स्‍कूल-कॉलेज में ड्रेस कोड के मुद्दे पर छिड़े विवाद में

March 18, 2022 0 By Yatharth

भगवा की धूम और उसका निहितार्थ

संपादकीय (फरवरी अंक)

हम शुरूआत एक सवाल से करते हैं; अगर हम यह मान लें कि हिंदू संगठनों द्वारा जारी हिजाब-विरोध आंदोलन का उद्देश्‍य स्‍कूल-कॉलेजों में एकसमान ड्रेस कोड लागू करने के लक्ष्‍य तक सीमित है, जैसा कि देश के हिंदू संगठन बताने की कोशिश कर रहे हैं, तो आरएसएस और भाजपा से संबद्ध हिंदू संगठनों के नेतृत्‍व में छात्रों द्वारा इस विवाद में भगवा झंडा की धूम मचाने का क्‍या मतलब हो सकता है? क्‍या इससे यह साबित नहीं होता है कि इनका असली इरादा कुछ और है? आंदोलन का वास्‍तविक मकसद स्‍कूल-कॉलेजों में ड्रेस कोड लागू करना है या इस नाम पर मिले अवसर का उपयोग करते हुए पहले से ही हिंदू-मुस्लिम बंटवारे से ग्रस्‍त समाज को सांप्रदायिक तौर पर और ज्‍यादा विभाजित करना, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ड्रेस कोड पर कर्नाटक के उडुपी और कुंदापुर के प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों में छिड़े छोटे से विवाद ने जल्‍द ही एक सांप्रदायिक घमासान का रूप ले लिया जो अन्‍य बातों के अतिरिक्‍त यह भी इंगित करता है कि इसके पीछे धार्मिक संगठन या धर्म के आधार पर काम करने वाले संगठन कार्यरत हैं। आरएसएस तथा भाजपा से जुड़े संगठनों (जैसे कि कर्नाटक में विशाल जनाधार कायम कर चुका ‘हिंदू जागरणा वेदिके’) द्वारा इस मौके का फायदा उठाते हुए पूरे समाज में भगवा आंदोलन चलाया जाना, घर-घर भगवा फहराने का नारा, इसके लिए जोर-जबर्दस्‍ती करने वाले आक्रामक तेवर व अंदाज में नारे लगाना, और एक कॉलेज (शिवमोगा कॉलेज) के प्रांगण में लगे पोल पर (जो शायद गणतंत्र दिवस तथा स्‍वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराने के काम आता है) भगवा झंडा फहरा देना, आदि इस बात की ओर इशारा करता है कि इस विवाद को जानबूझ कर शायद इसी खास मकसद से उठाया गया है। शायद इसीलिए इसे नियंत्रि‍त‍ करने की अभी तक कोशिश भी नहीं की गई। हम जानते हैं कि आरएसएस और भाजपा का उद्देश्‍य भारत को हिंदू राष्‍ट्र में बदल देना है और इसीलिए यह स्‍वाभाविक है कि इसके सैंकड़ों संगठन हिंदू पहचान के अतिरिक्‍त किसी और पहचान को समाज में नहीं रहने देना चाहते हैं। खानपान, पहनावे तथा रहन-सहन के अन्‍य तौर-तरीकों के बारे में भी इनका यही रवैया है। दरअसल, ये देश को अपने तरीके से हांकने व चलाने की बात करते हैं। जो इनकी बात नहीं मानता, उन्‍हें ये हिंदू विरोधी और देशद्रोही करार देते हैं। जो इनसे मतभेद रखते हैं उन्‍हें ये देश निकाला देने की बात करते हैं।

यह विवाद शुरू कैसे हुआ? जाहिर है इसे लेकर अलग-अलग राय है। उडुपी कॉलेज के डेवलपमेंट कमिटी के चेयरमैन रघुपति भट, जो भाजपा से इसी क्षेत्र के एमएलए भी हैं, का कहना है कि मुस्लिम छात्राओं को ‘कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया’ नामक संगठन के द्वारा अनुशासन तोड़ कर क्‍लास में हिजाब पहनने की जिद करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है, जबकि लड़कियों की तरफ से दूसरी ही कहानी बताई जाती है। उनका कहना है कि वे क्‍लास में पहले से ही हिजाब पहनती रही हैं। कर्नाटक उच्‍च न्‍यायालय में पेश आवेदन में भी यह बात दर्ज है। वे यह भी कहती हैं कि उनकी सीनियर्स को भी हिजाब पहनने के लिए प्रताड़ना सहनी पड़ती थी लेकिन उन्‍हें क्‍लास करने से रोका नहीं गया। ‘द हिंदू’ अखबार उनमें से एक लड़की आलिया असादी के हवाले से लिखता है कि “क्‍लास में कभी-कभी कुछ शिक्षकों के द्वारा छात्रों को हमारी हिजाब खींचने के लिए कहा जाता था।” वह कहती है, – “जब सितंबर 2021 में हमारी क्‍लास फिर से शुरू हुई तो हम लोगों को यह देख कर घोर आश्‍चर्य हुआ कि हमें इस बार पूरी तरह हिजाब हटाये बिना क्‍लास करने से मना कर दिया गया। जब हमारे गार्जियन ने प्रिंसिपल से मिलकर हमें क्‍लास में हिजाब पहनने देने के लिए प्रार्थना किया, तो उन्‍होंने दो महीनों तक इसको टालते रहने का काम किया और कोई सुनवाई नहीं की। उस दौरान हम बिना हिजाब पहने ही क्‍लास करते रहे। अंत में, हमारे मां-पिता जी ने उबते हुए यह कहा कि चाहे जो भी हो हिजाब पहन कर कॉलेज जाओ।”

‘द हिंदू’ अखबार की मानें तो स्‍कूल के प्रिंसिपल रूद्र गोड्डा ने अखबार के समक्ष यह स्‍वीकारा कि ‘छात्राओं ने क्‍लास रूम में हिजाब पहनने के लिए लगातार अनुमति देने की मांग की, लेकिन वे कॉलेज डेवलपमेंट कमिटी के चेयरमैन द्वारा निर्णय लिए जाने की बात का हवाला देते हुए अनुमति देने से इनकार करते रहे।’ इसका परिणाम हुआ कि छह लड़कियों को क्‍लास रूम से बाहर निकाल दिया गया। ये लड़कियां लगातार एक महीने तक क्‍लास रूम के बाहर बैठने के लिए मजबूर की जाती रहीं। ‘कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया’ नामक संगठन ने इनके मुद्दे को हाथ में लिया और राज्‍य तथा शिक्षा विभाग के सारे ऊंचे अधिकारियों को इसके बारे में सुनवाई के लिए आवेदन किया। लेकिन उनकी कहीं नहीं सुनी गई।

