19 दिसम्बर को ‘धर्म संसद’ का आयोजन हुआ. कितना भी जोर पड़े, इस जमावड़े में दिए गए ज़हरीले बयानों की बानगी से ही शुरुआत करनी होगी.

शस्त्रमेव जयते, मुस्लिमों के आर्थिक बहिष्कार से काम नहीं चलेगा उनका सफ़ाया करना पड़ेगा, तलवारें मंचों पर ही अच्छी लगती हैं. ये लड़ाई बेहतर हथियारों वाले ही जीतेंगे, तलवारों से भी काम नहीं चलेगा, हिन्दुओं को हथियारों के मामले में खुद को अपडेट करने की ज़रूरत है, तलवारों के साथ दूसरे हथियार भी उठाने पड़ेंगे. म्यांमार की तर्ज़ पर मुस्लिमों नस्लीय कत्लेआम होना चाहिए, सफाई अभियान चलाना पड़ेगा, संविधान बदल दिया जाना चाहिए, महात्मा गाँधी को नहीं बल्कि नाथूराम गोडसे को नायक बनाया जाना चाहिए, युवाओं को अपने हाथों से किताबेंकॉपियां फेंककर शस्त्र उठा लेने चाहिएं, 20 लाख लोग मरेंगे तब समझ आएगा हिन्दू क्या हैं, या तो खुद मरने को तैयार रहो या मारने को तैयार रहो दूसरा कोई विकल्प नहीं है, मैं संसद में होती तो मनमोहन सिंह को गोली मर देती, जिसने भी क़ुरान समझा हुआ है, वो जिहादी है और हिन्दुओं को हथियार उठाने होंगे और हर ज़िहादी का सफ़ाया करना होगा. हथियार उठाओ, युद्ध करोक्या सब तैयार हैं, बोलो तैयार हैं या नहीं?”

 दस आयोजकों और ज़हरीले वक्ताओं जिनके नाम हरिद्वार के ज्वालापुर थाने में एफ आई आर में दर्ज हैं उनके नाम इस तरह हैं ; वसीम रिज़वी उर्फ़ जीतेन्द्र नारायण त्यागी, प्रबोधानंद गिरी, यति नारासिन्हानंद उर्फ़ दीपक त्यागी, पूजा शकुन पाण्डेय अन्नपूर्णा देवी, सिन्धु सागर, धर्मदास, परमानन्द, आनंद स्वरूप अश्वनी उपाध्याय, सुरेश चौहानके (सुदर्शन टी वी).

हरिद्वार के बाद 20 दिसम्बर को दिल्ली, 26 दिसम्बर को रायपुर और 2 जनवरी को गाज़ियाबाद में वैसे ही जमावड़े आयोजित हुए जिनमें बिलकुल हरिद्वार की तरह ही मुसलमानों के नरसंहार, गोडसे द्वारा गाँधी की हत्या को उचित ठहराना और भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करते हुए मौजूदा संविधान का भगवाकरण करने का प्रण लिया गया. “ऐलान हरिद्वार से हो चुका है अब हिन्दुओं को किस बात का इन्तेज़ार है? मोदी ने नारा दिया है स्वच्छ भारत, हमारा नारा है पवित्र भारत. हम जेहादियों को मारकर भारत भूमि को पवित्र बनाएँगे.” इसके बाद 23 जनवरी को अलीगढ और उसके बाद देश भर में अनेकों जगह वैसी ही ‘धर्म संसदें’ आयोजित होने का ऐलान हो चुका है.

कार्यवाही के नाम पर उत्तराखंड का मुख्य मंत्री उसी ‘धर्म संसद’ में पूरी बेशर्मी के साथ इन रक्त पिपासु ‘संतों’ के पांव छूता देखा गया. हैरानी है कि उसका नाम एफ आई आर में नहीं है. उसके बाद उत्तराखंड पुलिस की क्या मजाल थी कि किसी को गिरफ्तार करती. पटना उच्च न्यायलय की न्यायाधीश अंजना ओमप्रकाश और पत्रकार कुरबान अली की याचिका पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एस आई टी का गठन किया है. अभी तक सिर्फ़ रायपुर जमावड़े के आरोपी कालीचरण और रिज़वी उर्फ़ त्यागी की ही गिरफ़्तारी हुई है.   

