खाद्य वस्तुओं पर जीएसटी – मेहनतकश जनता पर हमला

September 17, 2022 0 By Yatharth

एम असीम

28 जून को चंडीगढ़ में हुई जीसटी परिषद की 47वीं बैठक में आटा, दाल, दही, मीट, मछली, तेल, आदि बहुत सारी खाद्य वस्तुओं पर जीसटी लगा दिया गया। इसका फैसला बैठक में पूर्ण सहमति से हुआ अर्थात केंद्र व राज्यों की सभी सरकारें इस प्रस्ताव से सहमत थीं। 18 जुलाई से यह टैक्स लागू भी हो गया। तब आम जनता का रोष प्रकट होने पर कांग्रेस व अन्य कुछ विपक्षी दलों ने इसके खिलाफ दिखावटी बयान जरूर दिए। केरल की वाम मोर्चा सरकार ने केंद्र को पत्र लिखकर कहा कि वह अपने राज्य में इसे नहीं वसूलेंगे। पर 28 जून को फैसला होने के बाद से उनकी चुप्पी ही गवाही देती है कि यह विरोध वास्तविक विरोध नहीं था। अगर वास्तविक विरोध होता तो 28 जून से भी पहले जब यह प्रस्ताव परिषद की बैठक पूर्व उसकी तैयारी के लिए होने वाली अफसरों की बैठक में आया था, तभी से इसे सार्वजनिक कर इस पर जनता के बीच जाकर विरोध की मुहिम चलानी चाहिए थी, ताकि इसे रोकने के लिए दबाव बनता। टैक्स लागू हो जाने के व जनता का रोष सामने आने के बाद रस्मी विरोध विरोध नहीं, विरोध का नाटक ही है। यह घटनाक्रम बताता है कि पूंजीपति वर्ग के हितों के सवाल पर दक्षिण से ‘वाम’ तक सभी संसदीय पार्टियां एकमत हैं।  

असल में जब 2018 में जीएसटी कानून बना था तभी टैक्स दायरे के बाहर रही बहुत सी वस्तुओं-सेवाओं (जिनका उपभोग मजदूर वर्ग व अन्य गरीब मेहनतकश लोग करते हैं) पर टैक्स का प्रावधान कर दिया गया था। पर उस समय सत्ताधारी व विपक्षी पार्टियों अर्थात पूरे सत्ताधारी वर्ग ने जनता को भ्रम में रखने के लिए इन्हें 0% टैक्स की सूची में रखा था, जिससे लगे कि इन पर टैक्स नहीं लगा है। पर एक बार टैक्स दायरे में आने के बाद अब टैक्स दर को शून्य से ऊपर की ओर बढ़ाया जा रहा है। इसी तरह और भी खबरें आती रहती हैं कि बहुत सारी सेवाओं पर जिन पर पहले टैक्स नहीं लगता था अब टैक्स लगेगा। ऐसे ही चला तो कुछ समय बाद स्कूल शुल्क व अस्पताल के खर्च पर भी सरकार को टैक्स देना पड़ेगा क्योंकि ये भी टैक्स दायरे में हैं। इसका सीधा मतलब होगा सभी सेवाओं को 18% महंगा कर आम मेहनतकश लोगों की पहुंच से बाहर कर देना।

जीएसटी कानून बुनियादी तौर पर जन विरोधी ही नहीं, पूंजीवादी जनतंत्र के संविधानिक कायदों के भी विपरीत है। पहले सभी टैक्स लगाने के प्रस्ताव संसद/विधानसभा में रखे जाते थे, बुर्जुआ जनतंत्र के सिद्धांत से जनता द्वारा  निर्वाचित माने गए प्रतिनिधि उस पर बहस करते थे। बजट पेश होने के वक्त ये टैक्स प्रस्ताव सार्वजनिक होते थे। कभी-कभी अधिक विरोध होने पर सरकार को पीछे भी हटना पडता था। अब संसद/विधानसभा में खुले प्रस्ताव व बहस के बजाय बंद कमरे की बैठक में अफसर-मंत्री ही तय कर लेते हैं। फिर नोटिफिकेशन जारी कर लागू कर देते हैं। इस काम में दक्षिण, मध्य, वाम व बेपेंदी के लोटे वाले सभी चुनावी राजनीतिक दल जनता के खिलाफ पूंजीपति वर्ग के पक्ष में एकजुट होकर काम करते हैं। कहना चाहिए कि यह संसदीय शासन की समाप्ति है क्योंकि बुर्जुआ जनतंत्र में संसद की बुनियाद ही इस बिना पर पड़ी थी कि बजट पारित करने अर्थात टैक्स लगाने व खर्च के मद तय करने का सर्वोच्च अधिकार टैक्स देने वालों को होना चाहिए। परंतु सभी ‘संसदीय’ दलों ने सर्वसम्मति से संसद की बुनियाद को ही खत्म कर दिया और वह सिर्फ एक दिखावटी संस्था बनकर रह गई है जो जनतंत्र के नाटक को चलाने के लिए जरूरी है। 

