नक्सलबाड़ी दिवस

June 20, 2022 0 By Yatharth

नक्सलबाड़ी के इतिहास की मुख्य कड़ियों के बारे में एक संक्षिप्त पुनरावलोकन

(पीआरसी सीपीआई एमएल द्वारा 2013 में जारी दस्तावेज से)

नक्सलबाड़ी भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में आए एक सर्वाधिक गौरवशाली मोड़ का नाम है। भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के खून से रंगे इस दौर को ठीक ही भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का सबसे यौवनमयी दौर भी कहा जाता है। यह कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के आत्मत्यागपूर्ण बलिदानों के एक ऐसे दौर की कहानी है जिसने असंख्य कुर्बानियों के बल पर भारतीय प्रतिक्रियावादी राज्य की चूलें हिला दी थीं।

यह एक ही साथ कई चीजों का परिचायक बना। यह शोषितों-पीड़ितों; मूलतः खेतिहर मजदूरों, भूमिहीन व गरीब किसानों, का एक महान मुक्तिकामी जनांदोलन था, तो यह एक जीवंत वैचारिक-राजनीतिक लड़ाई और उसका प्रतिफल भी था। इसकी एक अंतरराष्ट्रीय पृष्ठभूमि थी, तो एक राष्ट्रीय पृष्ठभूमि भी थी। ख्रुश्चेवपंथी गद्दारी के खिलाफ पूरी दुनिया में चली तत्कालीन वैचारिक-राजनैतिक लड़ाई (मुख्य रूप से महान बहस) ने इसके उभार व तेवर को विचारधारात्मक पृष्ठभूमि दी, तो सी.पी.आई-सी.पी.एम सरीखी पार्टियों द्वारा वर्ग-संघर्ष व क्रांति से भाग खड़ा होने और पूंजीवादी संसदीय भटकाव के कीचड़ में पूरी तरह लोट-पोट हो जाने से उत्पन्न नैराश्यपूर्ण परिस्थितियां इसकी क्रोधाग्नि को तत्काल दावानल में परिवर्तित हो जाने का तात्कालिक कारण बनीं। रोटी, इज्जत और जमीन की मांग इसकी बुनियाद में थी, तो लुटेरे वर्गों के खिलाफ जन साधारण के दिलों में घनीभूत वर्गीय घृणा ने इसे विस्फोटक रूप से फूट पड़ने के लिए जरूरी ऊर्जा प्रदान की।

नक्सलबाड़ी विद्रोह के पीछे नेतृत्व में कौन थे? इसके नेतृत्व में सी.पी.आई. (एम) के अंदर के वे क्रांतिकारी तत्व थे जो सी.पी.एम. की संसदीय आत्मसमर्पणवादी दिशा का लगातार विरोध कर रहे थे। यह वह दौर था जब भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में पूंजीवादी संसदीय राजसत्ता की भूख सी.पी.आई. व सी.पी.एम. के शीर्ष के अधिकांश नेताओं में पूरी तरह जग चुकी थी। देखा जाए तो तेलंगाना आंदोलन के वक्त ही यह भूख प्रकट हो चुकी थी। कॉ. सी.पी. रेड्डी ने, जिन्होंने तेलंगाना आंदोलन को करीब से देखा व समझा था एवं उसमें स्वयं हिस्सा भी लिया था और तेलंगाना आंदोलन के साथ की गई गद्दारी को अपनी आंखों से देखा था, तेलंगाना किसान आंदोलन का पुनरावलोकन करते हुए लिखी अपनी पुस्तिका में इसका बड़ा ही सटीक विवरण प्रस्तुत किया है। इस पुस्तिका को पढ़ने से यह पता चलता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) किस तरह धीरे-धीरे संसदीय अवसरवाद के दलदल में फंसती चली गई। उस पुस्तिका में एक जगह कॉ. चंद्रपुल्ला रेड्डी लिखते हैं – “प्रथम आंध्र विधान सभा में दूसरी सबसे सशक्त पार्टी के तौर पर सी.पी.आई. उभरी थी। फिर कुछ ही वर्षों बाद केरल विधानसभा में बहुमत हासिल करने और सरकार बनाने का अवसर भी प्राप्त हुआ था। हालांकि पूंजीवादी संसदीय राजसत्ता का यह सुख कुछ ही दिनों तक रहा और तुरंत ही नेहरू के नेतृत्व वाली केंद्रीय सरकार ने केरल की वाम सरकार को भंग कर दिया था, लेकिन वामफ्रंट सरकार बनाने की राजनीतिक लाइन की जायकेदार खिचड़ी वहीं पकी थी। 1964 में सी.पी.आई. के अंदर टूट हुई और सी.पी.आई.(एम) का गठन हुआ, लेकिन इसके अधिकांश शीर्ष नेताओं का चरित्र नहीं बदला। इसीलिए जब पश्चिम बंगाल में युक्त फ्रंट की सरकार बनी, सी.पी.आई.(एम) की शीर्ष (केंद्रीय) कमिटी ने तुरंत इसके मंत्रीमंडल में शामिल होने का निर्णय ले लिया।”

इस तरह, जब नक्सलबाड़ी विद्रोह शुरू हो रहा था, उस समय बंगाल में युक्त फ्रंट की सरकार में सी.पी.आई.(एम) शामिल थी। इसके दो धाकड़ केंद्रीय कमिटि सदस्य ज्योति बसु और हरेकृष्ण कोन्नार तत्कालीन गैर-कांग्रेसी प्रांतीय युक्त फ्रंट सरकार में क्रमशः गृह मंत्री और कृषि मंत्री थे। केरल में संसदीय राजसत्ता के सुख से वंचित कर दिए जाने के कड़वे अनुभव से लैस ये संशोधनवादी इस बार सत्तासुख को बरकरार रखने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार बैठे थे। कैडरों में यह भ्रम फैलाया गया कि ‘सरकार हमारी अपनी है’, ‘गृह मंत्री और कृषि मंत्री हमारा अपना है’ और ‘सरकार के विरूद्ध घेराव और संघर्ष नहीं करना है, अपितु इस गैर-कांग्रेसी मंत्रीमंडल को प्रतिक्रियावादियों से बचाना होगा’, तो दूसरी तरफ, पार्टी का शीर्ष नेतृत्व विद्रोह को रोकने के लिए नीचे के कार्यकर्ताओं व नेताओं पर अनवरत भयंकर दबाव बनाए हुए था।

लेकिन संशोधनवादियों-अवसरवादियों की यह चाल सफल नहीं हुई, बल्कि उल्टी पड़ गई। शीर्ष कमिटी एवं नेताओं की गद्दारी का प्रत्युत्तर नीचे से शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह से दिया गया। संसदीय अवसरवाद के खिलाफ घनीभूत आक्रोश मानो ‘अचानक’ फूट पड़ा। विद्रोह रुकने के बजाए दावानल में परिणत हो गया।

