बुलडोज़र राज नहीं चलेगा

May 9, 2022 0 By Yatharth

एस वी सिंह

मुस्लिम बहुल मज़दूर बस्तियों की ओर सरकारी बुलडोज़र बहुत तेज़ चलता है. सत्ता द्वारा दहशत गाफ़िल करने के ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ में जहाँगीरपुरी, दिल्ली का नंबर बुद्धवार, 20 अप्रैल 2022 को आया. शनिवार, 16 अप्रैल को हनुमान जयंती के अवसर पर पहली दो ‘शोभायात्राओं’ के बाद भी जहाँगीरपुरी में हिंसा नहीं भड़की, इसलिए वहाँ तीसरी निकाली गई. इस बार हिंसा भड़क गई. दिल्ली पुलिस आयुक्त के अनुसार तीसरी ‘शोभायात्रा’ की अनुमति नहीं थी, लेकिन उससे आयोजकों को क्या फर्क पड़ता है. वे आजकल अनुमति लेते नहीं, देते हैं! डीजे पर भड़काऊ नारे ही नहीं बल्कि अश्लील गालियां, इशारे-सीटियां (dog whistle), फूहड़ गीत साथ में तमंचे, तलवारें, त्रिशूल, मोटे-मोटे डंडे, बेसबॉल बैट शोभायात्रा की शोभा बढ़ा रहे थे. ‘शोभायात्रा’ वाले लोगों का प्रोफाइल वही था जो हर जगह रहता है; अगुवाई करते भगवा वस्त्रधारी ‘श्रद्धालु संत’ और बाक़ी चीखते-चिल्लाते ग़रीब मज़दूर, दिशाहीन युवा, अधिकतर नाबालिग बच्चे झूमते हुए, हथियार लहराते हुए. इसके बावजूद पहली दोनों शोभायात्राओं में पूरे रास्ते में कहीं से ना पत्थर बरसे और ना ही अल्पसंख्यक समुदाय के किसी भी व्यक्ति द्वारा कोई विरोध-अवरोध हुआ. ब्लॉक सी में मौजूद जामा मस्जिद के बिलकुल सामने तीसरी ‘शोभायात्रा’ तब तक ठहरी रही जब तक पत्थर वर्षा नहीं हुई. मानो इन्तेज़ार हो रहा हो कि कहीं से पत्थर आएँ और आगे की ‘ज़रूरी कार्यवाही’ शुरू हो!! सोशल मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार मस्जिद के गुम्बद पर चढ़कर भगवा झंडा फहराने की कोशिश भी हुई जैसा इसी साल कई जगहों पर हो चुका है. राजस्थान में तो खुद उच्च न्यायलय पर हो चुका है. रहस्यमयी तरीक़े से, कथित रूप से मस्जिद की दिशा से पत्थर आने शुरू हो गए और हिंसा भड़क उठी.घर जले, कई दर्ज़न घायल हुए. गनीमत हुई कि कोई मरा नहीं. एक बात का उल्लेख इसी जगह होना ज़रूरी है. पुलिस शोभायात्रा में मौजूद रही. बिना अनुमति जुलूस-मोर्चा निकालने पर क्या होता है, दिल्ली के लोगों को अच्छी तरह मालूम है. कैसे धक्के मारकर बसों में ठूंस कर आन्दोलनकारियों को किसी सुदूर पुलिस थाने में बंद कर दिया जाता है जहाँ दिन भर पीने का पानी भी नसीब नहीं होता. उस दिन जहाँगीरपुरी में वैसा कुछ नहीं हुआ. पुलिस ने ग़ैर कानूनी, सशस्त्र शोभायात्रा के आयोजकों पर किसी भी तरह की कोई कार्यवाही की हो, ऐसा दावा पुलिस का भी नहीं है. पत्थरबाज़ी के बाद घायल लोगों में कई पुलिस वाले भी हैं जिनमें एक सिपाही को कथित रूप से गोली भी लगी है. पुलिस ने 23 लोगों को गिरफ्तार किया जो अधिकतर दिहाड़ी मज़दूर, कबाड़ बीनने वाले, मोबाइल सुधारने वाले कारीगर हैं और ज्यादातर मुसलमान हैं. बिना अनुमति ‘शोभा यात्रा’ निकालने, उसमें हथियार लहराने, मुस्लिम समाज के बारे में अश्लील फब्तियां कसने, इशारे करने के इस फासिस्ट तमाशे के आयोजकों में से एक भी व्यक्ति का नाम गिरफ्तार लोगों अथवा एफआईआर में नहीं है. घटना के तुरंत बाद पुलिस तफ्तीश से पहले ही टीवी एंकर अपने ‘दिव्य ज्ञान’ से जान गए कि हिंसा का ‘मास्टरमाइंड’ मोहम्मद अंसार है. वही राग सारे दरबारी भोंपू अलापने लगे.  

