‘यथार्थ’ के संपादक मंडल द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक पुस्तिका के ‘प्राक्‍कथन’ से

November 15, 2022 0 By Yatharth

अजय सिन्हा

इस पुस्तिका में प्रस्तुत आलेख यथार्थ के अक्टूबर 2022 अंक में प्रकाशित दो लेखों, संपादकीय तथा एक अन्य लेख1 का रूपांतरित स्वरूप है। इन्‍हें पढ़ चुके पाठक इस बात से सहमत होंगे कि दोनों लेखों के केंद्रीय विचारों में समानता है। यही नहीं, विषयवस्‍तु के लिहाज से दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं। यही बात दोनों लेखों को मिलाकर यह (एकल) आलेख तैयार करने का आधार बनी। हालांकि, यह सच है कि शुरूआती विचार दोनों को उनके अलग-अलग स्वरूप में पुस्तिकाकार स्‍वरूप प्रदान कर प्रकाशित करने का ही था। जहां तक ”इस पुस्तिका को प्रकाशित करने की जरूरत क्‍यों आई” का सवाल है, तो इसका जवाब हमने प्राक्‍कथन के अंत में देने की कोशिश की है। वैसे इसके पाठक ही इस बात के सच्‍चे निर्णयकर्ता होंगे जो यह बता सकेंगे कि इस पुस्तिका को प्रकाशित करना जरूरी था या नहीं।      

”रूपांतरण” का अर्थ यहां केंद्रीय विचारों में रूपांतरण से नहीं, अपितु उनमें पूर्णता व स्‍पष्‍टता लाने लेतु किये गये विस्तार से है। कुछ तो प्रूफ और वाक्य विन्यास संबंधी त्रुटियां थीं जिन्हें भरसक ठीक करने की कोशिश की गयी है। इसके अतिरिक्त नये शब्द या वाक्य ही नहीं, नये पैराग्राफ भी जोड़े गये हैं, ताकि दो अलग-अलग लेखों को मिलाकर एक आलेख तैयार करते वक्त विचारों में तारतम्यता एवं स्पष्टता बनी रहे। एक बार फिर से ये पाठक ही हैं जो यह निर्णय सुना सकते हैं कि हम इसमें सफल रहे हैं या नहीं, और अगर सफल हुए हैं तो किस हद तक सफल रहे हैं। जैसा कि कोई भी समझ सकता है, आलेख को तैार करने के क्रम में पहले के बहुत सारे पैराग्राफ, जो गैर-जरूरी बन चुके थे, को हटा दिया गया है ताकि लेख को यथासंभव एक जैसी बातों की पुनरावृत्ति से बचाया जा सके। दरअसल, दोनों लेख अपने आप में पूर्ण लेख थे, इसलिए इन्हें प्रस्थान बिंदु बनाते हुए एकल आलेख तैयार करना एक मुश्किल था, इसलिए विषयवस्तु को जस का तस बनाये रखने की जद्दोजहद करते हुए इसमें वृहत परिवर्तन करने पड़े। इसलिए जो आलेख तैयार हुआ है वह बाह्य स्वरूप में पूरी तरह से भिन्न लेख है, हालांकि विषयवस्‍तु और विचार वहीं हैं जो पहले के दो लेखों में मौजूद थे। इसके बाह्य स्वरूप में जो परिवर्तन हुए हैं, वे दरअसल “विषयवस्तु और विचारों के दायरे” में रहते हुए उनका विस्‍तार करते वक्‍त हर दिशा में हुए परिवर्तनों की वजह से हुए हैं।

अब हम भूमिका से जुड़ी अन्य बातों पर आते हैं।

यह सच है कि इस पुस्तिका की विषयवस्‍तु का एक पहलू ”गहराता आर्थिक संकट” है, लेकिन हमें इस लेख में इस सर्वमान्य सच्चाई को अलग से साबित करने, यानी अकाट्य आंकड़ों के माध्यम से गाढ़े काले रंगों में रेखांकित करने2 की आवश्यकता कभी इसलिए महसूस नहीं हुई, क्‍योंकि पूंजीवादी अर्थशास्‍त्री ही छाती पीट-पीट कर यह कह रहे हैं कि पूरी विश्व पूंजीवादी व्यवस्था एक ऐसे असमाधेय आर्थिक संकट से से घिरी है जो पूंजीवादी थिंक टैंक से जुड़े विशेषज्ञों की लाख कोशिशों के बावजूद टस से मस होने को तैयार नही है। असल में, यह संकट अपरिवर्तनीय (irreversible), यानी स्थाई प्रकृति का बन चुका है, जो इजारेदार पूंजी में (लेनिन के समय की तुलना में) हुए मात्रात्मक तथा गुणात्मक विकास की दृष्टि से एक स्वाभाविक बात है। ठोस रूप से कहें, तो यह विश्व पूंजीवादी व्यवस्था पर वित्तीय इजारेदार पूंजी द्वारा हो चुके पूर्ण नियंत्रण की वजह से पैदा हुई एक अत्यंत खतरनाक स्थिति का द्योतक है। वित्तीय इजारेदार पूंजी का विश्व व्यवस्था पर नियंत्रण पूंजीवादी उत्पादन संबंधों की क्षुद्र से क्षुद्रतर होती जा रही  सीमा में कैद उत्पादक शक्तियों के अतिशय विकास की बोझ से लरजते-चरमराते पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था का स्वाभाविक परिणाम है। वित्तीय इजारेदार पूंजी का विश्व पूंजीवादी व्यवस्था पर हो चुका नियंत्रण अपरिवर्तनीय है, इसलिए आज का संकट भी अपरिवर्तनीय बन चुका है। पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को तोड़े बिना, यानी स्वयं पूंजीवाद को पलटे बिना इसे अब पलटा नहीं जा सकता है। नीतियां बदलकर या पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही सरकारें बदलकर इसका निदान संभव नहीं है। पूंजीवाद अब सदा के लिए अवरूद्ध विकास या रुक-रुक कर होने वाले विकास (अवरोधपूर्ण विकास) के चक्रव्यूह – जो वित्तीय पूंजी के प्रभुत्व से पैदा हुए चक्रव्यूह है – में फंस चुका है।

