किसानों द्वारा इस बार मोदी सरकार की वादाखिलाफी के विरूद्ध ‘मोर्चा’ खोले जाने पर
नया अध्‍याय लिखना होगा, नयी इबारत लिखनी होगी

January 17, 2022 0 By Yatharth

संपादकीय

जैसी उम्‍मीद थी वैसा ही होने जा रहा है। किसान फिर से मोदी सरकार के विरूद्ध ‘मोर्चा’ खोलने के लिये तैयार बैठे हैं। संयुक्‍त किसान मोर्चा की आज (15 जनवरी) की बैठक में जो निर्णय लिये गये उससे यही परिलक्षित हो रहा है। इसके पहले भी लगभग वही हुआ जिसकी हमने उम्‍मीद की थी। हमने कहा था कि कृषि कानूनों को संसद द्वारा वापस लिये जाने के निर्णय को मोदी सरकार जल्‍द ही दरकिनार करेगी और बीस दिनों के भीतर ही कृषि मंत्री ने खुलेआम अपनी सरकार की ऐसी मंशा यह कहते हुए घोषि‍त कर दी कि ‘हम दो कदम पीछे हटे हैं लेकिन जल्‍द ही फिर से इसे लेकर आयेंगे।’ हमने यह भी कहा था कि आंदोलन के स्‍थगन के बाद एमएसपी की कानूनी गारंटी पर कानून बनाने की ओर मोदी सरकार कदम आगे नहीं बढ़ायेगी, और आज एक महीने बीत जाने के बाद भी एमएसपी की कौन कहे अन्‍य मांगों, जिनके सरकार द्वारा मान लिये जाने की घोषणा स्‍वयं किसान नेताओं ने की थी और इसी आधार पर आंदोलन को स्‍थगि‍त या वापस किया गया, पर भी सरकार एक कदम तो क्‍या एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी, और न ही बढ़ने की अब तक कोई इच्‍छा जताई है। संयुक्‍त किसान मोर्चा ने 15 जनवरी को हुई बैठक में किये गये विचार मंथन और लिये गये निर्णय के बारे अपने प्रेस बुलेटिन में जो कहा है उससे स्‍पष्‍ट हो गया है कि हमनें 19 दिसंबर के बाद किसानों को चेतावनी देते हुए जो भी फौरी टिप्‍पणियां जारी की थीं वे सब की सब सही थीं और परिस्थितियों के ठोस व सही मुल्‍यांकन पर आधारित थीं। मोचे ने उक्‍त प्रेस बुलेटिन में लिखा है कि

”मोर्चे ने घोर निराशा और रोष व्यक्त किया कि भारत सरकार के 9 दिसंबर के जिस पत्र के आधार पर हमने मोर्चे उठाने का फैसला किया था, सरकार ने उनमें से कोई वादा पूरा नहीं किया है। आंदोलन के दौरान हुए केस को तत्काल वापिस लेने के वादे पर हरियाणा सरकार ने कुछ कागजी कार्यवाई की है लेकिन केंद्र सरकार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल सरकार की तरफ से नाममात्र की भी कोई भी कार्यवाई नहीं हुई है। बाकी राज्य सरकारों को केंद्र सरकार की तरफ से चिट्ठी भी नहीं गई है। शहीद किसान परिवारों को मुआवजा देने पर उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई कार्यवाही शुरू नहीं की है। हरियाणा सरकार की तरफ से मुआवजे की राशि और स्वरूप के बारे में कोई घोषणा नहीं की गई है। MSP के मुद्दे पर सरकार ने न तो कमेटी के गठन की घोषणा की है, और न ही कमेटी के स्वरूप और उसकी मैंडेट के बारे में कोई जानकारी दी है।”