यह पूरे प्रदेश में कैसे फैला, इसके बारे में भी अखबार ने लिखा है। उसके अनुसार 7 जनवरी 2022 को उडुपी कॉलेज के छात्रों के एक ग्रुप ने प्रबंधन को एक ज्ञापन सौंपते हुए धमकी दी कि ‘अगर मुस्लिम छात्राओं को क्‍लास में हिजाब पहनने की अनुमति दी गई तो वे भी भगवा गमछा पहन कर क्‍लास करेंगे।’ प्रदेश के प्राथमिक और माध्‍यमिक शिक्षामंत्री बी.सी. नागेश ने उपरोक्‍त छात्रों की धमकी के समक्ष झुकते हुए तथा प्रबंधन के हिजाब पर प्रतिबंध लगाने के निर्णय को सही करार देते हुए मुस्लिम छात्राओं के द्वारा हिजाब पहनने की अनुमति मांगने को अनुशासनहीनता करार दे दिया। हालांकि उन्‍होंने माना कि “कॉलेजों के लिए पहले से कोई फिक्‍स्‍ड कोड ऑफ यूनिफार्म नहीं है, लेकिन जब प्रबंधन ने निर्णय ले लिया है तो उसे मानना होगा।” उन्‍होंने 25 जनवरी को इस विवाद को एक विशेषज्ञ कमिटी के हवाले करते हुए फिलहाल कॉलेज में यथास्थिति बहाल रखने का आदेश दे दिया। जाहिर है, मंत्री की बात से सांप्रदायिक शक्तियों का मनोबल बढ़ गया और पड़ोस के कुंदापुर शहर के एमएलए और 145 साल पुराने सरकारी जूनियर कॉलेज की डेवलपमेंट कमिटी के चेयरमैन हलादि श्रीनिवास शेट्टी ने भी इस कॉलेज में हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया। ज्ञातव्‍य हो कि इस कॉलेज में दशकों से मुस्लिम छात्राएं हिजाब पहनती आ रही थीं। पूछने पर उक्‍त एमएलए ने बताया कि “हमने स्‍वयं से कुछ नहीं किया, हमने बस 25 जनवरी के सरकार के फैसले (जिसमें प्राथमिक एवं माध्‍यमिक शिक्षा मंत्री ने उडुपी कॉलेज प्रबंधन द्वारा हिजाब पर लगे प्रतिबंध को हटाने से इनकार करते हुए अगले आदेश तक कॉलेज कैंपस में यथास्थिति बहाल रखने का आदेश दिया था) को लागू कर दिया है।” 1 फरवरी को छात्राओं को प्रिंसिपल द्वारा यह फरमान सुनवा दिया गया कि हिजाब पहन कर कॉलेज में क्‍लास करने आना मना है। कहा गया कि यह सरकार का आदेश है। इसके एक दिन बाद एमएलए शेट्टी ने एक पेरेंट्स-टीचर्स मीटिंग बुलवाई। उसमें उक्‍त एमएलए स्‍वयं उपस्थित रहता है और नये यूनिफार्म नियमों की घोषणा करता है। लेकिन जो आश्‍चर्यजनक हुआ वह यह था कि जैसे ही पेरेंट्स और टीचर्स मीटिंग में पहुंचे, उनका सामना 50 से भी अधिक भगवाधारी छात्रों से हुआ। इस विवाद में यह पहला दृष्‍टांत बना जब भगवा‍धारी लड़कों को इस विवाद में सीधे उतारा गया। यहां पर भाजपा सरकार और नेताओं की मंशा पूरी स्‍पष्‍टता से जगजाहिर हो जाती है कि इस विवाद को जानबूझ कर बढ़ाया गया। ये भगवा गमछाधारी लड़के कौन थे, पेरेंट्स-टीचर्स  मीटिंग में क्‍यों और क्‍या करने आए थे, किसने इन्‍हें आने दिया, इन प्रश्‍नों के उत्‍तर खोजने के लिए जब ‘द हिंदू’ अखबार ने प्रिंसिपल रामकृष्‍णा से बात करने की कोशिश की, तो उन्‍होंने बात करने से इनकार करते हुए यह साफ-साफ कहा कि “मुझे ऊपर से मीडिया से बात करने की सख्‍त मनाही है।” फिर 3 फरवरी को, यानी उसके अगले ही दिन सैंकड़ों की संख्‍या में भगवा शॉल ओढ़े लड़के और लड़कियां कॉलेज के बाहर जुट गये। वहीं दूसरी तरफ कॉलेज के प्रिंसिपल ने हिजाब पहन कर कॉलेज आने वाली 28 मुस्लिम छात्राओं को कॉलेज के गेट के बाहर ही रोक दिया। गेट के बाहर ये मुस्‍लि‍म लड़कियां सैंकड़ों भगवाधारी छात्रों व छात्राओं का बिल्‍कुल सामने से विरोध (हुड़दंग) झेलने को मजबूर इुईं। इसके चुनिंदा वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए जिसे देखने के बाद यह विवाद पूरे प्रदेश में और पूरे देश व विदेश में फैल गया। मुस्लिम लड़कियों को कॉलेज वाशरूम का भी उपयोग करने नहीं दिया गया। एक भगवाधारी लड़के से ‘द हिंदू’ अखबार की हुई बातचीत को अगर पढ़ें तो उसमें कर्नाटक के तटीय इलाकों में मुस्‍लि‍मों के पारंपरिक पहनावे, वेशभूषा और अन्‍य दूसरे रीति-रिवाजों के विरुद्ध पैदा की गई अजीबोगरीब घृणा-भावना को साफ-साफ देखने का मौका मिलेगा। वह (भगवाधारी) लड़का ‘द हिंदू’ अखबार से कहता है, “जब से उडुपी में (हिजाब) विवाद शुरू हुआ है, तब से हमें हिजाब पहने मुस्लिम छात्राओं से असहजता और दिक्‍कत होने लगी है।’’ हिजाब के खिलाफ शुरू हुए इस भगवा गमछा आंदोलन को दूसरे कॉलेजों में फैलते देर नहीं लगी। एक ही दिन में, वहां के भंडारकर आर्ट एंड साइंस कॉलेज तथा आर.एन. शेट्टी कंपोजिट पीयू कॉलेज में यह फैल गया। इन कॉलेजों में पहले से हिजाब पहन कर क्‍लास करने में कोई प्रतिबंध नहीं था। लेकिन आंदोलन शुरू होते ही अब मुस्लिम छात्राओं को हिजाब पहन कर कॉलेज आने तथा क्‍लास करने से रोक दिया गया है। उडुपी में भी यह आंदोलन एक अन्‍य कॉलेज, महात्‍मा गांधी मेमोरियल कॉलेज में फैल गया। छात्रों ने तर्क यह दिया कि अगर मुस्लिम छात्राएं अपने धर्म पर जोर दे रही हैं तो वे क्‍यों नहीं देंगे।

जहां तक हिंदू संगठनों के इसमें पीछे से शामिल रहने की बात है तो मीडिया में इसके प्रमाणस्‍वरूप मंगलुरू क्षेत्र के ‘हिंदू जागरणा वेदिके’ के सचि‍व प्रकाश कुक्‍केहाल्‍ली और सुवर्णा के वीडियो और फोटो आदि वायरल हो चुके हैं जिसमें हिजाब प्रतिवाद प्रदर्शन के बाद हिंदू छात्र उन्‍हें (सुवर्णा को) भगवा मुकुट लौटा रहे हैं। इसके अलावे इस संगठन से प्रत्‍यक्ष रूप से जुड़े एक छात्र (महात्‍मा गांधी मे‍मोरियल कॉलेज से जर्नलिज्‍म की पढ़ाई कर रहे) शोधन कुंदुपुरा ने भी ‘द हिंदू’ अखबार के साथ हुई बातचीत में यह स्‍वीकारा कि जिन लोगों ने आंदोलन को नेतृत्‍व दिया वह उनमें से एक है। 