मेहनतकश अवाम के लिए इन सब का सीधा मतलब उनका और भी ज्यादा नारकीय स्थितियों में धकेला जाना है, जबकि अन्य दरमियानी (निम्न) पूंजीवादी संस्तरों के लिए इसका अर्थ पुरानी सुविधा व साधन-संपन्नता का धीरे-धीरे लोप होते जाना, और इसके अनुरूप उनकी सामाजिक स्थिति में गिरावट का आना है। किसानों की व्यापक आबादी की सामाजिक एवं आर्थिक विपन्नता, जो इन्हें हर दिन दिवालिया बनाती जा रही है, किसी से छुपी नहीं है। ग्रामीण अंचलों तक में वित्तीय इजारेदार पूंजीपतियों (कॉर्पोरेट) की बढ़ती पकड़ से उनके एक बड़े हिस्से की पूर्ण बर्बादी निश्चित ही नहीं, आसन्न बन चुकी है। लेकिन जो बात यहां सबसे अधिक ध्‍यान देने याग्‍य है, वह यह है कि इन सब के परिणाम स्वरूप जनमानस में बढ़ते असंतोष एवं आक्रोश से सामाजिक उथल-पथल का आना और परिणामस्‍वरूप एक बड़े क्रांतिकारी विस्फोट का फूटना लगभग निश्चित है, अगर इसके लिए अन्‍य अनुकूल कारक भी इसके साथ-साथ किवसित हो रहे हों। कहने का अर्थ यह है कि आगे आम जनता की जिस बड़ी तबाही का तानाबना बुना जा रहा है, उसी में इस तानेबाने को नष्‍ट करने और साथ ही इसके मूल स्रोत पूंजीवादी व्‍यवस्‍था को इतिहास के रंगमंच से पूरी तरह से हटा देने वाली क्रांति के बीजकण मौजूद हैं। हालांकि, ये बीज तभी अंकुरित हो क्रांतिकारी परिवर्तन के वाहक बन सकेंगे, जब इसके लिए जरूरी दूसरी अन्‍य चीजें, जैसे कि क्रांति की आत्‍मगत शक्तियां, मौजूद हों जो इन बीजों को विकसित कराने में सक्षम हों।   ‍    