वैसे तो भगवा वेश भूषा में छुपे खांटी अपराधी, बलात्कारी और ठग 2014 से ही सरकारी संरक्षण पा रहे हैं. पुलिस द्वारा गिरफ्तार हो जेल की कोठरियों में आजीवन बन्द होने की जगह पुलिस सुरक्षा घेरे में नवाबी अंदाज़ में विचरण करते आ रहे हैं लेकिन इस बार हरिद्वार में एक नया प्रयोग आज़माया गया है. पहले ये ठग मुस्लिम विरोधी, संविधान विरोधी, महिला विरोधी, दलित विरोधी ज़हर उगलने के बाद गिरफ़्तारी से बचने के लिए कैमरे के सामने अपने बयान से मुकर जाते थे और पुलिस प्रशासन को, जो असलियत में इस आपराधिक कृत्य में षडयंत्रकारी की भूमिका में रहता आया है, कोई कार्यवाही ना करने का बहाना दे दिया करते थे लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. ये पहली बार हुआ कि मुसलमानों का नरसंहार करने, 20 लाख लोगों को मार डालने, नस्ली नरसंहार (Racial cleansing) का आह्वान और युवाओं को हथियार उठाने के लिए भड़काने के बाद कैमरे-रिकॉर्डर के सामने और हरिद्वार से वापस अपने-अपने आपराधिक अड्डों, अखाड़ों में पहुंचकर भी बिलकुल उन्हीं बातों को दोहराया गया है. संलिप्त अपराधी की भांति पहले तो उत्तराखंड पुलिस पूरी बेशर्मी से ये कहती रही कि ‘हम घटना पर नज़र जमाए हुए हैं’ मानो कह रहे हों कि वे चौकस हैं कि इन ज़हरीले ‘धर्माचार्यों’ को कोई असुविधा तो नहीं हो रही लेकिन बाद में कार्यवाही का दिखावा करते हुए रिज़वी उर्फ़ त्यागी को आरोपी बनाया गया, उसके बाद अनमने ढंग से कुछ नाम जोड़े गए और अंत में ‘जाँच’ के लिए एक पांच सदस्यीय एसआईटी नियुक्त कर दी गई है. ‘जाँच जारी है’ लेकिन नरसंहार का खुला ऐलान करने वाले अपने बयानों पर क़ायम हैं और छुट्टे घूम रहे हैं अभी तक रिज़वी उर्फ़ त्यागी को छोड़ कोई भी गिरफ्तार नहीं हुआ है. इतना ही नहीं ये मुस्टंडे ‘संत’ 16 जनवरी को हरिद्वार में उनके विरुद्ध हुई पुलिस रिपोर्ट के विरुद्ध प्रतिकार मार्च की योजना बना रहे हैं.        

नरसंहार (Genocide) का आह्वान करना भी मानवता के विरुद्ध वैसा ही जघन्य अपराध है जैसा नरसंहार करना

जीनोसाइड/ नरसंहार (ethnic cleansing) शब्द इन भारतीय फासिस्टों के इटली और जर्मन पूर्वजों की ही देन है. जेनोसाइड शब्द को पहली बार पोलैंड के वकील रफेल लेमकिन ने अपनी पुस्तक ‘Axis Rule in Occupied Europe’ में इस्तेमाल किया था. कृपया याद रखें, पोलैंड ने नाज़ी ज़ुल्मों की सर्वोच्च भयावहता को झेला था. ग्रीक शब्द ‘genos’ का अर्थ है ‘नस्ल’ और ‘cide’ का अर्थ है ‘मार डालना’. समूची नस्ल को ही मार डालना, सिर्फ़ इसीलिए कि वे लोग उक्त नस्ल वाले हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ ने जेनोसाइड/ नरसंहार को 1946 में एक अलग सबसे गंभीर प्रकार का अपराध घोषित किया और 1948 में पेरिस में जेनोसाइड कन्वेंशन हुई जिसमें दुनियाभर के 149 देशों ने भाग लिया जिमें भारत भी था. जेनोसाइड को मानवता के विरुद्ध अपराध घोषित करते हुए एक विशेष प्रस्ताव पारित हुआ जिसे उन देशों पर भी लागू माना गया जिन्होंने उस कन्वेंशन में भाग नहीं लिया था और उस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर नहीं किए थे. कन्वेंशन के आर्टिकल II में जेनोसाइड को इस तरह परिभाषित किया गया, “किसी भी राष्ट्रीयता, नस्ल, जातीयता अथवा धार्मिक समूहों को सम्पूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से समाप्त करने के लिए निम्न में से कोई भी एक या एक से अधिक कार्य करना”:

  1. किसी समूह के सदस्यों की हत्या करना
  2. किसी समूह के सदस्यों को गंभीर मानसिक अथवा शारीरिक आघात पहुँचाना
  3. किसी भी समूह के सम्बन्ध में जान पूछकर, सोच समझकर ऐसी परिस्थिति निर्मित करना जिससे वह समूह पूरे का पूरा अथवा आंशिक रूप से नष्ट हो जाए
  4. ऐसे उपाय करना जिससे उक्त समूह में आगे बच्चे पैदा होने ही बंद हो जाएँ
  5. उक्त समूह के बच्चों को ज़बरदस्ती छीनकर दूसरे समूह को सोंप देना

कन्वेंशन के तहत दुनिया का हर देश, वो भी जिन्होंने 1948 में उस पर दस्तख़त नहीं किए थे, जेनोसाइड के जघन्य अपराध में लिप्त लोगों या समूहों पर कठोर कार्यवाही करने को बाध्य होगा और अगर वो ऐसा नहीं करता है तो उस देश के विरुद्ध पीड़ित समूह या उस समूह की तरफ से कोई भी व्यक्ति न्याय के अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय (International Court of Justice, Hague) में जा सकता है. हरिद्वार में 17, 18 और 19 दिसम्बर को हुई ज़हरीली संसद में जितने लोगों ने भी भाषण दिए वे सब जेनोसाइड कन्वेंशन की धारा B और C के तहत मानवता के विरुद्ध एक जघन्य अपराध के कसूरवार हैं.