देश का संविधान क्‍या कहता है? देश का संविधान पूंजीवादी जनतांत्रिक संविधान है, इसलिए इसकी सीमाएं हैं, लेकिन इसके बावजूद यह बिना किसी भेदभाव के धार्मिक, भाषाई व क्षेत्रीय समुदायों को अपने-अपने धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के अनुरूप व्‍यवहार करने तथा अपनी पारंपरिक सामाजिक वेशभूषा में रहने व जीवन-यापन करने की स्‍वतंत्रता प्रदान करता है। अगर किसी समुदाय विशेष के लोग अपने धर्म के अनुरूप तय सामाजिक परंपरा के अनुसार रहते हैं, खाते हैं, शादी करते हैं, कपड़े पहनते हैं, तथा जीवन गुजर-बसर करते हैं, तो संविधान ऐसे सभी समुदायों को इसकी पूरी आजादी देता है। वहीं, समुदाय के अंदर तथा बाहर के लोगों को भी धार्मिक मान्‍यताओं, पुरानी अतार्किक परंपराओं और अंधविश्‍वासों की बौद्धिक एवं वैज्ञानिक आलोचना करने का अधिकार है। लेकिन किसी समुदाय विशेष पर बाहर से और जोर-जबर्दस्‍ती से कोई नयी परंपरा या मान्‍यता नहीं थोपी जा सकती है जब तक कि वह चीज उस समुदाय के लोगों के अंदर से ही नहीं आ रही हो। समुदाय के बाहर से कोई नियम या नया कोड लादना, बलपूर्वक किया जाने वाला हस्‍तक्षेप है, और हस्‍तक्षेप ही माना जाएगा, जब तक कि ऐसा करना विशेष परिस्थिति‍यों में आवश्‍यक न हो गया हो। अंत:प्रेरणा के बिना पुरानी मान्‍यताओं व परंपराओं को बदलने की कोशिश उल्‍टे परिणाम लाती है और आम जनों को पुरानी मान्‍यताओं व सोच से और अधिक बलपूर्वक बंधे रहने तथा चिपके रहने के लिए प्रेरि‍त करती है।

धर्म की आलोचना ठूंठ नहीं होनी चाहिए। जीवन को बेहतर बनाने के लिए होने वाले संघर्ष तथा आंदोलन से काटकर की गई आलोचना का कोई अर्थ नहीं है। यह लोगों पर विपरीत असर ही पैदा करता है। इसलिए अगर कोई किसी समुदाय के पुराने दकियानूसी विचारों, मान्‍यताओं, रिवाजों व परंपराओं, आदि में आधुनिक व वैज्ञानिक सोच व विचार के अनुरूप बदलाव लाना चाहता है, तो भी उसे जोर-जबर्दस्‍ती करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। पहले लोगों को उनके अपने धर्म के अनुसार आचरण व व्‍यवहार करने की स्‍वतंत्रता के अधिकार को स्‍वीकारना व मान्‍यता देना होगा। उसके बाद ही नये विचारों का धैर्य से उनके बीच में वैज्ञानिक तर्कों एवं तथ्‍यों के आधार पर प्रचारि‍त करने का कोई सकारात्‍मक परिणाम सामने आ पाएगा। हां, हर व्‍यक्ति को यह आजादी होनी चाहिए कि वह धर्म से जुड़े अंधविश्‍वासों और यहां तक कि स्‍वयं धर्म की वैज्ञानिक आलोचना कर सके। जनता को वैज्ञानिक सोच अपनाने के लिए जागरूक बनाना देश और समाज के प्रति हमारा एक महत्‍वपूर्ण कर्तव्‍य भी है। लेकिन इसका मतलब जोर-जबर्दस्‍ती करना नहीं है। एक सभ्‍य समाज में हर समुदाय को आलोचना के प्रति सहिष्‍णु और वैज्ञानिक विचारों के प्रति नमनीय होना चाहिए। अगर कोई सही तरीके से पुरानी गैर-वैज्ञानिक मान्‍यताओं व परंपराओं एवं धर्म की आलोचना करता है तो उसे ऐसा करने का अधिकार देना आधुनिक सभ्‍यता के जनवादी मानदंडों का तकाजा भी है और उस समाज के विकास के लिए जरूरी चीज भी।

हिंदू और मुस्लिम ही नहीं, सभी धर्मों का इतिहास बताता है कि इनके मठाधीश आज भी इन मानदंडों के विरोधी हैं, भले ही तथ्‍य और तर्क उनके विरुद्ध जाते हों। सूर्य के चारों ओर पृथ्‍वी घुमती है न कि इसके विपरीत, इस तथ्‍य को स्‍वीकारने में पोप को 300 से ज्‍यादा वर्ष लग गये और इस बात को पहली बार कहने और साबित करने वालों को मृत्‍युदंड दिया गया। आज एक बार फिर से धर्म निरपेक्षता के सिद्धांतों व मान्‍यताओं के विरुद्ध पूरी दुनिया के शासक वर्ग खड़े हो गये हैं। क्‍यों? इसलिए कि वे जनता को जीवन-यापन के न्‍यूनतम साधन भी प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं। बेरोजगारी एवं महंगाई की मार झेल रहे और शिक्षा व स्‍वास्‍थ्‍य की सुविधाओं से वंचि‍त जनता को उनके ही जीवन की वास्‍तविक समस्‍याओं से दूर ले जाने तथा उनका ध्‍यान कहीं और तथा किसी अन्‍य चीज में भटकाने के लिए सदियों से जड़ जमाये धर्म तथा धार्मिक पूर्वाग्रहों के इस्‍तेमाल की इन्‍हें इसलिए ही आज सख्‍त जरूरत आ पड़ी है। पूरी दुनिया में फासिस्‍ट शक्तियों को बड़ा पूंजीपति वर्ग इसीलिए प्रश्रय देते हुए सत्‍ता में ला रहा है जो इनका काम आसानी से पूरा कर सके।

भारत में भी यही हुआ जब 2014 में बड़ा पूंजीपति वर्ग गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगों व नरसंहार के नायक नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्‍ता में ले कर आया। तब से हम देख सकते हैं कि कैसे तरह-तरह के भ्रातृघातक विवाद किसी न किसी बहाने देश में इनके संरक्षण में भाजपा और आरएसएस के लोग व नेता उठाते रहे हैं और सामाजिक सौहार्द को लगातार बिगाड़ते रहे हैं, और इनका बाल बांका भी नहीं होता है।

यह सच्‍चाई है कि शिक्षण संस्‍थानों में ही नहीं, अपितु समाज के हर क्षेत्र में एक समुदाय विशेष के प्रति असहिष्‍णुता की भावना पैदा की जा रही है। नमाज पढ़ने में किसी न किसी बहाने खलल डालने की कोशिश करना, अजान पर पाबंदी लगाने की मांग करना, अंतर्धार्मिक प्रेम विवाह को ”लव जिहाद” बता कर प्रेमी जोड़ों पर जुल्‍म ढाना, मुस्लिमों की टोपी और दाढ़ी तक को निशाना बनाना, खान-पान एवं व्‍यवसाय की आजादी को आतंक के जरिए खत्‍म किया जाना, आदि इसके चंद उदाहरण मात्र हैं। अयोध्‍या के बाद अब मथुरा में भी मस्जिदें निशाने पर आ चुकी हैं।

