क्रांतिकारी मजदूर और किसान आंदोलन की राह की चुनौतियां और हमारे कार्यभार

January 24, 2023 0 By Yatharth

[29 दिसंबर 2022 को जीपीएफ, नई दिल्ली में उपरोक्त विषय पर कॉमरेड सुनील पाल के 13वीं शहादत दिवस पर आयोजित कन्वेंशन में प्रस्तुत आधार पत्र]

अजय सिन्हा

किसी विशेष प्रश्न की क्रांतिकारी प्रस्तुति से ही हम किसी क्रांतिकारी कार्यभार पर पहुंचते हैं। जहां तक प्रश्न वास्तविक है और भौतिक दुनिया में मौजूद है, इसकी क्रांतिकारी संभावना या क्षमता को केवल ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक रूप से प्रस्तुत किए जाने के माध्यम से ही समझा और परखा जा सकता है। इसलिए, एक प्रश्न से जुड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए क्रांतिकारी कार्यभारों को इस मार्क्सवादी पद्धति या प्रक्रिया को लागू करने से ही समझा जा सकता है। इसे ही हम किसी दिए गए प्रश्न की क्रांतिकारी या मार्क्सवादी प्रस्तुति कहते हैं। मैं विनम्रतापूर्वक निवेदन करता हूं कि मैंने उपरोक्त विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करने में इस पद्धति को लागू करने की अपनी पूरी क्षमता से कोशिश की है जो आज की चर्चा का मुख्य विषय है।

भूमिका के बदले में

विषयवस्तु बताता है कि मजदूरों और किसानों का आंदोलन बढ़ रहा है। अन्यथा इसकी चुनौतियों पर चर्चा करने की या यूं कहें कि इसके रास्ते में आने वाली चुनौतियों की चर्चा करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। हालांकि, मैं विषय की सामग्री में यह जोड़ना चाहता हूं कि श्रमिक और किसान आम जनसाधारण का एक बड़ा हिस्सा हैं। इसलिए हमें मजदूरों और किसानों की जगह आम जनसाधारण जनता की बात करनी चाहिए और क्रांतिकारी मजदूर और किसान आंदोलन की जगह क्रांतिकारी जनांदोलनों की बात करनी चाहिए। ऐसा समय आता है जब किसी चीज पर जोर देने के लिए शब्दों का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। यहां जोर देने का विषय इतिहास का वह क्षण या वर्तमान मोड़ है जब लेनिन द्वारा कहे गये नये पूंजीवाद [1], जो एकाधिकारी चरण के उदय के द्वारा चिन्हित हुआ था, का वित्तीय समेकन (ठोसीकरण) हो रहा है या हो चुका है। इस समेकन को विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पर वित्तीय पूंजी के एकाधिकार के कमोबेश पूर्ण नियंत्रण में देखा जा सकता है। इसलिए इस तथ्य का विशेष उल्लेख आवश्यक है कि इस समय कुल मिलाकर आम जनता ही है जिसके अलग-अलग तबके वित्तीय पूंजी के तत्वावधान में एक-एक करके उत्पीड़ित व शोषित हैं और उजड़ रहे हैं। इसलिए आज की महत्वपूर्ण चर्चा को मजदूरों और किसानों तक सीमित करने से आज की परिस्थिति का वह दायरा कम हो जाएगा जो अभी मौजूद है और जिसे आज की चर्चा के विषय के रूप में शामिल करने और लाने की आवश्यकता है। मुझे आशा है कि चर्चा के दायरे को सीमित करना आयोजकों का उद्देश्य नहीं है। एक क्रांतिकारी भौतिकवादी भी होता है और इसलिए पिछले कुछ दशकों की दीर्घावधि में विश्व पूंजीवाद में हुए परिवर्तनों को ध्यान में रखने से हममें से किसी को इनकार नहीं करना चाहिए। 1973 में आए आर्थिक संकट, जिसने पूंजीवाद के सुनहरे दौर का अंत कर दिया, पुराने पूंजीवाद पर वित्तीय पूंजी के एकाधिकार का समेकन इतना स्पष्ट और साफ है कि उसे नजरअंदाज करना असंभव है। आज जो ठोस स्थिति मौजूद है वह एक युद्ध के मैदान के समान है जिसकी स्पष्टता ऐसी है कि इसे कुछ शब्दों में भी इस तरह से इंगित किया जा सकता है : युद्ध के मैदान के एक तरफ पूरी तरह से ‘पूंजी की दुनिया’ है, जबकि दूसरी तरफ संपूर्णता में ‘आम जनसाधारण की दुनिया’ है। ‘पूंजी की दुनिया’ के पास वित्तीय पूंजी के रूप में उसका अग्रणी धावक और नेता है और इसका कुलीनतंत्र है जो साथ में अपनी ही दुनिया की छोटी और मध्यम पूंजियों का भक्षणकर्ता भी है – जबकि ‘आम लोगों की दुनिया’ के पास सर्वहारा वर्ग जैसा वर्ग उसका अग्रणी नेता है जो एक ऐसा वर्ग है जो एकमात्र अपनी श्रम शक्ति का मालिक है जिसे वह पूंजी के मालिकों को बेचकर जीवित रहता है। पूंजी की इस दुनिया की विशेषता यह है कि इसके अस्तित्व में आने की शुरुआत से ही बड़ी पूंजी और छोटी पूंजी के बीच प्रतिस्पर्धा के रूप में इसके अपने ही सदस्यों के बीच संपत्ति हड़पने का एक अघोषित युद्ध चल रहा है। यह तब से ही वर्ग- विभेदीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहा है। बड़ी पूंजी और बड़ी होती गईं, जबकि छोटी पूंजी और छोटी। कई वर्षों और दशकों की अवधि में, सबसे बड़ी पूंजियों का एकाधिकार उभरा जिसने बैंकिंग पूंजी के उदय के साथ-साथ वित्तीय पूंजी और उसके एकाधिकार को जन्म दिया।

आज की दुनिया में संपत्ति हड़पने की अत्यधिक तीव्र लड़ाई यह स्पष्ट करती है कि छोटी और मध्यम पूंजियां बड़ी वित्तीय पूंजी के साथ सह-अस्तित्व में क्यों नहीं जिंदा रह सकती हैं, जबकि ये हीं पूंजी की दुनिया का संख्यात्मक रूप से सबसे बड़ा हिस्सा हैं । यह बात यह भी स्पष्ट करती है कि क्यों आज ‘आम लोगों की दुनिया’ में छोटी और मध्यम पूंजियां भी शामिल होने को विवश हो रही हैं जिससे दोनों दुनिया आंशिक रूप से एक-दूसरे को ओवरलैप करती हैं। जैसे कि ‘आम जनसाधारण की दुनिया’ यहां दूसरे यानी ‘पूंजी की दुनिया’ के एक हिस्से, यानी छोटी और मध्यम पूंजियों को समाहित करती है। इस तरह यह साफ-साफ देखा जा सकता है कि आम लोगों की दुनिया यहां स्पष्टत: बहुत बड़ी हो जाती है। यह स्पष्ट है कि बड़े वित्तीय शार्कों के प्रभुत्व में चलने वाली ‘पूंजी की दुनिया’ से छोटी और मध्यम पूंजी का एक बड़ा हिस्सा ‘लोगों की दुनिया’ में पलायन कर जाने की कगार पर आ गया है। इस प्रकार ‘पूंजी की दुनिया’ के प्रमुख वित्तीय पूंजी की शक्ति कमजोर हो रही है। वह अकेला पड़ रहा है। यह एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है जो आज अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में हुआ है, विशेष रूप से जब दोनों दुनिया एक दूसरे के खिलाफ इतने तीव्र तरीके से युद्ध कर रहे हैं जैसा कि पहले कभी नहीं देखा गया है। स्थिति इतनी खराब हो चली है कि इस युद्ध का अंतिम परिणाम ही वह अकेली चीज है जिस पर मानव जाति का अस्तित्व निर्भर करता है। हालांकि इतिहास ने अपनी गति के नियमों के अनुसार/अधीन पूंजीवाद के खिलाफ अपना फैसला – सर्वहारा वर्ग द्वारा पूंजीवाद के खिलाफ मौत की सजा का फैसला – दिया है, फिर भी मानव जाति का अस्तित्व तब तक खतरे में है जब तक कि ‘पूंजी की दुनिया’ अस्तित्व में रहती है और यह अपने तर्कों को चलाती रहती है। विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था, यानी अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोध इतने तेज व तीखे हो गए हैं कि ‘लोगों की दुनिया’ और ‘पूंजी की दुनिया’ जिसके शीर्ष पर वित्तीय पूंजी है सह-अस्तित्व में रह ही नहीं सकती है। लेकिन साथ में छोटी और मध्यम पूंजियां भी वित्तीय पूंजी के साथ सह-अस्तित्व में नहीं रह सकती है। इस प्रकार ‘पूंजी की दुनिया’ का स्टेटस वित्तीय पूंजी की दुनिया में सिमट कर रह गई है। इस तरह ‘पूंजी की दुनिया’ आज पूरी तरह से अव्यवस्थित पाई जा रही है क्योंकि छोटी और मध्यम पूंजियां (चाहे किसान हों, दुकानदार हों, छोटे और मध्यम व्यवसायी हों या फिर छोटे-मध्यम कारखाने के मालिक) इस सरल लेकिन अघोषित कानून के अनुसार बड़े पूंजीपतियों द्वारा लगातार उजाड़ी या फिर छीनी जा रही हैं। पूंजीवाद के अघोषित नियम के अनुसार बड़ी मछलियां निश्चित रूप से छोटी मछलियों को निगल जाएंगी। यहां, आज की वित्तीय पूंजी लगभग एक सौ साल पहले लेनिन द्वारा वर्णित वित्तीय पूंजी नहीं है। यह अत्यंत तेजी से बढ़ी हैं, मानों बड़ी बड़ी मछलियों से बड़ी महासागर वाली शार्क मछलियों में। लेनिन के समय में जिन छोटे-छोटे तालाबों में कभी यह अघोषित कानून संचालित होता था, वे बड़े समुद्र से भी मिल गए हैं जहां बड़ी-बड़ी मछलियां भी शार्क द्वारा निगले जाने के निमित्त जीवित रहती हैं। संक्षेप में, जिन राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर लेनिन ने इस अघोषित कानून को संचालित होते देखा था, वे अब अंतर्राष्ट्रीय सीमा में विलीन हो गई हैं, हालांकि इसके बावजूद राष्ट्रीय सीमाएं अभी भी मौजूद हैं।

आज हर दिन मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा बढ़ रहा है क्योंकि सुपर मुनाफे या अधिकतम मुनाफे के लिए वित्तीय पूंजी की असीमित भूख दुनिया को फासीवाद को बढ़ावा देकर राष्ट्रों के एक समूह और दूसरे समूह तथा लोगों के एक समूह और दूसरे समूह के बीच के भ्रातृघातक युद्धों की ओर धकेल रही है। प्रतिगमन की ताकतें सत्ता में आ रही हैं। यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि दो दुनिया (एक तरफ ‘पूंजी की दुनिया’ और दूसरी तरफ ‘आम जनसाधारण की दुनिया’) के बीच के इस क्रांतिकारी युद्ध में कौन जीतेगा? हालांकि ऐतिहासिक फैसला (इतिहास का फैसला) सर्वहारा वर्ग के पक्ष में आ चुका है, जैसा कि पहले ही ऊपर कहा जा चुका है, फिर भी उसका (फैसले का) भाग्य इस बात पर निर्भर करता है कि उपरोक्त फैसले को कितनी तेजी से और कितनी क्षमता और सटीकता से क्रियान्वित किया जाता है।

मुक्ति के लिए लोगों की पुकार और उससे उत्पन्न होने वाली चुनौतियां: श्रमिक-वर्ग परिप्रेक्ष्य बनाम लघु पूंजी परिप्रेक्ष्य

इससे पहले कि हम क्रांतिकारी जनता के आंदोलन के मार्ग में आने वाली चुनौतियों को दूर करने के लिए मौजूदा आंदोलन की अन्य तरह की कमजोरियों की व्याख्या में तल्लीन हों, आम लोगों की मुक्ति की इस नवीनतम पुकार के मजदूर वर्गीय परिप्रेक्ष्य और छोटी पूंजी के परिप्रेक्ष्य में निहित अंतर को समझना नितांत आवश्यक है।