सी.पी.आई.(एम) नेतृत्व भी सब कुछ करने के लिए तैयार बैठा था। अंततः उसने नक्सलबाड़ी के संघर्षरत गरीब आदिवासी किसानों को सबक सिखाने का निर्णय लिया। नक्सलबाड़ी में पुलिस की गोली चली। गरीब आदिवासी किसानों के खून से नक्सलबाड़ी की धरती लाल हो गई। पार्टी का लगभग समस्त शीर्ष नेतृत्व और ये दोनों मंत्री खुले तौर से सरकार के साथ खड़े थे। सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए ये विद्रोही किसानों को ही गलत बताते रहे। पुलिस विभाग ज्योति बसु के अधीन था। इसीलिए ऐसा मानना गलत नहीं है कि गोली चलाने का आदेश स्वयं ज्योति बसु द्वारा दिया गया था। लेकिन गोली चलने के बाद, शोषकों-शासकों की आशाओं के विपरीत, ‘नक्सलबाड़ी’ की आग पूरे भारतवर्ष में फैल गई। सी.पी.आई.(एम) के खिलाफ पार्टी के तमाम क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं का देशव्यापी बगावत भड़क उठा। आंध्रप्रदेश में कॉ. चंद्रपुल्ला रेड्डी, टी. नागी रेड्डी तथा कामरेड डी.भी. राव के नेतृत्व में हजारे कैडरों द्वारा इन संशोधनवादियों को हर प्रकार से चुनौती दी गई। 1968 में आंध्रा प्लेनम में सी.पी.आई.(एम) के केंद्रीय दस्तावेज को पराजित किया गया। श्रीकाकुलम में दूसरा ‘नक्सलबाड़ी’ धधक उठा जिसका दूसरा चरण गोदावरी घाटी के महान हथियारबंद प्रतिरोध संघर्ष के रूप में उठ खड़ा हुआ।

इस तरह ‘नक्सलबाड़ी’ ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में वर्षों से पैर जमाए संसदीय अवसरवाद पर प्राणांतक प्रहार किया था। इसने तत्कालीन भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में कार्ल मार्क्स की भूला दी गई इस उक्ति व शिक्षा को कि ‘मजदूर वर्ग राज्य की बनी-बनाई मशीनरी का उपयोग अपने लिए नहीं कर सकता है’ को भारी कुर्बानी देकर पुनर्जीवित करने का काम किया। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक छोटे से कस्बे में शुरू हुआ यह आंदोलन बहुत तेजी से मार्क्सवाद-लेनिनवाद की मुख्य अंतर्वस्तु पर आधारित एक ऐसी ऐतिहासिक वैचारिक लड़ाई में तब्दील हो गया, जिसकी कोई दूसरी मिसाल भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में नहीं मिलती है। इसे अन्य रूपों तथा तरीकों के अतिरिक्त राज्यसत्ता के खिलाफ मजदूरों-किसानों की राजनीतिक सत्ता के लिए ‘खुली हथियारबंद बगावत’ के रूप में लड़ा गया। आज भी ‘नक्सलबाड़ी’ शब्द से क्रांतिकारी उर्जा उत्सर्जित होने लगती है। प्रतिक्रियावादी भारतीय पूंजीवादी राज्य आज भी इस शब्द से आतंकित है, क्योंकि ‘नक्सलबाड़ी’ की आग अपनी मूल अंतर्वस्तु में तमाम भटकावों के बावजूद चिंगारी के रूप में आज भी मरी या बुझी नहीं है। राख के नीचे ही सही लेकिन यह आज भी प्रज्ज्वलित है। हम उम्मीद करते हैं कि जल्द ही यह चिंगारी दावानल में तब्दील होगी और भारत के पूंजीपतियों और भूस्वामियों की क्रूर तानाशाही को सदा-सर्वदा के लिए जलाकर भस्म कर देगी। पी.आर.सी. सीपीआई-एमएल के इस प्रथम केंद्रीय सम्मेलन के अवसर पर आज हमारे लिए यह प्रण लेने का दिन है कि हम ‘नक्सलबाड़ी’ की अंतर्वस्तु को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हर संभव मिहनत करेंगे एवं कुर्बानी देंगे। इस अवसर पर हम तमाम सच्चे क्रांतिकारियों से यह आह्वान भी करना चाहते हैं कि दक्षिणपंथी अवसरवाद के खिलाफ चली वैचारिक-राजनैतिक लड़ाई की इस महान विरासत को मिट्टी में नहीं मिलने दें, ‘नक्सलबाड़ी’ की मूल आग को कभी बुझने नहीं दें और वैज्ञानिक समाजवाद की पूर्ण विजय तक इसे प्रज्ज्वलित रखें।

नक्सलबाड़ी का सर्वोपरि महत्व किस बात में निहित है? इस बात में कि 25 मई, 1967 के दिन फूट पड़े इस महान बसंतनाद ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में पहली बार ‘राजनीतिक सत्ता’ के सवाल को पृष्ठभूमि से खींच कर इसके केंद्र में ला खड़ा किया था। यही वह चीज थी जो ‘नक्सलबाड़ी’ को अन्य आंदोलनों से अलग वह उंचाई प्रदान करती है जिसका वह हमेशा से हकदार रहा है। आगे के एक पूरे दौर के लिए, और आज भी, इसका यही पहलू क्रांतिकारी लाइन व व्यवहार का पैमाना बना हुआ है। ‘नक्सलबाड़ी’ की यही आत्मा थी। इसका यही सर्वोपरि महत्वपूर्ण पहलू था और है। बलात ‘राजनीतिक सत्ता’ हासिल करने का सवाल आंदोलन का केंद्र बिंदु और सर्वप्रमुख सवाल बन गया। यह हर तरह के सुधारवाद और सुधारवादी-अवसरवादी नारे का पूर्ण परित्याग था, चाहे वह क्रांतिकारी लिबास में लिपटा हुआ ही क्यों न हो। ज्ञातव्य है कि कॉ. चारू मजूमदार ने पुरानी राजनीतिक सत्ता को ध्वंस किए बिना और गरीबों-मेहनतकशों की नई राजनीतिक सत्ता को कायम करने की दिशा से जोड़े बिना ही ‘जमीन जब्ती के संघर्ष’ और ‘कृषि-क्रांति’ पर दिए जा रहे अत्यधिक जोर की तीखी आलोचना की थी। वे इसे संशोधनवाद एवं सुधारवाद मानते थे। हम पाते हैं कि उनके द्वारा (नक्सलबाड़ी विद्रोह से पूर्व) लिखित ‘ऐतिहासिक आठ दस्तावेज’ में क्रांतिकारी रणकौशल को अत्यंत सरलीकृत और लगभग भोंडे रूप में पेश किया गया है, लेकिन उसमें यहां-वहां बिखरे क्रांति के बीजकण मौजदू थे, जिन्होंने नक्सलबाड़ी विद्रेाह की लौ प्रज्ज्वलित कर दी। उसका ऐतिहासिक महत्व यह है कि उसने गहरे निराशा व हताशा के काल में उम्मीद की एक रौशनी जगाने का काम किया था। जब तेलंगाना आंदोलन की पराजय के बाद दक्षिणपंथी-अवसरवादी लाइन पूरी तरह हावी हो गई और जनता की मुक्ति के सारे रास्ते बंद से नजर आने लगे और चारो तरफ हताशा व निराशा का माहौल बन गया था, उस समय इस ऐतिहासिक ‘आठ दस्तावेज’ ने ‘नक्सलबाड़ी’ की लौ जलाकर नई आशा का संचार किया था। इस तरह ‘नक्सलबाड़ी’ की रौशनी पूरे देश में फैल गई और एक बार फिर से जनता की मुक्ति का रास्ता खुलता नजर आया। लेकिन यह शुरूआत भर की बात थी। इसी से सब कुछ नहीं हो जा सकता था। ‘आठ दस्तावेज’ ने अपना शुरूआती कार्यभार पूरा किया, लेकिन एक क्रांतिकारी आंदोलन से लेकर क्रांतिकारी पार्टी के गठन तक और फिर क्रांतिकारी आंदोलन को सफलतापूर्वक अंजाम तक ले जाने की क्षमता बिल्कुल ही दूसरी बात थी। इन सब मामलों में ‘नक्सलबाड़ी’ का तत्कालीन नेतृत्व काफी पीछे रह गया था। जिस तरह के सक्षम, गंभीर, धैर्यपूर्ण और गहरे सर्वहारा वर्गीय अुनभवशील नेतृत्व की आवश्यकता थी, उसकी कमी थी, इस बात का अहसास आज हर किसी को है।

यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि कॉमरेड सी.पी. रेड्डी, कॉ. टी. नागी रेड्डी, कॉ. डी.भी. राव और आंध्रप्रदेश के उनके अन्य साथियों ने नक्सलबाड़ी के नेतृत्व के निम्नपूंजीवादी रवैये का शुरू से ही विरोध किया था। गुटबंदी से ग्रस्त माहौल में उनके विरोध का असर उल्टा ही पड़ा। उन्हें न तो ए.आई.सी.सी.सी.आर. में शामिल कराया गया, न ही नवगठित सी.पी.आई.(एम.एल.) में। बाद में क्या हुआ हम सभी जानते हैं। पूरा नक्सलबाड़ी आंदोलन निम्नपूंजीवादी भटकाव में जा गिरा। क्रांति के बीजकण गुटबाजी और षडयंत्र के मंत्र में परिणत हो गए। क्रांति, आंदोलन, पार्टी, जन संगठन – सभी मसलों पर अतिवाम-अराजकतावादी रूख अपना लिया गया। जन संगठन पर पार्टी ने ही प्रतिबंध लगा दिया। बंगाल और अन्य जगहों पर ट्रेड यूनियनों में से नेताओं को हटाकर देहातों में भेज दिया गया। मजदूर आंदोलन की लगभग पूर्ण तिलांजलि दे दी गई। आंदोलन को अपार क्षति हुई। एक बार फिर यह साबित हुआ कि क्रांति के साथ खिलवाड़ नहीं करनी चाहिए। आज हमें इस बात का पूरी शिद्दत से अहसास है कि किसी क्रांतिकारी नारे व प्रश्न का मार्क्सवादी-लेनिनवादी ढंग से सैद्धांतिक निरूपण किया जाना कितना और क्यों जरूरी है।

परिणामस्वरूप ‘नक्सलबाड़ी’ अपनी ऐतिहासिक मंजिल से विमुख होता गया। आज यह महान आंदोलन स्वयं अपनी छाया बन कर रह गया है। ‘नक्सलबाड़ी’ पर बात करते हुए इस आंदोलन की उन आत्मगत और वस्तुगत सीमाओं के बारे में बात करना नितांत आवश्यक है, जिन्होंने इस मुक्तियुद्ध को विजय पथ से विचलित करने में एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। हम कह सकते हैं कि ‘नक्सलबाड़ी’ से कौंधी आशा की नई तेज रौशनी के चकाचौंध में नेतृत्व की दूरदृष्टि ही जैसे खत्म हो गई थी। लेकिन प्रश्न है, क्यों? नक्सलबाड़ी विद्रोह आखिरकार एक जनविद्रोह था। अंतिम तौर पर वह एक क्रांति थी जो फूट पड़ी थी। उसकी अपनी वस्तुगत तौर से स्वतंत्र गति थी, जो आत्मगत परिस्थितियों से पूरी तरह बेपरवाह थी। हम पाते हैं कि एक योजना के तहत जन्मी क्रांति अपने विकासक्रम में अंततः आत्मगत शक्तियों की क्षमता से काफी आगे निकल चुकी थी कि वह उलटकर आत्मगत शक्तियों को निर्देशित करने लगी थी। यह एक तरह से लगभग स्वयंस्फूर्ततावाद की स्थिति से मेल खाने वाली स्थिति थी जो अन्य किसी भी चीज के मोहताज नहीं रह गई थी। वह पूरी तरह अपनी रौ में थी और अपने समक्ष मौजूद नेतृत्व, चाहे वह जैसा भी था, पर आनन-फानन में सैद्धांतिक, राजनीतिक और सांगठनिक फैसले लेने का दबाव बनाए हुए थी। ऐसे उदाहरण इतिहास में कम ही मिलते हैं, जिसमें एक शानदार क्रांति अंततः अपनी आत्मगत शक्तियों, अर्थात स्वयं को जन्म देने वाली शक्तियों, को अपना कैदी बना लेती है। तब क्रांति का उसके असली पथ से भटकना लाजिमी था। आज हमारे समक्ष यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है कि ऐसे में एक दृढ़, सच्चे अर्थों में संगठित, एकबद्ध और केंद्रीकृत लेनिनवादी पार्टी के बनने की स्थिति ही कहां मौजूद थी। हम तत्कालीन नेतृत्व की अक्षमता का आज चाहे जितनी बार और जितनी गहराई से विश्लेषण कर लें, पैरों में पड़ी इन परिस्थितिजन्य जंजीरों की भूमिका को मूल्यांकन के केंद्र में नहीं रखना इतिहास के साथ अन्याय करना होगा। जरा गौर करें, एक जनविद्रोह फूट पड़ता है और विस्फोटक गति से पूरे देश में फैलते हुए सारी चीजों को अपने आगोश में ले लेता है। जो लोग इसके समर्थन में आये और जिन्हें लेकर ए.आई.सी.सी.सी.आर. (ऑल इंडिया कोऑर्डीनेशन कमिटि ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूश्नरीज) और सी.पी.आई.(एम.एल.) बनाया गया, वे कल तक संशोधनवादियों और नवसंशोधनवादियों के साथ थे। जाहिर है वे चाहे-अनचाहे एक खास तरह के गैरलेनिनवादी प्रशिक्षण की उपज थे। हम कॉ. लेनिन की शिक्षाओं की बात करें, तो हम जानते हैं कि क्रांतिकारी प्रशिक्षण की भूमिका किसी पार्टी नेतृत्व व कार्यकर्ता के उसके सर्वहारा वर्गीय क्रांतिकारी चरित्र व व्यक्तित्व के निर्माण में सबसे अहम होती है। आनन-फानन में बनी ए.आई.सी.सी.सी.आर. से जुड़े साथी भावनात्मक तौर पर चाहे जितने भी क्रांतिकारी हों, लेनिनवादी ढंग के पार्टी प्रशिक्षण से वे वंचित थे और शायद अपरिचित भी। और यह बात बाद के वर्षों में सी.पी.आई.(एम.एल.) में हुई टूट-फूट और घर कर गई वैचारिक-राजनैतिक जड़ता के लिए भी सही है। सी.पी.आई.(एम.एल.) पार्टी का आज जो हस्र दिखाई देता है, वह भी यही बताता है कि यह पार्टी लेनिनवादी ढंग के प्रशिक्षण, मिजाज और सोच से कितनी दूर थी। हम पूरी विनम्रता से लेकिन दृढ़ता से यह कहना चाहते हैं कि संशोधनवादियों व नवसंशोधनवादियों के बीच से आए असंख्य क्रांतिकारी तत्वों ने स्वयंस्फूर्तता को और आगे बढ़ाने का काम किया, क्योंकि उन्हें आनन-फानन में समेटने, प्रशिक्षित और परिपक्व बनाने के कार्यभार को मार्क्सवादी-लेनिनवादी ढंग से पूरा ही नहीं किया गया। हम पाते हैं कि ए.आई.सी.सी.सी.आर. शुरू से ही गुटबंदी की शिकार थी और 22 अप्रैल, 1969 को बनी सी.पी.आई.(एम.एल) की गठन प्रक्रिया पर भी इसकी प्रेत छाया बनी रही। ए.आई.सी.सी.सी.आर. के गठन में मौजूद स्वयंस्फूर्तता के तत्वों व उनसे जुड़ी अनेकानेक अराजक प्रवृतियों के रूप में आत्मगत रूप से वह जमीन मौजूद थी, जिसमें बाद में नवगठित सी.पी.आई.(एम.एल.) के अंदर पनपी घोर रूप से अराजक व अवसरवादी राजनीतिक-सांगठनिक व वैचारिक लाइन खूब पुष्पित-पल्लवित हुईी। आज इससे शायद ही कोई इनकार कर सकता है कि तत्कालीन नेतृत्वकारी अगुआ कतारों में से अधिकांश के सीमित, खंडित और अपूर्ण मार्क्सवादी-लेनिनवादी ज्ञान तथा धैर्य, अनुभव और गंभीरता के अभाव के दुष्प्रभावों ने अंतहीन जोशो-खरोशों की शक्ल में पूरे आंदोलन को निम्नपूंजीवादी भावना व विचारों के आगोश में धकेल दिया। हम देखते हैं कि प्रशिक्षण, ज्ञान और अनुभव की कमी की पूर्ति जोश से करने की कोशिश की गई, जो अपने अंतिम विश्लेषण में इस बात का ही परिचायक है कि क्रांति की बाह्य परिस्थितियों ने स्वयं अपनी आत्मगत शक्तियों को अपना बंदी बना लिया था। सी.पी.आई.(एम.एल.) के ऐतिहासिक महत्व को सामने लाने के लिए, जो कि अपने आप में एक अलग और अति गंभीर विषय है, आज इन कठोर सच्चाईयों को स्वीकार करना आवश्यक हो गया है।