निजी सम्पत्ति पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था में राजसत्ता के खर्च हेतु उत्पादन, आय, सम्पत्ति, व्यापार, आदि पर कर लगाया जाता है। लेकिन इस जनतांत्रिक चिंतन का एक सिद्धांत यह भी था कि एक प्रगतिशील कर प्रणाली क्रमिक होनी चाहिये। क्रमिक कराधान नीति के अनुसार आयकर तथा कॉर्पोरेट कर की दरें आमदनी के बढते क्रम में होनी चाहिये। 20वीं सदी में मजबूत मेहनतकश आन्दोलनों के डर से यह कुछ हद तक लागू भी हुआ था। साथ ही बडी सम्पत्ति पर सम्पत्ति कर और उसके उत्तराधिकार पर एस्टेट ड्युटी भी लगाई जाती थी। यह कर प्रणाली पूंजीवादी व्यवस्था में शोषण से मुक्ति तो नहीं पर मेहनतकश लोगों को कुछ तात्कालिक राहत प्रदान करती थी क्योंकि यह पैसा शिक्षा, चिकित्सा, आदि की सार्वजनिक व्यवस्थाओं पर खर्च किया जा सकता था और जनता के दबाव में कुछ हद तक करना भी पड़ता था।

लेकिन मेहनतकश जनता के आन्दोलनों की कमजोरी और पूंजीवादी व्यवस्था के संकट की वजह से शासक वर्ग ने इस क्रमिक कर प्रणाली को बदलना शुरु कर दिया। लगातार परजीवी बनते पूंजीपति वर्ग ने नवउदारवादी आर्थिक नीति अपनाई कि करों का बोझ खुद पर से कमकर पहले से ही शोषित मजदूर, किसान, निम्न मध्य वर्गीय लोगों पर डाला जाए। इसके लिये आयकर/कॉरपोरेट कर की दरों को कम किया गया। साथ ही करों की गणना के लिए और भी बहुत से सूक्ष्म जटिल नियम बना दिए गये जो करों का बोझ अमीर तबके से कम कर गरीब लोगों के सिर पर डाल दें। आज की स्थिति यह है कि सबसे ऊंची आय वाले तबके को असल में उस दर (30%) पर टैक्स नहीं देना होता जो सार्वजनिक रूप से घोषित है। सबसे अमीर लोगों को आय की बहुत सी मदों में छूटें व रियायतें दी जाती हैं और बहुत सी आमदनी को आमदनी ही नहीं माना जाता। फिर उनके पास बहुत से सीए आदि रहते हैं जो अधिकांश आय को इन मदों में दिखाने का काम करते हैं। कई बार तो बड़े कॉर्पोरेट ऊंचे मुनाफे के बावजूद एक पैसा टैक्स नहीं चुकाते।

