‘अंबेडकर गांव में एडम स्मिथ’:

September 17, 2022 0 By Yatharth

क्या पूंजीवादी बाजार दलितों को असली आजादी देता है?

एम असीम

श्री चंद्रभान प्रसाद सुविज्ञात बुद्धिजीवी हैं। फिलहाल वे अमरीकी जॉर्ज मेजन विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं। उन्होंने दलितों की जाति-उत्पीड़न से मुक्ति के सवाल पर विस्तृत लेखन किया है। 12 अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया की ‘इंडिया@75’ शृंखला में उनका ‘जब एडम स्मिथ अंबेडकर गांव में पहुंचे’ लेख प्रकाशित हुआ है। इसका उपशीर्षक है, ‘अपने ग्रामीण घर पर लौटे दलित ने पाया, बाजार शक्तियां दलितों को असली आजादी देती हैं।’ श्री प्रसाद ने 2008 में अर्थशास्त्री देवेश कपूर के साथ एक प्रोजेक्ट पर, और फिर हाल में कुछ दिन पहले, उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल (जिला आजमगढ़) में अपने ननिहाल तोफापुर की यात्राओं में 1965 के अपने बचपन के गांव में पूंजीवादी आर्थिक सुधारों के जरिए हुए कायापलट का वर्णन करते हुए इससे दलितों को मिली आजादी का वर्णन किया है। 

पूंजीवादी बाजार का दलितों के जीवन पर प्रभाव

चंद्रभान जी के बचपन के वक्त इस गांव में मुश्किल से आधा दर्जन स्वनिर्भर दलित परिवारों के अतिरिक्त सभी लगभग भूदास जैसा जीवन बिताते थे। अक्टूबर-नवंबर व मार्च-अप्रैल के बुआई-कटाई के मौसम में उन्हें सुबह साढ़े तीन बजे उठकर काम पर लग जाना पड़ता था। इस संक्षिप्त अखबारी लेख में वे इतना ही लिख पाए। पर जिन्हें भी कुछ दशक पहले के देहाती जीवन का थोड़ा भी पता है वे अधिक लिखे बगैर भी जानते ही हैं कि उस दौर के गांवों में दलितों का जीवन कितना कष्टसाध्य था।

तीन दशक से भी अधिक अंतराल पर 2008 में गांव लौटने पर वे इसका पूरी तरह कायापलट हुआ पाते हैं। बाग कम हो गए, बच्चों ने चूहे मारना छोड़ दिया और दलितों के कच्चे घर ईंटों के हो गए। कुछ दलित पहले ‘उच्च जातियों’ का विशेषाधिकार रही मूंछें भी उगाने लगे थे। प्रवास जोरों पर था – 3 दर्जन दलित फरीदाबाद, सूरत, मुंबई, कुछ नागपूर भी, जैसे शहरों में जा चुके थे। जाति निरपेक्ष व्यवसाय फल-फूल रहे थे और भूस्वामियों पर दलितों की निर्भरता समाप्ति की ओर थी। दलितों की आर्थिक स्थिति में आए परिवर्तन से कुछ द्वारा आरामदायक पेशे अपना लेने के सबूत के तौर पर उन्हें कुछ दलितों की तोंदें भी बढ़ी मिलीं।

तोफापुर की पिछले दिनों की एक और यात्रा को तो वे अत्यंत शिक्षाप्रद मानते हैं। तिपहरी में वहां पहुंचने पर उन्हें कुछ बुजुर्ग दलित स्त्री-पुरुष चाय-पकौड़ों के लिए पास के बाजार जाते मिले। सबके पैरों में चप्पल थीं और किसी की ऐडियों में बिवाइयां नहीं फटीं थीं। किशोर जींस पहने थे और दो बार के ग्राम प्रधान मनिका सरोज मुताबिक 70% दलित बच्चे पास के निजी पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। अपने बचपन के तजुर्बे के साथ तुलना करते हुए श्री प्रसाद लिखते हैं कि तब शादियां तय होते वक्त होने वाले दूल्हे के परिवार की तारीफ में बताया जाता था कि “इस परिवार की औरतें जमींदारों के खेत और घर काम करने नहीं जातीं हैं।” किंतु अब कोई दलित स्त्रियां पूर्व-जमींदारों के घर काम के लिए नहीं जातीं। कुछ बूढ़ी दलित स्त्रियां हीं धान रोपाई का काम करती हैं। वे भी नकद मजदूरी लेकर घर लौटती हैं। 175 दलित मजदूरों में से 4 ही बटाई पर खेती करते हैं और श्री प्रसाद की टिप्पणी है, ‘कुछ दलितों को डायबिटीज भी होने लगा है।’ 

चंद्रभान जी बताते हैं कि कुछ तब्दीलियां शब्दों में बयान करनी मुश्किल हैं। उन्हें वे ही समझ सकते हैं जिन्होंने पहले और अब दोनों को देखा है। गांव की तीन बस्तियों में दलितों की तीन रोजमर्रा की जरूरी चीजों की दुकानों में फेयर एंड लवली, टूथ ब्रश व पेस्ट, शैम्पू व हेयर ऑइल पाउच, अंडे, नहाने के साबुन, यहां तक कि जन्मदिन पार्टियों के लिए टोपियां व गुब्बारे भी बिकते हैं। सदियों-हजारों साल से वंचित-उत्पीड़ित जीवन बिताने को विवश दलितों के जीवन में इस बड़ी तबदीली पर वे कहते हैं, ‘तोफापुर के दलित एक सदी और एक महाद्वीप का फासला तय कर आए हैं।’ 

