क्‍यों बजने लगी यूक्रेन में युद्ध की डुगडुगी ?

March 18, 2022 0 By Yatharth

दरकते प्रभाव और कमजोर होती चौधराहट को बचाने के लिए अमेरिका ने यूक्रेन में  जानबूझ कर बढ़ाया तनाव;

यूक्रेन और पूरे विश्व में बजने लगी खतरे की घंटी

ए सिन्‍हा

सभी जानते हैं, यूक्रेन पिछले कई सालों से अमेरिकी तथा रूसी साम्राज्‍यवाद की आपसी प्रतिद्वंद्वि‍ता का अखाड़ा बना हुआ है और वहां की जनता दो पाटों के बीच पि‍सती रही है। अब यह प्रतिद्वंद्विता दोनों को युद्ध के मैदान तक खींच ले आई है। यूक्रेन के पूरब में दोनबास क्षेत्र के दोनेत्‍ज्‍क और लुहान्‍ज्‍क क्षेत्र से सटी रूस-यूक्रेन सीमा पर 17 फरवरी 2022 को बमबारी भी हुई। हालांकि किस तरफ से बमबारी हुई इसका ठीक-ठीक पता चलना मुश्किल है, लेकिन अमेरिका के अनुसार रूस इसका बहाना लेकर यूक्रेन पर हमले शुरू कर सकता है। लेकिन 72 घंटे बीतने के बाद भी ऐसे किसी हमले की खबर नहीं है। फिर भी, दोनों के बीच तनाव का बढ़ना लाजिमी है, और दोनों के बीच एक बड़े पैमाने के टकराव की संभावना से इनकार करना मुश्किल है। अमेरिका अपने ट्रांस-अटलांटिक पार्टनरों से रूस पर प्रतिबंध लगाने तथा अन्‍य तरीकों से इस पर दबाव बनाने के बारे में गहन चर्चा-विमर्श कर रहा है।

जहां एक तरफ युद्ध को रोकने के लिए अमेरिका के राष्‍ट्रपति बाइडेन की हतप्रभ कर देने वाली आग्रहपूर्ण कूटनीतिक कोशिशें चल रही हैं जिसमें जर्मनी के राष्‍ट्राध्‍यक्ष से मिल कर बातचीत करने के अलावे पुतिन से 62 मिनट चली लंबी फोन वार्ता भी शामिल है, वहीं दूसरी तरफ पुतिन के द्वारा ठंडे दिमाग से खुद की निगरानी में कल शनिवार को किया गया रूसी सैन्‍य-शक्ति का प्रदर्शन है जिसमें जल, थल और हवा में नाभिकीय हथियारों को ले जाने में सक्षम बैलिस्टिक और क्रूज मिसाइलों का सफल प्रक्षेपण भी शामिल है। ये दोनों चीजें मिलकर एक ऐसी स्थिति का आभास देती हैं, मानो पुतिन की तरफ से मात्र सीटी बजनी बाकी है और युद्ध बस शुरू हो जाएगा।

उधर नार्वे, डेनमार्क एवं लातवि‍या सहित कई पश्चिमी देश तथा आस्‍ट्रेलिया आदि ने अपने नागरिकों को जल्‍द से जल्‍द यूक्रेन छोड़ने की ताकीद कर दी है। इनके दूतावासों पर कभी भी ताला लग सकता है। अधिकांश कर्मचारी वापस बुला लिये गये हैं। स्‍वंय अमेरिका ने अपने दूतावास के अधिकांश कर्मचारियों को वापस अमेरिका लौट आने को कह दिया है। इधर पुतिन ने रूसी हमले का झूठा प्रोपगैंडा फैलाने के आरोप में अमेरिका के दूसरे नंबर के राजनयिक को मास्‍को से निष्‍कासि‍त कर दिया है। इससे संकट और गहरा गया है। इससे यह प्रचारित करने में मदद मिल रही है कि रूस यूक्रेन पर हमला करने जा रहा है।

अमेरिका अपने नागरिकों को यूक्रेन छोड़ने के लिए पिछले कई सप्‍ताह से कहता आ रहा है। उसके अनुसार यूक्रेन पर रूसी हमला महज चंद दिनों की बात है। दरअसल अमेरिका ने कई बार यूक्रेन पर रूसी हमले की तारीखें भी घोषित कर दी थी। लेकिन उसकी आशंका अभी तक सही साबित नहीं हुई है। उसका कहना सच होता, तो अब तक यूक्रेन पर रूस कई बार हमला कर देता और अब तक कई हजार यूक्रेनियों को युद्ध में मार गिराया होता। हालांकि अमेरिका ने ये बातें पूरे विश्‍वास से कही थीं और आज भी कह रहा है। उदाहरण के लिए, अमेरिकी प्रोपगैंडा के अनुसार रूस की योजना 20 फरवरी को चीन में हो रहे ओलंपिक के खत्‍म होने के पहले ही यूक्रेन पर हमला करने की थी।

बहुत लोग मानते हैं कि इस तरह के बेबुनियाद प्रचार से अमेरिकी कूटनीति को जोखिम उठानी पड़ सकता है। बाइडेन पर कूटनीतिक स्‍तर पर ही सही लेकिन युद्धोन्‍माद फैलाने का आरोप लगेगा। दरअसल यूक्रेन पर रूसी हमले की आशंका व्‍यक्‍त करने तक वह सीमित नहीं है। बाइडेन अमेरिका और नाटो (NATO) के इसके सहयोगी देशों द्वारा रूस के विरुद्ध करारा जवाबी हमला करने की धमकी भी दे रहा है। उधर पुतिन ने अमेरिका द्वारा व्‍यक्‍त की जा रही रूसी हमले की आशंका को सरासर अमेरिकी प्रोपगैंडा और बदमाशी कहा है तथा “करारा जवाब देने” की उसकी हवा-हवाई धमकी को गीदड़भभकी करार देते हुए बाइडेन का भरसक मजाक उड़ाने की कोशिश की है।

अमेरिका ने संयुक्‍त राष्‍ट्र की सुरक्षा परिषद में यह माना है कि वह अमेरिकी कूटनीति को जोखिम में डाल रहा है। युद्धोन्‍माद पैदा करने एवं फैलाने के आरोप लगने की आशंका से भी उसने इनकार नहीं किया। बाइडेन का कहना है कि रूस को यूक्रेन पर हमला करने से रोकने के लिए वह यह जोखिम उठाने के लिए तैयार है। बाइडेन ने पुतिन को अपनी आशंकाओं या प्रोपगैंडा को गलत साबित करने की चुनौती दी है।

