एनईपी 2020 : एआईएफआरटीई सम्मेलन

June 20, 2022 0 By Yatharth

अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर सम्मलेन : एक संक्षिप्त रिपोर्ट

वी प्रजापति

अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (AIFRTE) की दिल्ली समन्वय समिति ने हाल ही में 27 मई को दिल्ली में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत उच्च शिक्षा पर सम्मलेन आयोजित किया। सम्मेलन के अंत में एआईएफआरटीई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी (प्रो. जगमोहन सिंह, प्रो. हरगोपाल, प्रो. जोगा सिंह, प्रो. मधु प्रसाद, प्रो. मृत्युंजय, डॉ. चतुरनन ओझा, डॉ. विकास गुप्ता, डॉ. शिवानी नाग और श्री भागवत स्वरूप) ने प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए नई शिक्षा नीति 2020 के अपवर्जनात्मक और भेदभावपूर्ण चरित्र पर प्रकाश डाला और FYUP (चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम) और CUET (केंद्रीकृत विश्वविद्यालय परीक्षा) पर भी विस्तृत चर्चा की। प्रोग्राम में शिक्षाविदों, शिक्षक संघों के प्रतिनिधियों, छात्र संगठनों और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं सहित लगभग 300 प्रतिनिधियों ने शिक्षा के भविष्य के साथ चल रहे छेड़छाड़ के खिलाफ लड़ाई को मजबूत करने के उद्देश्य के साथ भविष्य की कार्य योजना विकसित करने के लिए सम्मेलन में भाग लिया। सम्मेलन में तमाम वक्ताओं ने एनईपी 2020 पर विभिन्न दृष्टिकोणों से अपनी बात रखी, जैसे कि इसका ऐतिहासिक और आर्थिक विश्लेषण, उच्च शिक्षा के भीतर भाषा और ज्ञान-मीमांसा न्याय का प्रश्न, लिंग-जाति के अंतर को मिटाने में भारी विफलता, शिक्षा के डिजिटलीकरण-निजीकरण-वस्तुकरण-भगवाकरण परियोजना के चलते सामाजिक एवं आर्थिक अंतर का विस्तार और संवैधानिक मूल्यों से भारी विचलन के कारण असमानताओं को कायम रखना।

अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच एवं नई शिक्षा नीति पर इसका दृष्टिकोण