हमें ठीक यही अंदेशा था और यही कारण है कि कृषि कानूनों की वापसी के रूप में किसानों को मिली जीत के ऐतिहासिक महत्‍व को ”यथार्थ” के पन्‍नों में स्‍वर्णाक्षरों में कलमबंद करते हुए भी हमने जीत के जश्‍न में शामिल होने से दृढ़ता से न सिर्फ इनकार कर दिया था, अपितु यह चेतावनी भी जारी की थी कि इसके लिये यह उचित समय या मौका नहीं है। यही नहीं, हमने लड़ाई के अंतिम और एक नाजुक वक्‍त में किसान मोर्चे के द्वारा दिखायी जा रही दृढ़ता में कमी के लिए इसकी आलोचना भी की थी, और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के प्रश्‍न पर पीछे हटने (सड़कों की विजयी लड़ाई को जारी रखने के बदले उसे एक ऐसी कमिटी के अंदर की लड़ाई में बदल देना जिसे एमएसपी की कानूनी गारंटी पर विचार करने या फैसला लेने का अधिकार तक नहीं है, वह भी किसानों की राय की परवाह किये बिना ही, पीछे हटना ही है) को भी जीत बता देने, जब धैर्य और परिपक्‍वता प्रदर्शित करने की पहले से ज्‍यादा जरूरत आई तो इसके चंद नेताओं द्वारा दिखाई जा रही हड़बड़ी और बाकी सब के द्वारा चुप्‍पी बरतने, और संपूर्णता में आंदोलन के स्‍थगन तथा मोदी सरकार के द्वारा कृषि कानूनों की वापसी के बहाने किये जा रहे युद्धविराम के असली मकसद एवं चरित्र के बारे में खुद को मुगालते में रखने, या फिर जानते हुए भी इसके बारे में किसानों को ऐन मौके पर चेतावनी नहीं जारी करने के लिए भी इसको खरी-खरी सुनाई थी। हमने कहा था कि किसानों की यह जीत आगे जीतों के एक अटूट सिलसिले की मांग करती है और तब तक करती रहेगी जब तक कि इन जीतों पर उस अंतिम परिणाम की मुहर न लग जाये जिसके बाद जीत को वास्‍तव में जमीन पर उतारना संभव होगा, यानी जब तक कि बड़ी इजारेदार पूंजी और इसके राज्‍य पर एक निर्णायक जीत दर्ज नहीं कर ली जाती है जो वास्‍तव में पूंजीवादी व्‍यवस्था को पूरी तरह पंगु बनाये बिना या इसे खत्‍म किये बिना संभव नहीं है। यह आज के संकटग्रस्‍त पूंजीवादी युग की खास विशेषता ही है कि किसानों की बदहाली पर आंशिक जीत के लिये भी पूर्ण विजय की ओर बढ़ते जीतों के एक अटूट सिलसिले की जरूरत है जिसकी परिणति‍ मेहनतकश किसानों की भागीदारी वाले सर्वहारा राज्‍य के उदय में होगी। अन्‍यथा, किसानों के सतत उजड़ने की प्रक्रिया को पूंजीवाद और इसकी राज्‍य मशीनरी के रहते रोकना असंभव है और इस तरह के झूठ की वकालत करने का काम ‘यथार्थ” कभी नहीं करेगा। संयुक्‍त किसान मोर्चा ने मोदी पर वादाखिलाफी और विश्‍वासघात का आरोप लगाया है। लेकिन इस वादाखिलाफी के पीछे का मर्म आखिर क्‍या है? हम जिसे वादाखिलाफी कहते हैं (वायदे करना और फिर उसे लागू नहीं करना, या वायदे के बिल्‍कुल विपरीत जाकर आचरण करना), वह दरअसल आज के वित्तीय इजारेदार पूंजीवाद की रहनुमाई कर रहे मुलाजिमों (शासकों) की फितरत ही नहीं मजबूरी भी है। इजारेदार पूंजी की अधि‍कतम मुनाफे की हवस के आगे किसी चीज की कोई कीमत नहीं है, किसी भी अन्‍य वर्ग का कोई मोल नहीं है। अधिकतम मुनाफे की यह हवस आज के पूरी तरह पतनशील तथा पश्‍चगामी पूंजीवाद की स्‍वाभाविक हवस है। आज के दौर में, वित्‍तीय पूंजी के आधिक्‍य से लरजते इजारेदार पूंजीवाद के लिये यह स्‍वाभाविक ही है कि वह किसानों को ही नहीं अन्‍य सभी दरमियानी वर्गों को पूरी तरह तबाह और बर्बाद कर अपनी मुनाफे