‘आजाद’ भारत में यह पहली बार हो रहा है कि धर्म विशेष का चोला पहनकर भाजपा शासित राज्‍यों के मुख्‍यमंत्री और स्‍वयं प्रधानमंत्री भारत जैसे विशाल जनतांत्रिक देश के राज्‍य का संचालन कर रहे हैं। चुनावों में एक धर्म के समुदाय को निशाने पर लेकर भाषणों में सौहार्द बिगाड़ने वाली बातें की जाती हैं। आज जब स्‍कूल व कॉलेज में एक समान ड्रेस कोड की मांग की जा रही है, भाजपा तथा अन्‍य हिंदू संगठन अगर सभी को एकसमान दिखने की बड़ी समझदारी वाली बातें कर रहे हैं, तो क्‍या वे प्रधानमंत्री मोदी और उप्र के मुख्‍यमंत्री योगी को एक धर्म  विशेष का चोला पहन कर उस धर्म से जुड़े होने का दंभ करने के लिए आलोचना करेंगे या उनके खिलाफ आंदोलन करेंगे? क्‍या यह सच नहीं है कि आज पूरी राज्‍य मशीनरी में जहरीला सांप्रदायिक विभाजन फैलाया जा रहा है? क्‍या ये इस खतरनाक विभाजन के खिलाफ भी आवाज उठाएंगे?

नहीं, ये ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे। ये लोग धर्म निरपेक्षता के विरोधी हैं। तो फिर ये एक समान ड्रेस कोड पर धर्मनिरपेक्ष दिखने का आग्रह क्‍यों कर रहे हैं? निस्‍संदेह यह ढकोसला है। आज ये धर्मनिरपेक्ष दिखने का नाटक हिजाब का विरोध करने के एकल उद्देश्‍य से कर रहे हैं। और कोई दूसरा कारण और वजह नहीं है। और जैसा कि ड्रेस कोड विवाद के बहाने होते दिख रहा है, इसकी आड़ में ये भगवा को ही तो प्रतिष्ठित करने में लगे हैं! उसे ही तो हर जगह फहराने की मुहिम ये चला रहे हैं! स्‍कूल-कॉलेजों में बिना किसी विशेष धार्मिक व सामुदायिक पहचान चिन्‍ह के, एक समान ड्रेस कोड के लिए झंडा बुलंद करना निस्‍संदेह एक प्रगतिशील सुधार का काम है, लेकिन भाजपा और आरएसएस से जुड़े लोगों का इस बहाने एजेंडा फासीवादी विचारों को लोकप्रिय बनाना और उसे आगे बढ़ाना ही है। इनकी चालों से अनजान, मासूम तथा भोले-भाले लोगों को लगता होगा कि भाजपा के लोग तो बड़ी अच्‍छी चीज करना चाह रहे हैं। वे सोचते होंगे, ‘इसमें तो कुछ भी बुराई नहीं है!’

तो क्‍या फासीवादी भी सुधारवादी हो गए हैं? हम ऊपर देख चुके हैं कि ऐसा सपने में भी सोचना संभव नहीं है। दरअसल कर्नाटक में नये ड्रेस कोड (नया क्‍यों है आगे बताएंगे) के बहाने उस राज्‍य व पूरे देश व समाज की समरसता को तहस-नहस करना ही इनका मुख्‍य इरादा है। इस विवाद में उनका मुख्‍य इरादा मुस्लि‍मों को हिजाब के मामले पर भी पीछे धकेलना है जैसे उन्हें ऐसे ही अन्‍य मसलों पर पीछे धकेला गया। इसमें भी हम पाते हैं कि पहले क्‍लास रूम में हिजाब पहनने से मना किया गया और जब विवाद बढ़ा तो कॉलेज आने से ही मना कर दिया। जब विवाद और बढ़ेगा तो ये कहीं भी हिजाब पहनने से रोक देने की ओर बढ़ेंगे। इसलिए तो ये मुस्लिमों के धार्मिक चिन्‍हों व पहचान को ही घृणा की चीज बनाते हैं! सिर्फ ड्रेस कोड का यह मसला होता तो इस विवाद में मुस्लिमों के खान-पान, रहन-सहन और पहनावे के खिलाफ इनके द्वारा प्रशिक्षित भगवा वाहिनी में इतनी घृणा नहीं मचलती। इसलिए ड्रेस कोड तो बस बहाना मात्र है जिसके माध्‍यम से इनके अंदर की यह घृणा बाहर आ रही है।

इनसे पूछा जाना चाहिए कि स्‍कूल-कॉलेजों में एकसमान ड्रेस कोड का झंडा उठाना तो निस्‍संदेह अच्‍छी बात है, लेकिन उसके पहले क्‍या राज्‍य के संचालन में एकसमान, अर्थात धर्मनिरपेक्ष (धर्मनिरपेक्ष हुए बिना एकसमान नहीं हुआ जा सकता है, अन्‍यथा वह बहुसंख्‍यक धर्म का अल्‍पसंख्‍यक धर्म के ऊपर वर्चस्‍व ही होगा) व्‍यवहार कोड अर्थात “कोड ऑफ कंडक्‍ट” की मांग नहीं करनी चाहिए? पूरे देश में धर्म निरपेक्षता को खत्‍म करने की मुहिम चलाने वाले तो ये ही लोग हैं। इसलिए भी इनसे यह प्रश्‍न पूछना चाहिए। वे ही आज स्‍कूल-कॉलेजों में एक धर्मनिरपेक्ष ड्रेस कोड और कैंपस की बात कर रहे हैं। लेकिन इससे झूठ बात कुछ और नहीं हो सकती है।

धर्म निरपेक्षता का अर्थ है – धर्म को राज्‍य व सार्वजनिक जीवन के क्षेत्रों से हटाकर निजी जीवन के क्षेत्र तक सीमित कर देना। एकमात्र यही तरीका है सार्वजनिक जीवन में वास्‍तविक रूप से एकरूपता लाने का। अन्‍यथा, बहुसंख्‍यकों के धर्म का समाज व राज्‍य में वर्चस्‍व कायम होने से नहीं रोका जा सकता है जैसा कि भाजपा ही नहीं किसी भी अन्‍य पूंजीवादी पार्टी के शासन में भी भारत में लगातार होते देखा गया है। यह एक ऐतिहासिक और अकाट्य तथ्‍य है कि भारत की सभी बुर्जुआ पार्टियां दरअसल हिंदुत्‍व की विचारधारा को ही मानती हैं, उसको ही प्रैक्टिस करती हैं, चाहे कम या ज्‍यादा, चाहे खुले रूप में या चोरी-छुपे। भारत के शासक वर्ग के लिए भी यही बात सच है।  

उपरोक्‍त बातों को अगर कसौटी बनाया जाये, तो सर्वप्रथम देश के प्रधानमंत्री मोदी और उप्र सहित सभी भाजपा शासित राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रि‍यों को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। वे जनतांत्रिक देश के आम लोगों द्वारा चुने हुए राजनेता और सेवक से ज्‍यादा किसी धर्म विशेष के प्रचारक दिखते हैं। अगर हम वास्‍तव में स्‍कूल-कॉलेजों में एकसमान ड्रेस कोड लागू करने की बात करते या सोचते हैं, तो क्‍या इसी के साथ हमें चुने गये जनप्रतिनिधियों के लिए एक धर्मनिरपेक्ष व्‍यवहार कोड की मांग नहीं करनी चाहिए? और अगर ‘राज्‍य’ के लिए यह सब जरूरी नहीं समझा जा रहा है, उल्‍टे दिन-प्रतिदिन राज्‍यसत्‍ता के मौजूदा ठेकेदारों द्वारा विपरीत आचरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, लगातार मुस्लिमों के अपने जीने के तौर-तरीकों को निशाना बनाया जा रहा है, तो फिर महज स्‍कूलों में धर्म निरपेक्षता का ढोंग करने से आखिर क्‍या हासिल हो जाएगा? यह तो अपने तरीके की धर्म निरपेक्षता है जिसके तहत स्‍कूल आते हैं लेकिन राज्‍य सत्‍ता में बैठे राजनेता नहीं। जाहिर है इसका विरोध होना ही था। और दरअसल, सरकार इसे जानते हुए ही, विवाद खड़ा करने के उद्देश्‍य से ही यह सब कर भी रही है ताकि भगवा गमछाधारी आंदोलन को तेज करने के और मौके निकाले जा सकें।