पिछले वर्ष के उत्तरार्ध से, एआईएफआरटीई एक मंच के रूप में विश्वविद्यालय परिसर को फिर से खोलने (कोविड के कम होने के पश्चात), राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 और इसकी कमियों, दिल्ली विश्वविद्यालय परिसरों में एबीवीपी के गुंडों द्वारा हिंसा की हालिया घटनाओं, हिजाब प्रतिबंध एवं आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा अनिश्चितकालीन हड़ताल जैसे मुद्दों पर समर्थन पत्र, पर्चा, पोस्टरिंग, धरना-प्रदर्शन और सम्मेलनों के माध्यम से सक्रिय रहा है। अब तक के जारी किए गए बयानों में फोरम ने विभिन्न वजहों से, एनईपी 2020 का जोरदार विरोध किया है जैसे कि चार साल के स्नातक कार्यक्रमों (एफवाईयूपी) जिनका उद्देश्य शिक्षा की वार्षिक लागत (फीस) बढ़ाकर समाज के हाशिए से आने वाले छात्रों की बाधाओं को दस गुना बढ़ाने का है। फोरम का मानना है कि इस तरह की नीतियां दरअसल निजीकरण और बहिष्करण को लागू करने हेतु ही लायी जाती हैं। एफवाईयूपी में ‘मल्टीपल एंट्री-एग्जिट पॉइंट’ (एकाधिक प्रवेश निकास विकल्प) दरअसल कॉलेज शिक्षा को और सीमित व संक्षिप्त करने एवं छात्रों को कम समय तक ही कॉलेज में रहने हेतु लाया गया है। ऐसा कर पाना इसलिए संभव होगा क्योंकि एक वर्ष तक कॉलेज में पढ़ने के उपरान्त वह छात्र डिप्लोमा हासिल करने योग्य माना जाएगा। इस तरह, मजबूरीवश हजारों-लाखों छात्र जल्द ही श्रम बाजार में अकुशल श्रमिकों की एक सेना में परिवर्तित हो जायेंगे, जिसमें उनका सामाजिक-आर्थिक शोषण होना तय है। दूसरी तरफ, CUCET या केंद्रीकृत परीक्षा प्रणाली (केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण में) सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में शिक्षा को वंचितों के लिए एक सपना बना देगी। फोरम का यह कहना है कि परीक्षा का मॉडल ऐसा बनाया गया है कि छात्रों को अंततः कोचिंग उद्योग पर निर्भर रहना पड़ेगा, जो कि स्वाभाविक रूप से छात्रों के एक बड़े हिस्से को बाहर कर देगा, जिनके लिए बुनियादी शिक्षा ही अपने आप में दुर्गम और महंगी है। तीसरा यह कि, शिक्षा के आदान-प्रदान में ऑनलाइन मोड को प्रोत्साहन देने से (भौतिक और ऑनलाइन मोड के 60:40 अनुपात के साथ) डिजिटल विभाजन का और गहराना तय है क्योंकि अभी ही वित्तीय बाधाओं के कारण लगभग 67% (25-29 वर्ष के छात्रों) का मौजूदा ड्रॉपआउट दर हमारी आंखों के सामने है। और चौथा, एनईपी प्राथमिक कक्षाओं के लिए दूरस्थ पाठ्यक्रमों और केंद्रीकृत परीक्षाओं के जरिये एडमिशन का तरीका और जटिल ही बनाएगा। यह सीधे तौर पर आरटीई अधिनियम (RTE Act) के प्रगतिशील तत्वों का उल्लंघन है। यह नीति प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा दोनों में निजी क्षेत्र की घुसपैठ का मार्ग प्रशस्त करता है और अधिकतम लाभ में पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करता है। उपरोक्त कारणों के अलावा, फोरम ने एनईपी की असंवैधानिकता के आधार पर भी विरोध दर्ज किया है क्योंकि यह प्रवेश, भर्ती और पदोन्नति में आरक्षण को दरकिनार करता है और इसके साथ ही विकृति, सांप्रदायीकरण, पाठ्यक्रम का संस्कृतीकरण एवं तर्कसंगत और वैज्ञानिक स्वभाव की पूर्ण उपेक्षा करता है। इस प्रकार, नीति में अंतर्निहित गंभीर मुद्दों के आलोक में, फोरम महत्वपूर्ण डेटा, नीति के भीतर खामियों और राज्य की मंशा का प्रचार-प्रसार करने में एक हद्द तक सफल रहा है। नीति में विभिन्न बिंदुओं के आधार पर लक्षित मांगों के साथ आने के अलावा, एनईपी 2020 के खिलाफ प्रतिरोध को आकार देने के सम्बन्ध में, फोरम देश की सभी प्रगतिशील और लोकतंत्र समर्थक ताकतों को समान, मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए लड़ने का संकल्प लेने के लिए आह्वान करता है और यह मानता है कि भाजपा-आरएसएस द्वारा फैलाए जा रहे सांप्रदायिकरण एवं शिक्षा के निजीकरण के एजेंडे के खिलाफ छात्रों, शिक्षकों, अभिभावकों और अन्य समुदायों को लामबंद करके लड़ा जाना चाहिए।