चंद्रभान जी ने इस बदलाव पर गांव के ‘उच्च’ जाति वालों से भी बात की। वे अब भी पुरानी बातों को याद करते हैं कि कैसे बारात आने पर दूल्हे के परिवार द्वारा फेंके सिक्कों को उठाने दलित इकट्ठा होते थे – “अब जमाना बदल चुका है।” “अब प्रजा आजाद हो गई है। दलितों को अब हमारे सिक्के नहीं चाहियें।” “दलित दूल्हे अब नोटों की माला पहनते हैं।” चंद्रभान जी इसे रक्तहीन क्रांति करार देते हैं। पर इस रक्तहीन क्रांति की वजह क्या है? प्रवास तथा जाति-निरपेक्ष पेशे। इस गांव के 16 दलित खाड़ी देशों में काम करते हैं, 125 औद्योगिक केंद्रों पर प्रवास कर गए हैं, 44 हर रोज आजमगढ़ जिला केंद्र पर काम करने जाते हैं, अन्य 44 छोटे निर्माण स्थलों पर कार्यरत हैं तो 7 छोटे व्यवसाय चलाते हैं।  

भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने पर अध्ययनकर्ताओं द्वारा तोफापुर तथा ऐसे अन्य गांवों में दलितों के जीवन में आए इस रूपांतर को नजरअंदाज करने के बजाय इन्हें देखने, स्वीकारने व स्वागत करने पर चंद्रभान जी जोर देते हैं। उनके अनुसार तोफापुर मात्र ‘अंबेडकर निवास’ ही नहीं (पूंजीवादी नवउदारवादी) ‘आर्थिक सुधारों द्वारा जन्मा उछल-कूद करता शिशु’ भी है। उनकी नजर में जहां अंबेडकर स्वतंत्रता के दार्शनिक हैं वहीं एडम स्मिथ पूंजीवाद के दार्शनिक हैं, और इन दोनों, अंबेड़करवाद व पूंजीवाद का मिलन ही दलितों को जाति की जकड़न से असली आजादी प्रदान करेगा। अतः वे खास तौर पर 1990 के दशक में आरंभ हुए नवउदारवादी पूंजीवादी आर्थिक सुधारों का खुला स्वागत करते हैं।  

‘ब्लैक’, व ‘दलित’, कैपिटलिज्म 

जाति अत्याचार की जकड़न से दलितों की मुक्ति का अत्यंत गंभीर सवाल एक सदी से अधिक बहस का विषय है। इसलिए हमने इस लेख का इतने विस्तार से उल्लेख किया। चंद्रभान जी के इस संबंधी विचार पहले से सुविज्ञात हैं कि पूंजीवादी मुक्त बाजार की शक्तियों का अधिकाधिक विकास ही भारत की जाति व्यवस्था की जकड़न को तोड़ कर दलितों को मुक्त कर सकता है। इसके लिए वे अमरीकी ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ की तर्ज पर ‘दलित कैपिटलिज्म’ का विचार भी प्रस्तुत करते रहे हैं अर्थात दलितों में से बड़ी संख्या में पूंजीपतियों का उभार होने से दलित सिर्फ कामगार न रहकर काम देने वाले मालिक बन जाएंगे। अतः वे एक दलित चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ (डिक्की) की स्थापना में भी प्रमुख भूमिका निभा चुके हैं। वे एक दलित स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना का प्रयास भी करते रहे हैं।   

उनके विचारों की समीक्षा पूर्व ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ से ‘ब्लैक लाईव्ज मैटर’ की विडंबना पर कुछ बातें जरूरी हैं। 1950-60 के दशक में अमरीका में नस्लवाद विरोधी सिविल राइट्स आंदोलन जोर पकड़ा। इसमें ब्लैक व अन्य गैर-श्वेत नस्लीय पहचान वालों के आर्थिक-सामाजिक शोषण और दूसरे दर्जे का जबर्दस्त विरोध करते हुए उन्हें ऐतिहासिक वंचना से मुक्त करने हेतु समान नागरिक अधिकारों के साथ ही सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रमों – आवास, रोजगार, शिक्षा, आदि  की बात मजबूती से उठाई जाने लगी। इससे श्वेत नस्लवादी बहुत नाराज थे। तब 1968 में रिचर्ड निक्सन के चुनाव अभियान के आर्थिक सलाहकार एलन ग्रीनस्पैन ने ब्लैक आंदोलन को “मुक्त व्यवसाय व व्यक्ति अधिकारों की अमरीकी व्यवस्था पर हमला” करार देते हुए ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ का नारा उछाला। उनके अनुसार ब्लैक लोगों के पिछड़ेपन और उनकी अलग बस्तियों (घेट्टो) का “कुदरती” हल पूंजीवाद ही है। इसके लिए सार्वजनिक कार्यक्रमों के बजाय कर्जों और टैक्स प्रोत्साहनों के जरिए ब्लैक व्यवसायों को प्रोत्साहन देकर उन्हें भी पूंजीवादी होड में अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाना चाहिए। ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ की नीति ने ब्लैक व अन्य वंचित नस्ली पहचान वालों के कल्याण कार्यक्रमों की जिम्मेदारी से अमरीकी सत्ता को मुक्त कर उन्हें खुद अपने ‘उत्थान’ का जिम्मेदार बना दिया। इसने ब्लैक समुदायों में कुछ को अमीर बनने की लालसा में फंसा विरोध आंदोलन की एकता को तोड़ दिया। उधर श्वेत नस्लवादी भी निक्सन के समर्थन में आ गए। वे ब्लैक जनता की ऐतिहासिक वंचना से मुक्ति हेतु सार्वजनिक कार्यक्रमों के सख्त खिलाफ थे, क्योंकि श्वेत पूंजीपतियों को गरीब-वंचित ब्लैक अत्यंत सस्ते मजदूर के तौर पर उपलब्ध थे। निक्सन ने राष्ट्रपति बनने पर ऑफिस ऑफ माइनोरिटी बिजनेस इंटरप्राइज बनाया। 1979 में कार्टर प्रशासन ने उसका नाम माइनोरिटी बिजनेस डेवलपमेंट एजेंसी कर दिया। रीगन, क्लिंटन, ओबामा से डोनाल्ड ट्रंप तक सब राष्ट्रपति व्यवसाय व टैक्स प्रोत्साहन के जरिए ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ की इस नीति को विभिन्न तरह से आगे बढ़ाते रहे हैं।      