की हवस मिटाये। इसलिये इसके द्वारा किसानों के बीच किये जा रहे मौत के तांडव को रोकने के लिये स्‍वयं इसके आधिपत्‍य को जड़मूल से खत्‍म करना आवश्‍यक है और यह बात किसानों को हर हाल में बतायी जानी चाहिए। यही कारण है कि हम मानते हैं कि हमने किसान मोर्चे के नेताओं द्वारा उन दिनों प्रदर्शित किये गये ढुलमुलपन और हल्‍केपन की आलोचना कर के, और अपनी क्षमता भर जीत के जश्‍न में डूबरकर भावी लंबी लड़ाई को भूल नहीं जाने की दो-टूक चेतावनी किसानों को जारी करके कोई गलती नहीं की थी। हम आज यह उचित ही दावा कर सकते हैं कि हमने उस समय भी अपनी आंखें खुली रखीं जब जीत के जश्‍न की तेज रोशनी में इनके चौंधिया जाने की पूरी संभावना थी।

15 जनवरी को हुई अपनी पूर्व निर्धारित बैठक में संयुक्‍त किसान मोर्चा ने जो निर्णय लिये हैं उनका कुल मिलाकर मतलब यह निकलता है कि एक बार फिर से किसान मोर्चा ने मोदी सरकार के विरूद्ध मोर्चा खोलने का निर्णय ले लिया है। लेकिन मोर्चा खत्‍म ही कब हुआ था? कम से कम मोदी सरकार की तरफ से तो युद्ध एक दिन के लिए भी नहीं रूका या स्‍थगित हुआ था। जिस दिन (यानी 19 नवंबर 2021 को) मोदी ने कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की थी उस दिन भी नहीं। मोदी सरकार ने युद्धविराम किया ही इसलिए था कि युद्ध जारी रखने के लिये जगह बनायी जाये जो किसान आंदोलन के कारण उससे छि‍न गयी थी। कृषि कानूनों की वापसी वाले मोदी के भाषण के मजमून में ही वह सब कुछ दर्ज या मौजूद था जो आज हो रहा है, यानी जिसे संयुक्‍त किसान मोर्चा आज वादाखिलाफी या विश्‍वासघात कह रहा है उसकी स्क्रिप्‍ट उस भाषण में ही मौजूद थी। मोदी की युद्धविराम की भाषा में ही युद्ध गुंथा था। युद्ध जारी रखने के बारे में स्‍पष्‍ट इशारे छुपे तौर पर मौजूद थे। हमने इस पर बहुत और बारंबार लिखा है।

आंदोलन के स्‍थगन की घोषणा के दिन तक भी संयुक्‍त किसान मोर्चा को यह सब क्‍यों नहीं दिखा, यह प्रश्‍न दरअसल आज बेमानी हो चुका है, खासकर तब जब संयुक्‍त किसान मोर्चा ने फिर से मोदी सरकार के विरूद्ध ‘मोर्चा’ खोलने की घोषणा कर दी है। यह बात सुखद अहसास कराती है कि संयुक्‍त किसान मोर्चा भी अंतत: समझ गया है कि मोदी सरकार युद्धविराम खत्‍म कर चुका है। हां, यह जरूर है, और ठीक यही चीज किसान आंदोलन की जीत की विराटता को दिखाती है कि किसान आंदोलन उस मोड़ और मुकाम पर पहुंच गया था जहां वह अन्‍य सभी आंदोलनों की धुरी बन चुका था और इसलिए उसके साथ युद्धविराम के बहाने आगे भविष्‍य में किये जाने वाले विश्‍वासघात के लिए भी मोदी को पहले कृषि कानूनों को रद्द करने के रूप में उसकी भारी कीमत अदा करनी पड़ी। बीच का कोई रास्‍ता नहीं बचा था। यही नहीं, एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पर भी उसे नजरें नीची रख कर बात करनी पड़ी, और ठीक इसलि‍ये ही किसान मोर्चा इस बात के लिये आलोचना योग्‍य था और है कि उसने उस समय गलत ढंग से दबाव में आना तथा पीछे हटना मंजूर किया जब इसकी कोई जरूरत नहीं थी, बल्कि वास्‍तविक