फासीवाद

June 20, 2022 0 By Yatharth

फासीवाद विरोधी ताकतें, एकजुट हो!

ए सिन्हा

(सर्वहारा अखबार के फासीवाद विरोधी विशेषांक अंक-26, 15-30 नवंबर 2017 में छपा लेख)   

फासीवाद, जो सड़ते पूंजीवाद की निशानी है, आज हमारा प्रमुख और सबसे खतरनाक शत्रु बन गया है। इस सच्चाई से इनकार वही कर सकता है जो जानबूझ कर अपनी आंखों पर परदा और मुंह पर ताला लगाये हुए है। हर गुजरते दिन के साथ यह साफ होता जा रहा है कि जर्जर और हासोन्मुख पूंजीवाद ने देश को एक ऐसे नाजुक और खतरनाक दौर में पहुंचा दिया है जिसकी और कोई दूसरी मिसाल नहीं है। यह भी सच है कि यह सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है, अपितु यह एक विश्वव्यापी परिघटना का रूप ले चुका है। यूरोप से लेकर अमेरिका तक और एशिया से लेकर अफ्रीका तक पूंजीवाद के ह्रास और सड़न से उत्पन्न यह विषैला मवाद फैलता जा रहा है। इस तरह यह मानव सभ्यता को पूरे तौर पर बर्बरता और महाविनाश के अंधकारमय युग में धकेलने का प्रयास कर रहा है और बहुत हद तक इसमें सफल भी होता जा रहा है। 

भारत में यह न सिर्फ मजदूर व मेहनतकश वर्ग के विरुद्ध मुजरिमाना कार्रवाइयां कर रहा है, अपितु गरीब व मंझोले मेहनतकश किसानों, छोटे कारोबारियों तथा व्यापारियों, निम्न मध्य वर्ग, गरीब बेरोजगार नौजवानों और यहां तक कि शहरी मध्य वर्ग के हितों पर भी लगातार चोट कर रहा हैं और आर्थिक-सामाजिक तौर पर उनकी कमर तोड़ने पर आमादा है। यह बड़े पूंजीपतियों को छोड़ अन्य सभी के सम्पत्तिहरण का दौर है। 

दूसरी तरफ, यह भारतीय समाज में सदियों से चले आ रहे आपसी भाइचारे को झूठ, फरेब, हिंसा और घिनौने धार्मिक ध्रुवीकरण तथा तरह-तरह के भ्रातृघातक विषवमन के बल पर तोड़ने का काम कर रहा है। आपस में धर्म, समुदाय, जाति और क्षेत्र से ऊपर उठकर एक दूसरे से सहयोग व मुहब्बत की भावना और सहज मानवीय मूल्यों के साथ खूद जीने और दूसरों को भी जीने देने की सैंकड़ों-हजारों वर्षों से कायम परंपरा और उसके तानेबाने को यह छिन्न-भिन्न करता जा रहा है। लोगों के जनतांत्रिक अधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी, विचारधारा की स्वतंत्रता और अपने हक अधिकार के लिए आवाज उठाने की आजादी जैसी बातें आज बस कहने भर की बात रह गई है। वैसे भी जब पूरे समाज को आपसी वैमनस्य की गहरी खाई में धकेला जा रहा हो और चारों तरफ धर्म, जाति और क्षेत्र आधारित द्वेष का माहौल हो, वहां जनतांत्रिक अधिकारों और प्रगतिशीलता आदि की बातों के लिए जगह ही कहां बच जाती है!

