अदाणी परिघटना से मोनू मनेसर, पवन खेड़ा व मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी, बिहारी मजदूरों पर हमलों की फेक न्यूज तक दिखती फासीवाद के नये चरण की तैयारी

March 13, 2023 0 By Yatharth

संपादकीय, फरवरी-मार्च 2023

भारतीय पूंजीवाद के हालिया घटनाक्रम को गौर से देखें तो दो खास रुझान तुरंत सामने आ जाते हैं। पहला आर्थिक पहलू है। मोदी सरकार की तमाम कोशिशों व देशी-विदेशी इजारेदार वित्तीय व औद्योगिक पूंजीपतियों को दी जा रही लंबी-चौड़ी रियायतों-प्रोत्साहनों के बावजूद आर्थिक क्षेत्र में संकट न सिर्फ सुलझने की ओर इंच भर भी नहीं बढ़ रहा है, बल्कि यह और भी गहरा व गंभीर हो कर बहुसंख्य मेहनतकश जनता को बेरोजगारी, भूख, बीमारी के अतल गर्त में धकेलने के कगार पर ले आया है। साथ ही खुद पूंजीपति वर्ग के कुछ, छोटे ही सही, हलकों में घबराहट के आरंभिक संकेत देखे जा सकते हैं कि कहीं यह संकट मौजूदा सत्ता के साथ-साथ पूरे पूंजीवाद के लिए ही खतरा न बन जाए। अदाणी समूह के हाल के घटनाक्रम ने आज की पूंजीवादी आर्थिक वृद्धि के इस लुटेरे व सर्वनाशी चरित्र को पूरी तरह सामने ला दिया है।

दूसरा पहलू राजनीतिक है। वर्तमान उभरती स्थिति में मजदूर वर्ग तथा आम जनता के समक्ष खुद पूरी पूंजीवादी व्यवस्था के लुटेरे चरित्र पर बड़ी चालाकी से डाल कर रखे गए पर्दे के ही फाश हो जाने का जोखिम खड़ा हो जाने की ओर से शासक वर्ग सशंक व सतर्क है। अतः उसके द्वारा पहले से ही संगठित तौर पर जारी फासिस्ट प्रतिक्रियावादी मुहिम को इसके अगले और अधिक खुले व खतरनाक चरण में ले जाने के संकेत भी सामने आने लगे हैं। मेवात में मोनू मनेसर गिरोह द्वारा हत्याएं, बीबीसी डॉकूमेंटरी पर पाबंदी व इनकम टैक्स रेड, पवन खेड़ा व मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी, तमिलनाडु में बिहार के हिंदीभाषी मजदूरों की हत्याओं की सुनियोजित अफवाह, असम में नये फासीवादी प्रयोग, न्यायपालिका पर पूर्ण नियंत्रण की मुहिम, आदि सब इसी के लक्षण हैं। इस तरह ये दोनों विशिष्ट रुझान संकट की एक ही परिघटना के दो अंतरसंबंधित पहलू हैं।

पूंजीवाद के लुटेरे चरित्र को फाश करता अदाणी संकट

आर्थिक स्थिति पर गौर करें तो मोदी व उसके मंत्रियों के प्रोत्साहन व रियायतों के तमाम ऐलानों के बावजूद भी बाजार में मांग व बिक्री के आधार पर पूंजी निवेश के फैसले करने वाले पूंजीपति नई जड़ या फिक्स्ड पूंजी (नए उद्योग) में निवेश के लिए तैयार नहीं हैं। ऐलानों की गति जितनी तेज हो रही है, नए औद्योगिक व इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पूरे करने की गति और भी धीमी होती जा रही है। यह तब है जब बहुत से उद्योगों में 15% से 50% तक पूंजी खुद सरकार उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना (PLI) के जरिए दे रही है, जिसके बदले में सरकार को उद्योग में कोई हिस्सेदारी नहीं मिलेगी। इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए सरकार खुद ही मांग सृजित करती है, खुद ही किसी पूंजीपति को खरीद ऑर्डर जारी करती है और खुद ही निजी पूंजीपति के लिए एक न्यूनतम लाभ दर वाली शुल्क दरें तय कर उनकी वसूली या उगाही पूंजीवादी राज्य तंत्र की पूरी ताकत से करवाती है (उदाहरणार्थ – टोल वसूली, ऊंची पेट्रोल-डीजल कीमतें, रोड़ टैक्स, बिजली दरें, यातायात भाड़े, वगैरह)। इस काम में लगने वाली पूंजी में भी निजी वित्तीय पूंजी से जो कमी रहे उसके लिए सार्वजनिक बैंक और अन्य वित्तीय संस्थाएं खुले हाथों उपलब्ध कराती जा रही हैं। ऊपरी तौर पर प्रतीत होता है कि निजी इजारेदार पूंजी के लिए लाभप्रद पूंजी निवेश का जोखिमविहीन मौका है। लेकिन निजी पूंजीपति उत्पादक क्षेत्रों में पूंजी निवेश बढ़ाने के लिए फिर भी राजी नहीं। 

