इतिहास और वर्तमान का मूल्यांकन करते हुए सामाजिक संघर्ष खासकर जाति-उन्मूलन के मोर्चे पर हमारे कार्यभार

March 13, 2023 1 By Yatharth

डॉ अंबेदकर, दलितवाद और जाति प्रश्न

अजय सिन्हा

चार भागों में-

I प्रस्तावना

II डॉ अंबेदकर की वैचारिकी एवं उस पर आधारित दलितवाद की सीमा

III अंग्रेजों के जाने के बाद बने भारतीय पूंजीवादी राज्य के आईने में क्रांतिकारी दलित उभार की ऐतिहासिक बाधाएं

IV क्रांतिकारी दलित उभार के लिए नये कार्यक्रम की एक रूपरेखा

I

प्रस्तावना

मोदी सरकार के आने के बाद जातीय उत्‍पीड़न एवं प्रताड़ना में भी वृद्धि हुई है जबकि सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी सांसद इसी पार्टी के पास हैं। उनका मुख्य काम जातीय उत्पीड़न के लगे दाग को धोना है। इसी तरह भाजपा में मुस्लिम प्रवक्ता और मंत्री रहे हैं जिनका मुख्य काम सांप्रदायिक दंगे में उनके चेहरे पर पड़े खून के छींटें साफ करना रहा है। दरअसल, मोदी सरकार के पीछे खड़ी शक्तियों (आरएसएस एवं इसके दर्जनों अनुषंगी हिंदुत्ववादी,  ब्राह्मणवादी-मनुवादी संगठन) की विचारधारा जातीय, सांप्रदायिक एवं धार्मिक विभाजन को गहरा बनाने तथा इस आधार पर दबे-कुचले समुदायों एवं अल्पसंख्यक समुदायों का उत्पीड़न करने वाली विचारधारा है, जबकि इसकी मुख्‍य पक्षधरता, जैसा कि कभी ‘हिटलर’ की भी थी, कॉर्पोरेट या बड़ी वित्‍तीय पूंजी के प्रति है।

आरएसएस-भाजपा को इस रूप में खुले तौर पर प्रकट होने में समय लगा, लेकिन यह पक्षधरता उसमें शुरू से थी। हम पाते हैं कि सत्‍ता में आने के बाद इसकी प्रक्षधरता खुलकर प्रकट होती है। पहले, गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्‍यमंत्रित्‍व के काल में और फिर 2014 से लेकर आज तक उनके प्रधानमंत्रि‍त्‍व के काल में इसे पूरी स्‍पष्‍टता के साथ देखा जा सकता है। इसमें सही पात्र  और पूंजीवाद के संकट में होने का सवाल भी केंद्रीय महत्‍व की चीजें है। नरेंद्र मोदी सही पात्र तो थे ही, 2000 के बाद से पूंजीवाद में एक स्‍थाई संकट का काल भी शुरू हो जाता है। 2008 के संकट के बाद थोड़े दिनों की मोहलत के बाद ही भारत के बड़े पूंजीपति वर्ग को यह स्‍पष्‍ट हो गया था कि संकट लंबा खिंचेगा और पुराने तरीके से शासन करना और अपने मुनाफे की उच्‍च दर को बरकरार रखना मुश्किल होने वाला है जिसकी गूंज 2012-13 के बाद साफ-साफ सुनाई देने लगी है।

नरेंद्र मोदी के 2014 में उत्थान के बाद से आरएसएस का जनाधार काफी बढ़ा है। बड़ी एकाधिकारी पूंजी के साथ नरेंद्र मोदी के लगातार प्रगाढ़ होते रिश्‍ते और उससे प्राप्‍त वित्‍तीय सहयोग (लूट में मिली खुली छूट के बदले मिले सहयोग) से इसके जनाधार का फैलाव आबादी के अधिकांश तबकों के बीच, यहां तक कि उत्‍तर-पूरब में भी हुआ। पुराने दलितवाद का फासीवादी विचारधारा में विलय होना एक और दूसरे तरह की बेमिसाल चीज थी जो मुख्‍य रूप से नरेंद्र मोदी के उभार के साथ-साथ घटित हुई। यह आरएसएस के पुराने सोशल इंजीनियरिंग से आगे की चीज है। जहां तक आदिवासियों के बीच पहुंच की बात है, तो उन्‍हें वनवासी हिंदू बताकर और दर्जनों तरह के संगठन बनाकर एवं इसाई मिशनरियों से वैचारिक तथा सांग‍ठनिक तौर पर टक्कर लेते हुए यह काम वह बहुत पहले से करता रहा है। उसने लचीलापन भी खूब दिखाया। इसकी मिसाल राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलन का प्रतीक ‘तिरंगा’ है जिससे वह घृणा करता था, लेकिन उसने दशकों बाद उसे अपना लिया। सच कहें, तो कांग्रेसियों से छीन लिया। ऐसा करना उनका दिल-परिवर्तन नहीं, तिरंगे को आगे कर भगवा झंडे को पीछे से आगे बढ़ाने की एक सोची-समझी युद्धनीति था। ऐसा करके उसने राष्‍ट्रीय मुक्ति के आंदोलन से गद्दारी के अपने दाग भी धो लिए, और अपनी जंग खाई भगवा राष्‍ट्रवाद की विचारधारा को तिरंगा मार्का राष्ट्रवाद के चोले में लपेट कर आकर्षक बनाने में भी सफलता पाई। इसने ‘आजादी’ के वक्‍त के उस उदीयमान पूंजीपति वर्ग के साम्राज्‍यवादी सपने को अपने हिंदू राष्‍ट्रवाद का आधार बनाया, जो साम्राज्‍यवाद विरोधी नहीं अपने हितों की सुरक्षा की शर्तों के साथ उसका भरोसेमंद समर्थक एवं तेजतर्रार छोटा पार्टनर था, और जो अपने फायदे के लिए साम्राज्‍यवाद के साथ किसी भी तरह के समझौते करने तथा साथ ही साथ मौका आने पर उसके सामने तन कर खड़ा होने के फन में माहिर था। इस तरह 21वीं सदी के एक ऐसे फासीवादी राष्ट्रवाद को आरएसएस ने जन्म दिया है जो पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों को भी स्‍वीकार्य है। नरेंद्र मोदी के समय का आरएसएस जब धर्म ग्रंथों में जातीय तौर पर अपमानसूचक शब्दों की उपस्थिति से येन-केन-प्रकारेण अपना पिंड छुड़ाने की कोशिश करता दिखता है, तो उसका इरादा 21वीं सदी के अपने नये हिंदू-राष्‍ट्रवाद को अधिकांश आबादी के बीच स्‍वीकार्य बनाने के मुहिम को सफल बनाना है। ये यूं ही नहीं है कि चाहे झूठ के ही सहारे लेकिन आरएसएस का सर संघ चालक कह रहा है कि ग्रंथों में जातीय एवं समुदाय के तौर पर मौजूद अपमानजनक शब्द उनमें बाहर से घुसाये गये हैं। यह आज की फासीवादी शक्तियों की बहुधारी (multi-pronged) युद्धनीति को ही दर्शाता है। इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। यह चेतावनी खासकर इसलिए भी है कि हमारा आंदोलन शुरू से ही फासिस्टों की क्षमता को कम कर के आंकने की गलती करता रहा है और हम सब आज उसका खामियाजा भोग रहे हैं।

इसके सामने साधने के लिए अब मात्र पूंजीवाद का विश्वव्यापी संकट है जो ‘दुर्भाग्य’ से स्थाई चरित्र का है और इसके वश में भी नहीं है। यानी, पूंजीवाद के जिस अनुत्क्रमणीय (irreversible) आर्थिक संकट ने इसे जन्म दिया है, शायद वही इसके खात्मे का कारण भी बनने की ओर अग्रसर है। इसने पुराने दलितवाद को अपने में सहयोजित कर एक खास तरह के बदबूदार दलितवाद को जन्‍म दिया है, लेकिन दलितवाद का आज का यही घिनौना हस्र दबे-कुचले समुदाय को एक नये क्रांतिकारी दलितवाद, जो पूंजीवाद व फासीवाद का नहीं मजदूर वर्ग का सहचर होगा, के उदय की जरूरत के बारे में सिर्फ जगा ही नहीं रहा है, अपितु उसकी परिस्थिति भी पैदा कर रहा है। इस तरह फासीवाद ने खुद के, अपने जनक पूंजीवाद और इसके तमाम संगी-साथियों (जाति, वर्ण, आदि को) के खात्मे का सामान एक जगह इकट्ठा कर दिया है। फासीवाद ने चाहे हमें जितना भी कष्ट पहुंचाया हो, आगे वह चाहे जितने भी जुल्म-ओ-जबर करने की तैयारी कर रहा है, लेकिन इसने बारूद के बिखरे कणों को एक जगह इकट्ठा करके अपने आपको इतिहास की गति को एकाएक तेज करने के लिए अवसर बनाने वाले के रूप में मानवजाति की सेवा ही की है। जहां तक फासीवाद हमारी क्रांति न करने की गलती की सजा है, तो हमें इस सजा को भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। लेकिन यह पलटकर फिर से क्रांति करने के लिए शानदार अवसर भी पैदा कर रहा है, इसे नहीं भूलना चाहिए। बारूद की ढेर में आग लगाने वाला पलीता भी यही मुहैया करा देगा, बशर्ते हम चुनौतियों को स्‍वीकार करें।

हाल ही में ‘हाथरस’ मामले में न्यायालय का फैसला आया है। उसके आईने में हम जातीय उत्पीड़न के संबंध में ‘राज्य’ (state or state power) की इच्‍छा और ‘राज्‍य’ में समाहित हो चुकी दलितवादी विचारधारा की इच्छा पर एक संक्षिप्त चर्चा करके ऊपर वर्णित ‘अवसर’ को समझ सकते हैं। आम तौर पर हमारे देश में ‘निष्पक्ष’ और ‘स्वतंत्र’ मानी जाने वाली न्यायिक व्यवस्था पर काफी भरोसा रहा है। लेकिन जब उच्चतम न्यायालय जातीय उत्पीड़न को रोकने में अक्षम साबित हो गया है, तो इस भरोसे में कमी आई है। वह खुद ही लाचार और उत्पीड़ि‍त प्रतीत होती है। स्थिति इतनी स्‍पष्‍ट है कि इसके साक्ष्य व उदाहरण के लिए पन्ने रंगने की जरूरत तक महसूस नहीं होती। इसकी वजह यह है कि जो जातीय उत्‍पीड़न हो रहा है उसे रोकने की इच्‍छा ‘राज्य’ व राज्‍य में समा‍हित विचारधारा में नहीं है। वह सिर्फ इससे पड़ने वाली विपरीत प्रभाव को मैनेज करने की इच्‍छा रखता है जैसा कि राज्‍य करता दिखता है। यानी, सब कुछ इसी ‘राज्य’ का किया धरा है जिसमें दलितवाद शामिल है। इसलिए न्यायालय भी यह स्वीकार करके चल रहा है कि जातीय उत्‍पीड़न को रोकना उसका प्राथमिक काम नहीं है। वह भी इसके प्रभावों को मैनेज करने मे लगा हुआ दिखता है। 

हाथरस की बलात्कार व हत्या (दलित) पीड़िता मामले में आया न्यायालय के फैसले पर बात करें, तो सभी चार आरोपित उच्च जाति के थे। उनमें से तीन बरी कर दिए गए। बस एक को सजा दी गई। वह भी टिकेगी इस पर शक है। शायद साक्ष्य एवं सबूत का अभाव होगा। तो क्या अपराध नहीं हुआ था? नहीं, अपराध तो हुआ था। कोर्ट इस छोर को पकड़ कर चलते हुए फिर से अनुसंधान करने के लिए कह सकता था। लेकिन यह ‘राज्य’ क्या चाहता है इस पर निर्भर करता है। न्याय के मंदिरों में बैठे माननीयों को पता है कि पूंजीवादी राज्य की वास्‍तविक इच्छा क्या है। पूंजीवाद की प्रबंध कमिटी में शामिल सारे पक्ष – सत्ता एवं विपक्ष की पार्टियों जिसके झंडे पर अंबेदकर अंकित हैं, और न्यायालय तथा पुलिस-प्रशासन जिनके कार्यालयों की दीवारों एवं परदों तक पर डॉ अंबेदकर टंगे हैं – सब के सब चुप हैं, ‘राज्य’ की इसी इच्छा के अनुरूप काम कर रहे हैं। कहीं कोई घर्षण नहीं दिखता है, सिवाय कुछ बाहरी दिखावे के। जब वे सत्‍ता में थे, यहां तक कि जब मायावती जी सत्‍ता में थीं, तब भी ऐसा ही होते देखा गया। निचली अदालतों को दोष देने का तर्क भी नहीं चलेगा, क्‍योंकि ऊपरी अदालतें भी अब ‘राज्य’ की ऐसी इच्छाओं को नजरंदाज नहीं करती हैं।

आज के फासीस्‍टों द्वारा कब्‍जाये जा चुके पूंजीवादी राज्‍य में ‘न्याय’ करने में पुलिस प्रशासन की भूमिका ही मुख्‍य हो चुकी है। जैसे कि अदालतों ने जब से इस पर चुप्‍पी साध ली कि साक्ष्य व सबूत नहीं है तो अन्याय भी नहीं हुआ है, तो इसका अर्थ है कि ‘न्याय’ का काम पुलिस प्रशासन के हाथ में आ चुका है। इसका अप्रत्‍यक्ष अर्थ है, ‘राज्‍य’ के हाथ में, इसके संचालक के हाथ में आ चुका है। जांच व अनुसंधान करने से लेकर साक्ष्य को इकट्ठा करने एवं गवाहों को कोर्ट तक ले जाने काम पुलिस-प्रशासन करता है। जब वह ये काम नहीं करेगा तो दबे-कुचले के लिए न्‍याय भी नहीं होगा। हां, बाकियों के मामले, जैसे कि मध्‍यवर्ग के मामलों में, कुछ हद तक ‘न्‍याय’ हो सकता है, लेकिन वह कुछ ही हद तक, क्‍योंकि जब ‘राज्‍य’ को ही न्‍याय करना है, तो जैसा कि अदाणी कांड मामले में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा किए गए हस्‍तक्षेप में दिखा, न्‍याय ज्‍यादा ताकतवर के पक्ष में ही होगा।

‘राज्‍य’ मुख्‍य रूप से एक हथियारबंद शक्ति है जो हथियारबंद पुलिस-प्रशासन की श्‍क्ति में निहित है, और जिसका विस्तार सैन्य बलों तक जाता है। बाकियों की भूमिका ‘राज्‍य’ के चेहरे का रंग-रोगन करने तक सीमित है। खास तौर पर न्यायालय का काम हथियारबंद ‘राज्य’ को नैतिक शक्ति प्रदान करना होता है। इसके लिए वह उत्‍पीड़ि‍त जनता की तरफ से ‘राज्‍य’ की अंतरात्‍मा को झकझोरने का काम करता है। दोनों के बीच के आपसी सामान्‍य विरोध का यही मतलब है। लेकिन इसमें भी न्‍यायालय को एक सीमा के अंदर ही रहना होता है। ‘राज्‍य’ की इच्‍छा ठीक-ठीक कहें, तो किसकी इच्‍छा है? यह पूंजीपति वर्ग में से सबसे बड़े पूंजीपतियों की इच्‍छा होती है। अगर जज ‘राज्‍य’ की ऐसी इच्‍छा के विरुद्ध जाते हैं, तो एक सीमा के बाद वे वे द्रोही माने जाएंगे। अगर पूंजीवादी राज्‍य हिंदू राष्‍ट्र के विधान से शासन चलाना चाहता है, तो बाकी अंगों को भी ऐसा ही करना होगा। अगर हाथरस के जघन्यतम अपराध में साक्ष्य के लिए जांच एवं अनुसंधान ठीक से नहीं हुए तो यह ‘राज्य’ के इरादे को ही व्यक्त करता है। गुजरात की बिलकिस बानो के गैंगरेप तथा उसके 14 परिवार वालों की हत्या के 11 सजायाफ्ता मुजरिमों की रिहाई को भी इसी नजर से देखा जाना चाहिए। मोदी सरकार के अंतर्गत पूंजीवादी राज्य वास्तव में एक ‘राज्येत्तर राज्य, संवैधानिक राज्य से इतर 2014 से आकार ग्रहण कर रहे भीड़तंत्र है। ‘संवैधानिक’ राज्य खोजने से ही मिलता है जिसमें यह खुशी मिश्रित आश्चर्य का भाव रहता है कि इसका यह अंश अब तक बचा हुआ कैसे है! इस राज्य में बलात्कारियों और हत्यारों का छोड़ा जाना और निरपराधों का जेलों में बंद किया जाना (जैसे कि हाथरस घटना को कवर करने गये केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन का बंद किया जाना) आम बात है। पुलिस-प्रशासन और भीड़तंत्र इस राज्येत्तर राज्य की एक अहम कड़ी हैं। इनके कारिंदे के गिरेबान पर, चाहे ये ‘अन्याय’ करें या ‘न्‍याय’, हाथ डालने का काम राज्येत्तर राज्‍य की इच्‍छा के विपरीत है। मोनू मानेसर और उसके साथियों के द्वारा दो मुस्लिमों की हत्‍या किये जाने के बाद बाद हिंदूत्‍ववादी संगठनों द्वारा पंचायतें करके फरमान सुनाना क्‍या इसी बात के प्रत्‍यक्ष प्रमाण नहीं हैं? जब हम इस बहस में दलित उत्पीड़न और जातीय भेदभाव के खास संदर्भ को शामिल करते हैं, तो दलितवाद के आज के हस्र पर एक समग्र टिप्पणी किये बिना रहना मुश्किल है। आइए, इस पर बात करें।

