पूंजीपतियों व संपन्न तबके को लाभ पहुंचाने वाला बजट; नतीजा मेहनतकश जनता के लिए भीषण आर्थिक संकट होगा

March 13, 2023 0 By Yatharth

आर्थिक | बजट 2023-24

एम असीम

“क्या यह कल्पना करना संभव है कि किसी ‘लोकतांत्रिक’ देश में बजट पेश हो और उसमें महंगाई, बेराजगारी, गरीबी, कुपोषण और बढ़ती आर्थिक-सामाजिक समानता के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा गया हो? मजदूरों व किसानों की भलाई के बारे में कोई बात नहीं कही गई हो? महंगाई को कम करने के संदर्भ में पेट्रोल-डीजल के दाम घटाने और जीएसटी आदि में कटौती करने की कोई चर्चा तक न की गई हो? निस्संदेह यह आश्चर्यजनक है लेकिन सच है। भारत की संसद में 1 फरवरी 2023 को पेश हुए बजट में इन सबके बारे में कतई कुछ नहीं कहा गया, कोई चिंता जाहिर नहीं की गई।” (2 फरवरी को बजट पर ‘सर्वहारा’ अखबार की संपादकीय टिप्पणी से)

बजट में जनजीवन की तकलीफों पर कोई बात नहीं होगी, यह तो 31 जनवरी को ही स्पष्ट हो गया था जब वित्त मंत्री द्वारा संसद में पेश सालाना आर्थिक सर्वेक्षण में इनमें से किसी समस्या के अस्तित्व तक से इंकार कर दिया गया था। इसमें कहा गया था कि भारत की अर्थव्यवस्था आर्थिक संकट व कोविड से पूरी तरह उबर चुकी है और रोजगार की स्थिति भी कोविड पूर्व की स्थिति में पहुंच चुकी है। यह दावा पीरियडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के दो ताजा तिमाही नतीजों (जून व सितंबर) के आधार पर किया गया है। पहली बात तो यह कि इन तिमाही सर्वे में ग्रामीण क्षेत्र का सर्वे किया ही नहीं जाता है। वह सालाना होता है और 2021 के बाद हुआ ही नहीं है। अतः भारत की लगभग दो तिहाई आबादी इससे बाहर है। दूसरे, सितंबर सर्वे के भी विस्तृत आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए हैं जिससे स्वतंत्र विश्लेषक नतीजे निकाल सकें। यह सिर्फ सरकारी निष्कर्ष हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनमी जैसी स्वतंत्र सर्वे संस्थाओं के आंकड़े इनकी पुष्टि नहीं करते। उनके अनुसार बेरोजगारी के आंकड़े इनसे बहुत ज्यादा हैं। (सीएमआईई के सर्वेक्षण साप्ताहिक होते हैं।)

लेकिन सिर्फ शहरी व सरकार द्वारा सीमित सार्वजनिक आंकड़ों को सही मानते हुए भी चर्चा करें तो दो बातें तुरंत सामने आ जाती हैं। एक, इनमें लगातार साढ़े 5% से अधिक संख्या उनकी दिखाई गई है जो बिना मजदूरी के काम करते हैं अर्थात परिवार में कोई काम होता है तो उसमें मदद करते हैं और इनके पास जीविकोपार्जन हेतु कोई स्वतंत्र रोजगार नहीं है। अब इस के आधार पर इन्हें रोजगाररत मानकर रोजगार की स्थिति में सुधार की बात पर कितना भरोसा किया जाए? यह मजबूरी का रोजगार ही अधिक है।

दूसरी बात यह है कि इन शहरी रोजगारों में भी नियमित मजदूरी पाने वाले रोजगार की संख्या पीएलएफएस के आज तक के आंकड़ों में सबसे कम अर्थात 48.6 व 48.7% ही है। यह 2019-20 से कम है। अर्थात नियमित मजदूरी वाले थोड़ी बेहतर रोजगार कम हुए हैं। अधिकांश मजदूर वर्ग कभी कभार मिल जाने वाली दिहाड़ी पर निर्भर है जिसमें उसे बहुत कम, न्यूनतम औसत जीवन स्तर से लायक मजदूरी से भी कम, मजदूरी प्राप्त होती है। इन सर्वे में मजदूर अगर पूरी अवधि में एक दिन दिहाड़ी मिलने की बात भी मान ले तो उसे रोजगाररत माना जाता है। इससे ही समझा जा सकता है कि इन सरकारी सर्टिफाइड रोजगार आंकड़ों की विश्वसनीयता कितनी है।