तो क्‍या माना जाए, यूक्रेन में युद्ध की डुगडुगी बज रही है? यह सच है, यूक्रेन में रूस और अमेरिका तथा पूरा नाटो गुट जिस तरह से और जिस चीज को लेकर आमने-सामने आ खड़े हुए हैं उसका फैसला तो अंतत: युद्ध से ही होना है। पूंजीवाद-साम्राज्‍यवाद में इसके अलावा और कोई उपाय भी तो नहीं है। निजी पूंजी पर आधारित समाज में प्रतिस्‍पर्धा के मसले अंतत: बलपूर्वक यानी बल प्रयोग के द्वारा ही हल किये जाते हैं। इसलिए युद्ध की संभावना से भला कोई कैसे इनकार कर सकता है? अगर अमेरिका और नाटो युद्ध नहीं चाहते और शांति चाहते हैं, तो वे रूस की घेराबंदी करने में क्‍यों लगे हैं? और इसके लिए वे यूक्रेन को मोहरा क्‍यों बना रहे हैं? क्‍या रूस और चीन तथा कोरिया को अमेरिका द्वारा घेरने की रणनीति बनाना युद्ध को जन्‍म नहीं देगा? क्‍या यह विश्‍वयुद्ध की चिंगारियां नहीं भड़काएगा? जहां तक यूक्रेन में युद्ध या हमला-प्रतिहमला के अभी तुरंत छिड़ने के खतरे का सवाल है तो उसके आसार इस बात पर निर्भर करते हैं कि यूक्रेन में और पूर्वी यूरोप में अमेरिका तथा नाटो संधि के देशों की क्‍या गतिविधि रहती है। अगर वे यूक्रेन को रूस की सुरक्षा के मद्देनजर उसके सख्‍त विरोध के बावजूद नाटो में शामिल कराते हैं, रूस को घेरने के लिए नाटो के देश यूक्रेन का अपनी अग्रिम चौकी के बतौर उपयोग करते हैं,  तो फिर युद्ध तो हो ही सकता है। लेकिन अगर अमेरिका और पश्चिमी देश ये नहीं करते हैं तो युद्ध का आसन्‍न खतरा अभी किसी भी तरीके से नहीं दिखता है। जहां तक यूक्रेन पर रूसी हमले की बात है, तो क्‍या वह आंख मूंद कर अपनी सीमा की घेरेबंदी देखते हुए चुप बैठा रहेगा? आखिर रूस भी एक साम्राज्‍यवादी ताकत है और अगर आर्थिक एवं व्‍यापार में नहीं, तो भी सामरिक क्षेत्र में तो वह अवश्‍य ही अमेरिका के बराबर और अधिकांश यूरोपीय साम्राज्‍यवादी देशों से बीस है। जहां तक यूक्रेन की जनता की भलाई की बात है, तो इनमें से किसी को इसकी चिंता नहीं है। इनमें से कोई भी वास्‍तव में यूक्रेनी  जनता का हितैषी नहीं है। इनके लिए यूक्रेन और इस देश की जनता बस इनके प्रभुत्‍व कायम करने के लिए इनके एक मोहरे की तरह है। सवाल है, अगर अमेरिका और नाटो के देश यूक्रेन में अपनी रूस विरोधी सैन्‍य तथा कूटनीतिक सक्रियता नहीं बढ़ाते हैं, तो क्‍या फिर भी रूस यूक्रेन में तत्‍काल हमला करेगा? क्‍या वह ऐसा करने की स्थिति में है? अगर बाइडेन का ऐसा मानना है तो वे दुनिया को पक्‍का मूर्ख बना रहे हैं।

अमेरिका के रूस के बारे में तमाम तरह के प्रोपगैंडा चलाये जा रहे हैं लेकि‍न फिर भी हमें यह नहीं मानना चाहिए कि रूस द्वारा एकतरफा यूं ही युद्ध शुरू कर दिया जाएगा और वह यूक्रेन पर किसी दिन यूं ही गोले दागने लगेगा। नहीं, इस बात की संभावना न के बराबर है। वह युद्ध जिसके बारे में बाइडेन प्रचार कर रहे हैं वह अभी काफी दूर है।

तो फिर ताजे उभरे रूस-यूक्रेन संकट को कैसे देखना चाहिए? इसे आम तौर पर पूरी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्‍यवाद के लगातार घटते प्रभाव के परिप्रेक्ष्‍य में अमेरिकी चौधराहट को किसी भी तरह कायम रखने की इसकी छटपटाहट तथा अपने सहयोगियों की नजरों में अभी भी पुराने फार्म में दिखने और इसके जरिए उन्‍हें अपने से बांधे रहने की चाहत में की जाने वाली बदहवास  कार्रवाई के रूप में ही देखा जाना चाहिए। देखा जाए तो इसे यूक्रेन संकट नहीं अमेरिका संकट कहा जाना चाहिए।

अमेरिका द्वारा झटपट अपने दूतावास को अनिश्चितकालीन समय तक बंद करने के बारे में लिए जाने वाले निर्णय की घोषणा करने और यूक्रेन से अमेरिकियों को वापस घर लौट आने की आनन-फानन में की गई ताकीद को भी नाटो के इसके सहयोगी देशों, खासकर जर्मनी और फ्रांस, जो लगातार अमेरिका से नाराज रहे हैं और अलग रास्‍ते पर चलने की कोशिश करते रहे हैं, पर दबाव बनाने के रूप में भी देखना चाहिए।

रूस और अमेरिका के मतभेद खत्‍म होने वाले नहीं हैं और इसीलिए रणनीतिक तौर पर देखें तो जो स्थिति है वह आसन्‍न युद्ध की संभावना को पैदा करती है। लेकिन नजदीक से देखें तो असली बात साफ हो जाती है। अगर हम अमेरिकी कूटनीति और बिना माकूल और ठोस प्रमाण के यूक्रेन पर रूसी हमले के प्रचार को एक ही चीज मान लें, तो हम कह सकते हैं कि कूटनीतिक स्‍तर पर यूक्रेन के खिलाफ तथा‍कथित रूसी हमले को टालने के लिए उठाये गये लगभग सारे कदम असफल सिद्ध हुए हैं और युद्ध रोकने, अथवा यूक्रेन में अमेरिका और रूस के बीच तनाव कम करने, के लिए किए जा रहे तमाम प्रयासों का कुल परिणाम अभी तक शून्‍य रहा है। और एक बार फिर से हम कह सकते हैं कि अब तक यूक्रेन पर हमला और रूस-नाटो युद्ध शुरू हो जाना चाहिए था। जर्मनी और अमेरिका, तो दूसरी तरफ फ्रांस और रूस के राष्‍ट्राध्‍यक्षों ने आपस में बात की। सीधे बाइडेन के आग्रह पर उसके और पुतिन के बीच भी फोन पर वार्ता हुई, लेकिन वह भी विफल रही। बाइडेन और पुतिन के बीच हुई वार्ता का अंत काफी कटु बताया जाता है। “तो फिर युद्ध के मैदान में मिलेंगे” जैसे वाक्‍यांश से वार्ता का अंत हुआ बताया जा रहा है। रूस-यूक्रेन सीमा पर दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने आ चुकी हैं। पोलैंड में तीन हजार अमेरिकी सैनिक व जवान भेजे गये हैं। काले सागर में विशालकाय रूसी तोपें तैनात हैं। बेलारूस के मैदानों में रूस का द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद का सबसे बड़ा युद्धाभ्‍यास चल रहा है। एक पश्चिम दिशा को छोड़कर रूसी सेनाओं ने यूक्रेन को तीन दिशाओं से घेर रखा है।

तो फिर युद्ध शुरू क्‍यों नहीं हो रहा है? दोनबास में बमबारी होने के बाद भी रूस आखिर हमला क्‍यों नहीं कर रहा है? इसलिए कि दोनों पक्षों की ओर से युद्ध के लिए आवश्‍यक सभी तैयारि‍यां अभी पूरे तौर पर संपन्‍न नहीं हुई है। युद्ध अभी भी दोनों देशों के गुटों के लिए अपरिहार्य नहीं बना है। हालांकि कल के बारे में कुछ भी निश्चित तौर से आज ही नहीं कहा जा सकता है, लेकिन अभी दोनों तरफ से युद्ध लड़ने वाले गुटों का पूर्ण रूप से ठोसीकरण नहीं हुआ है। अभी उसके लि‍ए काफी कुछ किया जाना बाकी है।

अमेरिका कह रहा है कि रूस जल्‍द ही, यहां तक कि 20 फरवरी से पहले ही, यूक्रेन पर हमला करने वाला है, जबकि रूस इससे लगातार इनकार करता रहा है। उसका आरोप है कि अमेरिका व पश्चिमी देश यूक्रेन में अपना सामरिक अड्डा बना रहे हैं तथा यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की साजिश कर रहे हैं, जिसका अर्थ यह है कि अमेरिका रूस की कनपट्टी पर बंदूक रख कर खूद ही यूक्रेन पर रूसी हमले का हल्ला और विश्‍वयुद्ध छिड़ जाने का भय रूस के साथ-साथ पूरी दुनिया में फैला रहा है। यही नहीं, यूक्रेन का राष्‍ट्राध्‍यक्ष खूद निकट भविष्‍य में रूसी हमले और युद्ध की संभावना से इनकार कर रहा है। उसे यह डर भी सता रहा है कि कहीं अमेरिकी उकसावे तथा युद्धोन्‍माद में आकर रूस सच में ही हमला न कर दे।