स्थिति इसके विपरीत मोदी सरकार के विरूद्ध कड़े रूख अख्तियार करने और उसकी नकेल पूरी तरह कसने की मांग कर रही थी। कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के दिन मोदी के भाषण को देखिये! उसमें आज के विश्‍वासधात की स्क्रिप्‍ट दिख जायेगी। बाद में एमएसपी पर कमिटी बनाने की बात में भी मोदी सरकार की कुटिल चाल बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट दिखी। प्रस्‍तावित कमिटी को एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पर विचार करने के लिए अधिकृत ही नहीं किया गया, लेकिन फिर भी इसे जीत बताया गया। फिर भी जो महत्‍व की बात थी वह यह है कि उस स्क्रिप्‍ट को लिखने बैठने का मतलब था कि उसके पहले मोदी को उसकी कीमत (कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा और अपनी कभी न झुकने वाली छवि का बलिदान आदि) अदा करने के बारे में भी फैसला लेना पड़ा। अनमनीय को नमनीय बनना पड़ा, भले ही इसका लक्ष्‍य ठगना हो। ठगना भी कितना महंगा और भारी हो सकता है यह दिखा। इसके लिये संसद के ऊपर जनता की वरीयता को स्‍वीकार करना पड़ा। और यह सब किसान आंदोलन ने कर दिखाया!

15 जनवरी को किसान मोर्चा ने मोदी सरकार के खिलाफ फिर से ‘मोर्चा’ खोलने का जो फैसला लिया है वह देश के करोड़ों लोगों की आशाओं के अनुरूप लिया गया फैसला है। कॉर्पोरेट द्वारा कृषि व देहात को हड़प लेने देने की मोदी सरकार की नीतियों के खुले व गुप्‍त तथा क्रांतिकारी व गैर-क्रांतिकारी हिमायतियों को छोड़कर सभी इसका खुले दिल से स्‍वागत करेंगे। परंतु बात यहीं पर खत्‍म नहीं होती है। कुछ नये प्रश्‍न पैदा होते हैं। सबसे महत्‍वपूर्ण सवाल यह है कि क्‍या ‘नया मोर्चा’ वास्‍तव में कोई नया अध्‍याय भी लिखेगा, या बस पुराने की एक लंबी ढलती छाया भर बन कर रह जायेगा? किसान आंदोलन को किसानों की मुक्ति के प्रश्‍न को आगे रखकर सोचने वाले इसके सच्‍चे हिमायतियों व समर्थकों के दिल में यह प्रश्‍न स्‍वाभाविक रूप से उठेगा और उठ रहा है। खासकर मजदूर वर्ग की ताकतों को, जो इस किसान आंदोलन की ही नहीं किसी भी किसान आंदोलन की ऐतिहासिक सीमा को बखूबी समझते हैं, को यह प्रश्‍न बलपूर्वक उठाना चाहिये। इसलिए नहीं कि इसका तुरंत ठोस जबाव मिले, अपितु इसलिये कि यह प्रश्‍न कम से कम वर्तमान किसान आंदोलन में ठीक से पेश हो, किसानों की मुक्ति के प्रश्‍न के संदर्भ में इसका क्रांतिकारी प्रस्‍तुतीकरण किया जा सके और इसके लिए सारगर्भित बहस हो। बाकी तो यह स्‍पष्‍ट ही है कि आंदोलन की सकारात्‍मक स्थिति के कारण किसान आंदोलन के नेतृत्‍व पर जारी दबाव तथा देश में शानदार वस्‍तुगत परिस्थिति के मौजूद होने के बावजूद उपरोक्‍त प्रश्‍न का कोई ठोस एवं फौरी जबाव न तो हमारे पास है, और न ही किसी और के पास ही होगा। यह सच है, बहुत कुछ भविष्‍य के गर्भ में छुपा है। किसान आंदोलन की अपनी कमजोरियों के अतिरिक्‍त ऐसा इसलिए भी है क्‍योंकि अंतिम परिणाम की दृष्टि से, यानी जब किसान अंतिम विजेता बनेंगे उस दृष्टि से, किसान आंदोलन