निश्चय ही कुछ ब्लैक छोटे-बड़े व्यवसायों के द्वारा पूंजीपति वर्ग की कतारों में शामिल भी हुए। कई ब्लैक बड़े कॉर्पोरेट व अमरीकी सत्ता संस्थानों के शीर्ष पर पहुंचे। मनोरंजन व खेलों के जरिए भी कुछ ब्लैक प्रसिद्ध व अमीर बने। और, बराक ओबामा प्रथम ब्लैक राष्ट्रपति भी बने। वित्तीय पूंजीवाद की अपनी प्रक्रिया से बैंक ऋणों में हुए जबर्दस्त विस्तार के जरिए भी ब्लैक समुदाय में काफी लोगों का जीवन स्तर सुधरा। वे मकान-कार एवं अन्य उपभोक्ता वस्तुएं खरीद सके। किंतु अमरीकी पूंजीवाद का आर्थिक संकट जैसे ही चरम पर पहुंचने लगा, उसका सर्वाधिक शिकार भी ब्लैक समुदाय ही हुआ – मजदूर, मध्यम वर्ग, छोटे कारोबारी, आदि सभी। ब्लैक समुदाय को सबप्राइम कर्ज देकर पूंजीपतियों ने खूब मुनाफा कमाया। किंतु 2007-08 के वित्तीय संकट में ब्लैक परिवारों की 53% संपदा नष्ट हो गई। बड़े पैमाने पर ब्लैक बेरोजगारी व गरीबी में धकेले गए। इसके बाद जिस वक्त ओबामा राष्ट्रपति थे, पुलिस द्वारा बढ़ती ब्लैक हत्याओं की घटनाएं सामने आने लगी। डोनाल्ड ट्रम्प के काल में तो ‘ब्लैक लाईव्ज मैटर’ जैसा आंदोलन खड़ा हुआ।  उस दौरान ब्लैक ही नहीं अमरीकी मूल निवासियों, हिस्पानिक, एशियाई, आदि के साथ भेदभाव और उधर व्हाइट सुप्रिमेसिस्ट प्रतिक्रिया व नस्लवादी संगठनों के मजबूत होने की बातें बड़े पैमाने पर सामने आईं। अर्थात कुछ ब्लैक, हिस्पानिक, एशियाईयों के पूंजीपति बन जाने से नस्लवाद की परिघटना पर कोई खास आंच आती दिखाई नहीं दी। न सिर्फ मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक संकट का सर्वाधिक शिकार ब्लैक व अन्य अल्पसंख्यक समुदाय बने हैं, अमरीकी समाज में श्वेत प्रभुत्ववादी फासिस्ट रुझान के दोबारा उभार का निशाना भी वे ही बन रहे हैं। चंद्रभान जी खुद अमरीकी यूनिवर्सिटी से शोधकर्ता के रूप में संबद्ध हैं। इस विडंबना पर संभवतः उनका ध्यान गया ही होगा। पर इस संबंध में उनके विचार हमें मालूम नहीं।  

