नवउदारवादी  बजट: फासीवाद की ओर एक कदम और   

February 3, 2022 2 By Yatharth

संपादकीय टिप्पणी, 3 फरवरी 2022

1 फरवरी को जब वित्त मंत्री ने सालाना बजट संसद में पेश किया तो वैश्विक व भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था के पहले से गहराते आर्थिक संकट से घोर त्रस्त मजदूर वर्ग, मेहनतकश व निम्न मध्यम वर्गीय जनता बदहाली, भूख, बेरोजगारी से कराह रही थी। ऊपर से कोरोना नियंत्रण के नाम पर लागू निरंकुश लॉकडाउन ने तो मेहनतकश जनता पर आफत का पूरा पहाड़ ही तोड़ दिया। करोड़ों प्रवासी श्रमिकों को अपनी रोजी-रोटी का सहारा गंवा बच्चों सहित सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ा। आम लोग कोरोना से बिना दवा-इलाज के तड़प कर मरने को मजबूर हुए, ऑक्सीजन की कमी से कितनों की सांस घुट गई, और लाशों को नदियों के किनारे दबाने बहाने के लिए मजबूर होना पड़ा। देश भर में मजदूर, मेहनतकश किसान, छात्र-युवा, छोटे काम धंधे करने वाले लोग भयानक रूप से बढ़ती कंगाली-बदहाली, भूख, महंगाई व बेरोजगारी की तकलीफ से जूझ रहे हैं। वहीं मोदी सरकार की पूंजीपरस्त नीतियों का नतीजा है कि कोरोना संकट के दौर में जहां अधिकांश जनता गरीबी के जाल में और भी बुरी तरह फंस गई है वहीं अंबानी, अदानी, टाटा जैसे पूंजीपतियों की संपत्ति दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ी है। 

पूंजीपति वर्ग की विश्वस्त सेवक बीजेपी सरकार विपत्ति के इस पूरे दौर में आम मेहनतकश जनता को रत्ती भर भी राहत देने के बजाय सरमायेदार तबके के लिए बीसों लाख करोड़ की मदद योजनाएं लाई। कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के मुनाफ़ों को बढ़ाने के लिए नए श्रम कानूनों द्वारा मजदूरों के हकों पर डाका डालकर पूंजीपतियों द्वारा उनके शोषण को तीव्र-गहन करने का रास्ता सुगम कर दिया। कृषि संकट की वजह से दिवालिया हो गरीबी-कंगाली का जीवन गुजारने को मजबूर मेहनतकश किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल कर पूरे कृषि क्षेत्र को कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के चंगुल में सौंप देने के इरादे से सरकार तीन नए कृषि कानून लाई, जिन्हें अपने सवा साल से अधिक के शानदार संघर्ष और 700 से अधिक शहादतों के बाद किसानों ने मोदी को घुटने टिका रद्द कराया है, हालांकि आश्वासनों के भ्रम के शिकार होकर नेताओं द्वारा जल्दबाजी में आंदोलन स्थगित किये जाने पश्चात किसानों के अपने घरों को लौटते ही सरकार तुरंत ही उनके साथ विश्वासघात पर उतर आई है, और किसान खुद को ठगा हुआ पा रहे हैं। 

अभी कुछ राज्यों में महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। अतः कुछ लोग इस भ्रम में थे कि सरकार इस बार बजट में कुछ राहत भरे कदम उठाएगी, जुमले ही सही पर कुछ आश्वासन, ऐलान तो जरूर करेगी। मीडिया भी ऐसा भ्रम पैदा कर रहा था कि सरकार ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) की तरह शहरी बेरोजगारों के लिए रोजगार गारंटी योजना ला सकती है, किसान सम्मान निधि या श्रम सम्मान निधि में कुछ बढ़ोत्तरी कर सकती है। किंतु जिन्होंने 31 जनवरी को पेश आर्थिक सर्वेक्षण पर गौर किया वे समझ गए थे कि यह पूंजीपति तबके की विश्वस्त सेवक फासिस्ट हुकूमत है और आम जनता के साथ धोखाधड़ी के सिवा और कुछ नहीं कर सकती। 

आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने इस बात को माना तक नहीं कि देश के मजदूरों-किसानों के सामने कोई समस्या है, कोरोना ने करोड़ों की रोजी-रोटी छीन ली है, युवाओं के सामने विकराल बेरोजगारी की कोई समस्या है या महंगाई आसमान पर पहुँच चुकी है। सर्वेक्षण इन दावों से भरा पड़ा था कि सरकार ने कुशलता के साथ कोरोना और आर्थिक मंदी के संकट का सामना किया और अर्थव्यवस्था को संकट से निकाल फिर से तीव्र वृद्धि की राह पर अग्रसर कर दिया है, एवं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में जो कमी हुई थी वह अब दूर होकर वापस दो साल पुरानी स्थिति बहाल हो गई है। किंतु सरकारी आंकड़ों को ही ध्यान से देखने पर पता चलता है कि देश में कुल उपभोक्ता खपत अभी भी दो साल पहले की तुलना में  कम है, जबकि एक ओर तो इस बीच में आबादी में वृद्धि हुई है अर्थात प्रति व्यक्ति औसत खपत और भी कम हो गई है, साथ ही खुद ये आंकड़े ही बता रहे हैं जो खपत बढ़ी भी है वह भी अमीर लोगों के ऐशो-आराम के सामान व सोना-चांदी की बिक्री में है न कि आम मेहनतकश जनता के उपभोग की सामग्री में। अर्थात आम शीर्ष के 10% अमीर लोगों को छोड़ दिया जाए तो शेष जनता का उपभोग बहुत तेजी से गिरा है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि न सिर्फ बहुत बड़ी तादाद में रोजगार छिने हैं बल्कि जो रोजगार हैं भी उनमें भी मिलने वाली मजदूरी गिर गई है। उधर पेट्रोल-डीजल से सरसों का तेल, दालों से फल-सब्जी, बिस्कुटों से मोबाइल उपयोग, शिक्षा-स्वास्थ्य खर्च, माल व यात्री भाड़ों  सभी पर महंगाई में तेज वृद्धि हुई है। आईसीआईसीआई सेक्यूरिटीज की रिपोर्ट मुताबिक पिछले 6 महीने में ही दैनंदिन उपभोग की वस्तुएं बनाने वाली कंपनियों ने दामों में 5-15% तक वृद्धि की है।  खुद सरकारी फुटकर मूल्य सूचकांक के मुताबिक महंगाई दर 5.6% है, हालांकि यह सूचकांक महंगाई की गंभीरता को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं देता।     

कृषि व सामाजिक क्षेत्र पर कहर  

यह कहकर कि कृषि में कॉर्पोरेट पूंजी निवेश मात्र 2-3% है और इसमें वृद्धि का सैलाब लाने की जरूरत है, आर्थिक सर्वेक्षण ने जता ही दिया था कि मोदी सरकार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों द्वारा कृषि क्षेत्र पर दखल को आगे बढ़ाने की अपनी नियत से पलटने वाली नहीं है। 1 फरवरी को प्रस्तुत बजट में इस बात की पुष्टि ही हुई है। इस बार न तो किसानों की आय दोगुनी करने की बात है न ही किसान सम्मान निधि बढ़ी है। बल्कि एमएसपी पर कृषि उपज की सरकारी खरीदारी को गेहूं-धान तक सीमित कर उसका बजट 2.48 लाख करोड़ से घटा 2.37 लाख करोड़ करने, खाद सब्सिडी आबंटन को 1.40 लाख करोड़ से 1.05 लाख करोड और खाद्य सब्सिडी को 2.86 लाख करोड़ से कम कर 2.06 लाख करोड़ कर देने, आदि से स्पष्ट है कि एमएसपी पर खरीद की गारंटी देना तो दूर की बात है सरकार फसलों की सार्वजनिक खरीद कम कर रही है। जहां पिछले साल 1.97 करोड़ किसानों से 1286 लाख टन अनाज की खरीदारी हुई वहां इस वर्ष सरकार ने 1.63 करोड़ किसानों से 1208 लाख टन खरीदारी का लक्ष्य घोषित किया है। उधर खाद के दाम तेजी से बढ़ने वाले हैं जबकि गरीब मेहनतकश जनता को मुफ़्त राशन की थोड़ी-बहुत सुविधा भी जल्दी ही, राज्यों के चुनाव के तुरंत बाद ही, बंद होने वाली है। किसानों की आय दोगुनी करने के लिए शुरू की गई पीएम-आशा योजना पर बजट आबंटन 400 करोड़ से घटाकर 1 करोड़ रु ही कर दिया गया है (गौरतलब है कि इस योजना में पिछले दो साल में कुछ खर्च ही नहीं किया गया)। ऐसी ही कटौती अन्य कई योजनाओं में भी की गई है। कृषि क्षेत्र के लिए पिछले साल के बजट में संशोधित आबंटन जहां 3.92% था, वह इस साल घटाकर 3.84% ही कर दिया गया है। ऐसा लगता है जैसे मोदी सरकार शानदार किसान आंदोलन के  लिए पूरे कृषि क्षेत्र से बदला लेने पर उतारू हो। 