यूक्रेन का पूर्वी हिस्‍सा रूस से बिल्‍कुल सटा हुआ है। इसका नाटो के साथ चले जाने का अर्थ रूस की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा का पैदा होना है, ऐसा रूस का मानना है और अमेरिका के चरित्र को देखते हुए यह सही भी है। पूर्वी यूरोप के तरफ से रूस पहले ही नाटो से घिरा है। ज्ञातव्‍य है कि यूक्रेन एक समय सोवियत संघ का हिस्‍सा था। इसे रूस की पश्चिमी कनपट्टी भी कहा जाता रहा है। अमेरिका रूस की इस कनपट्टी पर बंदूक के पुनर्विभाजन के लिए प्रयत्नशील हो चुके हैं। इसमें अब चीन जैसा नया लेकिन सशक्‍त खिलाड़ी भी शामिल हो चुका है जो सीधे अमेरिका से टक्‍कर लेने में नहीं हिचकता है। रूसी साम्राज्‍यवाद भी उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है और सामरिक क्षेत्र में अमेरिका से टकराने की क्षमता रखता है, बात चाहे आणविक हथियारों की ही क्‍यों न हो। हालांकि इस समय यूक्रेन को लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद और रूसी साम्राज्यवाद के बीच का टकराव ही मुख्‍य है, लेकिन जल्‍द ही इसमें रूस की तरफ से चीन और उत्‍तरी कोरिया शामिल हो सकते हैं, जबकि अमेरिका की तरफ से इंग्‍लैंड और जर्मनी-फ्रांस आदि। यह एक वाजिब तथ्‍य है कि अमेरिका अपना ध्यान मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहे चीन पर केंन्द्रित करना चाहता था, लेकिन पूरब में रूस की घेराबंदी के लिए बिछाये गये नाटो के पुराने जाल की हिफाजत करने के क्रम में उसे आज रूस से टकराना पड़ रहा है जो उसकी पूर्व योजना का हिस्‍सा तो नहीं ही दिखता है। रूस की चाल से वह इसलिए भी ज्‍यादा बौखलाया हुआ है।

दरअसल गोर्बाचेव-येल्तसिन का दौर काफी पीछे छूट चुका है जब रूस को अमेरिका के समक्ष बुरी तरह पीछे हटना पड़ा था। पुतिन का वर्तमान दौर उसके पहले के दौर से काफी भिन्‍न है। वह न‍ सिर्फ व्‍यापार में तथा आर्थिक तौर पर मजबूत हुआ है, बल्कि वह अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने के प्रति भी अधिक सचेत और संवेदनशील हुआ है। जब 1990 के दशक में रूस को पीछे हटना पड़ा था तब अमेरिका और उसके सहयोगी साम्राज्‍यवादी देशों ने रूस की सीमाओं के इर्द-गिर्द नाटो का मिलिट्री जाल बिछा लिया था। रूस आज उन्‍हें अपनी सीमाओं से पीछे धकेलने में लगा है जिसके कारण ही यूक्रेन और रूस के बीच आज खतरनाक हालात बने हैं। सोवियत यूनियन के पतन के बाद पूर्व के लगभग सभी सोवियत गणराज्यों में अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देशों ने अपने पैर पसार लिए थे। आज के रूसी साम्राज्‍यवाद को यह बर्दाश्त नहीं है।

अमेरिकी तथा पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देशों की शह पर 2008 में जार्जिया की सेनाएं रूसी क्षेत्र अबकाजिया और दक्षिण ओसेशिया में काफी आगे बढ़ आईं थीं। लेकिन जब बाद में उसके खिलाफ रूस की सेनाओं ने कार्रवाई की, तो अमेरिका कुछ भी नहीं कर सका था। आज यूक्रेन में भी लगभग ऐसे ही हालात बन रहे हैं। आज रूस की तीनों सेनाएं यूक्रेन को तीन दिशाओं से घेर रखी है, बेलारूस में रूसी सेना बहुत बड़ा युद्धाभ्‍यास कर रही है, इतना ही नहीं, काले सागर में अपने तीन दर्जन विशालकाय समुद्री पोतें उतार चुकी है तथा अंतर्राष्‍ट्रीय जल के सारे अमेरिकी कनेक्‍शन इसने काट दिये हैं। इसके पहले वह क्रीमिया को यूक्रेन से अलग कर चुका है। इन सब में अमेरिका रूस के विरुद्ध बहुत कुछ नहीं कर सका। आज जब वह पूरी दुनिया को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि रूस यूक्रेन पर हमला करने वाला है, तब भी वह रूस पर सिर्फ आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी देने तक ही अपने को सीमित किये हुए है। यह अमेरिका की विश्‍व के चौधरी बने रहने की सीमा को उजागर तथा इंगित कर रहा है। यह कल के अमेरिकी नेतृत्‍व में चल रहे ‘एकध्रुवीय’ विश्व के भी पतन की पूर्णाहुति है। आज यूक्रेन से वह अपने सैन्‍य अधिकारियों (प्रशिक्षु और तैनात दोनों) को वापस बुलाने के लिए बाध्‍य है। वह रूस पर एकमात्र कुटनीतिक वार्ता द्वारा दबाव बनाने तक ही अपने को सीमित करने के लिए विवश है।

महज तीन दिन पहले (18 फरवरी को) पुतिन की बाइडेन से हुई 62 मिनट लंबी वार्ता का भी मात्र यही परिणाम निकला कि पुतिन ने खुलेआम एक बार फिर से बता दिया कि यूक्रेन को नाटो में मिलाने के अमेरिकी मंसूबों को वह किसी भी हालत में सफल होने नहीं देगा, भले ही इसके लिए उसे वास्‍तव में यूक्रेन पर हमला ही क्‍यों न करना पड़े। पुतिन ने बाइडेन से साफ-साफ कह दिया है कि अमेरिका यूक्रेन से दूर हट जाये इसी में यूक्रेन की भलाई है।

हम सबको याद होगा कि अफगानिस्‍तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद पूरे विश्‍व में अमेरिका की हुई किरकिरी के कुछ ही दिनों के भीतर आस्ट्रेलिया – बरतानिया – अमेरिका (AUKUS) गठबंधन की घोषणा हुई थी। आज उसका कोई ज्‍यादा महत्‍व नहीं रह गया है और उसका कोई ज्‍यादा नामलेवा भी नहीं है, लेकिन उस समय इसका महत्‍व था। उस समय इसकी घोषणा दक्षिण पूर्व के देशों और पूर्वी एशियाई देशों के शासकों तथा वहां के अभिजात्‍य वर्गों तक इस एक महत्‍वपूर्ण संदेश को पहुंचाने के लिए की गई थी कि अमेरिका चीन के खिलाफ एक खुला मोर्चा तैयार कर रहा है जिसका अर्थ यह बताना था कि अमेरिका हर हाल में अपने उपरोक्‍त सहयोगी देशों (दक्षिण पूर्व और पूर्वी एशियाई देशों के शासकों और वहां के अभिजात्‍य वर्गों) के साथ हर हाल में खड़ा है। यह तेवर मुख्‍यत: अफगानिस्‍तान में हुई पराजय की झेंप मिटाने के लिए भी अपनाया गया था। इसका एक और मतलब अमेरिका के उन समर्थकों को आश्वस्त करना था जो अफगानिस्तान से वापसी के बाद संरक्षकविहीन होने की संभावना से आशंकित थे। यानी, मतलब साफ है कि अमेरिका के समर्थकों और सहयोगियों का भी आज अमेरिका की सैन्य क्षमता पर से भरोसा हटने लगा है।

क्रीमिया को यूक्रेन से छीने जाने और उसे रूस के साथ मिला देने के बाद यूक्रेन के शासक वर्गों ने अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देशों के करीब जाने का फैसला इसलिए लिया था कि उन्‍हें भरोसा था कि रूस के विरुद्ध वे उनकी रक्षा करने में समर्थ होंगे। लेकिन आज स्थिति ऐसी है कि यूक्रेन के शासक स्‍वयं ही अमेरिका से हाथ जोड़कर यह कह रहे हैं कि हमारी रक्षा की सनक त्‍यागिये, रूस हम पर तत्‍काल या अभी हमला नहीं करेगा। मानो यूक्रेन के शासक यह कह रहे हैं कि ‘रूस के हमले से ज्‍यादा हमको आपकी सनक से भय हो रहा है। आप कहीं रूस को सच में ही हम पर हमला करने के लिए न उकसा दें।’