हिंसा की लपटें शांत भी नहीं हुई थीं कि 20 अप्रैल 2022 को जहाँगीरपुरी में फासिस्ट प्रोजेक्ट का अगला चरण शुरू हो गया. क्रम बिलकुल वही जिसे अब सब जान चुके हैं; भड़काऊ सशस्त्र शोभा यात्रा, पीड़ितों की गिरफ़्तारी और फिर उनके घरों पर बुलडोज़र. पिछले 15 साल से दिल्ली नगर निगम में लगातार भाजपा का ही शासन है. उत्तरी दिल्ली के मेयर को 19 अप्रैल को ‘अचानक’ याद आया कि अतिक्रमण हटाने का अभियान युद्ध स्तर पर चलाने का सही समय यही है और उसके लिए सबसे उपयुक्त जगह जहांगीरपुरी के सी ब्लॉक का मस्जिद के आस-पास वाला वो इलाका है जहाँ हिंसा हुई थी, गिरफ्तारियां हो रही थीं और मुस्लिम समाज भयभीत था, आतंकित था. अतिक्रमण इतने बड़े स्तर पर तोड़ा जाना था कि दो कंपनियां पुलिस और सशस्त बल और 7 बुलडोज़र की ज़रूरत थी. दिल्ली पुलिस भी भाजपा के हुक्म से ही चलती है, हालाँकि अगर ऐसा ना भी होता तो कोई फर्क ना पड़ता क्योंकि इस पूरे घटनाक्रम में केजरीवाल की ‘ईमानदार’ सरकार ने फासिस्ट भाजपा से कम घृणित और शर्मनाक भूमिका अदा नहीं की है. वैसे भी दिल्ली में ‘हनुमान हुड़दंग’ की जड़ें, शैतानीपूर्ण तरीक़े से, आम आदमी पार्टी ने ही गहरी की हैं और बिना किसी जाँच के इस हिंसा की वज़ह रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों को बताकर मोदी सरकार और संघ परिवार की फासिस्ट एजेंडे को वैध ठहराने का गुनाह किया है. यहाँ ये भी रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि तथाकथित अतिक्रमण को हटाने से पहले अतिक्रमणकारियों को कोई सूचना या कारण बताओ नोटिस नहीं दिया गया था. अटॉर्नी जनरल ने 21 अप्रैल को हुई सुनवाई में इसे अतिक्रमण माना भी नहीं बल्कि मलबा हटाने का अभियान बताया. मतलब, मोदी सरकार की मंशा ज़हांगीरपुरी में अतिक्रमण हटाने की नहीं, बल्कि मुस्लिमों को सबक सिखाने, उन्हें आतंकित करने की थी. सुप्रीम कोर्ट ने हकीक़त समझकर बहुत सही सवाल पूछा, ‘मलबा हटाने के लिए बुलडोज़र की ज़रूरत पड़ती है?’ इस समय जो देश में घट रहा है वो बहुत भयानक है और 1930 के दशक में जर्मनी और इटली में जो घटा, उसकी याद दिलाता है.  भाजपा की फासिस्ट ब्रिगेड ये सब इतनी नंगई और बिंदासपने से कर रही है कि पूरा खेल लोगों की समझ में आ रहा है. यही वज़ह थी कि इस मामले की सुनवाई के लिए सरकारी फासीवादी आतंक के मौजूदा औजार, बुलडोज़रों के सी ब्लॉक जहाँगीरपुरी में पहुँचने के साथ ही कई प्रतिष्ठित और जन सरोकार रखने वाले वरिष्ठ वकील जैसे दुष्यंत दबे, प्रशांत भूषण और रामचंद्रन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के चैम्बर में मौजूद थे. जहाँगीरपुरी में बुलडोज़र दहशत बरपा रहे थे, पटरी वाले, चाय-ठण्डा पेय की टपरी वाले, मोबाइल रिपेयर करने वाले, कबाड़ी वाले, दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत कर किसी तरह अपने परिवार के लिए दो रोटी का जुगाड़ करने वालों के खोखे-टपरियां तबाह कर रहे थे, रोते-बिलखते पुरुषों-महिलाओं-बच्चों को पुलिस पीट-पीट कर खदेड़ रही थी, उन्हें उनकी झोपड़ियों के अन्दर धकेल कर बाहर से कुंडी लगा रही थी, वहीं, ठीक उसी वक़्त देश के मुख्य न्यायाधीश के सामने प्रख्यात वकील उन बेसहारा ग़रीब लोगों के दर्द बयान कर रहे थे, बता रहे थे कि कैसे सरकार द्वारा दिन-दहाड़े संविधान की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं. इसी का नतीज़ा था कि माननीय मुख्य न्यायाधीश ने सुबह 10.45 पर ही आदेश कर दिया कि तोड़-फोड़ की कार्यवाही को तुरंत रोका जाए और हमारे अगले आदेश तक वहाँ कोई ‘अतिक्रमण’ ना हटाया जाए. ये समाचार तुरंत वायरल हो गया, देश-विदेश में फैल गया. आदेश की सॉफ्ट कॉपी फेसबुक, व्हाट्सेप पर छा गए. कम्युनिस्ट पार्टियों के कई नेता और वकील देश की सर्वोच्च अदालत के आदेश के साथ घटनास्थल पर पहुँच गए. उत्तरी दिल्ली के मेयर राजा इकबाल सिंह को भी मालूम पड़ गया क्योंकि उन्होंने 11 बजे खुद ट्वीट किया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अनुपालन किया जाएगा. 