बेरोजगारी की हालत ऐसी भयंकर है कि पिछले दिनों 3 साल इंतजार के बाद रेलवे आरआरबी-एनटीपीसी भर्ती परीक्षा के नतीजे आने पर युवा बेरोजगारों का गुस्सा आखिर फूट गया। देश में कुल काम करने लायक उम्र के लोगों में मात्र 38% (सीएमआईई अनुसार) को ही असल में नियमित-अनियमित रोजगार मिल पा रहा है अर्थात सभी को रोजगार के अधिकार वाली समाजवादी व्यवस्था की बात तो छोड़िए, दुनिया के पूंजीवादी देशों की औसत बेरोजगारी के मुकाबले भी भारत में लगभग 20 करोड़ अतिरिक्त बेरोजगार हैं। ऐसे में शहरी रोजगार गारंटी योजना की बात तो छोड़ ही दें, ग्रामीण रोजगार योजना के लिए बजट आबंटन भी इस साल के संशोधित अनुमान 98 हजार करोड़ रु व असल खर्च 1.11 लाख करोड़ रु के मुकाबले 73 हजार करोड़ रु कर दिया गया है, जबकि 98 हजार करोड़ रु में भी हर परिवार के कम से कम एक व्यक्ति को कानूनी गारंटी के मुताबिक साल में 100 दिन के बजाय 22 दिन रोजगार ही दिया जा पा रहा था। नरेगा संघर्ष मोर्चा के अनुसार इस राशि से 9.94 करोड़ जॉब कार्ड धारकों को 100 दिन के रोजगार की कानूनी गारंटी के बजाय सिर्फ 16 दिन प्रति व्यक्ति रोजगार ही उपलब्ध कराया जा सकेगा। फिर पिछले सालों की 18,350 करोड़ रु मजदूरी अभी बकाया है, अतः इस साल के लिए राशि और भी कम रह जाती है। जब बेरोजगारी चरम पर है, बहुत से मजदूरों को भोजन की मात्रा तक में कटौती करनी पड़ रही है, तब उनकी मजदूरी को महीनों बकाया रखना और बजट में 25 हजार करोड़ की कटौती फासिस्ट सरकार की बेरहमी और अमानवीयता का स्पष्ट उदाहरण है।