आम तौर पर पूंजीवाद में ऐसी फंसी हुई स्थिति बड़े युद्धों या विश्वयुद्ध को जन्म देती है जिसके आसार रूस-यूक्रेन युद्ध के नहीं खत्म होने से तथा इसके लगातार होते फैलाव से बनते भी दिख रहे हैं। युद्ध  हथियार उद्योग से जुड़े बड़े पूंजीपति वर्ग के लिए अकूत मुनाफा प्राप्त करने, तथा इस कारण पूंजीवाद के गहराते और असमाधेय संकट को हल करने के अंतिम और बड़े उपाय रहे हैं। इसलिए पूंजीवाद में जैसे संकट अंतर्भूत है, वैसे ही युद्ध भी अंतर्भूत है, जो बाजार, श्रम और कच्चे मालों के स्रोतों के लिए दुनिया के पुन: एवं बारंबार बंटवारा हेतु इजारेदार पूंजीपतियों के द्वारा – कभी शीत युद्ध के रूप में, तो कभी खुले बड़े युद्धों और विश्वयुद्ध के रूप में – लगातार चलाये जाते हैं तथा आगे भी चलाये जाते रहेंगे। दूसरी तरफ, युद्ध से होने वाले महाविनाश के बाद पुनर्मिमाण का एक दौर आता है जिससे मृत्‍युशैय्या पर लेटे पूंजीवाद को जीवन दान भी मिलता है। इसका अर्थ है – मौजूदा विकसित सभ्‍यता के एक हिस्‍से को कुछ समयंतराल पर नष्‍ट किये बिना विश्‍व पूंजीवाद अब जिंदा नहीं रह सकता है। इस तरह साम्राज्यवादी युद्ध से गरीब मुल्‍कों की संपदा की लूट के अतिरिक्‍त हथियारों की बिक्री बढ़ती है जिससे हथियार उद्योग के बड़े इजारेदार पूंजीपतियों को अकूत मुनाफा प्राप्त होता है। दूसरी तरफ, युद्ध से हुए विनाश की ढेर पर पूंजीवादी विकास के लिए मिले नये अवसरों से पूंजीवाद के “जवानी” के दिनों में लौट आने का भ्रम भी पैदा होता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जो महाविनाश हुआ, उसने पूंजीवाद में, खासकर विकसित देशों के पूंजीवाद में, नये सिरे से वि‍कास के लिए एक स्वर्णिम अवसर दिया, जिसकी संभावना वित्तीय इजारेदार पूंजीवाद के प्रभुत्व के सामान्य दौर में न के बराबर रहती है। इसलिए ही लेनिन ने और बाद में स्तालिन ने, इसमें अन्य कारकों के शामिल हो जाने की बात करते हुए, इजारेदार पूंजीवाद के पूरे दौर में पूंजीवाद के आम तौर पर संकट में फंसे होने (general crisis of capitalism) की बात की थी, जिसे युद्ध एवं विनाश और फिर विकास के एक ऐसे ही स्वर्णिम काल के एक लंबे कालखंड (1945-73) में भूला देने की कोशिश की गई। यह अकारण नहीं है कि पूंजीपति वर्ग और उसके भाड़े के प्रोफेसर और चिंतक लोग द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत आये पूंजीवाद के इस स्वर्णिम युग का उदाहरण गर्व के साथ देते हैं। लेकिन वह स्वर्णिम काल 1973 में ऐसे धराशायी हुआ कि पूंजीवादी विकास आज भी धूल-धूसरित है। यानी, 1973 में आया संकट लगातार (रूक-रूक कर विकास करता हुआ) इतना अधिक गहराता गया कि उसके फलस्‍वरूप ही आज विश्व पूंजीवाद अवरोधपूर्ण, अल्‍पावधि वाली एवं क्रमश: गिरते विकास दर के चक्रव्‍यूह में, यानी एक चिरस्थायी संकट में जा फंसा है। वित्तीय इजारेदार पूंजी का वर्चस्व इसके पीछे की मुख्य वजह है। इसलिए जैसे पूंजीवादी संबंधों के अधीन या उसकी छाया में वित्तीय इजारेदार पूंजी का वर्चस्व अपरिवर्तनीय है, वैसे ही विश्व पूंजीवाद का आज का संकट, जो इस वर्चस्व के कारण पैदा हुआ है, भी अपरिवर्तनीय है या हो चुका है। जैसे-जैसे इसका वर्चस्व बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे माल उत्पादन का आज की तुलना में अधिकाधिक उच्छेदन होता जाएगा, और इसलिए संकट भी ज्यादा से ज्यादा गहरा, बड़ा तथा विनाशकारी होता जाएगा। इसलिए ही, पूंजीवादी थिंक टैंक के लोग, जैसे कि मोदी सरकार के पूर्व सलाहकार और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ अरविंद सुब्रमण्यन जैसे लोग अब इस ‘अंतिम’ विकल्प पर विचार करने लगे हैं कि स्थाई आर्थिक संकट (अरविंद सुब्रमण्यन के खुद के शब्दों में ‘पिछले चार दशकों के सबसे गहन आर्थिक संकट’) से बचने के लिए वित्तीय पूंजी के वैश्विक विचरण की गति पर रोक लगाना होगा।3 वित्तीय पूंजी के भाड़े के इन जैसे चाटुकारों की ये बातें सुनकर हंसी ही आ सकती है! पहली बात; वे स्वयं इस बात को साफ कर दे रहे हैं कि वित्तीय पूंजी की आज की गति किसी भी तरह के नियंत्रण से परे जा चुकी है। दूसरी बात; वे वित्‍तीय पूंजी की इस सच्‍चाई, जिसे भाड़े के ये टट्टू हर हाल में छुपाना चाहते हैं,   पर से पर्दा भी उठा दे रहे हैं कि युद्ध, विनाश और तबाही के लिए मुख्‍य रूप से जिम्‍मेवार वित्तीय पूंजी वित्तीय पूंजी के वैश्विक विचरण की विनाशकारी गति न तो पूंजीवादी विकास के आम नियमों के अधीन हुए विकासक्रम से अलग और बाहर से आरोपित किसी तरह की कोई बाह्य गति है जिसे चाहने भर से (आर्थिक नीतियों में सामान्य परिवर्तन करके) नियंत्रित की जा सकती है, और न ही इसका वर्चस्व बाहर से थोपी गयी वस्तु है जिसे हम जब चाहें मिटा दे सकते हैं। यह सब पूंजीवादी विकास के आम नियमों के अधीन पूंजी में अब तक हुए क्रमिक विकास, न्यून से लेकर विशालकाय, परिमाण से लेकर गुण तथा सामान्य से लेकर जटिल और फिर जटिलतर में हुए विकास, का स्वाभाविक परिणाम मात्र है। इसलिए वित्तीय पूंजी के विचरण की गति को सीमित करने की पूंजीवादी सलाहकारों की मिमियाहट इस बात की द्योतक मात्र है कि संकट के स्थायी रूप से असमाधेय हो जाने से पूंजीवादी-साम्राज्यवादी हलकों में अंदर ही अंदर आवेगपूर्ण हलचल व हताशा का माहौल है।