आजकल, मुक्ति (emancipation) जनता के बीच सबसे अधिक सुनाई देने वाला शब्द बन चुका है। अब इसका उपयोग न केवल मजदूर वर्ग और मेहनतकशों द्वारा किया जाता है, बल्कि उन लोगों द्वारा भी किया जाता है जो निजी संपत्ति और पूंजी के मालिक हैं,  लेकिन जो साथ में इजारेदार वित्तीय पूंजी की लूट के सामने मालिक के रूप में अपने अस्तित्व को खतरे में पाते हैं और इसे शिद्दत से महसूस भी करते हैं। इसलिए, मुक्ति शब्द का अर्थ अब पूंजी द्वारा आरोपित मजदूरी प्रथा की दासता और शोषण की जंजीरों से मुक्ति के संदर्भ में अपने पुराने मजदूर वर्गीय अर्थ की गूंज तक सीमित नहीं रह गया है। इसके अतिरिक्त अब इसने छोटे-मझोले पूंजीपतियों के बीच बड़ी पूंजी की एकाधिकारी लूट से मुक्ति के मामले में भी, हालांकि बिना मजदूरी प्रथा की गुलामी और आदमी द्वारा आदमी के शोषण को खत्म किए बिना ही, प्रासंगिकता हासिल कर ली है। लेकिन प्रश्न है, वे इतने हताश और उतावले क्यों हैं? उत्तर बहुत सरल है, लेकिन उनके लिए जो अंधे नहीं हैं और चीजों को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। दरअसल वे भौतिक जीवन के अपने स्वयं के अनुभव से महसूस करते हैं कि देर-सबेर उनमें से अधिकांश बड़ी पूंजी द्वारा हथिया या निगल लिए जाएंगे। इसी ने उन्हें हताश और उतावला कर दिया है। एक छोटे पूंजीपति के रूप में भौतिक जीवन के उनके अनुभव ने उन्हें मुक्ति के बारे में सोचना सिखाया है, लेकिन केवल बड़ी पूंजी के हाथों उनके स्वामित्व की रक्षा व मुक्ति के रूप में। यह सर्वहारा बनने यानी सर्वहारा में परिणत होने से बचने की उनकी इच्छा से प्रेरित उनकी अपनी कल्पना की मुक्ति की अवधारणा है। वे शोषण की व्यवस्था के खिलाफ नहीं हैं। बल्कि इसके विपरीत, वे इसका आम तौर पर समर्थन करना बेहतर मानेंगे। लेकिन जब वे अंत में यह देखते हैं कि इसका चरम परिणाम (छोटी पूंजी का बड़ी पूंजी द्वारा किया जाने वाला संपत्तिहरण) उनके खिलाफ हो गया है, तो वे सबसे पहले अविश्वास में अपनी आँखें मलते हैं और फिर मुक्ति की दुहाई देते हैं। जब उन्हें लगता है कि यह एक स्थायी घटना है, तो वे अधिक बेचैन होकर रोते-चिल्लाते हैं और ‘क्रांतिकारी’ बन जाते हैं, यानी क्रांतिकारी बनने का स्वांग करते हैं।

हालाँकि, मुक्ति शब्द और ऐतिहासिक रूप से निर्धारित मुक्तिदायी भूमिका का दावा – स्वयं को मुक्त करने से पहले अन्य सभी उत्पीड़ितों, कुचले व शोषितों को मुक्ति दिलाने की भूमिका का दावा – विशेष रूप से और एकमात्र सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है। यह अभी भी नहीं बदला है और भविष्य में भी नहीं बदलेगा। पूंजी के स्वामित्व वाला कोई भी वर्ग इस तरह की मुक्तिदायी भूमिका आधुनिक युग में कभी नहीं निभा सकता है। यह मार्क्स-एंगेल्स ही थे जिन्होंने आज से 150 साल पहले [2] सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के रूप में इस भूमिका की कल्पना ही नहीं की थी अपितु इसे इतिहास की भौतिक गति में रेखांकित भी किया था। हालाँकि, यह सच है कि सर्वहारा वर्ग की इस मुक्तिदायी भूमिका और ऐतिहासिक मिशन को आज से पहले कभी भी इतनी अधिक स्पष्टता के साथ समझा या महसूस नहीं किया गया था, जब पूंजी संचय का आगे बढ़ना न केवल श्रमिक वर्ग के अस्तित्व को तीव्र दरिद्रता में धकेल रहा है, बल्कि उन लोगों को के अस्तित्व को भी खतरे में डाल रहा है जो छोटी पूंजी के मालिक हैं। इस तरह छोटी पूंजी की मुक्ति की चीख पुकार या इसका ताजा रोना-धोना सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक मिशन की प्राप्ति को सुगमता प्रदान करता है, यानी इससे गहरे रूप से जुड़ा है। इतना ही नहीं, यह परिस्थिति एक सामाजिक व्यवस्था और उत्पादन प्रणाली के रूप में पूंजीवाद के संकट की गंभीरता की माप भी है और यह खुद को भविष्य के नेता, शासक और समाज के स्वामी के रूप में पेश करने के लिए सर्वहारा वर्ग को एक सुनहरा अवसर भी सौंपती है, जिसे हासिल किये बिना किसी भी मध्यस्थ या दरमियानी वर्ग (जैसे कि किसान और किसान जो कॉर्पोरेट द्वारा बलपूर्वक हड़प लिये जाने वाले हैं) की उनकी दुख-तकलीफों से अंतिम मुक्ति कभी नहीं हो पाएगी। आज की परिस्थिति के मद्देनजर मजदूर वर्ग और उसके अगुवा केन्द्रों को मजदूर एवं सर्वहारा वर्ग की इस भूमिका को पहले से ही तात्कालिक कार्यभार के रूप में चिन्हित कर लेना चाहिए। आज की वैश्विक परिस्थिति निस्संदेह हमारे द्वारा इस बिंदु पर तत्काल ध्यान देने की मांग करती है। इस तात्कालिक कार्यभार की पूर्ति की आवश्यकता की ओर इतना आवश्यक ध्यान देना हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती के समान माना जा सकता है, क्योंकि यहां सर्वहारा वर्ग के तात्कालिक कार्यभार का उसके अंतिम व दूरगामी कार्यभार के साथ एक स्पष्ट मिलन दिखाई देता है। लेकिन इसे अपना मुख्य कार्य निर्धारित करने से पहले इस चुनौती से जुड़ी कई और अन्य पेचीदगियों और महीन बातों को भी गहराई से समझना आवश्यक है।

दरमियानी वर्ग के लिए मुक्ति शब्द का क्या अर्थ है? इसके बारे में बात करते समय हमें किस बात का ध्यान रखना चाहिए? पहले प्रश्न का उत्तर पहले ही दिया जा चुका है, अर्थात बड़ी पूंजी द्वारा उनकी संपत्ति हड़पे जाने से मुक्ति, जबकि सर्वहारा वर्ग और अन्य मेहनतकश वर्गों के लिए मुक्ति शब्द का अर्थ पूंजी से और उसके सभी रूपों से, यानी वित्तीय पूंजी आदि से एक साथ मुक्ति है। संक्षेप में, देखा जाये तो इन दोनों प्रस्तुतियों में कोई खास अंतर नहीं है। लेकिन संशोधनवादियों और उनके वंशजों के लिए वित्तीय पूंजी से मुक्ति का अर्थ मात्र वित्तीय पूंजी के मुक्त और अराजक विचरण पर प्रतिबंध और ब्रेक लगाना भर है जो पूंजी के शासन के तहत असंभव है। इन्होंने अतीत में इन दरमियानी वर्गों को सुधारों और खैरातों के द्वारा इजारेदार पूंजी से इन्हें फौरी तौर पर बचाने का का काम किया था, लेकिन अब यह भी असंभव है। सच तो यह है कि दरमियानी वर्ग वर्ग भी तभी मुक्त हो सकते हैं जब पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर दिया जाए यानी सबसे पहले उत्पादन के साधनों जैसे भूमि और मशीनरी आदि को पूंजी या माल के रूप में उनके चरित्र से मुक्त कर दिया जाए। यह वित्त पूंजी से दरमियानी वर्गों की मुक्ति और पूंजी के तमाम रूपों से सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के कार्यभार को समग्रता में  एकबद्ध कर देता है। इसलिए पूंजी के शासन को क्रान्तिकारी रूप से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता को टालने और नकारने के लिए वित्तीय पूंजी से मुक्ति वाक्यांश का गलत उपयोग करने की संशोधनवादी चाल के बारे में हमें ठीक से अवगत होना चाहिए। हालाँकि, सुधारों की नीति (छोटी और बड़ी पूंजी के बीच तत्काल समझौते के साधन के रूप में नीति लेना) का युग चला गया है, और हमेशा के लिए ही चला गया। [3] वर्तमान स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि पूंजी की दुनिया से ताल्लुक रखने वालों के लिए भी मुक्ति सबसे अधिक सुनाई देने वाला शब्द बन चुका है! यह इंगित करता है कि जो लोग उत्पीड़ित, शोषित और उजाड़े जाने व वंचित होने वाले हैं, उन्हें वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में अपने भाग्य में बदलाव की कोई उम्मीद नहीं रह गई है और इसलिए वे मुक्ति चाहते हैं। यही वर्तमान दुनिया की आर्थिक-वित्तीय व्यवस्था है जो वित्त पूंजी के मठाधीशों और प्रबंधकों द्वारा निर्देशित व शासित है। यह क्रांतिकारी क्षमता से लैस एवं लदी वर्तमान स्थिति की विशिष्टता को दर्शाता है जो साथ में स्थिति की असाधारण अवस्था का भी संकेत है जिसका स्वर पूंजी-विरोधी है और यह स्वर छोटी और मध्यम पूंजी के तब्कों से भी आ रहा है। यह विशिष्टता अब तक अनुपस्थित था। ऐसा प्रतीत होता है कि मुक्ति की नवीनतम चीख-पुकार पर ऐतिहासिक संदर्भ में और उससे भी अधिक राजनीतिक संदर्भ में चर्चा की जानी चाहिए और मुक्ति की इस पुकार के सामने एक साहसिक सर्वहारा स्टैंड (अवस्थान) लेने के रूप में इसे एक बड़ी चुनौती के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इसके लिए न केवल साहस बल्कि अंतर्दृष्टि की भी आवश्यकता होती है। क्रांतिकारी जन आंदोलनरों की राह में आने वाली इन चुनौतियों से निपटने का काम सीधे तौर पर साहस (राजनीतिक साहस) और अंतदृष्टि (वैचारिक-दार्शनिक अंतर्दृष्टि) दोनों से जुड़ा है।

आइए, हम अपने देश भारत को ही लें। 2014 के बाद से मुक्ति शब्द ने यहां भी नया और विस्तारित अर्थ धारण कर लिया है। मजदूरों और मेहनतकशों के अलावा, जो खुद को संपत्ति से बेदखल महसूस करते हैं या निश्चित रूप से बेदखल होने वाले हैं, वे भी यह रोना रो रहे हैं, लेकिन ज़ाहिर है, अपनी खुद की की कल्पना में स्थित स्वतंत्रता की चाहते में, जो कि उनके अपने पददलित वर्ग अवस्थानों और हितों पर आधारित है। संक्षेप में भारत में पूँजी संचयन की अहर्निश (सतत जारी) प्रगति ही है जो हमें यहां तक ले आई है। इसलिए सर्वहारा वर्ग की दृष्टि से जब हम कार्यभारों की कल्पना करते हैं तो मुक्ति शब्द के ऐतिहासिक महत्व को आज के संदर्भ में पहले ही आत्मसात कर लेना चाहिए या आत्मसात कर लेने की जरूरत है। यह फिर से एक बड़ी चुनौती है जिसके लिए साहस और अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है जिसके लिए हमें अपने आंदोलन को क्रांतिकारी व्यवहार के एक नए और अबाध पथ पर ले जाने की आवश्यकता है जो भारत में अमूमन अज्ञेय है। यह सर्वहारा वर्ग के हिरावल केंद्रों के पिछड़ेपन को, न कि कि समग्र मजदूर वर्ग के पिछड़ेपन को, देखते हूए एक बड़ी चुनौती के रूप में प्रकट होती है। (मजदूर) वर्ग का पिछड़ापन और सुस्ती एक कारण है या हो सकता है, लेकिन यह एक अस्थायी कारण है जो वित्तीय पूंजी के नेतृत्व वाली पूंजी की दुनिया और आम जनसाधारण लोगों की दुनिया के बीच हमलों और जवाबी हमलों के पहले वास्तविक और तूफानी दिनों की शुरुआत के साथ बह जाएगा, यानी दूर हो जाएगा। असली चुनौती इसके हिरावल केंद्रों का पिछड़ापन है जो अपने जीवन-पर्यंत गैर-लेनिनवादी प्रशिक्षण के कारण लचीलेपन की कमी से ग्रस्त हैं और इसलिए इतिहास के किसी विशेष अवधि में क्रांतिकारी वक्त की आवश्यकता के अनुसार नहीं, अपितु वे अपने स्वयं के अनम्य (गैर-लचीले) व्यावहारिक प्रशिक्षण के अनुसार काम करना अमूमन बेहतर मानेंगे, भले ही इस बीच कितने ही क्रांतिकारी तूफानों का समय आए और आकर चला जाये। अक्टूबर क्रांति के इतिहास ने हमें यह सिखाया है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए हम क्रांतिकारी आंदोलन की जिस चुनौती पर यहां चर्चा कर रहे हैं उसकी भव्यता के साथ-साथ भयावहता की भी कल्पना कर सकते हैं।