जहां तक सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था, महिलाओं-बाल कल्याण या वंचित समुदायों के लिए सुविधाओं का प्रश्न है इस बार के बजट में उनका जिक्र जुमलों तक के रूप में भी लगभग गायब है। 2 साल से स्कूल-कॉलेज लगभग बंद रहे हैं और ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर स्मार्टफोन, डेटा व नेटवर्क  से वंचित अधिकांश गरीब छात्रों को शिक्षा की रही-सही सुविधा से भी हाथ धोना पड़ा है। वित्त मंत्री ने स्कूल बंद होने से छात्रों को हुए नुकसान को माना, मगर समाधान के तौर पर इस व्यवस्था को ही बढ़ाते हुए एक डिजिटल यूनिवर्सिटी व 200 स्कूली टीवी चैनलों की स्थापना का ऐलान कर दिया। गरीबों के लिए स्वास्थ्य सेवा जहां अस्पतालों, डॉक्टरों, नर्सों, दवा, टेस्ट, आदि की कमी से बेहाल हैं, वहां सरकार की योजनायें मात्र रेकॉर्ड को डिजिटल करने और तनाव के लिए टेलीकाउंसलिंग की है ताकि उसका लाभ कुछ कॉर्पोरेट पूंजीपति उठा सकें। बजट के आंकड़ों से यह भी पता चला कि जिस आयुष्मान भारत योजना से 10 हजार करोड़ रुपये के खर्च से 50 करोड़ गरीबों के इलाज की व्यवस्था का ऐलान इतने जोर-शोर से किया गया था, इस व्यापक बीमारी के साल में उसकी घोषित राशि में से भी 7400 करोड़ का ही आबंटन हुआ, उसका भी पूरा उपयोग नहीं किया गया, वह भी किस काम में, पता नहीं, क्योंकि उप्र, बिहार जैसे बड़े राज्यों में भी करोड़-लाख  छोड़िए, कुछ सौ-हजार व्यक्तियों को लाभ मिलने के आंकड़े ही अब तक पता चले हैं। 

जहां तक गरीबों के लिए आवास योजना का संबंध है, ऐलान तो आगामी साल में 80 लाख घर बना कर पूरे करने का है मगर उसके लिए बजट बस 44 हजार करोड़ रु का है अर्थात एक आवास हेतु बस 55 हजार रुपये! सामाजिक कल्याण योजनाओं की स्थिति भी ऐसी ही है। पिछले साल आरंभिक आबंटन 48,460  करोड़ रुपये था, पर संशोधित अनुमानों में इसे घटाकर 44,952 करोड़ रुपये ही कर दिया गया। इस बार आबंटन 51,780 करोड़ है, वास्तविक खर्च बाद में पता चलेगा।

कॉर्पोरेट पूंजीपरस्त नवउदारवादी नीति

इस बजट में सरकार ने एक बार फिर अपने वर्गीय आकाओं इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने और उसका सारा बोझ मेहनतकश जनता पर लादने का ही काम किया है। वित्तीय पूंजीपतियों व अमीरों की आय के बड़े स्रोत दीर्घावधि पूंजीगत लाभ पर सरचार्ज को अधिकतम 37% से घटा अधिकतम 15% कर दिया गया है। स्टार्ट अप में लगी वित्तीय पूंजी पर टैक्स छूट भी बढ़ा दी गई है। निजी पूंजीपतियों के लिए सार्वजनिक खर्च से मांग बढ़ाकर उन्हें लाभ पहुंचाने वाली कई योजनाएं भी घोषित की गईं हैं जैसे सड़क, आदि इंफ्रास्ट्रक्चर खर्च, निजी पूंजीपतियों से सैन्य साज-सामान की खरीदारी, डिजिटलीकरण पर बड़े खर्च की योजनाएं, आदि। कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट पूंजी के दखल को जारी रखा जाएगा। नरेगा व खाद्य सब्सिडी में कमी से बेरोजगार मजदूरों की विवशता और बढ़ेगी तथा वे अपनी श्रमशक्ति को और भी कम मजदूरी पर बेचने के लिये विवश होंगे। पूंजीपतियों की पौ बारह, अतः पूंजीपति, कॉर्पोरेट मीडिया व उसके विशेषज्ञ वाह-वाही में जुटे हैं।