II

पूंजीवाद, इसलिए फासीवाद के विरुद्ध,

लक्षित नये क्रांतिकारी दलित उभार की संभावनाओं के आलोक में

डॉ बी आर अंबेदकर की वैचारिकी एवं दलितवाद की सीमा

एक वैचारिक धारा के रूप में डॉ अंबेदकर की दलितों के उत्थान की वैचारिकी पूंजीवाद की एक सहयोगी वैचारिक धारा थी – एक ऐसी धारा जो कालांतर में हजारों सालों तक दबाये-कुचले गये समुदायों व जातियों के आगे बढ़े हुए तत्वों और इसके द्वारा उत्पीड़न व शोषण के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों को पूंजीवाद की सीमा में सहयोजित करने की पूंजीपति वर्ग की रणनीति का एक अहम हिस्सा बनी। आरक्षण और जाति-उन्मूलन इनकी वैचारिकी के दो अहम तत्व थे और हैं। जाति-उन्मूलन सबसे क्रांतिकारी तत्व था, लेकिन व्यवहार में प्रधानता आरक्षण को मिली। जाति व समुदाय आधारित आरक्षण को सामाजिक समता एवं बराबरी लाने में मदद देने वाला कारक बताया गया और माना गया कि इससे जाति-उन्मूलन की दिशा में बढ़ने में भी मदद मिलेगी।

यहां से आगे बढ़ने से पहले, आरक्षण पर चंद महत्‍वपूर्ण बाते कहनीं जरूरी हैं।

सैंकड़ों-हजारों सालों तक हुए जाति व समुदाय आधारित वंचना व उत्‍पीड़न के विरुद्ध यह एक मुआवजे की तरह है जिसका अनुपालन या समर्थन समाज के न्‍यूनतम रूप से सभ्‍य होने की पहचान है। न्‍यूनतम रूप से सभ्‍य होने की पहचान का अर्थ ही यह है कि मुआवजे देने वाला, यानी दबाने वाला अभी भी बना हुआ है; उसी तरह मुआवजा लेने वाला, यानी वह जिसे दबाया गया था वह भी आज तक बना हुआ है; यानी, वह समाज जिसमें कोई किसी को दबाता है, वंचित रखता है, वह अभी भी कायम है, बना हुआ है। मुआवजे की स्‍वीकृति तक तक आया सभ्‍य समाज दबाये जाने व दबाने की सीमा से बाहर नहीं आया है। मुआवजा पर आश्रित समाज का और कोई दूसरा अर्थ नहीं हो सकता है। इसलिए मुआवजे के सिद्धांत, यानी दूसरे शब्‍दों में, जातीय आरक्षण पर आधारित समाज न्‍यूनतम रूप से ही सभ्‍य हो सकता है, वह भी तब जब वह समाज पूरे मन से आरक्षण को मानता और लागू भी करता हो। तो फिर आरक्षण से बदला क्‍या, या बदलेगा क्‍या? बस इतने का फर्क आया है या आएगा कि इतिहास में दबाने वाले समाज ने आज मान लिया है कि इतिहास में कुछ गलत हुआ है और उसके बदले वह मुआवजे के लिए तैयार है। यह मानव-सभ्‍यता में हुए विकास के उस एक खास पड़ाव की पहचान है जो न्‍यूनतम रूप से सभ्‍य है। आरक्षण की समझ के पीछे की यह विभेदकरी चाल, जो दबाने वाले समाज के पक्ष में जाता है, को समझना जरूरी है। भारत मे तो इतनी न्‍यूनतम सभ्‍यता का अभाव भी दिखता है। कारण भी स्‍पष्‍ट है। यहां आरक्षण को बमुश्किल ऊपर में मान्‍यता मिली, वह भी पूंजीवाद द्वारा अपनाई गई एक कुटनीति व युद्धनीति के तहत। समाज के ताने-बाने में इसकी स्‍वीकृति नहीं बनी, न ही इस बात की स्‍वीकृति के लिए कोई क्रांति ही हुई कि इतिहास में कुछ जातियों एवं समुदायों के विरुद्ध कुछ गलत हुआ। उल्‍टे, दबाने की मानसिकता आज भी बरकरार है। इसलिए आरक्षण, जिसका अनुपालन न्‍यूनतम रूप से सभ्‍य होने की पहचान है, प्रकारांतर में असभ्‍यता को टिकाये रखने के साधन के रूप में परिवर्तित हो गया। भारत में यह परिवर्तन विलक्षण तरीके से हुआ है। इसमें वर्गीय ही नहीं सामाजिक-जातीय विभाजन को बनाये रखने की बात अं‍तर्निहित है। आखिर कौन है जो मुआवजा दे रहा है? और कौन है जो मुआवजे पर आश्रित रहने को मजबूर है? इस सोच के तहत, कोई तो है जिसका हाथ भीख देने वाले की तरह ऊपर है! इसी तरह कोई तो है जिसका हाथ भीख लेने वाले की तरह नीचे है! सवाल है, क्‍या मुआवजे देने वाले और लेने वाले दोनों के अस्तित्‍व को ही नहीं मिटाया जा सकता है? हां, यह संभव है। सामाजिक गैर-बराबरी की व्‍यवस्‍था को कायम करने वाले वर्गों, जो मुआवजे देने व लेने की अनैतिक ता शोषणकारी व्‍यवस्‍था के लिए उत्‍तरदायी हैं, की उपस्थिति को भौतिक रूप से खत्‍म कर दीजिये, मुआवजे लेने और देने की जरूरत और इसकी व्‍यवस्‍था अपने आप खत्‍म हो जाएगी। दबाने का पूरा खेल खत्‍म हो जाएगा। वर्गों के मिटते ही इसके अर्थ में आर्थिक व सामाजिक गैर-बराबरी ही नहीं, सभी तरह की गैर-बराबरी का भी खात्‍मा हो जाएगा। लेकिन, उसके पहले तक, आरक्षण लागू करने के ईमानदार से ईमानदार प्रयासों के बाद भी न तो जातीय अन्‍याय मिटेगा, न ही भेदभाव।

इसलिए आरक्षण लागू हुआ, लेकिन व्यवहार से प्राप्त अनुभव ने साबित किया कि आरक्षण से एक सीमा के बाद न तो सामाजिक समता आती है न ही जाति-उन्मूलन में ही मदद मिल सकती है। आरक्षण से दबे-कुचले समुदायों व जातियों में से आगे बढ़े हुए तत्वों को पूंजीवादी राज्य में सहयोजित (co-opt) तो किया गया, लेकिन जाति-उन्मूलन की तरफ एक भी ठोस कदम उठाना संभव नहीं हो सका। जाति उन्‍मूलन का क्रांतिकारी कार्यक्रम बनाना तो डॉ अंबेदकर के लिए एक टेढ़ी खीर ही साबित हुआ।

जाति-उन्मूलन जैसी चीज पूंजीवाद में सहयोजिति किए जाने वाली चीज भी नहीं साबित हुई। पूंजीवाद का हित जाति को कायम रखने में था और है। पूंजीवादी राज्य एक शोषणकारी राज्य होने के नाते पुराने सभी श्रम विभाजनों का अपने हित में उपयोग करेगा, न कि उनका उन्मूलन। जाति-उन्‍मूलन में पूंजी‍पति वर्ग के लिए खतरे ही खतरे हैं। हां, पूंजीवाद ने अपने में ‘जाति’ को सहयोजित किया, जिसका मतलब सिर्फ इतना है कि दबाये-कुचले गये जातियों व समुदायों में भी एक पूंजीवादी तत्व और संस्तर बनया गया। इसमें सरकारी नौकरी, स्कूलों, कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों एवं चुनाव में आरक्षण की नीति एक बड़ा हथियार साबित हुई। जिस हद तक जातियों को ‘ऊपर में’ सहयोजित किया गया, उस हद तक ‘ऊपर में’ जाति-उन्मूलन भी हुआ। लेकिन देखा जाये तो ऊपर में भी जातिवाद खत्म नहीं हुआ। दलित राष्‍ट्रपति तक को छुआछुत का दंश भारत में झेलना पड़ता है। जाति-उन्मूलन का वास्‍तविक अर्थ है – ऊपर और नीचे दोनों जगहों पर जातीय-भेदभाव और जाति-उत्पीड़न का पूर्ण खात्मा और वह भी इस तरह कि ‘जाति’ विलोपि‍त हो जाए। इसे से पूरा करना एक मुकम्मल क्रांतिकारी कार्यक्रम के बिना असंभव था और है। अंबेदकर की वैचारिकी में जाति-उन्मूलन का क्रांतिकारी कार्यक्रम बिल्कुल ही नदारद था और है।

अंग्रेजों के जाने के बाद के भारत का नवोदित पूंजीवादी राज्य पुराने सामंती-जातीय जमींदारों के बीच के अन्योन्याश्रयपूर्ण सहयोग पर बना। ऐतिहासिक गति पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग के पक्ष में जरूर थी, लेकिन यह एक को दूसरे की इमेज में ढाल कर हुआ, न कि एक को दूसरे द्वारा खत्म करके। पूंजीपति वर्ग ने पुराने जमींदारों को अपने इमेज में ढाला, लेकिन ऐसा वह खुद को सामंती-जातीय इमेज में एक हद तक ढाले बिना नहीं कर सकता था। इसलिए भारत में बने नवोदित पूंजीवादी राज्य द्वारा जातीय भेदभाव और उत्पीड़न, जो एक प्राक-पूंजीवादी कैटेगरी है, के खिलाफ निर्णायक व ठोस कदम उठाने की उम्मीद करना अपने को मूर्खता में डालना है। तो फिर भारत के पूंजीपति वर्ग और इसके नाम पर शासन करने वाले जन प्रतिनिधियों ने ‘जाति’ के साथ आखिर क्या किया? उसने ‘जाति’ को संविधान और कानून से ‘बहिष्कृत’ कर दिया, कुछ इस तरह कि सभी जातियों को कानून और संविधान की नजर में बराबर कर दिया, ताकि पूंजीवाद में दबे-कुचले समुदायों व जातियों के आगे बढ़े हुए तत्वों को भी स्थान मिल सके। लेकिन समाज के ताने-बाने में इसे ज्यों के त्यों छोड़ दिया। यानी, दबे-कुचलो में से जो पीछे रह गये, जिनकी संख्या निन्यानवे प्रतिशत से भी ज्यादा थी, उनके लिए ‘जाति’ का अभिशाप उसी तरह बना रहा।

गौर से देखा जाये, तो ‘जाति’ को संविधान और कानून से भी पूरी तरह से बहिष्कृत नहीं किया गया। अगर ऐसा होता तो जातीय भेदभाव के खिलाफ सिर्फ दंडकारी कानून (यह बहुत बाद में बनाया गया) नहीं बनाया जाता, अपितु जातीय भेदभाव के उत्पीड़ितों व वंचितों को जातीय उत्पीड़न के खिलाफ जमीनी प्रतिकार करने या उठ खड़ा होने का कानूनी अधिकार भी दिया जाता। इस लड़ाई को पुलिस-प्रशासन और कोर्ट-कचहरी की सीमा में बांध दिया गया। यह उत्पीड़कों के पक्ष में गया, क्योंकि कानूनी लड़ाई के लिए आर्थिक ताकत की जरूरत होती है जो कि गरीब लोगों के पास नहीं है। इस तरह उत्पीड़ितों को यहां उत्पीड़कों के बराबर रख दिया गया। प्रशासन और न्याय-व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक उत्पीड़क (तथाकथित उच्‍च जाति वाले अफसर, आदि) ही भरे हैं। यह लड़ाई उत्पीड़ित बराबरी के स्‍तर पर कैसे लड़ सकते हैं? इस तरह यहां दलितों के पक्ष में बने कानून को ही नहीं आरक्षण को भी व्‍यवहार में निरस्‍त कर दिया जा रहा है। इस तरह आरक्षण व दलित पक्षीय कानूनों का वर्गीय चरित्र स्‍पष्‍ट हो जाता है। यानी, आरक्षण सब के लिए बना ही नहीं है।

जब भी जातीय उत्पीड़न के शिकार लोगों ने इसका खुद से और जमीनी प्रतिकार किया, तो इसे कानून को हाथ में लेना बताया गया और इसके लिए उत्पीड़ितों के खिलाफ ही प्रशासनिक व कानूनी कार्रवाई की गई। हजारों सालों से जमा हुई और हजारों परतों में संघनित हो चुकी ‘जाति’ नामक सामाजिक गंदगी की सफाई एकमात्र खुरच-खुरच एवं बल प्रयोग के द्वारा ही हो सकती है। कोर्ट-कचहरी और कानूनों में इसे उलझाने का अर्थ ही यही है कि जाति से जुड़ी गंदगी को खुरच-खुरच कर होने वाली साफ-सफाई को रोक दिया गया। यहां ‘जाति’ के प्रति पूंजीवादी राज्य का रूख और डॉ अंबेदकर के रवैये में यहां कुछ भी फर्क नहीं रह जाता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पूंजीपति वर्ग जाति-उन्मूलन को जमींदार पक्षीय श्रेष्ठ मानसिकता वाले कोर्ट और कानून के महा जंजाल में फंसाना चाहता था। अंबेदकर ने ठीक वही किया, सरकार की इसी चाल को संवैधानिक जामा पहनाया जिससे मात्र यही हुआ है कि इसके लिए पूंजीवाद को खत्म करना और पूंजीवाद की पैरवी में लगी तथाकथित दलित-उत्थान की विचारधाराओं की असलियत का पूरा पर्दाफाश किया जाना जरूरी है। अंबेदकरवादी विमर्श में, संविधान को ‘ईश्वर’ की महानता हासिल है। उसे सभी रोगों का रामबाण माना जाता है। लेकिन हम ऊपर बता चुके हैं कि उसी संविधान में उत्पीड़ितों को जातीय अन्याय का सीधे तौर पर प्रतिकार करने से रोकने का भी प्रावधान किया गया है। इसके अतिरिक्‍त डॉ अंबेदकर द्वारा ‘निर्मित’ इसी संविधान ने पूंजीपति वर्ग को दबे-कुचले समुदायों के लोगों के श्रम का अमानुषिक शोषण करने का कानूनी अधिकार दिया; पूंजीपति वर्ग को इन्हीं दबे-कुचले समुदाय व जाति के लोगों को खरीदने (श्रम शक्ति की खरीद-बिक्री के नाम पर) का कानूनी अधिकार दिया। पूंजीपति वर्ग का विशाल पूंजी संचय इसके माध्‍यम से ही तो होता है। आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ रही है। समाज में गरीबी व कंगाली का महासमंदर है जिसमें पूंजीपतियों के चंद टापू दिखाई देते हैं। इस तरह की घिनौनी गैर-बराबरी की इजाजत इसी संविधान ने तो दी है। जातिवाद पहले से था, लेकिन ऊपर से पूंजीवादी राज्य ने संविधान की इजाजत से जिस तरह की गैर-बराबरी पैदा की है, उससे पहले के जातीय भेदभाव का रोग घटने के बजाय और बढ़ रहा है। फिर यह संविधान दबे-कुचले समुदाय के लिए राम बाण और क्रांतिकारी कैसे हुआ?

