दमनकारी काले कानूनों के विरुद्ध जन-आन्दोलन तेज़ करो

May 9, 2022 0 By Yatharth

आपराधिक प्रक्रिया  (पहचान) क़ानून, 2022

एस वी सिंह

संसद के दोनों सदनों से अनुमोदित होने के बाद ‘आपराधिक प्रक्रिया पहचान क़ानून, 2022 (The Criminal Procedure Identification Act, 2022)’ पर राष्ट्रपति की मोहर लग चुकी है. देश के नागरिकों को पुलिस के रहमो-करम पर छोड़ने वाला ये काला कानून अब लागू हो गया. मोदी सरकार द्वारा पारित असंवैधानिक, काले कानूनों की श्रंखला में अब एक और कानून जुड़ गया है. अंग्रेजों द्वारा 102 साल पहले बनाए, “कैदियों की पहचान का कानून 1920 (The Identification of Prisoner’s Act, 1920)” नाम के काले कानून को और स्याह बना दिया गया है. अब कोई भी हेड कांस्टेबल जब चाहे किसी भी व्यक्ति को, उसके जीवन-पहचान से जुड़े महत्वपूर्ण निजी आंकडे जैसे; उँगलियों, हथेलियों, पावों के निशान, आँख की पुतली एवं पलक की माप (iris & retina scan), रक्त, वीर्य, लार का नमूना, व्यवहार सम्बन्धी पहचान जैसे लेख, आवाज़, डीएनए नमूना भी हो सकता है, अमानवीय नारको, रसायन देने के बाद किए जाने वाले दिमाग के प्रबंधित और असभ्य मनोवैज्ञानिक परिक्षण आदि, देने को बाध्य कर सकता है. आपने कोई अपराध किया हो या आपके विरुद्ध कोई एफआईआर हो, आपको गिरफ्तार किया गया हो, कुछ ज़रूरी नहीं. बस उस पुलिस के सिपाही का इतना कहना ही काफी है कि इन सब परीक्षणों की किसी अपराध की छानबीन में आवश्यकता है. आपने अगर इस आदेश का अनुपालन करने, सैंपल देने में आनाकानी की, ‘सहयोग’ नहीं किया, तो आप गुनेहगार होंगे. आपके ये सारे निहायत ही निजी शारीरिक आंकड़े ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ द्वारा पूरे 75 साल तक संरक्षित रखे जाएंगे और जब भी देश की किसी भी अपराध नियंत्रण संस्था को उनकी ज़रूरत होगी, उन्हें दे दिए जाएंगे. ये क़ानून ना सिर्फ संविधान के कई अनुच्छेदों की धज्जियाँ उड़ाता है बल्कि इसे इस तरह लिखा गया है कि हर महत्वपूर्ण पहलू को कई तरह परिभाषित किया जा सकता है. ‘थोड़े लिखे को बहुत समझना’ वाले अंदाज़ में किस लाइन को कैसे पढ़ना है, ये ज़िम्मेदारी देश की पुलिस के ऊपर छोड़ दी गई है. हमारे देश की पुलिस जानती ही है कि ये काम कैसे करना है, कौन सी लाइन को कैसे पढ़ना है!!  