मेहनतकश लोगों के लिये तो मजदूरी या छोटे-मोटे काम-धंधे से होने वाली बचत ही आय का मुख्य स्रोत है। लेकिन उच्च आय वर्ग की आय में वेतन का हिस्सा बहुत कम रह जाता है और उनकी ज्यादातर आय आती है ब्याज, लाभांश और पूंजीगत लाभ से। चालाकी से परिवर्तन यह किया गया कि आय के इन स्रोतों पर वेतन आदि जैसी आयकर की सामान्य दरें लागू होने के बजाय कम दरें लागू की गईं। जैसे लाभांश पर बहुत साल से शून्य आयकर था; अब कुछ हिस्से पर दोबारा लगाया गया है। इसी प्रकार पूंजीगत लाभ पर शून्य, 5, 10 या 20% की दरें है (20% की दर के साथ उसे कम करने के लिये सूचीकरण का उपाय भी साथ ही है)। सम्पदा कर और एस्टेट ड्युटी तो समाप्त ही कर दी गई है। इसका नतीजा है कि जहां हमें बताया जाता है कि अमीर लोगों पर 30% का आयकर है वहां असल में सबसे अमीर लोगों को आपनी आय का लगभग मात्र 10 – 15% ही टैक्स देना होता है, वह भी अगर चोरी न करें तो! इसी तरह कंपनियों को कर दरों में सिर्फ पिछले दो साल में 1.84 लाख करोड़ रु की छूट दी गई है।

अब बात करें गरीब मेहनतकश जनता पर लगने वाले करों की। कुछ लोग आश्चर्य करेंगे कि क्या गरीब लोग भी टैक्स देते हैं! ऐसा एक दुष्प्रचार समाज में खडा किया गया है कि सिर्फ 3-4% लोग ही टैक्स देते हैं। लेकिन यह सच नहीं है – देश के सब लोग टैक्स देते हैं, गरीब से गरीब मजदूर भी। असल में ऊपर जिन करों की बात हमने की वह हैं प्रत्यक्ष कर यानी जिस पर टैक्स लगा उसने दिया। दूसरे किस्म के कर हैं अप्रत्यक्ष कर जो लगते कम्पनियों/व्यापारियों पर हैं लेकिन जिनको आखिर देता आम नागरिक है क्योंकि वस्तुओं-सेवाओं की कीमतों में इन्हें शामिल कर लिया जाता है! यह है जीएसटी, सेल्स्, वैट, एक्साइज, कस्टम्स, सर्विस टैक्स, चुंगी, आदि। तथाकथित आर्थिक सुधारों का एक पहलू इस प्रकार के अप्रत्यक्ष करों को लगाना और बढाना है।

प्रत्यक्ष कर आमदनी के हिसाब से लगते हैं अर्थात जिसकी आमदनी ज्यादा, उस पर कर भी ज्यादा। इसलिए इन करों को प्रगतिशील कर माना जाता है। इसके विपरीत अप्रत्यक्ष कर की दर अमीर गरीब सबके लिए समान होती है। लेकिन खर्च पर लगने की वजह से, टैक्स की दर अगर समान हो तो आमदनी के हिस्से के तौर पर देखा जाये तो जिसकी आमदनी जितनी कम हो उसकी आमदनी का उतना ही ज्यादा प्रतिशत हिस्सा टैक्स के तौर पर अदा करना पड़ता है अर्थात इनका बोझ गरीब लोगों पर ज्यादा पड़ता है। इसलिए इन्हें प्रतिगामी टैक्स माना जाता है।

तीसरा पहलू है कर प्रणाली और सामान्य अर्थव्यवस्था में ऐसे नियम बनाना जिससे पूंजीपति तबका अपनी आमदनी/दौलत के एक बडे हिस्से को देश के बाहर ले जा सकें और कोई भी टैक्स न चुकायें। अगर वोडाफोन के मामले पर ध्यान दें तो पहले हच नाम की कम्पनी भारत में अपना मोबाइल कारोबार चलाती थी। फिर उसने यह कारोबार वोडाफोन को बेच दिया लेकिन भारत में स्थित सम्पत्ति की खरीद-बिक्री का यह काम हांगकांग में कर लिया गया और इस तरह लगभग 9,000 करोड रुपये का टैक्स बचा लिया गया। ऐसे ही अन्य बहुत से मामले हैं भारत में कारोबार करते या सम्पत्ति रखते बहुत सारे लोग खुद को दूसरे देशों का निवासी/नागरिक घोषित कर यहाँ शून्य या बहुत कम टैक्स अदा करते है|