जब पूंजीवाद का रथ आगे बढ़ा, तो 1980 के दशक के बाद पुराना दलितवाद बिना किसी झिझक के और बिना देरी किये क्रांतिकारी कार्यक्रम रहित जाति-उन्मूलन के तत्व को, जो अंबेदकर की वैचारिकी का सबसे क्रांतिकारी तत्‍व था, वहीं का वहीं छोड़ पूंजीवाद के खेमे में पूरी तरह समा गया। दलितवादी नेताओं को पूंजीवादी सत्ता का ऐसा स्वाद लगा कि जाति-उन्मूलन का नाम लेते ही वे भाग खड़ा होने लगे। अंबेदकर को मानने वाले दलितवादी बुद्धिजीवियों ने जल्द ही समझ लिया कि जाति-उन्मूलन नहीं जाति का संरक्षण करने से उनका काम चलेगा, क्‍योंकि‍ इसके बिना पूंजीवादी सत्‍ता का मेवा वे नहीं पा सकेंगे। इसलिए इनकी तख्ती पर तो डॉ अंबेदकर बने रहे, लेकिन दिल में पूंजी विराजमान हो गई। डॉ अंबेदकर की प्रतिष्ठा उनकी राजनीतिक सत्ता हथियाने की पूंजी बन गई। ये लोग अंबेदकरवाद का बाकी बचा-खुचा नाश कर रहे हैं। इसलिए इनके खिलाफ लड़ाई जरूरी हो गई है ताकि एक तो जाति-उन्मूलन के कार्यक्रम को एक मुकम्मल क्रांतिकारी कार्यक्रम के सिद्धांत का हिस्सा बनाया जाये, तथा साथ मे इसलिए भी कि ये पूरी तरह सड़ चुके दलितवादी नेता व सिद्धांतकार, जो अब फासीवाद का भी दामन थाम चुके हैं, कहीं डॉ अंबेदकर का पूरा ही सत्यानाश न कर डालें।

डॉ अंबेदकर की वैचारिकी का मुख्‍य रंग; पुराने दलितवाद के अंतहीन पतन में अंबेदकरवाद की त्रासदी

यह सही है कि डॉ अंबेदकर की वैचारिकी में सामाजिक बदलाव के कई रंग थे। लेकिन उनमें से मात्र एक ही रंग – आरक्षण का रंग – ही पूरी तरह उभर सका। डॉ अंबेदकर की वैचारिकी में आरक्षण के रंग का पूरी तरह खुलकर निखरने में पूंजीवादी राज्य के कृपापात्र बनने की प्रवृत्ति का रंग था। यह रंग समय के साथ और गहरा होता गया। अंत में सिर्फ यही रंग बचा रहा। जाति-उन्मूलन का रंग पूरी तरह उड़ गया। इसका परिणाम यह हुआ कि डॉ अंबेदकर सामाजिक व जातीय तौर पर उत्पीड़ित दलित समुदाय के उद्धार के एक पूंजीवादी-सुधारवादी नायक बन कर उभरे। पूंजीपति वर्ग ने इस नाते उनको पूरा सम्मान दिया जिसके वे हकदार भी थे। उत्पीड़ित समुदायों एवं जातियों को क्रांति उन्मुखी होने से बचाने के अर्थ में अंबेदकर उस नेहरू के समकक्ष थे जिन्होंने कमजोर पूंजीपति वर्ग को, मजदूर-किसानों के तूफानी आंदोलनों की अग्रगति के दौर में बड़े दूरदर्शी तरीके से बचाने का काम किया था। हम उनकी तुलना देश की जनता की कमजोर नब्ज पकड़ने वाले उस महात्मा गांधी से भी कर सकते हैं जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को एक ऐसी दिशा दी जिससे कि इसका कमान सदैव पूंजीपति वर्ग के हाथ में बना रहा।

पूंजीवादी जनतंत्र में वोटों के जुगाड़ के लिए कामयाब तरकीबों व हथियारों का बड़ा महत्व है। पूंजीवाद में डूब चुके पुराने दलितवाद ने ‘जाति’ को इसका हथियार बनाया। अब यह ‘जाति’ को बचाने और जातिवाद को संरक्षित करने में लग गया, लेकिन चालाकी से। इस तरह कि दुनिया को महसूस हो कि वह तो जातिवाद से लड़ रहा है। जातीय ध्रुवीकरण के द्वारा वोटों का जुगाड़ जातीय उत्पीड़न के किसी न किसी रूप में बने रहे बिना नहीं हो सकता है। आखिर कुछ तो हो जिससे वोटों का ध्रुवीकरण हो। पुराना दलितवाद ‘जाति’ और जातिवाद को संरक्षित करने के लिए एक नयी ‘सैद्धांतिकी’ रचने में लग गया। दबे-कुचले समुदाय या जाति में पैदा लेने को गौरवान्वित और महिमामंडित किया जाने लगा। मजे की बात यह है कि यह सब अंबेदकर का नाम लेकर हो रहा है, उस डॉ अंबेदकर का नाम लेकर जो जाति-उन्मूलन की बात करते थे, भले ही इसके लिए वे क्रांतिकारी कार्यक्रम तक नहीं पहुंच पाये। इसने पीछे से ही सही, चुप्पी और मौन साध कर ही सही, लेकिन वह जातीय उत्पीड़न का समर्थन कर रहा है, क्योंकि जातीय उत्पीड़न के बने रहे बिना ‘जाति’ का उपयोग वोटों के माध्‍यम से सत्ता की मलाई के लिए करना नामुमकिन है। आखिर भाजपा के दर्जनों सांसद और एमएलए क्या ठीक यही काम नहीं कर रहे हैं?

इस तरह अंबेदकर को ‘मानने’ वाले दलितवादी नेताओं ने खुद ही जाति-उन्मूलन के कार्यक्रम को, डॉ अंबेदकर की वैचारिकी में जो कुछ भी क्रांतिकारी था उसको, अपने कार्यक्षेत्र से पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिया। असल में यह डॉ अंबेदकर को बहिष्कृत कर देना है। वे लोग इनसे लाख गुणा अच्छे हैं जो उनकी वैचारिकी की द्वंद्ववादी तरीके से कपाल क्रिया करने में लगे हैं, ताकि उनकी वैचारिकी में जो कुछ भी क्रांतिकारी है या था उसे बचाया जा सके, आगे ले जाया जा सके, यानी जाति-उन्मूलन के उनके विचार व सिद्धांत को क्रांतिकारी कार्यक्रम की ऊंचाई तक ले जाया जा सके। ये लोग पूंजीवाद और फासीवादियों की चाकरी करने वालों की तरह अंबेदकरवाद से पिंड नहीं छुड़ा रहे हैं, उनकी आलोचना करके उनमें जो कुछ सकारात्मक है उसे आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं।

यहां हमारी बात में यह बात अंतर्निहित है कि डॉ अंबेदकर स्वयं जाति-उन्मूलन के कार्यक्रम को पूंजीवादी-सुधारवाद की सीमा के आगे एक इंच नहीं ले जा सके, तभी उस काम को आगे करने की आज जरूरत है। अंबेदकर स्वयं देख चुके थे कि जाति-उन्मूलन का कार्यक्रम आरक्षण की तरह उनके राजकीय संरक्षणवाद के सिद्धांत में फिट नहीं बैठता है। उन्हें मालूम था कि जाति-उन्मूलन एक समग्र क्रांतिकारी कार्यक्रम की मांग करता है जिसके लिए वे खुद तैयार नहीं थे। इसलिए अंबेदकरवाद का खंड-खंड में बिखरना लाजिमी था। इनको मानने वालों का एक हिस्सा खुद अंबेदकर द्वारा बताये रास्ते पर चलते हुए बौद्ध धर्म की शरण में गया, तो दूसरा हिस्सा नव-ब्राह्मणवाद से होते हुए पूंजीवाद के पेट में या पूंजीवाद से होते हुए नव-ब्राह्मणवाद की पेट में, समा गया। इसलिए उस हिस्से को बचाना होगा जिसका संबंध जाति उन्मूलन से था, चाहे वह जितना भी अपूर्ण और अविकसित अवस्था में रहा हो।

डॉ अंबेदकर की वैचारिकी की त्रासदी की जड़ यहां  है कि जातीय भेदभाव की खिलाफत के आधार पर खड़ी उनकी वैचारिकी शोषण के सभी रूपों को उखाड़ फेंकने के एक मुकम्मल कार्यक्रम में न तो अपने आपको विलीन कर सकी, न ही वह खुद उसकी ऊंचाई तक पहुंच पाई। अगर ऐसा होता तो अंबेदकर निस्संदेह भारत के लिए मार्क्स साबित होते। दूसरी तरफ, तो शोषण के सभी रूपों के खात्मे के लिए लड़ने की घोषणा करने वाले कम्‍युनिस्‍टों एवं क्रांतिकारियों की त्रासदी इस बात में निहित है कि उन्होंने जाति-उन्मूलन के मोर्चे पर न तो कोई ऐसा कार्यक्रम पेश किया जिसमें जाति-उन्मूलन का एक पूरा क्रांतिकारी कार्यक्रम हो, जो मजदूर वर्ग के सहचर के रूप में कोई क्रांतिकारी दलित उभार पैदा कर सके, और ना ही उनके आंदोलन में इतनी ताप थी कि कोई दूसरा डॉ अंबेदकर पैदा हो सके। इस तरह भारत का कम्युनिस्ट व क्रांतिकारी आंदोलन जाति उन्मूलन के प्रश्न पर भारतीय समाज की विशिष्टताओं को लेते हुए कोई सटीक कार्यक्रम लेकर नहीं आ सका, या कम से कम इसकी एक समग्र व्याख्या भी नहीं रख सका कि होने वाली क्रांति कैसे जाति और जातिवाद को खत्म कर देगी। कम्युनिस्ट आंदोलन यह काम करने में निस्‍संदेह असफल रहा। ‘जाति’ के भेदभाव से वह निरंतर टकराता रहा, दबे-कुचले समुदायों के आत्मसम्मान के लिए कम्युनिस्टों ने शहादतें दीं, लेकिन जाति की ऐतिहासिक सीमा को तोड़ने की एक मुकम्मल समझ क्या है, किस तरह शोषण के सभी रूपों को खत्म करने वाली क्रांति में जाति-उन्मूलन का कार्यक्रम बहुत हद तक और अपने-आप भी अंतर्निहित एवं  अंतर्गुंथित है, इन चीजों के बारे में उसके पास कोई स्पष्ट समझ नहीं थी। आज भी नहीं है। जैसे क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत तक पहुंचने में हमारा आंदोलन असफल रहा, वैसे ही जाति उन्मूलन की लड़ाई को क्रांतिकारी लड़ाई का एक हिस्सा बनाने में भी असफल रहा। परिणामस्वरूप जातीय उत्पीड़न की समस्या के खिलाफ संघर्ष की वैचारिकी दोनों ओर से हमेशा एकांगी ही बनी रही।

संक्षेप में, अंबेदकर की वैचारिकी राजकीय संरक्षण में आरक्षण की नीति बनाने तथा उसे लागू कराने के तकनीकी सवालों व संघर्षों से एक कदम भी आगे नहीं जा सकी। शोषण के सभी रूपों के खात्मे में ही जाति-उन्मूलन का कार्यक्रम आता है, यह बात वे कभी नहीं समझ सके या मान सके। वे यह नहीं समझ सके कि अल्पमत का बहुमत पर बलपूर्वक शोषण व शासन करने वाले पूंजीवादी राज्‍य के भरोसे जाति-उन्मूलन की कल्पना करना, जातिवाद को खत्‍म करने की उम्‍मीद करना उनकी वैचारिकी को नीचे गिरा देता है।

व्यवहार में उनकी वैचारिकी की सीमा और भी ज्‍यादा उजागर होती है, क्‍योंकि उनकी वैचारिकी पूंजीवाद का औजार बनी, जिससे उनके द्वारा प्रायोजित दलित चेतना पूंजीवाद की देहरी से बाहर एक इंच भी नहीं जा सकी। यहां मार्क्स और अंबेदकर एक दूसरे के विपरीत खड़े हैं, एक ही दिशा व पंक्ति में आगे या पीछे नहीं। 

इन सबके परिणामस्‍वरूप, डॉ अंबेदकर एक एक सुसंगत जनवादी भी नहीं बन सके, जो उनकी त्रासदी का आज एक और बड़ा कारण दिखाई देता है। फासीवाद के समय में हम यह देख पा रहे हैं कि उनकी वैचारिकी में मौजूद पूंजीवादी-सुधारवादी सीमा से पहले एक और सीमा खींची थी। आखिर डॉ अंबेदकर को ‘अपना आदर्श’ मानने वालों में आज के पूंजीवादी-फासिस्ट भी शामिल हैं जो ‘दुर्भाग्य से’ सिर्फ धुर मुस्लिम-विरोधी नहीं, ब्राह्मणवादी, जातिवादी एवं मनुवादी भी हैं। इसे महज आरएसएस का सोशल इंजीनियरिंग नहीं कहा जा सकता है कि मुस्लिमों को मारने-काटने में ये दलितों-पिछड़ों को लगा देते हैं। लेकिन दलितों को हिंदू होने के गर्व से भरे बिना क्या यह संभव हो सकता है? जाहिर है, पूंजीवाद और अंबेदकरवाद में जो मेल था यह उसी का परिणाम है। यह हस्र उनकी वैचारिकी पर खड़े उस दलितवाद के पूर्ण पतन के कारण भी हुआ है जिसने जातीय उत्पीड़न करने वाले फासीवादियों से भी हाथ मिलाने का काम किया है। इसी का परिणाम है कि आर्थिक रूप से आगे बढ़े हुए दलित समुदाय के पूंजीवाद के समर्थक बुद्धिजीवी कम्युनिज्म, प्रगतिशीलता एवं जनवाद के विरोध में सामंती मानसिकता से ग्रस्त अगड़ों से भी आगे निकलने की होड़ में हैं। जब ये कहते हैं कि दलित साहित्य वही लिख सकता है जो जन्म से दलित है, तो क्या यह ब्राह्मणवाद नहीं है? इसी जगह से पुराने दलितवाद के फासिज्म में विलय की जमीन तैयार हुई। वे जातीय उत्पीड़न के नये छुपे हुए समर्थक हैं, जैसे कि आज के फासिस्ट हैं। यह अति क्लिष्ट प्रक्रिया के रास्ते से हुआ है, लेकिन अवश्यंभावी रूप से हुआ है।

जिस पूंजीवाद में दलितवाद के विलय ने ‘जाति’ के नाम पर उनके वोटों पर एकाधिकार कायम करने और उसके बल पर सत्ता के बंटवारे में जाति का नंगा उपयोग करने के लिए पूंजीवादी दलित नेताओं को प्रेरित किया था, उसी पूंजीवाद के वे कलपूर्जे बन गये। जब पूंजीवाद ने संकट के वक्त फासीवाद का चोला ओढ़ा, तो पूंजीवादपरस्त दलितवाद झट से फासीवाद का सहचर बन बैठा। पूंजीवाद के साथ हुआ विलय आगे विस्तारित होकर धुर ब्राह्मणवादी-मनुवादी फासिस्टों के साथ उनके सांठगांठ का आधार बना जिसका लक्ष्य सत्ता की मलाई का बंटवारा करना था जो पूंजीवादी विचारधारा वालों का बुनियादी चरित्र होता है। पुराने दलितवाद ने इस तरह अंबेदकर के ‘जाति’ उन्मूलन कार्यक्रम से पूरा ही पिंड छुड़ा लिया। उनकी चमड़ी बची रहे तो उन्हें इस बात का कोई मलाल नहीं है कि कौन गरीब दलित मारा जा रहा है। यूपी में बसपा की सरकार रहते दलितों पर अत्याचार हुआ और मुख्यमंत्री मायावती मुख्‍यमंत्री की कुर्सी पर बैठ कर भी कुछ नहीं कर सकीं। ब्राह्मणवाद से सांठगांठ और जातीय उत्पीड़न के छुपी हुई समर्थन की नीति के बिना पुराने दलितवाद का फासीवाद के साथ विलय असंभव था। ‘जाति’ मिटाने के लिए संघर्ष से सत्ता के लिए उसके उपयोग के सिद्धांत तक और फिर उपयोग के सिद्धांत से सत्ता प्राप्त करने के एक लीवर के रूप में ‘जाति’ को संरक्षित करने के सिद्धांत तक की यात्रा के पूरे चक्र ने पुराने दलितवाद को आज जातीय उत्पीड़न के मौन समर्थक में बदल दिया है। फासिस्टों के सोशल इंजीनियरिंग का मतलब ही यही है कि दबे-कुचले समुदाय के कुछ आगे बढ़े हुए लोगों का फासिस्टीकरण करो, और फिर इन्हीं को आगे कर जातीय दमन व उत्पीड़न, जिसका होना ब्राह्मणवाद के विचार पर खड़े फासीवाद के उभार का एक स्वाभाविक गुण है, के आरोप से अपने को मुक्त करने का प्रयास करो।

पुराना दलितवाद नव-ब्राह्मणवाद में बदल गया है इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। हालांकि इसको नग्न रूप में आने में कुछ साल और लगेंगे। दलितों के हत्यारों को डॉ अंबेदकर को गले लगाने में आज कोई परहेज नहीं हैं, उसी तरह दलितों के हत्यारों के साथ सत्ता की मलाई चाटने में पुराने दलितवादी नेताओं को भी कोई गुरेज नहीं है। डॉ अंबेदकर आज सभी चुनावबाज पार्टियों, चाहे वे धुर ब्राह्मणवादी ही क्यों न हो, के झंडे पर अंकित होने वाला नाम है। वे हर कहीं टांके जाने वाली शख्सियत बन गये हैं। पूंजीवादी तो क्या फासीवादियों के लिए भी उनके नाम का उपयोग किये बिना राज करना मुश्किल है, जबकि फासिस्टों की ताकत बढ़ने का सीधा असर जातीय उत्पीड़न में वृद्धि पर पड़ा है। क्या कमाल है कि ब्राह्मणवादी भी इनके नाम की कसमें खा कर ही सत्ता में बने रहने का हुनर सीख लिये हैं !