संसद द्वारा इस कानून को पारित करने के दौरान बहुत ज्ञानवर्धक, सुनने लायक बहस हुई, ऐसा भी आजकल कम ही होता है. कैसे ये कानून असंवैधानिक, जन-विरोधी और दमनकारी है, इस तथ्य को सबसे सटीक तरह पी चिदंबरम ने रखा जो खुद केन्द्रीय गृह मंत्री रह चुके हैं और काले कानून पारित कराने का उनका निजी अनुभव है. ये बात भी उनसे अच्छा कोई नहीं जान सकता कि ऐसे काले कानून ड्राफ्ट करते वक़्त क्या बताया जाता है और क्या छुपाया जाता है!! लोकतंत्र में कानून बनाना संसद का काम है लेकिन वे कानून संविधानसंवत है या नहीं, ये सुप्रीम कोर्ट तय करती है. मोदी सरकार की एक और विशेषता है जो उसके 8 साल के कार्यकाल में बिलकुल स्पष्ट नज़र आती है. वह किसी भी क़ानून को पास कराते वक़्त विपक्ष के किसी भी संसोधन को मंज़ूर नहीं करती, अहम बिलों पर गंभीर विश्लेषण और संवैधानिकता सुनिश्चित करने के लिए संसदीय समितियों जैसे स्थाई संसदीय समिति (Standing Committee) अथवा विशेष समिति (Select Committee) को सौंपकर वक़्त बरबाद नहीं करती और सुप्रीम कोर्ट उसके रास्ते में बाधा बनेगी, उनके कानून को असंवैधानिक बताएगी, कोई अनावश्यक चिंता नहीं करती. हर फासिस्ट सरकार बिलकुल ऐसा ही करती है. संसद को निष्क्रिय करने के लिए उसमें ताला जड़ देना या हिटलर की तरह फूंक देना ज़रूरी नहीं, उसके और भी परिष्कृत तरीक़े मौजूद हैं!! विपक्ष का ये तर्क भी दमदार था कि हम 102 साल पुराने क़ानून को बदलने जा रहे हैं, उसकी वैधानिकता पर गंभीर बहस ज़रूरी है. ‘अगर 102 साल में कुछ नहीं हुआ तो 102 दिन में कौन सा आसमान टूट पड़ेगा, इसे पारित करने में उतावली ना की जाए!! विपक्ष की ये भारी-भरकम दलील भी गृह मंत्री को हलकी मालूम पड़ी. ये साबित करता है कि भले 102 साल में कोई पहाड़ ना टूटा हो लेकिन अगर ये कानून तुरंत ना पारित हुआ, तो 102 दिन में क्या पता टूट ही पड़े!! सरकार ने जैसा बिल संसद में प्रस्तुत किया था बिलकुल वैसा ही पारित हुआ और क़ानून बन गया, एक भी शब्द नहीं बदला गया. दरअसल, मोदी सरकार तीन साल पहले इसी तरह का दूसरा बिल, डीएनए तकनीक (उपयोग और इस्तेमाल) नियामक बिल 2019 (The DNA Technology (Use and Application) Regulation Bill, 2019) ला रही थी लेकिन उस पर संसद में बहस के दिखावे के पहले, पिछले दो साल में कुछ राजनितिक घटनाएँ ऐसी घटीं जिनके मद्देनज़र सरकार ने खुद ये बिल वापस ले लिया और डीएनए सम्बन्धी अमानवीय और असंवैधानिक प्रावधानों को संयोजित करते हुए उससे भी ज्यादा खतरनाक, ‘मानव गरिमा का अधिकार’ और सभ्यता के प्रतीक ‘निजता के अधिकार’ को ध्वस्त कर तत्संबंधी संवैधानिक मूल अधिकारों को बेरहमी से कुचलने वाले इस कानून को लेकर आई. 

