पूंजीवादी व्‍यवस्‍था में जातीय हिंसा और दलित उत्‍पीड़न

April 3, 2022 0 By Yatharth

संजय

15 मार्च 2022 को राजस्थान के पाली में एक दलित युवक जितेंद्र पाल मेघवाल की अगड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले दो लंपट तत्‍वों सूरज सिंह एवं रमेश सिंह ने तेज धारदार हथियार से इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उनलोगों को जितेंद्र का मूंछ रखना और सोशल मीडिया पर गर्व से अपने फोटो के साथ सक्रिय रहना पसंद नहीं था। हालांकि स्थानीय पुलिस ने इसे एक पुरानी रंजिश का मामला बताते हुए जातीय एंगल को खारिज करने की कोशिश की है।  इसी तरह 28 नवम्बर 2021 को उत्तराखंड के हल्द्वानी में रमेश राम नामक एक दलित युवक की सवर्ण हिंदुओं ने इसलिए पीट-पीट कर बेरहमी से हत्या कर दी क्योंकि कुछ सामंती मानसिकता वाले सवर्णों को रमेश राम का एक शादी के भोज में सवर्णों के साथ बैठकर खाना पसंद नहीं आया। आए दिन अखबारों में दलित हिंसा की दिल दहला देने वाले खबरें छपती रहती हैं। गुजरात और राजस्थान में सवर्ण हिंदुओं को दलितों का शादी में घोड़ी पर चढ़ना मंजूर नहीं। यूपी और बिहार में किसी खास बुर्जुआ पार्टी के पक्ष में दलितों का मतदान करना या न करना भी लंपट और सामंती तबके द्वारा उन पर आतंक मचाने का कारण बन जाता है। स्वतंत्र तरीके से अपने संविधान प्रदत्‍त राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग करने पर सवर्णों द्वारा दलितों की अक्‍सर हत्या कर दी जाती  है।

               2011 के जनगणना के अनुसार भारत में लगभग 20 करोड़ (16.6%) की आबादी दलित समुदायों की है, जो सैकड़ों जातियों और उपजातियों में विभाजित है। भारत में हुए पूंजीवादी विकास के क्रम में और आरक्षण की व्यवस्था के कारण दलित जातियों में भी एक छोटा ही सही लेकिन मध्य और निम्न मध्य वर्ग अस्तित्व में आया है। लेकिन दलितों में अधिकांश आबादी अभी भी खेतिहर मजदूर, ग्रामीण सर्वहारा या ग्रामीण अर्ध-सर्वहारा, औद्योगिक और शहरी सर्वहारा, छोटे किसान और थोड़े बहुत टुटपूंजिया कि‍स्म के लोगों की हैं।

               भारतीय समाज में सामंती अवशेष के अस्तित्व का बना होना इस बात से साबित होता है कि‍ आज भी अंतर्जातीय प्रेम या विवाह, खासकर यदि दलित युवक किसी सवर्ण या दबंग पिछड़ी जाति की लड़की से करने की जुर्रत करे, तो उसे तमाम दुश्‍वारियां झेलनी पड़ती हैं। कई बार तो दलित युवक को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है। हरियाणा, उत्‍तरप्रदेश और पंजाब में खाप पंचायतों की जातिवादी हिंसा की खबरें हम सबको शर्मसार कर देती हैं। सत्तर से नब्बे के दशक में बिहार में दलितों का उभार और मजदूरी, जमीन एवं अपनी गरिमा के लिए क्रांतिकारी संगठनो के साथ उनका गोलबंद होना सामंती भूमिहार और राजपूत जातियों के दबंगो को सहन नहीं हुआ और इसलिए रणवीर सेना जैसी खूंखार सामंती सेना बनी जिसके शिकार सैकड़ों दलित खेतिहर मजदूर और मेहनतकश लोग हुए। बिहार में उन दिनों दलितों पर होने वाली जातीय हिंसा के स्वरूप को गहराई से देखें तो स्पष्ट पता चलता है कि सवर्णों का जातीय दंभ बिहार में कितना हावी था। यह उनकी मानसिक रूग्‍नता का ही परिचायक है कि वे बचे-खुचे सामंती मूल्यों को आखिरी सांस  तक बनाये रखना चाहते हैं जबकि सामाजिक-आर्थिक मूलाधार में पूंजीवादी परिवर्तन हो चुके हैं। इसलिए यह आश्‍चर्य की बात नहीं है कि दलितों के उभार, आजादी की उनकी चाहत और मांग तथा राजनीतिक गोलबंदी की कोशिश को वे बिल्‍कुल ही नहीं बर्दाश्‍त करते।

