हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के कमांडर-इन-चीफ शहीद क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की स्मृतियां

August 3, 2022 0 By Yatharth

शिव वर्मा

हम सबको एक कछार में छिप कर बैठने का आदेश देकर स्थिति को आंकने के ख्याल से राजगुरु के साथ आजाद मढ़ी में चले गये और आदरपूर्वक बाबा को सिर नवाकर भक्तों की टोली में शरीक हो गये। नियमानुसार चिलम उनके सामने भी आयी और यद्यपि उन्होंने जीवन में चरस क्या कभी बीड़ी तक को होंठों से नहीं लगाया था, फिर भी उन्होंने बगैर किसी हिचक के चिलम पी, दम लगायी और राजगुरु की ओर बढ़ा दी। फिर सारी स्थिति को भांपकर लगभग बीस मिनट बाद वे कछार में हमारे पास वापस आ गये और चलने का इशारा करते हुए बोले, “ऐक्शन नहीं होगा”। “क्यों?” एक साथी ने प्रश्न किया।

“क्योंकि इसमें दो-चार को जान से मारे बगैर सफलता की गुंजाइश नहीं है। और इस छोटे से काम के लिए हम किसी की जान नहीं लेना चाहते। फिर यह भी तय नहीं है कि जिस चीज के लिए हम आये हैं वह इसके पास होगी ही।” “हमें किसी से लड़की थोड़े ही ब्याहनी है, मारने से ही काम चलता है तो मार देंगे”, स्थानीय साथियों में से एक ने उत्तर दिया। उस व्यक्ति ने तथा उसके एक और साथी ने कपड़े से अपना सारा चेहरा इस तरह छिपा रक्खा था कि उनकी आंखों के अलावा और कुछ भी दिखायी नहीं देता था। उन्होंने सरों पर बड़ी-बड़ी पगड़ियां बांध रक्खी थीं और अन्धेरी रात में उस लिबास में वे दोनों बड़े भयावने लग रहे थे।

“इन्हें कौन लाया है?” आजाद ने गरजकर पूछा। उनका हाथ सहसा अपनी पिस्तौल पर चला गया। “यह पेशेवर लोग हैं, क्रान्तिकारियों से इनका क्या सरोकार?” यह कहकर उन्होंने मेरी ओर देखा। मैंने उत्तर में उस साथी की ओर देखा जो उन्हें ले आये थे किन्तु वातावरण पर छायी खामोशी को भंग करने का साहस किसी को न हुआ। फिर कुछ देर चुप रहकर स्वयं ही बोले, “चलो।”

……

इस सम्बन्ध में भगवानदास माहौर ने ‘यश की धरोहर’ में एक घटना का वर्णन किया है जो विशेष उल्लेखनीय है। झांसी के मास्टर रुद्रनारायण के द्वारा आजाद का परिचय बुन्देलखण्ड के कुछ राजाओं और ठाकुरों से भी हो गया था। इनमें से कुछ को आजाद ने अपना सही परिचय भी बता दिया था। झांसी के पास एक राज्य के सरदार के यहां भी ये कुछ दिन रहे और वहां पर उन्होंने झांसी के पार्टी सदस्यों को निशाना लगाना, शिकार करना आदि की शिक्षा का प्रबन्ध किया। इस राज्य के तत्कालीन राजा से सरदार साहब और उनके कुछ अन्य साथी रुष्ट थे और उन्हें मार्ग से हटा देना चाहते थे। उन्होंने अपने अभीष्ट के लिए (सम्भवतः उनका व्यक्तिगत स्वार्थ ही प्रवत्त था) जाहिर उद्देश्य बड़े आदर्शपूर्ण बना रखे थे। उन्होंने आजाद के द्वारा यह काम करवाना चाहा और उसके लिए पार्टी को बहुत सा धन मिल जाने का प्रलोभन दिया। आजाद पहले यूं ही हूं-हां करते रहे। दल से सहानुभूति रखने वाले एक सज्जन ने भी आग्रह किया कि क्या हर्ज है, राजा को उड़ा दिया जाये और रुपया दल के लिए ले लिया जाये। उनका तर्क था कि जब धन के लिए शुद्ध डकैतियां तक कर ली जाती हैं और उनमें कभी खून भी हो जाता है, सो भी बिल्कुल निर्दोषों का तो यदि इस निकम्मे, विलासी, दुराचारी राजा को उड़ाकर धन ले लिया जाये तो बुरा क्या है। दल के सदस्यों के साथ व्यवहार और बातचीत में आजाद बड़े स्पष्टवादी और कट्टर सिद्धान्तवादी रहते थे परन्तु बाहरवालों के साथ, विशेषतः दल के साथ सहानुभूति रखने वालों के साथ, उनका व्यवहार बड़ा ही मोहक और कूटनीतिपूर्ण रहता था। जहां तक सम्भव हो वे कभी ऐसी बात नहीं कहते या करते थे जिससे दल से सहानुभूति रखने वालों को बुरा लगे। अतएव इस प्रस्ताव को उन्होंने उनके सामने भी यों ही हंसकर और उसकी कुछ कठिनायां और बुराइयां बताकर टाल दिया। परन्तु जब दल के सदस्यों में से किसी ने इस प्रस्ताव के समर्थकों के तर्क पर विचार करने को कहा तो आजाद बड़ी दृढ़ता और घृणा से बोले, “हमारा दल आदर्शवादी क्रान्तिकारियों का दल है, देशभक्तों का दल है, हत्यारों का नहीं। पैसे हों चाहे न हों, हम लोग भूखे पकड़े जाकर फांसी भले चढ़ा दिये जायें परन्तु ऐसा घृणित कार्य हम लोग नहीं कर सकते।”

