मजदूर बस्तियां

January 17, 2022 0 By Yatharth

आदित्य कमल

ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं
नगरों के हाशिए पर
शहरों की तलछटों में
फैलीं यहाँ-वहाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
नाले औ गाद-कीचड़
पर हैं बसे मेरे घर
हैं टाट की दीवारें
तिरपाल के हैं छप्पर
दिखते ढहे-ढहे हैं
कुछ पस्त पड़ रहे हैं
हालत है सबकी जर्जर
बस ढांचे ढो रहे हैं
कच्चे या आधे पक्के
कहने को आशियाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
शहरों का सबसे गंदा
कोना मेरी तरफ है
बदबू , घुटी हवाएँ
बस बूझिए नरक है
इसपर भी हैं निगाहें
सेठों का , माफियों का
हर रोज गुंडागर्दी
या धौंस नोटिसों का
शासन के हैं बुलडोजर
लंठों की लाठियाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
हम बारहा उजड़ते
और बार-बार बसते
हम जी रहे हैं जैसे
जीना हो मरते – मरते
बदले कई बसेरे
फुटपाथों पे भी डेरे
फिर वहाँ से भी अक्सर
जाते हैं हम खदेड़े
हफ्ता उगाहने वाले
भी देते गालियाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
मौसम है सालों भर ज्यों
पसरा हुआ हो पतझड़
मायूस बैठी आँखें
चंद इंतजार लेकर
सबकुछ उजाड़ सा है
सब तार – तार सा है
हर साँस हाँफती है
जीना पहाड़ सा है
जद्दोजहद है दिनभर
रातें धुआँ – धुआँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
कहने को एक शहर है
पर कितना फासला है
एक ओर ऊँची दौलत
इस ओर जलजला है
देखो शहर का नक्शा
दिखती खड़ी इमारत
हैं चौड़ी – चौड़ी सड़कें
और मॉल खूबसूरत
ढूंढो तो जरा इसमें
मेरी खोलियाँ कहाँ हैं ?
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
हर जिस्म को बीमारी
हर साल महामारी
हर रोज कोई उलझन
झगड़ा औ मारामारी
है जानवर सी हालत
फैली हुई जहालत
यहाँ रेंगता है जीवन
कांधे पे लादे गुरबत
अपनी तरफ गरीबी
धन उस तरफ जमा हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
सबकुछ गलीज़ सा है
फैला ज़हर , नशा है
बेतरह , बेरहम हो
लूटा हमें गया है
कुचले गए हैं इतने
रौंदे गए हैं सपने
हर रूह पर थकन है
और जिस्म सहमे-सहमे
बच्चे आवारा घूमें
और पिटती बीबियाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
हम ज़िंदगी की धड़कन
है अपने हाथ हर फ़न
हमने बनाया सबकुछ
हमने संवारा उपवन
पर हम फंसे हैं ऐसे
ना नागरिक हों जैसे
हम पर कसे शिकंजे
और जाल कैसे – कैसे
जीवन सजाने वाले
बिखरे जहाँ – तहाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
हैं रग्घू भाई पेंटर
वो पिल्लई है वेल्डर
हैं रामा ताई हेल्पर
बैनर्जी आला फीटर
सतनाम मिस्त्री है
प्लंबर गजब हरी है
उस्ताद रौबिन दा के
हाथों में माहिरी है
क्या खूब हरफनमौला
अपने जुमन मियाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
तेरा शहर पे कब्जा
तेरे भरे खजाने
मेरी ज़िंदगी जहन्नुम
तेरे स्वर्ग से ठिकाने
तेरी भूख नहीं मरती
हम भूखे मर रहे हैं
एक इम्तिहां से जैसे
हर पल गुजर रहे हैं
हम सुगबुगाए भी तो
यहाँ तनती गोलियाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
है बहुत गहरी खाई
पाटे न पटने वाली
जो रात सर पे काली
ऐसे न कटने वाली
भाषण से , सुधारों से
कुछ हाल न सुधरेगा
यह ज़ख्म है पुराना
यह ज़ख्म क्या भरेगा
तेरे – मेरे दरमियां अब
बड़ी लंबी दूरियां हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!
ये बस्तियाँ उठेंगीं
तो, सारे हिसाब लेंगी
वो धावे जो करेंगी
सब दावे वो करेंगी
तेरे किले गिरेंगे
तू कब तलक बचेगा
तेरा स्वर्ग ध्वस्त होगा
मेरा नर्क तब ढहेगा
बेचैन कसमसाती
अब इनकी मुट्ठियाँ हैं
ये हमारी बस्तियाँ हैं
मज़दूर बस्तियाँ हैं…!