केंद्र सरकार और दिल्ली नगर निगम ने सुप्रीम कोर्ट का खुला अपमान किया है  

सुप्रीम कोर्ट के 10.45 बजे के आदेश के बाद जो हुआ वो सबसे ज्यादा गंभीर है. ऐसा हो तो काफी दिन से रहा है लेकिन इतनी बेशर्मी से और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के सामने, कथित रूप से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश की राजधानी में पहली बार हुआ. भाजपाई ‘राष्ट्रभक्त’ मेयर ने सुप्रीम कोर्ट के तोड़फोड़ को तुरंत रोक देने के आदेश के बाद भी जहाँगीर पुरी में तोड़फोड़ को  रोकने का कोई आदेश ज़ारी नहीं किया. वहाँ मौजूद अधिकारीयों को मालूम पड़ जाने के बाद भी मनमाने ढंग से, स्वछंद तरीक़े से सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना की गई, तोड़-फोड़ ज़ारी रही. सीपीएम की पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात सुप्रीम कोर्ट का आदेश हाथ में लेकर बेख़ौफ़ बुलडोज़र के सामने खड़ी हो गईं तब 12 बजे के बाद बुलडोज़र रुके. दिल्ली के लोगों के लिए घड़ियाली आंसू बहाने वाली आम आदमी पार्टी समेत कोई भी पार्टी जहाँगीर पुरी में तबाही बरपा रहे सरकारी बुलडोज़रों के पास नहीं पहुंची. सीपीएम और माले लिबरेशन पार्टियाँ संशोधनवादी हैं और क्रांति का रास्ता छोड़ चुकी हैं लेकिन इन पार्टियों के नेता अगर 20 अप्रैल को बुलडोज़रों के सामने ना अड़े होते, तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकारी बुलडोज़र, जितनी तबाही मचाने का भाजपा ने तय किया था, वो काम निबटाकर ही वापस लौटते. यही वज़ह है कि वहां एक-दो नहीं बल्कि 7 बुलडोज़रों का काफ़िला ले जाया गया था जिससे काम जल्दी निबट जाए. ये बात भी रेखांकित की जानी चाहिए कि ये रमजान का महिना है और जहाँगीर पुरी के तोड़-फोड़ अभियान का पहला निशाना वही जामा मस्जिद थी जिसके सामने हिंसा हुई थी. उसी का आगे वाला हिस्सा सबसे पहले तोड़ा गया. भाजपा सरकारों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मनमानी अवहेलना का ये पहला अवसर नहीं है. हरियाणा में इसी साल फरीदाबाद की संजय कॉलोनी की मज़दूर बस्ती में बिलकुल इसी तरह की तोड़-फोड़ की गई थी. ‘मज़दूर आवास संघर्ष समिति’ सुप्रीम कोर्ट गई, उन्हें अदालत का तोड़-फोड़ स्थगन आदेश भी मिल गया लेकिन रेलवे ने, जो तोड़-फोड़ करा रहा था, मालूम हो जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के स्टे आर्डर कोई महत्त्व नहीं दिया. बुलडोज़र अपना काम करते गए. मज़दूर की झोंपड़ी की बुलडोज़र के सामने बिसात ही क्या होती है, जब तक वकील आदेश लेकर मौके पर पहुंचे तब तक आठ घर टूटने से बचे थे. अधिकारीयों ने बेशर्मी से जवाब दिया, ‘अब इनके लिए दुबारा क्या ताम-झाम जोड़ेंगे’, उन्होंने सारी बस्ती उजाड़ डाली!! पिछले साल जुलाई महीने में तो फरीदाबाद नगर निगम ने सुप्रीम कोर्ट की अवमानना ही नहीं की बल्कि हरियाणा सरकार के साथ मिलकर एक फ्रॉड ही कर डाला!!! अरावली को संरक्षित रखने के कथित उद्देश्य से सुप्रीम कोर्ट ने 50 साल से बसी 1,50,000 आबादी वाली खोरी बस्ती और अरावली पर बने सैकड़ों फार्म होउस, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, आश्रम, मंदिर, गुरुकुल, अखाड़ों आदि को तोड़ने का हुक्म सुनाया. कोरोना महामारी के बावजूद, बरसात के मौसम में लाखों मज़दूरों के घर ढहा दिए गए, विरोध करने वालों को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन अमीरों की ऐशगाहों और पैसा कमाने के प्रतिष्ठानों का कुछ भी नहीं हुआ. कुल 14 फार्म हाउस की कंपाउंड वाल गिराई गईं, उनकी तस्वीरें सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुईं, ‘देखिए योर लॉर्डशिप, हमने अमीरों को भी नहीं बख्शा’. अदालत ने भी सच्चाई जानने की कोई कोशिश नहीं की. गिराई गई दीवारों की अब मरम्मत हो चुकी है और इन ऐशगाहों की जगमगाहट ‘क़ानून अपना काम करेगा’ जुमले को चिढ़ा रही है. इस रईसी अतिक्रमण ने खोरी गाँव से बीस गुना अधिक जंगल की ज़मीन को हथियाया हुआ है. यू पी सरकार तो अदालत की हुक्म-अदूली करने में महारथ हांसिल कर चुकी है, वो तो फासिस्ट प्रोजेक्ट का नेतृत्व ही कर रही है.    

जहाँगीर पुरी में हुए सरकारी बुलडोज़र आतंक के सबसे गंभीर पहलू को इन्डियन एक्सप्रेस अखबार ने 21 अप्रैल के अपने अंक में छापा है. दरअसल इस बुलडोज़र कांड की हकीक़त खुद भाजपा के नेताओं ने ही उजागर कर दी. जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत की इस अवमानना को गंभीरता से लिया जाएगा तब दिल्ली भाजपा के नेता और सारा ‘कोर ग्रुप’ केन्द्रीय गृह मंत्री के दफ्तर नार्थ ब्लॉक में इकठ्ठा हो गया, अब क्या किया जाए? इस कोर ग्रुप के नेता ने जो कहा उसका हिंदी अनुवाद इस तरह है, “ये सब सर्वोच्च केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा ही तय हुआ था. भाजपा का दिल्ली नेतृत्व भी इसकी मांग कर रहा था लेकिन ये सब तय ऊपर के स्तर पर ही हुआ. चाहे सोशल मीडिया की बात हो, चाहे ज़मीनी काम की बात हो, या संघ की बात हो, दिल्ली नेतृत्व ‘योगी (आदित्यनाथ) मॉडल’ ही चाहता है. आप भी जानते हैं कि इस तरह के काम के लिए पुलिस और नौकरशाही को भी तैयार करना पड़ता है, ये सब करना राज्य स्तर पर संभव ही नहीं.”  इसके बाद जानने-समझने को क्या बचता है? सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लेने की बात कही है. ‘गंभीरता’ कितनी गंभीर है, जल्दी ही समझ आ जाएगा, जब 15 दिन बाद इस मुद्दे पाए सुनवाई शुरू होगी!! लोग ज्यादा आशान्वित नहीं हैं. 