वैसे तो हम ‘यथार्थ’ में पहले भी विस्तार से लिख चुके हैं कि बेरोजगारी दर भारत में बेरोजगारी की असल भयावहता को प्रकट ही नहीं करती, क्योंकि देश की काम करने की उम्र की लगभग आधी आबादी तो रोजगार पाने की ओर से पूरी तरह निराश-हताश होकर बैठ चुकी है, और इन्हें बेरोजगारों में गिना तक नहीं जाता। पर आधिकारिक बेरोजगारी दर की भी बात करें तो सच्चाई यह है कि वित्त मंत्री के दावों के विपरीत बेरोजगारी की स्थिति भयावह बनी हुई है। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा जमा आंकड़े बताते हैं कि जो बेरोजगारी दर पिछले साल जनवरी में 6.6% थी वह दिसंबर 2022 में बढ़कर 8.3% हो गई। 29 जनवरी को इसी के द्वारा जारी आंकड़ों अनुसार शहरी बेरोजगारी दर 8.6% हो गई है।

सीएमआईई का एक और आंकड़ा काबिलेगौर है। इसके अनुसार, निजी सेक्टर द्वारा इस साल अभी तक मात्र 1.4 लाख करोड़ रुपये मूल्य की योजनायें ही पूरी हुईं हैं और जारी आर्थिक वर्ष के अंत तक 2.6 लाख करोड़ मूल्य के ही काम पूरे होने की संभावना है। यह 2019-20 से 40 हजार करोड़ रु पीछे है। यानी महामारी के ठीक पहले के वर्षों में परियोजनाओं पर जितना खर्चा करते थे, आज हम उससे पीछे ही हैं। इसका अर्थ है कि नौकरियां कम हुईं हैं। नामचीन अर्थशास्त्री तथा नेशनल सर्वे कमीशन (एनएससी) के पूर्व अध्यक्ष चेयरमैन डॉ प्रणव सेन का कहना है कि आज के ग्रोथ इंजन बड़े कॉर्पोरेट हैं जो कोविद-19 के प्रकोप के कारण लगे झटके से बाहर आ गये हैं। लेकिन माइक्रो स्मॉल और मीडियम इंटरप्राइजेज (MSMEs) या अर्ध-औपचारिक सेक्टर, आदि का एक हिस्सा अभी भी मृत पड़ा है और बाकी का हिस्सा नोटबंदी तथा महामारी की दोहरी चोट से अभी तक उबर नहीं पाया है। ज्ञातव्य है कि चार में से तीन औपचारिक जॉब एमएसएमई सेक्टर प्रदान करता है और अगर एमएसएमई का यह हाल है तो इसका असर निस्संदेह बेराजगारी दर में हुई बढ़ोतरी में दिखेगा और दिख रहा है। इसलिये यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि जो बेरोजगारी दर 2011-12 में 3% और 2017-18 में 6% थी वह अब 8% के आसपास है। डॉ सेन का यह भी कहना है कि नॉन-बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र, जिनके लोन पर छोटे उद्योग फंडिंग के लिए निर्भर रहते हैं उनके से अधिकांश मुद्रा लोन की राजकीय योजना के बावजूद सूख चुके हैं। इससे भी पता चलता है कि बेरोजगारी दर में वृद्धि ही हुई है न कि कमी। डॉ सेन का यह कहना भी सही है कि अर्थव्यवस्था के बढ़ते औपचारिकीकरण के साथ इनफॉर्मल सेक्टर में हुई वृद्धि ने एमएसएमई सेक्टर में सिकुड़न पैदा किया है। यानी जॉब मार्केट पर चोट पड़ी है और बेरोजगारी दर बढ़ने के साथ-साथ जॉब की गुणवत्ता में भी कमी आई है। एनएसएस के आंकड़ों के अनुसार 2015-16 में एमएसएमई में 1.10 करोड़ लोग रोजगारप्राप्त थे, लेकिन यह उम्मीद की जा रही है कि आज इस सेक्टर में रोजगारप्राप्त लोगों की संख्या में डेढ़-दो करोड़  की कमी अवश्य हुई होगी। ज्ञातव्य हो कि एमएसएमई के क्षेत्र में रोजगार से संबंधित एनएसएसओ के नये आंकड़े अभी तक नहीं आये हैं और सरकार की इसमें कोई रूचि भी नहीं है। इसी तरह डॉ सेन मानव संसाधन विशेषज्ञों को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि जो खबरे आ रही हैं उसके अनुसार 2023 में आईटी सेक्टर में 80 हजार से 1.20 लाख तक की संख्या में नौकरियां जा सकती हैं। इसी तरह नौकरीशुदा और जॉब में लगे लोगों बीच का माहौल भी नकारात्मक है। ‘मार्केटिंग डाटा एंड एनालिटिक्स फर्म, ‘कंटर’ (Kantar) का सर्वे बताता है कि “हर चार भारतीय में से एक जॉब ले ऑफ के भय से कुंठित है, जबकि तीन बढ़ती 1 मुद्रास्फीति से”।