का बहुत कुछ ही नहीं सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि मजदूर वर्ग तथा उसकी अगुवा शक्तियों की निकट भविष्‍य में क्‍या तैयारी है, क्‍योंकि इसके बिना यह बहुत कुछ हमेशा के लिए भविष्‍य के गर्भ में ही छुपा रहेगा। अंतिम परिणाम पर हमारा इसलिए स्‍वाभाविक जोर है क्‍योंकि आम किसानों की दयनीय स्थिति, जो हर दिन और ज्‍यादा दयनीय तथा हृदयविदारक बनती जा रही है, का पूर्णकालिक हल ही नहीं इसका आंशिक और तात्‍कालिक हल भी अंतिम परिणामों से लबरेज क्रांतिकारी आंदोलन की तीव्रता के फलस्‍व्‍रूप प्राप्‍त होने वाले समझौतों या निदान पर ही निर्भर करता है जिसके बारे में हम ”यथार्थ” के पन्‍नों में लगातार लिखते आ रहे हैं, यानी बड़ी पूंजी की मार से किसानों की मुक्ति का प्रश्‍न किसी और तरीके से हल नहीं हो सकता है सिवाय इसके कि बड़ी पूंजी की रक्षक पूंजीवादी व्‍यवस्‍था तथा इसकी राज्‍य मशीनरी को समाज व राजनीति के रंगमंच से हमेशा के लिए हटा दिया जाये। यही वह अंतिम परिणाम है जो किसानों की अंतिम मुक्ति का रास्‍ता प्रशस्‍त करेगा।

तो इसमें दिक्‍कत क्‍या है? सबसे बड़ी दिक्‍कत तो यही है कि बड़ी पूंजी या पूंजी की मार से मुक्ति के लिए पूंजीवादी सरकारों के विरूद्ध फैसलाकुन लड़ाई लड़ने और समाज को बुनियादी तौर पर बदलने की जरूरत के अहसास तक किसान जरूर पहुंच सकते हैं, शायद बहुतेरे किसान पहुंच भी चुके होंगे, लेकिन इसके आगे की दूरी, यानी वास्‍तव में समाज को बदलने के लिए पूंजी के शासन व आधिपत्‍य के पूर्ण खात्‍मे तथा शोषण की पूरी व्‍यवस्‍था को पूरी तरह से उलट देने और एक नयी दुनिया का निर्माण करने के लिए जो बाकी दूरी तय करनी है उसे किसान सिर्फ मजदूर वर्ग के द्वारा और इसके नेतृत्‍व में दिखाये गये रास्‍ते पर चल कर ही तय कर सकते हैं और इसके लिये जरूरी है कि मजदूर वर्ग और इसकी ताकतें खूद ऐसी स्थिति के लिए माकूल तैयारी कर रही हों और इसे अपना सुदूर नहीं अपितु फौरी कर्तव्‍य मानती हों। किसान आंदोलन सही दिशा में अर्थात अंतिम माकूल परिणाम की दिशा में बढ़े इसकी सबसे महत्‍वपूर्ण कड़ि‍यों से यह सबसे महत्‍वपूर्ण कड़ी है। अक्‍सर मजदूर आंदोलन की कमजोर स्थिति के हवाले से इस कर्तव्‍य से कन्‍नी काट लिया जाता है। लेकिन भला कमजोर सांगठनिक स्थिति से सैद्धांतिक हिचकिचाहट कैसे पैदा होती है? असली सवाल ताकत का नहीं, मनोभाव का है। हारा हुआ मनोभाव लेकर संघर्ष के मैदान में युद्धरत किसानों का नेतृत्‍व तो नहीं ही किया जा सकता है, जबकि किसानों के बीच की निजी संपति से जुड़ी तथा अन्‍य पूंजीवादी-प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ाई भी मजदूर वर्गीय ताकतों को ही मजबूती से लड़ना है! यह पराजित मनोभाव और चिंतन से कतई संभव नहीं है। पराजित मानसिकता का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि किसानों की इस भव्‍य लड़ाई को देखकर हममें से कई इस पीड़ा और अवसाद के शिकार हो जाते हैं कि मजदूर तो किसानों की तरह लड़ ही नहीं रहे हैं तो इनका नेतृत्‍व