               पूंजीवादी राज्यसत्ता का एक मुख्‍य स्‍तंभ न्यायिक व्यवस्था भी अक्सर दलितों को न्याय देने में विफल रही है और अपने वर्गीय चरित्र के अनुरूप हिंसक जातिवादी अपराधियों का साथ देती आयी है। दलितों के विरुद्ध हाल ही में हुई उपरोक्‍त हिंसा को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

               एक सर्वे के मुताबिक भारत में हर 15 मिनट में किसी न किसी दलित समुदाय के व्यक्ति के विरूद्ध जातीय हिंसा होती है। दलितों के खिलाफ होने वाले जघन्य अपराध भी उनकी आबादी के अनुपात से कहीं अधिक हैं। प्रतिदिन औसतन 3 दलितों की गैर दलितों द्वारा हत्या और औसतन 4 दलित महिलाओं का बलात्कार सामंती और अगड़ी जाति के दबंगों द्वारा किया जाता है। यहां तक कि कम उम्र की बच्चियों का भी जिस बर्बरता से बलात्कार और कई बार सामूहिक बलात्कार अगड़ी जातियों के दबंगों के द्वारा किया जाता है वह महज भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) का मामला नहीं होता है, वरन एक जातीय  सत्ता और वर्चस्व स्थापित करने की कवायद भी होती है और साथ ही साथ पूरे दलित समुदाय, गरीब और मेहनतकश तबके को उसकी ‘औकात’ बताकर एक खास किस्म का ‘मैसेज’ देना भी होता है। खैरलांजी (2006) और हाल ही में हाथरस (2020) में  घटित जघन्य कांड सभी संवेदनशील और इंसाफ पसंद लोगों को अंदर से हिला देता है।  आगजनी, लूट, अन्य किस्म की यौन हिंसा और महिला मजदूरो के साथ मारपीट, जाति सूचक संबोधन एवं गाली गलौज करना, आदि अनेक किस्म की हिंसा दलितों के खिलाफ अक्‍सर की जाती है। दलितों के लिए बनाए गए विशेष संवैधानिक और कानूनी प्रावधान के बावजूद उनके प्रति होने वाली जातीय हिंसा में बढ़ोतरी ही हुई है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्‍यूरो (एनसीआरबी) की सरकारी रिपोर्ट इस बात की तसदीक करती है कि जातिवादी और सामंती मानसिकता वाले हिंदुओं के भीतर दलितों के प्रति भयंकर नफरत और हिंसा भरी है जो उन्हें न केवल मानसिक तौर पर बीमार बनाता है, बल्कि उनके इंसान होने पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है।  जहां तक दलितों की सुरक्षा के लिए बने अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम, 1989 या अन्य संदर्भित कानूनों के द्वारा दलितों को न्याय दिलाने की बात है तो इसका रिकॉर्ड बहुत खराब है। केंद्र सरकार का ही मानना है की लगभग 88.5% जातीय हिंसा से सम्बंधित मामले अदालतों में लम्बित है। ज्यादातर मामलों में जातिवादी और लंपट अपराधी अदालतों से बरी हो जाते हैं। उक्‍त कानून के तहत सजा सुनाए जाने की दर अत्यंत निम्न (25-27%) है। पुलिस द्वारा सतही और कई बार दोषपूर्ण अनुसंधान, गवाहों को सुरक्षा न मिलने के कारण गवाहों का अदालतों में बयान देने से मुकर जाना, जजों और सरकारी वकीलों का जातिवादी मानसिकता से ग्रस्‍त होना, आदि भी जातीय हिंसा के मामले में दोषियों की रिहाई के लिए जिम्मेदार होता है।