भारत में पिछले तीन- साढ़े तीन सालों से हम देख रहे हैं कि कभी लव जिहाद, गौ-रक्षा तथा राष्ट्रवाद के नाम पर, तो कभी वंदे मातरम, राष्ट्रगान, टीपू सुल्तान और पद्मावती आदि के बहाने आर. एस. एस. से जुड़े फासिस्ट संगठन और लोग खुले तौर पर, पुलिस प्रशासन की नजर के सामने, हिंसा करते हैं, खास समुदाय के लोगों पर हमला करते हैं, अपने विरोधियों को धमकाते हैं, टेलीविजन के शो में बैठकर खुलेआम कानून को अपने हाथ में ले लेने की धमकी देते हैं, वैचारिक विषवमन से लेकर गाली-गलौज तक करते हैं, पूरे वातावरण में जहर घोलते हैं और बड़ी आसानी से सरकारी तथा प्रशासनिक कार्रवाई से भी बच निकलते हैं जबकि निर्दोष व मासूम लोग इनके द्वारा लगातार मारे जा रहे हैं। इनकी हिंसा के शिकार लोगों में आम मासूम लोगों के अतिरिक्त नामी गिरामी बुद्धिजीवी, पत्रकार, विद्वान, वकील, फिल्मकार, कलाकार, नाटककार, वैज्ञानिक, बड़े संस्थानों के छात्र व छात्रायें एवं प्रोफेसर सहित वैसे सारे लोग हैं जो इनकी विचारधारा व हिंसक कार्रवाई के मुखर विरोधी हैं। वे कोर्ट से भी बिना किसी सजा के मुक्त हो जा रहे हैं। पुलिस गवाहों और पुष्ट प्रमाणों को दरकिनार करते हुए उन्हें अपने अनुसंधान में निर्दोष साबित करने मे लगी है। प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहते हैं। लेकिन इनके मंत्री, विधायक और सांसद खुले व छुपे तौर पर इनके द्वारा जारी हिंसक गतिविधियों को किसी न किसी तरीके से जायज ठहराने में लगे रहते हैं । मीडिया, शासन व प्रशासन, न्यायालय, खुफिया तंत्र, …….यानी, सभी क्षेत्रों के ईमानदार लोग इस नये भारत में डरे व सहमे हुए हैं और अपना मुंह बंद रखने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। देश की सशस्त्र सेनाओं में भी यह विषवेली नहीं पनप रही है ऐसा मानना कठिन हो गया है। कम शब्दों में कहें तो पूरे देश में फासिस्टों की गिरफ्त पहले से कहीं अधिक सुदृढ़ होती दिख रही है।

गुजरात चुनाव में इनकी संभावित हार को देखते हुए कुछ लोग इस आशा में हैं कि इस झटके के बाद फासिस्ट सुधर जाएंगे और कांग्रेस की जीत से इन पर नकेल कसेगी। हमारा मानना है कि यह एक भ्रम है जो जल्द ही टूटेगा। भले ही आम जनता का जबर्दस्त विक्षोप भाजपा के खिलाफ हो, लेकिन जिस तरीके से गुजरात में पूरा प्रशासनिक तंत्र हर तरह के तरीके अपनाकर भाजपा को जिताने में लगा हुआ है, जिस तरह से केंद्रीय सरकार की पूरी ताकत गुजरात चुनाव में झोंक दी गई है और जिस तरह से देश के सात बड़े पूंजीपति अपनी तिजोरी खोलकर गुजरात चुनाव में पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं, उससे अव्वल तो यह लगता नहीं है कि भाजपा चुनाव हार ही जाएगी। जब स्वयं चुनाव आयोग भी अपनी साख दांव पर लगाकर भाजपा और नरेंद्र मोदी का साथ देने के लिए तैयार है तो ऐसा तय मान लेना कि गुजरात भाजपा के हाथ से निकल ही जाएगा एकतरफा और यांत्रिक ढंग से आंकलन करने की मूर्खता करना होगा। फिर भी अगर यह मान भी लें कि गुजरात हाथ से निकल गया, तब भी अनेक राज्यों में और केंद्र में इनकी सत्ता बनी रहेगी जिसके जरिये ये अपनी ताकत बढ़ाने और 2019 में आम चुनाव जीतने के लिए पूरी तरह हिंसात्मक रास्ता अपना सकते हैं, जिसका मतलब यह होगा कि हिंदू-मुस्लिम दंगों को हवा देने से लेकर उग्र राष्ट्रवाद की सवारी करके देश को सीमा पर पड़ोसियों के साथ युद्ध में धकेलने की रणनीति अपनाने तक ये कुछ भी कर सकते हैं। अगर गुजरात चुनाव ये जीत जाते हैं तो जनतांत्रिक निकायों को साधते हुए शांतिपूर्ण तरीके से फासीवादी विकास के रास्ते पर आगे बढ़ेंगे, अन्यथा गुजरात हारने पर ये निस्संदेह युद्ध, हिंसा, दमन, प्रतिशोध और ज्यादा से ज्यादा उग्र राष्ट्रवाद के द्वारा जनतांत्रिक निकायों को तोड़कर और उसके परे जाकर ये सत्ता के लिए कुछ भी करेंगे। इनकी कार्रवाई के तौर तरीके तथा शारीरिक भाषा व भाव-भंगिमा यही बता रही है। आखिर सब कुछ के बावजूद जीएसटी और नोटबंदी से मालामाल हुए देशी व विदेशी बड़े पूंजीपति घराने और वित्तीय मठाधीश, असीम सत्ता और पैसे का सुख भोग रहे मीडिया ब्यूरोक्रेसी व पूंजीवादी राजनीति के खाये अघाये आत्मकेंद्रित लोगों के हित जब तक इस फासिस्ट सरकार से पूरे होते हैं तब तक जनता का विक्षोभ इन्हें सत्ता से बेदखल करने में सक्षम होगा इस पर निश्चिंतता के साथ कुछ भी कहना असंभव है। गुजरात चुनाव के बाद ही यह तय होगा कि फासीवाद तुलनात्मक रूप से और अधिक हिंसात्मक रूप लेते हुए अपना विजयी अभियान जारी रखेगा या शांतिपूर्ण तरीके से। हां, इतना कहा जा सकता है कि जिस तरीके से इन तीन सालों में जनतांत्रिक मूल्यों और निकायों का पतन हुआ है, इन्हें जिस तरह अंदर ही अंदर ध्वस्त किया गया है और इन्हें बेकार, बेमानी और निःसार बना दिया गया है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि 2019 के बाद शायद ही जनतांत्रिक चुनावों की जरूरत हो।