‘बुलडोज़र आतंक’, फासीवादी प्रोजेक्ट का एक औजार है और जहाँगीरपुरी एक कड़ी  

नागरिकता विरोधी काले कानूनों के विरुद्ध छिड़ा जन-आन्दोलन हमारे इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय था. ये आन्दोलन देश भर में फैलता जा रहा था और हिन्दू-मुस्लिम को मज़बूत करता जा रहा था. अभी तक के अपने शासन काल में फासिस्ट मोदी सरकार सिर्फ़ दो अन्दोलनों से ही भयभीत हुई है; नागरिकता विरोधी आन्दोलन और किसान आन्दोलन. किसान आन्दोलन की हवा निकालने के लिए वो झुक गई, कदम पीछे खींच लिए लेकिन उससे पहले हुए नागरिकता क़ानून विरोधी आन्दोलन को दमन से कुचल दिया गया. इस आन्दोलन से जुड़े कितने ही बेक़सूर युवा आज भी जेलों में बंद हैं. बुलडोज़र आतंक उसी दमन कि परिणति है. नागरिकता विरोधी काले कानूनों के विरुद्ध छिड़ा आन्दोलन अल्पसंख्यक मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में शुरू हुआ था इसलिए उसे कुचलना आसान हो गया. उस दमन चक्र की अगुवाई दिल्ली और कट्टर हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला बने उत्तरप्रदेश ने की. पहली बार न्यायप्रणाली की पूरी व्यवस्था को ही दरकिनार करते हुए पूरे मुस्लिम समुदाय को ही निशाने पर लेना शुरू हुआ. पुलिस ही मुंसिफ बना दी गई. आन्दोलनकारियों को उपद्रवी कहा जाने लगा. दरबारी हिंदी मीडिया उसी भाषा का इस्तेमाल करता है. सैकड़ों ग़रीब मज़दूरों को ना सिर्फ़ जेल में डाल दिया गया बल्कि दिहाड़ी मज़दूरों को लाखों के सरकारी संपत्ति की नुकसान भरपाई के नोटिस आने लगे. उनके घरों को ढहाया जाने लगा और दैत्याकार बुलडोज़र, दमन का नया औजार बन गया. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल दी और 274 लोगों को ज़ारी वसूली के नोटिस जो किसी अदालत ने नहीं बल्कि उप-ज़िला अधिकारी ने ज़ारी किए थे, रद्द कर दिए. यू पी सरकार ने 2021 में ‘सरकारी संपत्ति भरपाई कानून’ बना लिया और अपने रास्ते चलती गई. सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप रस्म अदायगी जैसा होकर ही रह गया. बुलडोज़र का आकार और बनावट फासिस्ट ज़रूरत के हिसाब से दबंग (macho-man) होने के कारण ये प्रोजेक्ट, सत्ता को दिन-ब-दिन ज्यादा रास आता गया. देखते-देखते बुलडोज़र यू पी में भाजपा का अघोषित चुनाव चिन्ह ही बन गया. चुनाव सभाओं में बुलडोज़र ले जाए जाने लगे. यू पी चुनाव में भाजपा का ये विज्ञापन बहुत लोकप्रिय हुआ, जो हर एफएम रेडियो चेनल पर हर पांच मिनट में सुनाई पड़ता था; ‘अब बुलडोज़र नहीं रुकेगा, योगी जी की चाय बहुत कड़क होती है’. यूपी चुनाव के दौरान योगी आदित्यनाथ ‘बुलडोज़र बाबा’ बन गए. जिस यूपी चुनाव के शुरू में भाजपा नेता चुनाव प्रचार के लिए देहात में जाने से डरते थे, सभाओं में भीड़ सरकारी बसों में भरकर लाई जाती थी, विपक्षी नेताओं की सभाओं में लोग टूट पड़ रहे थे, उस यूपी चुनाव में भाजपा भारी बहुमत से जीत गई. बेढंगा लेकिन दैत्याकार बुलडोज़र अब हीरो बन गया. यूपी में बुलडोज़र आजकल उन लोगों के अतिक्रमण हटाने में व्यस्त हैं, जो चुनाव से ठीक पहले भाजपा का जहाज डूब रहा है, ये देखकर कूदकर सपा की नाव पर चढ़ गए थे!! 

यूपी चुनाव में ‘बुलडोज़र बाबा’ की अपार सफलता के बाद एमपी का मुख्यमंत्री ‘बुलडोज़र मामा’ बन गया. समीकरण बिलकुल आसान बन गया. हिन्दू त्योहार पर असहनीय भड़काऊ, हथियार बंद शोभा यात्रा, अश्लील गालियाँ, सीटियाँ (dog whistle), भयानक ज़हरीले भाषण, नारे, मस्जिद के पास पहुंचकर रुक जाना, अन्दर घुस जाना, पत्थरबाज़ी, हिंसा, आगजनी और उसके बाद बिना किसी जाँच के अल्पसंख्यक युवाओं को मास्टरमाइंड बताकर जेल में ठूंस देना. इस सब के बाद होती है बुलडोज़र की एंट्री. ‘अतिक्रमण’ के विरुद्ध कोई नोटिस भेजना ज़रूरी नहीं! सरकार जिसे कहे वो गुनहगार. खरगौन में बिलकुल यही हुआ जिसकी तैयारी का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि वहाँ दिल्ली ‘दंगों’ के कुख्यात कपिल मिश्रा ने इतनी दूर जाकर भाग लिया. ‘दंगों’ के आरोपी मुस्लिम युवकों में वे मज़दूर भी शामिल हैं जो घटना से कई दिन पहले से किसी दूसरे मामले में पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में जेल में बंद थे. एक व्यक्ति ऐसा है जिसकी दोनों बाहें कटी हुई हैं, जो चाहे तब भी पत्थर नहीं फेंक सकता!! कुल 50 से अधिक दुकानों, घरों, टपरियों को तोड़ डाला गया. ‘दंगाइयों के घरों पर बुलडोज़र भेजे जाते रहेंगे, आगे भी यही सलूक होगा’  मध्यप्रदेश के गृह मंत्री का कैमरे के सामने दिया गया बयान बुलडोज़र आतंक की असलियत को सबसे बेहतर तरीक़े से उजागर करता है. बड़वानी बुलडोज़र कांड की सफलता के बाद ना सिर्फ़  मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री हो हटाने की मुहीम बंद हो गई है बल्कि केन्द्रीय गृह मंत्री ने उनकी पीठ भी थपथपाई है क्योंकि आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा की सफलता की संभावना बढ़ गई है. ‘बुलडोज़र मामा’ ने ‘बुलडोज़र बाबा’ को भी पीछे छोड़ते हुए यूपी से भी कठोर ‘सरकारी संपत्ति भरपाई क़ानून 2022’ पास कराया है!!   