भारत में कारपोरेट पूंजी के हित और फासीवाद का तंत्र आपस में इस कदर गुंथे हुए हैं कि उन्होंने मिलकर पहले ही लोकतंत्र को नष्ट कर दिया है, सभी लोकतांत्रिक अधिकारों को रौंद डाला है और न्यायपालिका सहित लोकतांत्रिक संस्थानों में सेंध लगा दी है। ये सभी आज धूल-धूसरित हैं और अपनी पुरानी पहचान खो चुके हैं, और मेहनतकश जनता के साथ-साथ समाज के अन्य तबकों को गुलाम बनाने में फासीवादियों की मदद कर रहे हैं। इसने पुरानी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को जंजीरों में जकड़ दिया है और इसे एक नई पूंजीवादी व्यवस्था में बदल दिया है जिसका सार एकाधिकार और मध्ययुगीन बर्बरता और वित्त पूंजी के मठाधीशों में सबसे शक्तिशाली द्वारा सभी (श्रमिकों, मेहनतकशों, छोटी और मध्यम पूंजी) की गुलामी है। बड़े पैमाने पर लोग भौतिक रूप से महसूस करते हैं कि वे दिन, जब उनकी किस्मत भी आबाद हो सकती थी, हमेशा के लिए लद चुके हैं और जा चुके हैं। यह उपरोक्त चुनौतियों, जैसा कि विषयवस्तु में इंगित है, का सामना करने में तत्काल और अंतिम कार्यभारों के विलय के प्रश्न को भी प्रकाश में लाता है। यह हम पिछले चार-पांच सालों से कह रहे हैं। यह दिन के उजाले की तरह यह भी स्पष्ट करता है कि लोगों की दुनिया किससे मुक्ति चाहती है। यह आज की वित्तीय पूंजी का एकाधिकार ही है जिससे लोग अपने-अपने भाग की (apportioned) मुक्ति चाहते हैं, क्योंकि आम लोगों की कल्पना में उनके तत्काल वर्ग अवस्थानों के आधार पर यही संभव प्रतीत होता है। कुछ लोग इन “तत्काल वर्ग स्थितियों” के अनुसार भाग-भाग में विखंडित मुक्ति का एकीकृत हल निकालना, जो समग्रता में पूंजी के शासन को उखाड़ फेंकने में निहित है, असंभव मानते हैं या मान सकते हैं, लेकिन यह सच नहीं है। इसका कारण भी स्पष्ट है या स्पष्ट होना चाहिए। दरमियानी वर्गों को उजाड़ देने के वित्त पूंजी के जारी हमलों या कहें इसे तत्काल खतरे के रूप में उनके समक्ष प्रस्तुत हो जाने मात्र से ही इसका हल तत्काल संभव है। भारत की मौजूदा घोर जनविरोधी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को वित्त पूंजी या बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा भी बढ़ावा दिया जाता है जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है। इसने भारतीय राज्य को समाज के साथ एक युद्ध की स्थिति में, यानी समाज और पूंजी के बीच युद्ध की स्थिति में ला खड़ा किया है। उपरोक्त संदर्भ में चुनौतियों का सामना करने का मुख्य कार्यभार समाज के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग को लाने का है। तब चुनौतियों से निपटने का आधे से अधिक का कार्यभार समाप्त हो जाएगा या पूरा हो जाएगा जिसका उत्तरदायित्व सर्वहारा वर्ग के अग्रणी केंद्रों पर है, क्योंकि वस्तुनिष्ठ परिस्थितियाँ तेजी से परिपक्व होते हुए क्रांतिकारी संकट में बदल रही हैं। वित्त पूंजी अपने द्वारा पैदा की जाने वाली अराजकतावाद और अतार्किकता में सुपर मुनाफ़े का अवसर तलाशती है और इसलिए क्रांतिकारी संकट का उभरना तय है, क्योंकि यह ध्यान रहे कि यह संकट वस्तुगत रूप से अपरिवर्तनीय (irreversible) आर्थिक संकट, जो स्थाई और अनमनीय भी है, की पृष्ठभूमि में विकसित हो रहा है। इसमें देरी हो सकती है लेकिन केवल एक छोटी सी अवधि के लिए। आज की वित्तीय पूंजी के दुष्ट और भ्रष्ट चरित्र का कोई अंत नहीं है। यह केवल हम क्रांतिकारी ही हैं जो क्रांतिकारी संकट के अपेक्षा से अधिक विलंबित होने के लिए जिम्मेवार होंगे, क्योंकि इस परिस्थिति के प्रति हमारी खुद की प्रतिक्रिया बिलंबित है।

आखिर यह संपत्तिहरण किस बारे में है? सर्वहारा के ऐतिहासिक मिशन के लिए इसका क्या मतलब है? यह आज की वित्तीय पूंजी के अत्यधिक गैर-जिम्मेदार व्यवहार से कैसे संबंधित है? क्या इसे कभी सुधारा जा सकता है? नहीं, यह कभी नहीं हो सकता। मैंने इस पेपर में ऐसी बातों पर विस्तार से चर्चा की है (फुटनोट 3 एवं 5 देखें)। एक बार फिर जोर देते हुए, मैं कह सकता हूं कि वित्तीय पूंजी का यह अत्यधिक गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इसके अत्यधिक सामाजिक पूंजी के चरित्र को प्राप्त करने के कारण है। पूंजी का समाजीकरण एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया है। इसने सामाजीकृत उत्पादन और निजी हस्तगतकरण के बीच के अंतरविरोध को एक नई ऊंचाई तक पहुँचाया है जैसा कि पहले कभी नहीं देखा गया, जो पूंजीवाद के विश्वव्यापी और अपरिवर्तनीय संकट में प्रकट हो रहा है, और जिसके द्वारा मेहनतकशों का अत्यधिक शोषण ही नहीं दरमियानी वर्गों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत का खूनी अपहरण, यानी बिना हथियारों का ‘खून-खराबा’ हो रहा है। वित्त पूंजी के अधीन संपत्तिहरण व स्वत्वहरण छोटी और मझोली पूंजी, जैसे किसानों सहित अन्य दरमियानी वर्गों के खिलाफ वित्त पूंजी की खूनी जंग ही तो है! मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के लिए इसका ठीक-ठीक क्या अर्थ है? एक शब्द में, इसका अर्थ है कि पूंजीवाद ने न केवल अपनी ऐतिहासिक वैधता और औचित्य [4] खो दिया है बल्कि अपनी राजनीतिक वैधता और औचित्य भी खो दी है। [5] इसलिए मुक्ति की यह नवीनतम पुकार व चीत्कार बहुकोणीय और बहुउद्देश्यीय होते हुए भी सर्वहारा वर्ग के लिए पूरे समाज और दुनिया को पूंजीवाद के क्षितिज से परे ले जाने के अपने ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस विलक्षण चीख-पुकार के क्षण को सर्वहारा वर्ग द्वारा ‘जब्त’ करने और अपने मिशन के लिए उपयोग में लाने की अहम आवश्यकता है। इतना ही नहीं, सर्वहारा वर्ग-संघर्ष के इतिहास में इस महत्वपूर्ण क्रांतिकारी मोड़ को, जिसे ये ”क्षण” दर्शाते हैं, इस अर्थ में ग्रहण किया जाना चाहिए कि सर्वहारा वर्ग-संघर्ष के पक्ष में यह उत्कृष्ट एवं विलक्षण वस्तुपरक स्थिति अतीत में कभी भी मौजूद नहीं थी और इसलिए इसे हमारे समक्ष खड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए एक बहुत बड़े अवसर के रूप में पहचाना एवं चिन्हित किया जाना चाहिए। साथ में यह ध्यान में भी रखा जाना चाहिए कि दुनिया भर में चल रहे जन आंदोलनों के इस नये उभार में श्रमिक वर्ग का सबसे आगे चलना सर्वहारा वर्ग को पूंजीवाद की गर्दन को अपने लौह-मुट्ठी में जकड़ लेने में सक्षम बनाता है जो इस बार पूंजीवाद को फिर से पुनर्जीवित होने का कोई अवसर नहीं देगा और उसे हमेशा के लिए इतिहास की कब्रगाह में दफन कर देगा। संक्षेप में, दुनिया कभी भी समाजवाद के लिए इतनी परिपक्व नहीं थी जितनी आज है। [6]

दरमियानी वर्गों की मुक्ति की पुकार सर्वहारा वर्ग के सामने किस तरह से और किस प्रकार की मुश्किलें खड़ी करती है? मेरा जवाब है : किसी भी तरह से नहीं और किसी भी प्रकार की नहीं। यह समस्या  मुख्य रूप से मजदूर वर्ग के अगुआ केंद्रों के पिछड़ेपन के कारण उत्पन्न होती है (या उठ खड़ी होती है) जो इस महत्वपूर्ण प्रश्न को ठीक से (क्रांतिकारी तरीके से) प्रस्तुत करने में तथा इसके लिए क्रांतिकारी साधनों और तरीकों की खोज और आविष्कार करने में उन्हें असमर्थ बनाता है। हमने यहां एक कोशिश की है लेकिन यह आखिरी नहीं है। समग्र रूप से लिया जाए, तो मुक्ति की यह पुकार हमें लाभप्रद स्थिति में डालता है क्योंकि यह दरमियानी वर्गों को, जो कल तक पूंजी के शासन के भागीदार थे, अब टकरावपूर्ण तथा एक दूसरे के खिलाफ स्थिति में खड़ा कर कर देता है, क्योंकि वे तब तक अपनी कल्पना की मुक्ति नहीं पा सकते हैं जब तक कि वे अपने तात्कालिक वर्गीय हितों, जो अभी भौतिक रूप से मौजूद हैं लेकिन अगले ही दिन भौतिक रूप से गायब भी हो जाएंगे, की तिलांजजिल नहीं दे देते हैं।  इसका मतलब यह है कि ये वर्ग अब आतंकवादी वित्त पूंजी के हाथों चल रहे संपत्तिहरण व स्वत्वहरण – पूंजीपति संचय के अहर्निश प्रगति के चरम परिणाम – को नहीं रोक सकते जब तक कि वे पूंजी के शासन को ही खत्म नहीं करते, जिसके लिए उन्हें सबसे पहले पूंजी को उखाड़ फेंकना होगा। लेकिन इसके लिए भी पहले पूंजी के तर्क के शासन को, जो उनके दिमाग पर काबिज है, को उखाड़ फेंकना होगा। लेकिन यह उनके अकेले का काम नहीं है। इसमें आगे बढ़कर सर्वहारा वर्ग के केंद्रों को पूंजीवादी समाज का एक पूरा का पूरा क्रांतिकारी भंडाफोड़ अभियान चलाना होगा और इसे एक अहम कार्यभार के रूप में स्वीकार करना होगा। इसका अर्थ है कि मुक्ति की पुकार को पूंजी के नियम और तर्क के विरुद्ध खड़ा किया जा सकता है, बशर्ते सर्वहारा का हिरावल केंद्र एक स्पष्ट सर्वहारा दृष्टिकोण के साथ उनकी लड़ाई में हस्तक्षेप करते हुए भाग लेकर उन्हें भौतिक रूप से शिक्षित करने और उनकी या उनके एक बड़े हिस्से की पूंजीवादी प्रतिक्रयावादी समझ को दूर करने का एक साहसिक कदम उठाए। वे (दरमियानी वर्ग के लोग) शायद ही कभी सहमत होंगे, लेकिन यह हमारे लिए, यानी सर्वहारा वर्ग के अगुआ केंद्रों के लिए महत्वपूर्ण बात नहीं है। हमारे लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सर्वहारा वर्ग और उसकी शक्तियों के हाथों में राजनीति की कमान सौंपता है बशर्ते वे हिम्मत कर सकें। [7] सर्वहारा वर्ग, जिसकी वर्ग-छवि में [8] भविष्य के समाज को आकार देना है, और उसके हिरावल को साहस और अंतर्दृष्टि दिखाने से पहले इच्छा करने का साहस दिखाना होगा। हाँ, यह सच है कि इस रास्ते पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है क्योंकि इससे कमज़ोर क्रांतिकारी, यानी जो लेनिनवादी क्रांतिकारी अवसरवादिता की रणनीति से अनजान हैं, भ्रष्ट या पतित हो सकते हैं। [9] जब हम इस सर्वहारा दृष्टिकोण के साथ उपरोक्त परिस्थित पर पहुंच बनाते हैं, तो यह हमें इस तरह की चुनौतियों का सामना करने में यह रणनीति हमें इस तरह से मदद करती है : सबसे पहले, यह सर्वहारा वर्ग को अत्यधिक आवश्यक वैचारिक-राजनीतिक साहस का एहसास कराता है, जो आत्मगत तैयारी के लिए आवश्यक सबसे महत्वपूर्ण चीज है। दूसरे, यह चीज पूर्व-क्रांतिकारी काल के साथ-साथ क्रांतिकारी काल में भी, यानी क्रांतिकारी गतिविधियों के विस्फोटों के काल में भी, पूर्व निर्धारित निर्णायक तरीकों से कार्य करने के लिए अगुवा केंद्रों को तैयार करती है। क्या हम इस क्रांतिकारी मानसिकता और साहस को अपनाए बिना चुनौतियों का सामना कर सकते हैं?