ऐसा इसलिए हुआ क्‍योंकि रूस के तेवर से यूक्रेन के शासक को यह अंदेशा हो चला है कि अगर रूस सच में हमला करता है तो अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्‍यवादी देशों में से कोई भी उनकी रक्षा करने का जोखिम नहीं उठा सकेगा। दूसरा बड़ा अंदेशा यह भी है कि पूरी दुनिया में यह युद्ध फैल जाएगा, जिसके भयंकर  रखना चाहता है और इस पर अपना प्रभुत्‍व चाहता है। दूसरी तरफ, अगर यूक्रेन को अमेरिका नाटो में शामिल नहीं करा पाता है, तो निश्‍चय ही इसका प्रतिकूल असर पूर्वी यूरोप में अमेरिकी प्रभाव पर पड़ेगा।

निकट भविष्‍य में बड़ा युद्ध होने की संभावना अभी न के बराबर है, लेकिन साम्राज्‍यवाद के युग में युद्ध की आशंका हमेशा एक वाजिब चीज या आशंका होती है। यह भी सही है कि अगर किसी तरह एक बार यह युद्ध शुरू हो गया, तो फिर जंगल की आग की तरह इसे विश्‍व के कई क्षेत्रों में फैलने से रोकना आसान नहीं होगा, क्‍योंकि अमेरिका के दरकते प्रभाव को पूरी तरह कमजोर करने और अमेरिकी प्रभाव के क्षेत्रों को अपने प्रभाव में लेने के लिए कुछ देश इस युद्ध को एक मौके के तौर पर लेंगे, खासकर रूस और चीन, जिसमें उत्‍तरी कोरिया को नहीं गिनना बुद्धिमानी की बात नहीं होगी। यह भी सही है कि जनता के बीच खराब होते आर्थिक हालात और उनकी आसन्‍न आर्थिक तबाही व बर्बादी को लेकर जैसी निराशा व्‍याप्‍त है उसके कारण आम जनता के बीच ऐसे लुटेरे युद्ध के प्रति ‘जोश’ की कमी रहने की संभावना है। उनका युद्ध के पक्ष में व्‍यापक समर्थन के साथ शामिल होना असंभव नहीं तो कठिन अवश्‍य है, क्‍योंकि युद्ध के बाद उनके आर्थिक हालात और भी ज्‍यादा खराब होंगे और आज की जनता इसे बखूबी समझती है। युद्ध करने के प्रति साम्राज्‍यवादियों का उत्‍साह भी इस कारण से नहीं है। लेकिन इसके बावजूद अमेरिका इसे अब तक शुरू कर देता, लेकिन उसे इस पर शक है कि यह युद्ध उसके पक्ष में ही जाएगा। वहीं रूस निश्चिंत दिखता है, लेकिन वह फिलहाल सीमाओं की सुरक्षा के लिए कमर कस चुका है जो यूक्रेन को इसके द्वारा तीन दिशाओं से सैनिक घेराबंदी में ले लेने में दिखता है। स्थिति अमेरिका के इतने विरुद्ध है कि अमेरिका को अपने सैनिक अफसरों को वापस बुलाकर रूस को यूक्रेन पर हमला नहीं करने के लिए मनाने का संकेत देना पड़ा जिसमें निस्‍संदेह यूक्रेन की सरकार का दबाव भी होगा, जिसे इस बात का अहसास हो गया है कि रूस यूक्रेन को किसी भी तरह अमेरिकी गोद में या नाटो के खेमें में जाने नहीं देगा। वहीं यह भी सत्‍य है कि यूक्रेन के कुलीन वर्ग को रूस के बढ़ते प्रभाव से भी आकर्षण है। इस पर हम आगे बात करेंगे। लेकिन अभी इतना कहना अपरिहार्य होगा कि रूसी हमले के एक बहुत बड़े युद्ध में बदलने की फिलहाल कोई ज्‍यादा संभावना नहीं है। अगर रूसी हमला होता भी है तो यह सीमित स्‍तर के स्‍थानीय युद्ध की स्थिति‍ में ही रहेगा। दरअसल सीरिया दुहराया जा रहा है। सीरिया में यही स्थिति‍ थी, बस रूस की जगह अमेरिका को रख दीजिए और अमेरिका की जगह पर रूस को।  

तो फिर यूक्रेन संकट क्‍या प्रदर्शित कर रहा है? यूक्रेन संकट बता रहा है कि साम्राज्यवाद, खासकर अमेरिकी साम्राज्‍यवाद का संकट काफी ज्‍यादा गहरा चुका है। खासकर अमेरिका को देखें, तो यह आज बुरी तरह संकट में है। इसकी चौधराहट खत्‍म हो रही है, जिसका पहला अहसास हाल में हुई अफगानिस्तान में इसकी पराजय (सैन्‍य वापसी) से हुआ। इसके पहले इराक में भी इसे ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा था। तब से विश्‍व में इसके दरकते प्रभाव का यह अहसास आज और गहरा ही हुआ है। उधर दुनिया में कच्चे माल के स्रोतों पर कब्जे की होड़ पहले से ज्‍यादा तीखी हो चुकी है। बाजारों की छीना-झपटी भी काफी तेज हुई है जो अमेरिका के लिए पहले जैसा निरापद नहीं रह गया है। पूरी दुनिया में वित्‍तीय मठाधीशों की जोर आजमाइश भी चरम पर है। और इन सबके परिणामस्‍वरूप साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के तमाम अंतर्विरोध भी तेज हो रहे हैं। वे खुलकर सतह पर आ रहे हैं। रूस-यूक्रेन संकट साम्राज्‍यवाद के गहराते अंतर्विरोधों को बखूबी प्रतिबिंबित कर रहा है।

दुनिया वास्‍तव में एकध्रुवीय कभी नहीं थी, तब भी नहीं जब सोवियत यूनियन का पतन हुआ था, लेकिन यह दिखती जरूर एकध्रुवीय थी। आज वह खुले रूप में बहुध्रुवीय बन रही है या बन चुकी है जिसका सबसे स्‍पष्‍ट प्रतिबिंब मौजूदा यूक्रेन संकट में ही दिखता है। सोवियत यूनियन के पतन के बाद, बीच के कुछ सालों तक ‘एकध्रुवीय’ विश्‍व का सरगना रहा अमेरिकी साम्राज्‍यवाद और उसके शासक आज इस तथ्‍य को हजम नहीं कर पा रहे हैं कि उनकी चौधराहट खत्‍म हो रही है और उसकी जगह कोई और साम्राज्‍यवादी देश लेने लगा है। लेकिन उसे लगता है कि अपने साम्राज्‍यवादी प्रतिद्वंद्वियों को वह पहले की ही तरह मनमर्जी से हांक सकता है। वे शायद यह देख कर भी देखना नहीं चाहते हैं कि अन्य दूसरी साम्राज्यवादी शक्तियां, यहां तक कि अमेरिका के सहयोगी रहे पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देश, जैसे जर्मनी और फ्रांस भी, दुनिया के संसाधनों और बाजार में अधिकाधिक हिस्सेदारी, ज्‍यादा से ज्‍यादा प्रभाव तथा विश्‍व के पुनर्विभाजन के लिए प्रयत्नशील हो चुके हैं। इसमें अब चीन जैसा नया लेकिन सशक्‍त खिलाड़ी भी शामिल हो चुका है जो सीधे अमेरिका से टक्‍कर लेने में नहीं हिचकता है। रूसी साम्राज्‍यवाद भी उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है और सामरिक क्षेत्र में अमेरिका से टकराने की क्षमता रखता है, बात चाहे आणविक हथियारों की ही क्‍यों न हो। हालांकि इस समय यूक्रेन को लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद और रूसी साम्राज्यवाद के बीच का टकराव ही मुख्‍य है, लेकिन जल्‍द ही इसमें रूस की तरफ से चीन और उत्‍तरी कोरिया शामिल हो सकते हैं, जबकि अमेरिका की तरफ से इंग्‍लैंड और जर्मनी-फ्रांस आदि। यह एक वाजिब तथ्‍य है कि अमेरिका अपना ध्यान मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहे चीन पर केंन्द्रित करना चाहता था, लेकिन पूरब में रूस की घेराबंदी के लिए बिछाये गये नाटो के पुराने जाल की हिफाजत करने के क्रम में उसे आज रूस से टकराना पड़ रहा है जो उसकी पूर्व योजना का हिस्‍सा तो नहीं ही दिखता है। रूस की चाल से वह इसलिए भी ज्‍यादा बौखलाया हुआ है।