जैसा आर्थिक सर्वे के आंकड़े थे, स्वाभाविक है कि वैसे ही बजट के भी होते। मोदी सरकार के बजटों में वैसे ही बजट आबंटन के आंकड़ों के आधार पर कोई ठोस निष्कर्ष निकालना बेकार है क्योंकि आबंटन के ऐलानों व वास्तविक खर्च में कोई खास संबंध नहीं बचा है। बजट आबंटन की घोषणाएं भी इस सरकार के लिए हेडलाइन मैनेजमेंट से अधिक कुछ नहीं हैं। पिछले साल के बजट में कई मदों जैसे – कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनरेगा और अनुसूचित जाति के कल्याण, आदि के मदों – में बजटीय आवंटन तो बढ़ाया गया था लेकिन जब खर्च का वक्त आया तो वास्तविक आवंटन और व्यय काफी कम किया गया। यह बेवकूफ बनाने का एक तरीका है। वास्तविक व्यय हो न हो, बजटीय आवंटन का ढोल पीटकर साल भर तक न्यूज हेडलाइन का प्रबंधन किया जाता है। इस तरह के न्यूज हेडलाइन का प्रबंधन करने की क्षमता का उपयोग मोदी सरकार एक बार फिर करेगी यह तय है। कई ऐसे मद हैं जिसमें पिछले साल की तुलना में ज्यादा बजटीय आवंटन किया गया है, लेकिन जब वास्तविक आवंटन और खर्च का समय आएगा तो इसकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं रहेगा। लोग भी भूल जाएंगे कि बजटीय आबंटन कहां गया। आम लोगों को इसके बारे में जानकारी भी नहीं रहती है। मीडिया में तो इसकी खोज खबर रखने की कवायद तक बंद हो चुकी है।

लेकिन आधिकारिक बजट आंकड़ों के ही मुताबिक गौर करें तो दरअसल यह एक ऐसा बजट है जिसमें आर्थिक मंदी और मांग की कमी से निपटने के लिए पूंजीपति वर्ग के ही अलग-अलग तबकों को हर तरह की मदद दी गई है, लेकिन मजदूर वर्ग, किसानों तथा गरीबों व आम जन साधारण का पूरी तरह से परित्याग कर दिया गया है। इनकम टैक्स का नया नियम बनाया गया है जिसमें 7 लाख तक के सालाना आय पर कोई टैक्स नहीं लगेगा, लेकिन 7 लाख की कमाई कैसे होगी, यानी बेरोजगारी दूर करने के संदर्भ में, कोई ठोस चर्चा नहीं की गयी है । महंगाई दूर करने के उपायों की चर्चा बजट का मुद्दा ही नहीं था। महंगाई ही नहीं, जनता जिन भी आर्थिक समस्याओं का सामना कर रही है, बजट में उसके बारे में इशारे से भी बात करना जरूरी नहीं समझा गया। अमीरी- गरीबी की बढ़ती खाई के बारे में कोई चिंता भी जाहिर नहीं की गई। इसके विपरीत आर्थिक गैर-बराबरी को बढ़ाने का इस बजट में बाजाप्ता प्रावधान किया गया है।