मुक्ति की पुकार” पर पहुंच में अंतर: सुधारवादी बनाम क्रांतिकारी

सुधारवाद में उलझा हुआ दिमाग आम तौर पर इस तरह शुरू करता है: क्या ये दरमियानी वर्ग, जो ऊपर से आने वाले हमलों के सामने अपने अस्तित्व को खतरे में महसूस करते हैं, कभी अपने पुराने वर्ग स्वभाव को छोड़ने और सर्वहारा वर्ग के साथ पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए सहमत होंगे? इस तरह का प्रस्थान बिंदु आमतौर पर ठीक-ठीक सुधारवादियों के बीच पाया जाता है, क्योंकि उनका दिमाग उभरती हुई क्रांतिकारी स्थिति को केवल उनके तात्कालिक परिणाम अर्थात शांतचित्त व सोचे-समझे सुधारवादी गणनाओं पर आधारित हो देखने में प्रशिक्षित होता है, मानो कि हम मुद्दे उन्हें तत्काल ही पूरा करने के मकसद से उठाते हैं और उनका कोई और उद्देश्य नहीं होता है या हो सकता है। दूसरी ओर, एक क्रांतिकारी विपरीत दिशा से प्रस्थान बिंदु लेकर इस पर विचार करेंगे। वे इस बात के साथ शुरू करेंगे: क्या दरमियानी वर्गों की इस दहशत भरी बेचैनी का इस्तेमाल पूंजीपति वर्ग को, जिसका हिस्सा ये दरमियानी वर्ग स्वयं हैं, सत्ता की कुर्सी से बेदखल करने और उन्हें समाज के मालिक होने से वंचित करने के लिए किया जा सकता है? क्या सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनता के क्रांतिकारी उत्थान के एक शक्तिशाली उत्तोलक के रूप में इसका उपयोग किया जा सकता है? इसके लिए क्रांतिकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता है न कि उपरोक्त शांतचित्त सुधारवादी गणनाओं की। दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति हमारे बीच गहराई तक जमी हुई है।

यह हमारे सामने एक ओर क्रांतिकारी अवसरवादिता तथा दूसरी ओर सुधारवादी अवसरवाद के बीच में से किसी एक का चयन करने का प्रश्न प्रस्तुत करता है। क्रांतिकारी अवसरवाद, लेनिनवाद में स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित है, जो हर क्रांतिकारी अवसर और संभावना, जो भले ही अभी उभर ही रहा हो, या पूरी तरह नहीं उभरा हो, को एक ठोस क्रांतिकारी ताकत व शक्ति के रूप में बदलना चाहता है। जब संपत्तिवान वर्ग (बेशक जो कम संपत्ति के स्वामी हैं) दैत्याकार वित्तीय पूंजी के आंतक से आतंकित होते हैं, तो हमें उनसे न तो अति-क्रांतिकारी तिरस्कार भाव के साथ, और ना ही उनके प्रति सुधारवादी मीठी जुबान के साथ बात करनी चाहिए। यदि पूंजी के तर्क को अपना अंतिम मार्ग लेने के लिए छोड़ दिया जाता है और पूंजीवादी संचय के नियमों पर आधारित मौजूदा व्यवस्था को खत्म नहीं किया जाता है, तो क्यों नहीं उनके मुंह पर यह साफ-साफ कहा जाना चाहिए कि वे एक निश्चित विनाश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसी के साथ एक और रास्ता शुरू होता है, क्रांतिकारी हस्तक्षेप का रास्ता, जिसके बारे में हम बार-बार जोर देकर कह रहे हैं। यह सर्वहारा वर्ग को पहले अपना वैचारिक और राजनीतिक आक्रमण शुरू करने और फिर वर्ग-संघर्ष की अंतिम लड़ाई जीतने के लिए एक जमीनी आक्रमण शुरू करने की धार देता है। क्रान्ति के एक महत्वपूर्ण प्रश्न को आज के मोड़ पर ठीक ऐसे ही प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। हमें दरमियानी वर्गों की मुक्ति की दृष्टि के बहकावे या भ्रम में नहीं आना चाहिए। लेकिन साथ ही हमें जितनी जल्दी हो सके सर्वहारा वर्ग की मुक्तिदायी भूमिका को निभाने के लिए भी तैयार होना चाहिए। इसके लिए, हमें अपने ऐतिहासिक मिशन और सभी उत्पीड़ित वर्गों को अंतिम मुक्ति की ओर ले जाने की भूमिका के अनुरूप अपनी भूमिका में बढ़ना चाहिए, जिसका स्वत: अर्थ है न केवल पूंजी बल्कि पूंजी के तर्क को भी परास्त करना व उखाड़ फेंकना। श्रृंखला की इस मुख्य कड़ी को समझकर ही सर्वहारा वर्ग और उसका हिरावल इस अत्यंत अनुकूल वस्तुगत स्थिति का उपयोग कर सकता है जिसमें हम पाते हैं कि एक शीर्ष पर बैठे खूंखार वर्ग को छोड़कर हर दूसरा वर्ग असंतुष्ट होने, अमानवीकृत अवस्था में धकेल दिये जाने और वंचित होने तथा उजाड़े दिये जाने को महसूस कर रहा है और इसलिए मुक्ति के लिए बेचैन है।

हालांकि कोई पूछ सकता है: वास्तव में मुख्य चुनौती क्या है? यह अब एक कठोर तथ्य है कि आम तौर पर लोग [10] निकट भविष्य में बेदखल होने की संभावना को महसूस करते हैं और इसलिए बड़ी पूंजी की अबाध लूट के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। यह देखते हुए कि वित्तीय पूंजी के नेतृत्व वाली पूंजी की इस दुनिया [11] में उनके दुखों को कभी भी कम नहीं किया जा सकता है, न ही खत्म किया जा सकता है, इसलिए वे अब पूंजी की इस दुनिया से मुक्ति के लिए चिल्ला रहे हैं। लेकिन यह समझे बिना कि इसका वास्तव में क्या मतलब है और इसे वास्तव में कैसे प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए, यह निर्धारित करने के लिए कि वास्तव में मुख्य चुनौती क्या है, इस पेपर में अब तक उठाए गए सभी मुद्दों और प्रश्नों पर एक पूर्ण वैचारिक और राजनीतिक चर्चा पूरे आंदोलन में तत्काल शुरू करने की आवश्यकता है। इतना ही नहीं, हमें इस बात पर भी चर्चा करने की आवश्यकता है कि इसमें नया क्या है जो क्रांतिकारी आंदोलन की इच्छाशक्ति और क्षमता दोनों के ध्यानाकर्षण की मांग करती है। हमारी मांग है कि हमें वर्तमान दशक के द्वंद्वात्मक विश्लेषण पर आधारित भावी दशक में उठने वाली क्रांतिकारी संभावनाओं तथा सर्वहारा वर्ग और उसके क्रांतिकारी हिरावल के नेतृत्व में जनता द्वारा लड़ी जाने वाली आगामी निर्णायक लड़ाइयों के बारे में सटीक अनुमान लगाते हुए अपना कार्यभार तय करना चाहिए। [12] इसके लिए हमें लोगों के आंदोलन में हो रहे नवीनतम उभार पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि यह नई और अनूठी चारित्रिक विशेषताओं से भरा हुआ है जैसा कि ऊपर बताया गया है। विशिष्टता, सबसे पहले, इस तथ्य में निहित है कि यह पूरे विश्व में हो रहा है। [13] दूसरे, यूरोप और अमेरिका [14] के सबसे उन्नत देशों में लोगों के अंदर गहरे बैठी हताशा ही हाल में जनांदोलनों में आये उभार का मुख्य कारण है, जो अक्सर जन आंदोलन में परिवर्तित हो जा रहा है, और जिसमें निहित मुक्ति की पुकार इसे पूंजीवाद की सीमाओं से परे जाने के लिए कार्रवाई की मांग करती प्रतीत होती है। यह स्वचालित रूप से, फिर भी (शायद) अनजाने में, सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी हस्तक्षेप की मांग करता है। जब मजदूर वर्ग संघर्षरत दरमियानी वर्गों के बीच हर जगह अपने अग्रणी धावक के रूप में मौजूद है, तो यह हमें इस अतिआवश्यक क्रांतिकारी हस्तक्षेप [15] का आश्वासन देता है, भले ही अगुआ दस्तों का पिछड़ेपन को व्यवहार में हल करने का कार्यभार लंबित है।

खासकर भारत की बात करें तो हमें हाल ही में हुए ऐतिहासिक किसान आंदोलन [16] पर ध्यान देना चाहिए और उस आंदोलन में हमने जो भूमिका निभाई, उसका आकलन करना चाहिए। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह फिर से ‘निर्णायक’ लड़ाई के अगले दौर के लिए खुद को तैयार कर रहा है। [17] हमने भारी दमन के बावजूद अन्य मजबूत लेकिन खंडित आंदोलनों को भी देखा है जो अक्सर वास्तविक और पूर्ण परिवर्तन के आह्वान के साथ आते हैं। इस प्रकार लोगों का गुस्सा न केवल स्पष्ट है, बल्कि यह एक क्रांतिकारी संदेश से भी लबरेज है, जिसे या तो उनके निर्णायक मनस्थिति या लड़ने की तत्परता में देखा जा सकता है। [18] खास बात यह है कि इसने आने वाले जनसंघर्षों को एक अनोखे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। हालाँकि, सर्वहारा वर्ग की छवि में इसका अभी भी एक निश्चित आकार लेना बाकी है। ठीक यहीं पर हमें ऊपर बताई गई चुनौतियों से जूझना शुरू करना होगा। यह सर्वहारा वर्ग के हिरावल की वैचारिक और राजनीतिक परिपक्वता और अपरिपक्वता के प्रश्न को हमारे संज्ञान में लाता है। जहां तक अँधेरे समय में वह किसी मार्ग को देखने या खोजने में असमर्थ है, वहां तक उसे इसके लिए जिम्मेवार और दोषी दोनों माना जाना लाजिमी है।