इसके लिए तर्क है कि सरकार द्वारा पूंजीगत खर्च में की गई 35.4% की इस वृद्धि से निजी क्षेत्र का निवेश भी तेजी से बढेगा और 60 लाख नये रोजगार सृजित होंगे। वैसे तो इस पूंजीगत व्यय की सच्चाई भी संदेहास्पद है क्योंकि पिछले साल के पूंजीगत व्यय संबंधी इस बजट की एक पादटिप्पणी बताती है कि इसका लगभग 60 हजार करोड़ रुपये तो एयर इंडिया का कर्ज निपटा उसे निजी पूंजी के लिए आकर्षक बनाने में लगा। इस बार भी 47,200 करोड़ बीएसएनएल के लिए है जिससे संभवतः उसे भी किसी निजी पूंजीपति के लिए आकर्षक बनाया जाएगा। अगर मान भी लें कि शेष सारा असल पूंजीगत व्यय है जो पूंजीगत संपत्ति जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण पर ही खर्च होगा, तब भी यह निजी पूंजी निवेश में तेजी लायेगा यह मानने का कोई आधार नहीं है। निश्चित रूप से निजी पूंजीपति इस निर्माण के ठेके लेने के लिए कुछ पूंजी निवेश करेंगे मगर वह तो बड़े मुनाफे के साथ इसी में से वसूल कर लेंगे, उनका नेट पूंजी निवेश कहां होगा? इस प्रकार सरकार सेंट्रल विस्टा, बुलेट ट्रेन, एक्सप्रेस वे, मेट्रो, गतिशक्ति टर्मिनल, आदि द्वारा मांग सृजित कर उनकी बिक्री बढायेगी और ऊंचे दाम चुका उनके मुनाफे की दर को बढा देगी अर्थात निपट नवउदारवादी नीति मुताबिक सरकार अपनी सत्ता की शक्ति से कॉर्पोरेट पूंजी के लिए मांग व मुनाफा प्रबंधन करेगी, इन प्रोजेक्ट्स से बनने वाली संपत्तियों की वास्तविक मांग हो या नहीं।

तर्क दिया जा सकता है कि इस इंफ्रास्ट्रक्चर से उत्पादक क्षमता का विकास हो आर्थिक तरक्की की रफ्तार बढेगी। पर क्या भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक क्षमता की कमी ही वास्तविक समस्या है? या क्या ऐसी कोई स्थिति मौजूद है कि एक्सप्रेस वे, गतिशक्ति, बुलेट ट्रेन, मेट्रो, आदि के अभाव में उत्पादित माल वहां नहीं पहुंच पा रहा है जहां खरीदार माल की कमी में खरीद के लिए लाइन लगाये खडे हैं? रिजर्व बैंक के सर्वेक्षण तो एक दशक से बता रहे हैं कि समस्या स्थापित उत्पादक क्षमता के अपर्याप्त इस्तेमाल की है। बाजार में मांग की कमी के कारण बिक्री नहीं हो रही है और उद्योग पूर्व स्थापित उत्पादक क्षमता के 60-75% पर ही उत्पादन कर पा रहे हैं। इससे बडे पैमाने पर उद्योग दिवालिया हुए हैं और बैंकों की ऋण पूंजी भी बडे पैमाने पर बट्टेखाते में डालनी पडी है। स्थापित उत्पादन क्षमता के लिए ही पर्याप्त बाजार मांग मौजूद न होने पर कोई भी निजी पूंजीपति औद्योगिक पूंजी में निवेश क्यों बढायेगा? पूंजीपति का मकसद तो सामाजिक विकास नहीं, अधिकतम मुनाफा कमाना है।