ये क़ानून संविधान की धज्जियाँ उड़ाने वाला, घोर जन-विरोधी और खतरनाक है   

 आईये देखें, पूंजीवादी जनवाद के सबसे पावन दस्तावेज संविधान का सबसे पावन अनुच्छेद 21 क्या कहता है? “किसी भी व्यक्ति को  उसके व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से तब तक वंचित नहीं किया जा सकता, जब तक कि ऐसा करने की कोई कानून संवत वज़ह मौजूद ना हो”. अत: ये अनुच्छेद देश के हर नागरिक को और जो नागरिक नहीं हैं उन्हें भी दो अधिकार अवश्य प्रदान करता है; जीवित रहने का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार. सबसे पहले तो एक टिपण्णी बिलकुल यहीं करनी बनती है. ये बहुप्रशंसित संवैधानिक मौलिक अधिकार ज्यों का त्यों अंग्रेजों द्वारा लाए गए इंडिया एक्ट 1935 से लिया गया है. हमारे संविधान निर्माता महामानवों से इतना भी नहीं हुआ कि इस अधिकार की हवा निकालने वाले पुन्छल्ले, “जब तक ऐसा करने की कोई क़ानून संवत वज़ह ना हो” को हटा देते!! सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 को ‘सभी संवैधानिक अधिकारों का दिल’ कहा है. जस्टिस भगवती ने इसे ‘जनवादी समाज में सर्वप्रिय संवैधानिक मूल्यों का सर्वोच्च बिन्दू’ बताते हुए कहा है कि आपातकाल में भी इस अधिकार से नागरिकों को वंचित नहीं किया जा सकता. ‘जीवित रहने का अधिकार और व्यक्तिगत आज़ादी का अधिकार का मतलब किसी भी तरह पशुओं की तरह बस सांसें चलते जाने का अधिकार नहीं बल्कि गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है’ ये शब्द सुप्रीम कोर्ट के ही हैं. सुप्रीम कोर्ट की विभिन्न व्याख्याओं के अनुसार इन मूलभूत संवैधानिक अधिकारों में ये अधिकार भी शामिल हैं; गरिमा के साथ जीवन जीना, प्रदूषण मुक्त हवा-पानी में जीना, खतरनाक उद्योगों से बचाव, जीवनयापन करना, निजता का सम्मान, आसरे (घर) का अधिकार, स्वस्थ रहने, 14 साल तक मुफ़्त शिक्षा, मुफ़्त क़ानूनी सहायता, अकेले में बंदी ना बनाए जाने, मुकदमे की सुनवाई जल्दी किए जाने, हथकड़ियां ना लगाए जाने, अमानवीय बर्ताव से सुरक्षा, फांसी लगाने में देरी से बचाने, विदेश यात्रा करने, बंधुआ श्रम से आज़ादी, हिरासत में हिंसा-अत्याचार से सुरक्षा, आपातकालीन स्वास्थ्य सेवा, सरकारी अस्पतालों में समयबद्ध ईलाज, देश से बाहर निकाले जाने से सुरक्षा, न्यायपूर्ण सुनवाई, जेल में जीवनावश्यक वस्तुओं की गारंटी, महिलाओं को मर्यादापूर्ण बर्ताव की गारंटी, सरे आम फांसी दिए जाने से बचाव, सुनवाई का अधिकार, सूचना का अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन, सज़ा के विरुद्ध अपील, परिवार की सामाजिक सुरक्षा और संरक्षण, सामाजिक व आर्थिक न्याय व सशक्तिकरण का अधिकार, पावों में बेड़ियों से बचाव, उपयुक्त जीवन बीमा का अधिकार, नींद का अधिकार, ध्वनी प्रदुषण से बचाव तथा बिजली का अधिकार. संविधान निर्माता, संविधानविद तथा सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ती भी मानेंगे कि सारे समाज को आर्थिक आज़ादी और बराबरी वाली शासन व्यवस्था आए बगैर ये अधिकार संभव नहीं चाहें ये सब अधिकार संविधान में कितने भी मोटे अक्षरों में क्यों ना लिखे हों.