आइए यहां उन्नत देशों को लें और फिर तुलना करें।

संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि यूरोप और अमेरिका के देश जन आंदोलन में इस नए उभार को प्रत्यक्षत: देख रहे हैं जो हाल के कुछ दशकों के इतिहास में न केवल नया है, बल्कि नई रणनीतिक विशेषताओं से भी संपन्न है जिन्हें पर्याप्त रूप से संबोधित और मूल्यांकित करने की आवश्यकता है, खासकर तब जब विश्व पूंजीवाद अपरिवर्तनीय आर्थिक संकट में गहरे धंसा हुआ है और इसलिए असमाधेय अंतर्विरोधों से घिरा हुआ है। हम जब इसका ”मूल्यांकन” करने और पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से क्रांतिकारी जन आंदोलन के निर्माण के मार्ग में आने वाली चुनौतियों का सामना करने की तैयारी की चल रही बहस में इसे रखकर देखते हैं या प्रस्तुत करते हैं, तो हमारे सामने तुरंत ही वही दीर्घकालीन मुद्दा यानी अपने ऐतिहासिक मिशन की दूरदृष्टि से लैस सर्वहारा वर्ग के एक लेनिनवादी हिरावल केंद्र बनाने का मुद्दा प्रकट होता है जो सर्वप्रथम सर्वहारा ताकतों और मेहनतकश जनता के सदर मुकाम के रूप में काम करना और बुर्जुआ कैंप को परास्त और ध्वस्त करना ही उसकी पहली और सबसे बड़ी प्रतिबद्धता हो, चाहे यह किसी राष्ट्र की सीमा के भीतर हो अथवा पूरे विश्व स्तर पर चल रहे वर्ग संघर्ष के परिणाम के रूप में। [19] यह एक क्रांतिकारी दल के गठन की लेनिनवादी अवधारणा को प्रकाश में लाता है। इसलिए, वर्तमान कार्यभार केवल एकमात्र हिरावल केंद्र में क्रांतिकारियों को यांत्रिक रूप से एकजुट करने तक सीमित नहीं हो सकता है। इसमें क्रांतिकारियों को एकजुट करने के कार्य से पहले के वर्तमान ठोस क्रांतिकारी कार्यों को समझने से संबंधित बहस भी शामिल है। मामला इस तरह खड़ा है: हालांकि मजदूर वर्ग और उसके विभाजित अगुआ केंद्र पूरी दुनिया में हर जगह सड़कों पर लड़ने वाले लोगों के सबसे मजबूत और दृढ़निश्चयी हिस्सा हैं, फिर भी उनमें लोगों का सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक मिशन द्वारा निर्धारित दिशा में नेतृत्व करने की क्षमता का घोर अभाव है। और यह कमी, अगर मुझे अपने मन की बात कहने की अनुमति दी जाती है, तो यह कमी दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि मुक्ति के लिए लोगों के बीच की पुकार का ही नहीं, किसी भी तरह की जीत इसके बिना संभव नहीं है।

एक बार फिर भारत की ओर मुड़ते हुए, हम कह सकते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि बड़ी पूंजी के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी भूमिका अब तक किसानों द्वारा निभाई जा रही है। लेकिन हमारी ओर से यह भूल जाना एक पाप होगा या है कि वे अपने आप से शासकों के कुछ झूठे वायदों के अतिरिक्त कोई अंतिम जीत दर्ज नहीं कर सकते हैं, यहां तक कि अपने निजी हितों के संकीर्णतम अर्थों में भी नहीं, और न ही अन्य उत्पीड़ित और शोषित वर्गों के मुक्तिकामी हितों की अगुआई ही कर सकते हैं, चाहे वे इस तरह की भूमिका के लिए जितनी भी दृढ़ता से प्रतिज्ञा करें या करने का स्वांग करें। यह समझना जरूरी है कि निजी संपत्ति पर निर्भर रहने वाले वर्ग के रूप में वे कभी भी इस भूमिका को पूरा कर ही नहीं सकते। यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि भारत के मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी हस्तक्षेप और उसकी अग्रणी भूमिका के बिना इजारेदार पूंजी द्वारा थोपी गई जंजीरों से मुक्ति के अर्थ में भारत के किसानों का कोई भविष्य नहीं है। किसान आंदोलन में क्रांतिकारियों के ढुलमुलपन से भरे रवैये को हमने देखा है। उनमें से अधिकांश ने वैचारिक व राजनीतिक नेतृत्व के लिए धनी किसानों या समग्रता में पूरे किसान वर्ग से प्रतिस्पर्धा करने के बजाय  किसानों और उनके आंदोलन के पुछल्ले बनने का ही विकल्प चुना। इसलिए आवश्यकता है कि इन महत्वपूर्ण मतभेदों को जल्द से जल्द सुलझाया जाए क्योंकि भारत जैसे देश में जहां दरमियानी वर्ग आबादी का एक अच्छा हिस्सा हैं, ऐसे मुद्दे सामने आते रहेंगे। चूंकि वे आर्थिक व सामाजिक रूप से बड़ी पूंजी के द्वारा अपहृत होते रहेंगे, इसलिए इस मुद्दे को सर्वहारा क्रांति से पहले की पूरी मध्यवर्ती अवधि तक जीवित रखेंगे। इसे हल करना और पेशेवर क्रांतिकारियों की लेनिनवादी अवधारणाओं को पार्टी निर्माण के मामलों में लागू करने के साथ-साथ लेनिनवादी क्रांतिकारी अवसरवादिता को लागू करना हमारे सामने एक और बड़ी चुनौती है, ताकि लेनिन और बोल्शेविकों की तरह हम एक राह के बंद हो जाने पर कोई दूसरा रास्ता खोज सकें, और यदि पूर्व में लागू एक रणनीति विफल हो जाती है या पुरानी पड़ जाती है, तो एक नई रणनीति शुरू कर सकें और इसके लिए जरूरी साहस प्राप्त कर सकें।

निष्कर्ष

कामरेड! हमारी चर्चा ने अब तक स्पष्ट रूप से स्थापित किया है कि वस्तुनिष्ठ स्थिति परिपक्व है, जबकि हमारी आत्मगत तैयारी पूरी तरह से लड़खड़ा रही है, यानी अभी इसे उड़ान भरनी है, क्योंकि जब फासीवादी हमले बढ़ रहे हैं और पुरानी बुर्जुआ राज्य मशीनरी का अंतिम अधिग्रहण पूरा होने के कगार पर है, तो क्या करना है और कहां से शुरू करना है इसका कोई अंदाजा हमारे पास नहीं है। इसने आंदोलन को घोर निराशा और भ्रम के बीच निष्क्रियता की स्थिति में ला खड़ा किया है। अगर हम याद कर सकते हैं, तो हमें यह याद होगा कि हमारे आंदोलन ने सबसे पहले बुर्जुआ राज्य के फासीवादी अधिग्रहण जैसी किसी भी संभावना से काफी दिनों तक इनकार किया था, ज्यादातर तकनीकी आधार पर। अब जब यह एक वास्तविक खतरा बन गया है, तो बेचैनी और घबराहट के साथ पूरी तरह से अव्यवस्था की स्थिति व्याप्त है और इसे क्रांतिकारी खेमे में आसानी से महसूस भी किया जा सकता है। जाहिर है यह स्थिति बाएं और दाएं दोनों तरफ के अवसरवाद के साथ-साथ कई परायी प्रवृत्तियों को भी जन्म दे रही है। जबकि मोदी के 8 वर्षों के शासन में वस्तुगत स्थिति हमारे पक्ष में इस हद तक विकसित हो गई है कि कोई भी फासीवाद-विरोधी और एकाधिकार पूंजी-विरोधी संघर्ष, यदि वह सर्वहारा क्रांतिकारी ताकतों के नेतृत्व में होती, तो आसानी से और बिना रुके एक सामाजिक क्रांति में विकसित हो सकता है। फिर भी अभी तक क्रान्तिकारी आन्दोलन इसकी आवश्यकता समझने तक को तैयार नहीं है। जबकि एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के नेतृत्व में पूंजी की दुनिया ने लोगों की दुनिया के खिलाफ एक गृह-युद्ध जैसी स्थिति का आगाज शुरू कर दिया है, लेकिन हम अभी तक इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और इसलिए यह स्वाभाविक है कि इतिहास के ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ पर कार्यभारों को सुपरिभाषित करते हुए हम एक क्रांतिकारी रास्ते को तैयार करने के लिए भी खुद को तैयार करने से इनकार करते रहे हैं। आज का परिदृश्य क्या है? जबकि क्रांतिकारी आंदोलन का एक वर्ग क्रांतिकारी राजनीतिक विवादों को पूरी तरह से खत्म या समाप्त किए बिना ही क्रांतिकारियों को सर्वहारा वर्ग की एक क्रांतिकारी पार्टी में एकजुट करने के लिए अपना समय और ऊर्जा लगाता है, तो दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जो पिछले वर्षों में एकता के प्रयासों में विफल रहे हैं और इसलिए अब घोषित कर रहे हैं कि जनसंगठनों के स्तर मात्र पर ही कोई संयुक्त मोर्चा संभव है। जनवादी और समाजवादी क्रांति का विभाजन (DR-SR डिवाइड) अभी भी, खासकर फासीवाद के विरूद्ध हमारी (ऊपर से) संयुक्त कार्रवाई की एकता के लिए काफी नुकसानदेह और घातक साबित हो रहा है।

वास्तविक समस्या यह है कि हमारा क्रांतिकारी आंदोलन मार्क्सवाद-लेनिनवाद को एक ऐसे विज्ञान के रूप में लागू करने में विफल रहा है जो हमारी व्यवहारिक कार्रवाई का मार्गदर्शक हो। इसलिए क्रान्तिकारी जनआन्दोलन की राह में आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर हमारे बीच गहरा मतभेद है जिसका हल करना असंभव बना हुआ है। इसीलिए, जबकि भावी दशक में होने वाली अंतिम निर्णायक लड़ाइयां (हमारी समझ से) हमारे सामने मुंह बाये खड़ी हैं, लेकिन क्रांतिकारी खेमे के लिए सच्चे अर्थों में यह बात शायद ही कोई मायने या महत्व रखती है। हमारे आंदोलन में होने वाले हर व्यवहारिक संघर्ष में सुधारवाद, पराजयवाद, पलायनवाद और अर्थवाद का बिना किसी अपवाद के दबदबा है और यह दिखाई भी देता है। तदनुसार और इसके परिणामस्वरूप, क्रांतिकारी ताकतों के समेकन के उद्देश्य से आत्मगत तैयारियों का कोई गंभीर प्रयास हमारे एजेंडे पर मौजूद नहीं दिखाई देता है। समस्या की जड़ क्रांतिकारी अवसरवाद के लेनिनवादी सिद्धांत की समझ के अभाव में निहित है जो हमें ऐतिहासिक मिशन को साकार करने के लिए हर अनुकूल वस्तुगत परिस्थिति का उपयोग करने के लिए एक दूरदर्शितापूर्ण अंतर्दृष्टि से लैस होने तथा उसे लागू करने से रोकता है। इसलिए क्रान्तिकारी आन्दोलन की खंडित अवस्था हमारी समस्या का केवल एक कारण हो सकता है, लेकिन संपूर्ण कारण नहीं। स्टालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ में कट्टर-संशोधनवादी ख्रुश्चेव के उदय के साथ सर्वहारा वर्ग की ऐतिहासिक हार के साथ एक पराजयवादी प्रवृत्ति शुरू हो चुकी थी। उसके बाद मजदूर क्रांतिकारी आंदोलन की जो ऐतिहासिक पश्चगमन शुरू हुआ उसका चक्रब्यूह आज भी जारी है। आज इस चक्रव्यूह को तोड़ने की जरूरत है। वह चक्र कैसे टूटेगा, इस पर गंभीरता से विचार करना एक बार फिर से हम क्रांतिकारियों के लिए शायद ही कोई मायने रखता है। एक असाधारण समय पर एक असाधारण प्रयास सबसे आवश्यक चीज होती है, लेकिन इसके लिए भी चिंता या प्रयास अनुपस्थित है। हमारे लिए, यह स्पष्ट है कि दुनिया के लिए मशाल वाहक के रूप में प्रकट हुई अक्टूबर क्रांति के नायक लेनिन और स्टालिन का अनुकरण करके ही इस चक्रब्यूह से बाहर निकलना संभव हो सकता है। हमें रोजा लक्ज़मबर्ग के इन गूंजते शब्दों से सीखना चाहिए जो इस बात का संकेत देते हैं कि कैसे बोल्शेविकों ने खुद को एक छोटे से क्रांतिकारी अल्पसंख्यक से एक बड़ी मारक ताकत में बदल दिया, जिसने अक्टूबर क्रांति से चंद महीने पहले रूसी लोगों के बहुमत के सम्मान और प्रतिष्ठा हासिल करते हुए परिस्थितियों से जुझती हमान क्रांतिकारी जनता की कमान अपने हाथ में ले ली थी। अक्टूबर क्रांति की सफलता और बोल्शेविकों द्वारा अपनाई गई क्रांतिकारी रणनीति के बारे में रोज़ा क्या कहती हैं इसकी एक बानगी यहां प्रस्तुत है –

