मेहनतकश जनता के जीवन में तबाही की वजह बने

June 20, 2022 1 By Yatharth

पूंजीवाद के उन्मूलन के सिवा कोई विकल्प नहीं

संपादकीय जून 2022

दुनिया के हर कोने में पूंजीवाद का लगातार गहराता एवं लगभग अंतहीन व असमाधेय बनता आर्थिक संकट मजदूर वर्ग ही नहीं सभी मेहनतकशों एवं अन्य छोटे उत्पादकों-व्यवसायियों के जीवन में घोर सर्वनाश की स्थिति पैदा कर रहा है, क्योंकि इस संकट में भी अपनी पूंजी व मुनाफों को न सिर्फ सुरक्षित रखने बल्कि और भी कई गुना बढ़ाने की कभी न मिटने वाली हवस में न केवल विभिन्न पूंजीपति और उनके समूह परस्पर खूंखार गलाकाट होड़ में जुटे हैं बल्कि एक वर्ग के तौर पर अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु उन्होंने मजदूर वर्ग व अन्य वर्गों पर भी अपना हमला जबर्दस्त तेज कर दिया है ताकि वे अपने संकट का सारा बोझ न सिर्फ इनके ऊपर डाल दें बल्कि जो बची-खुची सामाजिक संपदा पूंजी के चंगुल से बाहर रह गई है उससे भी इन्हें बेदखल कर अपने मालिकाने में ले लें। यह हमला अत्यंत निर्मम एवं नृशंस है और इसने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पीने का पानी, खाद्यान्न, फल-सब्जी, दूध-अंडे-मांस, दवा, घरेलू उपकरणों, रसोई, रोशनी, सर्दी में घर गरम रखने के लिए जरूरी ईंधन, यातायात जैसी रोजमर्रा के जीवन के लिए निहायत जरूरी चीजों की भारी किल्लत तक पैदा कर दी है। यहां तक कि विकसित पूंजीवादी देशों तक में ऊपर के 10% को छोड़ दें तो बाकी आबादी की औसत आयु तक घटने का रुझान दिखाने लगी है। मुख्तसर में कहें तो पूंजीवाद का संकट पिछली सदियों के समस्त विकास की धारा को पलटते हुए अब मानव जीवन के लिए घातक बन गया है।

यह संकट अब कुछ खास पूंजीवादी देशों या क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रह गया है। अमरीका, चीन, जर्मनी, जापान, आदि सर्वाधिक विकसित व औद्योगीकृत पूंजीवादी देशों से लेकर भारत, श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान, मंगोलिया, कजाखस्तान एवं एशिया, अफ्रीका, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के लगभग हर देश को इसने अपनी चपेट में ले लिया है। हालांकि पूंजीवादी विद्वान इसके लिए कोविड व यूक्रेन में रूस-नाटो के बीच जारी लुटेरे साम्राज्यवादी युद्ध को ही जिम्मेदार बताते हैं पर महामारी व युद्ध की ये दोनों विनाशकारी घटनाएं असल में इस वैश्विक पूंजीवादी संकट का कारण नहीं हैं। ये तो बस इस संकट का परिणाम मात्र व इसे इसके संपूर्ण विनाशकारी स्वरूप में हमारे सामने जाहिर करने का ट्रिगर भर हैं। यह संकट तो पूंजीवादी व्यवस्था के आर्थिक नियम की स्वाभाविक गति का अनिवार्य नतीजा है। पिछले महायुद्ध के पश्चात 1970 के दशक में यह संकट किश्तों में और कभी किसी देश/ समूह तो कभी किसी देश/ समूह में प्रकट हुआ था पर 21वीं सदी आते-आते यह संकट लगातार भौगोलिक रूप से हर बार अधिक व्यापक व पहले की तुलना में दीर्घकालिक होता गया है। एक तो चीन, भारत जैसे तमाम देश जो पहले वैश्विक पूंजीवादी संकट के चक्र का हिस्सा नहीं थे (अर्थात उनके संकट अपने अलग थे, ऐसा नहीं कि वे संकट मुक्त थे), अब इसके अभिन्न अंग बन गए हैं; दूसरे, यह संकट अब खत्म होता दिखता तो है पर और भी बड़े संकट को जन्म देकर। संक्षेप में कहें तो आज का संकट पूरी वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था का संकट है जिससे किसी कोने में विस्तार की संभावनाओं के जरिए निकल पाने का मार्ग बंद हो चुका है। चुनांचे यह पूंजीवादी व्यवस्था अब कोविड जैसी महामारी और यूक्रेन जैसे विध्वंस को और अधिक दोहराने के लिए अभिशप्त है।