18 अप्रैल 2022 से लागू ये क़ानून घोर असंवैधानिक, निजता और गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकारों को बेरहमी से कुचलने वाला ही नहीं बल्कि सभ्य समाज होने के मापदंडों का भी मखौल उड़ाने वाला है. इस क़ानून का अनुच्छेद 21, देश में कानून अनुपालन सुनिश्चित करने वाली किसी भी संस्था तथा जेल अधिकारीयों को किसी भी व्यक्ति के माप तथा सैंपल लेने का अधिकार देता है. ‘किसी भी व्यक्ति’ में सज़ायाफ़्ता या आरोपी ही नहीं बल्कि हिरासत (detain) में लिया गया व्यक्ति भी शामिल है. सैंपल लेने में शरीर के जीव वैज्ञानिक और बर्ताव सम्बन्धी किसी भी आयाम को शामिल किया जा सकता है क्योंकि ये स्पष्ट नहीं किया गया है कि कौन से सैंपल लिए जा सकते हैं. मतलब; नारको टेस्ट, पॉलीग्राफ टेस्ट तथा मस्तिष्क विद्युत क्रियाशीलता परीक्षण (Brain Electrical Actification Profile) और मनोवैज्ञानिक परिक्षण करने का अधिकार भी पुलिस या किसी भी अन्य संस्था को मिल जाता है. इस क़ानून के सेक्शन 2 के अनुसार कोई भी व्यक्ति अगर सैंपल नहीं देता तो भी कानून अनुपालन एजेंसी उसके सैंपल लेगी और अगर उस एजेंसी को इस काम में बाधा पहुंचाई गई तो उसे सरकारी काम में बाधा पहुँचाना माना जाएगा और उसकी सज़ा मिलेगी. इसका अर्थ स्पष्ट है कि ये सारे माप और सैंपल मर्ज़ी के बगैर लिए जाएँगे. ऐसा करना असंवैधानिक है और सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों में दिए गए आदेशों का खुला उल्लंघन है, अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार सम्बन्धी मान्यताओं का अपमान है, असभ्य है. सुप्रीम कोर्ट ने नारको टेस्ट, पॉलीग्राफ टेस्ट, मनोवैज्ञानिक टेस्ट और मस्तिष्क विद्युत क्रियाशीलता टेस्ट को अमानवीय, यातनापूर्ण बताते हुए उन्हें 2010 से प्रतिबंधित किया हुआ है. ‘निजता का अधिकार’ हमारे सभ्य होने का सबूत है. सुप्रीम कोर्ट, मर्यादापूर्ण जीवन जीने और व्यतिगत निजता का सम्मान किए जाने पर कितना गंभीर रहा है ये जानने के लिए हमें ‘सेवानिवृत्त जस्टिस पुत्तुस्वामी बनाम केंद्र सरकार’ के अहम मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्च 9 जजों की बेंच द्वारा 24 अगस्त 2017 को दिया गया फैसला ज़रूर पढ़ना चाहिए. ये क़ानून इस फैसले की धज्जियाँ उड़ाता है, उसका मखौल बनाता है.  

2022 का ये संशोधित कानून अंग्रेजों द्वारा 1920 में बनाए गए क़ानून से भी कहीं ज्यादा खतरनाक और अमानवीय है 

1920 के भारत पर गौर कीजिए. मानव इतिहास की सबसे युगांतरकारी परिघटना रूस की बोल्शेविक क्रांति सफल हो चुकी थी. सोवियत संघ के एक विशाल भूभाग पर पूंजीवादी शोषणकारी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंक कर मज़दूर राज्य प्रस्थापित हो चुका था जिसके आलोक में हर देश में कम्युनिस्ट पार्टियाँ और मज़दूरों की लड़ाकू ट्रेड यूनियन बन रही थीं. औपनिवेशिक गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए आज़ादी आन्दोलन तेज़ हो रहे थे. देश शानदार, गौरवशाली ग़दर आन्दोलन देख चुका था. छात्र -नौजवान आज़ादी आन्दोलन में कूदते जा रहे थे. ऐसी स्थिति में सत्ता की दहशत से जन-मानस को आज़ादी आन्दोलन से विमुख करने के उद्देश्य से अँगरेज़ “कैदियों की पहचान का कानून 1920 (The Identification of Prisoner’s Act, 1920)” लेकर आए. आज ऐसी कौन सी परिस्थितियां हैं कि एक ‘राष्ट्रवादी’, महाबली सरकार तकनीकी विकास की दुहाई देकर उससे भी जन-विरोधी, अमानवीय, संविधान विरोधी, असभ्य कानून लेकर आई है. आईये, पहले इन दोनों कानूनों को तुलनात्मक रूप से समझें. 