“इस स्थिति में, बोल्शेविक प्रवृत्ति ने शुरुआत से ही उन कार्यनीतियों की घोषणा करके और उनका लौह स्थिरता के साथ पालन करके एक बड़ी ऐतिहासिक सेवा की, एकमात्र जो ही लोकतंत्र को बचा सकता था और क्रांति को आगे बढ़ा सकता था। . . यह तलवार का वह वार था जिससे उन्होंने गॉर्डियन नॉट (क्रांति संपन्न करन में आने वाली अत्यंत कठिन व जटिल समस्या) को काट दिया, क्रांति को एक संकीर्ण अंधी गली में भटकते रहने की मजबूरी से से मुक्त कर दिया और उसे उन्मुक्त और खुले क्षेत्रों तक पहुंचने का एक अदम्य रास्ता खोल दिया।”

“इस प्रकार लेनिन की पार्टी ही रूस में एकमात्र ऐसी पार्टी थी जिसने उस पहली अवधि में क्रांति के वास्तविक हित को समझा। . .  यही एकमात्र पार्टी थी जो वास्तव में समाजवादी नीति पर चलती थी। . . यही है जो स्पष्ट करता है कि ऐसा क्यों था कि बोल्शेविक, हालांकि वे क्रांति की शुरुआत में एक प्रताड़ित, बदनाम और सभी तरफ से हमले के शिकार अल्पमत थे, (क्रांति शुरू होने के) [20] सबसे कम समय के भीतर क्रांति के शीर्ष पर सवार हो गये और आम जनता के सभी वास्तविक हिस्सों – शहरी सर्वहारा वर्ग, सेना, किसान, जनवाद के क्रांतिकारी तत्वों और साथ ही समाजवादी क्रांतिकारियों के वाम धड़े – को अपने बैनर तले एकत्रित करने में सक्षम हुए। वास्तविक परिस्थिति . . कुछ महीनों में ही इन दो विकल्पों में से किस एक को चुनने तक सीमित हो गई – प्रतिक्रांति की जीत या सर्वहारा वर्ग की तानाशाही ; कालेदिन या लेनिन। वस्तुगत स्थिति ऐसी थी, (या बोल्शेविकों के हस्तक्षेप के द्वारा ऐसी बना दी गयी थी) [21] . .  कि उसने खुद को रूस में शांति और जमीन के ठोस एवं ज्वलंत प्रश्नों के उस परिणाम के रूप में प्रस्तुत किया जिसके समाधान के लिए बुर्जुआ क्रांति के ढांचे के भीतर कोई उपाय नहीं था या (कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा रह गया था)। [22] इस अर्थ में, रूसी क्रांति ने हर महान क्रांति के बुनियादी सबक, उसके संपन्न होने के नियम की पुष्टि की है जो यह तय करता है कि या तो क्रांति को (अंतिम लक्ष्य की ओर) [23] तेज, तूफानी, दृढ़ गति से आगे बढ़ना होगा, लौह-भूजाओं से सभी बाधाओं को तोड़ना होगा और अपने लक्ष्यों को निरंतर आगे बढ़ाते जाना होगा, या तो फिर यह बहुत जल्द अपने प्रस्थान के कमजोर बिंदु के पीछे फेंक दी जाएगी और प्रतिक्रांति द्वारा दबा दी जाएगी। स्थिर खड़े रहना, समय को एक स्थान पर चिन्हित कर लेना, (अंतिम जीत के लिए) [24] जिस प्रथम लक्ष्य तक (पहले) [25] पहुंचना जरूरी होता है उसी से संतुष्ट हो जाना क्रांति में कदापि सम्भव नहीं है। और जो मेंढकों और चूहों के बीच की संसदीय लड़ाइयों से प्राप्त घरेलु ज्ञान को क्रांतिकारी रणनीति के क्षेत्र में लागू करने की कोशिश करते हैं, वे केवल यही दिखाते हैं कि क्रांति के मनोविज्ञान और अस्तित्व के नियम उसके लिए बेगाने हैं और उसके लिए सभी ऐतिहासिक अनुभव सात सील से बंद किताब भर हैं।” (बोल्ड हमारा)

रूसी सर्वहारा क्रान्ति की राह में एक समय और किसी खास मोड़ पर आने वाली चुनौतियों पर किस तरह काबू पाया गया, ऊपर का यह उद्धरण उसकी केवल एक छोटी सी लेकिन महत्वपूर्ण झलक भर देता है।

कामरेडो!

           मैं आप सबका आह्वान करना चाहता हूं; कृपया आइए और कॉमरेड लेनिन और उनके नेतृत्व में संपन्न होने वाली बोल्शेविक क्रांति द्वारा दिखाए गए रास्ते एवं क्रांति के द्वंद्ववादी नियामों की समझ को आत्मसात करें और फिर उनका कड़ाई से अनुसरण करें, जिसके अनुसार कभी-कभी “एक निर्बाध” (untrammelled) और साथ ही साथ एक अनचिन्हें (unbeaten) रास्ते भी पर चलने की आवश्यकता उठ खड़ी होती है ताकि हम खुद को “संकीर्ण अंधी गली” में विचरण करते रहने या एक ही जगह पर कदमताल करते रहने की अंधता से मुक्त कर सकें। शर्त्त सिर्फ यह है कि वे रास्ते हमें हमें बंद गली से “एक खुले क्षेत्र व मैदान” में ले जा सकें। चलिए साथियो। आइए, हिम्मत दिखाते हैं। आज निस्संदेह हम सभी लोग चौराहे पर खड़े हैं। ‘पुराना” कोई मार्ग नहीं बचा है जो हमें सफलता की मंजिल की ओर ओर ले जा सकता हो। हमारा यहां ‘पुराना मार्ग’ से तात्पर्य गैर-लेनिनवादी मार्ग से है जिसका भरपूर चलन आज भी मौजूद है। हमें इससे अपना पिंड छुड़ाना होगा। हम देख चुके हैं कि ये ‘पुराना’ मार्ग हमें कहीं नहीं ले जाता है, सिवाय असफलता और निराशा के। इसलिए आइए साथियों, लेनिन की तरह हिम्मत करते हुए और उनके द्वारा ही सिखाये गये तौर-तरीके अपनाते हुए एक अज्ञेय पथ पर लेकिन बौलेशेविकों वाली अजेय क्रांतिकारी निष्ठा और प्रतिबद्धता के साथ उन्हीं की तरह की हिम्मत और जज्बे को लेकर ‘नयी’ यात्रा शुरू करें जो वास्तव में नयी नहीं होगी। सच तो यह है कि स्तालिन की मृत्यु के बाद लेनिनवादी रास्ते पर चलने की वास्तविक प्रतिबद्धता ही हमारे आंदोलन से एकाएक निष्कासित कर दी गयी। इसे फिर से पुनर्जीवित करना होगा, और यह बात हम जितनी जल्दी समझ लें, हमारे लिए उतना ही अच्छा होगा। [26]

नोट –

 [1] ”नया पूंजीवाद” शब्द को लेनिन ने अपनी सुप्रसिद्ध थीसिस ‘इंपीरियलिज्म, द हाईएस्ट स्टेज ऑफ कैपिटलिज्म’ (1916) में पूंजीवाद के एकाधिकारी चरण के उद्भव और वित्तीय पूंजी और इसके एकाधिकार के जन्म से जुड़ी नई विशिष्ट विशेषताओं को रेखांकित करने के लिए कई बार उल्लिखित किया है। लेनिन ”नये पूंजीवाद” के बारे में इस प्रकार लिखते हैं – “पुराने पूंजीवाद के दिन लद गए हैं। नया पूंजीवाद किसी दूसरी चीज की ओर संक्रमण का प्रतिनिधित्व करता है।” (बोल्ड जोड़ा गया है, लेनिन के सेलेक्टेड वर्क्स, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1963, मॉस्को, वॉल्यूम 1)

 [2] संक्षेप में, सर्वहारा वर्ग का ऐतिहासिक मिशन क्या है? यह हमेशा सभी मनुष्यों को सभी प्रकार के उत्पीड़न, दमन और शोषण की जंजीरों से मुक्त करने के साथ-साथ मनुष्यजाति को अब तक के इतिहास में पाए गए उसके सभी तहर के उपसमुच्चयीय (subsumed)  रूपों से मुक्त करने का रहा है।

 [3] पूंजी क्या है? यह मुख्य रूप से एक सामाजिक संबंध है जो आज के आधुनिक युग में व्यक्तियों के बीच के उत्पादन संबंध का प्रतिनिधित्व करता है, न कि इसका अर्थ केवल एक मशीनरी या उत्पादन का साधन है। वित्त पूंजी क्या है? यह भी पूंजी जैसा एक सामाजिक संबंध है। इसलिए आज की वित्तीय पूंजी भी पूंजी की तरह ही लेकिन रूप कल की पूंजी से पूरी तरह भिन्न पूंजी है। इसके विकास की यात्रा में कई चरण आये और गये हैं – उत्पादन के संकेंद्रण का एक चरण पूरा होने के बाद औद्योगिक और बैंकिंग पूंजी के संकेंद्रण का एक चरण पूरा होना, उससे जन्मे एकाधिकार के उदय का एक चरण का पूरा होना, और बाद में पूंजीवाद के एकाधिकारी चरण में पहुंचने के बाद औद्योगिक पूंजी के साथ बैंकिंग पूंजी के बीच हुए सहसंयोजन (fusion) के एक चरण के पूरा होने के साथ वित्तीय पूंजी के एकाधिकार के उदय के एक और चरण का पूरा होना (यह वह समय था जब लेनिन अपनी साम्राज्यवाद पर थीसिस पर काम कर रहे थे) , फिर उसके के सौ साल बाद की एक लंबी अवधि में कई चरणों में यानी आज के समय की वित्तीय पूंजी के उदय के चरण का पूरा होना – यहां यह समझना जरूरी है कि आज की वित्तीय पूंजी लेनिन द्वारा 1916 में वर्णित वही वित्तीय पूंजी का विशालकाय नया रूप है जिसमें इसकी बुनियादी प्रकृति में कुछ भी नया नहीं प्रकट हुआ है लेकिन जिसकी काया में हुई विशालकाय वृद्धि ने नये पूंजीवाद, जिसकी शुरूआती लाक्षणिकताओं के बारे में शुरूआती व्याख्या की थी, को इस तरह से बदल दिया है कि इसका संकट लगभग अपरिवर्तनीय (irreversible) हो चुका है, माल-उत्पादन का उच्छेदन अधिकाधिक हो अपनी किसी भी रूप में वापसी की सारी संभावनाओं को खत्म कर दिया है, पूंजी संचय के आधिक्या की बातें पुरानी हों अब वित्तीय पूंजी का आधिक्य का रूप धारण कर चुकी हैं, आज के आर्थिक संकट का कारण भी पूंजी से अधिक वित्तीय पूंजी के मूल्य में होने वाले परिरक्षण और संवर्द्धण के रास्ते में आने वाले संकट है जो अपने मूल रूप में पूंजी के विस्तार में आने वाले पुराने संकट के आधार पर ही खड़ा है। इसलिए हम बुनियादी परिवर्तन हुए बिना ही इसके रूप में हुए विशालकाय और परिणामकारी परिवर्तनों को यहां देख सकते हैं। इसलिए वित्तीय पूंजी अपने आप में आज के समय के अनुरूप अधिकतम रूप से सामाजिकृत पूंजी ही है। 

