मजदूर वर्ग का प्रथम राज्य पेरिस कम्यून अमर है!

April 4, 2022 0 By Yatharth

मजदूर वर्ग का इतिहास – पेरिस कम्यून के 151 वर्ष (18 मार्च 1871-2022)

अजय सिन्‍हा

पेरिस कम्यून मजदूर वर्ग का पहला राज्य था। स्वभाविक है कि पेरिस कम्यून की स्थापना का दिन, यानी 18 मार्च 1871 का दिन, मजदूर वर्ग के लिए एक खास महत्व का दिन है। पेरिस कम्यून के पहले यूरोपीय मजदूर वर्ग के आंदोलन का एक लम्बा इतिहास रहा है, जैसे मताधिकार के लिए इंगलैंड के मजदूरों का प्रतिष्ठित चार्टिस्ट आंदोलन तथा 1848 के जून महीने में फ्रांस के मजदूर वर्ग की पूंजीपति वर्ग के खिलाफ अतिमहत्वपूर्ण लड़ाई यानी फ्रांसिसी मजदूरों का “जून विद्रोह” आदि। 

               19 जुलाई 1870 को प्रशा (जर्मनी का एक राज्य) के साथ फ्रांस का युद्ध शुरू हुआ तो भ्रष्टाचार और कुशासन से जर्जर फ्रांस के राजा नेपोलियन तृतीय की सत्ता सितंबर में भरभराकर ढह गयी। पेरिस में जनतंत्र की स्थापना के लिए रास्ता साफ हुआ और प्रशा के साथ युद्ध भी जारी रहा। परंतु इस जनतंत्र पर बड़े पूंजीपति काबिज थे। दूसरी तरफ, प्रशा के साथ युद्ध के दौरान बने सैन्य दल ‘नेशनल गार्ड्स’ में मुख्यतः मजदूर ही शामिल थे, खासकर पेरिस में। प्रशा से युद्ध जीतने के लिए इस जनतंत्र पर काबिज पूंजीपतियों के लिए जरूरी था कि वे आम अवाम को हथियारबंद करके प्रशा के खिलाफ राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध संगठित करें। परंतु, जिन पूंजीपतियों के हाथ-पैर पहले ही पेरिस के हथियारबंद मजदूरों के डर से फुले हुए थे, वे भला आम अवाम को हथियारबंद करने का खतरा क्यों उठाते? उनके लिए इस खतरे से बेहतर था आत्मसपर्मण कर देना। और उन्होंने ऐसा ही किया। जनता की भावनाओं को ठुकराते हुए राष्ट्रीय स्तर पर आत्मसमर्पण कर दिया गया। जनता और खासकर मजदूर इसे “राष्ट्रीय दगाबाजी की सरकार” कहते थे।

               जनवरी 1871 को पेरिस की ‘जनतंत्रवादी’ सरकार ने पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया। वर्साय ( फ्रांस का एक राज्य) में जर्मन बादशाह की घोषणा हुई जिसमें प्रशा का राजा जर्मनी का पहला बादशाह बना। 28 फरवरी 1871 में फ्रांस और जर्मनी के बीच शांति संधि पर हस्ताक्षर हुआ जिसकी शर्तों के मुताबिक पूरे अल्सास और लॉरेन प्रदेश को 5 अरब फ्रैंक जुर्माने के साथ जर्मनी को सौंप दिया गया। फरवरी 1871 में सम्पन्न हुए चुनाव में घोर प्रतिक्रियावादी थियेर फ्रांसिसी सरकार का प्रमुख बन गया।

               थियेर के प्रमुख बनते ही, “नेशनल गार्ड्स”, जिसमें मुख्य रूप से मजदूर शामिल थे, के हथियार वापस ले लेने का आदेश दे दिया गया। पूंजीपतियों और उनके दलालों को यह डर सता रहा था कि मजदूर कभी भी उन हथियारों का उपयोग पूंजीपतियों के शोषण को उखाड़ फेंकने के लिए कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त मजदूरों के हाथों में उन हथियारों के रहते पूंजीपतियां के लिए मजदूरों के साथ मनमानी करना कठिन था। उनके लिए हथियारबंद मजदूर दुःस्वप्न जैसे थे।