जहां तक तीसरे विश्वयुद्ध की संभावना की बात है, जिसके बारे में वित्तीय पूंजी के बड़े से बड़े सरदारों के बीच यह आम सहमति है कि वह एक बार फिर से पूंजीवाद को विकास के दूसरे स्वर्णिम युग में ले जा सकता है, इसके बारे में हम आज यह कह सकने की स्थिति में हैं कि आज इसके विरुद्ध तीन महत्वपूर्ण कारक तेजी से काम करने लगे हैं। एक की जड़ दो-दो विश्वयुद्धों से होने वाली भारी तबाही के कारण विकसित देशों के आम जनमानस में विश्वयुद्ध की जोरदार खिलाफत करने की भावना में है; तो दूसरे की जड़ आर्थिक संकट जनित खतरनाक हालातों में (मुख्य रूप से बेकाबू महंगाई, बेरोजगारी, वर्क लोड में असामान्य वृद्धि, पेड सिक लीव का अभाव और छुट्टी मांगने पर बर्खास्तगी पत्र थमा देना, आदि शामिल है) अपने एवं अपने परिवार के वर्तमान और भविष्य को बचाने के लिए यूरोप एवं अमेरिका में मजदूर वर्ग एवं आम जनता के फूट पड़े नवीनतम विशाल संघर्षों4 में है, जो लगातार साम्राज्यवादी शासकों को चुनौती दे रहे हैं; वहीं तीसरे की जड़ तीसरे विश्वयुद्ध के नाभिकीय युद्ध में बदल जाने की संभावना से दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में व्याप्त दहशत में है।

पहले के दो साम्राज्यवादी विश्वयुद्धों ने जहां जन साधारण को अकल्पनीय तकलीफें और तबाहियां झेलने को मजबूर किया, वहीं तीसरा विश्वयुद्ध अगर नाभिकीय महायुद्ध का रूप ले लेता है (आज दुनिया के हर देश के पास अपने द्वारा बनाये गये या खरीदे एटम बमों का जखीरा है), तो यह वित्तीय इजारेदार पूंजीपतियों के लिए भी उतना ही खतरनाक होगा जितना कि आम जन साधारण के लिए, क्योंकि दुनिया के श्रम और संपदा को लूट कर उनका बना-बनाया स्वर्ग भी नाभिकीय विश्वयुद्ध में जलकर खाक हो जाएगा।5 वे कल तक शायद यह सोचकर आश्वस्त थे कि विश्वयुद्ध के नाभिकीय युद्ध में तब्‍दील हो जाने की संभावना नहीं है, या अगर है भी तो वे इस संभावना को वास्तविकता में बदलने नहीं देंगे। लेकिन इन्होंने जैसे ही देखा कि रूसी साम्राज्यवादी सरगना पुतिन सनक से भरी नाभिकीय युद्ध शुरू कर देने की धमकी दे रहा है; कि  उसकी प्रतिक्रिया में अमेरिकी साम्राज्यवादी सरगना बाइडेन भी समान तरह की धमकी दे रहा है; कि अमेरिका न सिर्फ रूस के साथ, अपितु अब महाशक्ति बन चुके चीन के साथ भी ताईवान के अलावा अन्य सवालों पर लगातार उलझता जा रहा है और इस तरह साम्राज्यवादियों के बीच के आपसी टकराव को लगातार तीखा बनाता जा रहा है, बावजूद इसके कि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण नाभिकीय युद्ध का खतरा पहले ही सर पर मंडरा रहा है, तो वे समझ गये कि किसी भी बड़े युद्ध की नाभिकीय विश्वयुद्ध में बदलने की संभावना काफी बलवति हो गई है। वे यह समझ गये हैं कि बड़े युद्ध से उनके अपने ऐश्वर्य के टापू के भी जलकर खाक हो जाने का बराबर का खतरा पैदा हो चुका है।