जब समस्या पूंजीवादी व्यवस्था के अनिवार्य परिणाम ‘अति-उत्पादन’ (आवश्यकता से अधिक नहीं, क्रय शक्ति से अधिक उत्पादन) की है तो आम जनता पर अप्रत्यक्ष करों व शुल्कों का बोझ बढा इकट्ठा पूंजी से उत्पादन क्षमता को और बढा देने से इसका समाधान कैसे होगा? बल्कि यह और गहन संकट को जन्म देगा क्योंकि ये निवेश अंततः लाभप्रद नहीं होंगे तथा इसके लिए लिये जाने वाले भारी कर्ज को चुकाने के लिए जनता पर करों-शुल्कों का बोझ और भी बढाना होगा। यूं तो पूंजीवादी संकट आज जिस स्थिति में जा पहुंचा है उसका कोई वास्तविक समाधान मुमकिन नहीं, मगर पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही जनता को कुछ तात्कालिक राहत देनी हो तो कोई स्वतंत्र पूंजीवादी विश्लेषक भी बात देगा कि मांग के अभाव का समाधान आपूर्ति की अड़चनें हटाना नहीं, मांग बढ़ाने के लिए जनता के हाथ में कुछ पैसा देकर अर्थात रोजगार व आय बढ़ाकर उसकी क्रय शक्ति बढ़ाना है। यह बुर्जुआ अर्थशास्त्र का ही सुविज्ञात सिद्धांत है।  स्पष्ट है कि मौजूदा सत्ताधारी ऐसी किसी तात्कालिक राहत तक के बारे में भी नहीं सोच रहे हैं। 

सामाजिक कल्याण की सभी मदों में खर्च घटा कॉर्पोरेट पूंजी के मांग व लाभ प्रबंधन हेतु यह पूंजीगत व्यय रिसाव सिद्धांत (ट्रिकल डाउन) आधारित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का विशिष्ट नमूना है, हालांकि वैश्विक आर्थिक संकट से ही, फिर खास तौर पर कोरोना संकट में, इन नीतियों का घोर दिवालियापन जगजाहिर हो चुका है। इनके विनाशकारी प्रभाव से बढते असंतोष को भांपते हुए सबसे विकसित दोनों पूंजीवादी मुल्कों, अमरीका व चीन, में भी जो बाइडेन व शी चिनफिंग यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे सिर्फ पूंजीपतियों के लिए नहीं बल्कि जनता को राहत व सबकी संपन्नता हेतु नीतियां ला रहे हैं। पर मोदी सरकार अभी भी जनजीवन की गरीबी, कंगाली, भूख, बेरोजगारी, महंगाई जैसी समस्याओं को पूरी तरह नजरअंदाज कर खुले आम बेशर्मी से इन कॉर्पोरेट पूंजी परस्त नीतियों पर और भी तेजी से आगे बढ़ती जा रही है, इस बात का राजनीतिक निहितार्थ भी समझना जरूरी है जिसकी चर्चा हम नीचे करेंगे।

जहां तक अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि का दावा है उसकी पोल तो खुद आर्थिक सर्वेक्षण व बजट के आंकड़ों में ही खुल गई है। सर्वेक्षण में 8 से 8.5% वास्तविक जीडीपी वृद्धि का दावा किया गया था। किंतु बजट अनुमान 11% आंकिक जीडीपी वृद्धि का है। जीडीपी गणना पद्धति में आंकिक जीडीपी में से मुद्रास्फीति की दर घटाने पर वास्तविक जीडीपी वृद्धि पता चलती है। मुद्रास्फीति अभी 5-6% के बीच है तो 11% आंकिक वृद्धि का अर्थ 5% वास्तविक जीडीपी वृद्धि ही है, न कि 8.5%! टैक्स आय में हुई वृद्धि से आर्थिक तेजी के दावे की जांच करेंगे तो पता चलेगा कि प्रत्यक्ष करों की वसूली में वृद्धि का कारण कॉर्पोरेट व अमीर तबके की आय में हुआ इजाफा हुआ है (52% कॉर्पोरेट टैक्स 9.2 लाख कंपनियों में से मात्र सबसे बड़ी 433 इजारेदार कंपनियों से आता है) जो अधिकांश जनता की आय में गिरावट की कीमत पर हुआ है। 

