पूंजीपतियों की खिदमत का ‘नोबल’ इनाम

October 16, 2022 0 By Yatharth

एम असीम

स्वीडन के केंद्रीय बैंक द्वारा दिया गया अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार इस बार अमरीकी फेडरल रिजर्व के मुखिया रहे बेन बर्नांके, डगलस डायमंड व फिलिप डिबविग को 1980 के दशक में “बैंकों व वित्तीय संकटों” संबंधी शोध के लिए दिया गया। पुरस्कार समिति मुताबिक इस शोध से बैंकों के डूबने, वित्तीय संकटों के प्रभावों व उनसे निपटने के उपायों पर खासी महत्वपूर्ण रोशनी पड़ी है। इससे पहले कि हम कोई टिप्पणी करें, इस महत्वपूर्ण शोध का मुख्य बिंदु मुलाहिजा फरमाएं।

बर्नांके ने 1983 में अपने “महत्वपूर्ण शोध” में सिद्ध किया कि बैंक डूबते हैं! और उनके डूबने का उत्पादक अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है। अतः बैंकों को बचाने हेतु हस्तक्षेप किया जाना चाहिए। इसी तरह डायमंड-डिबविग की महान खोज थी कि बैंक पैसा बचाने वालों से जमा राशि लेकर औद्योगिक पूंजी में निवेश करने वालों को कर्ज देते हैं! अर्थव्यवस्था में संकट की सच्ची-झूठी खबर फैलने से जमा करने वाले पैसा निकालने लगते हैं, जबकि दिया गया कर्ज उत्पादन चक्र में लगा होने के कारण तुरंत वापस नहीं आ सकता। अतः बैंक डूब जाते हैं!

माफ करें, पर पाठक ये न सोचें कि मैं कोई घटिया मजाक कर रहा हूं या उनकी टांग खींच रहा हूं! पुरस्कार समिति ने पूरी गंभीरता से यही बताया है और सच बताया है – वास्तव में इन ‘शोधकर्ताओं’ ने अपने ‘शोध’ में यही महान निष्कर्ष निकाले थे! पुरस्कार समिति हास्य या व्यंग्य के बिना किसी इरादे के ही इसे 1980 के दशक में की गई मौलिक खोज बता रही है! निश्चय ही इसका कुछ कारण तो होगा। खास तौर पर ‘शांति’ व ‘अर्थशास्त्र’ के नोबल पुरस्कारों के लिए तो कोई न कोई सियासी मकसद होता ही है। याद कीजिए 2009 में अमरीकी राष्ट्रपति बनने के 8 महीने के अंदर ही बराक ओबामा को विश्व में शांति स्थापना में अहम योगदान हेतु नोबल पुरस्कार दे दिया गया था, पर राष्ट्रपति के तौर पर ओबामा ने अपने पूरे 8 साल दुनिया भर में जंग लड़ने में ही गुजारे!   

खैर इसके पहले कि हम इसकी और विवेचना करें, दिलचस्प तथ्य यह है कि बैंकों के डूबने की एक नई मौलिक खोज के लिए पुरस्कार देने वाला स्वीडिश केंद्रीय बैंक खुद एक बैंक के डूबने का ही नतीजा था। 1656 में स्वीडन के राजा ने स्टॉकहोम्स बैंको नामक बैंक की स्थापना की थी, जो यूरोप में नोट जारी करने वाला अर्थात कर्ज का व्यापार करने वाला पहला बैंक था। इस बैंक ने इतने अधिक नोट जारी किये कि यह 11 साल में ही अर्थात 1667 में डूब गया! तब स्वीडिश शासक अभिजात वर्ग ने 1668 में उस बैंक की स्थापना की जो फिलहाल रिक्सबैंक के नाम से वहां का केंद्रीय बैंक है और जिसने 1983 में बैंकों के डूबने और उसके कारण की महान खोज के लिए इस बार का नोबल पुरस्कार अता फरमाया है।