कल तक बात यह थी कि साम्राज्यवादी युद्ध के लिए जनसाधारण का, खासकर दो-दो विश्वयुद्धों का अखाड़ा बने यूरोप के जनमानस का, समर्थन प्राप्त करना मुश्किल होगा, लेकिन आज की स्थिति यह है कि स्वयं ऐसे विश्वयुद्ध की पीछे से कमान संभालने वाले वित्तीय इजारेदार पूंजी के सरदार भी डरे हैं। आज भी इनके द्वारा टुकड़ों में थोपे गये युद्धों से ऐशिया, पश्चिमेशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों में लोगों के हो रहे कत्लेआम से जिनका पत्थरदिल हृदय नहीं पसीज रहा है, वे अब तीसरे विश्वयुद्ध के, या आम तौर पर बड़े युद्धों के नाभिकीय महायुद्ध में तब्‍दील हो जाने की संभावना से बुरी तरह सहम कर साम्राज्यवादी देशों के शासकों, जो इनके द्वारा ही कुर्सी पर बैठाये गये हैं, से दुनिया को इस ओर नहीं ले जाने की अपीलें कर रहे हैं, लेकिन सिर्फ इसलिए कि इन लुटेरों के अपने स्वर्ग के भी पूरी तरह राख में मिल जाने की संभावना पैदा हो गयी है। पूरी दुनिया, और खासकर यूरोप के जन साधारण के बीच साम्राज्यवादी युद्ध से होने वाली तबाही के कारण युद्ध के खिलाफ जिस तरह के तीखे विरोध की भावना देखी जा रही है, उसकी छोटी छवि अब इन लुटेरों के मध्य भी दिखने लगी है। लेकिन हमारे कहने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे अब युद्ध की नीति को त्याग देंगे। यह असंभव है, क्योंकि आज का विश्व पूंजीवाद जहां फंसा हुआ है वहां से आगे का रास्ता विश्वयुद्ध और बड़े युद्धों से होकर ही जाता है, वे इसे चाहें या नहीं चाहें। यह उनकी इच्‍छा से परे है। हमारी बात का अर्थ सिर्फ पहले की तुलना में इस फर्क को समझने में है कि ये चौतरफा संकट में जा फंसे हैं। युद्ध के लिए आगे बढ़ेंगे तो खतरा, नहीं बढ़ेंगे तब भी खतरा। यह पूंजीवाद में अंतर्निहित गहरी अतार्किकता के तेजी से शिखर बिंदु तक पहुंचने की विवशता से भरी प्रवृत्ति को दिखाता है। इस ठौर पर, जहां से सारे बंद होते दिख रहे हैं, इन्हें आज न कल आना ही था। दरअसल, पहले वित्‍तीय संकट और आर्थिक संकट का प्राय: एक दूसरे में विस्‍तार नहीं होता था, लेकिन आज की अर्थव्‍यवस्‍था की स्थिति पहले की तुलना में इस मायने में पूरी तरह भि‍न्‍न हो चुकी है कि आर्थिक संकट और वित्‍तीय पूंजी का संकट, दोनों का एक दूसरे में विस्‍तार या विलय हो चुका है, एक का परिणाम दूसरे पर बिना देरी किये प्रभाव पड़ रहा है, और वे लगभग एकाकार हो चुके हैं। 

वैसे इजारेदार वित्‍तपतियों का ‘नेक’ इरादा यह था कि विश्वयुद्ध हो लेकिन वह नाभिकीय युद्ध में नहीं तब्दील हो। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध ने दिखाया कि हालांकि युद्ध तो ये लुटेरे पूंजीपति ही शुरू करते हैं, परंतु वे शायद यह भूल जाते हैं कि जब एक बार विश्‍वयुद्ध वास्तव में शुरू हो जाता है तो फिर यह नाभिकीय बमों के जखीरे पर बैठी इस दुनिया में कहां जाकर रुकेगा, इसके बारे में भविष्‍यवाणी भला कैसे की जा सकती है! वे भी नहीं कर सकते जो अपने हितों केलिए उसे शुरू करते या करवाते हैं। ऐसे में, वित्‍तपतियों का यह डर स्‍वाभाविक ही है कि आम जन साधारण की जिंदगी की तरह इनका स्वर्ग भी इकट्ठे मिट्टी में मिल जाएगा। इससे बचने के लिए इन्हें किसी और ग्रह पर अपना स्वर्ग बनाने की व्यवस्था करनी होगी, लेकिन निकट भविष्य में तो समें सफलता नहीं मिलने वाली है। इसलिए यह संभव है कि उससे पहले ही पूंजीवादी-साम्राज्‍यवाद का मवाद से भरा फोड़ा फट जाए और उनके स्वर्ग सहित पूरी दुनिया में इनके द्वारा कब्‍जाये सभी तरह के धन-संपदा तथा पूंजी, जो बहुत पहले ही सामाजिक चरित्र का हो चुका है, पर मजदूर-मेहनतकश वर्ग के नेतृत्व में सामाजिक स्वामित्व कायम कर लिया जाए।       