दरअसल गोर्बाचेव-येल्तसिन का दौर काफी पीछे छूट चुका है जब रूस को अमेरिका के समक्ष बुरी तरह पीछे हटना पड़ा था। पुतिन का वर्तमान दौर उसके पहले के दौर से काफी भिन्‍न है। वह न‍ सिर्फ व्‍यापार में तथा आर्थिक तौर पर मजबूत हुआ है, बल्कि वह अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने के प्रति भी अधिक सचेत और संवेदनशील हुआ है। जब 1990 के दशक में रूस को पीछे हटना पड़ा था तब अमेरिका और उसके सहयोगी साम्राज्‍यवादी देशों ने रूस की सीमाओं के इर्द-गिर्द नाटो का मिलिट्री जाल बिछा लिया था। रूस आज उन्‍हें अपनी सीमाओं से पीछे धकेलने में लगा है जिसके कारण ही यूक्रेन और रूस के बीच आज खतरनाक हालात बने हैं। सोवियत यूनियन के पतन के बाद पूर्व के लगभग सभी सोवियत गणराज्यों में अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देशों ने अपने पैर पसार लिए थे। आज के रूसी साम्राज्‍यवाद को यह बर्दाश्त नहीं है।

अमेरिकी तथा पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देशों की शह पर 2008 में जार्जिया की सेनाएं रूसी क्षेत्र अबकाजिया और दक्षिण ओसेशिया में काफी आगे बढ़ आईं थीं। लेकिन जब बाद में उसके खिलाफ रूस की सेनाओं ने कार्रवाई की, तो अमेरिका कुछ भी नहीं कर सका था। आज यूक्रेन में भी लगभग ऐसे ही हालात बन रहे हैं। आज रूस की तीनों सेनाएं यूक्रेन को तीन दिशाओं से घेर रखी है, बेलारूस में रूसी सेना बहुत बड़ा युद्धाभ्‍यास कर रही है, इतना ही नहीं, काले सागर में अपने तीन दर्जन विशालकाय समुद्री पोतें उतार चुकी है तथा अंतर्राष्‍ट्रीय जल के सारे अमेरिकी कनेक्‍शन इसने काट दिये हैं। इसके पहले वह क्रीमिया को यूक्रेन से अलग कर चुका है। इन सब में अमेरिका रूस के विरुद्ध बहुत कुछ नहीं कर सका। आज जब वह पूरी दुनिया को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि रूस यूक्रेन पर हमला करने वाला है, तब भी वह रूस पर सिर्फ आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी देने तक ही अपने को सीमित किये हुए है। यह अमेरिका की विश्‍व के चौधरी बने रहने की सीमा को उजागर तथा इंगित कर रहा है। यह कल के अमेरिकी नेतृत्‍व में चल रहे ‘एकध्रुवीय’ विश्व के भी पतन की पूर्णाहुति है। आज यूक्रेन से वह अपने सैन्‍य अधिकारियों (प्रशिक्षु और तैनात दोनों) को वापस बुलाने के लिए बाध्‍य है। वह रूस पर एकमात्र कुटनीतिक वार्ता द्वारा दबाव बनाने तक ही अपने को सीमित करने के लिए विवश है।

महज तीन दिन पहले (18 फरवरी को) पुतिन की बाइडेन से हुई 62 मिनट लंबी वार्ता का भी मात्र यही परिणाम निकला कि पुतिन ने खुलेआम एक बार फिर से बता दिया कि यूक्रेन को नाटो में मिलाने के अमेरिकी मंसूबों को वह किसी भी हालत में सफल होने नहीं देगा, भले ही इसके लिए उसे वास्‍तव में यूक्रेन पर हमला ही क्‍यों न करना पड़े। पुतिन ने बाइडेन से साफ-साफ कह दिया है कि अमेरिका यूक्रेन से दूर हट जाये इसी में यूक्रेन की भलाई है।

हम सबको याद होगा कि अफगानिस्‍तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद पूरे विश्‍व में अमेरिका की हुई किरकिरी के कुछ ही दिनों के भीतर आस्ट्रेलिया – बरतानिया – अमेरिका (AUKUS) गठबंधन की घोषणा हुई थी। आज उसका कोई ज्‍यादा महत्‍व नहीं रह गया है और उसका कोई ज्‍यादा नामलेवा भी नहीं है, लेकिन उस समय इसका महत्‍व था। उस समय इसकी घोषणा दक्षिण पूर्व के देशों और पूर्वी एशियाई देशों के शासकों तथा वहां के अभिजात्‍य वर्गों तक इस एक महत्‍वपूर्ण संदेश को पहुंचाने के लिए की गई थी कि अमेरिका चीन के खिलाफ एक खुला मोर्चा तैयार कर रहा है जिसका अर्थ यह बताना था कि अमेरिका हर हाल में अपने उपरोक्‍त सहयोगी देशों (दक्षिण पूर्व और पूर्वी एशियाई देशों के शासकों और वहां के अभिजात्‍य वर्गों) के साथ हर हाल में खड़ा है। यह तेवर मुख्‍यत: अफगानिस्‍तान में हुई पराजय की झेंप मिटाने के लिए भी अपनाया गया था। इसका एक और मतलब अमेरिका के उन समर्थकों को आश्वस्त करना था जो अफगानिस्तान से वापसी के बाद संरक्षकविहीन होने की संभावना से आशंकित थे। यानी, मतलब साफ है कि अमेरिका के समर्थकों और सहयोगियों का भी आज अमेरिका की सैन्य क्षमता पर से भरोसा हटने लगा है।

क्रीमिया को यूक्रेन से छीने जाने और उसे रूस के साथ मिला देने के बाद यूक्रेन के शासक वर्गों ने अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देशों के करीब जाने का फैसला इसलिए लिया था कि उन्‍हें भरोसा था कि रूस के विरुद्ध वे उनकी रक्षा करने में समर्थ होंगे। लेकिन आज स्थिति ऐसी है कि यूक्रेन के शासक स्‍वयं ही अमेरिका से हाथ जोड़कर यह कह रहे हैं कि हमारी रक्षा की सनक त्‍यागिये, रूस हम पर तत्‍काल या अभी हमला नहीं करेगा। मानो यूक्रेन के शासक यह कह रहे हैं कि ‘रूस के हमले से ज्‍यादा हमको आपकी सनक से भय हो रहा है। आप कहीं रूस को सच में ही हम पर हमला करने के लिए न उकसा दें।’

ऐसा इसलिए हुआ क्‍योंकि रूस के तेवर से यूक्रेन के शासक को यह अंदेशा हो चला है कि अगर रूस सच में हमला करता है तो अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्‍यवादी देशों में से कोई भी उनकी रक्षा करने का जोखिम नहीं उठा सकेगा। दूसरा बड़ा अंदेशा यह भी है कि पूरी दुनिया में यह युद्ध फैल जाएगा, जिसके भयंकर परिणाम होंगे। उसे इस बात का अंदाजा हो चुका है कि वह न तीन में न ही तेरह में रह पाएगा। यूक्रेन को पता चल गया है कि रूस जान की बाजी लगा देगा लेकिन अपनी कनपट्टी पर अमेरिकी या पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देशों को अब बहुत दिनों तक बंदूक नहीं रखने देगा।