ग्रामीण व कृषि क्षेत्र तथा किसानों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया गया है। उदाहरण के लिए कृषि व संबद्ध क्षेत्रों पर आबंटन कुल बजट के 3.84% से घटा कर 3.20% कर दिया गया है। ग्रामीण विकास पर आबंटन भी कुल बजट के 5.81% से घटा कर 5.29% कर दिया गया है। इसका अर्थ है कृषि क्षेत्र को निचोड़ लेना व खासकर गरीब तथा मेहनतकश किसानों की बरबादी की तैयारी। किसानों की आय दोगुनी करने के सवाल पर तो इस बजट में मौन धारण कर लिया गया है। फसलों के न्यूनतम मूल्य (MSP) की गारंटी पर भी बजट मौन है, तो तरफ पीएम अन्नदाता आय संरक्षण अभियान जैसी प्रमुख योजनाओं के आवंटन में लगातार कमी की जा रही है। दो साल पहले यह 1500 करोड़ 12022 में इसे घटाकर 1 करोड़ कर दिया गया था! तरह, मूल्य समर्थन योजना (PSS) और MIS (इंटरवेंशन स्कीम) को 3000 करोड़ रुपये से कर 1500 करोड़ और इस साल इसे 10 लाख रुपये कर गया है जो वास्तव में अकल्पनीय है, जैसा कि संयुक्त किसान मोर्चे ने अपने बयान में कहा है! इसी तरह प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना मद में भी आवंटन को घटा दिया गया है। संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि जैसे-जैसे फसल का नुकसान बढ़ रहा है, फसल बीमा सहायता को सरकार कम करती जा रही है। इसी तरह, सरकार महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा), जो ग्रामीण श्रमिकों को महत्वपूर्ण आय सहायता प्रदान करती है, के आवंटन में भी भारी कटौती करने जा रही है। इस मद में आवंटन को 90,000 करोड़ रुपये से घटाकर 60,000 करोड़ रुपये कर दिया है। पीएम किसान सम्मान निधि के लिए भी आवंटन को 68,000 करोड़ रुपये से घटाकर 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। और तो और, उर्वरक सब्सिडी मद में सरकार ने आवंटन को 2,25,000 करोड़ रुपये से घटाकर इस बजट में 1,75,000 करोड़ रुपये कर दिया है । जैसा कि हम मोदी सरकार के फ्रॉड से भरे तरीकों को जानते हैं, सरकार नये फंडों (जैसे कृषि त्वरक कोष) की घोषणा कर रही है, जबकि पहले की घोषणाओं का क्या हुआ इसके बारे में कोई सुचना तक नहीं है। याद कीजिये, सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये के कृषि अवसंरचना कोष की घोषणा की थी। आज 3 वर्षों के बाद भी यह पूरी राशि वितरित नहीं की गई। आज तक इस राशि का मात्र 10% ही वितरित हुआ है। सरकार कृषि उत्पादों की नई भंडारण और विपणन योजनाओं की बात कर रही है, जबकि पहले की योजनाओं के बारे में सही सही जानकारी नहीं दी जा रही है। जैसे कि 4 साल पहले 22,000 ग्रामीण हाटों को 3 साल के भीतर मंडियों में बदलने की योजना की घोषणा की गई थी जिसका आज कुछ अता पता नहीं है।

सैंकड़ों ऐलानों और आर्थिक विकास के आत्मविश्वास से भरे होने के ऊपरी दिखावे के बावजूद 1 फरवरी को वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत 2023-24 के सालाना बजट को ध्यान से देखें तो यह सरकार द्वारा बढ़ते आर्थिक संकट की मौन स्वीकृति ही दिखाता है। यह बजट इस बात की स्वीकृति का परिचायक है कि बाजार में उपभोग की मांग में पूर्ण ठहराव है। 31 जनवरी को पेश आर्थिक सर्वेक्षण में यह बात मान ही ली गई थी कि इसकी वजह से निजी पूंजीपतियों द्वारा पूंजी निवेश में वृद्धि नहीं हो रही है हालांकि पिछले कई सालों से यह सरकार देशी विदेशी पूंजीपतियों को मेक इन इंडिया में पूंजी निवेश बढ़ाने के लिए हर हरबा हथियार आजमा चुकी है। उन्हें कारपोरेट टैक्स में भारी छूट दी गई है और नई कंपनियां के लिए तो यह 15% ही रह गया है। प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) के जरिए सरकार बहुत से नये उद्योगों की स्थापना के लिए लगभग 10% पूंजी सब्सिडी के रूप में दे रही है। लागत घटाने हेतु लाजिस्टिक्स का खर्च घटाने पर भी जबरदस्त खर्च किया गया है। कानूनी व अकाउंटिंग नियमों में छूट देकर उस के मैनेजमेंट पर खर्च, व सिर दर्द, कम करने की कोशिश की गई है। नवीन श्रम कानूनों के जरिए श्रमिकों के अधिकारों में कटौती कर उत्पादकता बढ़ाने व मजदूरी दर कम रखने का प्रयास किया गया है। और भी अन्य बातें जिन सबका जिक्र हम यहां नहीं कर रहे हैं।