डॉ अंबेदकर की वैचारिकी की वास्तविक त्रासदी फासीवाद के समय ही प्रकट हुई है। ये एक ऐसा नायक बन कर उभरे हैं जिनका नाम हर वह व्यक्ति या पार्टी जप सकता है जो धुर दलित-विरोधी, धुर ब्राह्मणवादी और धुर मनुवादी-जातिवादी है, बशर्ते वह आरएसएस की तरह सोशल इंजीनियरिंग के फन में माहिर हो। इसके लिए खुद अंबेदकर दोषी हैं। उनका दोष उनके पूंजीवादी-सुधारवादी होने की सीमा में कैद उनकी वैचारिकी में हैं। इसलिए जैसे-जैसे फासीवाद का हमला तेज होगा, एक सामान्‍य (पूंजीवादी-जनवादी) दलित उद्धारक और एक सुसंगत जनवादी दलित उद्धारक के बीच की सीमा रेखा, जो पहले नहीं दिखती थी, और भी  ज्‍यादा स्‍पष्‍टता से दिखाई देने लगेगी।

दरअसल फासीवाद के उभार ने पूंजीवादी-जनवादी और सुसंगत जनवादी के बीच के फर्क को भी उजागर कर दिया है, जो पूंजीवादी शासन के सामान्य दौर में छुपा रहता है। फासीवाद के साथ दलितवाद के विलय ने इस सिद्धांत को पुन: स्थापित कर दिया है कि एक सच्चा एवं सुसंगत जनवादी हुए बिना कोई सच्चा दलित उद्धारक भी नहीं हो सकता है। सुसंगत रूप से पूंजीवाद विरोधी हुए बिना वर्तमान दौर में दलित उद्धारक होना साफ-साफ एक ढोंग दिखता है। इसमें कोई शक नहीं है कि दलित-उद्धार के सबसे बड़े नायक अंबेदकर सुसंगत जनवादी नहीं थे जैसा कि जाति उन्मूलन का उनका सपना उन्हें बनने के लिए मजबूर कर रहा था। हम इस पर आगे लिखेंगे। संकटग्रस्त पूंजीवाद के दौर में जब फासीवादी शक्तियों का उभार एक आम नियम बन गया है, तो लिबरल पूंजीवाद व जनवाद के घटते स्पेस में दलितवाद का जो हस्र हुआ है, वही अंबेदकर का भी हुआ है। फिर भी उन्हें इससे अधिक दोष नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने किसी क्रांति की न तो बात की थी, और न ही उसका नेतृत्व करने का कभी उन्होंने कोई वादा ही किया था।

पुराने दलितवाद एवं अंबेदकरवाद की कपाल-क्रिया किस तरह की जाये?

कोई भी क्रांतिकारी विचार वाला व्यक्ति दलितवाद के इस हस्र के पीछे की सोच की कपाल-क्रिया करने का पक्षधर होगा और मानेगा कि फासीवाद के दौर में यह कपाल-क्रिया निहायत जरूरी हो गई है। लेकिन यह कैसे किया जाये? क्रांतिकारी तथा वैज्ञानिक तरीका यही है कि यह काम कुछ इस तरह किया जाए कि इसमें जो भी मूल्यवान है उसे बचा लिया जाए और जो सड़ चुका है उसे दफन कर दिया जाए। इसे करने का एक ही तरीका है, वह यह कि पुराने दलितवाद की जगह एक सुसंगत क्रांतिकारी दलितवाद को सामने लाया जाए जो सिद्धांत में पूंजीवाद के विरोध में हो, और व्यवहार में मजदूर वर्ग का और उसके ऐतिहासिक मिशन का सहचर हो। परिस्थितियां स्वयं इसकी मांग कर रही हैं। उत्पीड़ित जातियों की स्थितिभी स्वयं इसकी मांग प्रस्तुत कर रही है। लेकिन सबसे पहले यह तय करना जरूरी है कि यह पुराने दलितवाद के उपयोग के सिद्धांत पर, अंबेदकर की वैचारिकी और पुराने दलित उद्धारकों के ऊपर आधारित हो इसे नहीं किया जा सकता है।

तो फिर यह सवाल उठता है कि दलितवाद शब्द का उपयोग भी क्यों किया जाये? इसके पीछे की एक ही वजह है। वह वजह यह है कि जाति और जातीय उत्पीड़न है तो फिर इस विषय को अलग से संबोधित करना (एड्रेस करना) जरूरी है ताकि जाति-उन्मूलन के कार्यक्रम को एक क्रांतिकारी अंतर्वस्तु से लैस किया जा सके।

तब फिर यह सवाल आता है कि क्या नये क्रांतिकारी दलितवाद के तत्वों की सुगबुगाहट दिखती है? क्या इस नये दलितवादी वैचारिकी के कुछ तत्व दृष्टिगोचर हो चुके हैं? क्या वे दृश्यमान हैं? हां, वे एक हद तक, लेकिन एक हद तक ही, प्रकट हुए हैं। लेकिन नये वैचारिकी के लिए जरूरी असली बात यह नहीं है। मुख्य काम एक समग्र सार संकलन के आधार पर क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के एक सहचर सिद्धांत के रूप में क्रांतिकारी दलितवाद की एक पूरी वैचारिकी को सामने लाना है। जाहिर है इसकी शुरुआत भी अभी ठीक से नहीं हुई है। यह लेख इसकी सीमा रेखा खींचने वाला एक प्रारंभिक लेख भर है। जाहिर है इसके लिए उन छद्म कम्युनिस्टों और क्रांतिकारियों द्वारा किये जा रहे अवसरवाद से भी निपटना होगा जो मार्क्स और अंबेदकर को एक साथ मिलाकर दबे-कुचले समुदायों एवं जातियों का वोट झटकने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं।

सवाल भौतिक जगत की व्याख्या का नहीं, उसे बदलने का है

सवाल सिर्फ भौतिक जगत की व्याख्या का नहीं बल्कि उसे बदलने का है। इसलिए क्रांतिकारी दलित उभार दबे-कुचले समुदाय के जीवन को भौतिक रूप से बदलने का संघर्ष होगा। प्रतीकात्मक संघर्ष में वही वैचारिक धारा फूल-टाइम लगती है जो पतन (अपने को अप्रासंगिक बनाने) की ओर अग्रसर होती है। इसी तरह जो विचारधारा पतन की ओर अग्रसर होती है वह प्रतीकात्मकता में फंसती है। यह उसके अप्रासंगिक हो जाने की निशानी है।

अभी हाल में, रामायण के रचयिता तुलसी दास (दुबे) द्वारा लिखी गयी कुछ चौपाइयों पर उठे विवाद को लें। नये क्रांतिकारी दलितवाद का इससे कितना लेना-देना होना चाहिए, यह इस बात से तय होता है कि यह वास्तविक संघर्ष का हिस्सा है या नहीं; या उस वास्तविक संघर्ष में कितना योगदान दे सकता है। धार्मिक ग्रंथों में लिखी बातों से लड़ाई तभी लाभदायक होती है जब एक वास्तविक लड़ाई भी भौतिक जीवन को बदलने के लिए भी लड़ी जा रही हो। धार्मिक ग्रंथ से लड़ना और वास्तविक जीवन के संघर्ष से भागना, यह क्रांतिकारी संघर्ष का हिस्सा नहीं, अपितु वोटों की राजनीति का हिस्सा है। जाति उन्मूलन या आत्मसम्मान बचाने की लड़ाई तो यह कतई नहीं है।

दबे-कुचले समुदाय के भौतिक जीवन में बदलाव लाना एक ठोस जमीनी कार्रवाई है, जबकि ग्रंथों की दुनिया में बदलाव लाना (कुछ चौपाइयों को बदलना) नहीं है। यह मिथकों की लड़ाई नहीं है। मजे की बात यह है कि ग्रंथों की कुछ चौपाइयों से लड़ने वाले योद्धा ग्रंथों की पूजा करते हैं! उनका युद्ध तो बस कुछ चौपाइयों के विरोध तक सीमित है। इन्हें जातीय अपमानसूचक शब्दों से मुक्त धार्मिक ग्रंथ चाहिए। उनसे पूछना चाहिए कि जिस ग्रंथ में जातीय तौर पर अपमानसूचक शब्द या चौपाई हैं, उस ग्रंथ का फिर आप सम्मान क्यों करते हो? हम तो कहते हैं कि सारे धर्मों के ऐसे ग्रंथों को जला देना चाहिए जिसमें मानव को मानव नहीं समझा जाता है, जिसमें गैर-बराबरी, उत्पीड़न व शोषण का पक्ष लिया गया है। लेकिन साथ में हम यह भी कहना चाहते हैं कि इन सारे ग्रंथों को जला देने के बाद भी दबे-कुचलों के जीवन की भौतिक परिस्थितियों को पलटे बिना उन्हें कुछ भी नसीब नहीं होगा। ग्रंथों को जला देने से ‘जाति’ नहीं जल जाएगी, दबे-कुचले समुदाय व जातियों के लोगों व समुदायों की जिंदगी में जो नरक है वह स्वर्ग में परिवर्तित नहीं हो जाएगा। ‘जाति’ और जातीय अपमान सिर्फ ग्रंथों में नहीं, हमारे जीवन में बसे हुए हैं। प्रतीकों एवं मिथकों की लड़ाई को महत्व देना महत्वपूर्ण को महत्वहीन बनाना है, वास्तविक जीवन के संघर्ष से भाग खड़ा होने का बहाना है। यह पुराने दलितवाद की एक ऐसी फितरत है जो पूंजीवादियों एवं खासकर फासिस्टों की फितरत है। बड़े आराम से फासिस्ट उन चौपाइयों को हटाने के लिए राजी होने के संकेत दे रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इससे दबे-कुचले लोगों के जीवन में जो अपमान घुला हुआ है, या जिन परिस्थितियों से उनके जीवन में हर दिन नया अपमान घोला जा रहा है वह नहीं दूर होने वाला है। पुराने दलितवाद को महज इन चीजों तक सीमित रहना पड़ रहा है, इसी से साबित होता है कि वह टिमटिमाता दीया बन चुका है और उसकी लौ अब बुझने वाली है।

यह भी सही है कि दबे-कुचले समुदाय व जाति के लोगों की लड़ाई को शुरू से ही प्रतीकात्मकता के घेरे में रखने या मिथकों के लिए लड़ने की सीमामें कैद करने की कोशिश हुई है। यह एक प्रवृत्ति के रूप में शुरू से मौजूद रही है। मंदिरों में प्रवेश के लिए लड़ना, दलितों को मंदिरों के पुजारी बनने के अधिकार की बात करना, खुद को उसी जगह पर रखने की मांग करना जहां आज ब्राह्मणवादी हैं, उन्हीं की तरह बनने की चाह रखना या जगाना, आदि इसी प्रवृत्ति के उदाहरण हैं। इसलिए मिथकों व प्रतीकों के लिए लड़ाई से कुछ भी बदलता नहीं है, सिवाये इसके कि उसी ढांचे में व्यक्तियों की अदला-बदली होती है। इसलिए नया क्रांतिकारी दलित उभार का प्रस्थान बिंदु पूरे शोषणकारी ढांचे को बदलना होगा, उसी ढांचे में व्यक्तियों या जातियों की अदला-बदली नहीं। दबे-कुचले समुदाय के जीवन को भौतिक रूप से बदलने की लड़ाई का यही मर्म है, यही वास्तविक लड़ाई है, जिससे पुराना दलितवाद भागता है, लेकिन जो नये क्रांतिकारी दलितवाद के उदय का मूलाधार होगा। इसका मूल उद्देश्य धार्मिक ग्रंथों को बहस के केंद्र में लाना नहीं दबे-कुचले समुदायों के वास्तविक जीवन की कुरूप सच्चाइयों को, जो रामायण की दो या तीन चौपाइयों में वर्णित सच्चाई से कई गुणा ज्यादा कुरूप व भयानक हैं और जिन्हें दशकों के आरक्षण के बावजूद नहीं मिटाया जा सका है, केंद्र में लाना होगा। इसे जो रोकते हैं, वे दलितों की मुक्ति की लड़ाई के भगोड़े हैं।

देश व राज्यों के शासन-प्रशासन में बैठे दलितवादियों, जो आज पूंजीवादी व्यवस्था के सबसे अधिक मजबूत अवलंब बन कर खड़े हैं, से यह पूछा जाना चाहिए कि ”महानुभावों! आप लोग तो शासन में हैं। फिर क्यों नहीं जाति-उन्मूलन और जातीय अपमान के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंक देते हैं? प्रतीकों और मिथकों से आगे क्यों नहीं जाते? आगे बढ़ दबे-कुचले समुदायों के जीवन को बदलने के लिए जो भी जरूरी है, उसे क्यों नहीं करते? संविधान प्रदत्त एक मामूली से अधिकार दलित छात्रों की छात्रवृति तक क्यों नहीं लागू करते हैं, छात्रवृति तक को क्यों रोके रखते हैं? अगर आप सच में दबे-कुचलों के उद्धारकर्ता हैं, तो आपको संघर्ष में उतरने से किसने रोक रखा है?” दरअसल इन्हें रोकने वाला और कोई नहीं पूंजीवाद और फासीवाद में इनका हो गया विलय है। ये तो बस दबे-कुचले लोगों के वोटों के सौदागर हैं ताकि पूंजीवादी सत्ता की मलाई खा सकें। इनका एक काम है – आगामी चुनावों में वोटों की फसल काटने के लिए कुछ ऐसे प्रतीकात्मक सवाल खड़ा करना जिससे सनसनी फैले, लेकिन जैसे ही असली लड़ाई का वक्त आता है वे उन्हीं के साथ खड़े हो जाते हैं जिनके खिलाफ ये प्रतीकों का संघर्ष चलाते हैं।

जाहिर है, दबे-कुचले समुदायों की वास्तविक लड़ाई अब मजदूर वर्ग के सत्ता संघर्ष के लिए होने वाली राजनीतिक लड़ाई का हिस्सा है। इसके लिए क्रांतिकारी मजदूर वर्ग को नये क्रांतिकारी दलित उभार का आह्वान करना होगा, लेकिन इसकी शर्त है कि इसके लिए क्रांतिकारी द्वंद्ववाद का सही-सही इस्तेमाल करना हमें आता हो। अगर नहीं आता हो, हमें इसे सीखना होगा, नहीं तो इतिहास में जो गलति‍यां हुई हैं, हम उन्हीं गलतियों को फिर से दुहराते जाए जाएंगे।

III

आजादी के बाद के भारत की तस्वीर और वर्तमान राष्ट्रीय स्थिति

के आईने में दबे-कुचले समुदाय की मुक्ति के रास्ते की ऐतिहासिक बाधाएं 

क्रांतिकारी प्रस्तुतीकरण से जुड़े सवाल

‘आजादी’ के तुरंत बाद भारत में जो व्यवस्था बनी उसमें पुराने तरह के जमींदारों व पूंजीपतियों का वर्चस्व था। वे मनुवादी-जातिवादी और ब्राह्मणवादी थे। पूंजीपति वर्ग का चरित्र भी इसके अनुरूप ही था, यानी मनुवादियों-ब्राह्मणवादियों के प्रति सहयोग का था। पूंजीपति वर्ग मजबूत नहीं था, न तो आर्थिक तौर पर और न ही सामाजिक आधार के तौर पर। वह अकेले शासन नहीं कर सकता था, खासकर तब जब ‘आजादी’ के समय मजदूर किसान आंदोलन काफी तेज था और कम्युनिस्ट उनका नेतृत्व कर रहे थे, और बैकग्राउंड में यह बात गूंज रही थी कि सोवियत यूनियन, चीन सहित एक तिहाई विश्व को पूंजीवाद से मुक्त किया जा चुका है। खासकर सोवियत यूनियन में मजदूरों एवं किसानों की बदली हुई सामाजिक एवं आर्थिक स्थितिपूरी दुनिया के मेहनतकशों को आंदोलित ही नहीं कर रही थी, उन्हें क्रांति की ओर उन्मुख भी कर रही थी। 

भारत एक ऐसा बुर्जुआ राज्य बना जिसका वर्गीय अंतर्य बुर्जुआ-जमींदार राज्य था। इस कारण कृषि क्रांति के अंतर्य वाली जनवादी क्रांति की संभावना अभी खत्म नहीं हुई थी। नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह उस संभावना का परिणाम ही नहीं उसकी चरम अभिव्यक्ति था, जो इसकी अंतिम असफल लौ साबित हुई। उसके बाद जनवादी क्रांति की संभावना मूल तौर पर खत्म हो गई। 1980 का दशक आते-आते पुराने तरह के कृषि क्रांति के अंतर्य वाले किसान आंदोलन का आर्थिक-सामाजिक आधार खत्म हो गया। पुराने जमींदार नये तरह के पूंजीवादी भूस्वामी या जमींदार में बदल गये तथा औद्योगिक पूंजीपति वर्ग की ताकत भी काफी बढ़ गई। हरित क्रांति का एक दौर पूरा हो चुका था। खाद्यान्नों के उत्पादन के मोर्चे पर भारत का पूंजीपति वर्ग लगभग आत्मनिर्भर हो चुका था। एमएसपी और प्रोक्योरमेंट प्राइस तब से चला आ रहा विषय है।