27 मई 2022 का सम्मेलन

27 मई अखिल भारतीय सम्मेलन में विभिन्न प्रोफेसरों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं, छात्रों और शिक्षकों के संगठनों, शिक्षाविदों और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को पैनलिस्ट के रूप में देखा गया। उन्होंने विभिन्न आयामों के बारे में बात की कि किस तरह से एनईपी उच्च सार्वजनिक शिक्षा पर हमला करता है। प्रो. विकास गुप्ता (एआईएफआरटीई के आयोजन सचिव) ने बताया कि कैसे सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में राज्य द्वारा निवेश में कई वर्षों से उत्तरोत्तर गिरावट देखी गई है। आजादी के बाद से जो थोड़ी प्रगति शिक्षा के क्षेत्र में हुई थी, उसे यह नव-उदारवादी मॉडल लगातार उलटता चला जा रहा है। उन्होंने एनईपी 2020 को अन्यायपूर्ण व्यवस्था बनाने के लिए राज्य का सबसे प्रभावी उपकरण बताया। प्रो. जी हरगोपाल ने बताया कि कैसे “एनईपी ने शिक्षा की परिवर्तनकारी परियोजना को छोड़कर साम्राज्यवादी कॉर्पोरेट और ब्राह्मणवादी आधिपत्य को कायम रखने का काम किय।”  प्रो. सुरजीत मजूमदार ने एनईपी के पीछे मुख्य उद्देश्य पर प्रकाश डाला जो शिक्षा क्षेत्र को पूरी तरह से निजी क्षेत्र के लिए खोलना, सामाजिक प्रगति में योगदान करने के लिए शिक्षा की क्षमता का पूर्ण क्षीणन और कम कुशल श्रमिकों (छात्रों के बीच से) के विशाल समुद्र का निर्माण करना है जो कि भारी कीमत चुकाने के लिए बाध्य होंगे क्योंकि पूंजीवाद के संकट को देखते हुए आने वाले भविष्य में बेरोजगारी चरम पर पहुंचने वाली है। इस प्रकार, यह एक शोषणकारी और दमनकारी मॉडल है। प्रो. मिनाती पांडा ने इस बात पर चर्चा की कि कैसे संस्कृत के उपयोग को बाकी भाषाओं से सर्वोपरि रखा जाएगा जबकि हिंदी को बहुभाषी शिक्षा की आड़ में चुपचाप थोंप दिया जाएगा। प्रो. मधु प्रसाद ने चर्चा की कि कैसे शिक्षा में डिजिटलीकरण ने ‘सूचना की इकाइयों’ को व्यापार योग्य वस्तुओं में परिवर्तित करने के उद्देश्यों का गठन किया और इस प्रकार एनईपी ज्ञान को व्यापार की प्रक्रिया में लाने के पूरे प्रयास में जुटा है। ऑनलाइन मोड के माध्यम से शिक्षा पर केंद्र सरकार आसानी से नियंत्रण रख सकती है और इस तरह संवैधानिक दृष्टि को नष्ट करते हुए विचारों और सिद्धांतों में एकरूपता ला सकती है। प्रो. लक्ष्मण यादव ने तर्क दिया कि कैसे एनईपी शिक्षा के समावेशी चरित्र के साथ सीधे विरोधाभास में गया है। इसका एकमात्र उद्देश्य पहले से ही बहिष्कृत प्रणाली को, जो हाशिए के समुदायों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंचा पाने में असफल रही है, और खराब करना है । प्रो. माया जॉन ने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे FYUP, CUET और UGCF लिंग-जाति पर आधारित अंतर को संबोधित करने में विफल रहा है। साथ ही उन्होंने प्राथमिक से विश्वविद्यालय स्तर तक, शिक्षण पेशे के अनुबंधीकरण के साथ-साथ सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को बर्बाद करने के खिलाफ एकजुट संघर्ष की आवश्यकता को रेखांकित किया। प्रो. आभा देव हबीब ने तर्क दिया कि कैसे एनईपी ने मात्रा, गुणवत्ता या समानता को पूरा नहीं किया है और सार्वजनिक वित्त पोषित राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों को बनाए रखने का बोझ जनता पर स्थानांतरित कर दिया (एचईएफए ऋण लाकर जिसके परिणामस्वरूप भारी शुल्क वृद्धि होगी) है। प्रो. जगमोहन सिंह ने बताया कि कैसे एनईपी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ चले स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों का सीधा उल्लंघन करता है। उपरोक्त वक्ताओं के अलावा, कई अन्य वक्ताओं ने उन विशेषताओं की बात की जो एनईपी को एक कठोर व दमनकारी नीति बनाता है। विभिन्न छात्र संगठनों ने एनईपी 2020 के सांप्रदायिक-जातिवादी-कॉर्पोरेट ताने-बाने, शिक्षा की बढ़ती लागत की समस्या, पाठ्यक्रमों से धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील पठन सामग्री को हटाने, आरक्षण नीति को कमजोर करने पर चर्चा की और एक राजनीतिक रूप से आक्रामक छात्र जन आंदोलन तैयार करने की ओर ध्यान केन्द्रित करने की बात की।

विश्लेषण और आगे का रास्ता

हमारे सामने तथ्य बिल्कुल स्पष्ट हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति किसी धोखे से कम नहीं है। यह शिक्षा पर खर्च के लिए 6% जीडीपी के लक्ष्य का दावा करता है, पर हम सभी जानते हैं कि 1966 (जब कोठारी आयोग की रिपोर्ट में पहली बार इसका उल्लेख किया गया था) के बाद से यह सपना कैसे अधूरा रह गया है। इसके अलावा, भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट, 2014 से 2019 तक मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा पर औसत खर्च के खराब रिकॉर्ड यानी जीडीपी का महज 2.88% (जो यूपीए-2 सरकार के औसत 3.19% से भी कम है) को उजागर करती है। एमएचआरडी की एआईएसएचई रिपोर्ट 2018-19 में कहा गया है कि देश में 78% कॉलेज निजी क्षेत्र के तहत चल रहे हैं और कुल कॉलेज नामांकन का 2/3 निजी कॉलेजों में था। 2014-15 और 2018-19 के बीच, विश्वविद्यालय नामांकन में कुल वृद्धि में से, 55% निजी विश्वविद्यालयों में था और अन्य 33% सार्वजनिक ओपन विश्वविद्यालयों में था। इसलिए, हाल के पिछले पांच वर्षों में, नियमित सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में कुल नामांकन का केवल 12% ही हुआ है। एमएचआरडी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, स्कूलों के मामले में भी, नामांकन अनुपात में तेजी से वृद्धि हुई है, जिसमें सभी स्कूलों में 45% दाखिले निजी क्षेत्र में हो रहे हैं। ये रुझान उस तेजी से बदलाव का संकेत हैं जो एनईपी के लागू होने से पहले से ही भारत में सार्वजनिक शिक्षा मॉडल में होता आ रहा है। इसलिए एनईपी को भारतीय शिक्षा प्रणाली के ताबूत में आखिरी कील कहा जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि फासीवादी शासन जनता के बीच झूठ, मिथकों, हिंसा और घृणा फैलाने पर आधारित शासन के माध्यम से समाज में ज्ञान के आधार पर हमला करने पर आमादा है। इसका उद्देश्य विश्वविद्यालय परिसरों और स्कूलों के लोकतांत्रिक स्थानों को फासीवादियों के प्रजनन स्थल में बदलना है और वैज्ञानिक जांच, निष्पक्षता, आलोचनात्मक सोच और प्रगतिशील विचारधारा की भावना को दूर करना है।