पर राजनीति में इतिहास के भूलने का भी एक मकसद होता है। यहां भी है। एक विशिष्ट मकसद है। जब से बैंक हैं तबसे ही बैंक डूबते भी आए हैं और उनका कारण भी आर्थिक-वित्तीय क्षेत्र में सभी जानते हैं – कर्ज की रकम वापस न आने से नकदी की तंगी होती है। इस से जमा करने वाले द्वारा अपनी रकम मांगने पर बैंक उसे भुगतान करने में चूक जाता है। ऐसे ही बैंक डूबते हैं। कर्ज वापसी का यह संकट पूंजीवादी व्यवस्था के उत्पादन के क्षेत्र में अति-उत्पादन व अनबिके माल की वजह से पैदा नकदी की तंगी से होता है। लेकिन वित्तीय क्षेत्र में संकट पैदा हो जाए तो निश्चित ही यह वापस उत्पादन के क्षेत्र को भी एक अवधि तक प्रभावित करता रहता है। यह बात क्लासिकल बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों से लेकर मार्क्स-एंगेल्स तक बता चुके हैं। इन सबमें आपस में जो भी सहमति-असहमति रही हो, पर इन सबने आर्थिक संबंधों में इस संकट के अंतर्निहित कारणों को ढूंढने का प्रयास किया। किंतु आज कोई भी बुर्जुआ विद्वान इन वास्तविक अंतर्निहित कारणों को जानने का प्रयास नहीं करता, क्योंकि उससे तो पूरा पूंजीवाद ही शोषण आधारित कालातीत व्यवस्था सिद्ध हो जाएगा। बर्नांके व अन्य दोनों पुरस्कृतों ने भी ऐसा नहीं किया है। फिर उन्होंने किया क्या है?

असल में क्लासिकल दौर से 1930 के दशक की महामंदी तक भी पूंजीवादी होड के सिद्धांत के अंतर्गत यही माना जाता था कि जो कमजोर पूंजीपति हैं, जिनका दिवाला निकल गया है, संकट में उनका डूब जाना ही ठीक है। बुर्जुआ राज्य उन्हें बचाने के लिए कोई पूंजी, अनुदान, सब्सिडी, प्रोत्साहन, आदि नहीं देता था। यहां तक कि महामंदी के दौर में पूंजीवाद के बचाव का सिद्धांत देने वाले जॉन मेनार्ड कींस ने भी राज्य को उच्च सार्वजनिक खर्च के जरिए अर्थव्यवस्था में प्रभावी मांग पैदा कर अर्थव्यवस्था में सुधार का सिद्धांत दिया, डूबते पूंजीपतियों के लिए राज्य की ओर से सार्वजनिक मदद की बात नहीं की।

किंतु 1970-80 के दशकों में जब पूंजीवादी संकट गहराया और अमरीका में सैंकड़ों की तादाद में बैंक डूबे, तब तक बुर्जुआ अर्थशास्त्र में नवउदारवाद का जालसाजी भरा सिद्धांत आ चुका था। हालांकि नवउदारवाद अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका घटा निजीकरण व मुक्त बाजार की बात करता है। लेकिन वह लफ्फाजी के सिवा कुछ नहीं। बुनियादी तौर पर नवउदारवाद बुर्जुआ राज्य की निर्मम शक्ति से मजदूर वर्ग को कुचलकर पूंजीवादी संकट का सारा बोझ उस पर डाल देने का सिद्धांत है। इसके शिकागो स्कूल के नामी सिद्धांतकार मिल्टन फ्रीडमैन स्वयं 1973 में चिली में जनता द्वारा निर्वाचित समाजवादी साल्वाडोर आएंदे के कत्ल व तख्तापलट द्वारा कायम जनरल पिनोशे की नवउदारवादी फासिस्ट हुकूमत के सलाहकार थे। बेन बर्नांके फ्रीडमैन के शिष्य हैं। फ्रीडमैन व अन्ना श्वार्टज़ ने अपनी पुस्तक ए मोनेटरी हिस्ट्री ऑफ यूनाइटेड स्टेट्स में महामंदी के बारे में निष्कर्ष निकाला कि तत्कालीन राष्ट्रपति हूवर व खजाना सचिव एंड्रू मेलन अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए कमजोर बैंकों के डूबने को आवश्यक मानते थे। अतः वे ‘मौद्रिक स्थायित्व’ देने में नाकाम रहे। फ्रीडमैन के अनुसार महामंदी पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था का नहीं मौद्रिक नीति का संकट था। अगर तत्कालीन सरकार मौद्रिक नीति से इन बैंकों को बचा लेती तो संकट जल्द निपट जाता।