वृद्धि के इस दावे का परीक्षण औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के आधार पर भी किया जा सकता है। कोरोना की दूसरी लहर के बाद अमीरों की रुकी हुई खरीदारी व दीवाली के त्यौहार के कारण अगस्त-सितंबर के महीनों में औद्योगिक उत्पादन में कुछ तेजी जरूर आई थी, मगर अक्तूबर-नवंबर दोनों महीनों के आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ प्राथमिक वस्तुओं जैसे खनन, विद्युत उत्पादन में ही वृद्धि हो रही है वह भी इस नाते क्योंकि तुलना के लिए प्रयुक्त 2020 के इन्हीं महीनों में उत्पादन बहुत गिरा हुआ था। जहां तक रोजमर्रा के उपभोग की अति-आवश्यक वस्तुओं का सवाल है वहां सिर्फ 1% से भी कम वृद्धि है जबकि टिकाऊ उपभोक्ता सामानों जैसे फ्रिज, टीवी, स्कूटर, एसी, आदि का उत्पादन दोनों महीनों में लगभग 4% गिरा है। पूंजीपति वर्ग भी मांग की इस स्थिति को जानता है और उसे मालूम है कि उद्योग अपनी पहले से स्थापित क्षमता का भी 60-65% ही उपयोग कर पा रहे हैं अतः नवीन उत्पादक पूंजी निवेश भी ठप है। इसीलिए उद्योग निर्माण में लगने वाले पूंजीगत सामानों के उत्पादन में पिछले दो महीनों में तेजी से गिरावट (सितंबर में लगभग 4% व अक्टूबर में लगभग 6%) आई है। नतीजा साफ है कि बेरोजगारी की स्थिति और भी भयावह होने वाली है। 

कहा जा सकता है कि इस बजट में जिस ‘अमृत काल’ की इतनी बात की गई उसमें संतुलित पोषक भोजन का खर्च उठाने में असमर्थ जनता की तादाद में भारी वृद्धि होगी, बीमार होने पर लोग इलाज न कराने के लिए मजबूर होंगे, गैस सिलिन्डर रहने पर भी वे लकड़ी-गोबर के धुएं में ही खाना पका रहे होंगे, गरीबों के पास तो अभी भी बचाने को कुछ नहीं पर जिंदगी पर बचाते रहे मंझले तबके वाले भी पाएंगे कि उनके द्वारा की गई बचत की असल कीमत तो बहुत थोड़ी रह गई, बहुत बड़ी तादाद में बच्चे शिक्षा के नाम पर साक्षरता से आगे नहीं बढ़ पाएंगे और कॉलेज की डिग्रियों का मूल्य रद्दी के कागज से अधिक नहीं रहेगा।  

संक्षेप में, इस बजट से कुछ पता चलता है तो यही कि मुनाफे के लिए चलने वाली पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था संकट के भंवर में और गहरे ही फँसती जा रही है और इससे निकलने के कोई आसार नहीं हैं। उधर इस संकट का सारा बोझ मेहनतकश जनता के ऊपर डालना ही पूंजीपति वर्ग की सरकार की नीयत है। खुद मेहनतकश जनता ने इस स्थिति में पूंजीपति वर्ग की सत्ता से कुछ मिलने या सुधार के भ्रम से मुक्त हो अपनी मुक्ति के संघर्ष की राह चुननी होगी।        

राजनीतिक निहितार्थ

बजट बुर्जुआ संसदीय जनतंत्र की बुनियाद है। सरकार को कर्ज, टैक्स, शुल्क के जरिए वित्त देने वाले पूंजीपतियों के नुमाइंदों द्वारा आय-व्यय को तय करने के अपने अधिकार के लिए ही सामंती राजतंत्र को पराजित करने पर बुर्जुआ संसद का शासन अस्तित्व में आया। भारत की आजादी पश्चात संसदीय परंपरा में बजट का प्रयोग सरकार की नीतियों का विवरण और जनसमस्याओं पर उठाये जाने वाले कदमों का विवरण प्रस्तुत करने के लिए किया जाता रहा है। बजट एक अवसर रहा है जिसके जरिए सत्तारूढ़ दल जनता के सामने अपने कार्य, आय-व्यय और उसकी लाभ-हानि का ब्यौरा प्रस्तुत करता था और उससे सवाल पूछे जाते थे। इस प्रकार यह जनता के प्रति सत्ता की जवाबदेही का एक औजार था। निश्चय ही यह पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही था, वास्तविक जनवाद नहीं था। अतः हमारा कहना यह नहीं है कि एक शोषणमुक्त न्यायपरक व्यवस्था कायम हो गई थी, किंतु बुर्जुआ जनतांत्रिक दायरे की सीमा में ही प्रश्न करने और कभी-कभार सरकारी नीतियों को सीमित ढंग से ही सही पर पलटने का मौका बना रहता था। खास तौर पर चुनावों के दौरान तो सरकार के सामने जरूरी होता था कि वह जनहित में कुछ करते और राहत देते दिखे। इसके जरिए जनता कुछ तात्कालिक राहत व जनवादी अधिकारों की लडाई का एक और मंच हासिल कर लेती थी।