क्र स मापदंड “कैदियों की पहचान का कानून 1920 (The Identification of Prisoner’s Act, 1920)”आपराधिक प्रक्रिया  (पहचान) क़ानून, 2022 (The Criminal Procedure Identification Act, 2022)
1.कौन से सैंपल और माप लिए जा सकते हैं?उँगलियों, पावों के निशान, फोटोग्राफ उँगलियों, हथेलियों, पावों के निशान, आँख की पुतली एवं पलक की माप (iris & retina scan), रक्त, वीर्य, लार का नमूना, व्यवहार सम्बन्धी पहचान जैसे लेख, आवाज़, डीएनए नमूना भी हो सकता है, अमानवीय नारको, रसायन देने के बाद किए जाने वाले दिमाग के प्रबंधित और असभ्य मनोवैज्ञानिक परिक्षण
2.किन व्यक्तियों के सैंपल और माप लिए जा सकते हैं?गिरफ्तार किए गए ऐसे व्यक्ति जिन्हें एक साल या उससे अधिक सज़ा हो सकती है. जिन लोगों ने अच्छे बर्ताव का शपथ पत्र दिया हो. मजिस्ट्रेट के आदेश से किसी भी व्यक्ति से कोई भी सज़ायाफ़्ता, गिरफ्तार, हिरासत (detention) में लिया गया व्यक्ति, जिसने देश के किसी भी कानून का उल्लंघन किया हो. जीव-वैज्ञानिक सैंपल उन्हीं से लिए जाएँगे जिन्होंने बच्चों, महिलाओं के विरुद्ध अपराध किए हों या जिन्हें सात साल की सज़ा हुई हो. मजिस्ट्रेट के आदेश से किसी भी व्यक्ति से.रहस्यमयी तरीक़े से इस मामले को क़ानून में अस्पष्ट छोड़ दिया गया है. मतलब किसी को भी लपेटे में लिया जा सकता है.   
3.सैंपल किस के आदेश से लिए जाएँगे? जाँच अधिकारी जो पुलिस सब-इंस्पेक्टर या उससे ऊँचे पद पर हो मजिस्ट्रेट किसी भी थाने का हेड कांस्टेबल अथवा उससे ऊपर, जेल का वार्डर 
मजिस्ट्रेट 
4.रिकॉर्ड कब तक रखा जाएगा?सज़ा पूरी होने तक75 साल तक (मतलब जीवन पर्यंत)
5.रिकॉर्ड कहां रखा जाएगा?सम्बंधित थाने में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) में और उसे देश भर में कहीं भी, किसी भी जाँच एजेंसी को उपलब्ध कराया जाएगा.
6.माप या सैंपल देने से मना करना अपराध अपराध 
7.माप या सैंपल का मुकदमे के साक्ष्य से सम्बन्ध ज़रूरी है ज़रूरी नहीं, मजिस्ट्रेट के आदेश से किसी के भी सैंपल-माप लिए जा सकते हैं, भले उसका उस मुकदमे या साक्ष्य से सम्बन्ध ना भी हो.

मोदी सरकार काले कानून क्यों लाती जा रही है? 