इसकी आज तक की यात्रा में 1960 के दशक में ‘एकाएक’ प्रकट हुई यूरो डॉलर बाजार के प्रसार की परिघटना एक बहुत ही महत्वपूर्ण चरण है जिसके दौरान इस नये रूप में जन्मी वित्तीय पूंजी की गतिविधियों को समझने के बाद ही हम इसके आज के विशालकाय निर्णायक रूप से पश्चमणकारी रूप के प्रकट होने की एक अत्यंत ही प्रतिक्रियावादी परिघटना की व्याख्या प्रस्तुत कर सकते हैं। यूरो डॉलर की परिघटना दर्शाती है कि वर्तमान वित्तीय पूंजी ने अधिकतम रूप से सामाजिकृत पूंजी का स्वरूप प्राप्त कर लिया है और इसके आवारा होने के पीछे का यही जादुई राज है। वित्तीय पूंजी के इतिहास में इसके रूप में यह परिवर्तन पहले कभी नहीं देखा गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके पूरी तरह मुक्त (पूरी तरह से प्रतिबंधविहीन) विचरण ने इसे शेयर बाजार तंत्र के माध्यम से किसी भी समय गर्म वाष्प मुद्रा या पूंजी की तरह गायब हो जाने पूंजी का अहसास कराया। संक्षेप में, वित्त पूंजी अंतरराष्ट्रीय पूंजी बन गई। हम यहां इस प्रपत्र में वित्तीय पूंजी पर इससे अधिक चर्चा नहीं कर सकते हैं। इसके विपरीत, यहां जिस बात पर बल दिया जाना है वह यह है कि पूंजी की तरह वित्तीय पूंजी भी एक सामाजिक संबंध है और बड़े ही घुमावदार तरीके से ही सही लेकिन यह भी व्यक्तियों के बीच के उत्पादन संबंधों का ही प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए, पूंजी या वित्तीय पूंजी से मुक्ति का प्रश्न मूल रूप से दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। दोनों एक ही प्रकृति के सामाजिक संबंध का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसलिए इन दोनों तरह की पूंजियों के मामले में मुक्ति का अर्थ है किसी विशेष सामाजिक या उत्पादन संबंध से मुक्ति। इस अर्थ में दोनों में कोई अंतर नहीं है, खासकर आज के आर्थिक संकट की प्रकृति को देखते हुए।

पूंजीवादी सामाजिक संबंध का अपरिवर्तित रहना उत्पादक शक्तियों के विकास पर ब्रेक लगाता है, क्योंकि उत्पादन के पूंजीवादी संबंध के तहत उत्पादन का उद्देश्य मुनाफा होता है न कि जनता या प्रत्यक्ष उत्पादकों  की बढ़ती भौतिक एवं सांस्कृतिक जरूरतों की पूर्ति करना। इस प्रकार, यह अंततः उत्पादक शक्तियों के अबाध विकास पर प्रतिबंध लगाता है, खासकर तब जब मुनाफा का पहिया जाम हो जाता है यानी संकट आता है। इस संबंध के तहत उत्पादन के उद्देश्य को केवल लाभ कमाने तक सीमित कर दिया जाता है। उत्पादन का कोई अन्य उद्देश्य नहीं रह जाता है। आज की वित्तीय पूंजी ने इस प्रवृत्ति को और तेज कर दिया है। चूंकि वास्तविक उत्पादन में इस अत्यधिक सामाजिकृत पूंजी, यानी वित्तीय पूंजी  के निवेश पर लाभ अब भी निजी तौर पर विनियोजित किया जाता है, इसने पूंजीवाद में अंतर्निहित अंतर्विरोधों को हजार गुना और साथ ही पूरे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेज कर दिया है। इसने इसके एक अन्य चारित्रिक लक्षण, अर्थात वित्त पूंजी के अत्यधिक सट्टेबाज चरित्र को उजागर किया है। वित्तीय पूंजी का यह चरित्र ही है कि यह ब्याज पर, ”कूपन काट कर” और सट्टे और जुआबाजी में पूंजी निवेश कर प्राप्त होने वाले अधिकतम मुनाफे के लिए जिंदा रहता और मरता है। यह पूरे समाज को सट्टेबाजों की दुनिया या घर में तब्दील कर दिया है। इन सबके बारे में लेनिन ने 1916 में ही बताया था, लेकिन आज इसकी क्षमता लेनिन के समय की तुलना में हजारों औश्र लाखों गुना अधिक हो गई है। इसका मतलब इसकी इस चारित्रिक लक्षण ने इसे वास्तविक उत्पादन के क्षेत्र से और अधिक तथा तेजी से दूर कर दिया है, खासकर जब जब इसका आज पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं पर लगभग पूर्ण नियंत्रण कायम हो चुका है।

यह गौरतलब है कि वित्तीय पूंजी आज ज्यादातर तौर पर ही नहीं, मुख्य रूप से भी,  शेयर बाजार के माध्यम से किसी विकासमान क्षेत्र में प्रवेश करता है, ताकि किसी विशेष शेयर के मूल्य में बुलबुला की तरह से वृद्धि करने के बाद, जिसके लिए वह घृणित से घृणित तरीके के सट्टेबाजी के औजारों और माध्यमों का उपयोग करता है। ऐसा कर पाता है इसकी वजह उत्पादक शक्तियों और कच्चे माल के स्रोतों पर वित्तीय पूंजी के चंद कप्तानों का एकाधिकार है। इस तरह यह चाहे जिस भी विकासमान क्षेत्र में घुमावदार रास्तों से होकर गुजरती है, वहां लाभ की मलाईदार परत को हड़प कर (बनावटी तरीके से बनाये गये बुलबुले के द्वारा बढ़ी हुए कीमतों वाले शेयरों की तत्काल बिक्री करके) भारी लाभ अर्जित करते हुए अचानक गायब हो जाती है। इसका सीधा मतलब है, उस विकासमान क्षेत्र की पूर्ण बर्बादी। ऐसी वित्तीय पूंजी का आतंक ऐसा है कि पूंजी की दुनिया के प्रति निष्ठा रखने वाली सभी सरकारें आज उसके इशारे पर नाचती दिखती हैं।

संक्षेप में, 1973 के संकट से पहले के उस इतिहास को भी हम दोहरा सकते हैं जब नये अवतार में वित्तीय पूंजी सब कुछ को ध्वस्त करती हुई अंतर्राष्ट्रीय बन रही थी। यह वह दौर था जब आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसे ब्रेट्न वुड्स संस्थानों ने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के गरीब और पूंजी के जरूरतमंद देशों को ब्याज की ऊंची दरों पर ऋण देकर भारी मुनाफा कमाने के लिए उस समय के अति प्रवाहमान यूरो डॉलर बाजार का उपयोग करने के बारे में सोचा ही नहीं था, उसका उपयोग भी किया था। लेकिन 1973 के संकट के फूटने के साथ ही पूंजीवाद के विकास के स्वर्णिम युग का और कर्जदार देशों के उस आत्मविश्वास का भी अंत हो गया जो यह सोचते थे कि संकट की बात अब इतिहास की बात हो गई है और इसलिए वे छक कर कर्ज लेते जाने में विश्वास करते थे जिसका उपयोग बनावटी विकास दर हासिल करने से लेकर कर्ज के बंदरबांट में भी खूब हुआ। उस समय इंडोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया और सिंगापूर जैसी चीता अर्थव्यवस्थाओं, जो इसी तरह के कर्ज लेकर तेजी से विकसित हुई थीं, की तूती बोलती थीं। जब 1973 में संकट फूटा तो तुरंत ही वुड्स संस्थाएं डूब गयीं क्योंकि संकट के एकाएक आ प्रकट हो जाने के कारण कर्ज और उस पर प्राप्त होने वाले ब्याद की वसूली खटाई में पड़ गई। ये बेट्न वुड्स संस्थायें यूरो डॉलर के रूप में नये अवतार वाली वित्तीय पूंजी की कर्जदार हो गयीं। और तब से पूरा खेल पलट गया। इन संस्थाओं को अब वह लागू करना पड़ रहा था जो इस नई पूंजी ने उनसे लागू करने की मांग की। उसके विश्वस्तर पर मुक्त विचरण के रास्ते में आने वाली सारी बाधाओं को हटाने की मांग की गई और इन्हें ये सब कुछ मानना पड़ा। और इस प्रक्रिया में वे संस्थाये हीं इसके रास्ते से हटती चली गयीं। इंटरनेट और अन्य परिष्कृत उपकरणों और कंप्यूटर आदि से संबंधित तकनीकों में आयी नवीनतम क्रांति, जो अभी भी किसी न किसी रूप में जारी है, का फायदा उठाते हुए इस ‘नई’ (सिर्फ रूप और आकार में नई) वित्तीय पूंजी ने तब से ही विश्व पूंजीवाद की आर्थिक नीतियों में ही नहीं सभी तरह की नीतियों में, वैचारिक एवं राजनीतिक नीतियों में भी, पूरी तरह से अपना वर्चस्वकारी स्थान बनाना शुरू कर दिया था। तब से आज की इसकी यात्रा पर ध्यान देते ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि इस नई वित्त पूंजी के पूरी दुनिया में मुक्त आवागमन पर सभी तरह के पुराने प्रतिबंध हटा दिए गए हैं। आज ब्रेट्न वुड्स संस्थाओं द्वारा लागू फिक्सड एक्सचेंज रेट इतिहास के कूड़े-कचरे के डब्बे में डाल दी गई चीज बन गयी है।

तब यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इतने कम समय में इसकी शक्ति और ताकत में हुई इस अविश्वसनीय वृद्धि ने इसे आवारा या अत्यधिक गैर-जिम्मेदार ही नहीं, पूरी तरह से बेकाबू पूंजी बना दिया है, जो समाज की भलाई की परवाह तो नहीं ही करता है, वह अपने सहोदर बहन-भाइयों की सामूहिक भलाई के बारे में भी शायद ही कभी सोंचता है, जब तक कि कोई ऐसा संकट ने आ जाए जब इसके सामने साक्षात इसकी मृत्यु का भय प्रकट हो जाए। इसके पहले तक, और इसके बाद भी, इसकी आवारगी का एक ही इलाज है, इसे उस जमीन से ही उखाड़ फेंका जाये जिस जमीन में इसकी जड़े हैं, यानी पूंजीवाद और पूंजीवादी सामाजिक संबंधों की जमीन से। 

आज इसकी आवारगी का परिदृश्य इस बात में परिलक्षित हो रहा है कि इसे पूंजी की दुनिया में निवास करने वाली अन्य छोटी व मंझोली एवं मध्यम पूंजियों को निगलकर अपना भूख शांत करनी पड़ रही है। इसका कारण वह अपरिवर्तनीय आर्थिक संकट है जिसका कोई निदान नहीं है, क्योंकि पूंजी के निवेश के लिए दुनिया में कोई जगह खास तौर पर नहीं बची है जहां से श्रम की लूट से इसकी भूख पूरी तरह शांत हो सके। तब जो बचता है वह स्वयं पूंजी की दुनिया और इसके वाशिंदे, यानी पहले से निर्मित पूंजियां, उसके छोटे व मंझोले मालिक और साथ में प्रकृति का अब तक बचा और अनछुआ विशाल क्षेत्र जिन्हें वह लूटने-खसोटने में विशालकाय एवं खूंखार वित्तीय पूंजी के कप्तान लगे हुए हैं। पूंजी की दुनिया में इसलिए ही आजकल भगदड़ मची हुई है। लेकिन सवाल तो उस प्रकृति का भी है जिसकी लूट की यह बेतहाशा और गैर-जिम्मेदाराना गति अगर बनी रही, तो पूरी मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाने वाली है। इसलिए आज वित्तीय पूंजी से मुक्ति का स्वप्न देखने वाले सभी लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि पूंजी से मुक्ति और वित्तीय पूंजी से मुक्ति का सवाल आज एक ही में युक्त हो चुके हैं। पूंजी की दुनिया बनाम लोगों की दुनिया की लड़ाई में यह वित्तीय पूंजी बिना सेना के रह जाने वाली है, यह देखने और समझने वाली है। सुपर या अधिकतम लाभ की अपनी दुष्टतापूर्ण खोज व सोंच में यह जल्द ही पूंजीवादी व्यवस्था को ही पूरी तरह अस्थिर कर देगी, यह भी देखने और समझने वाली बात है। इसलिए सर्वहारा और मेहनतक वर्ग को तथा लुटते-पिटते-उत्पीड़ित होत और उजड़ते लोगों के लिए अपने भाग्य अपने हाथ में लेने का सुअवसर आने वाला है। मानवता का हत्यारा बने राक्षस का जीवनहरण युगीन कार्यभारों के मुख्य एजेंडे पर आ चुका है। जब यह राक्षसी शक्ति अपने अधिकतम लूट और लाभ के लिए सभी तरीकों का उपयोग कर रही है, तो हमें भी इसके साथ हर अवसर और तरीके का उपयोयग करना चाहिए। यही हमारी क्रांतिकारी अवसरवादिता है जिसका उपयोग करने से चूकना भारी भूल होगी। मुनाफ़े की यह उन्मत्त खोज का जवाब विवेकपूर्ण और उन्मत्त क्रांतिकारी संघर्ष से ही दिया जा सकता है। आज कोई भी सुरक्षित नहीं है, चाहे वह पूंजी की दुनिया से ताल्लुक रखता हो या लोगों की दुनिया से। यही बात क्रांतिकारी परिस्थिति को तेजी से परिपक्व कर रही है। यह फासिस्टों के लिए अपना बटुआ यूं ही नहीं खोलता है और उन्हें बिना किसी कारण के बढ़ावा नहीं देता है। हां, यह नहीं भूलने की जरूरत है कि फासीवाद और आज की हत्यारी वित्तीय पूंजी ही नहीं एक दूसरे के गर्भनाल के माध्यम से जुड़ी हुई है, अपितु पूंजी की तर्कप्रणाली से इसका नाभिनाल संबंध है जो आज नग्न रूप से प्रदर्शित हो रहा है ।