भारत में पूंजीवादी संकट की वजह से भयंकर बेरोजगारी व इजारेदार पूंजीपतियों के सुपर मुनाफे की हवस से बढ़ती महंगाई ने किस तरह अधिकांश जनता के जीवन में भूख, बीमारी, बेघरी की तकलीफ पैदा की है इस पर हम बार-बार लिखते रहे हैं। श्रीलंका में पूंजीवादी व्यवस्था के संकट ने जिस विस्फोट को जन्म दिया है उस पर भी हम पहले लिख चुके हैं (http://yatharthmag.com /2022/05/09/srilanka/)। नेपाल व पाकिस्तान में भी यह संकट मेहनतकश आबादी के जीवन में कहर ढा रहा है। पाकिस्तान में तो एक झटके में ही पेट्रोलियम उत्पादों की दरों में लगभग 50% की वृद्धि कर दी गई है और बिजली की दरों में ऐसी ही वृद्धि प्रस्तावित है। लेकिन आईएमएफ जिससे कर्ज लेने की पूर्व शर्त के तौर पर ये कीमतें बढ़ाई गईं हैं अभी भी संतुष्ट नहीं है और कीमतों में संभवतः और भी इजाफा किया जाएगा। फिर भी बिजली और ईंधन की कमी बनी हुई है और आईएमएफ से कर्ज लेना जरूरी है क्योंकि विदेशी मुद्रा भंडार बेहद कम होकर 10 अरब डॉलर के नीचे चला गया है। कजाखस्तान में पिछले साल ही बिजली और ईंधन की दरों में भारी वृद्धि का नतीजा बड़े विरोध प्रदर्शनों के रूप में सामने आ चुका है जिस पर नियंत्रण के लिए रूसी फौज वहां हस्तक्षेप कर चुकी है। मंगोलिया में भी पिछले दिनों बढ़ती बेरोजगारी व महंगाई से मुश्किल होती जिंदगी ने जनता को सड़कों पर आने के लिए मजबूर किया है। लेबनान से उत्तर अफ्रीका तक के देशों में भी हम जिंदा रहने की बढ़ती मुश्किलों को लेकर ऐसे विक्षोभ प्रकट होते देख चुके हैं। इस साल तो खास तौर पर इन सभी देश की जनता, क्योंकि ये  खाद्यान्न खास तौर पर गेहूं के आयातक हैं, इसके बढ़ते दामों की वजह से बहुत भारी तकलीफ का सामना कर रहे हैं। ऐसी ही स्थिति एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया व दक्षिण अमरीका महाद्वीपों के अधिकांश अल्पविकसित देशों की है। इन सभी देशों को पूर्व में औपनिवेशिक शासन से गुजरना पड़ा है जिसके द्वारा इन मुल्कों में अपनी साम्राज्यवादी पूंजी के हितों के हिसाब से किये गए असंतुलित पूंजीवादी विकास के नतीजे में इनकी अर्थव्यवस्था आज भी अत्यंत जल्दी घोर संकट में आ जाती है। प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन से स्वाधीनता पश्चात इनके अपने राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के शासन में भी सर्वांगीण औद्योगिक विकास मुमकिन नहीं हुआ क्योंकि एक तो इनका पूंजीवाद जन्म से ही बीमार था, दूसरे तब तक विश्व पूंजीवादी व्यवस्था ही विश्व व्यापी संकट से घिर चुकी थी। अतः ये देश अभी भी बहुत सी बुनियादी जरूरतों के लिए विदेशी आयात पर निर्भर हैं जिसके लिए विदेशी मुद्रा जुटाने हेतु इन्हें अपने प्राथमिक उत्पादों (कृषि, बागान, खान, वन, आदि के उत्पाद) का सस्ती कीमतों पर निर्यात, पर्यटन से प्राप्त आय या सीधे सस्ते श्रमिकों के निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा पर निर्भर रहना पड़ता है चुनांचे, सिर्फ अपनी अर्थव्यवस्था के ही नहीं साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाओं के किसी आर्थिक संकट से भी इनकी जनता के जीवन पर सीधे भूख की विपदा के संकट के बादल मंडराने लगते हैं।