जीएसटी का मकसद है ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं और सेवाओं को करों के दायरे में लाना और इन करों की दर को ऊंचा करना। नतीजा, और अधिक महंगाई। जिन भी देशों में जीएसटी लागू हुई है उनमें ज्यादातर में इसके बाद मुद्रास्फीति/महंगाई में वृद्धि हुई है। भारत में भी यही हो रहा है। यद्यपि जीएसटी की दर कहने के लिये सब पर बराबर है लेकिन इसका असर अमीर और गरीब लोगों पर बराबर नही होता। ज्यादातर गरीब लोग अपनी सारी कमाई से किसी तरह जीवन चलाते हैं। उनकी पूरी आय पर यह टैक्स लगता है क्योंकि जीएसटी लगभग सभी वस्तुओं – सेवाओं पर लगता है। वहीं अमीर तबका अपनी आय का एक छोटा हिस्सा ही इन पर खर्च करता है। चुनांचे आमदनी के हिस्से के रूप में देखा जाये तो वास्तव में गरीब मेहनतकश लोगों पर ज्यादा टैक्स और जितना अमीर उतना ही कम!

वास्तव में अप्रत्यक्ष कर क्या करता है? यह व्यक्ति की आय का एक हिस्सा लेकर सरकार को दे देता है। अगर हम मजदूर वर्ग को देखें तो उसकी मजदूरी क्या होती है? उसके जिंदा रहने और मजदूरों की नई पीढ़ियां पैदा होते रहने लायक उपभोग हेतु न्यूनतम आवश्यक मूल्य ही मजदूरों की श्रम शक्ति का मूल्य होता है। परंतु रोजगार के बाजार में अगर मजदूरों की आपूर्ति बढ़ जाए तो पूंजीपति इतना मूल्य भी नहीं चुकाता है क्योंकि बेरोजगारों की इस बड़ी फौज में से कुछ का विपन्न, कंगाल, बीमार होकर मर जाना भी उसके लिए समस्या नहीं रहता। अतः बेरोजगारी बढ़ने पर मजदूरी की दर जीवन की इस न्यूनतम आवश्यकता से भी कम हो जाती है। ऐसा ही अभी हमारे देश में हो रहा है। ऐसे में अप्रत्यक्ष कर जब हर उपभोग की जाने वाली वस्तु के दाम में जुड़ जाता है तो इसका अर्थ है कि मजदूर को जो यह न्यूनतम आवश्यकता से कम मजदूरी मिली उसका भी एक हिस्सा सरकार ने टैक्स द्वारा उसकी जेब से निकाल लिया अर्थात उसकी वास्तविक मजदूरी और भी कम हो गई। अतः अप्रत्यक्ष कर सीधे-सीधे मजदूर वर्ग पर हमला हैं। चुनांचे मजदूर वर्ग के हर संगठन चाहे वह ट्रेड यूनियन हो या राजनीतिक पार्टी को इसका विरोध करना उसके कार्यक्रम का जरूरी हिस्सा होना चाहिए। मगर बुर्जुआ दल ही नहीं संशोधनवाद के चंगुल में फंसी संसदीय ‘वाम’ पार्टियां भी इस जिम्मेदारी से पीछे हट गईं हैं।     

कुल मिलाकर देखा जाये तो जीएसटी समेत इन टैक्स नीतियों का मकसद है पूंजीपति वर्ग को करों के बोझ से जितना हो सके बचाना और पूंजीवादी राजसत्ता को संभालने का बोझ भी पहले से ही शोषित-पीडित मेहनतकश तबके पर ही डालना और इस प्रकार उसकी पहले से ही सीमित आय में इस जरिये से और भी कटौती कर देना। इसका नतीजा हो रहा है कि पूंजीपतियों के हाथ में धन और सम्पदा का और भी ज्यादा इकट्ठा होना, और मजदूर वर्ग की जिन्दगी में और भी ज्यादा तबाही। असल में आज की स्थिति में शासक पूंजीपति वर्ग की वर्तमान व्यवस्था के संचालन में भी सिर्फ एक ही भूमिका रह गई है – परजीवी जोंक की तरह सिर्फ खून चूसना। इसके सिवा उसका अन्य कोई योगदान नहीं है।