               पूंजीपतियों का डर अस्वभाविक भी नहीं था। मजदूर वर्ग को तो अपने जन्म काल से ही पूंजीपतियों के खिलाफ कदम-कदम पर लोहा लेना पड़ता है और संभव है कि मजदूर पूंजीपतियों का तख्ता पलट देना चाहेंगे। पूंजीपति वर्ग, सेठ, साहुकार, सूदखोर और उनके दलालों, जमींदारों और उनके गुंडों को, इन रक्तपिपासुओं को क्या हथियारबंद मजदूरों से डर नहीं लगेगा? और क्या मजदूर भी अपने हाथों में आये हथियारों का उपयोग अपनी सुरक्षा में या पूंजीपतियों का तख्ता पलट देने में नहीं करेंगे या नहीं करना चाहेंगे?

               जाहिर है मजदूर ऐसा ही करेंगे। फ्रांसिसी (पेरिस के) मजदूरों ने भी ऐसा ही किया और हथियार लौटाने से इनकार ही नहीं किया, अपितु पेरिस की सत्ता अपने हाथों में ले ली। 26 मार्च 1871 को सत्ता के सर्वोच्च अंग के रूप में सार्विक मतदान के जरिये कम्यून की स्थापना कर ली गयी। जब 1 मार्च 1871 को थियेर ने मजदूरों से हथियारों की वापसी व वसूली के लिए अपनी फौजों को पेरिस कूच करने का आदेश दिया तो पेरिस की तमाम मेहनतकश आबादी सड़कों पर आ गयी। बंदूकों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। पूंजीपतियों का दलाल थियेर वर्साय भाग गया। मजदूरों के प्रथम राज्य की अमर कहानी का यह प्रथम दौर था जो पूरा हुआ।

               पेरिस कम्यून की स्थापना में सभी तरह के कुशल और अकुशल मजदूर शामिल थे। इनके अतिरिक्त छोटे व्यवसायकर्मी, किरानी और शिक्षक भी शामिल थे। मूर्तिकार, लकड़हारा, दर्जी, चर्मकार, पत्थर तोड़़ने वाले, सुनार, राजमिस्त्री, बढ़ई मिस्त्री, जूता बनाने वाले, कम्पोजिटर और प्रेस मजदूर सभी लोग शामिल थे। पेरिस कम्यून में पौलैंड और जर्मनी के मजदूरो नें भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और वे कम्यूनवादी सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर थे। पेरिस कम्यून अंतर्राष्ट्रीयतावाद की भावना का प्रत्यक्ष और ठोस मिसाल था।

पेरिस कम्यून की ऐतिहासिक सीमायें

इससे शायद ही किसी को इनकार हो कि पेरिस कम्यून की बहुतेरी ऐतिहासिक सीमायें थीं। पेरिस कम्यून का मूल्यांकन करते वक्त इनका ख्याल रखा जाना चाहिए। हमें पेरिस कम्यून को मजदूर राज्य के प्रथम प्रारूप के रूप में और भविष्य के मजदूर वर्गीय राज्य के लिए एक शुरूआती मॉडल के रूप में ही देखना चाहिए, न कि कोई तयशुदा मॉडल के रूप में। इसलिए आम मजदूरों को यह जानना और

समझना चाहिए कि 1871 में हमारे भाईयों ने अपने प्रथम राज्य को कैसे संचालित किया था और किस तरह के अहम फैसले लिए थे।

  • 1) कम्यून ने सर्वप्रथम सरकार चलाने के काम को “रहस्मय”, “विशिष्ट” और “महाविद्वानों” के काम के बजाए सीधे-सीधे मजदूरों के आम कर्त्तव्य और प्रत्यक्ष काम में बदल दिया था।
  • 2) पेरिस कम्यून ने स्थायी सेना का अंत करके आम जनता को सशस्त्र कर दिया और इस तरह जनता के उपर शासन करने वाले औजार के रूप में सेना का अंत कर दिया।
  • 3) पेरिस कम्यून ने चर्च के वर्चस्व को समाप्त कर दिया था और राज्य के तरफ से उन्हें मिलने वाले अनुदानों और उनकी सम्पत्ति से उन्हें वंचित कर दिया था।
  • 4) कम्यून के सदस्य वार्ड स्तर से सार्विक मतदान के माध्यम से निर्वाचित होते थे और जनता की राय से कभी भी वापस बुलाये जा सकते थे।
  • 5) ऊंचे अधिकारियों के सभी विशेष भत्तों पर रोक लगा दी गयी और उनके वेतन की उच्चतम सीमा को घटाकर एक कुशल मजदूर के वेतन के बराबर कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त जन सेवा में लगे लोगों के वेतन को भी एक मजदूर के वेतन के बराबर वेतन दिया जाता था।
  • 6) कम्यून का ढांचा सामुदायिक आधर पर खड़ा किया गया था और इस तरह प्रत्यक्ष उत्पादकों के स्वशासन की बात को पेरिस कम्यून ने प्रतिष्ठित किया था।