किंतु, अभी तो विकसित पूंजीवादी देशों की मेहनतकश जनता की स्थिति भी अधिक बेहतर नहीं रही क्योंकि पूरी दुनिया की साम्राज्यवादी लूट से प्राप्त विराट मुनाफे में से इन देशों के पूंजीपति अपने मजदूरों को जो एक छोटा हिस्सा रिश्वत के तौर पर देते थे वह अब नई स्थिति में अत्यंत कम होता जा रहा है और परिवारों को कर्ज के भारी विस्तार के बल पर सस्ते जापानी, कोरियाई, चीनी, आदि माल की खरीद द्वारा जीवन स्तर बनाए रखने का बुलबुला भी फूट गया है। अब इन देशों में महंगाई व बेरोजगारी ‘जीने की लागत’ (Cost of Living) का बड़ा संकट पैदा कर रही है। खास तौर पर पहले कोविड के नाम पर आपूर्ति श्रृंखला में बाधा का हल्ला खड़ा कर और अब यूक्रेन में युद्ध व रूस पर पाबंदियों के नाम पर इन देशों के इजारेदार पूंजीपतियों ने ईंधन, गैस, यातायात, बिजली, भोजन, दवाइयों, आदि के दामों में भारी वृद्धि की है और सुपर प्रॉफिट कमाया है। लेकिन कॉर्पोरेट पूंजी के इन रेकॉर्ड मुनाफों से आम लोगों का जीवन अत्यंत मुश्किल का शिकार हो गया है। कुछ दशकों पहले तक जिसके राज में सूरज नहीं डूबता था उस साम्राज्यवादी ब्रिटेन में बड़ी तादाद में मजदूर परिवारों के बच्चों के लिए स्कूली मिड डे मिल मुख्य भोजन बन गया है और छुट्टियों में उन्हें भरपेट पोषक भोजन नसीब नहीं। करोड़ों को यह तय करना पड़ रहा है कि वे अपने भोजन में कटौती करें या सर्दी में घर गर्म करने के ईंधन के बिल में, जबकि अगली सर्दी के ठीक पहले सितंबर में बिजली की दरों में 40% वृद्धि अभी से प्रस्तावित है। फ्रांस, जर्मनी, अमरीका, इटली, जापान, कनाडा, आदि सभी का यही हाल है – महंगाई लगभग सभी देशों में 4 दशक के रेकॉर्ड स्तर से अधिक तेजी से बढ़ रही है। अमरीका में कोविड में खैराती भोजन के लिए मीलों लंबी गाड़ियों की कतारें सबने देखीं थीं, अब फिर से खैराती फूड बैंकों से खाना लेने वालों की तादाद बढ़ रही है। मगर इस बार कार चलाने का गैसोलीन (पेट्रोल) व डीजल की कीमतें भी आज तक के रेकॉर्ड स्तर पर हैं जबकि अमरीका इनका सबसे बड़ा उत्पादक व निर्यातक है।

कुछ साल पहले तक वैश्विक पूंजीवादी संकट में चीनी अर्थव्यवस्था एक सहारा बनी हुई थी, जो अपनी स्वतंत्र यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित लंबे घंटे तक उच्च उत्पादकता, पर तुलनात्मक रूप से कम मजदूरी, पर काम करने वाले श्रमिकों के बल पर सस्ते मैन्युफैक्चरिंग मालों का बड़ा आपूर्ति स्रोत बना हुआ था। पर वहां भी एक अतिकेन्द्रित अर्थव्यवस्था में कर्ज पूंजी के बल पर इंफ्रास्ट्रक्चर के बड़े-बड़े प्रोजेक्टों में बड़े पूंजी निवेश व रियल एस्टेट की बढ़ती कीमतों के सहारे बढ़ती मांग का चक्र टूट गया है जिससे वित्तीय पूंजी के सामने डूबते कर्जों का संकट खड़ा हो गया है। अतः शी जिन पिंग नीत सरकार, जो 2018 से इस ‘फर्जी आर्थिक वृद्धि’ से मुक्ति पाने की बातें कर रहे थे, को अपनी नीति पलटकर बैंकों द्वारा सस्ते ब्याज पर कर्ज के एक नए विशाल विस्तार की नीति पर ही वापस आना पड़ा है जो अभी सभी पूंजीवादी देशों में इस संकट से पार पाने का पसंदीदा उपाय माना जाता है। मगर सभी देशों का इतिहास इस बात का भी गवाह है कि यह संकट को समाप्त न कर कुछ समय बाद और भी बड़े संकट को ही पैदा करता है। शी जिन पिंग व प्रधानमंत्री ली केक्यांग के एक साल के वक्तव्यों पर गौर करें तो बढ़ती आय/ संपत्ति असमानता, मजदूरों पर नियंत्रण की ‘हूकू’ व्यवस्था, प्रवासी श्रमिकों की मजदूरी का भुगतान, बढ़ती बेरोजगारी, परिवारों पर कर्ज का बोझ, मकानों व शिक्षा सहित जीने की ऊंची लागत, आदि समस्याओं को चमकदार इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों के पीछे छिपाना अब चीन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए मुमकिन नहीं रहा।