सभी जानते हैं कि सोवियत यूनियन से अलग होने के बाद यूक्रेन के अंदर एक नवधनाड्य कुलीन वर्ग वि‍कसि‍त हुआ। इस कुलीन वर्ग में एक बड़ी मजेदार बात यह है कि वह अपनी संपत्ति को बढ़ाने के लिए अमेरिका एवं पश्चिमी यूरोप की ओर ही नहीं, रूस की ओर भी देखता है। आईएमएफ की नजर से देखें, तो अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की इजारेदार कंपनियों की नजर वहां की उपजाऊ काली मिट्टी पर है जिसके बड़े भाग पर अभी भी छोटे किसानों का आधिपत्‍य है। छोटे किसानों की उन जमीनों से बेदखली के लिए अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के इजारेदार पूंजीपतियों की जीभ तेजी से लपलपा रही है। ये इजारेदार कंपनियां अमेरिका को हर हाल में यूक्रेन से रूस को पीछे हटाने हेतु युद्ध के लिए उकसाती हैं। इस कारण से भी युद्ध की संभावना अत्‍यधिक बढ़ गई दिखती है, यह अलग बात है कि उसके लिए अमेरिका फिलहाल स्‍वयं पूरी तरह तैयार नहीं है।  

यूक्रेन यूरोप के केंद्र में स्थित होने की वजह से काफी लंबे समय से पश्चिमी देशों के निशाने पर रहा है। इसका रूस के साथ रहना यूरोपीय साम्राज्‍यवादियों की नि‍गाहों में शुरू से ही एक काटें की तरह चुभता रहा है। यूक्रेन के पश्चिमी भाग की उपजाऊ भूमि कोई मामूली भूमि नहीं, अपितु यूरोप की सबसे उपजाऊ भूमि है। यह क्षेत्र अपने गर्भ में विशाल खनिज संसाधनों को भी समेटे हुए है। यूरोप में अब तक हुए तमाम युद्धों में यूक्रेन की खास अहमियत रही है। यूक्रेन का रूस से सटा भूभाग यानी उसका पूर्वी भूभाग खनिज संपदा से भरा है और इसलिए यहां उद्योगों का एक जाल बिछा है जो स्‍तालिनकालीन सोवियत यूनियन की नीतियों की देन है। इसका दक्षिणी भाग काले सागर के किनारे से सटा हुआ है, यानी तटवर्तीय क्षेत्र होने के कारण इसका एक खास सामरिक महत्व है। इन दोनों क्षेत्रों में रूसियों की संख्‍या का अनुपात सबसे अधिक है। दरअसल पूरे यूक्रेन में रूसियों की काफी अच्‍छी संख्या है और रूसी भाषा की लोकप्रियता का हाल यह है कि ज्‍यादातर यूक्रेनियन भी इसे बोलते हैं। यही कारण है कि यहां की अधिकांश जनता आज भी रूस से नजदीकी रिश्‍ता चाहती है।

अमेरिका यूक्रेन को नाटो के साथ एकीकृत करना और रूस के खिलाफ इसका उपयोग करना चाहता है। इसके लिए अमेरिका वर्षों से कोशिश कर रहा है जिसके इतिहास का एक छोर द्वितीय विश्‍व युद्ध के पहले और उसके दौरान जर्मन दखलअंदाजी से भी जुड़ता है। यूक्रेन में तथा इसके आस पास के क्षेत्र में रूस के अधिकतर नाभिकीय आयुद्ध केंद्र स्थित हैं। यह भी एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से रूस यूक्रेन को नाटो के साथ कभी भी एकीकृत होने नहीं देना चाहेगा। दरअसल यूक्रेन रूसी साम्राज्‍यवाद के वर्तमान ही नहीं उसके भावी अस्तित्‍व से अत्‍यंत गहरे तौर से जुड़ा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि यूक्रेन रूस व अमेरिका के लिए यूरोप में अपना-अपना प्रभुत्‍व जमाने का एक मोहरा भर है। यूरोपीय महाशक्तियां इसकी अत्‍यधिक उपजाऊ कृषि भूमि, समृद्ध खनिज भंडार तथा यहां के विकसित उद्योगों पर अपना पहला हक व अधिकार समझती हैं।

सोवियत संघ से यूक्रेन 1991 में अलग हुआ। स्‍तालिन की मृत्‍यु के बाद सोवियत समाजवाद के हुए पतन के बाद यूक्रेन में एक संपन्‍न व अभिजात्य वर्ग विकसित हुआ जिसके रूस के तत्‍कालीन सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं से ही नहीं इसके इसके समस्‍त प्रतिष्ठानों के साथ भी गहरे और मधुर संबंध थे। दूसरी तरफ 1991 के पहले से ही, यानी सोवियत यूनि‍यन के खात्‍मे के पहले से ही, पूर्वी यूरोप के वारसा संधि के अधिकांश देशों में एक संपन्न पूंजीवादी वर्ग का उदय हो चुका था जो प्रकारांतर में पश्चिम साम्राज्यवाद के साथ जा मिला। अमेरिका ने सोवियत यूनियन के 1991 में पतन के बाद इसके गणराज्‍यों को हथियाने की कोशिश की और वहां रूस के विरोध की भावना को प्रज्‍ज्‍वलित किया और भड़काया। यह वह दौर था जब पूरा वैश्विक पूंजीवाद ही संकट से गुजर रहा था। अमेरिका और पश्चिमी यूरोप स्‍वयं ही संकटग्रस्‍त थे, और इसलिए वे न तो हथियाए गये पूर्व के सोवियत गणराज्‍यों के शासकों को अनुगृहित करने में, और न ही उनके संसाधनों का अपने विकास के लिए उपयोग करने में सफल हुए। कहने का अर्थ है, उन्‍हें इन कब्‍जाये क्षेत्रों से, सस्‍ते श्रम की लूट से कमाये लाभ के अतिरिक्‍त और ज्‍यादा कुछ लाभ कमाने का अवसर नहीं मिला। दूसरी तरफ, पूर्वी यूरोप के ज्यादातर देशों में और पूर्व के सोवियत गणराज्‍यों में भी संकट छाया था और उथल-पुथल का दौर चल रहा था। इसका भी वे (पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देश) बस इतना फायदा उठा पाये कि वहां की आम जनता का ध्यान वहां के संकट से हटाने के लिए इन्‍होंने रूस विरोध को खूब हवा दी जिसका फायदा उठाते हुए उन देशों के सत्ताधारी अभिजात्‍य वर्ग के लोग काफी मजबूत हुए।

यूक्रेन की राजनीतिक स्थिति में 2004-05 के बाद काफी उथल-पुथल आया। पहले रूस समर्थक यानुकोविच पश्चिम साम्राज्‍यवादियों के समर्थक युश्चेंको से चुनाव में बाजी मार लेता है, लेकिन जनता इसके खिलाफ राजधानी कीव में सड़कों पर उतर जाती है (पश्चिम समर्थित ”गुलाबी क्रांति” होती है) जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट चुनाव रद्द कर देता है। तुरंत बाद दुबारा हुए चुनाव में पश्चिम समर्थक विक्‍टर युश्चेंको को 52 प्रतिशत वोटों के साथ जीत हासिल होती है। लेकिन रूस समर्थक यानुकोविच को भी 44 प्रतिशत मत मिलते हैं। अगले चुनाव, जो 2010 में हुए, में यानुकोविच को फिर से जीत मिलती है और इस बार इस जीत की निष्‍पक्षता पर किसी ने उंगली नहीं उठाई। यानुकोविच यूक्रेन को यूरोपीय संघ में शामिल करने के लिए तो राजी हो गया था लेकिन वह रूस के साथ घनिष्ठ व्यापारिक संबंध कायम करने का भी पक्षधर था। लेकिन रूस के साथ घनिष्‍ठ रिश्‍ता बनाने की बात ने ही पश्चिमी देशों और यानुकोविच के बीच के संबंध को हमेशा कड़वा बनाये रखा। पश्चिमी देशों को उसकी यह बात इस वजह से मंजूर नहीं थी कि पश्चि‍मी साम्राज्‍यवादी देश यूक्रेन के खनिज संसाधनों तथा यूक्रेन के कृषि-उत्पादों पर एकाधिकार चाहते थे और उसके लिए यह जरूरी था कि रूस को यूक्रेन से दूर रखा जाए। इसलिए वे यूक्रेन का रूस से पूर्ण संबंध विच्‍छेद चाहते थे। यह चीज पश्चिम को बिल्‍कुल ही गंवारा नहीं थी कि रूस यूक्रेन के औद्योगिक और कृषि उत्पादों का क्रेता बने या वह यूक्रेन के खनिज संसाधनों का रूस के विकास के लिए उपयोग कर सके।