भारत का (1980 के दशक में प्रकट हुआ) पूंजीवाद ऊपर से प्रायोजित राजकीय सुधारों के माध्यम से, दूरदर्शी तरीके से चुने गये घुमावदार रास्तों से विकसित हुआ पूंजीवाद था। कई मायने में यह जर्मनी में उभरे ‘जुंकर’ पूंजीवाद की तरह का, लेकिन अन्य बहुत सारे मायनों में उससे भिन्न, पूंजीवाद था। देहातों एवं कृषि में पूंजीवाद के विकास की बात करें, तो वहां का पूंजीवाद किसानों की जमीन की भूख और लड़ाई को कुचलकर और पुराने जमींदारों को ही पूंजीवादी खेती का मुख्य अभिकर्ता बना कर विकसित हुआ था। संक्षेप में, देहातों में पूंजीवाद का विकास जमींदार पक्षीय बुर्जुआ भूमि सुधारों के माध्यम से तथा इसी की तरह के कुछ अन्य सुधारों (जैसे कि आरक्षण) के प्रभामंडल में हुआ। इसलिए जमींदारों व मठों की जमीनों की जब्ती नहीं हुई। ‘प्रिवी पर्स’ को भी शुरू में खत्म नहीं किया गया था। इसे बहुत दिनों तक बनाये रखा गया। इसलिए कृषि के विकास के लिए पूंजी निवेश की समस्या शुरू से बनी रही। यही स्थिति ढांचागत एवं औद्योगिक क्षेत्रों के विकास के क्षेत्र में भी थी। पूंजीवाद के विकास के लिए जरूरी पूंजी निवेश के लिए कर्ज पर निर्भर होने का रास्ता चुना गया जिसका बोझ जनता को उठाना पड़ा। अर्थात, आजादी के बाद हुआ सारा विकास जनता की गाढ़ी कमाई से (दूसरे शब्दों में, जनता के टैक्स से भरे गये सरकारी खजाने) से हुआ, क्योंकि कर्ज एवं उस पर ब्याज की अदायगी भी जनता से विशाल मात्रा में वसूले गये अप्रत्यक्ष करों से हुई। आज भी सामान्य जनता ही करों का अधिकांश बोझ उठा रही है। 

इस तरह से हुए विकास का लक्ष्य क्या था? इससे होने वाला फायदा किस ओर मुख्य रूप से लक्षित था? इसकी जांच पड़ताल करें, तो साफ दिखेगा कि इसका मुख्य उद्देश्य कमजोर पूंजीपति वर्ग को शनै: शनै: मजबूत करना था। इसे दोनों तरीके से किया गया – समाज में भिन्न-भिन्न पूंजीवादी संस्तरों के निर्माण करा कर उसके सामाजिक आधार को विस्तारित करके, और प्रत्यक्षतः पूंजीपति वर्ग की आर्थिक ताकत व पूंजी को बढ़ाने के सारे उपाय कर के। इसके निमित्त जनता के एक हिस्से के बीच सांस्कृतिक विकास कराया गया। इसमें बाजार के विस्तार की एक बड़ी भूमिका थी। हल-बैल के युग से उठा कर आधुनिक तकनीक के स्तर तक समाज के विकास को लाया गया, जिसके साथ भी सांस्कृतिक विकास अंतर्गुंथित था। संपन्न शहरी मध्य वर्ग विकसित किया गया। ऐसा लक्षित विकास सिर्फ और सिर्फ भारत सरकार, जो उस समय के कमजोर पूंजीपति वर्ग की प्रबंध कमिटी थी, के नियंत्रण व दूरदर्शितापूर्ण देख-रेख में ही कराया जा सकता था जो दूरगामी तौर पर कमजोर पूंजीपति वर्ग को मजबूत करने केलिए था। यह अकारण नहीं था कि 1980 के दशक के पहले तक निजी उपभोग की चीजें बनाने वाले निजी उद्योगों व सेवाओं को छोड़ दें, तो सब कुछ सरकारी था और सरकारी खर्च यानी जनता की कमाई से निर्मित किया गया था। सामाजिक क्षेत्र की बात करें, तो स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, परिवहन, आदि सभी सरकारी क्षेत्र के हिस्से थे। बैंक को बाद में ही सही, लेकिन उसे भी सरकारी क्षेत्र में ले आया गया। उद्योग की बात करें, तो रेल एवं रेलगाड़ी, हवाई जहाज, भारी उद्योग की दर्जनों तरह की अलग-अलग शाखाएं, कोयला, स्टील, इंजीनियरिंग, बंदरगाह, सिमेंट, रोड, आदि की नींव भी सरकारी खजाने से डाली गई। निजी पूंजीपति की उस समय की आर्थिक ताकत आधारभूत एवं ढांचागत सेक्टर में निवेश करने लायक नहीं थी। इसमें मुनाफा भी देर से आता है। इसीलिए ढांचागत सेक्टर में निवेश तात्कालिक तौर पर भारत के पूंजीपति वर्ग के हित में नहीं था। इसलिए एक रणनीति व युद्धनीति के तहत पूंजीपति वर्ग को इन क्षेत्रों से दूर रखा गया था, न कि इसलिए कि नेहरू समाजवाद के समर्थक थे। इसलिए ही उस समय के पूंजीपति को सरकार ने निजी उपभोग की जरूरी चीजें पैदा करने वाले एवं तुरंत मुनाफा देने वाले उन छोटे-मध्यम उद्योगों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया और हर संभव मदद की, जिनकी निर्भरता जनता की गाढ़ी कमाई से निर्मित ढांचागत भारी उद्योगों पर थी। इस तरह जनता से निचोड़े गये करों एवं देशी व विदेशी कर्जों, जिसकी देनदारी का बोझ भी जनता के ऊपर ही आया, के बल पर बने विशालकाय पब्लिक सेक्टर का पूरा लाभ (जनता के श्रम के द्वारा निर्मित अधिशेष की लूट) निजी पूंजीपतियों को गया। मुद्रास्फीति की ऊंची दर की वजह से जनता की कमाई का एक बड़ा हिस्सा अलग से भी उनकी जेबों में गया, जो एक अलग ही कहानी है। यानी, यह मॉडल चंद बड़े पूंजीपतियों (उस समय के टाटा-बिड़ला, आदि) एवं साथ में अन्य छोटे-मझोले तथा छुटभैये पूंजीपतियों (दुकानदारों, व्यापारियों, कालाबाजारियों, आदि) के लिए; सरकारी संस्थानों के विस्तार के कारण मिली स्थाई नौकरी एवं सामाजिक सुरक्षा (पेंशन, पीएफ आदि) तथा महंगाई दर के साथ ऐडजस्ट होने वाले ठीक-ठाक वेतन और व्यापार के विस्तार के लिए बाजारों के फैले जाल से उस समय उभरे शहरी मध्य वर्ग; देहातों में क्रमिक रूप से विकसित हो रहे पूंजीवादी कृषि के मॉडल से लाभ कमाने वाले मध्यम व धनी किसान एवं बड़े भूस्वामियों के लिए, और अंतत: राजनीतिज्ञों एवं उनसे जुड़े उदीयमान ठेकेदारों के वर्ग, आदि के लिए मुख्य रूप से फायदेमंद साबित हुआ। बाकियों के लिए इसमें ज्यादा कुछ नहीं था। इससे पूंजीवाद के सामाजिक आधार में तेजी से फैलाव हुआ। शहरों का मजदूर वर्ग एवं देहातों के छोटे एवं सीमांत किसान भ्रम में जरूर आये कि उनका भी विकास होने वाला है, लेकिन 1980 के आने तक, यानी उपरोक्त पूंजीवादी विकास के मॉडल के अंतिम परिणाम के आते ही सारे भ्रमों का अंत हो गया। गरीब, छोटे व सीमांत किसान का हाल सबसे ज्यादा खराब हुआ। दरअसल उन्होंने भी पूंजीवादी खेती का लाभ उठाने की कोशिश की, लेकिन उसकी अतार्किकता के शिकार हो बर्बाद हुए और 90 के दशक तक इनकी आत्महत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया। तब तक बड़ी पूंजी का खेती में प्रवेश न के बराबर था। 1990 का दशक वह दशक बना, जब पिछले चार दशकों में मजबूत हो चुका पूंजीपति वर्ग अपने रंग में आ चुका था और 1991 में पूंजीवादी विकास के प्रथम चरण में अपनाये गये उस पुराने मॉडल को उसने पलट दिया (जो कि एक स्वाभाविक बात ही नहीं वैज्ञानिक बात भी थी, विकास का एक चक्र पूरा होने के बाद विकास के पुराने मॉडल को बदलना होता है) जिससे उसका इतना अधिक विकास हुआ था। एक नया मॉडल आया जिसके आने की ठोस राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय वजहों को यहां रखना मुश्किल है। आम तौर पर इसे निजीकरण, उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण के एक नये मॉडल या नीति के नाम से जाना या पुकारा जाता है। यह भारत में पूंजीवादी विकास के दूसरे चरण का उद्घोष था जो वास्तव में बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी की अध्यक्षता में अर्थव्यवस्था के वित्तीयकरण के एक नये युग के श्रीगणेश एवं आगमन के पहले का एक अंतर्वर्ती चरण था। इसमें पूंजीवादी व्यवस्था के वित्तीय पूंजी के नियंत्रण की ओर शिफ्ट होने, परिणामस्वरूप आर्थिक संकट के चिरस्थाई होने, तथा इसके समानांतर व समरूप ‘जनतंत्र’ की जगह इसके नाम पर निरंकुश-फासीवादी शासन की ओर बड़े पूंजीपति वर्ग के मूड के शिफ्ट होने, आदि की बात शामिल थी। हम इन बातों को 2013 से, हालांकि इतनी स्पष्टता के साथ नहीं, बोलते चले आ रहे हैं जो आज जा कर पूरी तरह साबित हुई है।

संक्षेप में कहें, आजादी के बाद 1980 के दशक का दौर एक ऐसे सरकारीकरण एवं राष्ट्रीयकरण का दौर था, जो मूलतः प्रतिक्रियावादी होते हुए भी बाह्य तौर पर प्रगतिशील दिखता था। इसका उद्देश्य, जैसा कि ऊपर भी कहा गया है, मूलतः पूंजीवाद के सामाजिक आधार को विस्तारित व सुदृढ़ करना; पुराने सामंती तत्वों को पूंजीवादी विकास का हिस्सा बनाना; उन्हें राज्य सत्ता में सहयोजित करना; समाज में नये तरीके से तथा ज्यादा सुदृढ़ तौर पर अपने सहयोगी के बतौर उन्हें स्थापित व खड़ा करना, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि नये विकासमान पूंजीवाद की, उस समय के तूफानी व क्रांतिकारी मजदूर-किसान आन्दोलनों तथा कम्युनिस्टों के नेतृत्व में दबे-कुचले समुदाय के आत्मसम्मान की चल रही आवेगपूर्ण लड़ाई, जो 60 एवं 70 के दशक में मूलतः नक्सल (कम्युनिस्ट क्रांतिकारी) आंदोलन के रूप में चलाई जा रही थी, रक्षा करना था। हमें यहां यह रेखांकित करना चाहिए कि नक्सलबाड़ी विद्रोह से निकले आंदोलनों में मूलतः दलितों एवं आदिवासियों के आत्मसम्मान व रोटी (रोटी व इज्जत, यानी उठने-बैठने, गाली गलौज, एवं पिटाई, आदि) का मुद्दा ही मुख्य मुद्दा हुआ करता था। नेहरू और उनके बाद की सरकारें अपने इसी वर्गीय हित में लगी रहीं कि इन आंदोलनों को कैसे सफलतापूर्वक, यानी सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे की तर्ज पर कुचला जाए।

इस दौर की ऐतिहासिक गति अंततोगत्वा के अर्थ में प्रगतिशील थी, लेकिन राजनीतिक और वैचारिक दृष्टि से, उसी अंततोगत्वा के अर्थ में, वह एक प्रतिक्रियावादी दौर ही था। कम्युनिस्ट आंदोलन के एक बड़े हिस्से (सीपीआई एवं सीपीएम एवं एसयूसीआई सहित कुछ अन्यों) की सोच इसके विपरीत थी। वे इसे मूलतः तथा येन-केन-प्रकारेण प्रगतिशील ही मानते थे और आज जब फासीवाद के हमलों के बीच वे उसी की ओर लौटने की बात करते हैं तो यह स्वतः साबित भी होता जाता है। नक्सलबाड़ी विद्रोह से निकली पार्टियों एवं ग्रुपों ने अमूमन ठीक नीति लीं, लेकिन अन्य आवेगपूर्ण भटकावों की वजह से उनका कोई जमीनी मतलब नहीं निकला। आज की बात करें, तो व्यवहार में तथा बहुत हद तक लेखन में भी, वे वहीं पहुंच गये हैं जहां अन्य संशोधनवादी खड़े हैं। उन्हें भी किसी और नेहरू की जरूरत है। राहुल गांधी के प्रति इन सब में जगता प्रेम देखने लायक है। वे उम्मीद कर रहे हैं कि राहुल इनके नेहरू साबित होंगे। लेकिन हाय! यह ‘दिल्ली’ दूर ही नहीं असंभव भी है, क्योंकि आज का गंतव्य ही यह नहीं है। खासकर इस अर्थ में कि संकटग्रस्त पूंजीवाद यह मौका नहीं देने वाला है। 

वे दरअसल स्थायी नौकरी, सामाजिक सुरक्षा और उद्योगों के राष्ट्रीयकरण के दौर को याद करते हैं जिसे समाजवादी मॉडल कह कर प्रचारित किया गया था, ताकि मजदूर एवं किसान आंदोलनों को वैचारिक व राजनीतिक तौर पर निहत्था किया जा सके और मजदूर-किसान आंदोलन को पूंजीवाद में सहयोजित करने की प्रक्रिया में कोई वैचारिक व राजनीतिक समस्या नहीं आ सके। पूंजीपति वर्ग के तरकश में इसके लिए जितने तीर थे, अंबेदकर उसमें पहले से शामिल थे, लेकिन बाद में उन्हें फिर से बड़े पैमाने पर शामिल किया गया, खासकर 1980 के दशक के बाद से, जिसकी ही परिणति पूंजीवाद में विलय कर चुकी एक धारा के रूप में दलितवाद के नये जबरदस्त उभार में हुई। उस समय के हिसाब से यह धारा नई थी, लेकिन आज के समय से उसे पुराना दलितवाद ही कहना बेहतर है। नये दलितवाद, जो मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक व क्रांतिकारी मिशन का सहचर एवं सहयोगी होगा, का आगमन अभी बाकी है।  

इस दौर में वेतन और मजदूरी के नियमितीकरण (regularisation) से कामगारों को जो फायदा हुआ वो तो हुआ, लेकिन इसका सबसे अधिक फायदा पूंजीपति वर्ग और पूंजीवाद को हुआ। मजदूरी प्रथा, जो पूंजीवाद का मूलाधार है, को स्थायित्व प्राप्त हुआ। मजदूर वर्ग की उजरती गुलामी की एक स्थायी व्यवस्था इसके पूरी तह तक स्थापित हुए बिना संभव नहीं थी। पूंजीवाद को नैसर्गिक बनाने, इसकी जड़ों को गहरे तक जाने एवं पूंजीवाद को चिरंजीवी बनाने में इसका एक बड़ा योगदान था। इन सब के प्रति, जो पूंजीवादी सुधारों के वर्गीय चरित्र को नग्नता में दिखाता है, हमारा आंदोलन आंखें बंद किये रहा और मजदूर व किसान आंदोलन को अंधेरे में रख उन्हें वैचारिक व राजनीतिक तौर पर हथियार विहीन बना दिया।