सामंतवाद से पूंजीवाद के रूपांतरण में दलितों को मिली आजादी       

ऐतिहासिक रूप से भारत की खेती-दस्तकारी वाली सामंती अर्थव्यवस्था के श्रम विभाजन जाति व्यवस्था के रूप में, डॉ अंबेडकर के शब्दों में कहें तो ‘श्रमिकों का भी विभाजन’, रूढ़ हो गया था। हर व्यक्ति का उत्पादन, और वितरण, में स्थान जन्मजात तय था। ईस्ट इंडिया कंपनी के औपनिवेशिक शासन ने इस दीर्घकालिक जाति (वर्ग) आधारित उत्पादन व्यवस्था को तगड़ा झटका दिया। इसने न सिर्फ इसके शीर्ष पर सामंतों – शाहों-नवाबों-राजाओं – को अंग्रेज व्यापारियों-बैंकों द्वारा पदस्थापित कर दिया, बल्कि इसके नए भूमि बंदोबस्त ने हर स्थिति में अधिकाधिक मुमकिन लगान उगाहने वाली नई जमींदारी व्यवस्था स्थापित की। इसने ग्रामीण किसान-दस्तकार-मेहनतकश जनता के उत्पीड़न को चरम पर पहुंचाया और उनकी कमर पूरी तरह तोड़ जमींदारों-सूदखोरों का गुलाम बना दिया। जोतिबा फुले जैसे विचारकों (किसान का कोड़ा) से प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों (गोदान) तक ग्रामीण जीवन पर टूटी इस विपत्ति का वर्णन हमें मिलता है। इसने एक और करोड़ों को शिकार बनाने वाले अकालों-महामारियों को जन्म दिया, तो वहीं हर ओर लाखों की तादाद में अपने देहाती घरों से उजड़कर कंगाल-बरबाद जनता के भारत में नए उभरते शहरी व्यापारिक-औद्योगिक केंद्रों के कारखानों-खानों-बंदरगाहों-बागानों से एशिया-अफ्रीका-कैरिबियाई देशों के चाय, रबर, गन्ना बागानों में गिरमिटिया व प्रवासी बनकर जाने को विवश किया। एक तरफ जहां ये पुरातन जीवन का बरबादी व उजड़ना था, तो वहीं इसने परंपरागत जाति आधारित श्रम विभाजन वाले पेशों से नवीन पेशों में जाने की राह भी खोली और उत्पीड़ित जनता में से कुछ हेतु नूतन शिक्षा व ज्ञान-विज्ञान के रास्ते भी खोले।  

औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद 1947 में सत्ता पाए पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि कांग्रेस ने पूंजीवादी विकास को आगे बढ़ाया। भूमि संबंधों में ‘सुधारों’ के जरिए सामंतवाद का स्थान पूंजीवादी उत्पादन संबंधों ने ले लिया अर्थात सामंती जमींदार ही पूंजीवादी जमींदारों में तब्दील हो गए। इससे खेतीबाड़ी में दिहाड़ी मजदूरों की भूमिका बढ़ने लगी। साथ ही औद्योगिक और सेवा क्षेत्र का विस्तार भी हुआ। आज देश के कुल घरेलू उत्पादन का लगभग 60 प्रतिशत सेवा क्षेत्र से, 27 प्रतिशत उद्योग से और 13 प्रतिशत खेतीबाड़ी से आता है। निश्चय ही इस पूंजीवादी विकास के कारण अथाह भौतिक प्रगति हुई है। कभी अनाज की कमी से जूझ रहा भारत अब घरेलू जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा कर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बेचता भी है। यह प्रगति तरह-तरह के उद्योगों, तेजी से शहरीकरण, बड़े अस्पतालों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, ऊंची इमारतों, चौड़ी सड़कों, परिवहन और बुनियादी ढांचे की भरमार के रूप में स्पष्ट दिखाई देती है। इस पूंजीवादी विकास ने उत्पादक व्यवस्था में सामंतवाद को अतीत की चीज बना दिया और भारत की 60% आबादी पूर्ण या अर्धकालिक उजरती मजदूर बन चुकी है। इस प्रक्रिया में ग्रामीण मेहनतकशों का एक बड़ा भाग परंपरागत जाति आधारित खेती-दस्तकारी के पेशों से नए पेशों में जा पुराने सामंती-पितृसत्तात्मक आर्थिक संबंधों से मुक्त होकर नए पूंजीवादी बाजार का हिस्सा बन गया। आज दलित जातियों का सिर्फ सबसे गरीब लाचार हिस्सा पूंजीवादी आर्थिक संकट के गहराते जाने की वजह से नए रोजगार पाने में वंचित हो आर्थिक मजबूरी से परंपरागत पेशों में बचा रह गया है, इसलिए नहीं कि उस पेशे को छोड़ने से रोका जा रहा है। 

उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में चंद्रभान जी के लेख में एक गांव के अनुभवों का जो वर्णन है वह कमोबेश अधिकांश भारत के लिए सच है। पूंजीवाद ने सामंती भूदासता व जातिगत पेशों के बंधन से मुक्तकर दलितों को पूंजीवादी बाजार के उजरती मजदूरी बनाकर उत्पीड़ित जातियों की जनता को खुली हवा में सांस लेने की आजादी दी है।  यह सच में बहुत बड़ा परिवर्तन है। इस सच्चाई से इंकार करना नामुमकिन है। पर यह भी सच है कि 1947 पश्चात पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार के दौर में दलितों सहित सभी मेहनतकशों के जीवन में बहुत सी भौतिक-सांस्कृतिक सुविधाएं व उपलब्धियां आईं हैं, जिनका वर्णन इस लेख में किया गया है। पर उनके लेख से एक और बात भी स्पष्ट है जिसकी पुष्टि सभी सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण भी करते हैं – चंद अपवाद अमीर पूंजीपतियों व एक छोटे से मध्यम वर्ग को छोड़कर दलितों का अधिकांश हिस्सा आज भी संपत्तिहीन मेहनतकश ही है, वह मालिक वर्ग में शामिल नहीं हुआ। पूंजीवादी विकास ने दलितों को सामंती बंधनों से आजादी तो जरूर दी है पर वह आजादी सिर्फ इतनी है कि वे पूंजीवादी व्यवस्था में उजरती मजदूर बन सकें।   

किंतु सच क्या इतना ही सुनहरा है? 