फासिज्म धर्म आधारित सांप्रदायिकता से ओत-प्रोत राष्ट्रवाद, झूठे आत्म गौरव और वास्तविक इतिहास की जगह मिथकीय इतिहासबोध के आधार पर निर्मित भ्रातृघातक चेतना पर सवार हिंसक भीड़ पैदा करने वाला जनांदोलन है। भारत में फासिज्म के विजय का खतरा इसलिए भी अधिक हो गया है क्योंकि फासिस्ट विचारधारा से लैस और आरएसएस से नालनाभिबद्ध पार्टी भाजपा देश की सत्ता के शीर्ष पर काबिज है और ये ताकतें अत्यंत ही बुद्धिमता से सत्ता का दुरूपयोग कर रही हैं। यहां तक कि वे जनतांत्रिक तर्कों का भी इस्तेमाल अपने फासिस्ट मंसूबों को आगे बढ़ाने में माहिर हैं। आज जिस तरह से भाजपा की केंद्र सरकार और इसकी राज्य सरकारों द्वारा, इनके मंत्रियों सहित पूरी प्रशासनिक मशीनरी के द्वारा इन फासिस्ट संगठनों तथा इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहन और प्रश्रय दिया जा रहा है, जिस तरह से देश की तमाम जनतांत्रिक निकायों का ये अपने लिए उपयोग करते जा रहे हैं और उनका अंदर ही अंदर टेक ओवर करते जा रहे हैं, जिस तरह से इन ताकतों ने देश के न्यायालयों, संवैधानिक संस्थाओं (चुनाव आयोग सहित), खुफिया तंत्र तथा अन्य तमाम संवेदनशील संस्थाओं को किसी न किसी तरह अपने वर्चस्व में ले आने की क्षमता दिखाई है और जिस तरह से आज कोर्ट व जजों के अंदर भी इनका भय समाता जा रहा है उससे साफ जाहिर है कि देश धीरे-धीरे ही सही लेकिन शर्तिया तौर पर फासिज्म के चंगुल में पूरी तरह फंसता चला जा रहा है और अगर इसका मुखालफत नहीं किया गया और इसके खिलाफ सर्वहारा वर्ग, मेहनतकश किसान वर्ग और अन्य सभी सच्ची प्रगतिशील, जनवादी व क्रांतिकारी ताकतें एकजुट नहीं हुईं तो वह दिन दूर नहीं जब पूरा देश मुकम्मल तौर पर फासिज्म की भेंट चढ़ जाएगा। यह एक भयंकर बात होगी। एक ऐतिहासिक पश्चगमन होगा। इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए और हम निस्संदेह इसे रोकने की क्षमता रखते हैं अगर उपरोक्त ताकतें एकताबद्ध हो एक ही मंच पर आकर देश की राजनीति में दखल दें।

2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनते ही हममें से कई लोगों को यह खतरा साफ-साफ दिखने लगा था। ‘सर्वहारा’ में हम इस पर तब से ही लिखते रहे हैं। लेकिन बहुत लोग ऐसे भी थे जिन्हें यह खतरा नहीं दिखता था। आज भी कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जिनकी नजर में फासीवाद कोई गंभीर खतरा आज भी न हो। लेकिन यह सच है कि देश में अधिकांश मजदूर वर्गीय तथा प्रगतिशील ताकतों के बीच यह सहमति बन चुकी है कि फासीवाद आज एक गंभीर खतरा है और इसके विरुद्ध एकजुट होना मजदूर पक्षीय ताकतों का आज का सबसे परम कर्तव्य है। यहां से हमारा अगला कदम यह होना चाहिए कि इसके विरुद्ध एक मुकम्मल साझा रणनीति व कार्यनीति बनाई जाए । यह सभी को समझना चाहिए कि इस खतरे से आंखें चुराना और कोरा क्रांतिकारी गप्प हांकना शर्मनाक होगा।