नेहरूवादी नीतियां विशुद्ध रूप से उस समय के पूंजीपति वर्ग के हित में थीं, एक खास तरह की युद्धनीति के तहत ली गयी नीतियां थीं, जिसकी नींव सफलतापूर्वक रखने का श्रेय ठीक ही उस समय के पूंजीपति वर्ग के योग्यतम प्रतिनिधि व नेता जवाहर लाल नेहरू को जाता है। वे उस दौर के आर्थिक रूप से कमजोर पूंजीपति वर्ग के दूरगामी हितों को बखूबी समझते थे। वे इस बात को भलिभांति समझते थे कि जब पूंजीपति वर्ग की आर्थिक ताकत (निवेश योग्य पूंजी) कम हो, तो ऐसे समय में स्वयं पूंजी पर यानी पूंजीपतियों पर नियंत्रण करना जरूरी है, नहीं तो पूंजीपति वर्ग के हित मार खा जाएंगे। निजी पूंजी अपने मूल चरित्र में अराजक होती है जिसकी जड़ उपयोग मूल्य की चिंता किये बगैर विनिमय मूल्य (यानी मुनाफा) के पीछे पूंजी की हमेशा दौड़ लगाने की प्रवृत्ति है, जिसका विकासमान अवस्था वाली पूंजीवादी व्यवस्था के संतुलित विकास पर बहुत बुरा असर पड़ सकता है। कृषि और उद्योग में, उद्योग की एक शाखा व दूसरी शाखा में, एक उद्योग से दूसरे उद्योग में पूंजी के प्रवाह में असंतुलन और टकराव की स्थिति आ सकती थी। ऐसे में जिस तरह की नियंत्रणकारी नीति अपनाई जानी चाहिए भारत में ठीक वैसी ही नीति अपनाई गई जिसे ‘इंस्पेक्टर-लाइसेंस-परमिट’ राज कहा गया। इसमें अफसरशाही को भ्रष्टाचार  का मौका मिला। लेकिन भ्रष्टाचार भी पूंजी के सामाजिक आधार के प्रसार का एक तरीका है, पूंजी के प्रसार की जरूरत को ही पूरा करता है। इस तरह भ्रष्टाचार का बढ़ना इसके वर्गीय चरित्र के अनुरूप पूंजीवाद में त्याज्य नहीं है, बल्कि इसके टिकाऊपन का एक जरूरी तत्व है। अगर अफसरों को लूटने का मौका नहीं मिलेगा, तो पूंजीवादी व्यवस्था के पाले में क्यों रहेंगे? आज तो फिर भी एक बात है, लेकिन उस समय तो यह एक बड़ा खतरा था। उन्हें उच्च वेतन देना, सेवक कहते हुए भी गरीब जनता की तुलना में असीमित अधिकार देना, लूट-खसोट का स्पेस देना, जनता को सीमा में रखने के लिए दमन का अधिकार देने वालों कानून बनाना, ये सब कुछ पूंजीपति वर्ग के वर्गीय हित को देख कर ही किया गया है। पूंजीवादी व्यवस्था में शीर्ष से लेकर पांव तक फैला भ्रष्टाचार इसकी जरूरत है, न कि कोई विचलन या गद्दारी। अफसरों को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें जनता से ईमानदारी करना सिखाया जाता है। नहीं, यह ऊपर की, अर्थात दिखावे की बात है। अंदर की बात यह है कि उन्हें पूंजीपति वर्ग से ईमानदारी करना सिखाया जाता है। जनता से तो ईमानदारी करने पर उनको सजा मिलती है, कानून में इसके लिए सजा मुकर्रर है। हां, भ्रष्टाचार का उपयोग ये जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए अवश्य करते हैं। जैसे कि पब्लिक सेक्टर के मैनेजमेंट के भ्रष्टाचार को समाजवादी समाज के भ्रष्टाचार से जोड़ कर प्रचारित किया गया, ठीक वैसे ही जैसे कि दूसरी तरफ श्रम व ट्रेड यूनियन कानूनों, सामाजिक सुरक्षा के कानूनी अधिकारों और स्थाई नौकरी, आदि की शुरुआती व्यवस्था एवं राष्ट्रीयकरण, आदि को समाजवाद कह कर प्रचारित किया गया। इसके पीछे की चाल मजदूर वर्ग को झूठ बता कर भटकाना था कि भारत में समाजवाद के लिए लड़ने की जरूरत नहीं है, यह पहले से हासिल है, और देखो कितना भ्रष्ट और मजदूर विरोधी है।

यह वह समय था जब स्तालिन की मृत्यु हो चुकी थी, गद्दार ख्रुश्चेव द्वारा क्रांति की दिशा छोड़ देने की लाइन विजयी हो चुकी थी और वह भारत के कम्युनिस्टों के बड़े हिस्से (सीपीआई एवं सीपीएम) की लाइन बन चुकी थी। नक्सलबाड़ी विद्रोह की नई धारा जरूर पैदा ली, लेकिन इससे निकली सीपीआई (एम एल) का जल्द ही कई धड़ों में बिखराव हो गया। कोई वाम, तो कोई दक्षिण की ओर हिलोरें लेने लगा। अफरा-तफरी मची थी। मजदूर आंदोलन सुविधावाद और अवसरवाद में ही नहीं, व्यवहारिकतावाद, सारसंग्रहवाद, सक्रियतावाद के पंक में जा गिरा था। देहातों में पुराना किसान आंदोलन अपने इतिहास के साये के रूप में विद्यमान रहा, लेकिन अंतर्य में उसमें उसके अपने अतीत का कुछ भी शेष नहीं रह गया। संक्षेप में, 1980 के दशक तक आते-आते यह सब को पता चल गया कि भारत के पूंजीवाद को तूफान की गति से बढ़ते मजदूर एवं किसान आंदोलन से अभयदान मिल चुका था।

पूंजीवाद को मिला अभयदान और जाति-उन्मूलन की लड़ाई पर प्रभाव

कोई संदेह नहीं है कि पूंजीवाद को मिले अभयदान से एक झटके में जातिवाद से मुक्ति के अभियान की संभावना भी खत्म हो गयी या कम से कम लंबे समय के लिए रुक गया या स्थगित हो गया। लेकिन आज फिर से क्रांति का सवाल और जाति-उन्मूलन का सवाल उपस्थित हो चुका है। माना कि अतीत में जो संभावना थी या जो रास्ता था वह तो खत्म हो गया, लेकिन क्या आज या निकट भविष्य में एक झटके में जातिवाद से मुक्ति मिल सकती है? हमारा जवाब है – हां, मिल सकती है। लेकिन इसका रास्ता मजदूर वर्गीय क्रांति का रास्ता है, न कि आरक्षण जैसे अंबेदकरवादी-पूंजीवादी सुधारों का। इसलिए मजदूर वर्गीय क्रांति के मोर्चे को जिस तरह की अवसरवादी प्रवृत्तियों ने जकड़ रखा है, पहले उन सबसे लोहा लेना होगा।

पूंजीपति वर्ग ने मजदूर-किसान आंदोलन को सहयोजित करने के मोर्चे पर और दबे-कुचले समुदाय व जातियों के सम्मान और गरिमा के लिए हो रही लड़ाइयों को अपने में सहयोजित करने के मोर्चे पर विजय लगभग एक ही साथ और एक ही समय पा ली थी। जिस नीति से पूंजीवाद ने मजदूर-किसान आंदोलन को समाहित किया, लगभग उसी नीति से इस मोर्चे को भी फतह कर लिया। दबे-कुचले समुदाय की आत्मसम्मान व मुक्ति की लड़ाइयां अलग-अलग रूपों में जमीन पर मुख्य रूप से कम्युनिस्ट ही ठोस तरीके से चला रहे थे।

हम पाते हैं कि पूंजीपति वर्ग ने 1980 के दशक में इसके लिए सामुदायिक पहचान (जाति, धर्म, आदि) की राजनीति को आगे बढ़ाया, फिर इसे बिजली की गति से तेज कर दिया। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना और उसकी प्रतिक्रिया में कमंडल यात्रा (अयोध्या में राम मंदिर के लिए यात्रा) के दौर को याद की कीजिये। पूरा समां बदल जाता है। ये एक युग का शिफ्ट था। एक टेक्टोनिक शिफ्ट की तरह का शिफ्ट था, कोई मामूली घटना नहीं।

आरक्षण के विरोध और समर्थन तथा दूसरी तरफ अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के विरोध और समर्थन का माहौल जानबूझ कर खड़ा किया गया। एक तरफ गोलवलकर और सावरकर तेजी से प्रकट हुए, तो दूसरी तरफ अंबेदकरवाद और आरक्षण के मुद्दे को भव्य तरीके से खड़ा करके समाज को दिखावटी तौर पर दो विपरीत तरह के नैरेटिव में झोंक दिया गया। बाह्य वैपरित्य के अंदर सामंजस्य था, इस नाते कि समाज में एक नये तरह के जनवाद विरोधी शिफ्ट, वित्तीय पूंजी के नियंत्रण में सभी कुछ ले जाने वाली टेक्टोनिक शिफ्ट को अंजाम तक पहुंचाना था। एक तरफ ‘हिंदू खतरे में है’ का शोर खड़ा किया गया, तो दूसरी तरफ अंबेदकर द्वारा लिखित संविधान और इसमें निहित आरक्षण खतरे में है का शोर खड़ा किया गया। नये साथियों को पता नहीं होगा, लेकिन जो पुराने हैं उन्हें ये दो ‘विपरीत’ छोर वाले नैरेटिव कैसे खड़ा किये गए उसके विजुअल तक याद होंगे। एक तरफ हिंदू होने एवं (भगवान) राम के होने को महिमामंडित किया जाने लगा, तो दूसरी तरफ डॉ अंबेदकर और आरक्षण का क्रांतिकारी महिमामंडन किया जाने लगा। आवेग इतना था कि इसके किसी न किसी पक्ष में होने से शायद ही कोई बच सका। पूंजीवाद में आरक्षण का वर्गीय चरित्र होता है इसे तो भूला ही दिया गया। क्रांतिकारी अवस्थान या तो नहीं था, या था तो इतना कमजोर था कि उसकी कोई पहचान नहीं थी।

याद रहे कि 1980 का दशक ही वह दशक है जिसके बाद से सरकारी क्षेत्रों पर एक-एक कर निजीकरण का हमला शुरू होता है। मोदी काल में निजीकरण का वही हमला चरमोत्कर्ष पर पहुंचा है। मोदी की जो भी सरकारी है उसे बेच देने की आज की नीति उसी की निरंतरता में है। एक तरफ सरकारी क्षेत्रों के निजीकरण की दिशा ली गई, दूसरी तरफ आरक्षण को क्रांतिकारी बताने, अंबेदकर को एक महान क्रांतिकारी तथा मार्क्स के आगे का सिद्धांतकार बताने और कालांतर में मार्क्स और अंबेदकर को मिलाने का सिद्धांत लेकर आने का इतना तेज शोर शुरू किया गया कि उसी शोर में सब कुछ डूब गया। दबे-कुचले समुदाय को क्रांतिकारी बनने से रोकने के मोर्चे पर ली गई एक नई सुविचारित युद्धनीति को काफी धैर्य से लंबे काल के लिए तय कार्यनीति के बतौर और काफी बुद्धिमानी से लागू किया गया। दोनों चीजें आगे आईं। हिंदुत्व भी, और अंबेदकरवादी दलितवाद भी। फिर इस स्थिति पर यह बात आरोपित की जाने लगी कि हिंदुत्व को काउंटर करना है तो अंबेदकर को, दलितवाद को गले लगाना होगा। बाद में, जब मार्क्स और अंबेदकर को मिलाने का घोर अवसरवादी कार्यक्रम प्रकट होता है, तो हम पाते हैं कि दलितवाद का एक हिस्सा तेजी से फासिस्टों को गले लगाने बढ़ जाता है और स्वयं फासिस्ट अंबेदकर को गले लगाने बढ़ जाता है। ब्राह्मणवाद-मनुवाद के झंडे पर अंबेदकर और दलितवाद टांक दिये जाते हैं। यह सब कुछ पूंजीवाद के सोची-समझी कार्यनीति के तहत ही हो रहा था। पूंजीवाद ने इससे अधिक सुरक्षित कभी नहीं महसूस किया होगा, जितना कि आज। फासिस्ट भी उसके, अंबेदकरवादी भी उसके। ब्राह्मणवाद भी उसका, दलितवाद की उसका। पक्ष और विपक्ष, सारा उसका। यह कम्युनिस्टों को अकेले करने की नेहरूवादी नीति का ही चरमोत्कर्ष है। जो लोग भी इसके विपरीत नेहरू को कम्युनिस्टों का साथी मानते हैं, वे भारी गफलत में हैं।        

आरक्षण को जब इसके वर्गीय चरित्र के साथ नग्न नहीं किया गया, तो वह एक दोधारी तलवार बन गया। इसको किये बिना ही इसका समर्थन करने से दबे-कुचलों के बीच मुक्ति की कोई चेतना के आने की बात सोचना ही बेमानी है। इससे तो एक ऐसा स्वार्थी पूंजीवादी संस्तर पैदा हुआ जिसके लिए आरक्षण से बाहर कुछ भी मूल्यवान नहीं है। एक सामाजिक संस्तर के रूप में यह पूंजीवाद का पैरोकार है, और इसे इस बात की कोई चिंता नहीं रह गई कि जिन्हें नौकरी नहीं मिली, या जिन्हें आगे आरक्षण के सहारे नौकरी नहीं मिलने वाली है, और जिनके जीवन में रत्ती भर भी सुधार नहीं हुआ, उलटे जिनके श्रम की लूट करने के लिए नये व पुराने पूंजीवादी लोग टूट पड़े, उनका क्या होगा। ये बेशर्म ही नहीं अपने ही वर्ग भाइयों से गद्दारी करने वाले लोग हैं। 80 के दशक के बाद जब निजीकरण की हवा बहने लगी, तो इनकी हिम्मत नहीं हुई निजीकरण का खुल कर विरोध करने की। ये अंबेदकरवादी अपने को क्रांति का सिपाही कहते हैं! इनके पुरोधाओं को निजीकरण का विरोध करने की तो बात दूर, इसके विरुद्ध चूं करने तक की हिम्मत नहीं हुई। आरक्षणवादी बस मिमियाते रहे – निजी उद्योंगों में भी आरक्षण दिया जाए। सारी क्रांतिकारिता, जिसका ये दावा आज भी करते हैं, हवा हो गई। सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े पुरोधाओं के लिए पूंजीवाद के विरुद्ध जाने का समय आया तो ये उलटे फासीवाद की गोद में जा बैठे। पुराने दलितवाद के ऊपर से नकाब उतर गया कि असल में दलितवाद पूंजीवाद की सेवा करने वाली ही नहीं अब तो फासीवाद से हाथ मिलाने वाली विचारधारा भी बन गई है। वह भला उस पूंजीपति वर्ग के समक्ष निजीकरण का विरोध कैसे करेगी, जो हायर एवं फायर कर रहा था। वह भला उद्योगों की नौकरी में आरक्षण कैसे और क्यों लागू करेगा? आरक्षणवादी मुंह छिपाने के लिए इस मांग को छोड़ निजी स्कूलों व कॉलेजों में कुछ बच्चों के लिए एडमिशन की सीटों के आरक्षण की मांग पर आये। उसका भी क्या हाल है, बिहार में हाल में ही हुए खुलासे से पता चल जाता है। न तो दलित छात्रों को छात्रवृति मिल रही है, न ही सारे बड़े निजी स्कूल गरीब बच्चों के लिए आरक्षित सीट पर ऐडमिशन ही ले रहे हैं। और मजे की बात यह देखिये कि आरक्षित सीट पर दाखिला लिये बच्चे को अलग बैठाया जाता है! क्या दलितवादियों की तरफ से इसके खिलाफ में कोई आवाज सुनाई दी? क्या इस तरह के आरक्षण से ‘जाति’ खत्म हो जाएगी, जातिवाद खत्म हो जाएगा? कोई दिमाग से पैदल आदमी ही ऐसा मानेगा। इससे तो उलटा नयी ‘जाति’ बन जाएगी। बल्कि बननी शुरू हो चुकी है।

आज अंबेदकरवाद पर खड़ा आरक्षणवाद और दलितवाद चारों-खाने चित है। लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन खुद ही इस चारों-खाने चित दलितवाद के मद में होश खोये बैठा है। मदहोशी का आलम यह है कि वे खुद ही इसके पैरों में गिरा रहना पसंद करते हैं। जो इस दलितवाद के पैरो में गिरे रहना पसंद कर सकता है, उससे दलितवाद के क्रांतिकारी संस्करण की कोशिश करने की उम्मीद करने का मतलब यह साबित करना है कि हम स्वयं भी उसी मदहोशी में हैं।

2014 में मोदी और भाजपा-आरएसएस के सत्ता में आने के बाद आरक्षण पर एक नया हमला होता है जो इस अर्थ में अंतिम है कि उसके बाद ही दलितवाद के एक क्रांतिकारी संस्करण के उदय की वास्तविक जमीन तैयार होगी। निजीकरण की शुरुआत तो कांग्रेस ने ही कर दी थी, लेकिन भाजपा ने उसका मुंह पूरा खोल दिया, मानो गोला दागते तोप के मुंह को खोल दिया गया हो। निजीकरण के पक्ष में कांग्रेस ने हवा उठायी, तो मोदी के शासन ने उसे आरक्षण के खिलाफ मोड़ दिया, जो अब आंधी बन कर चल रही है और किसी भी दलितवादी बड़े चेहरे को हिम्मत नहीं है कि एक सीमा के आगे मुंह खोले, या चूं तक करे। मोदी सरकार ने पीछे से अपने थिंक टैंकों से यह बहस शुरू करवा दी कि आरक्षण से आखिर क्या फायदा हुआ? तब भी किसी दलितवादी पुरोधा का मुंह नहीं खुला। वे निजीकरण के खिलाफ या मोदी के खिलाफ कोई गोला क्या दागते, ये बेशर्म गोले दागते मोदी के तोप के पेट में ही समा गये। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी!