बुर्जुआ नेता, बुद्धिजीवी व मीडिया इस संकट के पीछे या तो महामारी व युद्ध को जिम्मेदार बता देते हैं या नकदी की कमी व ऊंची ब्याज दरों की मौद्रिक नीति की घिसी पिटी बातें दोहराते रहते हैं। एनजीओवादी, सोशल डेमोक्रेट, किस्म किस्म के समाजवादी एवं बहुत से भ्रमित कम्युनिस्ट, नवउदारवादी आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार/ क्रोनी कैपिटलिज्म को इसका दोषी ठहराते हैं मानो कोई भ्रष्टाचार रहित ईमानदार पूंजीवाद कभी रहा हो या आगे संभव हो, या नवउदारवाद पूंजीवादी आर्थिक नीतियों का एक विशिष्ट रूप न होकर एक विकृति भर हो जिससे मुक्त होकर कोई मानवीय पूंजीवाद वजूद में लाया जा सकता हो। वे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की विशिष्ट परिस्थितियों में पूंजीवाद द्वारा अपनाई गई कुछ विशिष्ट नीतियों की याद दिलाकर बताते रहते हैं कि सर्वहारा क्रांतिकारी तरीके से पूंजीवाद के उन्मूलन की जरूरत नहीं, क्योंकि उसके भीतर ही शांतिपूर्ण संक्रमण से एक जनतांत्रिक समाजवाद मुमकिन है जो मजदूर वर्ग का लक्ष्य होना चाहिए। इस बारे में संक्षेप में कुछ कहना जरूरी है।         

1945 में समाजवादी सोवियत संघ के नेतृत्व में फासीवादी विरोधी महान युद्ध में विजय उपरांत उपनिवेशवाद की समाप्ति ने सही मानों में पूंजीवाद को विश्व व्यवस्था बना दिया क्योंकि अधिकांशतः इन नव-स्वाधीन देशों में सत्ता इनके राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के हाथ में आई जिसने वहां पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को मजबूत, गहन व विस्तृत करने का काम आरंभ किया, जो 1970 का दशक आते-आते अपनी तार्किक व मुमकिन मंजिल पर पहुंच गया। युद्ध के महाविनाश पश्चात पुनर्निर्माण तथा पूंजीवादी व्यवस्था के वैश्विक विस्तार ने लगभग तीन दशक के इस काल को पूंजीवाद का स्वर्ण युग बना दिया। इस दौर में एक ओर पूंजीवादी उत्पादन के विस्तार ने मजदूरों की मांग में तात्कालिक वृद्धि की तो दूसरी ओर, इस वक्त समाजवादी खेमे के साथ ही साथ पूंजीवादी देशों में भी तब तक का सबसे बड़ा और संगठित मजदूर वर्ग मौजूद था। अतः रोजगार में विस्तार से मजदूरों की मांग व मजदूरी के कुछ हद तक बढ़ने की संभावनाओं व संगठित मजदूर वर्ग की सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति के दबाव के इस दौर में कुछ वर्षों तक वास्तव में मजदूरी बढ़ी। इस दौर में मालिकों व ट्रेड यूनियनों के बीच समझौतों के जरिए मजदूरी में वृद्धि व कार्यदशाओं में सुधार की इस स्थिति को ही मजदूर वर्ग आंदोलन के बड़े हिस्से ने पूंजीवाद के अंदर ही जनतांत्रिक समाजवाद की और संक्रमण की संभावना के रूप में स्वीकार कर लिया और  अधिकांश ट्रेड यूनियन आंदोलन ही नही कई कम्युनिस्ट पार्टियां भी मजदूरी, बोनस, काम के घंटों, कार्य दशाओं संबंधी इन्हीं अर्थवादी संघर्षों तक सीमित होकर रह गईं। वैश्विक वर्ग शक्ति संतुलन के इस बदलाव व अपनी आंतरिक कमजोरियों के चलते एक के बाद एक समाजवादी देशों में भी सत्ता संशोधनवादी गिरोह के हाथ में चली गई और समाजवादी खोल के भीतर पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के क्रमिक ‘विकास’ के बाद अंततः 1980 के दशक में पूरा समाजवादी खेमा पतित होकर नग्न पूंजीवादी लुटेरी व्यवस्था में शामिल हो गया। 