ड्रेस कोड के नाम पर जो हो रहा है अथवा किया जा रहा है, क्‍या उसे एकसमान ड्रेस कोड लागू करने का आंदोलन कहा जा सकता है? यह तो दरअसल इस नाम पर हो रहा भगवा आंदोलन है। एक आधुनिक सोच को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष करना तो एक महान सुधार का कार्य है, लेकिन क्‍या इतना महान कार्य करने वाले के हृदय में किसी धर्म विशेष और उससे जुड़े लोगों के प्रति इतनी घृणा का रहना इसके अनुरूप है?

कुछ ही दि‍नों पहले की बात है। देश में हुए धर्म-संसद के आयोजन में मुस्लिमों की लाखों में हत्‍या, यानी उनका नरसंहार करने का आह्वान किया गया। इसका‍ वीडियो सार्वजनिक हुआ या जानबूझ कर किया गया यह ज्‍यादा महत्‍व की बात नहीं है। लेकिन हम, जो एक जनतांत्रिक राज्‍य के नागरिक हैं, अचरज के साथ प्रधानमंत्री को इस पर चुप्‍पी साधे देखते रहने के लिए बाध्‍य हैं। क्‍या यह बात हमें चैन से सोने देती है? हम चाह कर भी तो कुछ कर नहीं पा रहे है। इनके नेता गोदी मीडिया की मदद से इसे किसी न किसी बहाने सही ठहराने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन राज्‍य मशीनरी शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सिर दिए चुपचाप पड़ा रहा। बहुत हो-हल्‍ला हुआ तो ‘राज्‍य’ की पूरी मशीनरी ने थोड़ी बहुत कार्रवाई करके धर्मनिरपेक्ष राज्‍य होने के अपने कर्तव्‍यों की इतिश्री कर ली। फिर सब कुछ नॉर्मल मान लिया गया।  

लेकिन देखा जाए, तो फासीवादी शक्तियों द्वारा शुरू किये गये इस ड्रेस कोड विवाद, जिसे निस्‍संदेह विभाजनकारी और नफरती एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए शुरू किया गया है, का एक मिरर इमेज भी है, जो जाने-अनजाने प्रगतिशील शक्तियों के लिए बड़े काम की चीज है। यानी, इसके मिरर इमेज से जो बात या तर्क निकलते हैं, अगर उसको आगे बढ़ाया जाए, तो जैसा कि ऊपर कहा भी गया है, एक समान ड्रेस कोड पर फासीवादी शक्तियों द्वारा दिये जा रहे अत्‍यधिक जोर से एक अत्‍यंत जरूरी एवं क्रांति‍कारी मांग के लिए स्‍वाभाविक रूप से जगह बनती है। और वह मांग यह है कि जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के आधार पर चलने वाले राज्‍य में राज्‍यसत्‍ता के संचालन के लिए भी एकसमान, यानी एक धर्मनिरपेक्ष और जनवादी (क्‍योंकि धर्मनिरपेक्ष एवं जनवादी हुए बिना सभी के लिए वास्‍तव में एकसमान नहीं हुआ जा सकता है) “कोड ऑफ कंडक्‍ट” लागू करने की मांग तेज की जाए और इसके लिए प्रगतिशील शक्तियों को एक देशव्‍यापी जनांदोलन की तैयारी भी करनी चाहिए। जाहिर है इसके लिए एक देशव्‍यापी प्रगतिशील तथा जनवादी-क्रांतिकारी आंदोलन पूर्वापेक्षित है, जो दुर्भाग्‍य से अभी मौजूद नहीं है।     

कर्नाटक हिजाब विरोधी आंदोलन का केंद्र क्‍यों और कब से बना है? दरअसल ड्रेस कोड का यह नया खेल फासिस्‍टों द्वारा अपने फासिस्‍ट एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए पुराने तर्ज पर ही शुरू किया गया एक और नया प्रयोग है जिसे लगभग डेढ़ दशक से कर्नाटक की धरती पर आजमाया जाता रहा है। यह हिजाब विवाद कर्नाटक में ही क्‍यों शुरू हुआ इसका एक ठोस कारण है। हिंदू संगठनों की नजर में कर्नाटक को पूरे दक्षिण भारत में हिदुत्‍व के प्रभाव को प्रवेश दिलाने वाला गेटवे प्रदेश माना जाता रहा है, और इसलिए दो दशक पहले से यहां के समाज को हिंदुत्‍व की दिशा में उग्र बनाने (रेडिकलाईज करने) का प्रयास किया जाता रहा है।

आज का कर्नाटक, गुजरात और उप्र के बाद, हिंदुत्‍व का एक नया और वृहत प्रयोगशाला बन चुका है। नये-नये मुद्दे यहां प्रयोग के बतौर उठाये जाते हैं। श्रीराम सेना का प्रादुर्भाव यहीं होता है। फिर गौरी लंकेश की हत्‍या यहां होती है। उसके पहले और बाद में हिंदू संगठनों द्वारा लगातार उग्र कार्यक्रम किये जाते रहे हैं। चार साल पहले़ की बात है, 2018 में जब नई सरकार बनी, जो भाजपा की थी, तो सेंट एग्‍नेस कॉलेज में हिजाब पर प्रतिबंध लगाने तथा हिजाब पहनकर आने वाली मुस्लिम छात्राओं को कॉलेज परिसर में नहीं घुसने देने का आह्वान तेज किया गया था। स्‍कूल प्रबंधन पर भी जमकर दबाव बनाया गया था। लेकिन उस समय भाजपा सरकार होने के बाद भी इनकी उतनी ताकत नहीं थी कि वे इसे लागू करवा सकते थे। जाहिर है, यह आंदोलन भगवाधारी संगठनों से जुड़े छात्रों द्वारा चलाया गया था। इसके और पहले चलें, तो लगभग एक दशक से भी पहले, 2009 में बंगलुरु में वेंकटस्‍वामी कॉलेज (प्रि-यूनिवर्सिटी कॉलेज) में छात्रों ने वहां की उन मुस्लिम शिक्षिकाओं के खिलाफ मोर्चा खोला था जो हिजाब पहन कर आती थीं, यह जानते हुए भी कि शिक्षिकाओं व शिक्षकों के लिए ड्रेस कोड नहीं होता है। यही नहीं, छात्रों ने इसके विरोध में भगवा शॉल ओढ़कर कॉलेज आना शुरू कर दिया। इसलिए आज जो भगवा गमछा आंदोलन चल रहा है वह पहले की निरंतरता को ही दिखाता है। धीरे-धीरे जब बात बहुत बढ़ गई, तो प्रबंधन को दखल देना पड़ा। एक न्‍यूज पोर्टल के अनुसार, जब बात कॉलेज प्रशासन के पास पहुंची, तो उसने छात्रों से यह साफ-साफ कहा कि अगर वे चाहें तो तय ड्रेस कोड के रंग के शॉल ओढ़कर स्‍कूल आयें, तो उन्‍हें, यानी प्रबंधन को कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन लड़कों को यह बात मंजूर नहीं हुई और उनका आंदोलन बेनतीजा समाप्‍त हुआ। लेकिन एक बात स्‍पष्‍ट हो गई कि इनकी दिलचस्‍पी भगवे रंग में है और ये भगवा रंग हर चीज पर चढ़ाना चाहते हैं। कर्नाटक में जो ड्रेस कोड पहले लागू था उसमें आप क्‍या पहनते है उससे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण उसका रंग था। जाहिर है, हिजाब पहनकर स्‍कूल या कॉलेज में आना प्रतिबंधित नहीं था। यह भी खुलकर प्रकट होता है कि भगवा रंग ड्रेस कोड में कभी शामिल नहीं था।