इसके अतिरिक्त पेरिस कम्यून के आर्थिक फैसले भी अतिमहत्वपूर्ण थे। जैसे – बेकरियों में रात में काम करने की पुरानी व्यवस्था का अंत कर दिया गया था। मजदूरों पर जुर्माना लादने की पुरानी परंपरा और व्यवस्था का अंत कर दिया गया था और बंद कारखानों को मजदूरों के कोऑपरेटिव को सौंप दिया गया था। इसके अतिरिक्त निम्नपूंजीपतियों की ऋण वापसी को लम्बित कर दिया गया था।

पेरिस कम्यून ने विदेशियों को भी समान अधिकार प्रदान किये थे। ज्ञातव्य है कि पेरिस कम्यून में जर्मन मजदूर मंत्री थे और पॉलिश लोग सरकार में भागीदार थे। यह बात साबित करती है कि आम इंसान की आवश्यकता और वर्गीय भाईचारे के मामले में देश और राष्ट्र की सीमा का कोई महत्व नहीं था। पेरिस के मजदूरों ने यह दिखा दिया था कि शासन करने में मजदूर किसी से भी पीछे नहीं हैं।

ज्ञातव्य है कि पेरिस विद्रोह के पूर्व मार्क्स और एंगेल्स का यह आकलन था कि अंतिम तौर पर विद्रोह कुछ और तैयारियों के बाद शुरू की जानी चाहिए और किसानों का समर्थन हासिल करने तक इसे स्थगित करना चाहिए। परन्तु एक बार जब विद्रोह शुरू हो गया तो दोनों ने एक क्षण की देरी किये बगैर इसका पुरजोर समर्थन किया और इसकी जीत के लिए हर संभव काम किया था।

दरअसल वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांतों के आधर पर गठित मजदूरों की एक सुगठित पार्टी का अभाव भी क्रांति की सफलता के समक्ष एक प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा था। ज्ञातव्य हो कि फ्रांसिसी मजदूरों में सैद्धांतिक समझदारी वाला पहलू काफी कमजोर था। बुर्जुआ राजनैतिक पैंतरेबाजियों को भी समझने में वे काफी कमजोर थे और ऐसा ही साबित भी हुआ। पेरिस कम्यून की अंततः हुई हार में इन बातों का भी हाथ था। उदाहरण के लिए, पेरिस के बहादुर कम्यूनार्डों ने पेरिस में तो फौलादी ताकत का परिचय दिया और सत्ता कायम की, लेकिन, वे यह भूल गये कि पेरिस के बाहर थियेर के पीछे यूरोप के सारे प्रतिक्रियावादी एकजुट हो रहे हैं। इसी को ध्यान में रखकर मार्क्स ने कम्यून के प्रमुख नेताओं फ्रांकेल और वाल्यां को ठीक इसी बात की चेतावनी दी थी। मार्क्स को यह बात बहुत तकलीफ दे रही थी कि पेरिस कम्यून के साथी वर्साय पर हमला करने में ढुलमुलपन का परिचय दे रहे थे और बेशकीमती समय गंवा रहे थे जिसके ही दौरान थियेर को अपनी सैन्य किलेबंदी कर लेने का मौका मिल गया। 

उन्होंने (मार्क्स-एंगेल्स ने) कम्यूनार्डों को लिखा था – “प्रतिक्रियावाद की मांद को धवस्त कर डालिए, फ्रांसीसी राष्ट्रीय बैंक के खजाने को जब्त कर लीजिए और क्रांतिकारी पेरिस के लिए प्रांतों का समर्थन हासिल कीजिए।”