विकराल बेरोजगारी, ऊंची महंगाई तथा गिरती वास्तविक मजदूरी ने आबादी के आधे से अधिक मजदूर वर्ग को पहले ही मौजूदा समाज के न्यूनतम आवश्यक जीवन स्तर से भी नीचे अर्थात कंगाली की ओर धकेलना शुरू कर दिया है। इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजी के दबाव में दरम्यानी तबकों की बेदखली भी तेज हो रही है और ब्याज दरों अर्थात पूंजीवाद लाभ में हिस्सेदारी की दर में गिरावट ने मध्यम वर्ग के एक बड़े हिस्से को भी उसकी बचत से वंचित करना शुरू कर दिया है। इसके चलते बाजार में कुल मांग सिकुड़ रही है और सिर्फ 7-8% अमीर व उच्च मध्यम तबके के प्रयोग वाले लग्जरी मालों, जैसे महंगी कारें, की बिक्री में ही वृद्धि हो रही है। ऐसी स्थिति में मेक इन इंडिया और पीएलआई जैसी प्रोत्साहन योजनाएं भी पूंजीपतियों को उत्पादक पूंजी निवेश के लिए प्रेरित करने में नाकाम हैं।

ऐसी आर्थिक पृष्ठभूमि में इंफ्रास्ट्रक्चर में विशाल पूंजी निवेश की चमकदार घोषणाओं से जिस तीव्र आर्थिक वृद्धि का चकाचौंध करने वाला भ्रम पैदा किया गया है खुद पूंजीपति वर्ग के लिए वह अब उतना भरोसेमंद नहीं रहा। ये एक्सप्रेस वे, बुलेट ट्रेन, मेट्रो, एलिवेटिड रोड़, बड़े बंदरगाह, एयरपोर्ट, तेजस-वंदे भारत ट्रेन, महंगी कोयला-गैस आधारित बिजली परियोजनाएं, आदि पर पूंजीपतियों की आशा वाले सुपर मुनाफे कमाने के लिए ऊंची कीमतों पर खरीद सकने वाले जितने खरीदार चाहियें, वो आखिर आएंगे कहां से? दिल्ली जैसे विराट भीड़ भरे महानगर तक में मेट्रो भाड़े बढ़ाने के बाद यात्रियों की तादाद बहुत गिर गई है और दिल्ली मेट्रो लाभ कमाने में असफल है। बाकी शहरों के मेट्रो प्रोजेक्ट का तो यात्रियों की कमी से और बुरा हाल है। मोदी की मदद से अदाणी ने अपनी ऊंची कीमतों वाली जो बिजली बांग्लादेश को बेचने का सौदा किया था, वह भी वास्तविक कीमतों का पता चलते ही वहां की जनता के भारी विरोध का सामना कर रहा है तथा अदाणी को बिजली के दाम कम करने के लिए राजी होना पड़ा है। हिंडेनबर्ग रिपोर्ट पश्चात अदाणी समूह की कंपनियों के शेयरों संबंधी हाल का घटनाक्रम भी इसी संदर्भ में समझना होगा।