यहीं हम समझ सकते हैं कि क्लासिकल अर्थशास्त्रियों एडम स्मिथ व डेविड रिकार्डो से असहमत हुआ जा सकता है, पर वे नवउदारवादी बुर्जुआ विद्वानों की भांति अनैतिक व जालसाज नहीं थे। वे वास्तव में आर्थिक संबंधों को जानने का प्रयास करते थे और तथ्यों के अपने विश्लेषण के आधार पर ही निष्कर्षों पर पहुंचते थे, एवं उन निष्कर्षों को व्यक्त करते थे। इसके विपरीत सड़ते हुए पूंजीवाद व फासीवाद के दौर के नवउदारवादी जो सिद्धांत बघारते हैं, व्यवहार में उसका ठीक उलटा करते हैं। हालांकि वे मुक्त बाजार और राज्य द्वारा आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप न करने की बातें करते हैं। पर वास्तव में वे इसे सिर्फ मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता के लिए शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य, पोषण, यातायात, स्वच्छता, आदि सुविधाओं पर खर्च में कटौती पर ही लागू करते हैं। गरीब, बेरोजगार, भूखे मजदूरों को किसी भी प्रकार की मदद को वे आलसी व कामचोरों पर किया गया फालतू खर्च व खैरात बताकर विरोध करते हैं। मगर आर्थिक संकट के जनक औद्योगिक व वित्तीय पूंजीपतियों के मुनाफे व उन्हें दिवालिया होने से बचाने के लिए सार्वजनिक बजट से अरबों डॉलर खर्च किये जाने की हिमायत करते हैं।

बर्नांके को ठीक इसी विचार को आगे बढ़ाने के लिए इनाम दिया गया है कि आर्थिक संकट के वक्त राज्य को अपनी मौद्रिक नीति का प्रयोग दिवालिया बैंकों को बचाने हेतु करना चाहिए। फ्रीडमैन के 90वें जन्मदिन पर भाषण देते हुए बर्नांके ने कहा था, “मैं महामंदी के बारे में मिल्टन व अन्ना से कहूंगा – आप सही हो, हमने यही गलती की थी। हम गलती मानते हैं। पर आपको शुक्रिया कि हम इसको दोहराएंगे नहीं।” और वास्तव में ही बर्नांके ने इस ‘गलती’ को नहीं दोहराया। 2002 से ही बर्नांके फेडरल रिजर्व के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में थे और 2007-08 के संकट के वक्त इसके अध्यक्ष थे। उस वक्त आए वैश्विक आर्थिक संकट में बर्नांके ने अपने इस विचार को पूंजीपति वर्ग की खिदमत में प्रयोग किया। 