कहने का तात्पर्य यह कि आजाद न तो पेशेवर डकैतों को साथ लेकर राजमाताओं के भाड़े के टट्टुओं की भांति दूसरों को लूटते फिरते थे और न ही किसी के प्राण लेकर उन्हें खुशी होती थी। उनके दिल में तो समस्त मानव जाति के लिए श्रद्धा और आदर का अगाध भण्डार था। यह सही है कि हम लोग सशस्त्र क्रान्ति के रास्ते पर थे। लेकिन उस क्रान्ति का मुख्य उद्देश्य था मानव मात्र के लिए सुख और शान्ति का वातावरण तैयार करना। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ हमारा उद्देश्य था और इस नाते मनुष्य मात्र के प्राणों से हमें गहरा मोह था। हम व्यवस्था के विरोधी थे, व्यक्तियों के नहीं। व्यक्तियों से हमारा टकराव उसी हद तक था जिस हद तक वे असमानता पर आधारित उस समय की सामाजिक अथवा राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिनिधि बन कर आते थे। व्यक्तिगत खून-खराबा हमारा उद्देश्य नहीं था। फिर आजाद तो उन लोगों में थे जिन्हें मांस देखकर बेचारे बेगुनाह मासूम बकरे की शक्ल याद आने लगती थी।

और सच बात तो यह है कि जिसकी आंखों में सबके लिए आंसू नहीं और जिसके हृदय में सबके लिए प्यार नहीं वह शोषक और अत्याचारी से घृणा भी नहीं कर सकता- अन्त तक उससे जूझ भी नहीं सकता। हिंसा और अहिंसा एक ही चित्र के दो पहलू हैं जो समय और परिस्थिति के अनुसार अपना रूप बदलते रहते हैं। जो काम एक समय हिंसा जान पड़ता है वही बदली हुई परिस्थिति में अहिंसा बन जाता है। और जिस पर एक समय हम अहिंसा कहकर नाज करते हैं वही दूसरी हालात में हिंसा बन जाता है। आजाद में इस दोनों रूपों का गजब का समन्वय था। और मैं समझता हूं यहां पर वे हम सबसे बड़े थे।

लिखने-पढ़ने के मामले में आजाद की सीमाएं थीं। उनके पास कॉलेज या स्कूल का अंग्रेजी सर्टिफिकेट नहीं था और उनकी शिक्षा हिन्दी तथा मामूली संस्कृत तक ही सीमित थी। लेकिन ज्ञान और बुद्धि का ठेका अंग्रेजी जानने वालों को ही मिला हो ऐसी बात तो नहीं है। यह सही है कि उस समय तक समाजवाद आदि पर भारत में बहुत थोड़ी पुस्तकें थीं और वे भी केवल अंग्रेजी में ही। आजाद स्वयं पढ़कर उन पुस्तकों का लाभ नहीं उठा सकते थे लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आजाद उस ज्ञान की जानकारी के प्रति उदासीन थे। सच तो यह है कि केन्द्र पर हम लोगों से पढ़ने-लिखने के लिए जितना आग्रह आजाद करते थे उतना और कोई नहीं करता था। वे प्रायः ही किसी न किसी को पकड़कर उससे सिद्धान्त सम्बन्धी अंग्रेजी की पुस्तकें पढ़वाते और हिन्दी में उसका अर्थ करवाकर समझने की कोशिश करते। कार्ल मार्क्स का ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ दूसरी बारी आदि से अन्त तक मैने आजाद को सुनाते समय ही पढ़ा था।’

