पूर्ण बर्बादी के मुहाने पर खड़ा जोशीमठ और खानाबदोश बनते लोग

January 24, 2023 0 By Yatharth

इजारेदार पूंजीवाद द्वारा अतिदोहन से दरकती-छटपटाती प्रकृति

कंचन / अजय सिन्‍हा

प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें अत्‍यधिक इतराना नहीं चाहिए, क्योंकि वह हर ऐसी विजय का हम से प्रतिशोध लेती है। यह सही है कि प्रत्येक विजय से पहली बार प्रथमतः वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं जिन का हमने भरोसा किया था, पर द्वितीयतः और तृतीयतः उस के परिणाम बिल्कुल ही भिन्न तथा अप्रत्याशित होते हैं, जिनसे अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है।

– फ्रेडरिक एंगेल्‍स

प्रकृति ने धरती पर कई जगह स्वर्ग से सुंदर स्थानों का निर्माण किया है। उन्हीं में से एक है भारत का उत्तराखंड जो देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यह कभी उत्तरप्रदेश का हिस्सा था। भारत में पूंजीवादी विकास के एक दौर के बाद यह जर्जर बनता जा रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति का अतिदोहन और लूट-खसोट एकाधिकारी वित्तीय पूंजीवाद की आम प्रवृत्ति है। इसलिए हर जगह की तरह इसके भी पर्यावरण पर पड़ने वाले बाह्य दबाव ने यहां की जलवायु में असंतुलन पैदा करके वर्षों पहले बर्बादी के कई तरह के लक्षण प्रकट करने लगे थे। तापमान का बढ़ना और ग्लेशियर का खिसकना इनमें से एक है जिससे यह पूरा सुरमई स्थान कल को धंस कर पूरी तरह विलोपित हो सकता है। इसी तरह अनियमित वर्षा, सर्दियों की बर्फ में कमी, फसलों के मौसम में आकस्मिक और दूरगामी बदलाव, अनियंत्रित आकस्मिक बाढ़ (जैसा कि 2013 और 2021 में देखा गया) की स्थिति इस जगह की बर्बादी के आम लक्षण बन चुके हैं। यहां के वायुमंडल, पर्वत-पहाड़, जंगल, नदियां, हरियाली, आदि वर्षों से विनाश की कगार पर आ खड़े हैं। जोशीमठ की पूर्ण बर्बादी की संभावना से लोग अभी भावनात्मक तौर पर उबरने की कोशिश ही कर रहे थे कि दो से तीन दिन पहले नैनीताल के नामी बैंड स्टैंड के बारे में यह जानकारी मिलने लगी कि वह (बैंड स्टैंड) झील की तरफ झुक चुका है और उसमें विलीन होने वाला है। यही नहीं, यह सूचना भी आ रही है कि आसपास की जमीनें, सड़कें और दीवारें दरकने लगी हैं। कहने का मतलब, बात सिर्फ चमोली जिला के जोशीमठ, उत्तरकाशी के मस्ताड़ी गांव, नैनीताल झील या बदरीनाथ की ही नहीं पूरे उत्तराखंड तथा पहाड़ों व जंगलों में रहने वाली हर उस जगह की है जहां बर्बादी और पूर्ण सफाये के लक्षण साफ-साफ दिख रहे हैं। पूरे विश्व में फैले सैंकड़ों ही नहीं हजारों जगहों की स्थिति जोशीमठ जैसी ही है। इतना ही नहीं, पूरी पृथ्वी, पूरा प्राकृतिक जगत और पृथ्वी के लोग – सभी पूंजी के लूट और अत्याचार से अस्तित्व के संकट से ग्रस्त हो चुके हैं। जोशीमठ के पूर्ण ध्वंस पर आ खड़ा होने को इसी नजरिये से देखने की जरूरत है।

धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में इस जगह के अस्तित्व का सवाल वर्षों नहीं दशकों पुराना है। जैसे-जैसे यह आधुनिक सुविधाओं से लैस होता गया, जीवन-जीविका के साधन और रोजगार की लालसा में प्रदेश व देश के कोने-कोने से लोग भी यहां आकर बसने लगे। जब मोदी सरकार आई तो इस जगह को विश्व प्रसिद्ध हिंदू और सारी आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस धार्मिक पर्यटन स्थल बनाने की कवायद ने तेजी पकड़ी। ”चार धाम महामार्ग परियोजना” [1] का उद्घाटन दिसंबर 2016 में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने किया था, हालांकि इसके पहले की अलग-अलग सरकारों के समय ही इस जगह पर बड़े-बड़े होटल और आरामगृह तथा सड़कों का निर्माण किया जा चुका था। बिजली परियोजनाओं और इसी तरह की कई अन्य परियोजनाओं के शिलान्यास हो चुके थे। जब मोदी के समय में कॉर्पोरेट की कुदृष्टि इस क्षेत्र पर पड़नी शुरू हुई, तो यह और भी निश्चित हो गया कि मलबे से बने पत्थरों की ढेर पर टिका यह पहाड़ी क्षेत्र, जो पहले से ही अवैज्ञानिक और निर्मम कटाव झेल रहा था, अब बहुत बड़े पैमाने पर पूंजीवादी मुनाफे हेतु अतिदोहन का शिकार होगा। लेकिन तब तक प्रकृति के प्रत्याक्रमण की दुदुंभी बज गई। इतिहास ने करवट लेनी शुरू कर दी है। अब वहां पर जा बसे लोग वापस मैदानों में आ रहे हैं या लाये जा रहे हैं। लेकिन जैसे मुनाफे कमाने के मोह को कॉर्पोरेट और सरकारें नहीं छोड़ पा रहे हैं, वैसे ही पूंजी का मोह लोग भी नहीं छोड़ पा रहे हैं। लेकिन मानो प्रकृति के दरबार ने यह अंतिम फैसला दे दिया है कि सब कुछ छोड़ के भागो या फिर सर्वनाश के लिए तैयार हो जाओ। परिणामस्वरूप मकान, होटल, रिसॉर्ट, दुकान, स्कूल, सड़कें, नाले, टनल, पालतू जानवार एवं मवेशी सब के सब वहीं छूटने वाले हैं। बात उलट गयी है। वहां दशकों से बसे लोगों के क्रंदन की आवाजें पहाड़ों के दरकन को चीरती समतल मैदानों तक पहुंच रही हैं। लेकिन सवाल है कि क्या ये क्रंदन की चीत्कार और आवाजें बड़ी पूंजी के कप्तानों और सरमायेदारों तथा उनकी दलाल सरकारों के कानों तक पहुंचती हैं? क्या अब भी वे अपने अधिकतम लाभ के लिए प्रकृति का अतिदोहन बंद करने को तैयार हैं? हम जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। आज के दिल्ली का निजाम तो कॉर्पोरेट का हमसफर बन मानो नशे में चूर ही बैठा है। वह उल्टी ही दिशा में सक्रिय है। वह इस ध्वंस की फैली सूचना को उन बड़ी परियोजनाओं को बदनाम करने की साजिश करार दे रही है। तो क्या सरकार यह चाहती है कि लोग या तो धंस कर मर जाएं या चुपचाप वहां से हट जाएं, लेकिन मुआवजे की मांग आदि के नाम पर हल्ला या शोर न मचायें, ताकि परियोजनाएं और नीतियां बदनाम न हों? पहले सरकार बड़े पूंजीपतियों की सरपरस्त बन कई महीनों तथा वर्षों तक अंधी-बहरी बनी रहती है। जब आसमान सर पर टूटने लगता है, जैसे कि आज जब जोशीमठ की विपदा दुनिया को रूला रही है, तो मोदी की सरकार वहां की बदइंतजामी और पैदा हुए बुरे हालात की सूचना पर प्रतिबंध लगाने में व्यस्त है। वहां से आते समाचार और सूचनाओं को दबाने में लगी है। सेटेलाइट से जोशीमठ की ली गई तस्वीरों को हटाने को कह रही है। लोगों का सही से पुनर्वास हो इसके लिए कोई काम कर रही है या नहीं कर रही है पता नहीं पर इसका प्रचार कल को खूब किया जाएगा। इसका सबसे अच्छा तरीका यही है कि बर्बादी की सूचना ही मत आने दो, या आये भी तो बहुत ही कम आये।  