 26 दिसम्बर को सुप्रीम कोर्ट के 76 सुविख्यात वकीलों ने देश के मुख्य न्यायाधीश को लिखा कि “हरिद्वार ‘धर्म संसद’ में जो भाषण हुए उनसे ना सिर्फ़ देश की एकता अखंडता को गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है बल्कि सारे मुस्लिम समुदाय की जान खतरे में है. ये भाषण  कोई अकेली घटना नहीं है बल्कि एक विस्तृत घिनौनी श्रंखला का हिस्सा हैं. सुप्रीम कोर्ट को तुरंत स्वत: संज्ञान (suo moto) लेते हुए कठोर कार्यवाही करनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने भी सुप्रीम कोर्ट में जन हित याचिका दायर कर कहा, “हरिद्वार ‘धर्म संसद’ में मुस्लिम समाज के नरसंहार के लिए हिन्दू युवाओं को आह्वान करने वाले और ‘धर्म संसद’ आयोजित करने वाले पुलिस और न्यायव्यवस्था की परवाह क्यों नहीं करते? क्योंकि वे जानते हैं कि सरकार और पुलिस उनके साथ है. असलियत में ये सरकार की भागीदारी से ही हुआ है.” उन्होंने कहा कि देश के हर ज़िले में ‘भाई-चारा कौंसिल’ गठित हों. सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की कि इस ज़हरीले ज़मावाड़े में भाग लेने वालों और आयोजकों की तुरंत यू ए पी ए के तहत गिरफ्तारियां हों. 7 जनवरी को देश के 183 शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, प्रोफेसरों और विद्वानों ने, जिनमें आई आई एम अहमदाबाद और बैंगलोर के प्राध्यापक भी शामिल हैं, प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा कि आपकी चुप्पी हृदयविदारक है, नफरतियों-उन्मादियों के हौसले बढ़ा रही है. ये लोग संविधान की भावनाओं को कुचल डाल रहे हैं और समाज को खण्ड- खण्ड करने पर उतारू हैं, उन्हें देश के क़ानून का बिलकुल भय नहीं है. चुप रहना पर्याय है ही नहीं. बड़बोले शेखीबाज प्रधानमंत्री मौन हैं.

यहाँ एक घटना का उल्लेख कितना प्रासंगिक है? शानदार किसान आन्दोलन चल रहा था. सीमाओं पर किसान आन्दोलनकारी शांतिपूर्ण अनुशासित आन्दोलनकारी बैठे हुए थे. एक सरकारी कर्मचारी को अपने दफ़्तर पहुँचाने में दिक्कत हुई क्योंकि किसानों ने हाई वे पर रुकावटें खड़ी की हुई हैं. उसने वो खबर सोशल मीडिया में डाली. सुप्रीम कोर्ट ने विलक्षण संवेदनशीलता दिखाते हुए कोरोना की परवाह ना करते हुए सुनवाई शुरू कर दी. सुप्रीम कोर्ट की ऐसी संवेदनशीलता सिर्फ़ तब ही क्यों नज़र पड़ती है जब वो सरकार को राहत पहुँचाने वाली होती है और तब नहीं जब कटघरे में खुद केंद्र सरकार को खड़ा किया जाना हो? ये एक विचारणीय प्रश्न है. सुप्रीम कोर्ट में कुल 31 जज हैं और सभी को बराबर अधिकार प्राप्त हैं. कोई भी किसी अहम खबर का स्वत: संज्ञान लेकर जाँच शुरू करने का फैसला कर सकता है और रोअस्टर के अनुसार जाँच शुरू हो जाती है. अभी तक के आज़ाद भारत में इस तरह के जनसंहार का खुला ऐलान कभी नहीं हुआ. इतना ही नहीं सारे विडियो मौजूद हैं, भाषणों की सारी रिकॉर्डिंग मौजूद है, सुप्रीम कोर्ट के वकील, शिक्षाविद, वैज्ञानिक, पत्रकार चिल्ला थे. देश भर में ही नहीं, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन की सांसदों में ये मुद्दा गूंजा, दुनियाभर के मीडिया ने इसे रिपोर्ट किया तब जस्टिस अंजना ओमप्रकाश और पत्रकार कुरबान अली की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने दखल ली और इस अभूतपूर्व भयानक फासीवादी हमले की जाँच सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में ली है लेकिन अभी तक (15 जनवरी) तक सिर्फ़ रिज़वी उर्फ़ त्यागी की ही गिरफ़्तारी हुई है.    