ए.आई.सी.सी.सी.आर के वक्त से ही देश के कई कोनों से आलोचनाओं का आना शुरू हो गया था। लेकिन वे बेअसर रहीं। जैसा कि पहले कहा गया है, ए.आई.सी.सी.सी.आर से लेकर सी.पी.आई.(एम.एल.) तक संगठन निर्माण में संकीर्ण, स्वयंस्फूर्त तथा गुटपरस्त रवैये और राजनीतिक लाइन में वाम अराजक प्रवृत्ति के खिलाफ शुरूआत से ही उठने वाली सार्वधिक सशक्त, सुसंगत और वैज्ञानिक आवाज कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी तथा आंध्रप्रदेश के उनके अन्य दूसरे साथी क्रांतिकारियों के तरफ से आ रही थी। लेकिन आलोचनाओं का जवाब तो नहीं ही दिया गया, आलोचना करनेवालों को ही पूरी प्रक्रिया से दूर धकेल दिया गया। आज यह किसी को भी स्पष्ट दिखाई दे सकता है कि उन दिनों की राजनीतिक-सांगठनिक या वैचारिक गलतियां क्या थीं और उनसे कैसे निपटा जाना चाहिए था। लेकिन उस दौर में, इन प्रवृतियों के खिलाफ आवाज उठाना इतना आसान न था, गलत प्रवृतियों के साथ साझा काम करते हुए पूरे आंदोलन को समेट लेना तो और भी मुश्किल था। कॉ. चंद्रपुल्ला रेड्डी को अलग होकर आंदोलन का नया प्रांतीय स्तर का केंद्र (ए.पी.सी.सी.सी.आर. अर्थात आंध्र प्रदेश कोऑर्डीनेशन कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज) निर्मित करना पड़ा, जो बाद में गोदावरी घाटी के प्रतिरोध संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जहां नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम का आंदोलन दो से तीन वर्षों के अंदर ही भयंकर पुलिस दमन से खत्म हो गया, वहीं गोदावरी घाटी का संघर्ष आपातकाल के भयंकर दमन को झेलते हुए और इसी दौरान कॉ. टी. नागी रेड्डी और कॉ. डी.भी. राव के संयुक्त नेतृत्व में जन्मी दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ते हुए इतना सशक्त हो चुका था कि लोगों का ध्यान उस ओर आकृष्ट होने लगा। यह एक और नई रोशनी थी, जिसने अपनी चमक से ‘नक्सलबाड़ी’ की परम्परा की गिरती प्रतिष्ठा को बचाने का काम किया। जब 70 के दशक के मध्य में कॉ. चारू मजूमदार की गलत राजनीतिक व सांगठनिक नीतियों व कार्यनीतियों को अस्वीकार करते हुए सी.पी.आई.(एम.एल.) के नये केंद्र का गठन किया गया, तो कॉ. सी.पी. उसमें शामिल हो गए थे। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद इस नये केंद्र में एस.एन. सिंह, भास्कर नंदी, संतोष राणा आदि के नेतृत्व में घोर दक्षिणपंथी भटकाव हावी हो गया। सबसे खतरनाक चीज यह हुई कि इनके नेतृत्व में सोवियत साम्राज्यवाद के हमलावर चरित्र का विरोध करने के नाम पर अमेरिका और अमेरिकी समर्थक शासक वर्गों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की राजनीतिक लाइन सामने आई।  परिणामस्वरूप, यह केंद्र भी तहस-नहस का शिकार हो गया। केंद्र का एक अच्छा-खासा हिस्सा सी.पी.आर. के नेतृत्व में जरूर आया, लेकिन इसमें लगातार टूट-फूट होती रही। यह वह दौर था जब शासक वर्गीय विपक्षी पार्टियों व संशोधनवादियों-नवसंशोधनवादियों के साथ चुनावी मोर्चा बनाने की राजनीतिक लाइन तेजी के साथ हावी हो रही थी। देश के कुछ हिस्सों में, खासकर बिहार में, कॉ. विनोद मिश्र के नेतृत्व में ‘इंदिरा निरंकुशता विरोधी मोर्चा’ की आवाज इस संसदीय भटकाववादी लाइन की सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति थी। इस तरह चुनाव में भागीदारी के सवाल पर जहां एक तरफ इसके बहिष्कार की सशक्त राजनीतिक दिशा मौजूद थी, तो, दूसरी तरफ, इसमें भागीदारी की गैरलेनिनवादी नीति की लाइन भी पूरी तरह हावी थी। इसी बीच पिछड़ावाद, क्षेत्रवाद, क्षेत्रीय स्वायत्तावाद, अलगाववाद, जातिवाद (पिछड़ावाद व दलितवाद तथा आदिवासीवाद), भाषावाद आदि के तरफ भटकाव भी काफी मजबूती से उभरे। हम देखते हैं कि कॉ. सी.पी. इन तमाम प्रवृत्तियों के खिलाफ शीर्ष यानी ऑल इंडिया स्तर पर लगभग अकेले लड़ते रहे और तत्कालीन रूप से सर्वाधिक सही क्रांतिकारी पार्टी केंद्र का बचाव किया। अंत में, उन्हें पार्टी व आंदोलन के अंदर घूस आई अंदरूनी सड़न की प्रक्रिया के प्रतिफल के रूप में पार्टी तोड़कों के एक और गुट (पइला वासुदेव राव-भाई जी गुट) के खिलाफ भी लड़ना पड़ा। इसी लड़ाई के मध्य उनकी मृत्यु हो जाती है। पइला-भाईजी गुट के पलायन ने, इससे उठे सवालों ने और फिर बाद में इसके बाद बचे केंद्र के अंदर शुरू हुई टूट-फूट के अंतहीन सिलसिले ने यह साबित कर दिया था कि सी.पी. की परम्परा वाले आंदोलन में भी जमीनी स्तर पर कुछ बुनियादी कमजोरियां मौजूद हैं। दूसरी तरफ, हम पाते हैं कि कॉ. सी.पी.आर. की मृत्यु के बाद भारतीय क्रांति को भटकाव में डालने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ सशक्त लड़ाई लगभग खत्म हो गई।