जोशीमठ त्रासदी का वैज्ञानिक परिचय

उत्तराखंड के चमोली जिले में लगभग 20 से 25 हजार घरों की आबादी का एक छोटा सा शहर है जोशीमठ, जो एक पुराने भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है। यह मुख्य रूप से कहें, तो हिमोढ़ (moraine), यानी पिघले ग्लेशियर के द्वारा लाये व जमा किये गये मिट्टी एवं पत्थर के मलबे पर खड़ा है। माना जाता है कि यह शहर करीब 100 साल पहले बसा है। भू-वैज्ञानिकों की मानें, तो आज जोशीमठ का वह आधार जिस पर वह विराजमान है कमजोर पड़ गया है, क्योंकि वह मिट्टी व पत्थर मिश्रित मलबे से बना है। संक्षेप में कहें तो यह शहर पिघले ग्लेशियर से बने अपेक्षाकृत विशालकाय पत्थर पर खड़ा है जो तापमान में वृद्धि से खिसकना शुरू कर दिया है। यूं तो इस जगह को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है और यह क्षेत्र हिंदुओं के धार्मिक स्थल बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम का मुख्य प्रवेशद्वार भी है, लेकिन आपदा के कई मंजर देख चुकी इस भूमि को बचाने कोई देवता अभी तक अवतरित नहीं हुए हैं। यहीं से सिखों के धार्मिक मंदिर हेमकुंड साहिब की यात्रा भी की जाती है। यह यूनेस्को (UNESCO) की विश्व विरासत सूचि में शामिल फूलों की घाटी का प्रवेश द्वार भी है। यहीं शीतकालीन पर्यटकों का प्रसिद्ध गंतव्य स्थल औली भी स्थित है जहां लोग स्कीइंग का लुत्फ उठाने भी आते हैं। यानी, कई महत्वपूर्ण जगहों तथा पर्यटन स्थलों का प्रवेश द्वार होने के कारण ही जोशीमठ रोजगार का एक बड़ा केंद्र बन कर उभरा जिसकी लालसा में लोग यहां आकर बसने लगे। इसी के साथ यहां होटलों व आरामगृहों जैसी बड़ी इमारतें बननी शुरू हुईं। 1872 में यहां घरों की संख्या 455 थी, जो अब बढ़कर 20 हजार से ज्यादा हो चुकी हैं। मलबे से बने पत्थर के ऊपर खड़े इस शहर में जब मानव गतिविधियों ने जोर पकड़ा तो फिर वह घटने का नाम नहीं लिया। आज उस मलबे पर दबाव कितना बढ़ा है हम अंदाज लगा सकते हैं। धरती के अंदर स्थित ग्लेशियर रूपी पत्थर तापमान वृद्धि के साथ पिघलने लगा और परिणामस्वरुप मलबे के पत्थर अपनी जगह से खिसकने लगे। घरें-इमारतें और सड़कें सभी दरकने लगीं। कुछ धंस भी गयीं। अक्टूबर 2021 में पहली बार जोशीमठ के गांधीनगर और सुनील वार्ड में चौड़ी दरारे दिखीं। फिर साल 2022 के मध्य में रवि ग्राम वार्ड में भी ऐसी ही दरारे देखी गयीं। अभी ताजा घटना 2 जनवरी 2023 की है जहां अचानक विस्फोट की आवाज से जब वहां के वासियों की आधी रात को नींद खुली, तो कई मकान धंसते पाये गये और फिर कई इमारतों में बेहद चौड़ी दरारें पायीं गयीं।

भूमि की नाजुकता पर जांच रिपोर्टों को नजरंदाज करने का इतिहास

भूमि की नाजुकता को देखते हुए निर्माण कार्य पर रोक लगाने के संदर्भ में मिश्रा कमिटी [2] की रिपोर्ट के बाद कई अन्य विशेषज्ञों की रिपोर्टें भी आयीं और प्रकाशित हुईं। सवाल है, फिर भी यहां आबादी को क्यों बसने दिया गया तथा नई-नई आधुनिक विशालकाय परियोजनाओं के तहत निर्माण कार्य करने, खासकर निजी कंपनियों को बड़े-बड़े स्ट्रक्चर बनाने और टनल बनाने के लिए सतह के नीचे खनन करने, आदि के लिए निवेश करने की अनुमति क्यों स्वीकृत हुईं? स्वयं सरकार द्वारा भारी पैमाने पर आधारभूत संरचनाओं (जैसे चारधाम महामार्ग परियोजना तथा एनटीपीसी आदि) के निर्माण का काम हाथ में क्यों लिया गया?

18 सदस्यीय मिश्रा कमिटी की रिपोर्ट में, जिसके बारे में कहा जाता है कि इससे अधिक भविष्यसूचक रिपोर्ट कोई और दूसरी नहीं हो सकती है, जो कहा गया वह संक्षेप में यह है : “जोशीमठ पश्चिम और पूर्व में क्रमशः कर्मनासा और ढकनाला से बंधी पहाड़ी के मध्य ढलानों में स्थित है। इसकी दूसरी तरफ धौलीगंगा और अलकनंदा बहती है। जोशीमठ एक प्राचीन भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है। इसके नीचे कोई चट्टान नहीं बल्कि रेत और पत्थर का जमाव है। उचित जल निकासी सुविधाओं का अभाव भी भूस्खलन का कारण बनता है। इसलिए यह एक बस्ती के लिए उपयुक्त नहीं था। पहाड़ों के किनारों को काटने से नवीन खतरनाक भूस्खलन ट्रिगर हो सकता है। विस्फोट, भारी यातायात, आदि से उत्पन्न कंपन सतह से संतुलन बनाने वाले नीचे स्थित प्राकृतिक कारकों में असंतुलन पैदा करेगा।” इसलिये, इस कमिटी ने स्पष्ट रूप से बता दिया कि अगर ऐसा विकास जारी रहा तो यह पूरी तरह जमींदोज हो सकता है।