लेकिन पश्चिमी देशों की यह बात यूक्रेन की एक बड़ी आबादी, जिसमें वहां के कुलीन वर्ग का एक हिस्‍सा भी शामिल है, की भावना के विरुद्ध जाती है। यूक्रेनी शासक वर्ग के लिए रूस के प्रति आकर्षण के बने रहने के पीछे पश्चिमी यूरोपीय देशों में रूसी गैस की आपूर्ति के लिए मिलने वाला पारगमन शुल्क के रूप में यूक्रेन को मिलने वाली बड़ी रकम भी है। वे यूरोपीय संघ, यूक्रेन और रूस को लेकर त्रिपक्षीय संबंध चाहते हैं, जैसा कि यानुकोविच मानता था। लेकिन पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देश और अमेरिका दोनों ने हमेशा ही इस सोच को सिरे से खारिज कर दिया। इसलिए पश्चिमी यूरोपीय महाशक्तियों और अमेरिका के द्वारा वहां इसके लिए हर तरह की कोशिश की जाती रही है जिससे रूस के प्रभाव को वहां से पूरी तरह खत्‍म किया जाए।

2014 में यूक्रेन की राजधानी कीव में हुए (वहां स्थित यूरो स्क्वायर – Euromaidan में) विशाल हिंसक प्रदर्शनों को इसी नजरिये से देखना चाहिए। इन प्रदर्शनकारियों व इसके नेताओं को पश्चिमी साम्राज्‍यवादियों का भरपूर समर्थन हासिल था। बाद में इसमें सशस्‍त्र बलों का एक हिस्‍सा भी शामिल हो गया। यह एक सिलसिले की तरह शुरू हुआ जिसका एकल उद्देश्‍य यूक्रेन के शासकों पर रूस के साथ आर्थिक संबंधों को खत्‍म करने और यूरोपीय संघ के साथ घनिष्ठ संबंध कायम करने के लिए दबाव बनाना था। दमन के बावजूद यह आंदोलन और तेज हो गया और इसमें लोग मारे भी गये। अंतत: यानुकोविच को सत्ता और देश दोनों छोड़ के जाना पड़ा।

जाहिर है रूसी साम्राज्‍यवादियों को यह स्थिति मंजूर नहीं है। इसलिए रूस ने अपनी स्थिति मजबूत होते ही कार्रवाई करनी शुरू कर दी। हालांकि पहली बड़ी कार्रवाई इसने 2014 में ही की जिसमें प्रत्यक्ष हस्‍तक्षेप करते हुए स्वायत्त गणराज्य की मांग का समर्थन करने वाले क्रीमिया प्रायद्वीप, जिसमें रूसी मूल के लोग बहुसंख्‍यक थे, को यूक्रेन से अलग कर लिया गया था। देखा जाए तो यूक्रेन में भी रूस में सम्मिलित होने के पक्ष में व्यापक जनता दिखती है जिसकी पुष्टि कई तरीकों से की गई रायशुमारियों के माध्‍यम से की जाती रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने क्रीमिया को लेकर एक नहीं कई सर्वेक्षण कराए। सभी से यह ज्ञात हुआ कि 65 से 70 प्रतिशत क्रीमियन रूस में सम्मिलित होने के पक्ष में थे। क्रीमिया में रूसी नस्‍ल की संख्‍या को लेकर 2001 में हुए एक सर्वे से यह भी पता चलता है कि 65 प्रतिशत क्रीमियाई रूसी नस्ल के हैं।

इसके बाद रूस ने यूक्रेन के खनिज संपदा से समृद्ध दोनबास क्षेत्र, जो यूक्रेन के पूरब में एक औद्योगिक केंद्र है, के अंतर्गत आने वाले डोनेट्स्क और लुहान्स्क क्षेत्रों में विद्रोह को तेज करवा दिये, क्‍योंकि यहां भी बड़ी संख्‍या में रूसी बसे हैं और वे भी पिछले कई सालों से स्‍वायत्‍त गणराज्‍य की मांग कर रहे हैं। पूरा दोनबास क्षेत्र कोयला खनन, धातु उद्योग और उपभोक्ता मशीनों के उत्‍पादन के लिए प्रसिद्ध रहा है और यहां के मालों को खरीदने वाला भी मुख्‍यत: रूस ही रहा है।

रूस का यह कहना है कि अमेरि‍का तथा पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देश यूक्रेन की जेलेंस्‍की सरकार से इन रूसी बहुल क्षेत्रों पर सैन्य हमले की तैयारी करवा रहे हैं ताकि वे यूक्रेन को अपना सामरिक अड्डा बना सकें। इसीलिए रूस इसके विरुद्ध  अमेरिका से लेकर यूक्रेन को खुलेआम धमकी दे चुका है। यह आज का सच भी है कि अगर अमेरिका इन क्षेत्रों में सैन्य आक्रमण कराता है, तो रूस सैन्‍य हस्तक्षेप करेगा। इस दृष्टि से देखें तो रूसी आक्रमण के खतरे का अमेरिकी प्रचार सही ही है। यानी, अमेरिका जानता है कि वह यूक्रेन को फिर से क्रीमिया को हासिल करने के लिए उकसा रहा है, दोनबास क्षेत्र में हमला करके वहां से रूसी प्रभाव को हमेशा के लिए खत्‍म करने की चाल समझा रहा है, इसलिए अमेरिका के लिए यह समझना कठिन नहीं है कि वह रूस द्वारा हमले को भी निश्चित मान कर चल रहा है। चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत यहां सही बैठती प्रतीत होती है।

लेकिन अगर अमेरिका के सहयोग से यूक्रेन क्रीमिया या दोनबास क्षेत्र पर हमला नहीं करता है, क्‍या तब भी रूस यूक्रेन पर हमले की नीति को अमल में लाना चाहेगा, इसका उत्‍तर मौजूदा परिस्थिति‍यों के मद्देनजर ‘ना’ में ही है। जब तक कि दोनबास क्षेत्र पर यूक्रेन का हमला नहीं होता है, रूस फिलहाल यूक्रेन पर एकतरफा हमला करना नहीं चाहेगा। स्थिति‍ लगभग ऐसी ही दिखती है। लेकिन कल क्‍या होगा इसके बारे में ठीक-ठीक कहना बहुत मुश्किल है। रूस को पता है कि यूक्रेन के पीछे दरअसल अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के साम्राज्‍यवादी देश खड़े हैं। इसलिए वह भी हड़बड़ी में कोई आत्‍मघाती कदम लेने से बचना चाहेगा। दूसरी तरफ, अमेरिका को भी पता है कि अगर यूक्रेन पर रूस हमला करता है और नाटो देश उसमें कूदते हैं तो यह युद्ध सबके लिए बहुत भारी पड़ेगा। इसलिए उसे भी पता है कि एक सीमा के बाद यूक्रेन के पीठ, कंधे और सर पर हाथ रखना खतरनाक हो सकता है। इसी तरह यूक्रेन के पश्चिमी समर्थक देशों के शासक वर्गों को भी अपनी सीमा का अंदाजा है। वे जानते हैं कि रूस लगभग अमेरिका जैसा ही मजबूत नाभिकीय हथियारों वाला देश है और जब-जब भी पश्चिमी देशों ने यूक्रेन में ज्‍यादा तनातनी दिखाई है, तो पुतिन ने इन हथियारों को हमेशा ही पश्चिमी यूरोप की तरफ शि‍फ्ट करने या मोड़ देने की धमकी भरी बात कही है। इसलिए नाटो में यूक्रेन को शामिल करने के निर्णय पर वास्‍तव में अमल और रूस की और अधिक घेरेबंदी आसान नहीं है और पूरे विश्‍व के लिए खतरों से भरी चीज है। 

पिछले दिनों, नाटो में 14 नए सदस्यों को प्रवेश दिलाया जाना, पूरब में यानी रूस को घेरने के निमित्‍त नाटो के विस्‍तार करने की अमेरिकी व यूरोपीय चाहत को दिखाता है। जाहिर है यह रूस के गुस्‍से और उसके अमेरिका के साथ यूक्रेन में हो रहे टकराव की एक मुख्‍य वजह है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन अमेरिका को पूरब में नाटो का विस्‍तार नहीं करने का पुराना वायदा (जार्ज बुश द्वारा गोर्बाचेव को दिया गया वायदा) याद दिला रहे हैं। वे रूस और नाटो के बीच मई 1997 में पेरिस में हुए उनके द्वारा हस्ताक्षरित समझौते (Founding Act) की बात उठा रहे हैं। सवाल है, पुतिन की इस ‘मासूमियत’ पर हंसा जाए या रोया जाए? साम्राज्‍यवादी कब से वायदा निभाने वाले हो गये! क्‍या रूसी साम्राज्‍यवाद आगे स्‍वयं ऐसे वायदे निभा सकेगा? आज रूसी साम्राज्‍यवाद भेड़ बना हुआ है, लोगों को ऐसा लग सकता है, लेकिन इसे भे‍ड़ि‍या बनते भला कितनी देर लगेगी!