ग़ैर कानूनी गतिविधि प्रबंधन क़ानून, यूएपीए  (Unlawful Activities Prevention Act, UAPA) एक ऐसा काला कानून है जिसमें गिरफ़्तारी होने के बाद व्यक्ति को ज़मानत भी तब तक नहीं मिलती जब तक सरकार ना चाहे. ‘सत्यमेव जयते’ की जगह ‘शस्त्र्मेव जयते’ लिखे जाने के नारे लगाना, तलवारों से काम नहीं चलने वाला हिन्दुओं को हथियारों को अपडेट करना पड़ेगा,  युवाओं को किताब कॉपियां फेंककर हथियार उठाने को उकसाना, पूर्व प्रधानमंत्री को संसद में ही गोली मार देने, 20 लाख मुस्लिमों को मार डालने के नारे लगवाना, उनकी नस्ल का ही सफ़ाया कर डालने की खुली चुनौती देना जैसा म्यांमार में हाल में हुआ और जैसा इटली-जर्मनी में हो चुका है, संविधान को पैरों तले रौंदकर हिन्दू राष्ट्र की घोषणा करना; इनमें कोई भी अपराध ‘ग़ैर कानूनी गतिविधि’ नहीं माना गया, हरिद्वार के नरसंहार के अपराधियों के विरुद्ध हुई एफआईआर में यू ए पी ए के प्रावधानों को नहीं लगाया गया लेकिन दूसरी ओर किन गतिविधियों गैरकानूनी माना गया, किन ‘अपराधियों’ को इस क़ानून के तहत जेलों में सडाया जा रहा है; पड़ताल ज़रूरी है. पिछले तीन सालों को ही मद्देनज़र रखें तो पहला ‘खूंख्वार अपराधी’ जिसे यूएपीए में 02.09.2017 से  01.09.2020 तक जेल में रखा गया उनका नाम डॉ क़फील खान है जो गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में बाल रोग विशेषज्ञ थे. उस अस्पताल में हर साल बरसात के सीजन में सैकड़ों बच्चे बुखार से मरते हैं. 2017 में ऑक्सीजन की कमी से भी बच्चे तड़प तड़प कर मर रहे थे. सरकार ऑक्सीजन की व्यवस्था नहीं कर रही थी. डॉ क़फील से ना रहा गया और वे खुद अपने पैसे से अपनी गाड़ी में ऑक्सीजन सिलिंडर ले आए. ‘हिन्दू ह्रदय सम्राट’ मुख्यमंत्री आग बबूला हो गए क्योंकि इससे उनकी ‘प्रतिष्ठा’ को बट्टा लग गया. अदालत ने माना कि डॉ क़फील बिलकुल बेक़सूर हैं उनके ख़िलाफ़ कोई मुक़दमा बनता ही नहीं लेकिन फिर भी यू ए पी ए लगाकर बेक़सूर इन्सान को तीन साल जेल में रखने वालों के विरुद्ध कुछ नहीं बोला गया. एक पत्रकार ने, स्कूलों में मिड डे मील में पौष्टिक भोजन के नाम पर रोटी और नमक दिया जा रहा था, ये ख़बर फोटो सहित छाप दी और पुलिस ने उन्हें दबोच लिया, यूएपीए लग गया. कोरोना महामारी में रोज़ ऑक्सीजन की कमी से तड़प तड़प कर मर रहे थे, मुख्यमंत्री ऐलान कर रहे थे , कोई भी ऑक्सीजन की कमी की बात करे तो यूएपीए में अन्दर डालो!! सिद्दीक क़प्पन नाम के केरल के एक पत्रकार 5 अक्टूबर से यूएपीए में जेल बंद हैं, क़सूर; एक दलित महिला का बलात्कार हुआ, उनकी हत्या हुई और पुलिस ने उनका अन्तिम संस्कार रात में घर वालों को बिना बताए कर दिया और इस पत्रकार ने इस घटना को रिपोर्ट करने के लिए घटना स्थल पर जाने की ‘जुर्रत’ की!! उमर खालिद 14.09.2020 से यूएपीए में बंद हैं, उनका क़सूर क्या है किसी को नहीं मालूम, कोर्ट भी कह चुकी है उनका कोई क़सूर नहीं. फादर स्टेन स्वामी नाम के एक 84 साल के एक बीमार, कमजोर वृद्ध जो चम्मच भी हाथ में नहीं संभाल सकते, पानी भी अपने हाथ से उठाकर नहीं पी सकते झारखण्ड के आदिवासियों में सामाजिक काम करते थे. उन्हें ‘भीमा कोरेगांव मामले’ में आरोपी बताकर 8.10.2020 को ‘उठा’ लिया गया, यूएपीए लगा, सारा देश चिल्लाया कि छोड़ दो, निज़ाम टस से मस नहीं हुआ, 05.07.2021 को उनकी लाश ही जेल से बाहर आई. बिलकुल वैसा ही सलूक उनके जैसे बीमार वरवरा राव के साथ किया जा रहा है. उन्हें अनगिनत बीमारियाँ हैं, 86 वर्ष के हैं, मल-मूत्र पर भी शारीरिक नियंत्रण खो चुके हैं. उन्हें ज़मानत नहीं मिली, पेरोल मिला है जिसकी मियाद 15-15 दिन बढाई जा रही है जिससे तलवार सर पर लटकती रहे, सतत तनाव में रहें. उनकी यू ए पी ए से मुक्ति मर कर ही होनी है. अमेरिकी कंपनी ‘आर्सेलर कंसल्टेंसी’ ये साबित कर चुकी है कि भीमा कोरेगांव मामला पूरे का पूरा ही फ्रॉड है क्योंकि आरोपियों के ई मेल हैक कर सालों तक उनमें वायरस डालकर आरोप प्रत्यापित किए गए हैं. ये लिस्ट बहुत लम्बी है और बढ़ती ही जा रही है. साथ ही पिछले साढ़े सात सालों  में ‘दुनिया के स्वयं घोषित सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का जनवादी पतन इस स्तर तक हो चुका है कि ये सब अब रोज़ मर्रा की बातें बन गई हैं, इन्हें रिपोर्ट करना, पढ़ना भी अब उबाऊ होने लगा है!! अभी भी, लेकिन, कुछ वामपंथी धुरंधर यहाँ मौजूद हैं जो कालर ऊँची कर बोलते पाए जाते हैं, ‘हमारे देश में जनवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि फासीवाद नहीं आ सकता!!’ मूर्खता की वाक़ई कोई थाह नहीं होती!!