प्रश्न यह है कि इस आवेगमयी क्रांतिकारी इतिहास का मूल्यांकन कैसे किया जाए? हम पाते हैं कि जो गलतियां हुईं, वे आंदोलन से अपना पूरा जुमार्ना वसूले बिना न तो दूर हुईं और न ही साबित हुईं। एकमात्र बड़े पैमाने की क्षति उठाने के बाद ही आंदोलन में उनके खिलाफ सर्वव्यापी अहसास उत्पन्न हो सका। मानों, वे महज व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों की नहीं, एक युग की गलतियां थीं। और यह बात बहुत हद तक सच भी है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि इस युग की विलक्षणता शायद इस बात में निहित थी कि दशकों से पैर जमाए घोर दक्षिणपंथ से क्रांतिकारी अवस्थिति ग्रहण करने में ‘नक्सलबाड़ी’ जैसे जितने जोरदार धक्के और झटके की जरूरत थी, उसने उतने ही जोरदार आवेग विपरीत दिशा में उत्पन्न किए और जिसने उतने ही जोर से पूरे आंदोलन को वाम या अतिवाम की तरफ ढकेल दिया। इसमें सही अवस्थान की चेतना और प्रेरणा दोनो अधिकांशतः लुप्तप्राय हो चुकी थीं। ये बातें उन दिनों के लिए अप्रांसगिक थीं। झूले का पाला बदल चुका था, वह एक तरफ से दूसरी तरफ चला गया था और पूरी गति में था। 60 के दशक के उत्तरार्द्ध व 70 के दशक के पूर्वार्द्ध का यह वह दौर था जब ‘चीन का चैयरमैन हमारा चैयरमैन’ का नारा भारत के क्रांतिकारियों के बीच गूंजता था, जब ‘रेड बुक’ पढ़कर क्रांति की कार्यनीति और रणनीति तैयार की जाती थी, जब ‘जिसका हाथ खून से सना नहीं, वह क्रांतिकारी नहीं’ जैसे फरमान चलते थे, जब ‘वर्ग दुश्मनों के सफाये’ की लाइन से लाल सेना बना लेने और पूरे भारत को मुक्त कर लेने के बेहद काल्पनिक सपने देखे जाते थे, जब ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति’ को पूंजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने की अचूक दवा मानकर इसकी भोंडी नकल का प्रयास किया जाता था। संपूणर्ता में, माक्सर्वाद-लेनिनवाद से हमारी दूरी इतने खतरनाक स्तर तक बढ़ गई थी और माओवाद या माओ विचारधारा तक अपने को सीमित कर लेने की प्रवृत्ति इतनी अधिक प्रबल हो गई थी कि सी.पी.आई.(एम.एल.) में मार्क्सवादी-लेनिनवादी नाम का टैग मानो महज दिखावा रह गया था, ठीक वैसे ही जैसे सी.पी.आई.(एम.) और सी.पी.आई. में मार्क्सवादी-लेनिनवादी और कम्युनिस्ट शब्द महज एक टैग बन चुके थे। माक्सर्वाद-लेनिनवाद के ज्ञान के भंडार से आलोकित होने की बात बस कहने भर की चीज रह गई थी।

अतिवाम और अराजकतावादी भटकावों से हुई अपूरणीय क्षति के बाद जब ‘नक्सलबाड़ी’ अपने दूसरे चरण में पहुंचा, तो बुझ चुके ‘नक्सलबाड़ी’ और ‘श्रीकाकुलम’ की आग कॉ. सी.पी. रेड्डी के प्रत्यक्ष नेतृत्व में गोदावरी घाटी के हथियारबंद प्रतिरोध संघर्ष के रूप में पुनः प्रज्जवलित हो चुकी थी। लेकिन इन सबके बीच हम यह भी पाते हैं कि राज्य द्वारा पहले से जारी क्रमिक और राज्यपोषित जमींदारपक्षीय पूंजीवादी भूमि-सुधारों की गति तीव्र से तीव्रतर होती गई। पुराने जमींदार नये पूंजीवादी भूस्वामी में रूपांतरित होते गये। जमीन और जनवाद की भूख गरीब किसानों के बीच बनी रही, लेकिन पुराने जमींदार विरोधी संघर्ष से उसका आंतरिक सरोकार खत्म होता गया। जमींदारों ने पूंजीवादी तौर-तरीकों से खेती शुरू की, तो ज्यादातर गरीब और भूमिहीन किसान सामंती गुलाम से स्वतंत्र उजरती गुलाम बन गये। पूंजीवादी खेती साधनहीन (पूंजीविहीन) गरीब किसानों के लिए जी का जंजाल बन गई, जिसने एक जमीन के छोटे से टुकडे़ के लिए लड़ाई की अंतःप्रेरणा खत्म कर दी। जनवाद की भूख सुसंगत जनवाद के जमीनी स्तर तक विस्तार और उजरती गुलामी से मुक्ति के सरोकार में बदल गई, जिसका मतलब यह था कि जनवाद की लड़ाई वास्तव में जनवाद को मेहनतकशों और मजदूरों के बीच सच में विस्तारित होने से बाधित करने वाली हत्यारी पूंजी के खिलाफ मुड़ गई। उपरी तौर पर ठहराव का आवरण इसलिए बना रहा क्योंकि पुराने जमींदार ही पूंजीवादी कृषि के मुख्य एजेंट बन गये और इसकी वजह से गांव के अब स्वतंत्र मजदूरों पर पहले जैसा वर्चस्व बनाने के लिए उनके खुले खेल होते रहे। उनके खिलाफ होने वाली देहातों के गरीबों की लड़ाई वास्तव में कृषि-पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई थी जिसे पुराने नारों के साथ लड़ा जा रहा था। लेकिन अंतर्य में तो ये नारे काम ही नहीं कर रहे थे। खेतों पर कब्जे की लड़ाई धीरे-धीरे विलुप्त होती गई। यहां तक कि जब्त की गई जमीन पर खेती छोड़ गांव के गरीबों ने बड़े शहरों की ओर रूख कर लिया। पूरी मेहनतकश आबादी गतिमान हो गई। गांवों में इन स्वतंत्र मजदूरों के लिए रोजी-रोटी का अभाव था, क्योंकि पूंजीवादी खेती ने इन्हें साल में ज्यादा से ज्यादा समय के लिए फालतू आबादी में परिणत कर दिया था, तो शहरों में इनके लिए नारकीय जीवन था। देहात से शहर को घेरने की रणनीति के लिए अब कोई जगह नहीं रह गई थी।