किंतु पूंजीवाद का यह ‘स्वर्ण युग’ तीन दशक भी पूरा नहीं कर सका। 1873 के पहले आमपूंजीवादी संकट के बाद से विकसित पूंजीवादी देशों के बाहर परिधि के देशों में अधिकाधिक तीव्रता से पूंजी निर्यात अर्थात नृशंस लूट-खसोट के साथ पूंजीवादी संबंधों का विस्तार ही पूंजी के लिए संकट के चक्रव्यूह से निकलने का द्वार रहा था और इसके लिए ही साम्राज्यवाद ने दो-दो बार विश्व को महायुद्ध के संहार में धकेला था। किंतु दुनिया के चप्पे-चप्पे में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के विस्तृत व गहन हो जाने के बाद यह मुक्ति या बचाव का द्वार भी अत्यंत संकुचित होता गया और 21वीं सदी में आकर पूंजीवादी आर्थिक संकट लगभग अंतहीन बन गया। गंभीर आर्थिक संकट की इस भंवर में फंसकर ही 1970 के दशक में पूंजीवाद ने नवउदारवाद की राह पर आगे बढ़ना शुरू किया।

आगे बढ़ने के पहले हमें कुछ भ्रमों से मुक्त होने के लिए उदारवादी विचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानना जरूरी है। यह शब्द हिंदी में उदारता से जुड़े होने का भ्रम पैदा करता है मगर मूल अंग्रेजी शब्द लिबरलिज्म लिबर्टी या स्वतंत्रता से बना है। 17-18वीं सदी की डच, ब्रिटिश, अमरीकी, फ्रेंच बुर्जुआ क्रांतियों की बुनियाद इस लिबरल विचारधारा में थी। मगर यह किस लिबर्टी या स्वतंत्रता की बात करती थी? लिबरलिज्म या उदारवादी विचार निजी संपत्ति की पवित्रता की सर्वोच्चता का विचार है। इसमें एक ओर पूंजी/ संपत्ति मालिकों के लिए अपने मुनाफे व संपत्ति को बढ़ाने के लिए बिना किसी रुकावट के कुछ भी करने की स्वतंत्रता थी तो दूसरी ओर पहले के भूदासों के लिए सामंती पितृसत्तात्मक भूमि संबंधों से पूर्ण मुक्ति अर्थात पूरी तरह संपत्तिविहीन सर्वहारा बनकर जीने के लिए श्रम की मंडी में खड़े होकर बिकने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता थी। इसलिए हॉब्स, लॉक, टोकेविल, मिल, वाशिंगटन, मेडिसन, जेफर्सन, फ्रेंकलिन, आदि सभी लिबरल विचारक/ नेता उपनिवेशवाद, नस्लवाद, दास प्रथा व गुलामों के व्यापार, अलग नस्लों के बीच विवाह/ यौन संबंधों के विरोध, मूल निवासियों के जनसंहार, मजदूरों की अधिकारहीनता, यूनियन बनाने पर रोक, एक रोटी तक चुराना जैसे अपराधों पर मौत की सजा, आदि के समर्थक थे। कालों की गुलामी के खिलाफ पहले विद्रोह, और गुलामी से मुक्ति, लिबरलों ने नहीं, खुद हैती (सान डोमिंगो) व लैटिन अमरीकी गुलामों व बोलीवरियन राष्ट्रवादियों ने किये थे।

इसी लिबरलिज्म या उदारवाद का 20 वीं सदी का संस्करण या नवउदारवाद भी किसी उदारता के विचार से नहीं, मजदूरों के बढ़ते संघर्षों व 1917 में रूस की बोलशेविक क्रांति की प्रतिक्रिया में इस खतरे से पूंजीपति वर्ग की मुक्ति या स्वतंत्रता का विचार है जिसके आरंभिक विचारक विएना में लुडविग वॉन मिजेज व फ्रेडरिक हाएक थे जो 1920 के दशक से ही मजदूरों को कुचले जाने की आशा में नाजीवाद के समर्थक थे। मिजेज के अनुसार यूरोपीय सभ्यता को बर्बर बोलशेविकों से बचाकर फासीवाद ने इतिहास में सदा के लिए अमर होने की योग्यता प्राप्त की थी, और फासीवाद हमेशा उदारवाद के प्रभावक्षेत्र में रहने वाला विचार था। बाद में अमरीका आकर उन्होंने नवउदारवादी विचार की मॉन्ट पेलेरिन सोसाइटी में मुख्य भूमिका निभाई। इसी के अंतर्गत नाजी विरोधी युद्ध के बाद पूंजीवाद-समाजवाद के द्वन्द्व के समय मानव अधिकार के सिद्धांत को प्रमुख कम्युनिस्ट विरोधी विचार के रूप में प्रयोग किया गया। मिजेज/ हाएक के अनुसार मानवाधिकार या व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मूल समस्या पूंजीपतियों के लाभ के रास्ते में आने वाली बाधाएं थीं। इसमें सबसे बड़ी बाधा मजदूरों द्वारा संगठित होकर यूनियन बनाने, हड़ताल करने व सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार था जो पूंजी निवेशकों द्वारा अपनी पूंजी पर अधिकतम मुनाफा कमाने के अधिकार को सीमित व बाधित करता था। स्पष्ट है कि नवउदारवाद का विचार सर्वहारा क्रांति की प्रतिक्रिया में निजी संपत्ति व पूंजीवाद की रक्षा हेतु पुराने लिबरल विचार का ही फासीवाद जैसा एक नवीन संस्करण है। अतः पूंजीवाद के खिलाफ हुए बगैर नवउदारवाद के खिलाफ होना मुमकिन नहीं और नवउदारवादी नीतियों से बुर्जुआ लिबरल विचार और जनतांत्रिक समाजवाद की कपोल कल्पना की बुनियाद पर खड़ा होकर नहीं लड़ा जा सकता।