लगातार दूसरी बार प्रचंड जनमत से अकेले स्पष्ट बहुमत वाली ‘लोकप्रिय’ पराक्रमी मोदी सरकार जिसकी कुछ राज्यों को छोड़ सभी राज्यों में सरकारें हैं, सारे गवर्नर उनके हैं. सभी केन्द्रीय संस्थाओं, सीबीआई, ईडी, सतर्कता आयोग, सूचना आयोग, आयकर विभाग, चुनाव आयोग, दिल्ली पुलिस आदि सत्ता के सभी प्रतिष्ठानों, इदारों में प्रस्थापित मूल्यों को दरकिनार कर अपनी मर्ज़ी के व्यक्तियों की तैनाती के बावजूद सरकार क्यों और किससे भयभीत है. वो पेगासस जैसे भयानक ख़ुफ़िया उपकरणों से हर व्यक्ति की जासूसी करना चाहती है और आलोचना-विरोध के हर स्वर का गला घोंटने के लिए लगातार एक के बाद एक काले कानून लाती जा रही है? संसदीय विपक्ष मृतप्राय है. संसद में जो भाजपा चाहे वो होता है. देश विश्वगुरु बन चुका, अमृत काल में प्रवेश कर चुका फिर इए बेचैनी की क्या वज़ह है कि 102 साल पुराने कानून को बदलने के लिए विपक्ष की इतनी सी मिन्नत भी नहीं मानी कि इस बिल को संसदीय स्टैंडिंग समिति अथवा सेलेक्ट समिति को सोंप दिया जाए, जिससे वह हर तरह स्पष्ट परिभाषित रहे जिससे उसका दुरूपयोग ना हो सके? क्या मोदी सरकार ऐसे काले कानून के, जिससे किसी भी व्यक्ति को व्यक्तिगत गरिमा और निजता महरूम किया जा सके, पुलिस के रहमोकरम पर छोड़ा जा सके, अहम प्रावधानों को जान-पूछकर अस्पष्ट छोड़ना चाहती है जिससे उसके दुरूपयोग की गुंजाईश बनी रहे और किसी को भी लपेटे में लिया जा सके? सरकार ने राज्य सभा में बताया है कि पिछले तीन साल में यूएपीए कानून के तहत कुल 4690 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें 139 को ही सज़ा हुई. मुद्दतों तक मुक़दमा शुरू ही नहीं होता और आरोपी ज़मानत को तरस जाते हैं. 2016-2019 के बीच देशद्रोह कानून के तहत गिरफ्तारियां 160% बढीं और सज़ा दर 3% से भी नीचे रही. 