इसीलिए हम देखते हैं कि कॉमरेड सी.पी. रेड्डी के नेतृत्व में खड़ा हुआ गोदावरी घाटी का प्रतिरोध संघर्ष एक ऊंचाई पर जाकर रूक गया। वहां से आगे जाने का रास्ता लगभग बंद हो चुका था। किसी तरह टिके रहने और अपने आधार को विस्तारित करते जाने के जो छद्म रास्ते बचे थे वे सी.पी.आर. की वाम व दक्षिणपंथी अवसरवाद व अराजकतावाद विरोधी लाइन की परम्परा से मेल नहीं खाते थे। यह एक ऐतिहासिक गतिरोध था, जो कार्यनीतियों के बदलाव से दूर होने वाला नहीं था। इसे दूर करने के लिए कार्यनीति में बदलाव लाने की प्रत्येक कोशिश भटकाव में परिणत हो गई, यह आज आसानी से कहा जा सकता है। इसके एक छोर पर आज सी.पी.आई.(माओवादी) खड़ा है, तो दूसरी छोर पर लिबरेशन जैसा घोर दक्षिणपंथी ग्रुप। इन दो छोरों के बीच जो ग्रुप हैं, उनकी अवस्थिति कई मायनों में इन दोनों से भी खराब है ऐसा माना जा सकता है। प्रश्न है, कॉ. सी.पी.आर. जिंदा रहते, तो क्या इन रास्तों पर चलना स्वीकार करते? परंतु, सवाल तो यहीं से खड़ा होता है कि तब वे क्या करते? जाहिर है, इन प्रश्नों का उत्तर पाने की जद्दोजहद उन दिनों एकमात्र सी.पी.आर. जैसा ईमानदार और सक्षम व्यक्तित्व ही कर सकता था जैसा कि उनके अधिकांश लेखों की गहराई और सच्चाई देखकर लगता है। सी.पी. की जो परम्परा यहां आकर खत्म होती प्रतीत होती है, उसे आगे बढ़ाया जा सकता था, अगर उनकी पूरी परम्परा को गहराई से उनके बाद का केंद्र समझने की कोशिश करता। लेकिन आंखों पर एक युग की पट्टी चढ़ी थी। उनके नाम का माला जपा गया, लेकिन उन्हें गहराई से समझा नहीं गया। अवसान की ओर जाते इस युग ने कॉ. सी.पी.रेड्डी की महान परम्परा की भी बलि ले ली।

इस तरह 1980-84 और उसके बाद के वर्षों में यह स्पष्ट हो गया था कि लड़ाई का मैदान बदला गया था। अंतर्वस्तु में ‘नक्सलबाड़ी’ जिंदा रहा, वह भी सीमित ग्रुपों में और सीमित अर्थों में, लेकिन अंतर्य में पुराने नारों का वस्तुगत आधार जाता रहा। 1947 की ‘आजादी’ के बाद से ही लगातार बदलते पुराने समाज ने एक नया ठौर पा लिया था, जहां आकर इसकी धुरी बदल गई। लड़ाई का नया परिवेश उभर चुका था। नये नारों की जमीन तैयार हो चुकी थी। संक्षेप में कहें तो, हत्यारी पूंजी और उसकी सत्ता को उखाड़ फेंकने का कायर्भार प्रस्तुत हो चुका था। एक युग का अंत हो रहा था और नये की शुरूआत हो चुकी थी। लेकिन यह जिस तरह हुआ, उस पर उपरी तौर पर ठहराव का आवरण बना रहा, जिससे पुराने के बने रहने का अहसास होता रहा। जाने-अनजाने वर्णात्मक लेखों में इन बदलावों को अनेकों तरह से स्वीकार किया गया, लेकिन नारे वही बने रहे। यह एक किस्म की बौद्धिक जड़ता थी, जिसे एकमात्र युग की जड़ता के रूप में ही समझा जा सकता है। आखिर सी.पी. जैसे दूरदृष्टि वाले योद्धा व नेता भी, जिन्होंने राज्यसत्ता को प्रत्यक्ष चुनौती दी थी और सी.पी.आई.-सी.पी.एम. मार्का दक्षिणपंथी अवसरवाद को परास्त करने में अपने मार्क्सवादी-लेनिनवादी ज्ञान का लोहा मनवाया था, ने भी उपरी आवरण में दिख रहे ठहराव की सतह के नीचे हो रहे नये बुनियादी परिवर्तनों को समझने में ‘बौना’ साबित हुआ, तो यह क्या था? हम कहेंगे, यह युग की जड़ता थी, जो उन्हें ‘बौना’ बना रही थी। यह पुराने युग के अवसान और नये के उदय के संक्रमण काल की जड़ता थी, जिसके मोहपाश को तोड़ पाना अक्सरहां अत्यंत कठिन होता है और हो रहे बदलावों को तब तक देखने से रोकता है जब तक कि वह स्वस्पष्ट न हो जाए। हमें यह चीज उस पूंजीवादी क्रांति के पूर्व की बातों की याद दिलाती है, जिसकी जमीन तैयार करने में भ्रातृत्व, समानता और न्याय जैसे उच्च आदर्श की आकांक्षा से परिपूर्ण अपने चहुंमुखी ज्ञान, विवेक और प्रयास से पूरी दुनिया को अचंभित करने वाले फ्रांसीसी क्रांति के उन महामानवों की याद दिलाता है, जो पूंजीवादी क्रांतियों के पश्चात बने नये समाजों में आई नये ढंग की बबर्रता से विचलित थे, लेकिन अपने आदर्शों से पूंजीवादी की तुच्छ सीमा से होने वाले टकराव की वैज्ञानिक समझ से कोसों दूर थे। वे महामानव होकर भी अपने युग की ऐतिहासिक सीमा से बंधे थे और उससे उत्पन्न बौद्धिक जड़ता के शिकार बने हुए थे। अपने आत्मत्याग और क्रांतिकारी भावना के अविश्वसनीय प्रदर्शन के बल पर भी वे भावुकतापूर्ण समाजवाद की कल्पनाओं के आगे नहीं जा सके थे। इस मायने में वे पूरी तरह बौना साबित हुए थे। सी.पी. रेड्डी जैसे महान योद्धा और नेता इसी तरह इस बदलते युग की पीड़ा और जड़ता को झेलने के लिए अभिशप्त थे। इसके अतिरिक्त कॉ. सी.पी. रेड्डी की महान परम्परा में जितना कुछ सीखने योग्य है, वह विलक्षण है और भारतीय क्रांतिकारी हमेशा उनके ऋणी रहेंगे। हां, जब आज भी कुछ लोग पुराने नारों व रणनीति पर अटके हुए हैं, तो हमें कहना पड़ रहा है कि वे युग की जड़ता के नहीं, स्वयं अपनी निजी जड़ता के शिकार हैं। आज जब कि समाज की धुरी में हो चुके बुनियादी बदलाव के चिह्न इतने जोर-शोर से स्वयं को प्रकट कर रहे हैं, तब भी आंखों पर पड़ी पट्टी युग की पट्टी तो कतई नहीं है।  