मार्च 2007 तक तो बर्नांके ‘सब चंगा सी’ बताते रहे – ‘हमारा मानना है कि सब-प्राइम कर्जों की दिक्कतों का व्यापक गृह बाजार, शेष अर्थव्यवस्था व वित्तीय क्षेत्र पर सीमती दुष्प्रभाव होगा।‘ क्या फेडरल रिजर्व के मुखिया के तौर पर सारे आंकड़े व तथ्य उपलब्ध होते हुए उन्हें इसका असर समझ नहीं आया या उन्होंने इसकी उपेक्षा की? इसे समझने के लिए हमें यह जानना चाहिए कि मीडिया व विद्वानों द्वारा बताए अनुसार सब-प्राइम वित्तीय क्षेत्र की लापरवाही से हुई कोई गलती नहीं, सूदखोरी का एक आपराधिक तरीका है जो मजदूरों, गरीबों, खास तौर पर वित्तीय जानकारी न रखने वालों की नृशंस लूट पर आधारित है। इसमें कर्ज दिया ही इस तरह जाता है कि वह कभी चुकाया ही न जा सके और चूक होने पर चुकाई पूरी रकम को हजम कर सूदखोर मकान भी वापस कब्जा ले और उसे रंग-पोत कर फिर किसी नए भोले गरीब को फंसा उसे फिर से कर्ज पर बेच दे। एक ही मकान और उस पर दिए कर्ज से इस तरह यके बाद दीगरे मजदूरों का खून चूसा जाता रहे। हम इस लेख में इसका पूरा वर्णन नहीं कर सकते। पर उत्सुक पाठक मशहूर समाजवादी लेखक अप्टन सिंकलेयर लिखित ‘जंगल’ उपन्यास पढ़ सकते हैं जिसमें मिल्टन फ्रीडमैन के शिकागो में ही मजदूर वर्ग के निर्दय शोषण के ऐसे दिल दहलाने वाले तरीकों का वर्णन है और जिसने 20वीं सदी के प्रथम दशक में अमरीका को हिलाकर रख दिया था। इससे इस पर कुछ रोकथाम के विचार भी प्रचारित हुआ था। मगर नवउदारवादी पूंजीवाद 21वीं सदी में उसी नृशंसता पर कायम है।

लेकिन जब बर्नांके के भरोसा दिलाने के बाद भी वित्तीय संकट फट पड़ा तो फेडरल रिजर्व ने क्या किया? पहले दिवालिया बैंक लीमैन ब्रदर्स के डूब जाने पर पूंजीपति वर्ग में हाहाकार मच गया। तब बर्नांके ने फेडरल रिजर्व की ओर से लगभग दो लाख करोड़ डॉलर का ‘आंकिक ढिलाई’ कार्यक्रम शुरू किया अर्थात इतनी रकम दिवालिया हुए बैंक, बीमा, आदि वित्तीय पूंजीपतियों को बचाने के लिए दी गई। इससे वास्तव में तो ये सार्वजनिक पूंजी आधारित हो गए, परंतु इन्हें राष्ट्रीयकृत करने के बजाय निजी मालिकाने में ही छोड़ दिया गया और एक भी अपराधी को सजा मिलने के बजाय बाद में इन सबकों इस सार्वजनिक पूंजी से करोड़ों डॉलर शेयर, बोनस, पेंशन, आदि के तौर पर दिए गए। उधर 1 करोड़ अमरीकी मजदूरों का रोजगार छिन गया, 31 लाख के घर छिन गए और बड़े पैमाने पर गरीबी रेखा के नीचे चले  गए। सिर्फ अमरीका ही क्यों दुनिया भर की मेहनतकश जनता को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। पर एक तो इस पर बहुत कुछ लिखा गया है, दूसरे स्थानाभाव के कारण, हम यहां इसे दोहराएंगे नहीं।    

संक्षेप में कहें तो इस हास्यास्पद लगने वाली शोध का आज के लगभग असमाधेयसंकट के दौर के पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत महत्व है और बर्नांके ने तो वास्तव में इस विचार को पूंजीपति वर्ग के संकट के समय उसकी खिदमत में लागू किया है। अतः पूंजीपति वर्ग की ओर से उनके इस शोध को अत्यंत महत्वपूर्ण बताते हुए उन्हें, और दो अन्य को, इसका इनाम इस साल के अर्थशास्त्र के नोबल के रूप में अता फरमाया गया है।