यहां यह भी सच है कि एक तो भारतीय संविधानिक जनतंत्र में जनवाद आरंभ से ही बहुत कमजोर था और सभी चुनावी पार्टियों (समाजवादी, संसदीय वामपंथी, सामाजिक न्यायवादी सहित) ने भी जनवादी अधिकारों के इस मंच का कभी सशक्त इस्तेमाल करने के बजाय सत्तारूढ़ पार्टी को बजट पारित करने में सहयोग की नीति अपनाई और धीरे धीरे बजट का बहुत सा अंश बिना किसी चर्चा के ही पास किया जाने लगा। मोदी सरकार ने तो इन सब पार्टियों की मदद से ही जीएसटी के जरिए अप्रत्यक्ष कर लगाने का अधिकार ही संसद से लेकर अफसरशाही को सौंप दिया और इसमें परिवर्तनों की चर्चा संसद के खुले राजनीतिक मंच के बजाय बंद कमरों की सौदेबाजी में बदल गई। फिर भी यह मंच कुछ हद तक बना रहा।

किंतु बीजेपी सरकार जब से आई है तब से ही इसने अपने फासिस्ट चरित्र मुताबिक न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया सहित संसद को भी पूरी तरह खोखला कर दिया है। अफसरशाही व पुलिस पर अपनी जकड़ मजबूत करने के बाद इसे जनता के रोष या उसकी आवाज की कोई दिखावटी परवाह भी नहीं बची है। विभिन्न पुलिस एजेंसियों के बल पर इसने विपक्षी नेताओं क्या कई पार्टियों तक को अपने चंगुल में नचाने की ताकत हासिल कर ली है। यह सरकार अपने विरोधियों की तो क्या, अपने ही समर्थकों के असंतोष की भी रत्ती भर परवाह नहीं करती। छोटे उद्योगपति, व्यापारी इसे भुगत चुके हैं, उसके ही हिमायती रहे किसान भी इससे गुजर चुके हैं, सांप्रदायिक-अंधराष्ट्रवाद के उन्माद में बहे युवा बेरोजगार भी इसे भुगत रहे हैं, मुंहजोर मध्यम वर्ग की भी अब कोई सुनवाई नहीं है। उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में जनता द्वारा हरा दिये जाने के बाद भी अफसरशाही के बल पर जिला पंचायतों पर कब्जा कर बीजेपी दिखा चुकी है कि अब उसे जनता के वोट की भी परवाह नहीं बची है। इसीलिए उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों के चुनावों के बावजूद इस बजट में बीजेपी सरकार ने किसी भी तबके के हितों व राहत की मांग पर कोई गौर नहीं किया, जुमले और झूठे वादे तक करने की जरूरत महसूस नहीं की। मतलब यही है कि यह हुकूमत फासीवाद के नंगे नाच की ओर एक कदम और अग्रसर हो चुकी है और उसे जब तक वित्तीय पूंजीपतियों का हाथ उसकी पीठ पर है, उसे जनता की भावना, आवाज, रोष प्रदर्शन, विरोध और वोट तक की परवाह करने की कतई कोई जरूरत नहीं लग रही है।