1876 में ही गठित एम सी मिश्रा कमिट के रिपोर्ट में कही उपरोक्त बातों के ही नहीं लोगों के कड़े विरोध के बावजूद हम यह पाते हैं कि 1980 में यहां पर एक निजी कंपनी को “हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट” आबंटित कर दिया गया। साल दर साल सड़कों के और निजी कंपनियों के निर्माण कार्य में बढ़ोतरी होती गयी। अवैज्ञानिक तरीके से पहाड़ों की तोड़-फोड़ की गई और इसे लगातार जारी रखा गया। इसे ढंकने के लिए सरकार कह रही है कि स्थानीय लोगों का निर्माण कार्य इस विनाश के लिए जिम्मेवार है। जबकि कोई भी यह देख सकता है कि मुनाफे की भूख ने सरकारों के आंख पर पट्टी बांध दी है। 2006 में एक और परियोजना – एनटीपीसी की परियोजना (तपोवन विष्णुगड़ हायड्रो पॉवर प्रोजेक्ट) – को लोगों के विरोध के बावजूद लाया गया। इस परियोजना की हेड रेस टनल जोशीमठ के नीचे से, यानी भूगर्भीय रूप से नाजुक क्षेत्र से होकर गुजरती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि परियोजना की अनुमति के लिए भूवैज्ञानिक जांच करना होता है। इसे न कराकर NTPC द्वारा नियुक्त एक निजी कंपनी को इसके लिए लगाकर इसकी खानापूर्ति कर दी गई। इसलिए सुरंग खोदने की अनुमित बिना किसी दिक्कत के मिल गई। सुरंग संरेखण के माध्यम से ओवरबर्डन की गहराई को स्थापित करने के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी। भूवैज्ञानिक डॉ. पियुष रौतेला के दारा इस संबंध में जारी की गई एक रिपोर्ट को भी सरकार ने अनसुना कर पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। [3] पहाड़ों को खोद-खोदकर छलनी करने का काम हो या उनकी कटाई कर सड़क निर्माण का कार्य हो, किसी को भी रोका नहीं गया। सभी को आज यह तथ्य मालूम हैं कि जोशीमठ के वाशिंदे और वहां की प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों और भूवैज्ञानिकों की दलीलें भी कभी नहीं सुनी गईं। इसलिए ही 2003 से अभी तक न जाने कितने ही भूस्खलन हुए। 2013 और 2021 में अप्रत्याशित बाढ़ की विभीषिका आईं। 2016 की भारी वर्षा में पिथौरागढ़ के सैकड़ों पर लोगों की लाशें बिछ गईं। हजारों घर टूट गये। इस तरह विस्थापन के दिल दहलाने वाले मंजर देखे गये। पूंजीवादी व्यवस्था में सरकारें पूंजीपतियों के दलाल की भूमिका निभाती हैं। जोशीमठ मामले में भी यही साबित हुआ। वर्तमान की भाजपा सरकार और अन्य सरकारों के बीच सिर्फ इतने का फर्क है कि यह ज्यादा नंगे स्वरूप में पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाती है। बस इतने का ही फर्क है।

आज से करीब 164 साल पहले विश्व सर्वाहरा के महान शिक्षक फ्रेडेरिक एंगेल्स की यह पंक्ति उपरोक्त बातों को सारगर्भित रूप में इस तरह पेश करती है – “राजनीतिक अर्थशास्त्र व्यापार के विस्तार के एक स्वाभाविक परिणाम के रूप में अस्तित्व में आया, और इसके प्रकटीकरण के साथ अस्तित्व में आये प्रारंभिक अवैज्ञानिक मोल-भाव की विधि को स्वच्छंद (लाइसेंसशुदा) धोखाधड़ी – सम्पन्नीकरण के एक पूर्ण विज्ञान – के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया, यानी संपन्नीकरण के एक पूर्ण विज्ञान में बदल दिया गया है।” (Political economy came into being as a natural result of the expansion of trade, and with its appearance elementary, unscientific huckstering was replaced by a developed system of licensed fraud, an entire science of enrichment.) [4]

राहत शिविरों में खानाबदोश बनते जोशीमठ वासी

उत्तराखंड के भूवैज्ञानिकों के अनुसार, जोशीमठ नगर बहुत जल्द ही पूर्ण रूप से भूस्खलन की प्रक्रिया के कारण पूरी तरह वापस धरती में समाहित हो जाएगा। इसलिए लोगों को अपना जीवन बचाना है तो उनको अपने धंसते घरों को छोड़कर राहत शिविरों की ओर विस्थापन करना होगा। पिछले कई महीनों में यह नगर करीब कई इंच नीचे धंस गया है। इंडियन स्पेस रिसर्च ऑरगनाइजेशन (ISRO – Indian Space Research Organisation) के अनुसार, 27 दिसंबर 2022 से 8 जनवरी 2023 के बीच 5.4 सेंटीमीटर नीचे धंस चुका है। पिछले 6 हफ्तों में जोशीमठ के करीब 700 घरों में दरारें आ गई हैं और 478 घरों सहित 2 होटलों को खतरे के दायरे में बताया जा रहा और हजारों लोगों को दशकों से बने अपने घर का परित्याग कर रोते-बिलखते हुए राहत शिविर के तरफ बढ़ना पर रहा है। सरकार के तरफ से पूर्व की आपदाओं की तरह ही इस बार भी बड़े-बड़े झूठे वायदों का पिटारा मिला है। उत्तराखंड में बीते 9-10 सालों में बाढ़ और भूस्खलन से कई घर, खेत-खलिहान, मवेशी चपेट में आये, लेकिन सरकारी मुआवजे की बातें महज बातें ही रहीं। इसलिए इस बार भी, कुछ दिनों पहले चमोली के डीएम की घोषणा के मुताबिक आपदा से प्रभावित या राहत शिविर में रहने वाले लोगों को मात्र 6 महीने के लिए 4000 रुपया प्रति महीना (!) किराया के रूप में देने की सरकारी घोषणा की गई है। सोशल मिडिया की खबरें बताती हैं कि इतना भी नहीं मिल रहा, बल्कि कितने तो ऐसे हैं जो अपने बचे-खुचे पैसे से अपना निजी सामान किराए के दूसरे मकानों में पहुंचा रहें।