आंखों पर पड़ी यह बनावटी पट्टी का ही एक परिणाम यह है कि 1980 के बाद से माक्सर्वादी-लेनिनवादी आंदोलन में ‘नक्सलबाड़ी’ की वास्तविक अंतर्वस्तु का परित्याग करने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगती है। कालचक्र तेजी से चलता हुआ आगे बढ़ता रहा। हम देखते हैं कि 21वीं सदी के प्रथम दशक में परिस्थितियां लगभग पूरी तरह पलटने लगती हैं। हमारे नथूने फड़का देने वाले और ‘नक्सलबाड़ी’ शब्द से पैदा होने वाली पुरानी बारूदी महक पूरी तरह बिखर कर आबोहवा से गायब होती गई। अब जो बच गए, वे ‘माओवादी’ धमाके हैं, जिनकी महक शायद सिर्फ ‘माओवादियों’ को ही दिवाना बना सकती है। उन अधिकांश धमाकों का हमारे व्यापक सर्वहारा मेहनतकश भाइयों के जीवन की वास्तविक चिंताओं और उनके जीवन के वास्तविक मुद्दों से सरोकार कम से कमतर होता गया। दूसरी तरफ, लिबरेशन के संपूर्ण दक्षिणपंथी कायाकल्प से कोई भी समझ सकता है और यह शिक्षा ले सकता है कि किस तरह नक्सलबाड़ी की प्रतिष्ठा का उपयोग करते हुए ‘दक्षिणपंथी अवसरवाद का नया दैत्य’ छद्म जन सरोकारों की शक्ल में एक आकार ग्रहण कर सकता है, विशाल और ताकतवर बन सकता है। इसने तो दरअसल ‘मिलिटेंट रिविजनिज्म’ की एक नई प्रजाति ही खड़ी कर दी है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी खेमे के इन दो वर्णपट्टों के बीच अन्य दूसरे वर्णक्रम देखे जा सकते हैं, जिनमें नक्सलवादी रंगों की उपस्थिति महज पुराने नारों के दुहराव या तोतारटंत तक सीमित है। यह एक किस्म की अंदरूनी सड़न (internal debilitation) की प्रवृत्ति थी जो हमारे आगे-आगे बढ़ रही थी। हम देखते हैं कि सी.पी.आई.(एम.एल.) आंदोलन स्वयं अपने अंदर से अपने को खत्म करने वाले, अपने स्वयं का भक्षण कर लेने वाले उन कारकों को जन्म देने लगा, जो मूलतः इसलिए पैदा हुए क्योंकि आंदोलन नई जमीन और नये परिवेश को समझने में अक्षम साबित हुआ। अंधेरे में भटकते हुए अंदाज से रास्ता तय करने जैसे हालात के ये स्वाभाविक परिणाम थे। नवजनवादी क्रांति को इसकी मंजिल तक ले जाने वाली (मजदूर वर्ग की) मित्र शक्तियों को बुनियादी रूप से बदल देने वाला विकास समाज मे हो चुका था। स्वाभाविक है कि नवजनवादी क्रांति की सामाजिक-ऐतिहासिक प्रेरणा का अंत हो गया था। त्याग और बलिदान की अंतर्मुखी व बहिर्मुखी भावना पैदा करने वाली अंतःप्रेरणा लुप्त हो गई थी। आंदोलन के उद्देश्य निर्जीव जान पड़ने शुरू हो चुके थे। ऐसे में अगर इस महान आंदोलन में कई तरह के भटकाव पैदा हुए और गद्दारियां हुईं, तो इसे महज इसे इन कुछ नेताओं व कार्यकर्ताओं की नैतिकता में आई कमी या उनके द्वारा की जाने वाली गद्दारी के रूप में नहीं समझा जा सकता है। आखिर पूरे आंदोलन में इसके लिए जमीन कहां से और कैसे तैयार हुई? आत्मत्याग भगोड़ापन में कैसे परिवर्तित हो गया? दिलेरी कैसे कायरता और बिकाऊपन में बदल गई?