फिर भी निजी पूंजी निवेश बढ़ नहीं रहा है! आखिर निजी पूंजीपति तो घाटे का बजट नहीं बनाता, वो तो पूंजीपतियों की सेवा में उनकी सरकार का काम जो ठहरा। पूंजीपति उद्योग में पूंजी निवेश करता है ताकि उसके बने उत्पाद बाजार में बिक कर उसे मुनाफा दें। पर बाजार में उपभोग मांग तो सीमित बनी हुई है। यहां तक कि सरकार जिन पब्लिक सेक्टर कंपनियां को सस्ते दाम बेचने के लिए तैयार है पूंजीपति उन्हें भी खरीदने को तैयार नहीं हैं। खुद प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के एक पूर्व सदस्य रथीन राय की टिप्पणी सच जाहिर कर देती है कि दिखाने के लिए ऐलानों के तमाम बड़बोलेपन के बावजूद बारीकी से देखें तो यह एक ‘मामूली’ बजट है। पर और हो भी क्या सकता था? बड़बोलापन कितना भी हो, किसी वास्तविक बड़े ऐलान हेतु आय-व्यय के जो नंबर चाहिए थे वो कहीं से जुट नहीं पा रहे थे।

ऐसे में एक पूंजीवादी सरकार कर भी क्या सकती थी? सरमायेदारों को और ज्यादा रियायतें तथा उपभोग बढ़ाने के प्रयास के अलावा सरकार के पास क्या उपाय था? लेकिन इस पर भी दो सवाल उसके सामने थे – इसके लिए पैसा किधर से आये और किसका उपभोग बढ़ाया जाए? पूंजीपति वर्ग की प्रबंध समिति, बल्कि इजारेदार पूंजीपतियों के हितों की प्रबंधक सरकार की वित्त मंत्री ने दोनों सवाल को एक ही जवाब से हल करने का प्रयास किया है। उन्होंने तय कर लिया है कि लगभग 80% जनता का उपभोग बढ़ाने की कोशिश में उनके वर्ग का कोई लाभ नहीं है। उनका मानना है कि बाजार में खरीदारी बढ़ाने की उम्मीद सिर्फ अमीरों, मध्य वर्ग व खुद सरकारी योजनाओं से ही हो सकती है। पिछले दो-तीन सालों में बाजार में खरीदारी यहीं से आ रही है। वित्त मंत्री ने इनके खर्च करने की क्षमता को ही और अधिक प्रोत्साहन देना उपयुक्त समझा है। सर्वहारा, अर्ध-सर्वहारा, गरीब किसान, निम्न मध्य वर्ग को लाभ पहुंचाने में उन्हें अपने लिए लाभ नजर नहीं आ रहा है। एक तरह से कहें तो उपभोग विस्तार के नजरिए से सरकार ने 80% जनता को राइट ऑफ कर दिया है।