लेकिन चंद्रभान जी इस बात को नजरंदाज करते हैं कि मात्र उत्पीड़ित जनता की अपनी निरपेक्ष सामाजिक स्थिति के आधार पर ही यह तय नहीं किया जा सकता कि शोषण-उत्पीड़न कम या समाप्त हो गया है। उसके लिए शासक व शासित वर्गों की तुलनात्मक स्थिति जानना जरूरी है। चंद्रभान जी कहते हैं कि दलितों के कच्चे घर अब ईंटों के पक्के घर बन गए हैं। इस संबंध में हम मार्क्स की बात याद करते हैं, “घर चाहे छोटा हो या बड़ा, जब तक उसके आसपास के घर भी उतने ही छोटे होते हैं, तब तक घर के लिए समस्त सामाजिक मांग उससे पूरी हो जाती है। लेकिन इस छोटे-से घर की बगल में एक महल खड़ा हो जाने दीजिये, तब वह छोटा-सा घर घर न रहकर झोपड़ा बन जायेगा। अब यह छोटा-सा घर यह जाहिर करेगा कि उसके मालिक की मांग बहुत कम है, या नहीं के बराबर है। और फिर, सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह छोटा-सा घर चाहे जितना ऊंचा उठ जाये, यदि वह पड़ोस का महल भी उतना ही या उससे भी अधिक ऊपर उठता जाता है, तो इस अपेक्षाकृत छोटे घर में रहनेवाला व्यक्ति उसकी चारदीवारी के भीतर अपने को अधिकाधिक बेचैन, असन्तुष्ट और जकड़ा हुआ महसूस करेगा।” (उजरती श्रम और पूंजी) अतः देखना होगा कि पूंजीवादी आर्थिक विकास व सुधारों से दलितों के जीवन में आए परिवर्तन ने क्या उन्हें समाज के शासक वर्ग के समकक्ष ला खड़ा किया है या शासक वर्गों के समक्ष उनकी स्थिति आज भी वही है जो एक कच्ची मिट्टी के घर से तब्दील होकर ईंटों से बने पक्के घर की एक विशाल महल के समक्ष होती है।  

भारत के पूंजीवादी विकास को देखें तो पूंजीवादी व्यवस्था की विशेषता अनुसार ही विकास का फल मुख्यतया मुट्ठी-भर पूंजीपति वर्ग को ही मिला है। यह शासक वर्ग अपनी सेवा के लिए केंद्र और राज्य में सरकार बनाने के लिए अपनी पार्टियों में से किसी एक को चुनता है। सरकार, नौकरशाही, न्यायपालिका और कानूनी व्यवस्था सहित पूरा राज्यतंत्र इस वर्ग की सेवा में लगा हुआ है। देश की ज्यादातर कामकाजी आबादी आज भी दिन-रात मेहनत करने के बावजूद दो समय की रोटी के लिए मोहताज है। गरीबी, बदहाली, बेरोजगारी और महंगाई इनकी नियति बन गई है। दिन में 10-15 घंटे तक काम करने वाले देश के 55 करोड़ से अधिक की आबादी वाले मजदूर वर्ग द्वारा बनाई गई कुल संपत्ति में मजदूरी के रूप में उन्हें जो हिस्सा मिलता है, वह लगातार घट रहा है। इसी का नतीजा है कि आज देश में एक तरफ अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, तो दूसरी तरफ़ गरीब और ज्यादा गरीब होते जा रहे हैं। देश की केवल ऊपर की 1% आबादी के पास ही देश की 58% संपत्ति इकट्ठा हो गई है और ऊपर की 10% आबादी के पास 80% से अधिक संपत्ति है। उधर तली की 60% आबादी लगभग संपत्तिहीन ही नहीं, कर्ज में डूबी है। सभी सर्वेक्षण बताते हैं कि दलित जातियों का अधिकांश हिस्सा इस 60% संपत्तिहीन आबादी में ही आता है। इस मजदूर-मेहनतकश आबादी के बढ़ते आर्थिक शोषण के साथ-साथ उनके पूर्व के संघर्षों से प्राप्त संवैधानिक अधिकार भी लगातार छीने जा रहे हैं। तब क्या हम वास्तव में कह सकते हैं कि पूंजीवादी सुधारों ने दलितों को असली आजादी दी है और इनकी बढ़ती गति उन्हें जाति उत्पीड़न से पूर्ण मुक्ति देगी? क्या तथ्य वास्तव में ऐसा बताते हैं? हाल के सालों में, खास तौर पर संघ के उभार के बाद, जाति उत्पीड़न की घटनाओं में हुई वृद्धि तो इसकी पुष्टि नहीं करती।  