फिर भी, अगर फासीवाद के खतरे को लेकर मजदूर वर्गीय खेमें में गंभीर मतभेद अभी भी बने हुए हैं, और फासीवाद एक गंभीर खतरा है अथवा नहीं इसे लेकर अगर अभी भी मजदूर वर्गीय शक्तियों के बीच पुराने या किसी नये तरह के भ्रम की स्थिति कायम है, तो इस पर जितनी जल्द हो खुलकर बात करनी चाहिए। कम से कम यह साफ होना चाहिए कि समझ में अंतर किस बिंदु पर है और यह अंतर किस तरह का है।

इसी उद्देश्य से हम पूरी तफसील के साथ फासीवाद को लेकर अपने विचारों तथा इसके विरुद्ध सर्वहारा वर्गीय रणनीति व कार्यनीति क्या होनी चाहिए इस पर अपनी समझ को यहां रख रहे हैं, ताकि खुलकर बहस हो सके। आखिर कहीं से तो शुरूआत हो, कुछ तो बर्फ पिघले और हम फासीवाद के खिलाफ एकता बनाने के लक्ष्य की तरफ सार्थक कदम उठा सकें।

फासीवाद और बुर्जुआ जनवाद में समानता और अंतर पर चंद बातें

सबसे पहले हमें फासीवाद को लेकर कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा करनी चाहिए। जैसे, बुर्जुआ जनवाद और फासीवाद के बीच क्या अंतर है? इसी तरह, फासीवाद के विरुद्ध पूर्व में लड़ी गई लड़ाइयों के ऐतिहासिक अनुभव क्या हैं और उसके आलोक में हम आज के लिए कौन से कार्यभार तय कर सकते हैं? इन सबके बारे में हमें कुछ ठोस बातें करनी चाहिए।

बुर्जुआ जनवाद और फासीवाद के बीच समानता यह है कि दोनो बुर्जुआ (पूंजीपति) वर्ग के ही राज्य के अलग-अलग रूप हैं। यानी, दोनों ही बुर्जुआ वर्ग, खासकर बड़े बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही हैं। उनके अलग-अलग रूप हैं।

तो फिर अंतर क्या है? अंतर यह है कि बुर्जुआ जनवाद में बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही जनवाद की खोल, यानी, जनतांत्रिक खोल, में छुपी रहती है। दूसरे शब्दों में, बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही बुर्जुआ जनवाद के अंतर्गत जनतंत्र के पर्दे के पीछे से काम करती है और इसीलिए शालीन और सभ्य दिखती है। वहीं, फासीवाद में बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही पूरी तरह नग्न, खुला और आतंकी रूप ले लेती है और जनतंत्र तथा जनवाद को पूरी तरह कुचल डालती है या फिर कुचल डालने की कोशिश करता है। फासीवाद के अंतर्गत न तो जनवाद के प्रति और न ही किसी तरह की मानवीय मूल्यों के प्रति सम्मान का भाव बचा रहता है ।

जनवाद के कुचले जाने का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार निर्मम और बर्बर हमला होता है। किसी विशेष जाति व धर्म पर आधारित उग्र राष्ट्रवाद का प्रचार व प्रसार अत्यंत तीव्र हो जाता है। आम जनता को उग्र राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द संगठित करना और इसे एक राजनीतिक मुहिम का रूप देने की लगातार कोशिश करना फासीवाद का एक प्रमुख लक्षण होता है। इसीलिए राजनीतिक रूप से फासीवाद एक अति प्रतिक्रियावादी जनांदोलन होता है। हमारे बोलने की आजादी, अपने तरीके से रहने, जीने और जीवन साथी चुनने की आजादी, खानपान के मामले में अपने मनोनुकूल भोजन का चुनाव करने की आजादी, सरकार का विरोध करने और उसके जनविरोधी कदमों का प्रतिरोध करने की आजादी, यहां तक कि अपने तरीके से सोचने और अपनी विचारधारा चुनने की आजादी पर हमला करना व करवाना तथा राज्य मशीनरी को धीरे- धीरे बाहर खड़ी फासिस्ट भीड़ के साथ एकाकार कर देना फासीवाद राज्य की सर्वाधिक लाक्षणिक विशेषता है। अत्यंत सुनियोजित तरीके से हमारी अभिव्यक्ति की आजादी को राष्ट्र व देश विरोधी घोषित करना फासीवादी कार्यनीति का मुख्य और केंद्रीय एजेंडा होता है। तथाकथित रूप से एक नया गौरवशाली और विश्वविजयी राष्ट्र के निर्माण की बात करना और इसके मुख्य कर्ता के रूप में किसी विशेष जाति और धर्म को सामने लाना, फिर इससे जड़े काल्पनिक प्रतीकों को जनमानस में बैठा कर वैज्ञानिक सोच व समझ को कुंद करना इसका मुख्य लक्ष्य होता है। इसलिए हम पाते हैं कि बुर्जुआ जनवादी शासन के दौरान जनवादी अधिकारों पर किये गये हर हमले से (जो कि प्रत्येक बुर्जुआ राज्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है) फासीवाद के पनपने की जमीन तैयार होती है। इसलिए बड़ा बुर्जुआ वर्ग के अधीन बुर्जुआ जनवादी राज्यों में फासीवाद के तरफ बढ़ने की आम प्रवृति पायी जाती है जो पूंजीवाद के परिपक्व होते जाने के साथ और भी मजबूत होती जाती है। परिपक्व होता पूंजीवाद लगातार गहरे रूप से संकटग्रस्त भी होता जाता है और एक खास मुकाम के बाद फासीवादी राज्य की तरफ कदम बढ़ाना और फासीवादी विचारधारा को आगे बढ़ाना इसके जीवित रहने की मुख्य शर्त बन जाता है। आज भारत सहित पूरे विश्व की स्थिति ऐसी ही बन चुकी है। लेनिन लिखते हैं-