ज्ञातव्‍य है कि नाटो के 2008 में हुए बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन में नाटो के सदस्य होने के लिए जॉर्जिया और यूक्रेन को आमंत्रित किया गया था जिसके बाद इनके यहां इंटरमीडिएट रेंज की मिसाइलों की तैनाती भी की गईं। वैसे तो यह स्वत: स्‍पष्‍ट ही है, लेकिन अमेरिका के गोपनीय दस्तावेज भी बताते हैं कि अमेरिका ने सदा ही पूरब में नाटो का विस्तार करने की सोची समझी नीति बनाई और उस पर गुपचुप अमल करने की तैयारी की है, भले ही वह बाहर इससे हमेशा से इनकार करता रहा हो। उसके द्वारा किए गये वायदों का ज्‍यादा महत्‍व पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं रहेगा। रूस भी इसे समझता है, लेकिन वह ऐसे सारे विषय इसलिए उठा रहा है ताकि वह कुटनीतिक स्‍तर पर अमेरिका को अलग-थलग और दोषी करार दे सके। हालांकि, यहां यह स्‍पष्‍ट है कि अगर युद्ध की विभीषिका विश्‍व को फिर झेलनी पड़ती है तो इसके लिए मुख्‍य दोषी अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देश होंगे जो हर हाल में नाटो के विस्‍तार द्वारा रूस को घेरने की नीति पर काम करते हुए युद्ध भड़का रहे हैं और विश्‍व को तीसरे विश्‍वयुद्ध की ओर धकेल रहे हैं। उसी तरह अमेरिका की चीन को घेरने की नीति भी विश्‍व के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकती है।

कुछ हफ्ते पहले रूस ने अमेरिका और नाटो को यूक्रेन संकट के हल के लिए दो प्रस्ताव भेजे हैं। पहले प्रस्‍ताव में लिखित रूप से इस पर जवाब मांगा गया है कि क्‍या विशेष रूप से यूक्रेन और जार्जिया को, और आम तौर पर किसी भी पूर्व के सोवियत गणराज्‍य को, नाटो का सदस्य नहीं बनाये जाने की उसकी अपील पर अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्‍यवादी देश सहमत हैं? दूसरा प्रस्ताव इस बात को लेकर है कि क्‍या नाटो के पूरब में और अधिक सैन्य निर्माण व जुटान और पूर्व के वारसा संधि के देशों में सैन्य गतिविधियों में कमी लाने को लेकर उसकी अपील पर अमेरिका और पश्चिमी देश सकारात्‍मक रूप से विचार कर रहे हैं? जहां यह सच है‍ कि टेक्निकल स्‍तर पर पश्चिमी देश और विशेष रूप से अमेरिकी साम्राज्‍यवाद रूस की इस पेशकश से और इसमें मौजूद तर्क से इनकार नहीं कर सकते, वहीं यह भी सच है कि साम्राज्‍यवादी ताकतें दुनिया के कोने-कोने में सैन्‍य निर्माण नहीं करेंगे तो भला क्‍या करेंगे? विश्‍वव्‍यापी मंदी के इस दौर में ही नहीं, हमेशा से ही एकाधिकारी पूंजीवाद के अंतर्गत बड़े वित्‍तीय पूंजीपति मुनाफे के लिए मुख्‍य रूप से हथियार उद्योग के विस्‍तार पर ही निर्भर हैं! इसलिए युद्ध भड़के चाहे विश्‍वयुद्ध और पृथ्‍वी पर से चाहे मानवजाति का संपूर्ण विनाश हो जाए, लेकिन साम्राज्‍यवादी युद्धों और हथि‍यारों की होड़ कभी नहीं छोड़ेंगे, यह तय है। मानवजाति को बचना है तो पूंजीवाद-साम्राज्‍यवाद का नाश जरूरी है।

फिलहाल खतरनाक ढंग से गहरा चुके यूक्रेन संकट में मौजूदा बाजी रूस के पक्ष में जाती दिख रही है। जैसे ही रूस ने ठोस रूप से हमलावर रुख व नीति लेते हुए यूक्रेन को नाटो में शामिल करने और पूर्वी यूरोपीय तथा पूर्व के वारसा संधि के देशों में नाटो देशों की गति‍विधियां बढ़ाने के खिलाफ अमेरिकी और पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्‍यवाद को धमकी व खुली चेतावनी दी, इस विषय पर आरपार के टकराव के लिए मन बना लेने की घोषणा की, और उसका ठंडे दिमाग से तथा खुले में अपने व्‍यवहार के जरिए उसका इजहार किया, वैसे ही अमेरिकी साम्राज्‍यवाद को पीछे ह‍टने तथा युद्ध को किसी भी तरह से रोकने के लिए अपने आप से कदम बढ़ाने पर मजबूर होना पड़ा है। उधर अमेरिका तथा पश्चिमी देशों में यूक्रेन संकट को लेकर अफरा-तफरी मची है, लेकिन रूस किसी भी स्थिति का सामना करने का मन बनाते हुए शांतचित्‍त हो अपनी बाजी खेल रहा है तथा ठंडे दिमाग से सैन्‍य विनियोजन और जमीनी व्‍यूहरचना करने में लगा हुआ है।

लेकिन अमेरिका का आज पीछे हटना इस बात का प्रमाण कतई नहीं है कि अब अमरीकी साम्राज्यवाद अपने प्रतिद्वंद्वी देशों की सीमाओं पर उच्च तकनीक से लैस हथियारों की तैनाती नहीं करेगा और उनको घेरने की नीति का परित्‍याग कर देगा। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा है, लेकिन फिलहाल वह एक सीमा से अधिक खतरा मोल लेने का जोखिम नहीं उठा सकता है, जब तक कि स्थितियां पूरी तरह उसके अनुकूल नहीं हो जाती हैं। यह चीज किसी भी साम्राज्‍यवादी के लिए सच है, चाहे वह अमेरिका हो या रूस। इसलिए यह समझने की जरूरत है कि वह चाहे नाटो देशों का नेता अमेरिका हो या चीन और उत्‍तर कोरिया के साथ मिलकर एक ठोस सैन्‍य गुट बनाने की कोशिश में लगा रूस, इनमें से किसी को भी यूक्रेन की जनता की भलाई से या उसकी जनता के स्‍वतंत्रतापूर्वक निर्णय लेने के अधिकारों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। किसी भी देश की जनता की तरह यूक्रेनी जनता भी शांति चाहती है और शांतिपूर्ण सुलह-समझौतों से ही समस्या का समाधान चाहती है। लेकिन जिस देश की भौगोलिक, रणनीतिक एवं सामरिक स्थिति, तथा उसके अकूत प्राकृतिक साधनों एवं संसाधनों पर साम्राज्यवादियों की नजर गड़ी हो, तो उस देश की जनता को फिर भला शांति कैसे नसीब हो सकती है। ये सभी के सभी जनता की खुशहाली के पक्‍के दुश्मन हैं। इन्‍हें पूरी तरह परा‍जित करके और पूरी दुनिया से पूंजीवाद-साम्राज्‍यवाद को जनक्रांतियों द्वारा उखाड़ फेंकने और फिर हमेशा के लिए कब्र में पूरी तरह दफन करने के बाद ही जनता को सुख व चैन की नींद नसीब हो सकती है।

(फरवरी अंक से)