गुजरात में भी चुनाव इसी साल होने हैं. बुलडोज़र वहाँ भी काम पर लग चुके हैं. आनंद ज़िले के समुद्र किनारे बसे शहर खम्भात में भी रामनवमी की ‘शोभायात्रा’ में दंगे भड़के थे जिनमें एक व्यक्ति की मौत हुई थी. आनंद ज़िला प्रशासन ने खम्भात की मुस्लिम बहुल बस्ती सकरपुरा में शुक्रवार 15 अप्रैल को ‘अतिक्रमण’ हटाने बुलडोज़र भेज दिए. ये रमजान का महीना है और जुम्मे की नमाज़ में अधिकतम मुस्लिम भाग लेते हैं, इसीलिए शायद वो दिन चुना गया. मुस्लिम समाज ने फिर भी भड़कने से दृढ़ता से इंकार कर दिया लेकिन ‘अतिक्रमण’ हटाने का काम दिन भर चला. बुलडोज़र आतंक का ही नतीज़ा है कि सोशल मीडिया पर त्रिमूर्ति-यूपी, एमपी, गुजरात के मुख्यमंत्रियों की तस्वीरें नज़र आने लगीं. झारखण्ड, कर्नाटक, हिमाचल, प बंगाल, और बिहार में  भी बुलडोज़र दनदना रहे हैं.  

 बुलडोज़र आतंक से उठते गंभीर सवाल  

त्योहारों पर शोभायात्राएं मज़दूर बस्तियों जैसे जहाँगीरपुरी, त्रिलोकपुरी, सीमापुरी आदि में ही क्यों निकलती हैं? ‘बड़े लोगों’ की बस्तियों जैसे डिफेन्स कॉलोनी, जोरबाग, ग्रेटर कैलाश या फिर विशालकाय बंगलों वाली लुटियन दिल्ली जहाँ हिंदुत्व के ठेकेदार ‘हिन्दू ह्रदय सम्राट’ स्वयं निवास करते हैं, वहां क्यों नहीं निकलतीं? जहाँगीरपुरी के लोग कह रहे हैं कि शोभायात्राओं में हथियार लहरा रहे युवाओं में कोई भी स्थानीय नहीं था. फासिस्ट ब्रिगेड की ये पैदल सेना कहाँ तैयार हो रही है, कहाँ से लाई जाती है, कौन लाता है, इनका खर्च कौन उठाता है? आम जन-मानस बेरोज़गारी और मंहगाई के पहाड़ तले दबा कराह रहा है. उनमें भी 80% तो हिन्दू ही हैं. चीखते-चिल्लाते, आग उगलते, दंगे भड़काते ये भगवा वस्त्रधारी कभी लोगों के जीवन-मरण की समस्याओं पर क्यों नहीं मुंह खोलते? दंगों से बरबादी होती है, लोग मरते-बिलखते हैं, बाज़ार बंद रहते हैं लेकिन धन्नासेठ जमात, इजारेदार कॉर्पोरेट वित्तीय पूंजी जो आज शासक वर्ग का सबसे प्रभुत्व वाला वर्ग है, को वास्तव में कोई नुकसान होता है क्या? दंगे होने पर जब हर तरफ उन्हीं की चर्चा छाई हो, उस वक़्त होने वाली बड़ी आर्थिक घटनाओं पर भी नज़र रखे जाने की आवश्यकता है क्या? गांव-देहात में चोरियां करने का एक दिलचस्प तरीका हुआ करता था; जिस घर में चोरी करनी है, उसके विपरीत छोर वाले घर पर पत्थर फेंक दो. जब सब लोग उधर दौड़ें तो जहाँ तय किया है, वहां हाथ साफ कर निकल लो!! कहीं दंगे वैसी ही कवायद तो नहीं? हर शहर में होते जा रहे अतिक्रमण की वज़ह क्या है, इनके लिए कौन ज़िम्मेदार है? दिल्ली में आधे से अधिक घर अतिक्रमण से ही बने हैं. अमीरों की लगभग हर कोठी की जड़ में बैंक घोटालों, डूबे हुए क़र्ज़ के कंकाल मिलेंगे. बुलडोज़र कभी अमीरों की जायदादों की ओर क्यों नहीं बढ़ते? फरीदाबाद की खोरी बस्ती ढह गई, संजय कॉलोनी मिट्टी में मिल गई, बाई-पास रोड की झुग्गियां तबाह हो गईं; अरावली पर बनी ऐशगाहों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों, धार्मिक अखाड़ों-मठों पर बुलडोज़र क्यों नहीं चले?   समाज में मुस्लिम समुदाय के प्रति इतनी नफ़रत क्यों है?