जाति उत्पीड़न से दलितों की असली आजादी का सवाल 

‘गुलामगिरी’ से ‘किसान का कोड़ा’ तक और हंटर आयोग को प्रतिवेदन से कांग्रेस अधिवेशन में निमंत्रण के जवाब तक जोतिबा फुले भारत के जनवादीकारण के एक विचार को बीज रूप में पेश कर रहे थे जो भारत के पुराने-नए अभिजात वर्ग के स्वार्थों की पूर्ति के बरक्स मजदूर-किसानों व समस्त उत्पीडित-वंचित जनता की मुक्ति के स्वप्न को पेश कर रहा था। यह विचार विकसित होकर मजदूर-किसानों के नेतृत्व में जनवादी क्रांति का विचार बना। भारत में इस रूप में जनवादी क्रांति कामयाब होती तो नीचे से मेहनतकश जनता के विद्रोही तूफान में सामंती उत्पादन व संपत्ति संबंधों के साथ ही सामंती आभिजात्य के वे सभी विशेषाधिकारों भी नेस्तनाबूद हो जाते, जाति एवं पितृसत्ता जिसके विशिष्ट रूप हैं। परंतु यह ‘क्रांति’ भारतीय पूंजीपतियों के हाथ में सत्ता हस्तांतरण तक सीमित रह गई। इस पूंजीपति वर्ग ने सामंती आभिजात्य के साथ उसके विशेषाधिकारों की हरमुमकिन हिफाजत और साम्राज्यवादी पूंजी के साथ उसके हितों पर न्यूनतम चोट करने का समझौता कर लिया। 

सामंती विशेषाधिकारों के खात्मे और समाज के जनवादीकरण में अहम हैं सामाजिक जीवन के अधिकाधिक क्षेत्रों में सबके लिए सार्वजनिक व्यवस्थायें। फुले ने इसीलिए औपनिवेशिक सत्ता व देशी सामंती-बुर्जुआ आभिजात्य के बीच समझौते वाली शिक्षा व्यवस्था के बजाय सबके लिए समान सार्वजनिक शिक्षा की बात पर इतना जोर दिया। आवास, शिक्षा, रोजगार, स्वच्छता, चिकित्सा, यातायात, मनोरंजन, खेल-कूद, आदि की सार्वजनिक व सार्वत्रिक व्यवस्थायें सबसे वंचित उत्पीडित जनता को ही सर्वाधिक लाभान्वित करती हैं। साथ ही ये सार्वजनिक व्यवस्थाएं आभिजात्य विशेषाधिकारों को तोडने का औजार हैं। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि स्कूल-अस्पताल आदि सार्वजनिक होते ही भेदभाव व उत्पीड़न समाप्त हो जाता है। पर इन्हें सबका अधिकार घोषित करना ऐसा करने की बुनियाद तो रखता ही है। दलित-वंचित जन भेदभाव व उत्पीड़न के खिलाफ लडने में अधिक सक्षम कहां हैं – सार्वजनिक स्कूल-अस्पताल आदि में या महंगे निजी संस्थानों में? एक सही माने में जनवादी क्रांति के कार्यक्रम में ऐसी सार्वजनिक व्यवस्थाओं की बात अवश्य प्राथमिकता से शामिल होतीं। 

किंतु औपनिवेशिक शासन व भारत का भावी बुर्जुआ शासक अत्यंत चतुर थे। वहीं भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सहित जनवादी शक्तियां वैचारिक रूप से अत्यंत कमजोर एवं स्वतंत्र राजनीतिक लाइन लेने में अक्षम थीं। वह फुले, गदर पार्टी, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के जरिए पल्लवित होते इस विचार के अनुरूप राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष पर मजदूर-किसानों का नेतृत्व कायम करने में नाकाम रही और गांधी-नेहरू-पटेल के चतुर बुर्जुआ नेतृत्व की पिछलग्गू मात्र बन कर रह गई। कांग्रेस का यह बुर्जुआ नेतृत्व हिंदू-ब्राह्मण पुनरुत्थानवादी विचार के प्रभाव में था या उससे समझौते करता था। वह समाज के चौतरफा जनवादीकरण की हिमायत में नहीं था। यह भावी शासक वर्ग सबके लिए सार्वजनिक व्यवस्थाओं के सवाल को कुछ के लिए आरक्षण तक सीमित कर देने में कामयाब रहा। हालांकि आरक्षण अपने आप में अग्रगामी व प्रगतिशील कदम था, पर अपने चरित्र से ही यह ‘कुछ’ को ही लाभ दिला सकता था, सबको नहीं। और ‘कुछ’ वंचितों में से भी हों तब भी वे सभी वंचितों के लिए सार्वत्रिक अधिकारों के विकल्प नहीं हो सकते, भेदभाव के अन्याय व उत्पीड़न की समाप्ति का आधार नहीं बन सकते। लेकिन आबादी के 11% बुर्जुआ-सामंती आभिजात्य द्वारा निर्वाचित संविधान सभा इस में कामयाब रही कि उसने मात्र आरक्षण देकर सार्वजनिक-सार्वत्रिक व्यवस्थाओं की प्रत्येक मांग को साफ नकार दिया। फिर भी यह सही है कि आरक्षण व संविधानिक शासन के पहले तीन दशकों तक पूंजीवादी बाजार के विस्तार ने दलितों-वंचितों के लिए जकड़न को कुछ हद तक कमजोर किया और उनमें से बहुतों को एक नवीन जीवन के अवसर उपलब्ध कराए।