हालांकि ऊपरी तौर पर नवउदारवाद राज्य को छोटा करने व उसके नियंत्रण को कम कर निजी पूंजी के खुले खेल की आजादी की बात करता है पर वास्तव में नवउदारवाद में राज्य और भी मजबूत व निरंकुश होकर निजी पूंजी खास तौर पर एकाधिकारी पूंजी का सीधा एजेंट बन उसके डीलर, सेल्समैन, एकाउंटैंट तथा बाउंसर की भूमिका में खड़ा हो जाता है। मिलीटरी इंडस्ट्रियल कांपलेक्स, विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट व सेंट्रल विस्टा जैसे रियल एस्टेट प्रोजेक्ट, आदि इसके ही लक्षण हैं। इनके जरिये राज्य एकाधिकारी पूंजी के सुपर मुनाफों को सुनिश्चित करने हेतु न सिर्फ उसके लिए मांग, बिक्री व वित्त का प्रबंधन करता है बल्कि राजसत्ता की पूरी शक्ति से इसकी वसूली भी कराता है। फिर भी दिवालिया होने का संकट खड़ा हो जाए तो निजी पूंजी को बेलआउट भी करता है। 

एक ओर, वित्तीय पूंजीवाद के केंद्र कर्ज के विराट विस्तार से मांग सृजित करते हैं तो दूसरे देशों के पूंजीपति निर्यातोन्मुखी वृद्धि के नाम पर इस मांग को पूरा करने के लिए सस्ते मूल्य पर उत्पादन को बढ़ावा देते हैं। लेकिन सस्ते मूल्य का पूंजीवाद में एक ही उपाय है – कम मजदूरी पर अधिक उत्पादन। जर्मनी, जापान से होते हुए चीन ने इस में कुशलता हासिल की है अर्थात तुलनात्मक रूप से पिछड़े इलाकों से लाये गए प्रवासी श्रमिकों को अर्ध-दासता में रखकर 12-14 लंबे घंटे कार्य दिवस व उत्पादकता स्तर की तुलना में अत्यंत नीची मजदूरी के बल पर उत्पादित सस्ते उत्पादों  से बाजारों को पाट देना। संक्षेप में कहें तो इन देशों का पूंजीपति वर्ग अपने श्रमिकों से शोषण की अत्यधिक ऊंची दर पर उगाही गई सरप्लस वैल्यू का एक हिस्सा वित्तीय पूंजीवाद के केंद्रों के साथ बांटकर पूंजी को निवेश के लिए आमंत्रित करता है। भारत में मोदी सरकार के मेक इन इंडिया के पीछे भी यही विचार है। इस नीति के संचालन के लिए राज्य की दमनकारी ताकत के बल पर श्रमिकों के संगठन व अन्य अधिकारों को कुचलना जरूरी हो जाता है। भारत में मजदूर वर्ग द्वारा लंबे संघर्षों के जरिए हासिल श्रम अधिकारों को खत्म करने वाले 4 नवीन लेबर कोड जैसे हमले इसके परिचायक हैं। श्रम अधिकारों को कुचलने के लिए ऐसे ही हमले सभी पूंजीवादी देशों में जारी हैं। उदाहरण के तौर पर बांग्लादेश जहां के औद्योगिक विकास की आजकल पूंजीवादी मीडिया में बहुत तारीफ की जाती है वहां कानून बनाया गया है कि मालिक ट्रेड यूनियन का नो अब्जेक्शन सर्टिफिकेट लेकर श्रम कानूनों के किसी भी हिस्से से छूट मांग व हासिल कर सकते हैं। समझा जा सकता है कि दलाल या मालिक खुद अपनी बनाई फर्जी यूनियनों के जरिए ऐसे एनओसी लेकर श्रम कानूनों से मुक्त हो रहे हैं। कोका कोला में पिछले साल बनी स्वतंत्र ट्रेड यूनियन ने जब ऐसा एनओसी देने से मना कर दिया तो कंपनी ने अभी 7 जून को अपने कॉन्ट्रैक्टर हाजी शहीद के जरिए यूनियन के अध्यक्ष अब्दुल कलाम का अपहरण कर बुरी तरह पिटाई कराई और वह चलने में असमर्थ हैं। यही वजह है कि सारे चमकदार विकास व वृद्धि वाले बांग्लादेश में ही पिछले कुछ सालों में सर्वाधिक विशाल फैक्ट्री ‘दुर्घटनाएं’ या हत्याकांड हुए हैं, जिनमें से एक में ही फैक्ट्री की इमारत गिरने से 11 सौ से अधिक मजदूर मारे गए थे। 