संघ, भाजपा, मठों, अखाड़ों, आश्रमों के पास इतना अकूत धन कहाँ से रहा है?  

हरिद्वार में हुए फासीवाद के इस नंगे नाच को अत्यंत गंभीरता से लेते हुए इसके हर आयाम को समझने, परखने की ज़रूरत है. ये अब मामूली फोड़ा नहीं रहा, एक भयानक नासूर बन चुका है. जब भी कोई सरकारी इदारा बिकने वाला होता है, देश का ‘जेंटल मेन कॉर्पोरेट’ रतन टाटा नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मुख्यालय में मत्था टेकने क्यों जाता है? मुकेश अम्बानी-गौतम अडानी नाम के धन पशुओं, मगरमच्छों की इतनी हिम्मत कैसे हो जाती है कि वो 140 करोड़ लोगों के बलशाली प्रधानमंत्री के कंधे पर हाथ रख सके या उनकी कमर पर हाथ घुमा सके जबकि किसान अगर उनसे एक किलोमीटर दूर हों तब भी प्रधानमंत्री की जान को खतरा पैदा हो जाता है? चुनावी बांड्स किसने दिए, कितने दिए, क्यों दिए, कब दिए; आर टी आई के तहत भी ये जानना देश की सुरक्षा को ख़तरा कैसे बन जाता है? ‘पी एम केयर फण्ड’ नाम की सरकारी संस्था एक चेरिटी ट्रस्ट कैसे बन गई? अगर पी एम केयर फण्ड एक चैरिटी ट्रस्ट है तो उसमें दिया गया पैसा कॉरपोरेट्स दाताओं द्वारा ‘पूंजीपतियों की सामाजिक ज़िम्मेदारी (!!)’ वाली आवश्यक रूप से दी जाने वाली मुनाफ़े की 1% रक़म में क्यों गिना जाता है, वह तो सरकारी खाते में जमा होने पर ही गिना जाना चाहिए? ये ठग कॉर्पोरेट कौन सी सामाजिक ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं, सब जानते हैं!!  सरकारी ठेकों में भागीदारी के लिए सरकारी संस्था सीपीडब्लूडी द्वारा तय मापदंडों की धज्जियाँ इसलिए उड़ाई गईं जिससे गौतम अडानी की कंपनी को ही देश के एयरपोर्ट्स के रखरखाव के सारे ठेके मिलें, क्या ये कथन ग़लत है? ऐसे जाने कितने सवाल हैं जो देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं, भले वे जुबान से बाहर नहीं आ पा रहे क्योंकि इन सवालों के जवाब में ही इस सबसे अहम सवाल; संघ, भाजपा, मठों, अखाड़ों, आश्रमों के पास इतना अकूत धन आ कहाँ से रहा है, का उत्तर छुपा हुआ है. इन सवालों के जवाब से ही पता चलेगा कि भाजपा के हर शहर में महलों जैसे दफ्तर 2014 के बाद कैसे खड़े हो गए? किसी भी भाव एमएलए, एमपी खरीदने के लिए सत्ताधारी दल के पास पैसे कम क्यों नहीं पड़ते? आरएसएस और भभूत लगाए विभिन्न अखाड़ों के मुस्टंडे मठाधीश-महामंडलेश्वर देश भर में हवाई जहाजों से कैसे उड़ते फिरते हैं, पंच सितारा सुविधाओं में हफ़्तों तक चलने वालीं विशाल सभाएं, ‘धर्म संसदें’ कैसे कर पाते हैं जबकि देश का सारा उत्पादन-निर्माण करने वाले मज़दूरों को हजारों मील पैदल चलना या चलते-चलते मर जाना होता है? 