यह एक विचित्र परिस्थिति है। जिस प्रश्न (आरक्षण का आखिर फायदा क्या है?) को थोड़ा बदले हुए स्वरूप में शुरू से ही क्रांतिकारियों द्वारा जोरदार तरीके से उठाया जाना चाहिए था, उसे आज फासिस्ट उठा रहे हैं। आरक्षण का समर्थन एक कूटनीतिक कदम था, जबकि इसके वर्ग चरित्र का पर्दाफाश करना मुख्य काम था। ‘क्रांतिकारियों’ ने कूटनीतिक काम को ही अपना मुख्य काम बना लिया। कहने का मतलब, आरक्षण का समर्थन आरक्षण की नीति के वर्ग चरित्र का पूरे तरीके से भंडाफोड़ किये बिना ही किया गया। आरक्षण के पीछे का वर्गीय चरित्र क्या था? यही कि इसके द्वारा पूंजीपति वर्ग दबे-कुचले समुदाय में से कुछ को ऊपर उठाने और बाकी को वहीं मरने-खपने के लिए छोड़ देने की नीति पर चल रहा था। यह पूंजीपति वर्ग की किसी आंदोलन को को-ऑप्ट करने की नीति थी जो इसके वर्गीय चरित्र की मुख्य पहचान है। हम इस काम को करने में बुरी तरह असफल हुए। नतीजा यह हुआ कि जिसने आरक्षण द्वारा मुक्ति के छलावे का खेल शुरू किया, वही आज इस छलावे पर से पर्दा भी उठा रहा है! वही पूछ रहा है : आखिर आरक्षण का क्या फायदा हुआ? क्रांतिकारी आज भी इस प्रश्न को पूछने में शर्माते या डरते हैं। फासिस्ट थिंक टैंक आज एक तरफ दबे-कुचले समुदाय से पूछ रहा है कि आरक्षण से क्या फायदा हुआ, और दूसरी तरफ अगड़ी जाति के गरीबों व लाचारों को क्रांति की दिशा में जाने से रोकने के लिए उन्हें आरक्षण देने का वही पुराना छलावा फिर से शुरू कर चुका है। हम क्रांतिकारी न कल सबक लिये और न ही आज लेने को तैयार हैं।

पूंजीपति वर्ग और पुराने जमींदारों के आपसी संबंध पर कुछ और बातें : पूंजीपति वर्ग की बहुधारी नीतियों पर बातें

पुराने जमींदारों के मामले में पूंजीपति वर्ग की नीति बहुधारी (multi-pronged) थीं और हालात के अनुसार बदलने वाली थीं। भारत का पूंजीपति वर्ग बहुत सजग और चालाक वर्ग रहा है। जैसे, वह पुराने सामंती-जातीय संबंधों को नीचे से, क्रांतिकारी संघर्ष के द्वारा खत्म किये जाने का किसी भी हाल में पक्षधर नहीं था। लेकिन उन्हें जस का तस रहने देने का पक्षधर भी नहीं था, क्योंकि ये खुद पूंजीपति वर्ग, जो कई मायनों में काफी कमजोर और विदेशी मदद पर आश्रित था, के शासन को सुदृढ़ करने के रास्ते की, यानी पूंजी के प्रसार और सामाजिक आधार वृहत्तर करने के रास्ते की, एक बड़ी बाधा थी। उसने एक तरफ मजदूरों-किसानों एवं दबे-कुचले समुदायों के क्रांतिकारी आंदोलन को खून में डूबा देने का निर्णय किया, तो दूसरी तरफ इन्हीं आंदोलनों के भय का उपयोग पुराने सामंती जमींदारों व सामंती-जातीय ढांचे को पूंजीपति वर्ग के अनुरूप ढालने में किया। अगर ये आंदोलन नहीं हो रहे होते, तो पूंजीपति वर्ग के लिए पुराने सामंतों व जमींदारों से निपटना कितना आसान होता, कहना मुश्किल है। पूंजीपति वर्ग ने इस काम को इतनी सफाई और काबिलीयत से किया कि आज पीछे मुड़कर उस पूरे कालखंड पर नजर डालना एक विशेष तरह का रोमांच पैदा करता है। जाहिर है, तत्कालीन कम्युनिस्ट आंदोलन की अक्षमता को देखकर उतनी ही अचरज मिश्रित पीड़ा भी होती है। यहां लेनिनवादी पार्टी जैसी पार्टी की कमी से होने वाली क्षति भी साफ-साफ दिखाई देती है। भारत के चालाक पूंजीपति वर्ग से एक पेशेवर क्रांतिकारियों वाली केंद्रीकृत एवं लौह अनुशासन पर खड़ी पार्टी ही निपट सकती है, इसे इस चर्चा से और साफ-साफ समझा जा सकता है। हम पाते हैं कि ‘आजादी’ के उपरांत सत्तासीन पूंजीपति वर्ग ने कम्युनिस्ट आंदोलन की दोनों, सुधारवादी और क्रांतिकारी, धाराओं से न सिर्फ बखूबी निपटा, अपितु उनकी मूर्खता को भी दुनिया के सामने नंगा कर दिया। किसी के हाथ में यह झुनझुना थमा दिया कि देखो, सामंतवाद तो पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आते ही खत्म हो गया, तो किसी दूसरे को नेहरू की प्रगतिशीलता के समर्थन में गीत गाने के काम में लगा दिया। क्रांतिकारी धारा, जो अपने को लेनिन से भी अधिक क्रांतिकारी मानते थे, को यह समझने के लिए बाध्य कर दिया कि सामंतवाद जस का तस बना हुआ है, कुछ भी नहीं बदला है, क्योंकि ऊपर से (राज्य प्रायोजित सुधारों के जरिये) बदलने को बदलना नहीं कहते हैं! यह अति क्रांतिकारिता यहां तक चली गई कि मजदूर वर्ग के नेतृत्व में होने वाली नव जनवादी क्रांति में समाजवादी या सर्वहारा क्रांति के लिए कहीं दूर-दूर तक जगह नहीं रही। उसकी चर्चा को अपराध घोषित कर दिया गया। मजदूर वर्ग का नेतृत्व और मजदूर वर्ग की पार्टी बस एक जुमले की तरह बना रहा, लेकिन व्यवहार में इसकी एक छोटी छौंक को भी बर्दाश्त करने की स्थिति नहीं रही। वे एक ऐसी क्रांति में लगे रहे, आज तक लगे हुए हैं, जिसमें उनका जाना पहचाना दुश्मन (सामंतवाद) लिबास तो पुराना पहने हुए था लेकिन अपने स्थान से पूरी तरह गायब हो चुका था, और हमारे अति क्रांतिकारी हवा में यूं ही गदा भांजे जा रहे हैं। जिन्होंने यह देखा कि सामंती-जातीय संबंधों से लड़ने की जरूरत खत्म हो गयी, वे समाज में वर्ग शक्तियों के संतुलन को तो नहीं ही समझ पाये, भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिक्रियावादी चरित्र को भी नहीं समझ पाये। वे तो और भी बुरी तरह मुंह की खाये। इस तरह पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन की नियति (सांगठनिक पतन व वैचारिक-राजनीतिक हताशा) अंतत: एक ही साबित हुई। हर धारा अलग-अलग रास्ते (दक्षिणपंथी और वामपंथी भटकाव के रास्ते) अपनाते हुए इसी नियति को प्राप्त हुए। वैचारिक विरासत की रक्षा भी प्रश्न के घेरे में आ चुकी है। ऐसी परिणति को प्राप्त आंदोलन का जो हस्र हो सकता है, आज उसका वैसा ही हस्र हुआ है। सभी पराये विचारों से वह ग्रस्त है तो इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। उत्तरआधुनिकतावाद (post-modernism) सबसे नया और ताकतवर दुश्मन है, क्योंकि यह हमारी क्रांतिकारी विरासत पर दोस्त की शक्ल में छुप कर हमारी ही शब्दावलियों से हमला करता है। जो घोषित रूप से इससे लड़ने मैदान में उतरते हैं वे भी अमूमन उसी का हथियार लिये उतरते हैं। इन सब की इसी एक लेख में व्याख्या तो संभव नहीं है, लेकिन हमारा क्या हाल हो गया है, हम समझ सकते हैं।  

अंत में ……

अंत में, जाति-उन्मूलन के संदर्भ में अगर इस पूरे विकास के हुए परिणाम की बात करें, तो हम निम्नलिखित बातें कह सकते हैं : जिस हद तक सामंती-जातीय संबंधों का खत्म होना पूंजीपति वर्ग के लिए जरूरी था उस हद तक पूंजीपति वर्ग ने उसे शनै: शनै: चटकाते हुए ‘खत्म’ कर दिया है। शनै: शनै: चटकाने का अर्थ पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुरूप उन्हें ढाल लेना मानना चाहिए। हमारा यहां यही अर्थ है। लेकिन जिस हद तक उसका दबे-कुचले समुदाय एवं जातियों के विशाल गरीब एवं मेहनतकश हिस्से के पूर्ण आत्मसम्मान व सामाजिक आजादी हासिल करने हेतु खत्म होना जरूरी था, उसे पूरी तरह बनाये रखा गया। जातिगत भेदभाव तो नहीं ही मिटा, भेदभाव और उत्पीड़न दोनों खत्म होने के बदले और बढ़ गये।

इसलिये हम पाते हैं कि पुराने जातीय भेदभाव और उत्पीड़न के माहौल और पुराने सामंती दबदबे का उपयोग अब इनके श्रम पर पूर्णाधिकार कायम करने के लिए किया जाने लगा है। शनै: शनै: सामंती संबंधों को चटकाने का यह एक रूप है। यह पूंजीपतियों के मुंह को लगे खून का नया (सामंती) स्वाद है जो निस्संदेह पुराने सामंती स्वाद से भी ज्यादा खूंखार साबित हो रहा है। इसलिए जातीय उत्पीड़न का नया माहौल तथा नया स्वरूप उभर रहा है। इसका उपयोग अगड़ी जातियों के पूंजीपति ही नहीं पिछड़ी जातियों, यहां तक कि दलित जातियों के भीतर के कुछ पूंजीवादी दबंग तबके व लोग करने लगे हैं। क्या हम इससे इनकार कर सकते हैं? नहीं, हम इसे हर कहीं देख सकते हैं। राजनीति, ठेकेदारी, रियल सेक्टर, व्यापार, दुकान, … हम जहां तक देख सकते हैं वहां तक इन नये-पुराने दबंगों की नई तरह की कारगुजारी देख सकते हैं। हर जगह श्रम की दरकार है और इसे अगर पुराने दलित समुदाय के गरीब व मेहनतकशों को दबाकर हथिया जा सकता है, तो इनका उत्पीड़न वे क्यों नहीं करेंगे, चाहे वे पिछड़े और दलित ऑरिजिन के पूंजीपति, ठेकेदार, मालिक और व्यापारी ही क्यों न हों? देखने लायक बात यह भी है कि जो इनके वोट लेकर सत्ता की मलाई चाट रहे हैं और फिर सत्ता के सहारे संपत्ति और पूंजी के मालिक बन बैठे हैं, वे ही इस नये तरह के जातीय दमन-उत्पीड़न के और उनके चीरहरण के नये ‘दुर्योधन’ हैं। हां, इससे एक जबरदस्त फायदा होता दिख रहा है। जातीय उत्पीड़न के मामले में बाहरी तौर पर दिखने वाला ठहराव (एकमात्र अगड़ी जाति के दुष्ट लोगों द्वारा जातीय उत्पीड़न करने की बात) टूट रहा है। इससे जो चेतना पैदा ले रही है, वह अंतर्य में क्रांतिकारी है, जिसका उपयोग क्रांतिकारी दलितवाद एवं दलित उभार के उदय में किया जा सकता है जो मजदूर वर्ग का सहचर होगा, जो पूंजी को पलटने वाला और नये समाज के निर्माण के जज्बे वाला होगा।

IV

पूर्ण जाति-उन्मूलन के कार्यक्रम की रूपरेखा : सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक पक्ष

सैद्धांतिक प्रस्तुतीकरण पर एक नई बहस : जनवादी क्रांति का सवाल बनाम सर्वहारा क्रांति का सवाल

आइए, सीधे असली बात पर आते हैं। क्या शोषण के सभी रूपों (जैसे पूंजीवादी, सामंतवादी और साम्राज्यवादी) को खत्म किये बिना भारत में जाति उन्मूलन संभव है? अगर नहीं, तो जाति उन्मूलन अंतर्य में किस वर्ग और किस तरह की क्रांति के कार्यक्रम का हिस्सा है? जनवादी क्रांति मूलतः सामंती संबंधों को खत्म करने वाली क्रांति है जो कंटेंट में पूंजीवादी क्रांति होती है। जनवादी क्रांति भी मजदूर वर्ग के कार्यक्रम का एक हिस्सा हो सकती है, बल्कि होनी चाहिए। इसके तीन कारण हैं। एक, इसे पूर्णता के साथ करने में पूंजीपति वर्ग सर्वथा अक्षम है; वह सामंती शक्तियों के साथ समझौता करने वाला पूंजीवादी शासन चाहता है जिससे पूंजीवादी समाज के उदय का गर्भ-काल काफी लंबा और पीड़ादायक हो जाता है। दूसरा, नीचे से होने वाली जनवादी क्रांति सर्वहारा वर्ग की मुक्ति की लड़ाई में एक अहम पड़ाव है, क्योंकि इससे वर्ग-संघर्ष का दायरा बढ़ता है, और इसकी सुगमता भी बढ़ती है और इसलिए इस लड़ाई को जीतना मजदूर वर्ग की क्रांति को पूरा करने के लिए भी जरूरी है। तीसरा, नीचे से होने वाली जनवादी क्रांति में मजदूर वर्ग की हिस्सेदारी व नेतृत्वकारी भूमिका अगर कायम होती है, तो इसे बिना रुके समाजवादी या सर्वहारा क्रांति में बदला जा सकता है; तब इसके बीच कोई चीन की दीवार नहीं रह जाती है; और अगर कोई दीवार है भी तो उसे आसानी से गिराया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, नीचे से होने वाली, यानी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में होने वाली जनवादी क्रांति से, निरंतरता में, बिना रुके, बिना ज्यादा लंबा इंतजार किये ही, सर्वहारा क्रांति के स्टेज में जाना आसान होता है; लेनिन के शब्दों में ”हथियार को एक कंधे से दूसरे कंधे पर रखने में” अर्थात एक तरह के दुश्मन से दूसरे तरह के दुश्मन के खिलाफ निशाना ”फटाफट” बदलने में, बिजली की गति से एक सफलता के बाद दूसरी सफलता की ओर कदम बढ़ाने में इससे फायदा मिलता है। हमारे शिक्षकों ने हमें इसके बारे में जो बताया है यह उसका निचोड़ है। जनवादी क्रांति को पूंजीपति वर्ग का खुला मैदान नहीं बनने देना चाहिए, और मजदूर वर्ग को इसकी नेतृत्वकारी भूमिका में आना चाहिए। लेकिन फिर भी, और इसे याद रखना चाहिए कि चाहे इसका नेतृत्व मजदूर वर्ग ही क्यों न करे, जनवादी क्रांति का (पूंजीवादी) कंटेंट नहीं बदल जाता है। इसके जो फायदे हैं वे अलग हैं और उन्हें ऊपर गिनाया गया है।

इसे जाति-उन्मूलन के क्रांतिकारी कार्यक्रम के नजरिये से देखें, तो हम कह सकते हैं कि जाति-उन्मूलन जनवादी क्रांति के कार्यक्रम का हिस्सा है, लेकिन इसका पूरा होना महज जनवादी क्रांति पर निर्भर नहीं करता है। क्यों? क्योंकि जनवादी क्रांति के पूरा होने के बावजूद समाज व राज्य दोनों कंटेंट में पूंजीवादी ही बना रहता है। और हम यह बात तय कर चुके हैं, यानी पहले ही इस पर बहस कर चुके हैं कि पूंजीवाद जाति को खत्म नहीं करेगा। इतना ही नहीं, हम इस पर भी बात कर चुके हैं कि ‘जाति’ को खत्म करने या खत्म होने देने में इसके लिए जोखिम है और वह जब तक है, इस जोखिम को मोल नहीं ले सकता है।