               बिहार में उक्‍त कानून का कार्यान्‍वयन तो और भी बुरा है। किसी थाने में जाएं, वहां के थानेदार का इस कानून को लेकर रवैया स्तब्ध कर देने वाला होता है। एक रपट के अनुसार बिहार में 2011 से 2021 के बीच 63,163 जातीय हिंसा के मामले दर्ज किए गए। उससे पहले ही कुल 39,730 मामले अदालतों में लम्बित थे, जो कुल मिलाकर 1,06,893 हो गए। इस दौरान 44,150 मामले की सुनवाई हुई जिसमें में मात्र 872 मामले में विशेष अदालत द्वारा फैसला सुनाया गया, और उसमें भी मात्र 75 (8.6%) दोषियों को सजा सुनाई गई। ये सब देखते हुए यही कहा जा सकता है कि दलित के खिलाफ होने वाले अपराध की रोकथाम के लिए बना यह विशेष कानून, यानी अनुसूचित जाति एवं जन जाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम, 1989 महज एक कागज का शेर है। 30 अक्टूबर 2021 के हिंदुस्तान टाइम्स की एक खबर के अनुसार खुद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश डीवाई चंद्र्चूड़ और न्यायाधीश बीपी नागरत्न ने जातीय हिंसा के एक मामले की सुनवाई करते हुए दलितों के लिए बने उक्‍त विशेष कानून के कार्यान्‍वयन के संदर्भ में पुलिस के लचर रवैये पर गहरी चिंता जाहिर की थी। उन्होंने कहा कि दलितों और आदिवासी समुदाय के लोगों को न्याय पाने के लिए काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। न्यायिक प्रक्रिया ऐसी है कि प्राथमिकी दर्ज करने से लेकर अदालत की कार्रवाई में उन्हें काफी कुछ झेलना पड़ता है और इस प्रक्रिया में उन्हें आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है। पीड़ितों एवं गवाहों को डराया और धमकाया जाना तो आम बात है ही।  पुलिस दलितो पक्ष के गवाहों को मामूली सुरक्षा तक नहीं देती है और इसलिए ज्‍यादातर मामलों में जातीय हिंसा के अधिकांश दोषी बरी हो जाते हैं।

               सरकारें, पुलिस-प्रशासन और यहां तक कि देश की अदालतें भी जातीय हिंसा और दमन के शिकार हुए दलितों को, खासकर गरीब तथा मजदूर और मेहनतकश तबके से आने वाले दलितों को, न्याय देने में संयुक्त रूप से पूरी तरह विफल रहे हैं। व्यवस्था का कोई अंग जातिवाद के कैंसर से अछूता नहीं है। लक्ष्मणपूर बाथे, मियांपुर, बथानी टोला, आदि जैसे गांवो में हुए गरीब दलित-मजदूरों के नरसंहार में पटना उच्च न्यायालय द्वारा रणवीर सेना से जुड़े अपराधियों का बरी कर दिया जाना और सुप्रीम कोर्ट में पिछले 10 सालों से मामले को ठंडे बस्ते में रखे रहना इस बात को साबित करता है कि दलितों का जीवन, उनकी आजादी और उनके संवैधानिक अधिकार कोई मायने नहीं रखते।

               भारत की उच्चतर न्यायपालिका (राज्यों के उच्च न्यायालय और सर्वोच्‍च न्‍यायालय) की भूमिका दलितों के अधिकार और न्याय दिलाने मे आज कल कैसी रह रही है? हाल-फिलहाल की बात करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि उच्चतर न्यायपालिका के निशाने पर इन दिनों दलित के कानून आ चुके हैं। जैसे, आरक्षण के प्रावधानों की पश्चगामी व्याख्या और साथ में अनुसूचित जाति‍ एवं जनजाति‍ (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के असर को कमजोर किया जाना इसके दो ज्‍वलंत उदाहरण हैं जिसके खिलाफ दलितों की काफी बड़ी संख्‍या सड़कों पर संघर्ष के लिए उतर आई। पुलिस ने गोलियां चलाईं और कई लोग मारे गए। सैकड़ों दलित-आदिवासियों को जेलों मे डाल दिया गया। केंद्र ने पुनर्विचार याचिका दायर की लेकिन सुप्रीम कोर्ट टस से मस नहीं हुआ।

               अस्सी और नब्बे के दशक में बिहार में हुए जातीय हिंसा/नरसंहारों के मामले में न्यायपालिका, खासकर पटना उच्च न्यायालय के फैसले/निर्णय एक जातीय पूर्वाग्रह से युक्त विरोधाभासों को व्यक्त करते दिखते हैं। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों मसलन निचली अदालत एवं उच्चतर न्यायालय के न्यायाधीशों, वकीलों और अन्य कर्मचारियों के व्यवहार और मनोविज्ञान का सामाजिक/वैज्ञानिक शोध न के बराबर हुआ है। ज्यादातर विधिक शोध न्यायपालिका के फैसले और कानूनों के विश्लेषण तक सीमित रहे हैं। हालांकि देश की अदालतें, वकील और जज सभी आम गरीब लोगों से काफी दूर हो गए हैं जिसके कारणों पर शोध किया जाना आवश्‍यक था।  समाज का हिस्सा होते हुए भी अदालतें समाज से काफी अलग-थलग होती हैं, और अब तो यह दूरी और भी ज्‍यादा हो गई है। इसलिए अधिकांश लोगों के दिलों में इनके लिए अब कोई विशेष इज्जत या आस्था नहीं रह गई है। एकमात्र विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के भ्रष्‍ट नेता ही, जो भ्रष्टाचार के मामलों में उलझे और फंसे होते हैं, ही मीडिया में अक्सर ‘न्यायपालिका में आस्था’ जताते नजर आते हैं।