भगतसिंह और सुखदेव के आ जाने पर सैद्धान्तिक प्रश्नों पर खासतौर पर बहस छिड़ जाती थी। हमारा अन्तिम उद्देश्य क्या है, देश की आजादी से हमारा क्या मतलब है, भावी समाज कैसा होगा, श्रेणी रहित समाज का क्या अर्थ है, आधुनिक समाज के वर्ग संघर्ष में क्रान्तिकारियों की क्या भूमिका होनी चाहिए, राजसता क्या है, कांग्रेस किस वर्ग की संस्था है, ईश्वर, धर्म आदि का जन्म कहां से हुआ आदि प्रश्नों पर बहस होती और आजाद उसमें खुलकर भाग लेते थे। ईश्वर है या नहीं इस पर आजाद किसी निश्चित मत पर पहुंच पाये थे, यह कहना कठिन है। ईश्वर की सत्ता से इनकार करने वाले घोर नास्तिक भगतसिंह की दलीलों का विरोध उन्होंने कभी नहीं किया। अपनी ओर से न उन्होंने कभी ईश्वर की वकालत की और न उसके पीछे ही पड़े।

शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी-रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की बातों ने उन्हें मुग्ध-सा कर लिया था और समाजवाद की जिन बातों को जिस हद तक वे समझ पाये थे उतने को ही आजादी के ध्येय के साथ जीवन के सम्बल के रूप में उन्होंने पर्याप्त मान लिया था। वैज्ञानिक समाजवाद की बारीकियों को समझे बगैर भी वे अपने-आप को समाजवादी कहने में गौरव अनुभव करने लगे थे। यह बात आजाद ही नहीं, उस समय हम सब पर लागू थी। उस समय तक भगतसिंह और सुखदेव को छोड़कर और किसी ने न तो समाजवाद पर अधिक पढ़ा ही था और न मनन ही किया था। भगतसिंह और सुखदेव का ज्ञान भी हमारी तुलना में ही अधिक था। वैसे समाजवादी सिद्धान्त के हर पहलू को पूरे तौर पर वे भी नहीं समझ पाये थे। यह काम तो हमारे पकड़े जाने के बाद लाहौर जेल में सन 1929-30 में सम्पन्न हुआ। भगतसिंह की महानता इसमें थी कि वे अपने समय के दूसरे लोगों के मुकाबले राजनीतिक और सैद्धान्तिक सूझबूझ में काफी आगे थे।

आजाद का समाजवाद की ओर आकर्षित होने का एक और भी कारण था। आजाद का जन्म एक बहुत ही निर्धन परिवार में हुआ था और अभाव की चुभन को व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने अनुभव भी किया था। बचपन में भावरा तथा उसके इर्द-गिर्द के आदिवासियों और किसानों के जीवन को भी वे काफी नजदीक से देख चुके थे। बनारस जाने से पहले कुछ दिन बम्बई में उन्हें मजदूरों के बीच रहने का अवसर मिला था। इसीलिए, जैसा कि वैशम्पायन ने लिखा है, किसानों तथा मजदूरों के राज्य की जब वे चर्चा करते तो उसमें उनकी अनुभूति की झलक स्पष्ट दिखायी देती थी ।

आजाद ने 1922 में क्रान्तिकारी दल में प्रवेश किया था। उसके बाद से काकोरी के सम्बन्ध में फरार होने तक उन पर दल के नेता पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल का काफी प्रभाव था। बिस्मिल आर्यसमाजी थे और आजाद पर भी उस समय आर्यसमाज की काफी छाप थी। लेकिन बाद में जब दल ने समाजवाद को लक्ष्य के रूप में अपनाया और आजाद ने उसमें मजदूरों-किसानों के उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा पहचानी तो उन्हें नयी विचारधारा को अपनाने में देरी न लगी।

आजाद हमारे सेनापति ही नहीं थे। वे हमारे परिवार के अग्रज भी थे जिन्हें हर साथी की छोटी से छोटी आवश्यकता का ध्यान रहता था। मोहन (बी. के. दत्त) की दवाई नहीं आयी, हरीश (जयदेवको) की आवश्यकता है, रघुनाथ (राजगुरु) के पास जूता नहीं रहा, बच्चू (विजय) का स्वाथ्य ठीक नहीं है आदि उनकी रोज की चिन्ताएं थीं।