मोदी की फासिस्ट सरकार से करीबी के बल पर मिलने वाले बड़े-बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स और उनसे होने वाले सुपर-डुपर मुनाफों का लालच देकर अदाणी ने अपनी कंपनियों के शेअर व बॉंडस अत्यंत ऊंचे दामों पर ब्याजखोर (कूपन क्लिपर) वित्तीय पूंजीपतियों को बेचकर बड़ी रकम इकट्ठा की थी। इस रकम से अदाणी ने कंपनियों के प्रोमोटर के तौर पर भारी लाभ भी कमाया और अधिकांश शेअर अपने नियंत्रण में रख उनकी कीमतों को आसमान पर चढ़ाकर भी खूब माल इकट्ठा किया। लेकिन जैसा हमने ऊपर बताया भारतीय पूंजीवाद की बुनियादी कमजोरी और बढ़ते आर्थिक संकट की वजह से ये इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स वह मुनाफा दर अर्जित कर पाने में नाकाम हैं जिनके लोभ में देशी-विदेशी ब्याजखोर वित्तीय पूंजीपतियों के इनमें अपनी रकम लगाई थी। यहां तक कि इनके शेअर दाम इन कंपनियों की वास्तविक लाभ दर से डेढ़-दो हजार गुना तक पहुंच चुके थे अर्थात शेअर के दाम पर 1% के भी दसवें-बीसवें हिस्से तक रिटर्न भी वित्तीय पूंजीपतियों को मिलता दिखाई नहीं दे रहा था। हालांकि इंफ्रास्ट्रक्चर में पूंजी लगाने वाले कई साल इंतजार करने वाले होते हैं पर अब कई साल गुजरने पर भी अदाणी की ओर से वांछित रिटर्न की संभावना कहीं दूर तक भी नजर न आने से उनका भरोसा अब डिग गया था। अदाणी समूह की कंपनियों के शेअर व बॉंडस में शॉर्टसेलिंग, हेज व अन्य फंड्स द्वारा उनमें निवेश में कटौती व उनकी रेटिंग में गिरावट का आधार यही है।

अदाणी पतन के राजनीतिक निहितार्थ

हिंड़ेनबर्ग रिपोर्ट के जरिए अदाणी पर हुआ यह हमला और तत्पश्चात घटनाक्रम निश्चय ही पूंजीपति वर्ग के विभिन्न समूहों में अपने हितों के लिए हुए इस आपसी विरोध का नतीजा था। पर इसने मौजूद फासिस्ट सत्ता के लिए एक बड़ी राजनीतिक मुश्किल भी खड़ी कर दी है। यह एक साथ दो संभावनाओं/आशंकाओं को जन्म देता है। एक, पूंजीपति वर्ग का अंदरूनी द्वंद्व क्योंकि फासिस्ट सत्ता के करीबी अदाणी जैसे कुछ पूंजीपतियों द्वारा मजदूर वर्ग के शोषण से प्राप्त वर्गीय मुनाफे के बड़े हिस्से पर काबिज होना पूंजीपति वर्ग के ही कुछ अन्य हिस्सों द्वारा विरोध को जन्म देता है। साथ ही टटपुंजिया व मध्यम वर्ग के कुछ हिस्सों में भी उनको हो रहे नुकसान को लेकर असंतोष पैदा करता है। विभिन्न बुर्जुआ विपक्षी दल इस विरोध और असंतोष को न सिर्फ हवा देते हैं बल्कि उसकी आवाज भी बनते हैं, हालांकि वे अपने विरोध को मात्र सत्ताधारी दल व एक विशिष्ट पूंजीपति तक सीमित रखते हैं और इसे वैश्वीकृत वित्तीय पूंजीवाद के बुनियादी लुटेरे चरित्र के लक्षण के बजाय एक विकृति के रूप में पेश करते हैं। उनके अनुसार सत्ताधारी फासिस्ट पार्टी की जगह एक जनतांत्रिक पार्टी का शासन होने पर ऐसी विकृतियों को रोका जा सकता है।

लेकिन फासिस्ट सत्ता के लिए इससे भी बड़ी आशंका है कि अदाणी संकट के जरिए सामने आई यह पूंजीवादी लूट आम लोगों में अपने दैनंदिन जीवन की बढ़ती तकलीफों की वजह से पहले से ही मौजूद असंतोष में चिंगारी का काम कर सकती है और आम मेहनतकश जनता के जहन में यह बात जा सकती है कि आज पूंजीवाद सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में कोई वृद्धि या विस्तार करने में सक्षम होने के बजाय वित्तीय पूंजीपतियों व ब्याजखोरों की लूट व सट्टेबाजी का अखाड़ा मात्र बनकर रह गया और वे पूरी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ ही उठ खड़े हो सकते हैं। चुनांचे, आज की स्थिति में कोई भी चिंगारी अदाणी तक रुकने के बजाय पूरे पूंजीवाद के लिए ही संकट बन जा सकती है। और ठीक इसी वजह से यह उस दूसरे, राजनीतिक, रुझान को जन्म देती है जिसका हमने शुरू में ही जिक्र किया।