यह सच्चाई भी है कि आर्थिक वृद्धि व आय बढ़ाने के सारे सरकारी दावों के बावजूद आम लोग पर्याप्त उपभोक्ता उत्पाद नहीं खरीद रहे हैं। ऊंची कीमतें दैनिक उपयोग की वस्तुओं के साथ-साथ अधिक विवेकाधीन या गैर-आवश्यक उत्पादों को खरीदने की उनकी क्षमता को प्रभावित कर रही हैं। इस मामले में गांवों के लोग शहरों के अपने समकक्षों की तुलना में कहीं अधिक दबाव में हैं। इस बात को डाबर जैसी कई फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (FMCG) बनाने वाली कंपनियों ने हाल ही में अपनी रिपोर्टों में बताया है। एनालिटिक्स फर्म Nielsen IQ द्वारा भी 2 फरवरी को Q4 2022 (‘अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर 2022) के लिए जारी FMCG स्नैपशॉट में इसी बात को रेखांकित किया है। डाबर के सीईओ मोहित मल्होत्रा ​​ने कहा कि ग्रामीण बाजारों में मुद्रास्फीति के दबाव का प्रभाव अधिक स्पष्ट है क्योंकि छोटे और अधिक किफायती पैक की बिक्री ही अधिक हो रही है। रिसर्च फर्म इप्सोस के सीईओ अमित अदारकर के मुताबिक भी वॉल्यूम (मात्रा) में बिक्री वृद्धि मूल्य वृद्धि से पिछड़ रही है और कंपनियां मूल्य वृद्धि तथा वॉल्यूम डाउन-ग्रेडेशन (पैक में मात्रा को कम करना) के माध्यम से लाभप्रदता को बनाए रखने या सुधारने पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं। क्रिसिल मार्केट इंटेलिजेंस एंड एनालिटिक्स में शोध निदेशक पूषण शर्मा अदारकर से सहमत हैं कि कंपनियों की राजस्व वृद्धि मूल्य-आधारित है। शर्मा ने कहा, “ऐसा नहीं है कि लोगों ने खरीदारी पूरी तरह से बंद कर दी है, लेकिन वे कम खरीद रहे हैं क्योंकि कंपनियां कम ग्रामेज वाले पैक भी पेश कर रही हैं।” चूंकि मुद्रास्फीति पिरामिड के निचले हिस्से के ग्राहकों को सबसे अधिक प्रभावित करती है, इसलिए ग्रामीण बाजारों में तनाव अधिक है। महंगी होने के कारण लोग गैर-जरूरी चीजों से परहेज कर रहे हैं। शहरी भारत में भी गैर-जरूरी उत्पादों की मात्रा में वृद्धि धीमी रही है क्योंकि नौकरियां दबाव में रही हैं।

अतः वित्त मंत्री ने इस बजट में अपने सारे ‘प्रोत्साहनों’ का फोकस सरमायेदारों व अमीर तबके पर रखा है और गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा, खाद सब्सिडी, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा), ग्रामीण विकास, किसान सम्मान निधि, कृषि में निवेश, आदि तमाम मदों के बजट आबंटन में भारी कटौती कर दी है। स्कूलों के मिड डे मील पर आज जो खर्च का प्रावधान है उसे महंगाई के साथ तुलना करें तो 2014 से 40% कम है। पीडीएस के अतिरिक्त पांच किलो मुफ्त अनाज की योजना पहले ही बंद की जा चुकी है। अतः खाद्य सबसिडी पर खर्च में भी भारी कटौती की गई है। नरेगा में ही 30 हजार करोड़ रुपए की कटौती की गई है जबकि इसमें काम की भारी मांग है और सरकार कानूनी गारंटी को पहले से पूरा नहीं कर रही है। इस साल ग्रामीण गरीबों को इस योजना में और भी कम रोजगार मिलेगा। साफ बात है कि सरकार नरेगा को बंद करने की घोषणा किए बगैर है इसे इतना कमजोर कर देना चाहती है कि श्रमिक इसके अंतर्गत रोजगार और मजदूरी का भुगतान पाने में असमर्थ होने से यह रोजगार गारंटी योजना खुद ही बंद हो जाए। इसका कारण समझने के लिए हम ट्रैक्टर बनाने वाली कंपनी एस्कॉर्ट्स के मुख्य वित्त अधिकारी भरत मदान के अखबारों में प्रकाशित एक बयान पर गौर करते हैं। मदान के मुताबिक मनरेगा पर कम खर्च ट्रैक्टर व फार्म मशीनें बनाने वाले उद्योगों के लिए अच्छा होगा। उनके अनुसार इससे ग्रामीण क्षेत्र में बेरोजगारी बढ़ने से मजदूरी दर गिर जाएगी और मजबूर श्रमिकों को शहरों में पलायन करना होगा। गांवों में श्रमिकों की कमी होने से बड़े किसानों को यंत्रीकरण पर जोर बढ़ाना होगा। इससे ट्रैक्टर तथा अन्य कृषि यंत्रों की बिक्री बढ़ेगी। यहां सवाल यह नहीं है कि ठीक ऐसा ही होगा या नहीं, बल्कि यह कि पूंजीपति वर्ग कैसे सोचता है और हर साल बजट से पूर्व वित्त मंत्री पूंजीपतियों के प्रतिनिधियों से बैठक कर जो राय मशविरा करते हैं उसमें ये सरकार को बजट में क्या कदम उठाने के सुझाव देते हैं।