दुनिया के साम्राज्यवादी पूंजीवादी गिरोहों के बीच प्राकृतिक संसाधनों, उत्पादक शक्तियों, बाजारों, यातायात/ संचार माध्यमों व वित्तीय संचरण चैनलों पर आधिपत्य व लूट खसोट की बढ़ती होड़ ही विश्व भर में नये-नये युद्धों का कारण है। ‘इतिहास की समाप्ति’ के दंभी ऐलान के तीन दशक में ही हालत यह है कि विश्व भर के पूंजीपति वर्ग के हर समूह को इस खेमेबंदी में पोजीशन लेना कारोबारी जरूरत व अस्तित्व की शर्त दोनों बन गया है। जो देश पहले के युद्धों में ‘निर्गुट’ रह पाते थे अब उन्हें भी इसमें किसी ओर शामिल होना धीरे-धीरे मजबूरी बनता जा रहा है। अंधराष्ट्रवाद, जंगखोरी, मजबूत नेतृत्व, शक्तिशाली राज्य, असहमति व विरोध पर पाबंदी, अधिकाधिक सैन्यीकृत राज्य, आदि इसके ही वैचारिक-राजनीतिक नतीजे हैं।

अंतहीन संकट के दौर में उपरोक्त तीनों लक्षण पूरे विश्व पूंजीवाद में बढ़ते अधिनायकवादी-फासीवादी रूझान की बुनियादी वजह है। खुली होड़ के दौर के पूंजीवादी राज्य की तुलनात्मक स्वायत्तता खत्म होने से अभी स्थिति यह है कि फासीवाद को बुर्जुआ जनतांत्रिक राज्य के ढांचे पर चोट करने की कोई जरूरत नहीं पड़ रही है बल्कि संसद, कोर्ट, अफसरशाही सहित पूरा बुर्जुआ राज्य ही फासीवादी शक्तियों का सहायक बन गया है। शासक पूंजीपति वर्ग ने इतिहास से जितना सीखा है उतना शोषित मेहनतकश जनता की राजनीति करने वालों ने नहीं। शासक वर्ग ने तो सीख लिया कि संविधान संसद चुनाव कोर्ट आदि को घोषित रूप से भंग कर नग्न तानाशाही के बजाय इनका भ्रम बनाए रखना ज्यादा सुविधाजनक है। भारत में ही देखें तो इसके चलते अभी भी मजदूर वर्ग के बहुत से हिस्से फासीवाद, हिंदू राष्ट्र आदि को भविष्य की बात समझ रहे हैं क्योंकि संविधान तो भंग या बदला नहीं गया, कोर्ट अभी भी काम कर रहे हैं। बहुतेरे अभी भी संविधान के ‘हम भारत के लोग’ वाले पेज के भरोसे हैं, और इस बात को नहीं देख पा रहे कि बिना संविधान बदले/ भंग किये, ठीक उन्हीं सुप्रीम/ हाईकोर्ट के सहारे फासिस्ट सत्ता चला रहे हैं जिनसे कुछ अभी भी न्याय व जनवादी अधिकारों की उम्मीद लगाए बैठे हैं।