ऑल इंडिया फोरम फॉर राइट टू एजुकेशन (एआईएफआरटीई) नई शिक्षा नीति में सरकार की अंतर्निहित मंशा की पहचान करने और छात्रों, शिक्षकों और समाज के प्रगतिशील तत्वों को शामिल करने की दृष्टि से राष्ट्रीय राजधानी के विश्वविद्यालय परिसरों में एक हद तक प्रतिरोध का निर्माण करने में सक्षम और सक्रीय साबित हुआ है। इसी तरह, 27 मई के सम्मेलन में एनईपी क्या है और क्यों है, जैसे सवालों के साथ प्रमुखता से निपटा गया, लेकिन एनईपी के खिलाफ संघर्ष को कैसे खड़ा किया जाए, इस सवाल पर सम्मेलन में विचार-विमर्श-बहस नहीं चली। फासीवादी ताकतों से खतरों की पहचान महत्वपूर्ण है, लेकिन संघर्ष चलाने के विभिन्न दृष्टिकोणों के मंथन की प्रक्रिया में उतरना भी उतना ही जरूरी है (चुकी इस नीति का सबसे बुरा असर भारत की मजदूर आबादी पर पड़ेगा) अन्यथा फासीवादी ताकतों से टक्कर का मुकाबला कर पाना बेहद मुश्किल होगा। हम यह भी भली-भांती समझते हैं कि विश्वविद्यालय परिसर या ऐतिहासिक स्थानों तक सीमित मासिक या द्विमासिक विरोध प्रदर्शनों और सम्मेलनों के रूप में रस्मादयागी, फासीवादी राज्य  द्वारा घातीय गति से लागू की जा रही नीतियां जो कि किसानों, मजदूर वर्ग, छात्रों और समाज के उत्पीड़ित वर्गों के हितों के खिलाफ जाती हैं, उनके सामने अप्रभावी और विफल होती हुई दिखती हैं। हम सभी एक ऐसे वातावरण से घिरे हैं जिसमें मजदूर वर्ग विरोधी श्रम संहिताएं, तीन काले कृषि कानून, कठोर आतंकवाद विरोधी कानूनों में संशोधन, औपनिवेशिक कानूनों का दुरुपयोग, सांप्रदायिक घृणा, बुलडोजर राजनीति, लिंचिंग, भूमि विस्थापन व आदिवासियों के अधिकारों का हनन आदि जैसे कई खतरनाक हमलें इस राज्य और इजारेदार पूंजीवादी के गठजोड़ द्वारा किया जा रहा है। यह गठजोड़ दरअसल व्यवस्था के भीतर के संकट को गहराने में एवं आत्महत्या, भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई से तड़पते हुए विशाल बहुमत को मौत के कगार पर धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।

इसलिए, एनईपी का मुकाबला करने के लिए लंबी अवधि की रणनीति पर ठोस रूप से बहस करने के साथ-साथ एनईपी को अन्य जनविरोधी नीतियों और विधानों के आलोक में देखा जाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि फासीवादी राज्य को केवल वर्ग-सचेत सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में समाज के अन्य संघर्षशील तबकों जैसे किसान-छात्र और अन्य उत्पीड़ित वर्गों की अडिग एकजुटता ही हरा सकती है और वैज्ञानिक समाजवाद की नींव रख सकती है। यह एआईएफआरटीई फोरम के मुख्य कार्य हैं जिस पर ध्यान केंद्रित किया जाना बेहद जरूरी है। छात्र-शिक्षक आंदोलन को समाज के कोने-कोने में चल रहे संघर्षों को दरकिनार करते हुए अलग-थलग और स्वतंत्र तरीके से नहीं देखा और बनाया जा सकता है। आज के समय में, छात्र-केंद्रित आंदोलनों के लिए अपने क्षितिज को व्यापक बनाना और वर्ग संघर्ष की जमीन में उतरना और भी महत्वपूर्ण हो गया है। यही एकमात्र रास्ता है इस पतनशील पूंजीवाद को समाप्त करने का।