आज ये बात जानने के लिए प्रचंड विद्वान होने की ज़रूरत नहीं कि दंगे कराए जाते हैं, गढ़े जाते हैं. ये स्वत:स्फूर्त नहीं फूट पड़ते बल्कि एक योजना के तहत आयोजित किए जाते हैं. ये फासीवादी प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं. फासीवाद पर रजनी पाम दत्त ने बहुत अनुकरणीय काम किया है और उन्होंने उन्मादी-फासिस्ट भीड़ का बहुत ही सटीक मूल्यांकन किया है जिसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए. “चीखते-चिल्लाते महत्वोनमादियों, गुंडों, शैतानों और स्वेछाचारियों की यह फौज जो फासीवाद के ऊपरी आवरण का निर्माण करती है, उसके पीछे वित्तीय पूंजीवाद के अगुवा बैठे हैं जो बहुत ही शांत भाव, साफ सोच और बुद्धिमानी के साथ इस फौज का संचालन करते हैं और इनका खर्च उठाते हैं. फासीवाद के शोर- शराबे और काल्पनिक विचारधारा की जगह उसके पीछे काम करने वाली यही प्रणाली हमारी चिंता का विषय है. और इसकी विचारधारा को लेकर जो भारी भरकम बातें कही जा रही हैं उनका महत्त्व पहली बात, यानी घनघोर संकट की स्थितियों में कमजोर होते पूंजीवाद को टिकाए रहने की असली कार्यप्रणाली के सन्दर्भ में है.” 

दंगे-हिंसा होने पर भले छोटे व्यवसायियों की दुकानें जल जाएँ, उनके धंधे चौपट हो जाएं, जिनसे वे कभी ना ऊबर पाएं लेकिन इस वक़्त सत्ता शिखर पर काबिज़ इजारेदार वित्तीय कॉर्पोरेट पूंजीपति को कोई नुकसान नहीं होता. लोगों में बे-इन्तेहा कंगाली और समाज का दारीद्रीकरण इस स्तर पर पहुँच चुका है कि लगभग 70% तबका सिर्फ़ दो जून की रोटी के अतिरिक्त कुछ भी खरीदने की स्थिति में नहीं बचा. यही वज़ह है कि ना सिर्फ़ फ़्लैट और कारें नहीं बिक रहीं बल्कि जिंदा रहने के लिए आवश्यक पदार्थ जैसे दालें, दूध, फल, सब्जियों की खपत भी कम होती जा रही है. ये सच्चाई एनएसएसओ के सरकारी आंकड़े बयां कर रहे हैं जिनका प्रकाशन सरकार ने बंद कर दिया है. सरकार ने खुद माना है कि देश के 80 करोड़ लोग सरकार द्वारा बांटे गए मुफ़्त आनाज पर निर्भर हैं. औद्योगिक उत्पादन बढ़ाना अब उद्योगपतियों की ज़रूरत रही ही नहीं. गोदाम भरे पड़े हैं. वित्तीय पूंजी वैसे भी सट्टेबाज़ी से फूलती है. सट्टेबाजी के अतिरिक्त आजकल तो सरकारी इदारों की ‘दिवाली सेल’ चालू है. सरकार के सामने सवाल आज ये नहीं है कि सरकारी निकाय बेचे जाएं अथवा नहीं, बल्कि ये है कि बेचे कैसे जाएँ, बिक नहीं रहे. बेचने का निर्धारित लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा. धनपशुओं ने अपने कार्टेल बना लिए हैं और जो भी सरकारी निकाय बिक्री काउंटर पर आता है, उसे मन-मर्जी भाव में खरीदने के लिए तब तक नहीं खरीदते जब तक की उसका भाव एकदम तलहटी में ना पहुँच जाए. एयर इण्डिया और बैंक अधिकृत ‘दिवालिया’ रूचि सोया कंपनियों की भुस के भाव बिक्री इसका उदहारण हैं. सत्ता शिखर पर कुंडली मारकर बैठे ये कॉर्पोरेट गिद्ध आज खुद तय कर रहे हैं कि किस माल को कौन खरीदेगा. कहीं इस वक़्त कोई रसीली बिक्री तो नहीं होने जा रही जिसके लिए कोई अडानी-अम्बानी लार टपका रहा हो!! कहीं ऐसा तो नहीं कि बुलडोज़र आतंक से ये आग इसलिए फैलाई जा रही है जिससे लोग इसे बुझाने में लगे रहें और कोई गिद्ध सरकारी माल निगल जाए!! वित्तीय पूंजी द्वारा प्रायोजित जमातों द्वारा फैलाई जा रही सांप्रदायिक आग को बुझाने वालों को आग बुझाते वक़्त भी अपनी आँखें और कान खुले रखने की ज़रूरत है. 