भाजपा दरअसल बच्‍चों के माध्‍यम से यह चाहती है कि हिजाब समाज से पूरे तौर पर हट जाए। इनके ‘हिंदू राष्‍ट्र’ में भला दूसरे धर्म की पहचान कैसे रह सकती है? भाजपा के सत्‍ता में आने तक, या कहें पूरी ताकत के साथ सत्‍ता में आने तक, ये लड़के ही सामने से और प्रत्‍यक्ष तौर पर हिजाब का विरोध करते थे। हिंदू संगठन के लोग इनके पीछे छिपकर खड़े रहते थे। लेकिन आज वे भगवाधारी स्‍कूलों व कॉलेजों के प्रशासक बन बैठे हैं और उसी गंदी मानसिकता से काम कर रहे हैं जिस मानसिकता से इन्‍होंने बच्‍चों के दिमाग को पथभ्रष्‍ट करने का काम दशकों पहले से शुरू कर रखा है।

केंद्रीय विद्यालय द्वारा 2012 में ड्रेस कोड तय करने की जो प्रक्रिया ली गई थी, उस पर गौर करें तो उससे भी यह बात साबित होती है कि स्‍कूलों में हिजाब पर रोक कभी नहीं रही है। एक न्‍यूज चैनल व पुराने अखबारों की कतरनों के अनुसार, 2012 में केंद्रीय विद्यालय ने स्‍कूल यूनिफार्म तय करने के लिए एक कमिटी बनाई। उसने एक प्रस्‍ताव पारित किया और फिर यूनिफार्म का डिजाईन तैयार करने के लिए निफ्ट (National Institute of Fashion Technology) को चुना। जब डिजाइन की लिस्‍ट तैयार हुई तो इसमें बाजाब्‍ता मुस्लिम बच्चियों के लिए हिजाब की डिजाइन भी शामिल थी। उसके लिए एक खास रंग का निर्धारण भी स्‍कूल की उपरोक्‍त कमिटी ने ही किया था। यानी, जो प्रस्‍ताव था उसमें हिजाब और उसके लिए रंग का जिक्र भी था। इसी तरह उसमें सिख बच्‍चों के लिए पगड़ी या पटका का उसके रंग (भूरे रंग) के साथ जिक्र था। इस तरह भाजपा के सत्‍ता में आने के पहले तक इस संदर्भ में सरकारी नीति क्‍या थी, इससे पता चलता है।

दुनिया में सबसे सभ्‍य देशों में हिजाब क्‍या प्रतिबंधित है? नहीं, बिल्‍कुल ही नहीं। सच्‍चाई यह है कि दुनिया के सभी आधुनिक सभ्‍य देशों में, जैसे अमेरिका तथा ब्रिटेन में, हमेशा से और आज भी बच्चियां हिजाब पहन कर क्‍लास करती हैं। वहां छोटे-मोटे विवाद जरूर उठे, लेकिन उन्‍हें आसानी से और जल्‍द ही सभ्‍य समाज के मानदंडों के पटल पर हल कर लिया गया। एक खबर के मुताबिक, 2004 में अमेरिका के ओकलाहोमा शहर के बेंजामिन फ्रैंकलिन सांइस एकेडेमी में एलेक्‍सा एकॉस्‍टा नाम की लड़की को स्‍कूल प्रबंधन ने हिजाब उतारने को कहा, जिसे लड़की ने अपनी गरिमा के विरुद्ध मानते हुए पूरी तरह ठुकरा दिया। जब विवाद बढ़ा तो अमेरिकी फेडरल सरकार ने लड़की का साथ दिया और न्‍यायालय में चले मुकदमें में वहां के सॉलीसिटर जनरल ने उस लड़की की तरफ से न्‍यायालय में हाजिर होने का निर्णय लिया। मुकदमे का फैसला भी लड़की के पक्ष में गया। इसी तरह, ब्रिटेन में आज से तीन साल पहले 29 जून 2019 को लंदन के एक स्‍कूल सेंट जॉन्‍स थर्स बर्ड कम्‍युनिटी स्‍कूल में एक विवाद इस कारण उठ खड़ा हुआ कि हिजाब का डिजाईन आरामदेह नहीं था। अंतत: इसे आरामदेह बनाने की मांग स्‍कूल प्रबंधन को माननी पड़ी। 2015 की अमेरिका के न्‍यू जर्सी राज्‍य की एक खबर के अनुसार, वहां स्थित क्लिफटन हाई स्‍कूल में बेस्‍ट ड्रेस्‍ड (सबसे अच्‍छे तरीके से पोशाक पहनने) का खिताब फिलि‍स्‍तीनी मूल की एक छात्रा को मिला जो हिजाब पहनती थी। कहने का मतलब यह है कि स्‍कूल में हिजाब पहनकर क्‍लास करना दुनिया के किसी भी सभ्‍य देश में प्रतिबंधित नहीं है।

लेकिन यह सत्‍य है कि आज की दुनिया में इस तरह की प्रवृत्तियां जरूर सर उठा रही हैं जिस तरह की प्रवृत्ति इस समय भारत में दिख रही है। इसका कारण भी वही है जो भारत में इसका कारण है। लगभग स्‍थाई संकट का सामना कर रहा बड़ा इजारेदार तथा वित्‍तीय पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकारें जानबूझ कर विवाद खड़ा करके जनता के असली मुद्दों को पहचान के विवाद से जुड़े जहरीले और एक दूसरे का बंटवारा करने वाले मुद्दों से ढंक देने की कोशिश कर रही हैं; ताकि वे जनता को बांटे रखने में सफल हो सकें; क्‍योंकि इसके अलावा अपने शासन को और पूंजीवादी व्‍यवस्‍था को जनता के गुस्‍से से बचाये रखने में वे किसी और तरीके से सफल नहीं हो सकते हैं।