क्‍या खाक करेंगे! भावी शासक के रूप में मजदूर वर्ग को पेश करने में जाहिर है मजदूर वर्ग की ताकतों की हिम्‍मत यहां जवाब दे देती है! हम ”यथार्थ” में यह कई बार लिख चुके हैं कि यह अवसर कभी नहीं आयेगा जब मजदूर किसानों की तरह लड़ेंगे। यह धारणा ही गलत और पूरी तरह भ्रांत चिंतन पर आधारित है कि मजदूर वर्ग भी किसानों की तरह एक साल तक लगातार हड़ताल कर दिल्‍ली की सीमाओं पर मोर्चे खड़े कर सकता है। मजदूर वर्ग और उसका हिरावल कब और किस तरह गहराई से फैले देशव्‍यापी असंतोष को अपने वर्ग-संघर्ष की कोतल शक्ति में तब्‍दील कर लेते हैं या कर लेंगे इसके बारे में सही समझ की भारी कमी को ही यह दर्शाता है कि हम मजदूर वर्ग से किसानों की तरह मोर्चे खड़े की मांग करने लगते हैं। यह स्‍पष्‍टत: मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी राजनीति व रणनीति का किसान मानसिकता में विरूपण है। शायद यही कारण है कि अधिकांश सक्रिय मजदूर वर्गीय ताकतें किसान आंदोलन में मजदूर वर्ग को भावी शासक वर्ग के रूप में राजनीतिक व वैचारिक तौर पर पेश करने में भी शर्माती दिखती हैं और बुरी तरह हिचकिचाती हैं। किसानों का ‘नया मोर्चा’ चाहे जितना भी ”पक्‍का” या क्रांतिकारी होगा, लेकिन नया अध्‍याय लिखने में आने वाली इस अड़चन को दूर करना ही होगा। आज की वास्‍तविकता यह है कि मेहनतकश किसानों की ही नहीं, आम व्‍यापक किसानों की बदहाली पैदा करने वाले सामाजिक-आर्थिक हालात से मुक्ति का सवाल भी हत्‍यारी पूंजी को सत्‍ता तथा समाज दोनों से पूर्ण रूप से बेदखल करने का प्रश्‍न खड़ा कर रहा है और यह लड़ाई सर्वहारा वर्ग की अगुआई के अतिरिक्‍त किसी और तरीके से नहीं लड़ी जा सकती है। इसलिये भी क्रांतिकारी से क्रांतिकारी किसान आंदोलन का अंतिम परिणाम एकमात्र किसानों की दृढ़ता से नहीं तय होने वाला है, और यह सच है कि जब तक यह अड़चन दूर नहीं होगी, बहुत कुछ भविष्‍य के गर्भ में ही छुपा रहेगा। लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं है कि किसान आंदोलन को स्‍वयंस्‍फूर्ति‍ के हवाले छोड़ दिया जाना चाहिए। हमारी ताकत चाहे जितनी कमजोर हो, यह रणनीति सही नहीं हो सकती है।

”यथार्थ” ने हमेशा किसानों को इस संघर्ष के अंतिम विजेता के रूप में देखना चाहा है और इसकी खुलकर तरफदारी की है कि इस लड़ाई में किसानों के पक्ष में जन गोलबंदी हो। इसको ध्‍यान में रखते हुए ही हमने किसानों को इस संघर्ष को उस अंतिम मंजिल तक ले जाने के लिये हमेशा आह्वान किया है जहां इसकी अंतिम जीत का वास्‍तविक ठौर है। यही कारण है कि इस संघर्ष के अंदर आविर्भूत हुए हर नुकीले मोड़ पर हमने एकमात्र उस मंजिल तक जाने में आने वाली अड़चनों व उलझनों को ध्‍यान रखते हुए पूरी हिम्‍मत से वैसी बातें भी कीं जो तात्‍कालिक तौर पर तो किसी को अप्रिय लग सकती हैं लेकिन आंदोलन के दूरगामी हितों को देखते हुए हमारी नजर में अत्‍यंत जरूरी थीं और हैं। हस्‍तक्षेप और समर्थन में तो अंतर होता ही है, समर्थन और पिछलग्‍गुपन में भी अंतर होता है। हमने हस्‍तक्षेप