दंगाईयों, उन्मादियों को धन उपलब्ध कराना अत्यंत गंभीर मसला है. धन उपलब्ध कराने वालों को षडयंत्र में शामिल माना जाना ज़रूरी है. देश का पूंजीपति वर्ग खास तौर पर इजारेदार कॉर्पोरेट, वैसे तो सभी बुर्जुआ दलों को अपनी लूट का एक हिस्सा देकर पालता-पोषता है लेकिन पिछले 8 साल में कॉर्पोरेट ने आरएसएस और उसकी राजनीतिक जत्थेबंदी भाजपा के लिए अपनी तिजोरियां खोल कर रख दी हैं. मानो, कह रहे हों, कि जितना मर्ज़ी समाज को बाँटिए, 20 लाख अल्पसंख्यकों को मार डालिए, नरसंहार कर डालिए लेकिन हमारा मुनाफ़ा जब तक बढ़ा रहे हैं, प्राकृतिक संसाधनों को भम्भोड़ाने के लिए जब तक हमें सौंपते जा रहे हैं, सरकारी इदारों को सटक जाने के लिए हमें अर्पित करते जा रहे हैं, आपको पैसे की कोई कमी नहीं होने देंगे!! कॉर्पोरेट समूह, उन्मादियों-नफरतियों को सिर्फ़ पैसा देकर ही मदद नहीं कर रहे, हर तरह से मदद कर रहे हैं. अधिकतर टी वी चेनल मुकेश अम्बानी ने ख़रीद लिए हैं, इन पर हर वक़्त संघ और भाजपा का नफरती अजेंडा, मोदी कीर्तन क्यों चालू रहता है? क्या कभी भी अपने रोज़गार खोते जा रहे, मंहगाई के पहाड़ तले कुचले, पिसे जा रहे लोगों के जीवन-मरण के मुद्दों पर, शिक्षा के बाज़ारीकरण पर, उसे मंहगा कर आम आदमी के बच्चों की पहुँच से बाहर किए जाने पर बहस-डिबेट होती देखी हैं. इतिहास गवाह है कि जब हिटलर, यहूदियों, कम्युनिस्टों को गैस चैम्बर में डाल रहा था तब जर्मनी का कॉर्पोरेट नाजियों पर धन वर्षा कर रहा था, अपनी फक्ट्रियों के दरवाजे मारक दस्तों की ट्रेनिंग के लिए खोल दे रहा था. बच्चों के खिलौने बनाने वाले कारखाने भी तोपें और बम बनाने लग पड़े थे. जर्मन कॉर्पोरेट गोला बारूद सप्लाई कर खुश हो रहा था. ‘कोई बात नहीं करोड़ों लोगों को मरने दो लेकिन हिटलर हमारे लूटने के लिए दुनियाभर का बाज़ार उपलब्ध करा रहा है, हमें उसके हाथ मज़बूत करने चाहिएं!!’ क्या परिणाम हुआ? जर्मनी, इटली और जापान में आज कोई भी बिल्डिंग 1945 से पहले की मौजूद नहीं है, सबको राख के ढेर में बदल दिया गया था. जर्मनी के राष्ट्रीय  शर्म के प्रतीक हिटलर के बंकर को ढक दिया गया है, उसके ऊपर कार पार्किंग बन चुकी है. हिटलर का नाम आने से जर्मनी के लोग शर्म से सर झुका लेते हैं. मुसोलिनी की तो लाश को खम्बे से उल्टा लटकाकर रखा गया था जिससे लोग उसके मुंह पर थूक सकें, घृणा से लोग उसके मुंह में मूत सकें. उसकी डेड बॉडी को भी लोग गोलियां मारते जा रहे थे. जर्मनी हो या इंडिया, फासीवाद मरते-सड़ते पूंजीवाद की ज़रूरत के तौर पर आता है. पूंजीवाद-साम्राज्यवाद को दफ़न किए बगैर इस रोग से छुटकारा नहीं.

मुस्लिम नरसंहार का ऐलान करने वालों पर कार्यवाही के लिए क्या मज़दूर वर्ग भी प्रधानमंत्री को चिट्ठियां लिखता बैठे?          