कितना भी दर्द महसूस हो लेकिन ये सच्चाई स्वीकार करनी पड़ेगी कि हिन्दू समाज के काफी बड़े हिस्से में मुसलमानों के प्रति भयानक घृणा है. पूंजीपतियों-सामंतों के नेतृत्व में लड़े गए आज़ादी आन्दोलन की ये सबसे गंभीर कमजोरी रही कि उसमें धर्म का घोल-मट्ठा हमेशा रहा. हिंदुत्व से गलबहियां, कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व आज़ादी हांसिल होने के बाद से ही नहीं पहले से करता आ रहा, ये घृणित खेल पहले भी चालू था. अब ये सामाजिक क्रांति संभव नहीं रही. ये काम अब समाजवादी क्रांति के बाद ही हो पाएगा. 2006 में आई सच्चर कमिटी रिपोर्ट ने मुस्लिम समुदाय की हकीक़त उजागर की. देशभर में व्याप्त ग़ुरबत और अशिक्षा के मामले में मुस्लिम समाज की एकदम तलहटी में है. हर रोज़, हर तरफ भेदभाव, मज़हब आधारित तंज़, आतंकियों की तरह देखे जाना और हर रोज़ अपनी देशभक्ति के सबूत देना कितना पीड़ादायक है, ये वो ही जान सकता है जो उसे झेलता है. आबादी में 15.5% हिस्सेदारी वाले मुस्लिम समुदाय का  सरकारी नोकरियों में हिस्सा इस तरह है; बड़ी सरकारी नोकरियां 2.5%, छोटी नोकारियां 4.6%, सेना में 1%. एक तरफ जहां सच्चर कमिटी ने सुझाया था कि चूँकि मुस्लिम समाज दलितों से भी ज्यादा पिछड़ा है, उसे सामाजिक, आर्थिक और तालीम के मामले में आगे लाने के लिए ‘राष्ट्रीय बराबरी आयोग (National Equality Commission)’ गठित होना चाहिए. ‘राष्ट्रीय अल्प संख्यक आयोग’ दुर्भाग्य से अधिकतर धार्मिक मुद्दों, हज वगैरह तक ही सीमित रहता है.  आज की दर्दनाक हकीकत ये है कि भाजपा किसी भी मुस्लिम को चुनाव लड़ने का टिकट ना देकर, इस बात को अपनी विशिष्ट उपलब्धि की तरह प्रस्तुत करती है. मुस्लिम समाज आज बहुत दर्दनाक भेदभाव व अतिरिक्त शोषण का शिकार है. इस घुटन में अब एक और आर्थिक पहलू भी जुड़ गया है. चूँकि मुस्लिमों के साथ शिक्षा और नोकरी दोनों मामलों में, गरीबों के साथ होने वाले अन्याय के अतिरिक्त भी अन्याय होता है, उन्हें नोकारियां बहुत ही कम मिलती हैं इसलिए जीवन-यापन के लिए उन्हें  छोटे-छोटे स्व-व्यवासयी काम, कारीगरी, मिस्त्रीगिरी में लगना पड़ता है. आजकल रोज़गार-याफ़्ता मज़दूरों को, कहीं एकमुश्त कुछ पैसे देकर और कहीं वैसे ही काम से निकाला जा रहा है. ऐसे में, ये मज़दूर छोटे काम-धंधे करने की सोचते हैं तो वहाँ पहले से प्रस्थापित मुस्लिम समुदाय से प्रतियोगिता करनी होती है जिससे उनके दिल में पहले से भरी गई घृणा गहरी हो जाती है जिसे भड़काना दंगाईयों के लिए और आसान हो जाता है. 1947 में हुए दर्दनाक और पागलपन जैसे बंटवारे के बाद, अधिकतर मुसलमानों ने इसी मुल्क में रहने का फैसला किया था जो बहुत सही और साहसिक निर्णय था. आज भी हर रोज़ हो रहे तीखे भड़कावों के बावजूद मुस्लिम समाज अद्भुत धैर्य का परिचय दे रहा है. यहाँ तक कि चंद मुल्ला- टाइप नेता  जो पहले कई बार बदले की बातें कर दिया करते थे, वे भी बिलकुल चुप हैं. इससे अच्छी बात दूसरी नहीं हो सकती. इस बीमारी का सही उपचार तो लोगों के जीवन-मरण के मुद्दों पर सशक्त जन-आन्दोलन खड़े करना ही है लेकिन  मुस्लिम समाज के ज़ख्मों पर मरहम लगाने वाला वातावरण निर्मित करने के लिए  जागरुक, विवेकशील ग़ैर-मुस्लिम समुदाय पर एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी आयद है जिसे वह पूरी करता नहीं नज़र आ रहा. ये ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी उस सारे समाज की है जिसे हिन्दुओं में गिना जाता है और जो कट्टरवादी हिन्दू तालिबानियों की असलियत जानकर उनसे दूर रहना चाहता है.  समाज का ये हिस्सा बहुमत में है लेकिन तटस्थ है. तटस्थता आज एक अक्षम्य सामाजिक अपराध है.  

फासीवादी बुलडोज़र को मेहनतकशों की फौलादी एकता ही रोक सकती है                                                          

देश भर में आतंक मचाती कट्टर हिंदुत्ववादी फासिस्ट टुकडियां, 1930 के दशक के नाजियों की तरह  बहुत ही आक्रामक तेवरों में हैं. भाजपा सरकार अच्छी तरह जान चुकी है कि मंहगाई, बेरोज़गारी को वो नियंत्रित नहीं कर सकती. पूंजीवादी संकट असाध्य हो चुका है. अब उसने ऐसा करने का दिखावा भी बंद कर दिया है. डीज़ल-पेट्रोल-गैस के दाम लगातार बढ़ रहे हैं लेकिन उससे भी काम नहीं चल रहा क्योंकि उसी के परिणामस्वरूप मुद्रा स्फीति अभूतपूर्व स्तर 16.5% से ऊपर जाने वाली है. जल्दी ही मंहगाई को और असह्य बनाने के लिए नया बिजली कानून आने वाला है जिससे बिजली की दरें बहुत ज्यादा बढेंगी. अर्थ व्यवस्था की ‘हरियाली’ काल्पनिक और आभासी है क्योंकि ये निर्यात आधारित है. ये बुलबुला कभी भी फट सकता है और देश कभी भी श्रीलंका बन सकता है. ऐसे में इस सड़ती हुई पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को, जिसका आधा शरीर क़ब्र में जा चुका है, सिर्फ़ फासीवादी हिंसा और आतंक द्वारा ही कुछ दिन बचाया जा सकता है जिसके लिए समाज को बांटना, आपस में लड़ाना, समाज को उनके जीवन-मरण के मुद्दों तक ना पहुँचने देना, उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है. मज़हबी ज़हालत और अंध-राष्ट्रवाद का नशा तभी चढ़ता है जब ऐसा माहौल बने कि धर्म और राष्ट्र पर खतरा मंडरा रहा है. समाज के एक हिस्से को दुश्मन बताया जा सके, उसका ‘दूसराकरण’ किया जाए. यही वज़ह है कि हर मुसलमान को आतंकी, उपद्रवी, देशद्रोही, बाहरी बताने के लिए एक फौज तैयार हो चुकी है. इस फौज के पास अकूत धन-संसाधन हैं क्योंकि वित्तीय इजारेदार कॉर्पोरेट को समाज में लगातार बढ़ते जा रहे आक्रोश में अपनी मौत नज़र आने लगी है. इसलिए कितना भी खून-ख़राबा हो, दंगाईयों के पास पैसे की कमी कभी नहीं होती. इस फासीवादी घटाटोप को भाजपा ही ला सकती है, इसलिए 85% चन्दा उसी की झोली में जाता है. सारा टुकड़खोर, अम्बानी-मीडिया दिन-रात उसी कीर्तन में लगा रहता है. एंकर कूद-कूदकर, कलाबाजियां दिखाते हुए बुलडोज़रों का गुणगान कर रहे हैं, बुलडोज़रों पर चढ़-चढ़कर सरकार बहादुर के क़सीदे पढ़ रहे हैं.