निहतार्थ या उपसंहार

संक्षेप में कहें तो पर्यावरण संकट से पृथ्वी और मानवजाति का बचाव आज निजी संपत्ति और मुनाफे पर आधारित पूंजीवाद के पूर्ण रूप से खात्मे की मांग कर रहा है। लेकिन क्या हम इस सच्चाई के लिए तैयार हैं? जहां पृथ्वी पर मानव इतिहास करीब ढाई लाख साल पुराना है, वहीं पूंजीवादी उत्पादन सम्बंध करीब 200 से 300 साल पुराना है। इस पूंजीवादी उत्पादन की निर्णयाक विशेषता यह है कि इसमें उत्पादन मानव श्रम शक्ति के सामान्य रूप से माल में परिवर्तित हो जाने पर आधारित है। इसी से मानव श्रम की पूंजीवादी लूट की वह आधारशिला रखी गयी है जिसके तहत स्वर्ग सी सुंदर हमारी प्रकृति भी, जो मानव जीवन को सींचने और उसके चतुर्दिक विकास में महान भूमिका निभाती आई है, लूट-खसोट की चीज बन कर रह गयी है। निस्संदेह, इस धरती के गर्भ में मौजूद संसाधान की अहर्निश (पल-पल) लूट से हमारी पृथ्वी आज वेंटीलेटर पर अपनी आखिरी सासें लेती प्रतीत हो रही है। आज इजारेदार वित्तीय पूंजी के वर्चस्व का युग है। इजारेदार वित्तीय पूंजीपति पूरी दुनिया के श्रम से उत्पन्न अधिशेष को अपनी मुट्ठी में करने की होड़ के बाद अब प्रकृति के अधिकतम दोहन की ओर मुड़ चुके हैं जिससे मानवजाति को आज महाविनाश और महाआपदाओं के मंजरों का सामना करना पड़ रहा है। अगर हम आगे भविष्य में भी इसे यूं ही लूटमार मचाने के लिए छोड़ देते हैं, तो आगे और भी अधिक भयंकर आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। जोशीमठ इसका एक छोटा सा उदाहरण मात्र है।

मजदूर- मेहनतकश वर्गों की मुक्ति का पथ-प्रदर्शन करने वाले कार्ल मार्क्स ने 19वीं सदी में ही कहा था –          “प्रकृति मनुष्य का अकार्बनिक शरीर है – प्रकृति, यानी, इस हद तक कि वह स्वयं मानव शरीर नहीं है। मनुष्य प्रकृति पर जीता है – इसका अर्थ है कि प्रकृति उसका शरीर है, जिसके साथ उसे निरंतर आदान-प्रदान में रहना चाहिए यदि उसे मरना नहीं है। मनुष्य का भौतिक और आध्यात्मिक जीवन प्रकृति से जुड़ा हुआ है, इसका सीधा सा अर्थ है कि प्रकृति स्वयं से जुड़ी हुई है, क्योंकि मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा है।” (Nature is man’s inorganic body – nature, that is, insofar as it is not itself human body. Man lives on nature – means that nature is his body, with which he must remain in continuous interchange if he is not to die. That man’s physical and spiritual life is linked to nature means simply that nature is linked to itself, for man is a part of nature) [5]

जब पूंजीवाद अपने युवावस्था से वृद्धावस्था की तरफ बढ़ा, तो वह पृथ्वी के हर एक संसाधन को, इसके हर एक भाग को लूटने तथा लूटने के क्रम में नष्ट करने की कवायद तेज कर दिया। हम जानते हैं कि मानवजाति आदिम व्यवस्था से आगे अपने विकास के क्रम में बढ़ते तथा विकसित होते हुए आज के आधुनिक युग में प्रवेश किया है, जहां यह मुख्यत: दो वर्गों में विभाजित हो गया है – पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग में, जो मानवजाति के वर्ग-इतिहास के दो अंतिम उत्पाद हैं, यानी जहां से आगे मानवजाति का या तो अंत हो जाएगा या फिर इसका इतिहास वर्गविहीन होगा यानी वर्गों से परे होगा।