पूरी परिस्थिति ने आज एक अजीब सी स्थिति पैदा कर दी है। आज कई ऐसे ग्रुप हैं, जिनकी हथियारी ताकत ‘नक्सलबाड़ी’ के मुकाबले सौ गुना अधिक हो सकती है, लेकिन वैचारिक-राजनैतिक अंतर्वस्तु के पैमाने से वे ‘नक्सलबाड़ी’ से सौ कदम नहीं तो दर्जनों कदम पीछे जरूर हैं। अधिकांश माक्सर्वादी-लेनिनवादी ग्रुपों के अंदर राजनीतिक अवसरवाद ने इतनी अधिक प्रधानता हासिल कर ली है कि ‘नक्सलबाड़ी’ से उनकी एकमात्र कुछेक नारों की समानता (जैसे नई जनवादी क्रांति, कृषि क्रांति, दीघर्कालीन जनयुद्ध आदि) के अतिरिक्त शायद ही कोई और दूसरी समानता दिखाई देती है। हम पाते हैं कि आज नक्सलबाड़ी के पुराने नारे, जो नई परिस्थिति में बेजान हो गए हैं और जिन्हें बदलने की जरूरत है, दुहराए जाते हैं, लेकिन उसकी आत्मा (अंतर्वस्तु, जिसके बारे में हमने ऊपर लिखा है), जिसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए, को हर जगह मारा जा रहा है, उसे सरेआम नीलाम किया जा रहा है। नक्सलबाड़ी की आज की यह अजीबोगरीब विडंबना है जिसकी व्याख्या महज कुछ नेताओं या कार्यकर्ताओं के नैतिक पतन से नहीं की जा सकती है। गद्दारी तो अपनी जगह है, लेकिन मूल वजह है समाज की वास्तविक धुरी को न समझ पाने की मजबूरी। इस पूरी प्रक्रिया का अब अंत हो रहा है, जो तमाम तरह की विद्रुपताओं से भरा है। इस मजबूरी ने भी अब एक ठौर पा लिया है और इसके बारे में अब एक मुकम्मल राय बनाना जरूरी हो गया। बंगाल का उदाहरण लें। आखिर यह कैसे संभव है कि पश्चिम बंगाल में लिबरेशन से लेकर वैसे तमाम सी.पी.आई.(एम.एल.) ग्रुप मिल जाएंगे, जो कल तक सी.पी.आई.(एम.) को सत्ताच्यूत करने के लिए टी.एम.सी. के पिछलग्गु बने हुए थे और आज वे सभी पूरे बंगाल में संत्रास कायम करने वाली टी.एम.सी. का विरोध करने के नाम पर ‘वाम’ का हाथ बंटाते दिख रहे हैं! कहीं ‘वाम समन्वय समिति’ बन रहा है, तो कोई वामप्रफंट के साथ मिलकर लेनिन के जन्म-दिवस पर ‘टीएमसी संत्रास विरोधी’ रैली कर रहा है। कुछ ऐेसे सी.पी.आई. (एम.एल.) ग्रुप हैं, जो अकेले अपने दम पर एक पंचायत की सीट तक नहीं जीत सकते, लेकिन वे ‘जनपक्षीय वाम सरकार’ बनाने की अपनी लाइन की घोषणा करते फिर रहे हैं! निस्संदेह, इसे ‘नक्सलबाड़ी’ की अंतर्वस्तु के साथ गद्दारी कहना अनुचित नहीं होगा, लेकिन जो परिदृश्य है, उसे महज गद्दारी कहने से न तो हम आंदोलन में आई वैचारिक-राजनैतिक जड़ता की जड़ तक पहुंच सकते हैं, न ही इससे यह जड़ता टूटने वाली है। आज की यही विशेषता है कि वैचारिक-राजनैतिक रूप से पूरी तरह जड़ बन चुकी परिस्थिति में घोर दक्षिणपंथ की यह पौध पनपी है। इसके अतिरिक्त कोई और व्याख्या हमें समस्या की तह तक और इसे दूर करने के उपायों तक नहीं ले जाती है। यह एक क्रांतिकारी युग के अवसान से पैदा हुई समस्या है। नये युग व नये परिवेश में अब नये योद्धाओं की बारी है। उन्हें अपने करतब दिखाने हैं और अपनी पुरानी क्रांतिकारी विरासत से अपने रक्तमांस सरीखे सम्बन्धों को नई कसौटी पर कसना और उसे साबित करना होगा।

दरअसल, झूला जितने जोर से और जितनी दूरी तक वाम के तरफ गया था, उसी से तय होना था कि वापसी के वक्त वह एक बार फिर किस दूरी तक दक्षिण के तरफ जाएगा। आज हमारे सामने यह स्पष्ट है कि झूला किस हद तक दक्षिण के तरफ गया हुआ है तथा और कितना आगे जाने वाला है। यहां तक कि माओवादी गुरिल्ला युद्ध में भी जो कुछ घटित हो रहा है, वह भी इसके दक्षिण के तरफ जाने वाले आवेग को ही दिखा रहा है। पूरे माओवादी आंदोलन को हम इसके द्वारा संचालित हथियारबंद कार्रवाइयों को थोड़ी देर के लिए नजर से ओझल होने दें, तो हमें यह स्पष्ट दिखेगा कि राजनीतिक तौर पर इसमें दक्षिणपंथ के तरफ किस तरह झुकाव बना हुआ है। बस हथियार को छोड़ने भर की देरी है। हथियार की चकाचौंध में दक्षिणपंथ के तरफ उनका लुढ़काव नजर नहीं आता है। यह जैसे ही हटेगा, वह खुलकर सामने आ जाएगा। अगर उनकी क्रांति असफल होती है और असंख्य बलिदान बेकार जाते हैं, तो खुले तौर पर दक्षिणपंथ की तरफ उनके लुढ़काव को कौन रोक सकेगा? देर-सवेर यह होना ही है। इसे कोई भी रोक नहीं सकेगा। इसीलिए आज हम यह कहने के लिए विवश हैं कि महान नक्सलबाड़ी आंदोलन प्रकारांतर में जिस वैचारिक-राजनैतिक दुघर्टना और भटकाव का शिकार हुआ, वे कोई मामूली भटकाव नहीं थे। वे महज भटकाव नहीं थे, अपितु, वे उस युग के भटकाव थे, जिसमें एक भारत ही नहीं, पूरा विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन शामिल था। यह कोई संयोग नहीं है कि नक्सलबाड़ी के बज्रपात के समय और उसके वर्षों बाद तक हम सबको यह महसूस होता था कि हम और हमारा आंदोलन हर तरफ से उठान पर है, जबकि वास्तविकता यह थी कि विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन अपने अंतर्य में पीछे जा रहा था। आज मुड़कर देखने वाला कोई भी संजीदा कॉमरेड इसे स्वीकार करेगा। यह खुरेश्चेव के साथ शुरू हुए प्रतिक्रियावाद की पूर्णाहुति (चीन में पूंजीवादी पुनर्स्थापना) और उसका एक चक्र पूरा होने के तरफ बढ़ते घटनाक्रम का युग और उसका परिणाम था। बाह्य तौर से हम पूरी दुनिया में आगे बढ़ रहे थे और समाजवाद विजयी हो रहा था, लेकिन असलियत में अधिकांश मामले में हम पीछे जा रहे थे। ‘नक्सलबाड़ी’ और उसका तत्कालीन नेतृत्व संपूर्णता में इसी युग का हिस्सा था और साथ में इसका शिकार भी। ‘नक्सलबाड़ी’ ने बाह्य तौर पर चाहे जो भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाले हों (और सच भी है उसने महत्वपूर्ण प्रभाव डाले हैं) या महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाली चाहे जिस भी तरह की क्षमता से लैस रहा हो, वह इस युग के अंतर्द्वंदों व भटकावों से नहीं बच सकता था। वह इस युग के अंत को लाने में सक्षम होने की शर्तें पूरी नहीं करता था। यही नक्सलबाड़ी का सबसे कमजोर पक्ष था। जो भी सम्पूर्णता में इस चीज को नहीं समझेगा, न तो नक्सलबाड़ी के महत्व को समझ सकता है, और न ही इसमें आने वाले भटकावों की सही व्याख्या ही प्रस्तुत कर सकता है। हम फिर से यह दुहरा देना चाहते हैं कि नये युग व नये परिवेश में अब नये योद्धाओं की बारी है। उन्हें अपने करतब दिखाने हैं और अपनी पुरानी क्रांतिकारी विरासत से अपने रक्तमांस सरीखे सम्बन्धों को नई कसौटी पर कसना और उसे साबित करना होगा।