दरअसल रूस-यूक्रेन युद्ध उपरोक्‍त “फोड़े” के फूटने, हालांकि सीमित रूप से फूटने, का ही परिणाम है, यानी यह विश्व पूंजीवाद के असमाधेय संकट के कारण तीखे हो रहे अंतर्विरोधों का ही परिणाम है। इसके नही खत्‍म होने से पूंजीवादी-साम्राज्यवाद के अंदर के सारे अंतर्विरोध और भी अधिक तीखे होते जा रहे हैं, जिससे विश्व चाहे-अनचाहे तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है। यानी, पूरी दुनिया एक नाभिकीय महायुद्ध के मुहाने पर भी आ खड़ा हुआ है, जिससे इसके विरूद्ध कार्यरत कारणों में एक नया आयाम, दुनिया के सबसे अमीरों में उत्‍पन्‍न भय का आयाम, आ जुड़ा है। इस तरह आज पूंजीवादी-साम्राज्यवाद के अंदर के अंतर्विरोध इतने तीखे हो चुके हैं कि कुछ भी हो सकता है। इजारेदार वित्तीय पूंजीपतियों के बीच विश्‍वयुद्ध से व्याप्त भय, जो अपने आप में अविश्‍वसनीय है, का ठीक-ठीक यही कारण है। अंतर्विरोधों को नजारा इतना भयानक है कि उस पर गौर करते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं! अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष बाइडेन नाटो देशों की एकजुट सैन्य ताकत से रूस और चीन, आदि के बढ़ते कदम को रोकना चाहता है ताकि उसके एकछत्र साम्राज्य में रूस और चीन जैसे ताकतवर देश विलीन हो जाएं, तो रूसी साम्राज्यवादी सरगना पुतिन ने भी साफ-साफ कह दिया है कि अगर रूस को घेरा गया तो वह सीधे-सीधे एटम बम गिराकर यूरोप और अमेरिका को ध्वस्त कर देगा। यह ऐसा है, मानो एक के अस्तित्व के लिए दूसरे के वजूद को मिटना होगा। आर्थिक संकट जनित अंतर्विरोध इतने तीखे हो चुके हैं कि  संभालते नहीं संभल रहे हैं। सबसे मजे की बात यह है कि दुनिया के अमीरों को यह लगने लगा है कि पुतिन जो कह रहा है वह कर भी सकता है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद के हालात से यह महत्वपूर्ण संभावना प्रकट होती है कि विश्व पूंजीवाद के लिए संकट से निकलने के सारे रास्ते एक-एक कर बंद होते जाएंगे या होते जा रहे हैं। उसमें विश्वयुद्ध का रास्ता भी है, जिसे अभी खारिज तो नहीं किया जा सकता है, लेकिन इतना तय है कि अब वित्तीय पूंजी के इजारेदार सरगनाओं भी यह रास्ता उतना निरापद नहीं रह गया है, जैसा कि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण उत्‍पन्‍न नाभिकीय युद्ध के खतरे के भय से दुनिया के सबसे अमीरों के बीच मचे करूण क्रंदन से अनुमान लगाया जा सकता है।

तो क्या लगातार गिरते विकास दर, अवरोधपूर्ण विकास और मुनाफे के पहिये के लगातार जाम होने के कारण युद्ध और विनाश के प्रतीक आज के पूंजीवाद के पास अपने को पुनर्जीवित करने का क्‍या विश्‍वयुद्ध का रास्‍ता भी नहीं बचा है? अभी ठोस तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि अब पूंजीवाद के दिन जल्द ही लदने वाले हैं। जो देरी है वह इस सड़े-गले, विगलित और मानवद्रोही पूंजीवाद को कब्र तक पहुंचाने में हो रही असफलता के कारण हो रही देरी है जिसके लिए  क्रांतिकारी अगुआ शक्तियों की तरह-तरह की कमजोरियां ही मुख्य रूप से जिम्मेवार हैं। कुछ लोग ऐसा पूछ सकते हैं – “क्या वर्तमान वस्तुगत परिस्थितियां पहले से इतना भिन्न हैं जिसके कारण आज किसी विशेष पहल की जरूरत पैदा हो गयी है, और लेनिनवादी पार्टी के गठन की जरूरत पर इतना अधिक बल दिया जा रहा है?” हमारा जवाब है – हां, आज की परिस्थिति कई मायनों में पहले से एक भिन्न तरह की वस्तुगत परिस्थितिहै। निरंतरता के साथ कायम संकट में मात्रात्मक वृद्धि तो 1973 से ही हो रही थी और हम इस पर गौर करते हुए इसे नोट भी करते रहे हैं। लेकिन यह संभव है कि कुछ लोग अर्थव्यवस्था में हुए और आज भी हो रहे महत्वपूर्ण परिवर्तनों पर उचित रूप से ध्यान नहीं दे पाये हों, और इसलिए पहले की तुलना में आज की परिस्थिति में हुए कुछ खास गुणात्मक फर्क उन्हें नहीं भी दिख रहे हों। जैसा कि हम जानते हैं, मात्रा में एक खास बिंदु तक विकास होने के बाद चीजों में गुणात्मक परिवर्तन की एक छलांग आती है, यहां भी ठीक वैसी ही छलांग दिख रही है। हर बार वित्तीय इजारेदार पूंजीपति वर्ग विश्व पूंजीवाद के संकट को दूर करने या उसे खत्म करने के लिए नहीं भी तो कम से कम अपने अधिकतम संभव मुनाफे को सुनिश्चित करने के सीमित लक्ष्‍य के लिए कुछ न कुछ नया रास्ता खोज निकाल लेता रहा है। यह वास्तव में दर्शनीय है कि संकट से बचने के इस एक “सीमित लक्ष्य” तक इजारेदार वित्तीय पूंजीपति वर्ग की चिंताएं सिमट चुकी हैं! वित्तीय पूंजी की (अपने मुनाफे को लेकर अत्यंत सीमित लक्ष्य से प्रेरित होने वाली) यह चारित्रिक विशेषता ही है जो उसे पूरे पूंजीपति वर्ग के मुनाफे की चिंता से मुक्त होने और साथ ही पूंजीवादी व्यवस्था को अस्थिर करने वाले, उसके द्वारा ही पैदा किये जा रहे, कारकों के प्रति आंख मूंदने की प्रवृत्ति की तरफ धकेलती है। यह अतार्किकता दिखती है, तो इसमें हमारा दोष नहीं है, अपितु पूंजी और खासकर वित्तीय पूंजी का दोष है जिसके रग-रग में अतार्किकता भरी हुई है। एकमात्र मृत्यु का भय, यानी सर्वहारा क्रांति का भय ही उसे वापस होश में लौटने के लिए मजबूर कर सकती है। लेकिन उसके होश में लौटने में समाज की उससे मुक्ति निहित नहीं है। समाज की इससे पूर्ण मुक्ति वित्तीय पूंजी और इसके जनक पूंजीवाद को मृत्युदंड देकर ही हो सकती है। इतिहास इसका फरमान जारी कर चुका है, लेकिन एकमात्र सर्वहारा वर्ग की क्रांति ही इस फरमान को लागू कर सकती है। लेकिन सवाल यही है, सर्वहारा क्रांति की राह की अड़चने क्या हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? इस पुस्तिका में ठीक इसी विषय पर गंभीरता से चर्चा की गई है जो इस आलेख या पुस्तिका को प्रकाशित करने की मुख्‍य वजह भी है। 