मजदूर वर्ग ने हाड़ गलाकर, विज्ञान व तकनीक से लगभग प्रतिस्पर्धा करते हुए, भरी-पूरी प्रकृति में बिखरे संसाधनों से अपने रोजमर्रा की न्यूनतम भौतिक जरूरतों के लिए थोड़ा सामान पैदा करने से ज्यादा पूंजीपति वर्ग के जीवन को आरामदायक बनाने के लिए अनेकानेक सुविधाओं का निर्माण व आविष्कार करने के साथ-साथ उसकी पूंजी का विस्तार किया। उत्पादन बढ़ाने के लिए, अर्थात पूंजीपतियों के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा पैदा करने के लिए नई-नई मशीनों से लेकर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां खड़ी कर दीं। लेकिन इसी के साथ पूंजीपति वर्ग के बीच आपस में निजी मिल्कियत के विस्तार की होड़ में जीत दर्ज करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग ही नहीं किया बल्कि इन पर निजी स्वामित्व स्थापित करने के लिए खूनी जंगें भी लड़ी गईं जिसका विनाशकारी परिणामों की पीड़ा से न सिर्फ मानव समाज को अपितु प्रकृति को भी गुजरना पड़ा। गतिमान वक्त के साथ प्रकृति का अतिदोहन बढ़ता गया जिसके ही भयंकर परिणाम आज हमें चारों तरफ दिखाई देने लगे हैं। एकाधिकार के विस्तार के लिए विनाशकारी जंगें आज भी जारी हैं। इस तरह धरती लगातार खोखली, नंगी, लुटी-पिटी और कुरूप होती जा रही हैं। ऊपर से ऐसा दिखता है कि यह मनुष्य और प्रकृति के बीच का अंतर्कलह या घर्षण है जो बढ़ता ही जा रहा है। लेकिन गौर से देखेंगे तो यह पूंजीवाद और प्रकृति के बीच का घर्षण है जिसे पूंजीपति वर्ग ही मनुष्य और प्रकृति के बीच के अंतर्कलह या घर्षण के रूप में चित्रित करता और करवाता है। इससे पूंजीवाद को सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि वह निशाने से हट जाता है और उसकी जगह मासूम मनुष्य ले लेता है जबकि उसकी भूमिका अगर इसमें है भी तो नगण्य है। रूस-यूक्रेन युद्ध का फैसला किसने लिया? क्या रूस और रूस के आम लोगों ने? नहीं, यह साम्राज्यवादी लुटेरों के दो गिरोहों के बीच का युद्ध है जिसका परिणाम प्रकृति और मनुष्य दोनों को भोगना पड़ेगा, लेकिन जिसे बड़ी चालाकी से मनुष्य और प्रकृति के बीच का अंतर्द्वंद्व या घर्षण कह दिया जाता है। प्रकृति और मनुष्य के बीच के सौहार्दपूर्ण रिश्ते को पूंजीवादी लूट की प्रवृत्ति खराब कर रहा है।

यह सही है कि प्रकृति को दोबारा संजोने-संवारने की आवश्यकता है, मगर बहुमत जनता अभी भी गुलामी में जकड़ी हुई है और इसलिए ही धरती को अधमरी हालत में छोड़ देने को मजबूर है जिसका प्रतिशोध प्रकृति अपने तरीके से लेती है जिसका प्रस्फूटन ही जोशीमठ जैसे हजारों-लाखों आबादी वाले शहरों व क्षेत्रों की बर्बादी है। लेकिन इस प्रतिशोध को भी कौन झेल रहा है? वह जो खूद पूंजीवादी लूट का शिकार है जैसे कि स्वयं प्रकृति है। इस गुत्थी को समझना जरूरी है। यह पूंजीवाद है जिसका शिकार प्रकृति के साथ-साथ मानवजाति का बहुलांश है। हालांकि जब लूट शीर्ष पर पहुंचेगा तो कोई भी नहीं बचेगा। लेकिन फिलहाल तो यही स्थिति है।

कभी ग्लोबल वार्मिंग के चलते पृथ्वी गर्म हो जा रही है, तो कभी पारिस्थितिक प्रणाली असंतुलित हो जा रही है। कुलमिलाकर बर्फ से ढकी धरती के ध्रुवीय भाग के पिघलने और जलवायु की सख्ती से जीवों के विलुप्त हो जाने की परिघटनायें तेज हो रही हैं। यह और कुछ नहीं, लूट के लिए अभिशप्त प्रकृति के गुस्से का इजहार है। ‘प्राकृतिक आपदा’ भी यही है। हम जोशीमठ की बात करें तो यह हमारे अत्यधिक पास की परिघटना है। इसलिए ही हम इतना तिलमिलाये हुए हैं जबकि बड़ी-बड़ी प्राकृतिक आपदायें (कोरोना को ही लें) लाखों को काल-कलवित करते एक अंतराल पर आ रही हैं और जा रही हैं। लेकिन यह सब अभी भी शुरूआत ही है। हां, अंतिम मंजर कैसा होगा इसका अनुमान इससे लगा सकते हैं। 