क्‍या राज्‍य सरकार या स्‍कूल प्रशासन को ड्रेस कोड या स्‍कूल यूनि‍फार्म तय करते वक्‍त ऐसी मनमानी करने की कानूनी रूप से कोई छूट है जैसी मनमानी उडुपी कॉलेज के तिलकधारी प्रशासक (administrator) ने की है? जहां संविधान का अनुच्‍छेद 25 देश के हर नागरिक को अपने धर्म के अनुसार व्‍यवहार करने का अधिकार देता है, वहीं यह सत्‍य है कि कर्नाटक शिक्षा अधिनियम, 1983 के तहत राज्‍य को शिक्षा की बेहतर व्‍यवस्‍था करने, विकास करने, अनुशासन कायम करने तथा शिक्षण संस्‍थानों पर नियंत्रण हेतु कुछ अधिकार भी देता है। इसकी धारा-7 राज्‍य को स्‍कूलों में छात्रों के सिलेबस तय करने, पाठ्य पुस्‍तकें नि‍र्धारित करने तथा मीडियम ऑफ इंस्‍ट्रक्‍शन्स (निर्देश का माध्‍यम) तय करने इत्‍यादि के बारे में रेगुलेटरी अधिकार देती है, तो वहीं उसकी उपधारा-2 एक ऐसा पाठ्यक्रम बनाने के कर्तव्‍य से भी बांधती है जो अन्‍य चीजों के अतिरिक्‍त धार्मिक, भाषाई एवं क्षेत्रीय समूहों के बीच समरसता तथा सौहार्द स्‍थापित करता हो, और साथ ही साथ वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद और छात्रों के बीच जिज्ञासू व खोजपरक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता हो। गौरतलब बात यह है कि ड्रेस कोड निर्धारित करने का अधिकार इस कानून में प्रदत्‍त ही नहीं है, लेकिन फिर भी सरकारें ड्रेस कोड आदि तय करने के लिए शिक्षण संस्‍थानों को समय-समय पर निर्देशि‍त करती रही हैं, लेकिन वे निर्देश ऐसे रहे हैं जिससे आज के पहले तक इतना अधिक और इस तरह का विवाद कभी पैदा नहीं हुआ था, न तो कर्नाटक में और न ही देश के किसी अन्‍य हिस्‍से में।

हम देख चुके हैं कि कर्नाटक में ऐसे विवाद उठने का सीधा रि‍श्‍ता भाजपा जैसी प्रतिक्रियावादी पार्टी के मजबूत होने से है। जैसे-जैसे यह पार्टी मजबूत होती गई, वैसे-वैसे यह विवाद भी फैलता और गहराता गया। आज एक विशेष परिस्थिति‍ है। कर्नाटक के साथ-साथ केंद्र में भी फासीवादी विचारधारा को मानने वाली एक मजबूत सरकार स्‍थापित है। यह स्‍वाभाविक है कि वहां ऐसे विवाद को खुलकर हवा दी जा रही है तथा समाज में समरसता और शांति तथा आपसी भाईचारे की कब्र पर वोटों का धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण किया जा रहा है, ताकि हिंदू राष्‍ट्र की परियोजना और फासिस्‍ट तानाशाही कायम करने का लक्ष्‍य आगे बढ़े और देश को इजारेदार पूंजीपतियों का चारागाह बनाने में फासिस्‍टों को जल्‍द से जल्‍द सफलता मिल सके।

फासिस्‍टों का दूरगामी लक्ष्‍य भारत को धर्म आधारित अर्थात हिंदू राष्‍ट्र की दिशा में ले जाना और घोर मध्‍ययुगीनता की स्‍थि‍ति‍यों में धकेलना है। लेकिन यह याद रहे कि हिंदू राष्‍ट्र बनाना इनका अंतिम साध्‍य नहीं है। हिंदू राष्‍ट्र की यह परियोजना बड़े इजारेदार पूंजीपतियों की खुली नंगी तानाशाही (आतंकशाही) कायम करने का साधन मात्र है। इसके बाद पूंजीवादी जनतंत्र पूरी तरह खत्‍म हो जाएगा। उसी के साथ तमाम जनवादी अधिकारों को भी खत्‍म कर दिया जाएगा। आम मेहनतकश जनता ही नहीं, छोटी पूंजी के मालिक एवं अन्‍य दरमियानी तबके, और खासकर औरतें, दलित तथा आदिवासी, पूरी तरह अधिकारविहीन हो जाएंगे।

दुनिया में कहीं भी धर्म आधारित राष्‍ट्र जनपक्षीय और गरीबों का हितैषी नहीं रहा है। हिंदू राष्‍ट्र के गठन की पश्‍चगामी अवधारणा के पीछे दरअसल बड़ी इजारेदार पूंजी ही मुस्‍तैदी से खड़ी है। समाज में अंधकार कायम करने वाली फासीवादी ताकतों को पोषित करने में ये ही अकूत धनराशि खर्च कर रहे हैं। इसलिए यह आश्‍चर्य की बात नहीं है कि जब फासीवादी शक्तियां सरकार व सत्‍ता में आती हैं तो ये पूंजीपति खुलेआम देश की संपदा लूटते हैं। हिंदू राष्‍ट्र इस लूट में इनकी खुलकर मदद करता है और करेगा। इसलिए हिंदू राष्‍ट्र की सोच के पीछे का सच जानना जरूरी है। इसके तहत जनता और पूरा समाज बड़ी पूंजी के अधीन पूंजीवादी राज्‍य में रहते हुए भी मध्‍ययुगीन मूल्‍यों, जिनमें सामंती भूदासता और गुलाम मालिकों के मूल्‍यों द्वारा शासित होंगे। मानवजाति की अब तक की सारी उपलब्धियों को मटियामेट करते हुए हमें बर्बर मध्‍ययुग सरीखे समाज में सांस लेने को मजबूर होना पड़ेगा। और यह सब बड़ी इजारेदार पूंजी द्वारा किया जाएगा, न कि किसी सामंती राजा या गुलाम मा‍लिक के द्वारा। फासीवाद एक ऐसे ही राज्‍य का नाम है।   

ड्रेस कोड विवाद पर जारी बहस को गलत दिशा में मोड़ दिया गया। ड्रेस कोड विवाद में फासिस्‍टों की तरफ से हुड़दंग मचाने वालों ने जिस तरीके से भगवा झंडा फहराने का असंवैधानिक कृत्‍य किया, आपत्तिजनक नारे लगाये और कुकृत्‍य किये, वे अपने आप में ड्रेस कोड विवाद उठाने के पीछे की फासीवादी संगठनों व कर्नाटक सरकार की सोची-समझी रणनीति पर से पर्दा उठाने के लिए काफी हैं। भगवा झंडा को प्रतिष्ठित करने का मसला इस विवाद से कैसे आ जुड़ा यह बहस की एक महत्‍वपूर्ण कड़ी है। इसे ठीक से समझा और प्रस्‍तुत किया जाना चाहिए। गोदी मीडिया जिस तरह से भगवा फहराने के कृत्‍य को बहस के केंद्र में जाने से रोक रहा है और इसे नजरअंदाज करने में लगा हैं, उससे भी यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि ड्रेस कोड पर छिड़े विवाद में किस छोर को पकड़ कर बहस में हमें आगे बढ़ना चाहिए। जनता को यह बताना प्रगतिशील शक्तियों की जिम्‍मेवारी है कि यह पूरा विवाद ठंडे दिमाग से सोच-समझ कर फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के निमित्‍त उठाया गया है। गोदी मीडिया के टेलीविजन स्‍क्रीन से लेकर सड़कों पर भगवा की जो धूम मची है उसे सामने लाया जाना चाहिए। भगवा की धूम मचाने के लिए ही तो भाजपा और हिंदू संगठनों ने इस विवाद को शुरू किया था। ड्रेस कोड विवाद को इसी शक्‍ल में ढालना ही इनका मूल उद्देश्‍य था, ताकि देश में बेरोजगारी, महंगाई, बड़े पूंजीपतियों द्वारा की जा रही लूट, आम जनता की भयंकर आर्थिक तबाही, आदि की चर्चा देश में न हो सके और जनता के सरोकारों से जुड़े वास्‍तविक व संजीदे मुद्दे कौमी नफरत की आग में झोंक दिए जाएं। इनका मकसद भ्रातृघातक विभाजन को उस बिंदु तक ले जाना है जिसके बाद इन्‍हीं विषयों को राज्‍य की सुरक्षा का मुद्दा बनाकर, इसके नाम पर जनवादी अधिकारों को अस्‍वीकार किया जा सके, दमन के नये औजार बनाये जा सकें और फिर जनता के सवालों को उठाने वालों को बुरी तरह कुचल दिया जाए।  