               बहरहाल, कुछ निर्णयों के आधार पर हम इस लेख में इस बात की शिनाख्त करने का प्रयास करना चाहते हैं कि न्यायाधीशों की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और राजनीतिक-वैचारिक दृष्टिकोण दलित उत्‍पीड़न के मामलों में निर्णय देने में कितना असर डालता है या नहीं डालता है। हम यह शिनाख्त बिहार में हुए जातिय हिंसा/नरसंहारों के मामले में न्यायपालिका, खासकर पटना उच्च न्यायालय के फैसले/ निर्णय के आलोक में करना चाहते हैं।

               ज्ञातव्‍य है कि निचली अदालतों के फैसले को पलटते हुए रणवीर सेना से संबंधित अभियुक्तों को ‘ठोस’ सबूत के अभाव और पुलिस द्वारा त्रुटिपूर्ण अनुसंधान’ के कारण दोषमुक्त कर दिया गया था।  इसमें एक ट्रेंड नजर आता है, क्‍योंकि दूसरी तरफ जिन मामलों में तथाकथित तौर पर मारने वाले दलित थे और मरने वालों में सवर्ण भूमिहार थे, वैसे मामले में न्याय व्यवस्था ने पूरी शिद्दत से अभियुक्तों को फांसी पर लटकाने के लिए फैसले दिए हैं। यानी जिन मामलों में तथाकथि‍त तौर पर दलितों द्वारा सवर्ण मारे गये वैसे मामले में दलितों को सजा-ए-मौत दी गई और कुछ को उम्र कैद। दूसरी तरफ, जिन मामलों में सवर्ण/सामंती ताकतों द्वारा गरीब दलित-पिछड़े खेतिहर मजदूर का जनसंहार किया गया, वैसे सभी मामलों मे पटना उच्च न्यायालय द्वारा सवर्ण अभियुक्तों को ‘ठोस सबूत के अभाव और पुलिस द्वारा त्रुटिपूर्ण अनुसंधान’ के कारण दोषमुक्त कर दिया गया। न्‍यायालय ने इसका उत्‍तर आज तक नहीं दिया कि फिर दलितों को किसने मारा? जब कोई दोषी नहीं है, तो क्‍या उन्‍होंने ही स्‍वयं को गोली मार ली थी। ऐसे ही अन्‍य सवाल है जिनका जवाब आज तक न तो न्‍यायालय ने दिया और न ही सरकार ने।  

               इन फैसलों का अध्‍ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि पूरी कार्रवाई पूर्वाग्रह से ग्रस्त रही है, चाहे बात पुलि‍स प्रशासन की हो या अदालतों की। ज्‍यादातर  अदालती प्रक्रिया में शामिल लोग (जज, वकील आदि) सवर्ण जाति और बुर्जुआ वर्ग से ताल्लुक रखने वाले रहे हैं और इसका असर उनके फैसले में न दिखाई दे ऐसे बहुत कम न्‍यायाधीश हैं। इसके अतिरिक्‍त पूंजीवादी जनतंत्र में अदालतें आम तौर पर मौजूदा व्‍यवस्‍था की राजनीतिक इच्‍छा एवं अर्थव्‍यवस्‍था की दिशा के साथ तालमेल में काम करती हैं। समय-समय पर इनके फैसलों की दशा एवं दिशा में आये अंतर के अध्‍ययन से इस बात पुष्‍ट की जा सकती है। इसके ऊपर, अदालती कार्रवाई का पेचीदा, थकाऊ और खर्चीला होना इसे गरीब दलितों की पहुंच से और दूर, बहुत दूर ले जाता है। इसलिए अक्‍सर आम गरीबों को न्याय मिलना लगभग असंभव बात होती है।

               कहा जाता है कि न्याय देने मे विलंब करना न्याय को नकारना होता है, लेकिन लक्ष्मणपुर-बाथे, बथानी टोला और शंकरबिगहा जैसे नरसंहारों के मामले में अदालत के फैसले आने में दो दशक से भी अधिक का समय लग गया। लेकिन क्‍या न्‍याय तब भी मिला? नहीं, उल्‍टे सारे दुर्दांत अपराधियों को दोषमुक्त तथा बरी कर दिया गया। उस पर आलम यह कि सर्वोच्च न्यायालय भी इसकी सुनवाई करने में देरी किये जा रहा है।