बेईमानी और मुनाफे के खेल में माहिर चंद मुठी भर अमीरजादे जैसे यह समझने लगते हैं कि वे दुनिया के शासक बन बैठे हैं, तो वैसे ही वे प्रकृति के भी शासक बन बैठेंगे। यहीं वे गलती कर रहे हैं। सावन की अंधी यह पूंजी इस मुगालते में जा फंसी है कि जैसे वह मजदूर वर्ग को मनमाने तरीके से फिलहाल हांकने में सफल हो रही है, वैसे ही वह प्रकृति के साथ भी कर सकती है। लेकिन वह भूल जाता है कि प्रकृति जैसे अपने गर्भ में सुख-सुविधा के साधन व संसाधन छुपाये बैठी है वैसे ही वह अत्यधिक सताये जाने पर गुस्साने पर पूरी पृथ्वी को मिनटों में बर्बाद कर देने की महाशक्ति भी छुपाये बैठी है। मजदूर वर्ग के गुस्से में और प्रकृति के गुस्से में इस फर्क को यहां समझने की जरूरत है। मजदूर वर्ग को गुस्सा मुट्ठी पर पूंजीपतियों के स्वर्ग पर फूटता है और धावा बोलता है, लेकिन प्रकृति का गुस्सा व प्रकोप समूची पृथ्वी और पूरी मानवजाति पर धावा बोलता है। इसलिए प्रकृति का अंतिम प्रलयकारी प्रकोप फूटे उससे पहले ही पूंजी के उजरती गुलाम मजदूर वर्ग का गुस्सा फूटे हमें इस पर विचार करना चाहिए ताकि पूंजीवाद को हटाया जा सके और पृथ्वी और मानवजाति को पूर्ण विनाश बनने से बचाया जा सके। जोशीमठ का विलोप अगर हमें कोई शिक्षा दे रहा है तो यही कि पूंजीवाद को हटाने में देरी नहीं की जानी चाहिए, नहीं तो किसी दिन पूरी पृथ्वी का अस्तित्व संकट में आ सकता है। इसलिए अपने अंत का इंतजार करते जोशीमठ के लोगों के इस दुर्दिन पर विचार करते वक्त हमें उस पूंजीवाद पर जरूर विचार करना चाहिए जिसके लिए मुनाफे के अतिरिक्त किसी और चीज का कहीं कोई महत्व नहीं है, स्वयं प्रकृति का भी नहीं, मनुष्य का भी नहीं।   

गोथा कार्यक्रम में मार्क्स द्वारा लिखी गयी पंक्तियां हमें बताती हैं कि प्रकृति सभी उपयोग मूल्यों के भौतिक आधारों का एक स्वतंत्र स्रोत है। श्रम धन का स्रोत है लेकिन एकमात्र स्रोत नहीं है। प्रकृति भी उपयोग मूल्यों का उतना ही स्रोत है, जो स्वयं प्रकृति की एक शक्ति, मानव श्रम शक्ति की अभिव्यक्ति मात्र है। मार्क्स कहते हैं कि उपयोग मूल्य में दो तत्व विद्यमान होते हैं – एक खर्च किया गया उपयोगी श्रम और दूसरा उसका वह भौतिक आधार जो एकमात्र प्रकृति प्रदत्त होता है, वह भी मनुष्य की किसी भी तरह की सहायता के बिना।