दिल्ली में जब निश्चित रूप से यह फैसला हो गया कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ही असेम्बली में बम फेंकने जायेंगे तो मुझे और जयदेव को छोड़कर बाकी सब साथियों को आदेश दिया गया कि वे दिल्ली से बाहर चले जायें। आजाद को झांसी जाना था। जब वे चलने लगे तो मैं स्टेशन तक उनके साथ हो लिया। वे रास्ते में बोले, “प्रभात, अब कुछ ही दिनों में यह दोनों (उनका मतलब भगत सिंह और दत्त से था) देश की सम्पत्ति हो जायेंगे। तब हमारे पास इनकी याद भर रह जायेगी। तब तक के लिए मेहमान समझकर इनकी आराम तकलीफ का ध्यान रखना।” उस दिन रास्ते भर वे भगतसिंह और दत्त की ही बातें करते रहे। वे भगतसिंह को इस काम के लिए भेजने के पक्ष में नहीं थे। सुखदेव और भगतसिंह की जिद के सामने सिर झुका कर ही उन्होंने वह फैसला स्वीकार किया था, लेकिन अन्दर से भगतसिंह को खोने के विचार से वे दुखी थे।

आजाद के बारे में अधिकांश लोगों ने या तो कल्पना के सहारे लिखा है या फिर दूसरों से सुनी सुनायी बातों को एक जगह बटोरकर रख दिया है। कुछ लोगों ने उन्हें जासूसी उपन्यास का नायक बना उनके चारों ओर तिलिस्म खड़ा करने की कोशिश की है। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अपने को ऊंचा  दिखाने के ख्याल से उन्हें निरा जाहिल साबित करने की कोशिश की है। फलस्वरूप उनके बारे में तरह-तरह की ऊलजलूल धारणाएं बन गयी है – उनमें मानव सुलभ कोमल भावनाओं का एकदम अभाव था, वे केवल अनुशासन का डण्डा चलाना जानते थे, वे क्रोधी एवं हठी थे, किसी को गोली से उड़ा देना उनके बायें हाथ का खेल था, उनके निकट न दूसरों के प्राणों का मूल्य था न अपने प्राणों का कोई मोह, उनमें राजनीतिक सूझ-बूझ नहीं के बराबर थी, उनका रुझान फासिस्टी था, पढ़ने-लिखने से उनकी पैदाइशी दुश्मनी थी आदि। कहना न होगा कि आजाद इनमें से कुछ भी न थे और जाने-अनजाने उनके प्रति इस प्रकार की धारणाओं को प्रोत्साहन देकर लोगों ने उनके व्यक्तित्व के प्रति अन्याय ही किया है।

जिन लोगों ने उन्हें फासिस्ट कहा है उन्होंने उनकी चन्द ऊपरी खूबियों को ही देखा है। असली आजाद तथा उनके अन्दर हमेशा जगने वाले आदर्श को या तो उन्होंने समझा ही नहीं अथवा समझकर भी न समझने का प्रयत्न किया है। अहिंसा में अविश्वास, मध्य श्रेणी का आतंक, सेना की प्रधानता आदि फासिज्म की ऊपरी बातें हैं। आजाद को अहिंसा में विश्वास न था, मध्य श्रेणी में उनका जन्म हुआ था और वह बचपन से फौजी तबीयत के थे। लेकिन क्या इतने से ही उन्हें फासिस्ट का खिताब दिया जा सकता है? मेरी समझ में ऐसा करना आजाद और फासिज्म दोनों के प्रति नासमझी का सबूत देना होगा। फासिज्म का उद्देश्य है क्रान्ति के आगे बढ़ते हुए पहिये को पीछे की ओर खींचना, साम्राज्यवाद की शक्ति को मजबूत करना तथा जन समुदाय को धोखा देकर पूंजीवाद को मरने से बचाना। आजाद अथवा उनकी संस्था के बारे में इनमें से एक भी बात नहीं कही जा सकती। ये तो साम्राज्यवाद के कहर शत्रु थे और पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर समाजवाद की स्थापना उनके जीवन का उद्देश्य था ।

आजाद के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ लोगों की धारणा है कि वे बड़े कठोर, अक्खड़ और हठी थे। यह बात भी गलत है। दल के अन्दर केन्द्रीय समिति के फैसलों पर अपना फैसला लादने की उन्होंने एक बार भी कोशिश नहीं की। हां, सेनापति के नाते काम के समय वे बड़ी सख्ती से पेश आते थे और शायद इसी को बढ़ा-चढ़ाकर दिखलाने की कोशिश में लोगों ने उन्हें पत्थरदिल समझ लिया होगा। उन्हें अपने साथियों से बेहद प्यार था। उनका जीवन बड़ा ही सादा और उनकी अपनी निजी आवश्यकताएं बहुत कम थीं।

(स्रोत : ‘स्मृतियां – क्रांतिकारी शहीदों के संस्मरणात्मक रेखाचित्र’ का एक अंश)