जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया

June 20, 2022 0 By Yatharth

नाजिम हिकमत

15 जनवरी 1902 – 3 जून 1963की 59वीं मृत्यु वार्षिकी पर अपने जेल के दिनों में उनके द्वारा लिखी गई कविता

जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया

पृथ्वी सूरज के गिर्द दस चक्कर काट चुकी है

अगर तुम पृथ्वी से पूछो,

वह कहेगी- यह जरा-सा वक्त भी कोई चीज है भला!

अगर तुम मुझसे पूछो,

मैं कहूंगा- मेरी जिन्दगी के दस साल साफ!

जिस रोज मुझे कैद किया गया

एक छोटी-सी पेंसिल थी मेरे पास

जिसे मैंने हफ्ते भर में घिस डाला।

अगर तुम पेंसिल से पूछो,

वह कहेगी- मेरी पूरी जिन्दगी!

अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूंगा- ले भला, एक हफ्ता ही तो चली!

जब मैं पहले-पहल इस गड्ढे में आया-

हत्या के जुर्म में सजा काटता हुआ उस्मान

साढ़े सात बरस बाद छूट गया।

बाहर कुछ अर्सा मौज-मस्ती में गुजार

फिर तस्करी में धर लिया गया

और छः महीने बाद रिहा भी हो गया

कल किसी ने सुना-उसकी शादी हो गई है

आते बसंत में वह बाप बनने वाला है।

अपनी दसवीं सालगिरह मना रहे हैं वे बच्चे

जो उस दिन कोख में आए

जिस दिन मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।

ठीक उसी दिन जनमे

अपनी लम्बी छरहरी टांगों पर कांपते बछड़े अब तक

चौड़े कूल्हे हिलाती आलसी घोड़ियों में

तब्दील हो चुके होंगे।

लेकिन जैतून की युवा शाखें

अब भी बढ़ रही हैं।

वे मुझे बताते हैं

नई-नई इमारतें और चौक बन रहे हैं

मेरे शहर में जब से मैं यहां आया

और उस छोटे-से घर मेरा परिवार

अब ऐसी गली में रहता है,

जिसे मैं जानता नहीं,

किसी दूसरे घर में

जिसे मैं देख नहीं सकता।

अछूती कपास की तरह सफेद थी रोटी

जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया

फिर उस पर राशन लग गया

यहां, इन कोठरियों में

काली रोटी के मुट्ठी भर चूर के लिए

लोगों ने एक-दूसरे की हत्याएं की,

अब हालात कुछ बेहतर हैं

लेकिन जो रोटी हमें मिलती है,

उसमें कोई स्वाद नहीं।

जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया

दूसरा विश्व युद्ध शुरू नहीं हुआ था,

दचाऊ के यातना शिविरों में

गैस भट्ठियां नहीं बनी थीं,

हीरोशिमा में अणु-विस्फोट नहीं हुआ था।

आह, समय कैसे बहता चला गया है

कत्ल किए गये बच्चे के रक्त की तरह।

वह सब अब बीती हुई बात है।

लेकिन अमरीकी डालर

अभी से तीसरे विश्व युद्ध की बात कर रहा है

तिस पर भी,

दिन उस दिन से ज्यादा उलझे हैं

जबसे मुझे इस गड्ढे में फेंका गया

उस दिन से अब तक मेरे लोगों ने खुद को

कुहनियों के बल आधा उठा लिया है

पृथ्वी दस बार सूरज के गिर्द

चक्कर काट चुकी है…

लेकिन मैं दोहराता हूं

उसी उत्कट अभिलाषा के साथ

जो मैंने लिखा था अपने लोगों के लिए

दस बरस पहले आज ही के दिन

तुम असंख्य हो

धरती में चीटियों की तरह

सागर में मछलियों की तरह

आकाश में चिड़ियों की तरह

कायर हो या साहसी, साक्षर हो या निरक्षर,

लेकिन क्योंकि सारे कार्यों को

तुम्हीं बनाते या बर्बाद करते हो,

इसलिए सिर्फ तुम्हारी गाथाएं

गीतों में गायी जाएंगी

बाकी सब कुछ

जैसे मेरी दस वर्षों की यातना

फालतू की बात है।

(अनुवाद : नीलाभ)