करने की दिशा ली थी जिसमें समर्थन इस तरह गुंथा था कि एक मिनट के लिए भी हमने किसान आंदोलन की सीमा को न तो अपनी आंखों से और न ही दिमाग से ही ओझल होने दिया। हमने अपने पन्‍नों में इस आंदोलन के समक्ष मजदूर वर्ग को बौना साबित करने की किसी भी बात को किसी भी रूप में कोई जगह नहीं दी, तब भी नहीं जब कृषि कानूनों की वापसी वाले मोदी के भाषण के बाद बहुतेरे कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी भी किसानों की ऐतिहासिक इस जीत के हवाले से मजदूर वर्ग को नीचा दिखाने तथा हतोत्‍साहित करने वाली बातें की। हमने इस जीत पर मनते जश्‍न, जिसमें क्रांतिकारी भी शामिल थे, के चौंधियाते प्रकरण के बीच भी किसानों को मजदूर वर्ग पर वरीयता नहीं दिया। प्रकारांतर में हमारी सारी फौरी टिप्‍पणियां सही भी साबित हुई हैं। इस नजर से हम अगर अपनी पूर्व में कही बातों का अवलोकन करें, तो यह हमारे लिये अतीव संतोष की बात है कि हमारी अधिकांश बातें आंदोलन तथा किसानों की मुक्ति के दूरगामी हितों को आगे बढ़ाने के लिये ही नहीं, तात्‍कालिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए भी जरूरी और अपरिहार्य साबित हुईं। इसके पीछे किसानों के जीवन की वह दुखद स्थिति और शासक पूंजीपति वर्ग का वह संकट है जिसके बारे में हमने अमूमन सही-सही और ठोस मूल्‍यांकन किया और इसलिये यह देख पाने में सफल हुए कि किसानों और राज्‍य के बीच किसी तरह के अपवित्र समझौते (unholy deal) के लिए कोई जगह नहीं बची थी, न सिर्फ मोदी शासन के दौरान, अपितु आगे आने वाली किसी अन्‍य सरकार के दौरान भी। हम अगर दो बातों पर ही गौर करें, तो हमारे द्वारा कही गयीं बातों का मतलब समझ में आ जाएगा। एक तो यह कि बड़ी इजारेदार पूंजी को कृषि में निर्णायक दखल करने से पूंजीवाद के रहते अंतत: रोका नहीं जा सकता है; और दूसरे यह कि एमएसपी की कानूनी गारंटी को, जो इस नये रूप में किसानों की सरकार से सारी फसलों की खरीद गारंटी की मांग बन जाती है और इसलिए आवश्‍यक रूप से पूंजीवादी राज्‍य की सीमा को लांघती है तथा किसानों की कल्‍पना में एक ऐसे राज्‍य को लाती है जो सर्वहारा राज्‍य जैसा है, कोई पूंजीवादी राज्‍य स्‍वीकार नहीं कर सकता है। अगर कोई पूंजीवादी सरकार जनांदोलन के दबाव में युद्धनीति के तहत मान भी ले तो उसे कभी लागू नहीं कर सकती है। खासकर यह बात हम पहले दिन से कह रहे हैं। इसके बाद हमने एक और महत्‍वपूर्ण बात भी कही है। वह यह कि इन मांगों को युद्धनीति के तहत मानना भी एकमात्र इसलिये संभव हुआ और आगे भी एकमात्र इसलिये संभव होगा क्‍योंकि आंदोलन एक ऐसे मुकाम पर जा पहुंचेगा जहां यह पूंजीवादी राज्‍य को विस्‍फोटक अंतर्विरोधों के भंवरजाल में फंसा कर इसके अस्तित्‍व को चुनौती देने लगेगा और शासक वर्ग के अंदर यह भय बैठ जाता है कि एक मामूली चूक से कुछ भी हो सकता है और यह पूंजी के शासन के लिए खतरा बन जायेगा। 