बुर्जुआ शांतिवार्ताओं की धोखाधड़ी को पेरिस के कम्यूनार्डों द्वारा नहीं समझ पाने की मजबूरी के बारे में मार्क्स लिखते हैं – “जब वर्साय अपने छुरे तेज कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था ; जब वर्साय युद्ध की तैयारी कर रहा था तो पेरिस वार्ताएं कर रहा था।”

मार्क्स का यह मानना था कि पेरिस कम्यून की जीत को पुख्ता करने के लिए कामगारों की सेना को खुद पेरिस में प्रतिक्रांति की हर कोशिश को कुचलते हुए वर्साय की तरफ कूच कर जाना चाहिए था। इससे सर्वहारा क्रांति को पूरे फ्रांस में फैलाया जा सकता था और किसानों का समर्थन हासिल किया जा सकता था। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और अंततः पेरिस की मजदूर बस्तियों में कामगारों और पूंजीपतियों के दलाल थियेर की सेना के बीच घमासान हुआ और आठ दिनों के बेमिसाल बहादुराना संघर्ष के बाद पेरिस कम्यून को पराजय स्वीकार करना पड़ा। पूंजीपतियों की सेना से लड़ते हुए 26000 कामगार और बहादुर कम्यूनार्ड शहीद हो गये और फिर विजयी प्रतिक्रियावाद ने पेरिस की सड़कों पर जो तांडव किया उसकी दूसरी मिसाल उस समय के इतिहास में नहीं मिलती है।

कम्यून के जीवनकाल में ही मार्क्स ने लिखा था – “यदि कम्यून को नष्ट भी कर दिया गया, तब भी संघर्ष सिर्फ स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धांत शाश्वत और अनश्वर हैं, जब तक मजदूर वर्ग मुक्त नहीं हो जाता, तब तक ये सिद्धांत बार-बार प्रकट होते रहेंगे।”

एंगेल्स ने पेरिस कम्यून की 21वीं वर्षगांठ के अवसर पर कहा था – “बुर्जुआ वर्ग को अपनी 14 जुलाई और 22 सितंबर को उत्सव मनाने दो। सर्वहारा वर्ग का त्योहार तो सभी जगह हमेशा 18 मार्च को ही होगा।”

पूंजीवाद इतिहास का अंत नहीं है। पूंजीवाद अमर नहीं हैं। शोषण की व्यवस्था हमेशा चलने वाली नहीं है। पेरिस कम्यून की 10वीं वर्षगांठ के अवसर पर मार्क्स-एंगेल्स ने भरपूर क्रांतिकारी जोश के साथ एलान किया था – “कम्यून, जो पुरानी दुनिया के शासकों के विचार में पूरी तरह से नष्ट हो गया है, पहले के किसी भी समय के मुकाबले आज और ज्यादा जीवन-शक्ति से ओतप्रोत है। इसलिए, हम आपलोगों के साथ मिलकर यह नारा बुलंद करते हैं- कम्यून जिंदाबाद।”

पेरिस कम्यून की हार के बाद फ्रांस से बाहर आने वालों में से एक, यूजीन पोतिए, जब इंगलैंड पंहुचे तो उनके पास फरारी में रचित उनकी कवितायें भी उनके पास थीं। इन्हीं में से एक कविता यूरोप और फिर दुनिया की कई भाषाओं में अनुदित हुई और जो बाद में ‘इण्टरनेशनल’ नाम से प्रसिद्ध हुई। इसे आह्वान गीत के रूप में सारी दुनिया के सर्वहारा और मजदूर मेहनतकश लोग भरपूर जोश के साथ एक ही धुन में गाते हैं। इसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं –

“उठ जाग ओ भूखे बंदी, अब खींचो लाल तलवार

कब तक सहोगे भाई, जालिम का अत्याचार।

 तेरे रक्त से रंजित क्रंदन, अब दस दिशि लाया रंग

 ये सौ बरस के बंधन, मिल साथ करेंगे भंग।

 ये अंतिम जंग है जिसको, जीतेंगे हम एक साथ

 गाओ इण्टरनेशनल, भव स्वतंत्रता का गान।

इतिहास के पन्नों से