“जनवादी गणतंत्र पूंजीवाद की यथासंभव सबसे बेहतरीन राजनीतिक खोल है, और इसलिए जब एक बार पूंजीवाद अपने इस खोल में चला जाता है तो वह अपनी सत्ता को पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्थापित कर लेता है, इतने सुरक्षित तरीके से कि व्यक्तियों, संस्थाओं या पार्टियों की इस जनवादी गणतंत्र में होने वाली कोई भी अदला-बदली इसकी सत्ता को हिला नहीं सकती।”

(A democratic republic is the best possible political shell for capitalism, and, therefore, once capital has grasped this very best political shell…, it establishes its power so securely, so surely, that no change, either of persons, of institutions, or of parties in the bourgeois-democratic republic, can shake this power.) (Lenin, State and Revolution)

फासीवाद के बारे में दिमित्रोव लिखते हैं-

“सत्ता मे फासीवाद का उत्थान एक बुर्जुआ सरकार की जगह दूसरी बुर्जुआ सरकार की साधारण अदला-बदली नहीं है, अपितु बुर्जुआ वर्ग के वर्गीय प्रभुत्व के एक रूप, यानी, बुर्जुआ जनवाद की जगह इसके दूसरे रूप, यानी, खुली आतंकी तानाशाही की प्रतिस्थापना है। 

(The accession to power of fascism is not an ordinary succession of one bourgeois government by another, but a substitution for one state form of class domination of the bourgeoisie – bourgeois democracy – of another form-open terrorist dictatorship.) (Dimitrov, United Front Against Fascism)

दिमित्रोव द्वारा दी गई फासीवाद की यह परिभाषा इस बात को रेखांकित करती है कि गहराते पूंजीवादी संकट के प्रति बुर्जुआ वर्ग की राजनीतिक प्रतिक्रिया आम बुर्जुआ जनवादी राज्य के मुकाबले काफी बदल जाती है। यानी, जब पूंजीवाद गहरे, दीर्घकालीन और बड़े आर्थिक संकट में फंस जाता है, जो उसकी नियति है, तो वह जनवाद और जनतंत्र के उस खोल को उतार फेंकने की तरफ बढ़ता है जिसमें रहते हुए वह सबसे सुरक्षित तरीके से अपने को स्थापित करता है और जो उसकी सबसे स्वाभाविक राजनीतिक खोल है। लेनिन की साम्राज्यवाद की थेसिस में मौजूद वित्तीय पूंजी की व्याख्या में इसे समझने की कुंजी मौजूद है और इसके आधार पर ही दिमित्रोव फासीवाद के बारे में उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुंचे थे जिसे कामरेड स्तालिन का समर्थन प्राप्त था। फासीवाद के बारे में उपरोक्त समझ को पूरे विश्व के कम्युनिस्टों ने ही नहीं, जनवादियों और प्रगतिवादियों ने भी, यहां तक कि बुर्जुआ जनवादियों ने भी माना और आज भी मानते हैं। आज भी फासीवाद की सबसे सटीक परिभाषा इसे ही माना जाता है।

