ऐतिहासिक नौसेना विद्रोह की 76वीं वर्षगांठ

March 23, 2022 0 By Yatharth

भारतीय स्‍वतंत्रता आंदोलन के स्‍वर्णिम पन्‍ने (18-23 फरवरी 1946 – 2022)

18 से 23 फरवरी 1946 में हुआ ‘नौसेना विद्रोह’ उन कहानियों में से हैं, जो हमारे नेतागण और किताबें कभी नहीं बताते। बल्कि इसको दबाने की पूर्ण कोशिश करते हैं। हर साल इस देश में 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है, लेकिन वे 1946 के उन नाविक मजदूरों को याद तक नहीं करते, जिनका संघर्ष न केवल स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम निर्धारक था, बल्कि इस संघर्ष ने यह सवाल भी उठाया था कि क्रांति के रास्ते और आम मजदूर व शोषित वर्ग की शक्ति के ऊपर आधारित आजादी कैसी होगी?

द्वितीय विश्व युद्ध के शुरुआती समय में ऐसे युवा नौसेना में आये, जिनका नए तरीके से राजनीतिकरण हो रहा था, जो भगत सिंह से लेकर आजाद हिन्द फौज से प्रेरणा ले रहे थे तथा जिन्‍हें क्रांति और आजादी की सोच अनुप्राणित कर रही थी। इसी कड़ी में, 18 फरवरी 1946 का दिन आया, जब HMIS तलवार नामक एक जहाज के नाविकों ने अंग्रेज ऑफिसर्स के खराब बर्ताव और खराब भोजन के विरोध में आवाज उठाई और शाम तक हड़ताल पर चले गए। पूरे तंत्र को अपने कब्जे में कर लिया, और राष्ट्रवादी आन्दोलन के तीनों राजनीतिक दलों के झंडों – कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट – को लगा दिया| साथ ही पूरी दुनिया के रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय बेड़े को सिग्नल भेज दिया।

संघर्ष की शुरुआत 18 फरवरी को घटिया भोजन, भेदभाव और नस्ली अपमान के विरोध में नाविकों द्वारा की गयी भूख हड़ताल के रूप में हुई। उनकी मांगे बेहतर भोजन तथा अंग्रेज और भारतीय नाविकों के लिए समान वेतन की थीं। साथ ही, आजाद हिन्द फौज के सैनिकों व अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई तथा इंडोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की राजनीतिक मांगे भी थीं।

ये सिगनल्स प्रशिक्षण प्रतिष्ठान ‘तलवार’ के नाविक थे। 19 फरवरी को हड़ताल कैसल और फोर्ट बैरकों सहित बम्बई बन्दरगाह के 22 समुद्री जहाजों में फैल गयी थी। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को धता बताते हुए समुद्री बेड़े के मस्तूलों पर तिरंगे, चांद और हसिये-हथौड़े वाले झंडे एकसाथ लहराते दिखे। नाविकों ने जल्द ही चुनाव के माध्यम से एक नौसेना केन्द्रीय हड़ताल समिति का गठन किया जिसके प्रमुख एम.एस. ख़ान थे।

तमाम दबावों के बीच 20 फरवरी को नौसैनिकों ने अपने-अपने जहाज पर लौट जाने के आदेश का पालन किया। वहां पर सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। 21 फरवरी को जब कैसल बैरकों में नौसैनिकों ने घेरा तोड़ने का प्रयास किया तो लड़ाई छिड़ गयी। पर्याप्त गोला-बारूद जहाज से मिल ही रहा था। एडमिरल गॉडफ्रे द्वारा नौसेना को विमान भेजकर नष्ट करने की धमकी दी गयी।

दोपहर बाद लोगों की भारी भीड़ नौसैनिकों से स्नेह और एकता को प्रदर्शित करते हुए गेटवे ऑफ इंडिया पर जुट गयी। इनमें बड़ी संख्या में गोदी-मजदूर, नागरिक और दुकानदार शामिल थे। उनके पास नौसैनिकों के लिए भोजन भी था।

22 फरवरी तक हड़ताल देश भर के नौसेना केन्द्रों और समुद्र में खड़े जहाजों तक फैल गयी। इस वक्त तक हड़ताल में 78 जहाज और 20 तटीय प्रतिष्ठान शामिल थे। लगभग 20,000 नाविकों ने इन कार्रवाइयों में हिस्सेदारी की। आन्दोलन के समर्थन में आए हिन्दू-मुसलमान मेहनतकश मजदूरों, विद्यार्थियों और नागरिकों की पुलिस व सेना के साथ हिंसक झड़पें हुईं। 22 फरवरी को नाविकों के समर्थन में 3,00,000 मजदूर काम पर नहीं गये। सड़कों पर बैरिकेड खड़े करके जनता ने पुलिस और सेना से लोहा लिया। “कानून व्यवस्था को बहाल करने” के नाम पर अलग से दो सैनिक टुकड़ियां लगानी पड़ीं। सरकारी आंकलन के मुताबिक ही 228 लोग मारे गए और 1,046 घायल हुए। जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है।

यह भी याद रखने की जरूरत है कि 1946 में विभाजन की स्थिति सिर पर थी और देश में सांप्रदायिक माहौल चरम सीमा पर था। इसी समय, मजदूरों, छात्रों और आम शोषित जनता ने नौ सेना विद्रोह के आगाज पर नारा दिया : ‘हिन्दू और मुसलमान बैरिकेड पर संगठित हो!’ मतलब एकसमान शत्रु के खिलाफ संघर्ष के मैदान पर हमें एक होना है, जिसका यह मजदूर विद्रोह एक जीता जागता उदाहरण था।

इस समय यह हड़ताल एक बड़े जन विद्रोह का रूप धारण करने की ओर अग्रसर था। एक तरफ कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व मजदूर वर्ग की इस स्वतंत्र पहल को सक्रिय रूप से समर्थन नहीं दे पाया बल्कि राष्ट्रीय कांग्रेस के हाथों में छोड़ दिया। दूसरी ओर कांग्रेस के नेहरु ने संघर्ष का खंडन किया और बोला कि यह ‘गैरजिम्मेदाराना और हिंसक’ है। गांधी ने बोला कि मजदूरों को आत्मसमर्पण कर देना चाहिए था।

विद्रोह की समाप्ति 23 फरवरी को नाविकों द्वारा समर्पण करने के रूप में हुई। सरदार पटेल ने जिन्ना की मदद से अंग्रेजों और नाविकों का बिचौलिया बनते हुए और मजदूरों को सांप्रदायिक तौर पर बांटने का काम करते हुए उनसे समर्पण करवाया। आश्वासन दिया गया कि उन्हें अंग्रेजी अन्याय का शिकार नहीं होने दिया जायेगा। लेकिन ये आश्वासन ही रहा।

इस प्रकार इस आन्दोलन को किनारे करते हुए अंततः नाविक मजदूरों को आत्मसमर्पण की तरफ धकेला गया। ज्यादातर नाविक मजदूरों को जेल में डाल दिया गया। काफी सारे मजदूर अंग्रेजों की गोली से मारे गए। नाविकों को नेवी से निकाल दिया गया तथा ‘आजादी’ के बाद भी उनको वापस नहीं लिया गया।

(इनपुट : संघर्षरत मेहनतकश)