‘लोकतंत्र की आज़ादी’, ‘संवैधानिक मान्यताओं-मूल्यों’ का ढोल, पूंजी का सेवक मीडिया बहुत जोर से बजाता था. आज वो ढोल पूरी तरह फट चुका. पूंजीवाद का सबसे बड़े लठैत अमेरिका जो दुनियाभर में गोले और मिसाइल बरसाकर ‘डेमोक्रेसी’ लाता घूमता है, उसी अमेरिका में हमारे प्रधानमंत्री के घनिष्ठ दोस्त, डोनाल्ड ट्रम्प का जब युक्रेन का फ्रॉड पकड़ा गया और जब उनके जेल-निवास के हालात बने तो उन्होंने अपनी लुम्पेन फासिस्ट ब्रिगेड के गले का पट्टा खोल दिया और उनकी निजी गुंडावाहिनी 7 जनवरी 1921 को अमेरिकी जनवाद के किले  ‘कैपिटल हिल’ पर टूट पड़ी. न्यायमूर्तियों के काले गाउन तक फाड़ डाले और उनके ‘न्याय के आसन’ पलट दिए. ट्रम्प का कुछ नहीं बिगड़ा और वो अभी भी हमलावरों की अपनी टोली का बचाव कर रहे हैं. ब्राज़ील मार्का ‘लोकतंत्र’ का और भी बुरा हाल है. 31 मई 2020 को ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो की पार्टी के लोगों ने ब्राज़ील की सुप्रीम कोर्ट को बंद कर डालने के लिए रैली निकाली जिसकी अगुवाई खुद बोल्सोनारो ने घोड़े पर सवार होकर की और धमकी दी कि अगर उनकी दक्षिणपंथी पार्टी के लोगों को गिरफ्तार किया गया या उनपर मुकदमे हुए तो सुप्रीम कोर्ट की ईंट से ईंट बजा देंगे. उसके बाद से ब्राज़ील की सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया है!! तुर्की फ्लेवर वाला फासीवाद और भी दिलचस्प है. 15 जुलाई 2016 को फौज के दो गुटों के बीच गोलीबारी हुई जिसमें 300 जवान मारे गए. तुर्की कि ख़ुफ़िया एजेंसी ने कहा कि ये राष्ट्रपति रेसेप तैय्यब अर्दोगन की हत्या करने का प्रयास था. उसके बाद लगभग 75,000 लोग उस हत्या के षडयंत्र के आरोप में गिरफ्तार किए जा चुके हैं जिनमें 10,000 सैनिकों के अतिरिक्त 2745 जज, हजारों ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता, पत्रकार, लेखक, साहित्यकार तथा 21,000 अध्यापक-शिक्षाविद भी शामिल हैं. ये सब वे लोग हैं जो जनवादी अधिकारों को छीने जाने और सत्ता की घोर जन-विरोधी, मज़दूर-विरोधी, महिला-विरोधी नीतियों का विरोध कर रहे थे. राष्ट्रपति एरदोगन के रहस्यपूर्ण हत्या के कथित हमले के 6 साल बाद भी गिरफ्तारियां, जिनमें ज़मानत नहीं मिलतीं, अभी तक ज़ारी हैं. 26 अप्रैल 2022 को एक उद्योगपति की ‘हत्या के षडयंत्र में संलिप्त’ बताकर गिरफ़्तारी हुई है. तुर्की की सुप्रीम कोर्ट अपनी जगह मौजूद है और ‘कानून अपना काम विधिवत कर रहा है’!! 25 अप्रैल 2022 को नाइजीरिया ने देश के लगभग सभी 7.3 करोड़ नागरिकों के फोन इसलिए ब्लॉक कर दिए क्योंकि उन्होंने सरकारी नेटवर्क में अपने फोन का पंजीकरण नहीं किया था!! युक्रेन में तो बाकायदा नाज़ियों की न्युरेम्बेर्ग जैसी रैलियां-परेड ही होने लगी थीं. श्रीलंका में ‘सिंहली अस्मिता’ की हकीकत दुनिया देख ही रही है. कहने का तात्पर्य है कि अदालतों के डर से फासीवाद को आज तक कहीं भी पीछे नहीं धकेला जा सका है.  

‘आपराधिक प्रक्रिया  पहचान क़ानून, 2022 (The Criminal Procedure Identification Act, 2022)’ के सम्बन्ध में विपक्षी नेताओं जैसे पी चिदंबरम, मनोज झा, कोइना मित्रा ने बहुत ओजस्वी भाषण दिए. साबित कर दिया कि ये कानून नि:संदेह गरिमापूर्ण जीवन जीने और अपनी निजता के सम्मान के संविधान प्रदत्त अधिकारों को कुचल डालने वाला, सभी संसदीय मान्यताओं का मखौल उड़ाने वाला है. सभी ‘माननीयों’ के भाषण केन्द्रीय गृह मंत्री ने बहुत ध्यान से सुने लेकिन कानून एक शब्द भी बदले बगैर पास हो गया, लागू हो गया. पक्ष और विपक्ष अपना-अपना काम कर अपने-अपने बंगले पर चले गए. सुप्रीम कोर्ट इस कानून को असंवैधानिक बताकर सरकार को इसे रद्द करने अथवा संशोधित करने को बाध्य करेगी ऐसा मुगालता मोदी सरकार तो छोडिए, देश में किसी को भी नहीं है. हमारे सामने बस दो ही विकल्प हैं; जैसा चल रहा है चलने दें और आग की लपटों के अपने घर तक आने का इन्तेज़ार करें, अपनी खुद की गिरफ्तारी का और सारे सैंपल लिए जाने का इन्तेज़ार करें या फिर संगठित हो सडकों पर आएँ और प्रचंड जन-आन्दोलनों की लहर के बल पर सरकार को इस काले कानून को रद्द करने को बाध्य करें.