अदालतें अत्यधिक दबाव में हैं. राजनीति शस्त्र हमें सिखाता है कि न्यायव्यवस्था भी सत्ता का ही एक अंग है जो मूलरूप से सत्ता के विरुद्ध नहीं जा सकता. लखीमपुर खीरी के हत्यारे आशीष मिश्रा को इलाहबाद उच्च न्यायलय द्वारा दी गई ज़मानत वाले आदेश की सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई आलोचना हमें बताती है कि अदालतों ने दीवार पर लिखा पढ़ लिया है. अधिकतर अदालतों ने फासिस्ट हमलावरों से पंगा लेना बंद कर दिया है. दंगाईयों के सरदारों, जैसे पाखंडी साधू यति नरसिन्हानंद जैसों ने सुप्रीम कोर्ट का भी मखौल बनाना शुरू कर दिया है. हरिद्वार में मुस्लिम नरसंहार वाले मुकदमे में ज़मानत की शर्तों का खुला उल्लंघन उसने ठीक दिल्ली में आकर किया. सन्देश है; उन्हें किसी अदालत का डर नहीं. ऐसा दुस्साहस सत्ता की शह के बगैर नहीं किया जा सकता. पुलिस, सीबीआई, ईडी और मंत्रियों-संतरियों को तो कब से मालूम पड़ चुका कि वे जितना मुस्लिम समाज का दमन करेंगे उतना उनका प्रमोशन उतना ही जल्दी होगा. वैसे भी ‘पिंजरे के तोतों’ से क्या उम्मीद करनी!! इतिहास हमें सिखाता है कि फासीवाद को अदालतें पीछे नहीं धकेल पातीं.

अभी, लेकिन, सब कुछ बरबाद नहीं हुआ है. कट्टरवादी हिन्दू फासिस्ट अभी अल्पमत में हैं. रविवार, 24 अप्रैल 2022 को शानदार ‘तिरंगा रैली’ निकालकर जहागीरपुरी के हिन्दू-मुस्लिमों ने दंगाई फासिस्टों को बता दिया कि उनकी फौलादी एकता को कोई नहीं तोड़ पाएगा.  भले, एकतरफा पैसे और मीडिया के सामने चुनाव परिणामों में वो  नज़र ना आए, मेहनतक़श अवाम सरकार से भयानक तपा हुआ है. क़सूरवार-गुनहगार कौन है, सब जान चुके. हर विवेकशील-जागरुक इन्सान फासिस्ट गिरोह से दूरी बना रहा है. सबसे बड़ी बात, लाख भड़कावों के बाद भी ‘हिन्दू’ मुस्लिम एक-दूसरे के खून के प्यासे नहीं हो रहे बल्कि इकट्ठे होते जा रहे हैं. सिर्फ़ भाड़े की भीड़ ही ये काम अंजाम दे रही है. प्रगतिशील-क्रांतिकारी राजनीतिक शक्तियां इतनी कमजोर नहीं हैं जितनी नज़र आती हैं. खुद को एक मात्र क्रांतिकारी सिद्ध करने का चक्कर उन्हें इकठ्ठा नहीं आने दे रहा. लेकिन सत्ता का डंडा उन्हें इकठ्ठा आने को धकेल रहा है. क्रांतिकारी विचारों के बगैर क्रांतिकारी आन्दोलन, क्रांति संभव नहीं इसलिए सैधांतिक मतभेद नज़रंदाज़ नहीं किए जा सकते, लेकिन उस चर्चा-डिबेट को संयुक्त फासीवाद -विरोधी तहरीक में बाधा नहीं बनने देना, सीखने की ज़रूरत है. 21 अप्रैल को जहाँगीरपुरी में अदालत का हुक्म हाथ में लेकर वृंदा करात जिस तरह बुलडोज़र के सामने बेख़ौफ़ खड़ी हो गईं और उपस्थित जन मानस ने जैसे तालियाँ बजाकर, नारे लगाकर उनका साथ दिया, रास्ता वही है. अदालतें फासीवादियों से निबट लेंगी, ये सोच घातक साबित होगी. वो वक़्त आ गया जब किसी भी मुद्दे पर कोई भी संघर्ष जीत लेने पर भी जीत नहीं होती. किसान आन्दोलन के सामने खुद को हारा हुआ दिखाकर भी जीत सरकार की ही हुई. किसान जीतकर भी हारे हुए ही हैं. हर जीत, आगे जीत की अगली कड़ी के बिना टिकती ही नहीं. वो हार बन जाती है. यही है, न्यूनतम और अधिकतम अजेंडे का एक हो जाना. मेहनतकशों की फौलादी एकता और सारे विवेकशील-जागरुक मध्य वर्ग को उनके साथ डट जाने के आलावा कोई विकल्प नहीं. हम इतिहास के बहुत ही नाज़ुक मोड़ पर हैं, इस समय ओढ़ी तटस्थता शर्मनाक और आपराधिक ही नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक गद्दारी साबित होगी, आने वाली पीढ़ियों को हम जवाब देने लायक नहीं रहेंगे. मज़दूरों-मेहनतक़श किसानों को ये जंग जीतनी ही होगी.