लेनिन की मृत्यु 21 जनवरी 1924 को हो गयी थी। उधर इटली में मुसोलिनी 1922 में ही सत्ता पर काबिज हो चुका था। नवंबर 1922 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की चौथी काँग्रेस संपन्न हुई जिसमें लेनिन बीमार होने के कारण सदेह उपस्थित नहीं हो सके थे और इसीलिए उन्होंने इसमें एक लिखित वक्तव्य भेजा था। इस वक्तव्य में उन्होंने मुसोलिनी के उत्थान को और इटैलियन फासिज्म को रूसी ब्लैक हंडरेड की तरह की चीज कहा था। (देखें कलेक्टेड वर्क्स 33 पृष्ठ 431) वहीं उस कांग्रेस में इसके बारे में इस आशय का प्रस्ताव पास हुआ था कि फासिस्ट मुख्यत: बड़े जमींदारों के हथियार और उनके जरखरीद गुलाम हैं। शहरों के कमर्शियल तथा इंडस्ट्रीयल पूंजीपति इससे काफी चिंताकुल थे और उन्होंने इसे ब्लैक बोल्शेविज्म कहा था। इस तरह कम्युनिस्ट इंटरनेशनलन की उक्त कांग्रेस ने इसे एग्रेरियन रिएक्शन के रूप में चिंहित किया था। 1923 में इंटरनेशनल ने ‘संकट में बुर्जुआ राज्य : फासीवाद’ के नाम से एक और रिपोर्ट पेश किया। इसमें पुराने वक्तव्य से अलग हटकर फासीवाद को परिभाषित करने की कोशिश की गई। लेकिन अस्पष्टता कायम रही। हालांकि इस बार इसे एग्रेरियन रिएक्शन से कुछ अधिक कहा गया।

आज यह स्पष्ट है कि फासीवाद बड़े पूंजीपति वर्ग और वित्तीय पूंजी की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक अभिव्यक्ति है। बुर्जुआ जनतंत्र के माध्यम से लागू की जा रही बुर्जुआ तानाशाही और फासिज्म के माध्यम से लागू होने वाली बुर्जुआ तानाशाही में बुनियादी अंतर है जिसे नहीं समझना और इन दोनों के बीच के गुणात्मक फर्क को नजरअंदाज करना काफी खतरनाक है। दिमित्रोव लिखते हैं-

“इस फर्क को नजरअंदाज करना एक भारी भूल होगी, एक ऐसी गलती जो क्रांतिकारी सर्वहारा को फासीवादियों द्वारा सत्ता पर कब्जा किये जाने के विरुद्ध शहर और देहात के मेहनतकशों के व्यापक संस्तरों को संगठित करने, उन्हें लामबंद करने तथा पूंजीपति वर्ग के खेमे में मौजूद अंतरविरोध का लाभ उठाने से रोकेगा।”

(It would be a serious mistake to ignore this distinction, a mistake which would prevent the revolutionary proletariat from mobilizing the broadest strata of the toilers of town and country for the struggle against the menace of the seizure of power by the fascists, and from taking advantage of the contradictions which exist in the camp of the bourgeoisie itself.)

दिमित्रोव इस बात का भी जवाब देते हैं कि फासीवाद किसी घोषित तिथि पर या पूर्व निर्धारित लक्षण के साथ नहीं आएगा। उस जमाने में भी फासीवाद के लक्षणों और उसके आगमन को लेकर वैसा ही भ्रम फैला हुआ था जैसा कि पिछले तीन सालों से भारत में फैला हुआ है। हालांकि आज कल, मोदी के शासन के साढ़े तीन साल बीतने के बाद, हमारे बीच समझ थोड़ी ज्यादा स्पष्ट हुई है, लेकिन फासीवाद के विरुद्ध कम्युनिस्ट कार्यनीति को लेकर आलस्यपूर्ण दक्षिणपंथी भटकाव की तस्वीर आंदोलन के अधिकांश हिस्से में बिल्कुल स्पष्ट तौर से उभरती है। भारत में अक्सर यह पूछा जाता है कि इसका टिपिंग प्वाइंट, यानी, वह कौन सी चीज, लक्षण या स्थिति है जिसके दिखते ही कहेंगे कि फासीवाद आ चुका है। यह दिखाता है कि हमारे आज के मतभेद लगभग वहीं हैं जो कल थे, यानी, हिटलर के समय थे। जाहिर है, ऐसे प्रश्नों का जवाब भी वही होगा जैसा कि दिमित्रोव के समय में दिया गया था। उन्होंने कहा था-