फासीवाद का नया चरण      

अभी तक भी मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी राजनीति करने वाले समूहों में भारतीय फासीवाद के चरित्र को लेकर बहुत से भ्रम मौजूद हैं क्योंकि इसने बुर्जुआ संवैधानिक जनतंत्र की औपचारिक संस्थाओं (संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, पुलिस जांच संस्थाएं, आदि) को सीधे तोड़ने या भंग करने के बजाय उन्हें अंदर से खोखला कर फासीवादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है। इसकी वजह है कि आज सभी बुर्जुआ राजनीतिक दल नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के पक्षधर हैं और सभी में फासीवादी रुझान किसी हद तक मौजूद है हालांकि सुस्पष्ट फासीवादी विचारधारा व उसके लिए आवश्यक कैडर आधारित संगठन मुख्यतः संघ/बीजेपी के पास ही है। अतः पूर्व की बुर्जुआ सरकारों ने ही बुर्जुआ संवैधानिक जनतंत्र की संस्थाओं को काफी हद तक सत्ता पर फासिस्ट कब्जे के लिए तैयार कर दिया था और ये सभी संस्थाएं फासिस्ट शासन में बाधा बननें के बजाय मददगार की भूमिका निभाने में ही लगी हैं। लेकिन मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी राजनीति करने वाले कई समूह भी इससे भ्रमित हैं कि भारत में फासीवाद जैसा कुछ नहीं है क्योंकि उनकी नजर में औपचारिक बुर्जुआ संवैधानिक संस्थाएं तो अभी काम कर रही हैं।

मगर पिछले दिनों के घटनाक्रम से संकेत मिलता है कि यह स्थिति बदलने वाली है। नई उभरती स्थिति में फासीवादी सत्ता के समक्ष जनता के विस्फोट के फूट पड़ने का जोखिम लगातार बढ़ता ही जा रहा है और उसके लिए असहमति व विरोध की सभी आवाजों को कुचलना जरूरी होता जा रहा है। यहां तक कि बुर्जुआ विपक्ष की ओर से पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही होने वाले विरोध को स्पेस देना भी अब फासिस्ट सत्ता को मंजूर रहने वाला नहीं है क्योंकि आज की स्थिति में किसी भी चिंगारी को बुर्जुआ राजनीति के दायरे में महदूद रखना अत्यंत दुष्कर होगा और उसके इस सीमित दायरे को लांघ कर दावानल बन जाने का जोखिम बहुत ज्यादा हो गया है। खास तौर पर फासिस्ट ‘सुपरमैन’ नरेंद्र मोदी के बारे में कोई भी विरोधी टिप्पणी अब वह बर्दाश्त नहीं करने वाली, ऐसा संकेत दिया जा रहा है। पहले गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी और हाल में कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा की गिरफ्तारी और इन गिरफ्तारियों का अंदाज इस का स्पष्ट संकेत है। दोनों ही मामलों में बुर्जुआ राजनीति की परिपाटी के हिसाब से सामान्य से बयानों पर घटनाक्रम के स्थान के बजाय सुदूर असम में एफआईआर दर्ज की गईं और कुछ ही घंटों में असम पुलिस गिरफ्तारी के लिए गुजरात व दिल्ली पहुंच गई जहां स्थानीय पुलिस व सशस्त्र दस्ते उसकी मदद के लिए मौजूद थे। पवन खेड़ा को तो दिल्ली से रायपुर जाते हुए हवाई जहाज में बैठ जाने के बाद वहां से उतार कर गिरफ्तार किया गया और इस काम के लिए सैंकड़ों सशस्त्र कमांडो का उपयोग कर जिस तरह का टेलीवाइज्ड ड्रामा किया गया उसका मकसद साफ तौर पर सभी विरोधियों व आम जनता को आतंकित करना ही था। पवन खेड़ा को तो अपवादस्वरूप सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से रिहाई हासिल हो गई, मगर जिग्नेश मेवानी को तो बिना किसी खास इल्जाम के कई दिनों तक गिरफ्तार रहने के बाद ही जमानत मिली। स्पष्ट है कि सब कुछ केंद्रीय स्तर पर तय व निर्देशित किया गया था और इसका मकसद कुछ हद तक आवाज खोलने वाले विपक्षी बुर्जुआ नेताओं को धमकाना था कि उन्हें भी लंबे वक्त तक आपराधिक मामलों में कैद किया जा सकता है।