अतः आज वैश्विक पूंजीवादी संकट का जो रूप हमारे सामने है हम कह सकते हैं कि पूंजीवादी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के दौर में मेहनतकश जनता व छोटे उत्पादकों से संपदा व अधिकारों का जो विराट हरण व हनन कर इसे इजारेदार पूंजीपतियों के मालिकाने व पक्ष में हस्तांतरित व संकेंद्रित किया गया है उसने आज अधिसंख्य जनता के जीवन में सर्वनाश ला दिया है जो आज तमाम किस्म की बेचैनी, आंदोलनों, संघर्षों, टकरावों में व्यक्त हो रहा है। साथ ही दूसरा पहलू यह भी है कि आज इतिहास में पहली बार विश्व भर के पैमाने पर पूंजीवाद-साम्राज्यवाद व लगभग हर देश की आबादी का आधे से भी अधिक हो चुका सर्वहारा-अर्ध सर्वहारा वर्ग आमने-सामने हैं। साथ ही किसान, छोटे व्यापारी व निम्न मध्य वर्ग जैसे तमाम माध्यमिक वर्ग भी एकाधिकारी पूंजी की मार से बरबादी की कगार पर हैं। उनके जीवन की वस्तुगत स्थितियां उन्हें अब और अधिक पूंजीपति वर्ग का रिजर्व फोर्स नहीं बने रहने देंगी। इतिहास के भावी शासक वर्ग के तौर पर आज सर्वहारा वर्ग को पूंजीपति वर्ग के चंगुल से पूरे समाज के मुक्तिदाता के रूप में खुद को नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में सोचना, पेश करना और हर राजनीतिक घटनाक्रम में तदनुरूप कार्यक्रम के साथ दखलंदाजी करना जरूरी है। आज वास्तव में इतिहास में पहली बार विश्व भर में क्रांतिकारी स्थिति तैयार हो रही है। यही विश्वव्यापी क्रांति सर्वहारा वर्ग व मेहनतकश जनता को ही नहीं, पूरी मानवता को सर्वनाशी पूंजीवादी शोषण के चंगुल से मुक्त करेगी। यही सर्वहारा वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है।

आज पूरी विश्व पूंजीवादी व्यवस्था अपने ही कारणों से जिस गंभीर आर्थिक संकट में फंस गई है उससे मजदूरों के शोषण से पैदा होने वाले इसके मुनाफे का पहिया रुक गया है। इसी कारण से यह अब मजदूर वर्ग के खून-पसीने का आखिरी कतरा तक चूस लेने के लिए बेताब है, और इसलिए मजदूर अधिकारों पर हमले बढ़ते जा रहे है। यही नहीं, असली मुद्दों पर से ध्यान भटकाने तथा हमारी एकता तोड़ने के लिए आज पूंजीपतियों की सरकारें पूरे देश में सांप्रदायिक जहर फैला कर जगह-जगह पर दंगे करवा रही है। मीडिया को भी आग भड़काने के काम में लगा दिया गया है। ज्ञानवापी मस्जिद से लेकर बीजेपी प्रवक्ताओं द्वारा इस्लाम पर बेहूदा अपमानजनक टिप्पणी से पैदा हुई स्थिति इसका हालिया उदाहरण है। आम बुर्जुआ सरकारों से बात नहीं बनी तो अब फासीवादी व घोर मजदूर विरोधी भाजपा सरकार को लाया गया है जो कि मेहनतकश जनता के हक और न्याय की आवाज उठाने वालों पर फर्जी मुकदमे थोप कर उन्हें गिरफ्तार कर ले रही है। जनांदोलनों पर लाठी-डंडा-बंदूक चलाना आम हो गया है। मुनाफाखोरी के चलते साम्राज्यवादी ताकतों के बीच युद्ध की स्थिति बन गई है, जिसका दंश अभी यूक्रेन की आम जनता झेल रही है। फिर भी पूंजीवादी मुनाफे का पहिया बढ़ नहीं पा रहा। यह साबित कर रहा है कि पूंजी का साम्राज्य अब बहुत दिनों का मेहमान नहीं है। इसे उखाड़ फेंक कर मजदूरों का राज यानी बराबरी, भाईचारे पर टिका शोषणविहीन समाज, जिसे समाजवाद कहते हैं, स्थापित करने के लिए बस जरूरत है तो मजदूर वर्ग के एकजुट होकर इसे आखिरी धक्का मारने की। इसका और कोई विकल्प नहीं। नवउदारवाद से मुक्त किसी अच्छे पूंजीवाद, किसी नेहरू टाइप समाजवाद, बुर्जुआ संवैधानिक जनतंत्र के विचार व कल्पना के सहारे न तो पूंजीवादी आर्थिक संकट की मार से मेहनतकश जनता को बचाया जा सकता है न ही फासीवाद से लड़ा जा सकता है।