 [4] पूजीवाद की ऐतिहासिक वैधता पूंजीवादी दुनिया को हिला देने वाली अक्टूबर क्रांति की सफलता और सोवियत संघ में समाजवाद की जीत, हालांकि जो अंतिम तौर पर जीत नहीं थी, के साथ ही खत्म हो चुकी थी।

 [5] इसके विपरीत, DR, NDR या PDR की लाइन अभी भी पूंजीवाद को राजनीतिक रूप से मान्य करने की कोशिश कर रही है या करती है, यह कहते हुए कि समाज को अभी भी पूंजीवाद के मुक्त विकास के एक चरण से गुजरना बाकी है। 

 [6] यह उस समय की दुनिया जैसी थी उससे जनित वस्तुनिष्ठ परिस्थिति से संबद्ध कमजोरी थी, जो इतिहास के एक खास मोड़ पर प्रकट हुई थी। इसलिए फासीवाद, खासकर जर्मन फासीवाद पर जीत के उल्लास से भरे समय में भी, और मानव जाति जिस पर फासीवादियों के हाथों गुलाम बनाये जाने की संभावना के कारण उसके अस्तित्व पर छाये संकट के पटाक्षेप के समय भी, और एक गाढ़े वक्त पर मानवजाति के रक्षक बनने के लिए दुनिया के हर कोने से चौतरफा मिल रही तालियां के दौर में भी सोवियत संघ द्वारा साम्राज्यवाद को घेर लिये जाने की ऊपरी तौर पर प्रकट हो रही प्रबलतम संभावना के बाद भी स्वयं सोवियत संध के घिर जाने का मुख्य ऐतिहासिक कारण बनी। इस तरह मजदूर वर्ग की एक तिहाई दुनिया में जीत के बाद भी ऐतिहासिक पराजय और इतिहास के पश्चगमन की आधारशिला रखी गयी थी।  

 [7] जो हिम्मत नहीं कर सकते उनके लिए कोई उम्मीद नहीं है। थाली में रखे भोजन को खाने के लिए भी खाने की इच्छा होनी चाहिए। इच्छा होने के बाद भोजन को मुंह तक ले जाने के लिए हाथ उठाना पड़ता है। अपने आप कुछ नहीं होता।

 [8] एक ऐसा वर्ग जो इस शब्द के बहुचर्चित ऐतिहासिक अर्थ में मुश्किल से ही एक वर्ग बना रहता है, जिसका वर्ग-शासन इतिहास में अब तक अवतरित किसी अन्य वर्ग-शासन के समान या अनुरूप नहीं होता है। अन्य वर्गों के शासन का उद्देश्य सर्वहारा वर्ग के शासन के ठीक विपरीत अपने स्वयं के शासन को हमेशा के लिए कायम रखना नहीं है, जिसका उद्देश्य इसके बदले उत्पादक शक्तियों का इतना अधिक विकास कराना है और तदनुसार उत्पादन संबंधों को लगातार इस तरह बदलना होता है कि खुद के शासन को विलोपित होने दिया जा सके, समाज को उत्पादन की प्रचुरता के एक ऐसे स्तर या मुकाम पर ले जाना होता है जहां पहुंचकर मानव समाज में वर्गों का अस्तित्व कालातीत हो जाए।

  [9] जाहिर है, अंतरवर्ती वर्गों की ”मुक्ति” की चीत्कार को हमारी सोच को भावनात्मक रूप से प्रभावित करने देना नहीं चाहिए। हमें भावुक होकर उनके प्रतिक्रियावादी वर्ग हितों और पूर्वाग्रहों में लिप्त होने से बचना चाहिए। इसके विपरीत, जैसा कि मैंने लगातार कहा है, यह स्थिति सर्वहारा वर्ग को उस सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का वारंट जारी करने का मौका और अवसर देता है जो इन प्रतिक्रियावादी पूर्वाग्रहों को लगातार बारंबार पैदा करती रहती है।

 [10] यहां ‘लोगों’ (people) के अर्थ बदल जाते हैं क्योंकि हम यहां सर्वहारा वर्ग की रणनीति की बात कर रहे हैं। इसलिए यहां हमारे लिए ‘लोगों’ (people) से तात्पर्य जनसा के उस हिस्से से है जो किसी न किसी तरह या रूप से उत्पीड़ित, शोषित हैं और निकट भविष्य में अपनी पुरानी सामाजिक स्थिति से बेदखल या मुक्त कर दिए जाने वाले हैं। हम उन्हें पूंजी के शासन के खिलाफ सर्वहारा वर्ग की लड़ाई में पीछे से या तो सर्वहारा वर्ग की कोतल शक्ति के रूप में या फिर अस्थाई रूप से लामबंध होने के लिए या तो मजबूर करना चाहते हैं, या वे स्वयं अपने कारणों से मजबूर होंने के लिए अभिशप्न्त होंगे। ”लोगों’ की हमारी यहां कैटेगरी का यही अर्थ है।

 [11] इसे दर्शाने के लिए अनेक उदाहरण हैं। किसान और कम संपत्ति वाले वर्ग चाहे कम संपत्ति के मालिक हैं लेकिन वे पूंजी की दुनिया से ही संबद्ध हैं। जैसा कि हम कह रहे है, हमें उन्हें ”मुक्ति” के लिए चीत्कार करते देखा जा सकता है। हालांकि उनकी मुक्ति की कामना उनके अपने प्रतिक्रियावादी  वर्ग-हितों के आधार पर हैं, उनकी अपनी कल्पना की है।

 [12] हालांकि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि जानबूझ कर इस पेपर को बेरोजगारी, गरीबी, मूल्यवृद्धि, ऋणग्रस्तता आदि के और सर्वेक्षणों के आकड़ों को डाल कर बोझिल नहीं किया जाये। ये सभी मुख्य रूप से विश्वपूंजीवाद के एक अपरिवर्तनीय (irreversible) आर्थिक संकट के परिणाम हैं जिसके कारण बड़ी संख्या में गरीबों की आत्महत्याओं में अचानक वृद्धि हुई है! लेकिन हम यह स्वीकार करते हैं कि ये आंकड़ें ही हैं जिन्होंने हमें इस महत्वपूर्ण चर्चा को लेने की आवश्यकता महसूस कराई है, और इसलिए इस प्रपत्र में प्रस्तुत किए गए राजनीतिक- वैचारिक निष्कर्षों के आधार हैं।

 [13] यूरोप और अमेरिका के उन्नत देशों में इसके गुरुत्व केंद्र के साथ, जो निस्संदेह पहले की तुलना मं आज की यह एक अनूठी विशेषता है

 [14] कुछ मामलों में कम विकसित देशों जैसे श्रीलंका में और हाल ही में घाना (अफ्रीका) में भी।

 [15] जगह और समय की कमी के कारण यहां मैं उन देशों का नाम नहीं ले रहा हूं या उनका उदाहरण नहीं दे रहा हूं जहां कुछ सालों में इस तरह की चीजें काफी मात्रा में हुई हैं और आज भी हो रही हैं। हममें से अधिकांश अगुआ कतार के साथी अपनी क्षमता के अनुसार तथा इंटरनेट द्वारा उपलब्ध वैकल्पिक मीडिया के इस युग में ऐसी इन बातों से वाकिफ हैं।

[16] इसके अलावा, हमने मज़दूरों, कर्मचारियों, नौजवानों, दलितों, आदिवासियों के साथ-साथ समाज के कई अन्य छोटे बुर्जुआ तबकों को भी खुले तौर पर, अक्सर दमन के बावजूद, मोदी के नेतृत्व वाली इस फासीवादी सरकार का विरोध करते हुए देखा है। सफलता मिले या न मिले, उनका प्रतिरोध, संख्या के साथ-साथ ताकत में भी, बढ़ रहा है, जिनकी मुक्ति की पुकार एक बार फिर से आज के समय की कुछ विशिष्टताओं को दिखाती है। गहरे बैठे असंतोष, क्रोध और सतह के नीचे बढ़ती बेचैनी के साथ घबराहट अक्सर एक ‘वास्तविक और पूर्ण परिवर्तन’ के आह्वान के साथ होती दिखाई देती है। इसमें हम अक्सर पाते हैं कि परिवर्तन की इस पुकार को व्यक्त करने के लिए ”मुक्ति” शब्द का प्रयोग भी खूब किया जाता है।

 [17] एसकेएम, जो इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है, द्वारा 5 दिसंबर 2022 को जारी नवीनतम प्रेस विज्ञप्ति देखें।

 [18] यह लड़ाई अब आम लोगों के काम के बोझ में अत्यधिक वृद्धि के खिलाफ, कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के खिलाफ, व्यापक जॉबलेस ग्रोथ (यदि कोई है तो) के माध्यम से बेरोजगारी में की जा रही अभूतपूर्व वृद्धि के खिलाफ, सरकारों द्वारा बड़े कॉरपोरेट्स के माध्यम से सामाजिक धन की लूट और लूट के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे पूर्ण आत्मसमर्पण के खिलाफ, पूरी तरह कॉर्पोरेटों के पक्ष में श्रम और भूमि कानूनों में कॉर्पोंरेट पक्षीय सुधारों के खिलाफ, वित्तीय पूंजी के पक्ष में आर्थिक नीतियों और शासन में हुई लगभग सम्पूर्ण और निर्णायक शिफ्ट के खिलाफ, तथा उनके श्रम या श्रम के फल की बढ़ती लूट के रूप में “नए पूंजीवाद” (वित्तीय पूंजी द्वारा निर्देशित और शासित) के द्वारा चौतरफा हमलों के सामने आजीविका की रक्षा हेतु आम जनता की एक निर्णायक लड़ाई का रूप धारण कर रही है।

 [19] आम तौर पर, यह यांत्रिक रूप से क्रांतिकारियों को एक पार्टी में एकजुट करने के कार्य के बराबर है, हालांकि वर्तमान चर्चा यहीं तक सीमित नहीं है। यह लेख मुख्य रूप से इस कार्य से पहले की चुनौतियों के बारे में लिखा गया है।

[20]  कोष्टक के शब्द पूरी पंक्ति के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने हेतु इस लेख के द्वारा जोड़ा गया है

 [21] कोष्टक के शब्द बोल्शेविकों की भूमिाक को और अधिक स्पष्ट करने हेतु वर्तमान लेखक के द्वारा जोड़े गये शब्द हैं।

[22] कोष्टक के शब्द विचाराधीन वाक्य में निहित भाव, यानी किसी देय परिस्थिति में क्रांतिकारी हस्तक्षेप की भूमिका को रेखांकित करने और उसका अर्थ और भी अधिक स्पष्ट करने हेतु जोड़े गये हैं।

 [23] वही, जैसा कि ऊपर इंगित किया गया है

 [24] वहीं, जैसा कि ऊपर कहा गया हैा

 [25] वहीं, जैसा कि ऊपर कहा गया हैा

[26] यह अंतिम पैराग्राफ पहले की तुलना में तीन चौथाई नया है। हालांकि भाव या विचार में नहीं, प्रस्तुति में।