किसी माल में विनिमय मूल्य का होना उसमें उपयोग मूल्य के हुए बिना संभव नहीं है। इसी तरह किसी माल में उपयोग मूल्य के होने में उस भौतिक आधार का होना अत्यावश्यक है जो पूरी तरह प्रकृति प्रदत्त है। इसलिए आधुनिक अर्थ में भी प्रकृति भौतिक संपदा का एक आदि स्रोत है। इसलिए भौतिक संपदा पर एकाधिकार कायम करने की कोशिश प्रकृति पर एकाधिकार कायम किये बिना संभव नहीं हो सकता है। इसलिए आज संपूर्ण पृथ्वी पर निजी और एकाधिकारी स्वामित्व कायम करने के लिए मची खूनी होड़ इजारेदार वित्तीय पूंजी के चरित्र के अनुरूप ही है। जहां भी साम्राज्यवादियों द्वारा युद्ध आरोपित किया गया है उसके पीछे पृथ्वी पर कब्जा करने की यही एकाधिकारी प्रवृत्ति काम कर रही होती है। इसका स्वाभाविक परिणाम प्रकृति पर निर्मम चौतरफा हमला होना है ताकि भौतिक संपदा की अधिकतम लूट की जा सके। इसमें वही विजयी होता है जो एकाधिकार में सबसे आगे है। लेकिन इसका विनाशकारी प्रभाव प्रकृति का विनष्टिकरण है जो घुमाफिराकर मानवजाति का विनष्टिकरण ही है। प्रकृति में मौजूद भौतिक संपदा की लूट का अर्थ इस संपदा को नष्ट किया जाना भी है, क्योंकि यह लूट बल प्रयोग के बिना, जिसका चरम रूप विश्वयुद्ध है, संभव नहीं हो सकता है। इसलिए कल को अगर ऊंचे से ऊंचे पहाड़ों की चरणों, घाटियों की गोद और जंगलों की छांव में बसे, तथा नदियों व समुद्रों के पांव पखारते हजारों-लाखों अन्य शहर जोशीमठ बन जाएं तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कम लागत पर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए प्रकृति का अतिदोहन करने तथा उससे गैर-जिम्मेदाराना छेड़छाड़ की पूंजीवादी प्रवृत्ति ने ही इस स्वर्ग सी सुंदर धरती को तबाह और बर्बाद करने की ठानी है। अगर प्रकृति और मानव समाज दोनों को बचाना है, तो हमें पूंजीवाद को ही उखाड़ फेंकने के लिए कमर कसनी चाहिए। प्रकृति और मनुष्य एवं इंसानियत – सभी का एकसमान दुश्मन पूंजी और उसके तर्क का शासन है जो आज हर जगह कायम है। आइए, उसे हटाकर इतिहास के अजायबघर में रख देने का नारा बुलंद करें।     

नोट –

 [1] इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य हिमालय के चारधाम तीर्थस्थलों- केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को हाईवे के माध्यम से आपस में जोड़ना, कनेक्टिविटी में सुधार करने के लिए – दो लेन, 12 बाईपास सड़कें, 15 बड़े फ्लाईओवर, 101 छोटे पुलें, 3596 पुलियों और दो सुरंगों के साथ 900 किमी क्षतिग्रस्त राजमार्गों का नवीनीकरण करने और पर्यटन की पहले से बढ़ी हुई गति को सुगम यतायात के लिए 10 मीटर चौड़ी सड़के बनाने का है। बहाना यह बनाया गया कि उत्तराखंड की अर्थव्यस्था में पर्यटन रीढ़ की हड्डी है। सरकार की दूसरी दलील ‘राष्ट्र हित’ के मुखौटे में लायी गई। कहा गया कि ये नवनिर्मित पुलें और सड़कें चीन की सीमा तक सुरक्षा बलों की पहुंच आसान बनाएगी और किसी भी मौसम में जवानों तथा भारी मशीनों-हथियारों की तैनाती आसान हो जायेगी। यानी इस परियोजना को हर हाल मे लागू करने की मोदी सरकार की जिद है। जबकि यह सर्वविदित है कि इस परियोजना से सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे देश की प्रकृति और पर्यावरणीय जीवन को बहुत जल्द ही जर्जर अवस्था में धकेल दिये जाने तथा प्राकृतिक आपदाओं की बड़े पैमाने पर आमद को निमंत्रण देने का खतरा बढ़ा है। इस बाबत समय-समय पर दायर दर्जनों याचिकाओं को खारिज कर उच्चतम न्यायालय ने भी इस खतरे की आमद पर मुहर लगा दी। इसके बाद इसे रोकने की सारी कोशिशों का अंत हो गया। अब सिर्फ प्रकृति के प्रलयकारी प्रकोप के विस्फोट के द्वारा ही इस दुष्टता को रोका जा सकता है।

 [2] यह सरकार द्वारा 1976 में गठित कमिटी थी। करीब 50 साल पहले सरकार ने गढ़वाल के तत्कालीन कलेक्टर एमसी मिश्रा को यह देखने के लिए नियुक्त किया था कि जोशीमठ क्यों धंस रहा है।

 [3] सनद रहे कि भूवैज्ञानिक डॉ. पियुष रौतेला के द्वारा 2010 में एक रिपोर्ट जारी किया गया जिसके माध्यम से जोशीमठ की बिगड़ती स्थिति के बारे में सरकार को इन स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी गई थी – “हेड रेस टनल की खुदाई के लिए टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) लगाई गई थी। 24 दिसंबर 2009 को, इसने शेलोंग गांव के पास अलकनंदा के बायें किनारे से लगभग 3 किमी अंदर एक जल-वाहक स्तर को पंचर कर दिया। …. यह साइट औली के नीचे कहीं सतह से एक किलोमीटर से अधिक नीचे थी। …जलभृत डिस्चार्ज लगभग 600-700 लाख लीटर प्रतिदिन था। जलभृत से पानी के अचानक बह जाने के कई तरह के प्रभाव होंगे, … आसपास के झरने सूख जाएंगे। जोशीमठ के आसपास की बस्तियों को गर्मी के मौसम में पीने के पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा।”

 [4] See Outlines of a Critique of Political Economy by Frederick Engels, 1844

 [5] See Marx’s Economic and philosophical manuscripts (estranged labour)