पूंजीवाद संकट, इजारेदारी व नवउदारवादी दौर  

परंतु 1980 आते-आते ही चौतरफा पूंजीवादी विस्तार और औद्योगीकरण की संभावनाएं चुक गईं। कॉर्पोरेट इजरेदारियां हावी होने लगीं। इन्होंने राज्य के साथ मिलकर पूंजीपति वर्ग का प्रत्याक्रमण शुरू किया, जिसे नवउदारवाद भी कहा जाता है। इसमें ‘उदारवाद’ किसी वास्तविक उदारता का परिचायक नहीं है। यह संपत्ति मालिकों के लिए अपनी संपत्ति बढाने के लिए कुछ भी करने की ‘लिबर्टी’ से बने ‘लिबरल’ का हिंदी अनुवाद है। लिबरल या उदारवादी बुनियादी तौर पर संपत्तिहीन को नागरिक का हकदार नहीं मानते अर्थात राज्य उनके लिए नागरिक अधिकारों-व्यवस्थाओं हेतु जिम्मेदार नहीं। उनके पास एक संपत्ति है उनका शरीर अर्थात शरीर की श्रम करने की क्षमता। वह सब संपत्तिवानों की तरह ही अपनी उस संपत्ति का इस्तेमाल कर जीवित रहें अर्थात अपने शरीर के काम करने की क्षमता को दूसरे की खिदमत में बेचकर जीवित रहें। लिबरल जनतंत्र में सबको यही एक समान नागरिक अधिकार है! इस विचार से प्रेरित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों में सभी सार्वजनिक व्यवस्थाओं को समाप्त किया जा रहा है। निजीकरण अपने चरम पर है। हालांकि इसे बिना अधिक प्रतिरोध स्वीकार करा लेने के लिए कुछ किलो अनाज जैसे सीमित काम भी होते रहते हैं। 

मेहनतकश जनता के और भी विपन्न होते जाने की इस प्रक्रिया का सर्वाधिक दुष्प्रभाव ऐतिहासिक रूप से दलित-वंचित समुदायों की मेहनतकश जनता व छोटे काम-धंधे करने वालों पर ही होता है। क्योंकि वे पहले से ही सर्वाधिक कमजोर स्थिति में हैं। मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानून, आदि अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने की जो तीव्र नीतियां अपनाई हैं उनसे भी अनौपचारिक क्षेत्र के सभी छोटे कारोबारों के बरबाद व दिवालिया होने की प्रक्रिया तेज हो गई है। कोविड लॉकडाउन ने इसकी रफ्तार को तेज किया है। निजीकरण के जरिए दलितों को मिला आरक्षण का सीमित अधिकार भी निरंतर छीना जा रहा है। भयावह बेरोजगारी के दौर में जो रोजगार उपलब्ध हैं, वे भी औद्योगिक क्षेत्र में नहीं जो उन्हें श्रमिकों की संगठित संघर्ष की ताकत से लैस करते थे। अभी अधिकांश रोजगार कूरियर, डिलीवरी, ड्राइवर, मेड, वाचमैन जैसे संपन्न तबके की खिदमत के नये रूपों वाले असंगठित व गिग इकॉनमी के क्षेत्र में हैं, जहां वे एक दूसरे के साथ ही होड में पडकर मालिकों के फीडबैक और दया पर निर्भर हो जाते हैं। भारतीय पूंजीवाद चौतरफा औद्योगीकरण में असमर्थ है। अतः यहां काम करने लायक उम्र के मात्र 40% से भी कम किसी रोजगार में हैं। बेरोजगारों की बड़ी फौज के कारण हर क्षेत्र में मजदूरी दर निरंतर गिर रही है। अति कुशल मजदूरों के एक छोटे हिस्से का वेतन जरूर बढ़ रहा है। परंतु उसमें शामिल होने के लिए जरूरी उच्च शिक्षा बहुत महंगी और अधिकांश दलितों की पहुंच से बाहर है।

भू-संपदा तो पहले से ही पुराने आभिजात्य के एक हिस्से के हाथ में केंद्रित थी जिसमें मुख्यतः सवर्ण व मध्यवर्ती जाति समुदाय ही शामिल हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने सारी संपत्ति को अत्यधिक संकेंद्रित कर दिया है – 10% के पास 80% से अधिक। आबादी के इस शीर्ष हिस्से की संपन्नता बढती ही जा रही है और नीचे विपन्नता का अंधकार। हाल की एक खबर अनुसार 10 लाख रु से अधिक कीमत की कारों या 40 हजार से अधिक कीमत के मोबाइल की बिक्री जहां 38-40% बढ रही है वहीं सस्ते मोबाइल, दुपहिया वाहन, सस्ती कारों की बिक्री घट रही है। ऐसा ही नमक, आटे, सस्ते चावल जैसी कुछ बेहद जरूरी चीजों के अतिरिक्त हर सामान के बारे में देखा जा सकता है। इस पूरी प्रक्रिया का सर्वाधिक खामियाजा समाज के किस हिस्से को भुगतना पड़ रहा है?