19 दिसंबर के ठीक पूर्व की, खासकर लखीमपुर खीरी के हत्‍याकांड के बाद पूरे देश में बनी विस्‍फोटक स्थिति पर गौर करें तो हमारे इस कथन का वास्‍तविक मर्म आसानी से समझा जा सकता है। यही कारण है कि हम लगातार यह बात उठा रहे हैं कि एकमात्र क्रांतिकारी परिणति से लबरेज आंदोलन, जो स्‍वयं पूंजीवादी राज्‍य के अस्तित्‍व के लिए चुनौती बन जाये, के बल पर ही किसानों की ये मांगें मानी जा सकती हैं। इसके बाद हमारी आज की इस बात पर भी उचित रूप से गौर करने की जरूरत है कि किसानों की बदहाली और शासक वर्ग का संकट मिलकर एक ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर रहे हैं जिसमें किसानों को मिली एक जीत कोई मायने नहीं रखती है क्‍योंकि शासक वर्ग इसे तुरंत पलटने लगता है। इसलिये एक जीत की गारंटी के लिए आगे जीतों के एक अटूट सिलसिले की जरूरत होगी और यह बात इतनी महत्‍वपूर्ण है कि इसको समझे बिना किसान आंदोलन के अदंर अंतर्भूत क्रांतिकारी क्षमता को समझना असंभव होगा। इस सिलसिले की कब तब जरूरत रहेगी यह कहना मुश्किल है, लेकिन तब तक चलना चाहिए जब तक कि पूंजी के शासन को निर्णायक तौर पर पंगु नहीं बना दिया जाता है जो जाहिर है पूंजीवादी व्‍यवस्‍था और मशीनरी को पूरी तरह पराजित किये बिना तथा इसकी जगह सर्वहारा व किसानों की राज्‍य मशीनरी द्वारा अपना स्‍थान ग्रहण किये बिना संभव नहीं है। जब हम अगली बार नया अध्‍याय लिखे जाने की बात कहते हैं तो हमारा आशय मजदूर वर्ग और किसानों की इसी मुकम्‍मल जीत से है। यह जीत कब होगी कहना मुश्किल है। लेकिन यह जरूर होगी और जल्‍द ही होगी यह कहने में कोई मुश्किल नहीं है।

हम फिर से मोर्चे पर आ डटने की तैयारी कर रहे किसानों से यह कहना चाहते हैं कि हम संघर्ष के अपने मुख्‍य औजार व साधन (”यथार्थ” एवं ”द ट्रुथ”) के साथ कॉर्पोरेट और उसके समस्‍त हिमायतियों के खिलाफ पिछले एक साल से मैदान में डटे हैं, और तब भी डटे रहे जब आप इसे स्‍थगित कर या खत्‍म कर वापस घरों को लौट चुके थे। हम खुली बाहों से आपका यह कहते हुए स्‍वागत करते हैं कि वर्तमान फासीवादी दौर के सबसे बड़े योद्धा किसान एक बार फिर से मैदान में आने का डंका बजा रहे हैं। इस बार वे वादाखिलाफी के खिलाफ मैदान में आ डटने की बात कर रहे हैं तो हम यह उम्‍मीद करते हैं कि अगली बार वे झूठे वायदों के झांसे में नहीं आयेंगे। इसी के साथ, हम यानी ”यथार्थ” खुले मन से यह स्‍वीकार करता है कि वर्तमान अंधकारमय दौर में हम सबकी तात्‍कालिक हिम्‍मत और प्रेरणा का मुख्‍य स्रोत आप किसान और आपका अटूट आंदोलन ही है, बशर्ते हम यह नहीं भूलने लगें कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के माध्‍यम से आप किसान अपनी आर्थिक व सामाजिक बदहाली से मुक्ति पाने के जिस सपने व लालसा को व्‍यक्‍त कर रहे हैं उसकी मुख्‍य कड़ी पूंजीवाद को उलटने की क्रांतिकारी लड़ाई है और इसमें मजदूर वर्ग के उठ खड़ा हुए बिना किसी भी तरह की फैसलाकुन जीत संभव नहीं है। किसानों को यह बात समझ में आये इसके पहले मजदूर वर्ग की हिरावल शक्तियों को यह समझ में आनी चाहिए। एकमात्र सैद्वांतिक तौर पर ही नहीं, व्‍यवहार तथा जमीनी क्रियाशीलता में भी।