असम में पिछले कुछ महीनों से जो चल रहा है उसकी खबरों पर राष्ट्रीय स्तर पर इतना ध्यान नहीं गया है लेकिन वह उत्तर प्रदेश के बुलडोजर राज को कहीं पीछे छोड़ फासीवाद की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बन गया है। पहले अतिक्रमण हटाने के नाम पर हजारों की तादाद में अल्पसंख्यकों के घर दुकान निशाना बना कर ढहाए गए। फिर बाल विवाह विरोधी अभियान के नाम पर सालों-दशकों पहले विवाहों तक के इल्जामों में हजारों स्त्रियों के मायके व ससुराल पक्ष के पूरे परिवारों को जेल में डाल दिया गया। इसका निशाना भी मुस्लिम आबादी ही बनी।

इसी तरह महाराष्ट्र के बाद अब विपक्षी शासित दिल्ली व पंजाब की राजनीति में चल रहे केंद्रीय दखल पर भी ध्यान देना जरूरी है। दिल्ली में पिछली बार दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) में विपक्षी पार्टी को रोकने के लिए इसका विभाजन किया गया था। इस बार पहले चुनाव को स्थगित कर इसका विलय कर दिया गया। उसके बाद चुनाव हार जाने पर भी बीजेपी नेताओं ने खुले आम धमकी दी कि बहुमत किसी को भी मिला हो, मेयर बीजेपी का ही होगा। और यह कोरी धमकी मात्र नहीं थी। अपना मेयर बनाने की कोशिश में एमसीडी चुनाव की समाप्ति के बाद लगभग ढाई महीने तक मेयर का चुनाव होने ही नहीं दिया गया ताकि केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा नामजद किए गए सदस्यों को निर्वाचित सदस्यों के समान मेयर चुनाव में वोट डलवा चुनाव परिणाम से प्राप्त बहुमत को पलटा जा सके। अंत में हाईकोर्ट के दखल से मेयर का चुनाव तो संपन्न हो गया मगर उसके बाद एपेक्स कमेटी के चुनाव में फिर भारी हंगामा हुआ और पूरी रात सदन में मार-पीट व धक्का-मुक्की होती रही। पर इस सब में बीजेपी की मनमर्जी पूरी न होने पर बदले के तौर पर सीबीआई द्वारा दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया को भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि हमारी नजर में दिल्ली में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी भी एक प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ विपक्षी दल ही है। पर पिछले कई सालों से केंद्रीय पुलिस एजेंसियां जिस तरह सिर्फ विपक्षी दलों की सरकारों में ही भ्रष्टाचार ढूंढ पा रही हैं और विपक्ष में रहते हुए भ्रष्टाचार के आरोपों में जांच व गिरफ्तारी का सामना करते वही विपक्षी नेता बीजेपी में शामिल हों जाने पर जांच एजेंसियों की ओर से पूर्ण छूट पा जाते हैं, वह अपने आप में इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि ये गिरफ्तारियां भ्रष्टाचार रोकने के बजाय विपक्षी दलों को धमकाने के लिए ही की जा रही हैं।     

राजस्थान-हरयाणा सीमा पर मेवात क्षेत्र में मोनू मनेसर के गुंडा दल द्वारा ‘गौ-रक्षा’ के नाम पर जुबैद व नासिर नामक दो मुस्लिम युवाओं को अपहृत करने के बाद की गई नृशंस हत्या के बाद का पूरा घटनाक्रम भी फासिस्टों की नई खुली भूमिका की पुष्टि करता है। पूरा संघ/बीजेपी ही नहीं, हरयाणा की पुलिस व सरकार खुलेआम इन गुंडा दलों की हिफाजत में चुस्ती से काम कर रही है और पुलिस उनके खिलाफ रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कर रही है। उधर राजस्थान पुलिस को कोई भी कार्रवाई करने पर खुली आतंकवादी धमकी दी गई है। लेकिन राजस्थान की कांग्रेस सरकार तो पहले ही फासिस्ट गुंडा दलों के खिलाफ कार्रवाई से बचने के लिए कुख्यात है। बल्कि कहा जाए तो राजस्थान व छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकारें कुछ हद तक बीजेपी के हमले से सुरक्षित हैं क्योंकि ये संघी गुंडा दल हों या अदाणी जैसे पूंजीपति, कभी भी इनके हितों पर स्पष्ट चोट नहीं करतीं। 