पूंजीवादी व्यवस्था के अंतहीन आर्थिक संकट का यह दौर अघाए अमीरों व असहाय मेहनतकशों के बीच वर्ग विरोध को तीखा कर रहा है। सामंती आभिजात्य के पुराने विशेषाधिकारों व सवर्णवादी जाति गौरव के विचार से मिलकर यह सामाजिक उत्पीड़न को एक नये दौर में ले जा रहा है। इसमें शोषक उत्पीडक दलक वर्ग श्रेष्ठता बोध से मदोन्मत्त व हमलावर है। फासीवादी राजनीति के उभार में इस तबके का यह गुंडई-दबंगई गालीबाज उन्मत्त रूप विभिन्न रूपों में प्रदर्शित होता है चाहे वह बढ़ती जाति उत्पीड़न की घटनाएं हों; स्त्री विरोधी अपराध हों; अल्पसंख्यकों पर हमले व लिंचिंग हों; उग्र व अंध राष्ट्रवाद हो; आईटी, एकेडेमिक्स, पत्रकारिता, फाइनेंस, जैसे आधुनिक ‘बौद्धिक’ पेशों तक में जाति-लैंगिक उत्पीड़न हो; नस्ली नफरत हो; या एनआरआई तबके की गलाजत भरी राष्ट्रीयता हो। ‘ब्राह्मण हैं, संस्कारी हैं’, ‘ब्राह्मण हैं, शूद्र स्त्री को छू नहीं सकते तो बलात्कार कैसे कर सकते हैं’ जैसी बातें आज फिर से खुले आम बेशर्मी से कही जा रही हैं, मटकी से पानी पीने, मूंछे रखने, घोड़ी चढ़ने से हत्या हो रही है, इस ब्राह्मणवादी-सवर्णवादी पुनर-उभार को उपरोक्त आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ही देखना होगा।  

अगर कोई यह कहे कि संपत्ति या उत्पादन के साधनों पर लगभग पूर्ण एकाधिकार के साथ ही पूंजीवादी राजसत्ता की पूरी दमनकारी शासन शक्ति – पुलिस, फौज, अफसरशाही, न्यायालय, मीडिया, शिक्षा व्यवस्था, आदि – की ताकत से लैस उत्पीड़क तबके की इस शक्ति की कमर तोड़े बगैर मात्र पूंजीवादी बाजार में उजरती मजदूर बन जाने या छोटे काम धंधे कर लेने से उत्पीड़ित दलित सवर्ण जाति उत्पीड़न से मुक्त हो जाएंगे तो यह भ्रम फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जाति उत्पीड़न का प्रतिरोध करने हेतु पूंजीवादी व्यवस्था की इस शक्ति के खिलाफ एकताबद्ध होना, फासिस्ट शक्तियों के खिलाफ संयुक्त संघर्ष में शामिल होना जरूरी है। इस संयुक्त संघर्ष से अलग रह उत्पीड़न की समाप्ति के लिए पूंजीवादी सुधारों के भरोसे रहने की बात इस संघर्ष से अलग-थलग रह उत्पीड़न का शिकार होते रहने की विवशता में धकेले जाने की बात है। चुनांचे पूंजीवाद-फासीवाद विरोधी सर्वहारा वर्गीय संघर्ष का अभिन्न अनिवार्य अंग बनाकर ही जातिगत उत्पीड़न सहित सब प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ सशक्त प्रतिरोध खडा किया जा सकता है। 

किंतु ऐसे संयुक्त वर्गीय संघर्ष की एक और शर्त भी है। सर्वहारा वर्ग पूंजीवाद से अपनी मुक्ति की लडाई तभी लड सकता है जब वह सभी उत्पीडित वर्गों को यह दिखा सके कि कैसे आज पूंजीपति वर्ग सभी उत्पीडितों की मुक्ति में बाधा है और सर्वहारा वर्ग का समाजवादी क्रांति का कार्यक्रम कैसे सिर्फ उसकी अपनी ही नहीं, बल्कि समस्त उत्पीडितों की मुक्ति का कार्यक्रम है। भारत के मज़दूर वर्ग की समाजवादी क्रांति का यह रास्ता मुश्किलों से भरा है। 200 साल की औपनिवेशिक ग़ुलामी और ऊपर से थोपे गए पूंजीवादी विकास ने मजदूर वर्ग पर जनवादी क्रांतियों के कई अधूरे कार्यभारों का बोझ डाल दिया है। यहां बड़े पैमाने पर अनसुलझे जाति, पितृसत्ता, राष्ट्रीय प्रश्न और अन्य सामंती मूल्य बहुत गहरे तक मौजूद हैं।  इन्हें समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे क्रांतिकारी आंदोलन द्वारा ठीक से संबोधित कर इन समस्त किस्म के उत्पीड़न के खिलाफ तात्कालिक प्रतिरोध का ठोस कार्यक्रम लिया जाना भी अत्यंत जरूरी है। समस्त उत्पीडित समाज की आकांक्षाओं का वाहक बनकर ही सर्वहारा वर्ग पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध अधिकाधिक शक्ति जुटा आक्रमण कर सकता है। आज सर्वहारा वर्ग को समस्त मेहनतकशों-उत्पीडितों की मुक्ति के साथ ही तात्कालिक प्रतिरोध का भी ऐसा कार्यक्रम पेश करना होगा। तभी वह पूंजी के जुए से अपनी मुक्ति की लडाई लड सकेगा और जनवादी क्रांति के दौरान नेतृत्व कायम न कर पाने से पूरी न की जा सकी अपनी अधूरी जिम्मेदारियों को भी पूरा कर सकेगा। ऐसा करना सर्वहारा वर्ग की ऐतिहासिक जिम्मेदारी है क्योंकि हम दावा करते हैं कि सर्वहारा वर्ग इतिहास का अगुआ वर्ग है जिसके पास मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक विचारधारा है। इस जिम्मेदारी को पूरा किए बगैर हमें भिन्न विचार वालों की ऐसा न कर पाने या इससे समझौता करने की आलोचना को स्वीकार करते रहना ही होगा।