उधर वित्त मंत्री ने संपन्न तथा मध्य वर्ग को आयकर में बड़ी छूट दी है – स्टैंडर्ड डिडक्शन से लेकर कर दरों व सरचार्ज सभी में छूट दी गई है। रुपए 52500/- तक का लाभ। कई योजनाओं में ऊंचे ब्याज का लाभ उन्हें मिलेगा। इसके अतिरिक्त भी कई तरह के लाभ हैं। वित्त मंत्री को संभवतः उम्मीद है कि इससे खुश संपन्न मध्य वर्ग उपभोग पर अधिक खर्च करेगा व बाजार मांग बढ़ेगी। इसके साथ ही कैपीटल गेंस टैक्स बचाने के लिए रिअल एस्टेट में दस करोड़ तक खरीदने का मौका दिया गया है। कोशिश की गई है संपन्न तबके द्वारा शेअर बाजार व महंगे रिअल एस्टेट दोनों में निवेश बढ़ाने को प्रोत्साहन देने की।

लेकिन पूंजीपतियों व कारोबारी मीडिया की नजर में मुख्य चीज है आधारभूत ढांचे या इंफ्रास्ट्रक्चर में खर्च के बजट में 33% इजाफे का ऐलान। रेलवे, सडक, बंदरगाह, एयरपोर्ट, डिजीटल इंफ्रास्ट्रक्चर वगैरह में बड़ा खर्च दो तरह से पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाता है। एक, इन सभी प्रोजेक्ट का आर्डर निजी पूंजीपतियों को मिलता है। यह उनके उत्पादों व सेवाओं के लिए मांग सृजित कर उनकी बिक्री व मुनाफे को बढ़ाता है। अर्थात सरकार पूंजीपति वर्ग के बिजनेस मैनेजर की तरह काम करती है। इसके लिए खर्च पूरा करने हेतु अंततः अप्रत्यक्ष करों के बोझ में और वृद्धि होगी। आर्थिक सर्वेक्षण में ऐसा इंगित पहले ही मौजूद था – जीडीपी 1% बढ़ने पर अप्रत्यक्ष करों से आय में 1.1% वृद्धि का प्रोजेक्शन वहां किया गया जा चुका था। यह तब है जब सिर्फ केंद्र के टैक्स राजस्व में ही अप्रत्यक्ष करों का योगदान प्रत्यक्ष करों के लगभग बराबर हो चुका है – बजट अनुसार टैक्स राजस्व का 30% प्रत्यक्ष करों से तो 28% अप्रत्यक्ष करों से आता है। इसमें राज्यों के कर जोड़ दें तो अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा संभवतः लगभग दो तिहाई होगा। साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर पर बड़े खर्च से पूंजीपति वर्ग को एक और लाभ है – उनके लिए लाजिस्टिक्स के खर्च में कमी कर लाभ दर में वृद्धि।