वित्तीय पूंजी के उपरोक्त सीमित लक्ष्य, जिससे पूंजीवादी व्यवस्था अस्थिर भी होती है, के बारे में यहां चंद और बातें करना जरूरी है। सबसे पहली बात तो यह कि इस “सीमित” लक्ष्य को भी हासिल करने में वित्तीय पूंजी अब बहुत दिनों तक सफल नहीं हो सकेगी, जो वित्तीय पूंजी के विषम संकट को दिखाता है। इसका सबसे पड़ा प्रमाण वित्तीय पूंजी का आधिक्य है जो विकासमान माल उत्पादन के क्षेत्रों के अभाव के कारण यूं ही  अनुपयोगी और बेकार पड़ी रहने लगी है। वित्‍तीय पूंजी का संकट ठीक-ठीक यह है कि उसके बार-बार वास्तविक उत्पादन के क्षेत्र में लौटने और अपने मुनाफे को समेटकर रफूचक्कर होने के लिए विकासमान उत्पादक क्षेत्रों की संख्या लगातार कम पड़ती ला रही है। वास्तविक उत्पादन क्षेत्र से यह जितना मुनाफा पहले बटोरती थी, उसमें लूट में तेजी आने के बावजूद लगातार कमी आई है। इसकी वजह से वित्तीय बाजार के माध्यम से पहले के उत्पादित मूल्य की लूटमार पहले की अपेक्षा और तीखी हो चुकी है। वहां भी सुपर मुनाफा कमाने के अवसरों की कमी आती जा रही है जो पूंजी निवेश में आयी कमी से और बढ़ेगी। वित्तीय बाजार की इस मारकाट में अभी अधिकांशतः छोटी पूंजियां बड़ी इजारेदार वित्‍तीय पूंजी का निवाला बन रही हैं, लेकिन कल अपेक्षाकृत बड़ी पूंजियां भी इनका निवाला बनेंगी। यह अहर्निश जारी रहने वाली प्रक्रिया है जब तक कि इसका और इसकी जननी पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था का अंत नहीं कर दिया जाता है। इससे जो तस्वीर उभरती है, वह पूंजी/वित्‍तीय पूंजी के अतिविकास के बोझ से लरजती-चरमराती-टूटती पूंजीवादी समाज व्यवस्था की एक भयावह तस्वीर है। 

लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि यह पेड़ पर लटके उस पके फल की तरह है जो एक दिन स्वयं ही डाली से टूट कर गिर जाता है। ऐसा कभी नहीं होने वाला है, क्योंकि संकटग्रस्‍त पूंजीवाद पेड़ का पका हुआ फल नहीं है। यह उस जिंदा लाश की तरह है, जो किसी तरह भी हो सांस ले पा रहा है, भले ही इसके अंग-प्रत्यंग सड़ चुके हैं। यह स्वयं से चलकर कब्र में जाने वाला नहीं है, हालांकि इससे समाज में जानलेवा दुर्गंध फैल रहा है। कहने का मतलब यह है कि अगर इस जिंदा लाश की कपाल-क्रिया नहीं की गई, तो इससे जनित सारी मानवद्रोही खतरनाक चीजों, जैसे बेरोजगारी, भुखमरी, महंगाई, बदहाली, तबाही से लेकर नाभिकीय युद्ध की संभावना, आदि बनी रहेगी। दुनिया पहले ही विशाल आबादी के लिए नरक में तब्दील हो चुकी है, अब अगर पूंजीवाद की लाश को नहीं हटाया गया तो समाज पूरी तरह उत्पादक शक्तियों की कब्र में तब्दील हो जाएगी। दुनिया आम लोगों के लिए खौलता हुआ बजबजाता नरक बन जाएगी। यही नहीं, नाभिकीय विश्वयुद्ध की संभावना का मतलब यह भी है कि मानवजाति का अस्तित्व कभी भी मिट सकता है। इससे बचने का रास्ता यही है कि पूंजीवाद को इतिहास के रंगमंच से विदा करने की तैयारी की जाये, जो एकमात्र मजदूर वर्ग ही अपने नेतृत्व में कर सकता है। सर्वहारा क्रांति उस दिशा में उठाया जाने वाला कदम है, लेकिन उसके भी पहले का कदम यह है कि उसके लिए जरूरी सारे उपकरण और औजार इकट्ठा किये जाएं और सब को मिलाकर एक लेनिनवादी पार्टी रूपी मशीनरी तैयार की जाए।