कुछ लिबरल व भलेमानुस लोग यह भी सोचते व प्रचारित करते रहे हैं कि विदेशी कॉर्पोरेट मीडिया देशी कॉर्पोरेट गोदी मीडिया की तरह बीजेपी सरकार के सामने समर्पण नहीं करेगा और उन देशों की सरकारें भी से सहन नहीं करेंगीं, जिससे बीजेपी को उनके सामने झुकना पड़ेगा। वे मानते हैं कि विकसित पूंजीवादी देशों की आलोचना से सरकार को अपने फासिस्ट कदमों से पीछे हटना पड़ेगा अन्यथा विदेशी पूंजीपति भारत में पूंजी निवेश बंद कर देंगे। पर जैसा हम पहले ही कहते आए हैं फासीवाद सड़ता हुआ पूंजीवाद है और पूंजीवाद का कोई हिस्सा फासीवाद का प्रतिरोध नहीं करता। बल्कि अमरीकी-यूरोपीय पूंजीवाद-साम्राज्यवाद ने तो हमेशा फासीवाद के साथ हाथ मिलाया है।  ट्विटर के बाद इस बार बीबीसी डाक्यूमेंट्री के मामले में भी वही सही निकला। डॉकूमेंटरी पर पाबंदी ही नहीं, इनकम टैक्स रेड के बाद भी किसी तथाकथित विकसित जनतंत्र ने इसके लिए मोदी सरकार के जनवादी अधिकारों व अभिव्यक्ति की आजादी के हनन पर चूं तक नहीं की। मीडिया में ऐसी भी रिपार्टें हैं कि विदेशी मीडिया के रिपोर्टर सत्ता के इस संदेश को समझ चुके हैं और खुद को इस सरकार के ‘अनुशासन’ में बांध रहे हैं।

बिहार के हिंदीभाषी मजदूरों पर तमिलनाडु में व्यापक हमलों और बहुत सी हत्याओं की सफेद झूठ अफवाहों को जिस तरह से बीजेपी से जुड़े तत्वों और कॉर्पोरेट मीडिया द्वारा सुनियोजित व अत्यंत तीव्र गति से फैलाया गया और इसके जो नतीजे हो सकते थे, वह एक और संकेत है कि फासीवादी शक्तियां कितनी खतरनाक साजिश को अंजाम दे सकती हैं और राजनीतिक रूप से सचेत संगठित प्रतिरोध के बिना कैसे बड़ी तादाद इसके प्रभाव में बह जा सकती है। तमिलनाडु बीजेपी अध्यक्ष खुद इसमें शामिल पाया गया है और पुलिस द्वारा मामला दर्ज किए जाने पर खुले आम गिरफ्तारी की चुनौती दे रहा है। चुनौती देने की इस ‘हिम्मत’ की वजह भी महाराष्ट्र के तजुर्बे से पता चलती है जहां राज्य में विपक्षी सरकार होने के बावजूद पुलिस-प्रशासनिक अमले में केंद्रीय नियंत्रण के चलते बीजेपी के किसी छोटे कार्यकर्ता तक के खिलाफ वह सरकार कोई कदम नहीं उठा पाई थी, जबकि उस सरकार के ही दो अहम मंत्री जेल पहुंच गए थे। अतः याद रहे कि राज्यों में विपक्षी दलों की सरकार होना भी अब फासिस्ट मुहिम में कोई विशेष रूकावट नहीं रह गया है।

हमने ऊपर कुछ उदाहरण मात्र दिए हैं। मगर ऐसे बहुत से संकेत हैं जो 2024 के चुनाव की ओर बढने के क्रम में फासीवादी शक्तियों के इरादों और तैयारियों का संकेत देते हैं। खास तौर पर, बढते असंतोष से आगामी चुनाव में जोखिम का थोड़ा भी आभास होने पर फासिस्ट अपने इरादों को अमली जामा पहनाने से पीछे नहीं हटेंगे। फासीवाद विरोधी शक्तियों को यह समझ लेना और उस मुताबिक प्रतिरोध संगठित करना इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।