सोते हुए इन्सान को जगाया जा सकता है लेकिन जो जागा हुआ हो, मुंह पर कम्बल ओढ़कर सोने का ढोंग कर रहा हो, काइयां हो, उसको कैसे जगाईयेगा? ऐसी स्थिति में क्या सिर्फ़ चिट्ठियां लिखने से वो जाग जाएगा? सुप्रीम कोर्ट के 76 वकीलों ने चिट्ठियां लिखीं, 124 शिक्षाविदों ने गुहार लगाई, मीडिया का एक हिस्सा सरकार और सुप्रीम कोर्ट पर कोई कार्यवाही ना करने के लिए लानतें मलानातें डालता रहा, देश में ही नहीं विदेशों में भी जहाँ जाते ही प्रधानमंत्री को तुरंत बुद्ध याद आ जाते हैं, लानत भरे लेख छपते रहे, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन की सांसदों में मोदी से सम्बन्ध रखने के लिए अपने प्रधानमंत्रियों को लताड़ा जाने लगा, तब सुप्रीम कोर्ट ने कार्यवाही करने की बात कही लेकिन प्रधानमंत्री का मुंह उन ज़हरीले मुस्टंडों, मठाधीशों, अखाड़ेबाजों पर कार्यवाही करने को फिर भी नहीं फूटा. वैसे भी वो ‘कड़ी निंदा’ कर दे या ‘क़ानून अपना काम करेगा’ बोल दे तो कौन सा फर्क पड़ने वाला है? सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करेगा लेकिन क्या इससे ये फासीवादी ब्रिगेड अपना अजेंडा छोड़कर पीछे हट जाएगी? फासीवाद एक गंभीर रोग है, जिसे सड़ती हुई व्यवस्था अपनी ख़ुशी में नहीं बल्कि अपनी निश्चित मौत से बचने के लिए इस्तेमाल करती है. इसकी कई परतें होती हैं. हरिद्वार, दिल्ली, गाज़ियाबाद और रायपुर में भगवे कपडे पहने आग उगलते ज़हरीले मठाधीशों को पहचानना आसान है लेकिन इनके असली आकाओं, सूत्रधारों तक पहुंचना मुश्किल है और उसके बगैर इस रोग को समूल नष्ट नहीं किया जा सकता. रजनी पाम दत्त ने फासीवाद का बहुत वस्तुगत अध्ययन किया था जो आज भी सटीक है. “चीखते-चिल्लाते महत्वोनमादियों, गुंडों, शैतानों और स्वेछाचारियों की यह फौज जो फासीवाद के ऊपरी आवरण का निर्माण करती है, उसके पीछे वित्तीय पूंजीवाद के अगुवा बैठे हैं जो बहुत ही शांत भाव, साफ सोच और बुद्धिमानी के साथ इस फौज का संचालन करते हैं और इनका खर्च उठाते हैं. फासीवाद के शोर- शराबे और काल्पनिक विचारधारा की जगह उसके पीछे काम करने वाली यही प्रणाली हमारी चिंता का विषय है. और इसकी विचारधारा को लेकर जो भारी भरकम बातें कही जा रही हैं उनका महत्त्व पहली बात, यानी घनघोर संकट की स्थितियों में कमजोर होते पूंजीवाद को टिकाए रहने की असली कार्यप्रणाली के सन्दर्भ में है.”  

नेक नीयत, भले मानुस, मध्यम वर्गीय उदारवादियों को भी एक बात समझने का वक़्त आ गया है कि उनकी संभ्रांतता अब ख़तरे में है. फ़ासीवाद बहुत हिंसक और ज़ालिम व्यवस्था है. अदालतों को ‘कठोर कार्यवाहियां’ करने और प्रधानमंत्री को, जिनकी सरपरस्ती में ये सारा खेल चल रहा है, चुप्पी तोड़ने की गुहार का इस पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बेहतर होगा देश का तटस्थ समुदाय और संभ्रांत उदारवादी विद्वान समूह अंग्रेजी फिल्म ‘शिंडलरस लिस्ट Schindler’s List)’ देखे जिससे इस हिंसक शासन व्यवस्था, फासीवाद के बारे में किसी को कोई मुगालता ना रहे. इस व्यवस्था में यदि आप ख़ूनी फासिस्टों के ख़ूनी खेल का अंग नहीं हैं तो आप उनके दुश्मन हैं और आपको ख़त्म किया जाना चाहिए. प्रख्यात पादरी मार्टिन निमोलर ने वो कालजयी कविता यूँ ही नहीं लिखी थी. फासिस्ट वाक़ई एक एक कर सबके लिए आते हैं और तटस्थ रह तमाशा देखने वालों का जब नम्बर लगता है तब उन्हें बचाने वाला कोई नहीं होता. फासीवाद को शासक पूंजीवादी वर्ग अपनी ख़ुशी के लिए नहीं लाता. पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को मरणासन्न संकट से बचाने का ये आखरी उपाय है. सतत सड़ती जा रही इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था का मुक्तिदाता सर्वहारा वर्ग है. इंसानियत, न्याय और श्रम का सम्मान करने वाला युग, समाजवाद मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में ही आएगा लेकिन मध्यम वर्ग की उसमें कोई भूमिका नहीं, ऐसी बात नहीं है. मध्यम वर्ग, उदारवादियों को सबसे पहले मज़दूर वर्ग के प्रति वर्ग प्रतिबद्धता प्रस्थापित करना ज़रूरी है. आज का सबसे अहम कार्य है मज़दूरों को सजग, सचेत और क्रांतिकारी विचारधारा से लैस कर संगठित करना. इस कार्य को हमेशा ही मध्यम वर्ग के सजग-सचेत मज़दूर हितों से अटूट रूप से प्रतिबद्ध समुदाय ने किया है. मौजूदा व्यवस्था में जनवादी स्पेस को बचाने के लिए भी संघर्ष करना आवश्यक है, सुप्रीम कोर्ट-प्रधानमंत्री को चिट्ठियां लिखना, निडर होकर उनसे सवाल पूछे जाना भी ज़रूरी है. मध्यम वर्गीय उदारवादियों को ये काम ज़ारी रखने के साथ ही ठोस वस्तु स्थिति को जानते-समझते हुए मज़दूर वर्ग के साथ एकजुट हो उसे जागृत और शिक्षित करने को अपना पहला अजेंडा बनाना होगा.