               1968 मे प्रकाशित “सुप्रीम कोर्ट जजेज : ए पोर्ट्रेट” मे जार्ज एच. गाडबोईस ने भारत की उच्चतर न्यायपालिका के न्यायिक परीक्षण की शक्ति पर तल्ख टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ”1950 से ही भारत की उच्चतर न्यायपालिका एक किस्म की राजनीति मे शामिल रही है और उसने कई राजनीतिक फैसले लिए हैं, लेकिन न्यायपालिका ने गैर-राजनीतिक होने का ढोंग किया है। सुप्रीम कोर्ट एक राजनीतिक संस्थान से कमतर नहीं है।” न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने 2007 के एक लेख में कहा कि ”आजादी के 60 वर्ष बीत जाने के बाद भी भारतीय न्याय-व्यवस्था के माध्‍यम से देश के करोड़ों लोगों के लिए न्याय पाना बहुत दूर की (non-approachable) चीज है।” अमेरिका के न्यायमूर्ति‍ एडवर्ड एम चेन ने 2003 के कैलिफोर्निया लॉ रिव्‍यू में प्रकाशित शोध पत्र में ‘न्यायपालिका में नस्लीय विविधता और भेदभाव और सबके लिए न्याय’ विषय पर विविधता के पहलुओं पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि ”विकसित देशों की न्यायिक व्यवस्था में नस्‍लीय प्रभाव होता है, इस तथ्य को आप स्वीकार करें या न करें।”

               कार्ल मार्क्स ने अपनी कालजयी रचना ‘पूंजी’ के प्राक्कथन में एक बड़ी मौजूं बात लिखी है कि ”व्यक्ति की चेतना से उसका अस्तित्व निर्धारित नहीं होता, वरण उसकी सामाजिक स्थिति से चेतना का निर्धारण होता है।” हिंदुस्तान में जाति लोगों की सामाजिक स्थिति को तय करने में आर्थिक कारणों के अलावा एक महत्वपूर्ण कारक होता है। यह सत्य है कि हर जाति में वर्ग का अतिच्छादन होता है, किंतु जाति मूलाधार (सीमित तौर पर ही सही) और संरचना दोनों में स्थित होने के कारण उत्पादन संबंधों के साथ-साथ अन्‍य सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित करते हैं। इसलिए भारत में दलितों के विरुद्ध अगड़ी जाति के सामंती मानसिकता वाले हिंदुओं द्वारा की जाने वाली जघन्य जातीय हिंसा, भेदभाव और छुआछूत को ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक अर्थशास्त्र के नजरिए से, यानी एक संपूर्ण नजरिए से देखने और समझने की आवश्यकता है। भारतीय समाज में जाति के नकारात्मक प्रभाव पर 1853 के अपने एक लेख में खुद कार्ल मार्क्स कहते हैं कि ‘भारत की प्रगति में यह (जाति) सबसे बड़ा निर्णायक बाधक है।’ मार्क्स के अनुसार ”भारत की जाति व्यवस्था आनुवंशिक श्रम विभाजन पर आधारित है, जो कि भारतीय ग्रामीण जीवन की निर्वाह अर्थव्यवस्था (subsistence economy) से अभिन्न रूप से जुड़ी है।”

               अस्मितावादी दलित राजनीति की वैचारिक शून्यता और उसका दिवालियापन व खोखलापन, क्रांतिकारी कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन का पीछे जाना,  सामंती मूल्यों का सामाजिक संरचना में बने रहना और फिर फासिस्टों का उभार – ये वो प्रमुख कारण है जो दलितों को दोयम दर्जे का नागरिक और हिंसा के लिए अभिशप्त बनाता है। जातिवाद की जड़ों पर यानी उसके भौतिक आधार पर हमला ना कर के मात्र भावनात्मक स्तर पर शैडों बॉक्सिंग करना दलित समस्या का समाधान नहीं है। दलितों की मुक्ति मजदूर वर्ग की मुक्ति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी है। जातीय आधारित संगठन या राजनीति से तो अंतत: भाजपा और आरएसएस जैसे फासिस्टों को ही फायदा होगा। अंबेडकरवाद से जितना जूस निकालना था, हम लोगों ने निकाल लिया, अब उनसे आगे बढ़ने और मार्क्‍सवाद के क्रांतिकारी दर्शन और मुक्तिदायी संघर्ष की वैज्ञानिक पद्धति को अपनाने की आवश्यकता है।