लेकिन बुर्जुआ अर्थशास्त्री व पूंजीपति इंफ्रास्ट्रक्चर पर इस बढ़े खर्च के लिए बजट की बड़ी तारीफ कर रहे हैं। उनका कहना है कि इससे अर्थव्यवस्था में निवेश व रोकगर सृजन बढ़ेगा। जहां तक निवेश में वृद्धि की बात है जैसा हमने ऊपर ही कहा कि सरकार द्वारा कर कोशिश के बावजूद पिछले 10 साल में कुल पूंजी निवेश घटा है (ग्रॉस fixed कैपिटल फॉर्मैशन 33% से 27% पर आ गया है) जबकि सरकार का पूंजीगत खर्च बढ़ा है अर्थात दोनों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। आइए, दूसरे पक्ष रोजगार सृजन पर भी नजर डालते हैं। यहां हमें फिर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के सर्वे पर निर्भर रहना पड़ता है। ट्रिब्यून में प्रकाशित आर्थिक विश्लेषक अनिंद्य चक्रवर्ती के विश्लेषण मुताबिक हमारे पास 2016-17 से लेकर 2021-22 तक का सालाना डेटा है। इस अवधि में, सड़कों और राजमार्गों पर कुल पूंजी परिव्यय में, वास्तविक मुद्रास्फीति-समायोजित आधार पर, 84 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। हमारे पास सड़क-निर्माण क्षेत्र में नौकरियों के लिए अलग से डेटा नहीं है, इसलिए हमें निर्माण कार्यों को प्रॉक्सी के रूप में उपयोग करना होगा। 2016-17 और 2021-22 के बीच कंस्ट्रक्शन जॉब्स में 6 फीसदी की गिरावट आई है। इसलिए, न केवल उच्च बुनियादी ढांचे के खर्च ने कोई नई नौकरियां पैदा नहीं की हैं, वे वास्तव में गिर गए हैं। बेशक, मुख्यधारा के अर्थशास्त्री कहेंगे कि बुनियादी ढांचा खर्च अन्य उद्योगों में भी रोजगार पैदा करता है, जो सीमेंट, स्टील और खनन जैसे इनपुट और कच्चा माल प्रदान करते हैं। यहां भी आंकड़े निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। 2016-17 और 2021-22 के बीच, सीमेंट उद्योग में नौकरियों में 62 प्रतिशत की भारी गिरावट आई है, धातु क्षेत्र में रोजगार में 10 प्रतिशत की गिरावट आई है और खनन नौकरियों में 28 प्रतिशत की गिरावट आई है।

पूंजीपति वर्ग के लिए एक और खास घोषणा है शेअर बाजार में निवेशकों के लिए पी नोट्स की वापसी। कुछ साल इसी सरकार द्वारा पहले कर चोरी, भ्रष्टाचार, मनी लांड्रिंग, आदि रोकने के नाम पर ये पी नोट्स बंद कर दिए गए थे। ये पी नोट्स वह मुख्य तरीका था जिसके जरिए पूंजीपति वर्ग अपनी पूंजी की राउंड ट्रिपिंग करता है अर्थात विभिन्न जरिए से (जैसे आयात निर्यात में ओवर व अंडर इन्वायसिंग) देश के बाहर ले जाया गया पैसा विदेशी पूंजी बनकर देश में वापस आता है और सभी प्रकार के टैक्स से मुक्त हो जाता है। अदाणी समूह की कंपनियों के शेयरों में बजट से पहले ही जो भूचाल आया उस घटनाक्रम से सभी परिचित हैं। इसमें भी इस राउंड ट्रिपिंग की बड़ी भूमिका है। इसे अब और अधिक बढ़ावा मिलेगा।

संक्षेप में कहें तो यह बजट समाज कल्याण की नाममात्र की योजनाओं में भी कटौती और पूंजीपति वर्ग व संपन्न तबके के हाथ में और अधिक पैसा देकर सिकुड़ती मांग को विस्तार देने का प्रयास है। पर क्या ऐसा होना संभव है? क्या बढते ऋणों के बल पर इंफ्रास्ट्रक्चर खर्च बढ़ाकर आर्थिक वृद्धि तेज करने का प्रयास वास्तव में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को संकट से निजात दिला सकता है? नहीं। यह इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण अस्थाई तौर पर ऐसा छद्म आभास दे सकता है। पर यह कर्ज विस्तार पूंजीवादी व्यवस्था में वित्तीय व आर्थिक संकट के और गहन दौर को ही जन्म देगा जिसका सारा बोझ अंततोगत्वा मेहनतकश जनता के सिर पर ही डाला जाएगा।

पर ऐसे में इस देश के आम मेहनतकश अवाम को सोचने की जरूरत है कि क्या इस सरकार की नजर में यह देश जन साधारण का देश रह गया है? असल बात यही है। केंद्र व राज्य की सभी सरकारों के लिए यह देश सिर्फ बड़े पूंजीपतियों का देश बन कर रह गया है और इसे पूरी तरह बदले बिना मजदूरों, मेहनतकशों, किसानों, छात्रों, नौजवानों, महिलाओं की अब कोई भलाई नहीं होने वाली है। मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता को अब इस लुटेरी व्यवस्था से पूर्ण मुक्ति के बारे में सोचना चाहिए, चाहे हमारे सामने मोदी सरकार हो या कोई और।