मज़दूर वर्ग को फासीवाद के विरुद्ध इस लड़ाई को जीतना ही होगा. प्रिय नेता क्लारा जेटकिन के शब्दों में फासीवाद, मज़दूरों द्वारा इस सड़ती व्यवस्था को दफ़न ना कर पाने की ही सज़ा है. शानदार किसान आन्दोलन की सबसे अहम सीख है कि उसने एक सच्चाई निर्विवाद प्रस्थापित कर दी कि असली ताक़त संसद या प्रधामंत्री कार्यालय में नहीं बल्कि सड़कों में है. बहुमत के नशे में मदहोश स्वयं घोषित महाबलियों को भी हाथ जोड़कर मुंह लटकाकर टी वी पर आकर माफ़ी मांगकर क़ानून वापस लेने पड़ते हैं. फ़ासीवाद के पहले फोड़े को पके हुए पूरे 85 साल हो चुके हैं. तब से इस मानवद्रोही व्यवस्था पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की हालत कहीं अधिक गंभीर और ज़र्ज़र हो चुकी है. हिटलर और मुसोलिनी भी अपने पालतू मारक दस्तों वाले गुमराह युवकों को, भले बारूद फक्ट्रियों में ही क्यों ना हो, किसी हद तक रोज़गार दे सके थे. फासिस्टों की इस मौजूदा नस्ल के बस में उतना भी नहीं है. ये तो सिर्फ़ झाँसे और फरेब, झूठ और पाखंड दे सकते हैं. उसके आलावा हम देख रहे हैं कि मज़दूरों से कोई चुनौती ना मिलने के बावजूद भी व्यवस्था मरी जा रही है, चल नहीं पा रही. बेशर्मी से मज़दूरों के हक़ों को लूटकर और सरमाएदारों को जितना चाहें मज़दूरों का उतना खून निचोड़ने की छूट के बाद भी पूंजीवाद आईसीयू से बाहर आने को तैयार नहीं. व्यवस्था के प्रति आक्रोश सिर्फ़ मज़दूरों-मज़लूमों में ही नहीं बल्कि ‘खाते-पीते’ मध्यम वर्ग से भी फूट पड़ रहा है. क्या कोई सोच सकता था कि ‘जमींदार’ भी कभी दिल्ली की सीमाओं पर पुलिस की लाठी-गोली और बिकट मौसम की परवाह ना कर साल भर पड़े रहेंगे और आगे फिर से आ बैठने के लिए तैयार नज़र आएँगे. ज्यादा से ज्यादा समाज अब राजनीतिक चर्चा-डिबेटों में भाग लेने लगा है. ‘कुछ ना कुछ करना ही पड़ेगा’ बोलता सुना जाने लगा है. तटस्थ, निष्क्रिय रह पाना दिनोंदिन दुश्वार होता जा रहा है. ये सब इस अधमरी व्यवस्था के क़ब्र में जाने के स्पष्ट लक्षण हैं. लुटेरा वर्ग ये सच्चाई बिलकुल नहीं भूल सकता कि पिछले फासीवादी प्रयोग ने ना सिर्फ़ यूरोप को तबाह किया था बल्कि आखिर में उसके परिणाम स्वरूप आधे यूरोप में कम्युनिज्म का लाल झंडा लहराने लगा था. कुछ ही दिनों बाद एशिया में चीन, कोरिया, वियतनाम भी सुर्ख हो गए थे और इसी का अगला परिणाम था कि एक- एक देश अपनी राष्ट्रिय आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए औपनिवेशिक गुलामी से आज़ाद होता चला गया था. इस बार फासीवाद पर अन्तिम फ़तह के बाद बंटवारा आधा-चौथाई नहीं होगा. लुटेरों से कोई पंचायत, कोई हिस्सेदारी नहीं होगी. पूरी की पूरी धरती पर ही लाल लाल लहराएगा. अँधेरा हमेशा के लिए मिटेगा. सर्वहारा के महान नेताओं, शिक्षकों, पथप्रदर्शकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडेरिक एंगेल्स के शब्दों में, मज़दूरों को खोने के लिए उनकी बेड़ियाँ हैं और पाने के लिए सारा संसार.