“कॉमरेडो! फासिज्म का सत्ता में आने को इस तरह सरलीकृत और सपाट रूप में नहीं लेना चाहिए मानो वित्तीय पूंजी की कोई एक या दूसरी कमिटी ने किसी एक तय तारीख को फासिस्ट तानाशाही स्थापित करने का फैसला ले लिया। वास्तव में, फासिज्म प्राय: पुरानी बुर्जुआ पार्टियों या इनके किसी खास हिस्से के साथ हुए आपस के कटु संघर्ष के दौर से गुजर कर, यहां तक कि फासिस्ट कैंपों के अंदर के आपस के संघर्ष से गुजरकर, वैसे संघर्षों के दौर से गुजरकर सत्ता में आता है जो अक्सर हथियारबंद संघर्ष में बदल जाता है जैसा कि हमने जर्मनी, आस्ट्रिया और दूसरे देशों में देखा है। फिर भी, ये सभी चीजें हमारा ध्यान इस सच्चाई से नहीं हटातीं कि फासिस्ट तानाशाही कायम होने के पहले बुर्जुआ सरकारें प्राय: विभिन्न तरह की प्रारम्भिक तैयारियों की मंजिलों से गुजरती हैं और कई तरह की प्रतिक्रियावादी कदम उठाती हैं जो प्रत्यक्षत: फासिज्म को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने को आसान बनाते हैं। जो भी इन प्रतिक्रियावादी कदमों और फासीवाद के विकास की शुरूआती अवस्था में ही इससे संघर्ष नहीं करेगा, वह कभी भी फासिज्म की विजय को रोकने की स्थिति में नहीं होगा, अपितु, इसके विपरीत, वह इसकी विजय को आसान बनायेगा।”

(“Comrades, the accession to power of fascism must not be conceived of in so simplified and smooth a form, as though some committee or other of finance capital decided on a certain date to set up a fascist dictatorship.In reality, fascism usually comes to power in the course of a mutual, and at times severe, struggle against the old bourgeois parties, or a definite section of these parties, in the course of a struggle even within the fascist camp itself-a struggle which at times leads to armed clashes, as we have witnessed in the case of Germany, Austria and other countries. All this, however, does not detract from the fact that before the establishment of a fascist dictatorship, bourgeois governments usually pass through a number of preliminary stages and institute a number of reactionary measures which directly facilitate the accession to power of fascism. Whoever does not fight the reactionary measures of the bourgeoisie and the growth of fascism at these preparatory stages is not in a position to prevent the victory of fascism, but, on the contrary, facilitates that victory. (Dimitrov, United Front Against Fascism, New Century Publishers, pp. 8-9)

दिमित्रोव का आशय यहां स्पष्ट है कि फासिज्म के विजय और उसके आगमन को लेकर किसी खास दिन और किसी खास टिपिंग प्वांइट के होने या न होने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात समझना है कि पूंजीवादी संकट से निपटने के लिए बड़ा बुर्जुआ वर्ग का पॉलिटिकल और इकोनॉमिक रिएक्शन क्या हो रहा है और इससे बुर्जुआ जनतंत्र को धीरे-धीरे या तेजी से, यानी, किसी न किसी , तरह, नष्ट किया जा रहा है या नहीं। यानी, हमें पूरी प्रक्रिया पर नजर डालनी चाहिए।

दिमित्रोव जब फासिज्म के विरुद्ध संयुक्त मोर्चे की बात करते हैं तो यह शुरू से ही साफ है कि उनकी रणनीति से में वर्ग-संघर्ष शामिल है। उनकी रणनीति में संयुक्त मोर्चा राष्ट्रीय ओर अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर होते हुए मुख्य रूप से जमीनी स्तर पर होगा, फैक्टरियों, खदानों और खेत-खलिहानों में होगा और इस मोर्चे की मुख्य दिशा पूंजी के विरुद्ध होगी। उनकी नजर में मुख्य रूप से संयुक्त मोर्चा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मजदूर वर्ग की राजनीतिक हैसियत इससे बढ़ती है और वह एक संपूर्ण वर्ग की हैसियत से फासिस्टों के विरुद्ध लड़ाई मे अपने को ला पाता है। दिमित्रोव लिखते हैं –

“साथियो! पूंजीवादी देशों के लाखों मजदूर और मेहनतकश यह सवाल पूछ रहे हैं; फासिज्म को सत्तारूढ़ होने से कैसे रोका जा सकता है तथा सत्ता प्राप्त कर लेने के बाद फासिज्म को कैसे उखाड़ फेंका जा सकता है? इसके जवाब में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल कहता है; जो चीज सबसे पहले की जानी चाहिए, जिस चीज के साथ शुरूआत की जानी चाहिए, वह यह है कि एक संयुक्त मोर्चा बनाया जाए, हर कारखाने में, हर जिले में, हर इलाके में, हर देश में, संपूर्ण विश्व में मजदूरों की कार्रवाई की एकता कायम की जाए। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर सर्वहारा की कार्रवाई की एकता ऐसा शक्तिशाली हथियार है जो मजदूर वर्ग को फासिज्म के खिलाफ, वर्ग शत्रु के खिलाफ, न सिर्फ सफल आत्म रक्षा करने बल्कि सफल जवाबी हमला करने में भी सक्षम बनाती है।”

“Comrades, millions of workers and toilers of the capitalist countries ask the question: how can fascism be prevented from coming to power and how can fascism be overthrown after it has been victorious? To this the Communist International replies: the first thing that must be done is to form a united front, to establish unity of action of the workers in every factory, in every district, in every region, in every country all over the world. Unity of action of the proletariat on a national and international scale is the mighty weapon which renders the working class capable not only of successful defense but also of successful counter-offensive against fascism, against the class enemy.” 