गौर से और ध्‍यानपूर्वक देखिए, इस पूरे घटनाक्रम में एक योजनाबद्धता दिखाई देती है, जिसे भाजपा की भाषा में “टूलकिट” कहा जाता है। हिजाब को प्रतिबंधित करने वाला विवादित ड्रेस कोड लाया जाता है, ताकि विरोध हो। उडुपी कॉलेज की कुछ मुस्लिम छात्राओं ने इसका विरोध शुरू किया। फिर सरकार के मंत्री का इस प्रतिबंध के पक्ष में हस्‍तक्षेप कराया गया, ताकि इसे आम आदेश मानकर अन्‍य कॉलेजों में विवाद को बढ़ाने के लिए उसे लागू करने का बहाना किया जाए। जब एक कॉलेज से निकलकर यह विवाद दूसरे कॉलेज में गया, तो फिर भगवाधारी लड़कों को इसमें जानबूझ कर शामिल कराया गया, ताकि विवाद को तूल दिया जा सके। और ठीक यही हुआ। आज यह कर्नाटक के सभी जिलों में फैल गया है। ड्रेस कोड विवाद को हिजाब विवाद की संज्ञा से विभूषित करना भी एक पूर्व निर्धारित योजना का हिस्‍सा है, जबकि विवाद का विषय ड्रेस कोड है।

गौरतलब है कि विवाद शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद एक योजना के तहत भाजपा एवं हिंदू-फासीवादी संगठनों द्वारा भगवा झंडे को आगे कर दिया जाता है। फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले नारों की बाढ़ आ जाती है। ड्रेस कोड बस संदर्भ के काम आता है। ड्रेस कोड से जुड़ा पूरा विवाद एक ऐसा फासीवादी आंदोलन बन जाता है जिसका तात्‍कालिक उद्देश्‍य निश्चित ही उप्र एवं अन्‍य राज्‍यों के चुनावों में हिंदू वोटों को प्रभावित करना है।

हम जानते हैं कि अगर भाजपा सरकार में है तो एक तरीके से, और अगर वह सरकार में नहीं है तो फिर किसी अन्‍य तरीके से कुछ ऐसे मुद्दे उठाती रहती है जो उसके दूरगामी फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के काम आते हैं। उप्र में लव जिहाद और इसी तरह के अन्‍य मुद्दे इसीलिए उठाये गये थे। गोमांस का मुद्दा भी इसीलिए बीच-बीच में गरमाया जाता है। हम यह देखते है कि यहां नये ड्रेस कोड का विरोध कर रही मुस्लि‍म छात्राओं के मुकाबले में छात्रों-युवाओं को भगवा गमछा और नारंगी रंग के दुपट्टे में उतार दिया गया। पूरा मसला ड्रेस कोड से अलग मुस्लिम विरोध का बना दिया गया। क्‍या यह मामूली या सामान्‍य बात है कि ड्रेस कोड के विवाद में भगवा थोपने की बात आ जाती है? वीडियो फूटेज में जो नारे हैं वे इनकी कलई खोल देते हैं। इसके पहले भी भाजपा ये सब कर चुकी है। 2017 में तो किसी और चीज के बहाने जयपुर उच्‍च न्‍यायालय के ऊपर ही भगवा झंडा  फहराया गया था। हिजाब के विरोध में जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उसमें नारा यह नहीं लग रहा है कि कॉलेजों में ड्रेस कोड लागू करो, अथवा कॉलेज कैंपस को धार्मिक पहचान चिन्‍हों से मुक्‍त करो, चाहे वे हिंदू धर्म के हों या मुस्लि‍म धर्म के। इसके विपरीत ”घर-घर भगवा लहरायेगा” का नारा गूंज रहा है। इससे क्‍या यह साफ नहीं हो जाता है कि ड्रेस कोड या हिजाब विरोध महज एक बहाना है। इस आड़ में जो असली बात है वह है मुस्लिमों का विरोध, उनको निशाना बनाना और इन सबके द्वारा फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाना।

अगर सरकार की शह नहीं होती और भाजपा जैसी शासक पार्टी की इसमें वोटों के लिए ध्रुवीकरण कराने की दिलचस्‍पी नहीं होती, तो यह स्‍कूल प्रशासन और मुस्लिम छात्राओं के बीच का अनुशासन आदि से जुड़ा एक मामूली मसला ही बना रहता और जल्‍द ही हल कर लिया जाता। लेकिन जब उद्देश्‍य ही उससे अलग हो जो सामने दिख रहा है, तो फिर इसे सुलझाना कैसे संभव हो सकता है। खासकर यह और मुश्किल हो जाता है जब विभाजनकारी शक्तियां शासन में हों। इसका फायदा चंद वोटों के रूप में जरूर मिला होगा, लेकिन इस छोटे से हित के लिए इन शक्तियों ने पूरे देश में आग लगाने की चेष्‍टा की। हमें खुले मन से और पूरी आशा से देश की उस जनता को अभिनंदन पेश करना चाहिए जिसकी सूझबूझ, समझदारी और दिनोंदिन बढ़ती जागरूकता की वजह से इतनी बड़ी योजनाबद्ध कुचेष्‍टा के बावजूद और चुनाव का माहौल होने के बावजूद कहीं कोई बड़ा हादसा या दंगा नहीं हुआ। हम पूरी उम्‍मीद करते हैं कि उप्र तथा चार अन्‍य राज्‍यों के चुनावों में जनता भाजपा को करारी शिकस्‍त देने जा रही है। इनकी उप्र में हार से देश की समझदार होती जा रही जनता को जरूर ही विशेष बल मिलेगा। हम जानते हैं विपक्ष भी दूध का धुला नहीं है। उसकी जीत से आम लोगों की जीवन की परेशानियों का अंत नहीं होने जा रहा है। यह अलग बात है कि भाजपा को हराना है तो इस नक्‍कारे विपक्ष में से ही किसी को जिताना होगा। आने वाले दिन में जनता और अधिक समझदारी दिखाते हुए अवश्‍य ही अपने असली दुश्‍मन पूंजीवाद को खत्‍म करने हेतु क्रांतिकारी राजनीति का परचम लहराएगी। वह दिन दूर नहीं जब भाजपा और इसके आका बड़े पूंजीपति वर्ग दोनों इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिये जाएंगे। वह दिन भी आएगा जब देश से शोषण और दमन का पूरा ही अंत होगा। तब फासिज्‍म को वास्‍तव में और सही अर्थों में जड़मूल से खत्‍म करने का समय आएगा।

इंकलाब जिंदाबाद!