लेकिन सवाल है, यह पहला कदम कैसे उठाया जायेगा? लेकिन इसके बारे में कोई हमसे पूछेगा तो हम उससे पलट कर यह पूछना चाहेंगे कि इस पहले कदम से भी पहले, और फिर इसके भी पहले का कदम क्या है, जिसे उठाये बिना सर्वहारा क्रांति की तरफ कदम एक मामूली उठाना भी असंभव होगा? सर्वहारा क्रांति क्या मजदूर वर्ग अपने आप से, बिना किसी अग्रदल के, कर सकता है? यह अग्रदल क्या होता है, और यह किस तरह बनता है? यह अग्रदल, जो अपने आप में अल्पमत होता है, बहुमत मजदूर-मेहनतकश जनता का समर्थन कैसे हासिल करेगा? इसके सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक पहलू क्या हैं? इसका इतिहास क्या है? क्या हमारे पास इसके बारे में कुछ ऐतिहासिक अनुभव हैं?

यह पुस्तिका इसी तरह के सवालों का जवाब देने की कोशिश करती है। इसके लिए रूसी अक्टूबर क्रांति के दौरान बोल्शेविक पार्टी की कार्रवाइयों के ऐतिहासिक महत्व के अनुभवों, इन अनुभवों पर आधारित “क्रांति के द्वंद्वात्मक विकास” के नियमों के बारे में जर्मन क्रांतिकारी रोज लक्जमबर्ग की टिप्पणियां, सर्वहारा वर्ग की शक्तियों के केंद्रीकरण और सदर मुकाम के रूप में पार्टी के गठन को लेकर लेनिन की विशेष शिक्षा, घोर अराजकतावादी बकुनिनपंथ के खिलाफ मार्क्स-एंगेल्स के वैचारिक संघर्ष, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टों में मार्क्स-एंगेल्स की कम्युनिस्टों की मजदूर आंदोलन में विशेष भूमिका को, यानी संक्षेप में कहें तो मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धांत व ज्ञान के विशाल भंडार के एक अल्प हिस्से को आधार बनाया गया है। इसी के साथ हम इस बात से भी इनकार नहीं करते हैं कि इस पुस्तिका को आगे निस्संदेह और भी अधिक समृद्ध एवं परिपूर्ण बनाया जा सकता है। 

उम्मीद है, इसे पढ़ना उन लोगों के लिए खासकर लाभप्रद होगा जो दुनिया को बदलने में वास्तव में तथा जान की बाजी लगाकर लगे हुए हैं।

Footnotes –

1 ‘गहराता संकट और लेनिनवादी पार्टी की जरूरत’ (संपादकीय) एवं ‘महान रूसी अक्टूबर क्रांति की 105वीं वर्षगांठ के अवसर पर इसके कुछ अहम सबकों पर संक्षित चर्चा’ जो ‘यथार्थ’ के पिछले अंक (अक्टूबर 2022, वर्ष 3 | अंक 6) में प्रकाशित हो चुके हैं।

 2 आर्थिक संकट के आंकड़े और पूंजीवादी थिंक टैंक के अर्थशास्त्रियों, आयोगों के अध्यक्षों एवं नीति निर्माताओं व विशेषज्ञों, आदि के इस संबंध में दिये गये बयानों के उद्धरण प्राय: लेख को बोझिल बना देते हैं, खासकर वैसे लेख को, जिसका मूल उद्देश्य यह साबित करना नहीं है कि किस तरह पूरा विश्व आर्थिक संकट से घिरा हुआ है। ‘यथार्थ’ और इसी तरह की अन्य पत्रिकाओं में इस विषय पर लगातार लेख लिखे जाते रहे हैं।     

3 अरविंद सुब्रमण्यन के बयान के लिए फूटनोट 11 देखें (मुख्य आलेख में)

4 जो मानो चंद दशक पुराने इतिहास में पूंजीपति वर्ग के साथ सहयोग करने के पाप के प्रायश्चित स्वरूप फूट पड़े हैं, और आज की विषम आर्थिक परिस्थितियों से बीते कल के काल्पनिक ख्वाबों (साम्राज्यवादी लूट के टुकड़ों पर सदा के लिए सुंदर-सुखमय भविष्य के काल्पनिक ख्वाबों) से तुलना करके प्राप्त अनुभवों पर आधारित हैं। जो भी हो, लेकिन हम इसे इसी रूप में देखना पसंद करेंगे।

 5 इस संबंध में दुनिया के सबसे अमीर पूंजीपति एलन मस्क का ट्वीट काबिलेगौर है जिसमें उसने अमेरिका से यूक्रेन के लोगों की चिंता करने के बहाने यह गुहार लगाया था कि रूस को मुश्‍तरका युद्ध के लिए नहीं उकसाना चाहिए। फार्च्यून.कॉम के अनुसार “The world’s richest man (Elon Musk) wants the west to more seriously consider the risk of nuclear conflict and WW III breaking out over Ukraine.” इसी में एलन मस्क के उद्धृत शब्द – “If Russia is faced with the choice of losing Crimea or using battlefield nukes, they will choose the latter.”