दिमित्रोव आगे लिखते हैं-

“इसके भी पहले कि मजदूर वर्ग का बहुसंख्यक भाग पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने और सर्वहारा क्रांति का विजयी बनाने के लिए संघर्ष में एकताबद्ध हो, यह जरूरी है कि मजदूर वर्ग के सभी हिस्सों की, चाहे वो जिस पार्टी या संगठन के हों, कार्रवाई की एकता कायम हो।

 क्या अलग-अलग देशों में और संपूर्ण विश्व में सर्वहारा की कार्रवाई की इस एकता को कायम कर सकना संभव है? हां, यह संभव है। यह इसी क्षण संभव है। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल कार्रवाई की एकता के लिए एक के अलावा और कोई शर्त नहीं रखता, और वह भी सभी मजदूरों को स्वीकार्य एक प्रारंभिक शर्त है, अर्थात यह कि कार्रवाई की एकता फासिज्म के खिलाफ, पूंजी के हमले के खिलाफ, युद्ध के खतरे के खिलाफ, वर्ग-शत्रु के खिलाफ निर्दिष्ट हो। यह हमारी शर्त है।”

“The establishment of unity of action by all sections of the working class, irrespective of their party or organizational affiliation, is necessary even before the majority of the working class is united in the struggle for the overthrow of capital is the victory of the proletarian revolution.

Is it possible to realize this unity of action by the proletariat in the individual countries and throughout the whole world? Yes, it is. And it is possible at this very moment. The Communist International attaches no conditions to unity of action except one, and that is an elementary condition acceptable for all workers, viz, that the unity of action be directed against fascism, against the offensive of capital, against the threat of war, against the class enemy. This is our condition.” (pp. 28-29, emphasis Dimitrov)

यहां एक बात बहुत साफ है कि दिमित्रोव की थेसिस के दो अर्थ हैं। पहला तो यह कि दिमित्रोव फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में इस तरह के एक संयुक्त मोर्चे की जरूरत को रेखांकित कर रहे हैं। वहीं, उनकी थेसिस में मौजूदा संयुक्त मोर्चा की रणनीति में यह भी शामिल है कि इसी संयुक्त मोर्चे के जरिए पूंजीवाद को उखाड़ के लिए जरूरी सर्वहाराओं की समग्र एकता हासिल की जा सकती है। दूसरे अर्थों में, सर्वहाराओं और मजदूर वर्ग की विशाल संख्या को अपनी ओर ले आना और क्रांति के लिए तैयार कर लेने की रणनीति भी इसी संयुक्त मोर्चे की रणनीति में शामिल है। दिमित्रोव इस बात का भी जवाब देते हैं कि जब द्वितीय इंटरनेशनल की पार्टियां अभी भी वर्ग सहयोग की लाइन पर चल रही हैं तो आखिर किसलिए और किस तरह के बदलावों के आधार हम उन्हें फासीवाद के विरुद्ध मोर्चे में शामिल करना जरूरी समझते हैं। वे लिखते हैं-

“A process of differentiation is taking place in all the Social Democratic Parties. Within their ranks two principal camps are forming: side by side with the existing camp of reactionary elements, who are trying in every way to preserve the bloc between the Social-Democrats and the bourgeoisie, and who furiously reject a united front with the Communists, there is beginning to form a camp of revolutionary elements who entertain doubts as to the correctness of the policy of class collaboration with the bourgeoisie, who are in favor of the creation of a united front with the Communists and who are increasingly coming to adopt the position of the revolutionary class struggle.”

आम तौर पर यह कहा जाता है कि दिमित्रोव ने फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में ली जाने वाली नीतियों के संदर्भ में कम्युनिस्ट पार्टियों की आलोचना की थी। इसे भी हमें गंभीरता से लेना चाहिए। दिमित्रोव कहते हैं-

“We cannot avoid referring also to a number of mistakes committed by the Communist Parties, mistakes that hampered our struggle against fascism.

In our ranks there were people who intolerably underrated the fascist danger, a tendency which has not everywhere been overcome to this day.

Of this nature was the opinion formerly to be met within our parties to the effect that “Germany is not Italy, meaning that fascism may have succeeded in Italy, but that its success in Germany was out of the question, because the latter was an industrially and culturally highly developed country, with forty years of traditions of the working class movement in which fascism was impossible. Or the kind of opinion which is to be met nowadays, to the effect that in countries of “classical” bourgeois democracy the soil for fascism does not exist.”