दूसरा, जाति-उन्मूलन को जनवादी क्रांति के कार्यभार का हिस्सा मानते ही जाति-उन्मूलन के मोर्चे पर दक्षिणपंथ की तरफ का एक झुकाव आता है। हमारा अनुभव बताता है कि जनवादी क्रांति का इसे हिस्सा मानते ही तुरंत ही यह तर्क आता है कि चूंकि वर्तमान स्टेज जनवादी क्रांति का है, इसलिए दलितवादी संगठनों, जो पूंजीवादी शासन के औजार बन चुके हैं, के साथ मोर्चा बनाना जायज है, या कम से कम त्याज्य नहीं है और क्रांतिकारी नजरिये से कोई अपराध नहीं है। यानी, इस दिशा में पूंजीपति वर्ग से संबंध कायम करने के अपराध बोध से मुक्त होने की प्रवृत्ति का पैदा होना इसमें अंतर्भूत है। इससे आंदोलन में हुई क्षति से हम परिचित हैं। अंतर्य में, यह जाति-उन्मूलन को और क्रांति को अलग-अलग देखने का, एक भरे-पूरे वृक्ष को इसकी अलग-अलग टहनियों के रूप में, या उसकी टहनियों के एक समुच्चय के रूप में देखने की एक दक्षिणपंथी प्रवृत्ति है। वैसे आज के भारत में क्रांति का स्टेज भी जनवादी क्रांति का नहीं सर्वहारा क्रांति का है। लेकिन अगर ऐसा नहीं भी होता, तो भी पूर्ण जाति-उन्मूलन का कार्यक्रम जनवादी क्रांति का नहीं सर्वहारा क्रांति का हिस्सा होता है। जो भी जाति-उन्मूलन के कार्यक्रम को जनवादी क्रांति के कार्यक्रम तक सीमित करते हैं वे इस मोर्चे पर दक्षिणपंथी सीमा के भीतर जाति-उन्मूलन को देखने की अंधता के शिकार हैं।

जाति-उन्मूलन कंटेंट में जनवादी क्रांति की सीमा में बंधा होते हुए भी इस विशेषता से लैस है कि उसकी पूर्णाहुतिसर्वहारा क्रांति ही कर सकती है। जाति-उन्मूलन का कार्यक्रम जिस हद तक जनवादी क्रांति की सीमा में बंधा रहता है, उस हद तक वह जाति को खत्म करने में असफलता की संभावना की सीमा से भी बंधा रहता है। इसलिए मजदूर वर्ग के नेतृत्वकारी अगुआ दस्ते को इस पर अपनी दृष्टि साफ करनी चाहिए कि जाति-उन्मूलन की दृष्टि से ही नहीं, वैसे भी जनवादी क्रांति के बिल्कुल निकट में खड़ी, या उसके बिल्कुल सटे होने वाली सर्वहारा क्रांति की सोच के दायरे से मुक्त जनवादी क्रांति का कार्यक्रम लेनिनवादी सोच नहीं, एक दक्षिणपंथी सोच से ग्रस्त कार्यक्रम व नजरिया है।

महज जनवादी क्रांति के कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में जाति-उन्मूलन के कार्यक्रम की परिकल्पना इस विषय पर विश्व सर्वहारा दृष्टिकोण पर आधारित नहीं है। दूसरे शब्दों में, जनवादी क्रांति के कार्यक्रम से जाति उन्मूलन के कार्यक्रम को कसकर बांधे रखना (जकड़े रखना) एक दक्षिणपंथी सोच है। भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन के कार्यक्रम में जाति-उन्मूलन की एक पूरी मुकम्मल समझ व कार्यक्रम के न होने के पीछे यही कारण है। हमें इस पर स्पष्टता बनाने की जरूरत है, तभी जाति-उन्मूलन के एक क्रांतिकारी कार्यक्रम के बारे में सोचने की शुरुआत संभव हो पाएगी।

ऐसा कोई पूंजीवाद नहीं हो सकता है जो पुराने श्रम विभाजनों का उपयोग ना करे। क्रांति के पहले या उसके बाद भी यह असंभव है। हमारे यहां नव जनवादी क्रांति के कार्यक्रम में पूंजीवादी क्रांति को मजदूर वर्ग के नेतृत्व में होने वाली क्रांति के रूप में देखा जाता है। लेकिन व्यवहार में, यह बात कहीं दिखती नहीं है। उलटे, इस कार्यक्रम में सर्वहारा क्रांति एक अस्पृश्य चीज है। क्या यह महज एक व्यवहार में हुआ भटकाव है या सैद्धांतिक व राजनीतिक भटकाव है? हमारा मानना है कि यह भटकाव सिर्फ व्यवहार तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह भटकाव इतनी अधिक मात्रा में रही है कि उनका बेड़ा ही गर्क हो गया लगता है। जाति उन्मूलन करने के बदले वे इसमें समाते गये, ठीक वैसे ही जैसे आंदोलन का संशोधनवादी-अवसरवादी हिस्सा पूंजीवाद के पेट में समा गया, यानी पूंजीवाद द्वारा सहयोजित कर लिया गया। पूंजीवाद के बारे में एक बात स्पष्टता के साथ समझ लेनी चाहिए कि अगर शोषण का एक भी रूप बना रहेगा, तब तक पूंजीवाद भी बना रहेगा। इसलिए जाति, जिसकी उम्र हजारों सालों की है, के खात्मे का कार्यक्रम वही हो सकता है जो इसे जड़मूल से उखाड़ हवा के साथ उड़ा ले जाने व पूरी तरह नष्ट कर देने वाली शक्ति से लैस हो। ऐसी शक्ति मजदूर वर्गीय क्रांति के कार्यक्रम में ही होती है और हो सकती है। जाति उन्मूलन एक ऐसी जनक्रांति के कार्यक्रम की मांग करता है जिसका कार्यक्रम पूंजीवाद और पूंजीवाद से पहले के सारे शोषणकारी संबंधों को मिट्टी में मिला दे। यह काम आज मजदूर वर्ग के अलावा कोई और कर सकता है, ऐसा सोचने वाला कोई व्यक्ति या संगठन क्रांतिकारी नहीं हो सकता है, चाहे वह जितना ही बड़ा टैग सिर पर बांधे फिरता हो।

अमेरिकी क्रांति और फ्रेंच क्रांतिपूंजीवादी-जनवादी क्रांति के रूप में आम तौर पर मुकम्मल क्रांतियां थीं। लेकिन क्या वे भी नस्लवाद, काले व गोरे के भेद को मिटा सकीं? नहीं, नस्लवाद नहीं मिटा, उलटे वह आज पुनर्जीवित हो रहा है। अमेरिका में तो कभी मिटा ही नहीं, फ्रांस में जहां कल तक नहीं था आज वहां भी सर उठा रहा है और नवजीवन प्राप्त कर रहा है। यह इस बात का प्रमाण है कि आधुनिक पूंजीवाद से यह उम्मीद करना बेमानी ही नहीं बेईमानी भी है कि वह प्राकपूंजीवादी संबंधों को मिटा देगा, चाहे वह नस्लवाद हो या जातिवाद। पूंजीवाद पुराने श्रम विभाजनों को मिटाता नहीं है, उसे अपने अनुसार ढालता है और उपयोग करता है। ‘जाति’ और ‘नस्ल’ ही नहीं, स्त्री मुक्ति एवं और स्त्री-पुरूष विभाजन के साथ भी आधुनिक पूंजीवाद के रवैये को देखा जा सकता है। इसलिए जातिवाद, जो नस्लवाद का ही एक अलग रूप है, का खात्मा वही कार्यक्रम कर सकता है जो पूरी मानवजाति पर अंतहीन जुल्म ढाने वाले पूंजीवाद का भी जड़मूल से खात्मा करने की शक्ति व दिशा का वचन देता हो, इससे लैस हो। वह और कोई नहीं, सर्वहारा क्रांति का कार्यक्रम ही है, जो पुराने तमाम प्रतिक्रियावादी शक्तियों को पूरी तरह एक झटके में नष्ट करेगा। दूसरा और कोई कार्यक्रम नहीं है जो इसे कर सकता है। उलटे, आज जिस तरह से पूंजीवादी दुनिया के गर्भ से फासीवाद का राक्षस पैदा ले रहा है, उसके कारण ये सारी पुरानी सड़ी-गली चीजें (नस्लवाद, जातिवाद, स्त्री-पुरूष भेद और हर तरह के भेदभाव से भरी चीजें) फिर से पूरी शक्ति के साथ प्रकट हो रही हैं। उन्हें गजब की शक्ति प्राप्त हो रही है। पूंजीवाद जितना पुराना और बूढ़ा होता जाता है वह पुराने तमाम तरह के प्रतिक्रियावादी संबंधों की उर्वर भूमि बनता जाता है। आज वही हो रहा है। हम उसे अपने चारों ओर एवं आसपास घटित होते देख सकते हैं। भारत इसी दुनिया का एक पूंजीवादी देश है। भारत में पूंजीवाद शैशव काल या बाल्यकाल से निकल ‘अमृत काल’ मना रहा है, यानी अपने को शासन में बैठाने के पूरे 75 साल पूरा करने का जश्न मना रहा है। हालांकि उसकी भ्रुणावस्था से जोड़ें तो उसकी उम्र इससे कहीं अधिक होगी। क्या यह भी बूढ़ा नहीं हो गया है? क्या वह जरा सा भी ऐसा रह गया है जिसके किसी भी रूप में रहते जाति-उन्मूलन के बारे में विचार भी किया जा सकता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। यह इतना अधिक बूढ़ा हो गया है कि उसकी काया के पोर-पोर में जातिवादी-प्रतिक्रियावादी फोड़ा हो चुका है और उससे दुर्गंध से भरा मवाद बह रहा है। बदबू से वातावरण भरा है, खासकर जाति जैसे फोड़े की बदबू से। जिसे बहुत पहले ही खत्म हो जाना चाहिए था, वह आज तक जीवित है। उसकी सड़ी लाश पर ही पूंजीवाद खड़ा है। कम शब्दों में कहें, तो आज का भारत पूंजीवाद की हर तरह की विषबेल (जहरीले पौधे) के अंकुरने, पलने-बढ़ने, शक्ति ग्रहण करने, यानी सभी तरह की राक्षसी शक्तियों की उर्वर भूमि ही नहीं उसकी विचरण की भूमि एवं आखेट भूमि भी बन चुका है। यह वैश्विक वित्तीय पूंजी का एक मजबूत गढ़ बन चुका है। पूरी तरह सड़े पूंजीवाद ने मानव सभ्यता की इस महान भूमि (जिसकी मिसालें द्रविड़ सभ्यता में मिलती हैं) को भी इतना दूषित कर दिया है कि बहुत कुछ मिटाकर ही यहां जाति का उन्मूलन किया जा सकता है। सिर्फ जाति ही क्यों, बल्कि हर तरह के जहरीले झाड़-झंखाड़ को खत्म करना इस बात की पूर्व शर्त बन गया है कि पहले प्रतिक्रियावाद के इस गढ़ को ध्वस्त किया जाये, जिसकी मुख्य जिम्मेवारी क्रांतिकारी सर्वहारा की है। आज के समय में जातीय उत्पीड़न में वृद्धि के ग्राफ को देखते हुए इसे अन्य बड़े योद्धाओं की जरूरत है। इस रूप में, क्रांतिकारी सर्वहारा को पुराने एवं पूंजीवाद की तरह सड़ चुके दलितवाद की जगह एक क्रांतिकारी दलितवाद को जन्म देने की पीड़ा भी उठानी होगा।

जाति उन्मूलन के क्रांतिकारी सिद्धांत से जुड़े व्यवहारिक-सैद्धांतिक पहलू पर कुछ अहम सवाल-जवाब; पोलेमिकल हिस्सा

लेकिन क्या महज क्रांति जाति-उन्मूलन कर देगी या कर सकती है? क्या उसके पहले समाज को जाति से ही मुक्त करना (ध्यान दें, जाति से लड़ना नहीं जाति से मुक्त करना) जरूरी नहीं है? मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक पराजय के बाद के वर्षों में इस प्रश्न के सहारे एक कमजोर कम्युनिस्ट आंदोलन, जिसकी स्वयं की वैचारिक-राजनीतिक निष्ठा हिली हुई थी, के विरुद्ध इतने गोले दागे गये हैं कि अब यह मान लिया गया है कि हां, क्रांति के पहले ही जातिवाद से मुक्तिजरूरी है, नहीं तो क्रांति करना संभव ही नहीं है। इस तरह गाड़ी को घोड़े के आगे कर दिया गया। अंबेदकरवाद के सिद्धांत पर खड़े पुराने दलितवाद की यह एक बहुत बड़ी जीत थी या है। इसने कम्युनिस्ट आंदोलन को पहले की तुलना में और भी गहरे गर्त में धकेल दिया। इसने इतने जोर से धक्का दिया कि इसकी मौत होनी ही बस बाकी है। इसलिए कम्युनिस्ट आंदोलन जिंदा तो है, लेकिन एक ऐसे भूत की तरह जिसके पैर न सिर्फ मुंह की विपरीत दिशा में मुड़े हुए हैं, अपितु वह पैरों को छोड़ सिर पर चलने का आदी हो चुका है। इसलिए कम्युनिस्ट आंदोलन को पहले सीधे पैरों पर, वह भी दोनों पैरों पर, खड़ा करना जरूरी है।

आइए, उपरोक्त प्रश्नों पर बिना किसी हीले-हवाले के सीधे आया जाये।

‘क्रांति से पहले जाति खत्म करना होगा!’ क्रांति की सफलता पर पैदा हुए भ्रम से निकला भ्रम

यह भ्रम एक ऐसा भ्रम है जिसे बोया तो पुराने दलितवाद ने, लेकिन कालांतर में जिसका नया पैरोकार बन गया सैद्धांतिक मामलों में बुरी तरह कमजोर पड़ जाने वाला कम्युनिस्ट आंदोलन। वह इन हमलों से इसलिए घिर गया क्योंकि वह स्वयं इसमें घिरने के लिए जरूरी पतन की प्रक्रिया से पहले ही गुजर चुका था। उसने सर्वहारा क्रांति की दिशा ही नहीं, उसका सब कुछ छोड़ दिया, और इसलिए इसने आम तौर पर यह भूला दिया कि सर्वहारा क्रांति ही है जो पुराने सभी तरह के प्रतिक्रियावादी विचारों एवं संबंधों को न सिर्फ खत्म करेगी, बल्कि एक झटके में और संपूर्ण रूप से खत्म करेगी।

जब हम बोल्शेविक क्रांति के संपन्न होने के बारे में जॉन रीड की किताब ”दस दिन जब दुनिया हिल उठी” पढ़ते हैं तो रोमांचित हो उठते हैं, लेकिन जैसे ही यह कहा जाता है कि हां बोल्शेविक क्रांति की तरह की क्रांति भारत में भी हो सकती है जो एक झटके में जाति को खत्म कर देगी, तो हम अविश्वास से भर उठते हैं। है न अजीब बात! जी हां, हम ऐसी ही दर्जनों तरह की अजीबोगरीब बातें करने वाला हारा व थका हुआ आंदोलन बन चुके हैं। इसलिए ही हारी हुई सेना की तरह हर उस भ्रम से ग्रस्त हैं जिसे पहले ही निपटा दिया जा चुका है। इसके दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं।

हम पाते हैं कि, और यह हमारे लिए आश्चर्य की बात नहीं है कि, जब हम कहते हैं कि जाति का प्रश्न सर्वहारा क्रांति की विजय द्वारा चुटकी बजाते हल कर लिया जाएगा, या जब हम यह कहते हैं कि आने वाला दशक सर्वहारा क्रांति की विजय का दशक हो सकता है, तो बहुत लोग दर्द से चिहुंक उठते हैं, मानो क्रांति उनके ही विरुद्ध होने वाली है! लेनिन और बोल्शेविकों की धरती रूस में 1905 की जार विरोधी क्रांति की असफलता के बाद विसर्जनवाद से लेकर हर तरह के भगोड़ेपन से भरी प्रवृत्तियों ने इतने जोर से सिर उठाया था कि उसने लेनिन के नेतृत्व वाले बोल्शेविक संगठन को भी अपने आगोश में ले लिया था। हां, फर्क यह था कि जहां सब ने उस हमले के आगे सिर झुका लिया था लेनिन और उनके साथियों ने उससे संघर्ष किया और उसे हराया, अपने को हारी हुई मानसिकता एवं पराजयवादी धाराओं से मुक्त किया, अलग किया और 1910 में प्रथम विश्वयुद्ध की आहट को सुनते ही क्रांति की तैयारी में लग गये। उन्होंने जार विरोधी एक मजदूरों-किसानों की तानाशाही के परिणाम वाली जनवादी क्रांति के सिद्धांत को, जिसे वे पहले ही तैयार कर चुके थे, लागू करने में लग गये। यह जनवादी क्रांति की एक ऐसी अवधारणा थी जिस पर मजदूर वर्ग की छाप अंकित होनी थी, ताकि उस क्रांति से गुजरते हुए, और उस क्रांति से गुजरते वक्त ही, ठीक उसके बीचों-बीच से, सर्वहारा क्रांति के लिए निकल पड़ने का नीतिगत लचीलापन हो। क्या हम लेनिन पर हंसते हैं? हम नहीं हंसते हैं, लेकिन हंसने वाले लोगों की कमी नहीं थी। इसे दु:साहस कहने वालों में मेंशेविक ही नहीं, स्वयं प्लेखानोव और जर्मन क्रांतिकारी रोजा तक शामिल थीं। जब हम कहते हैं कि हमारी सांगठनिक कमजोरी व विखंडन से हमारी क्रांति की आशा, जो वस्तुगत परिस्थितियों की परिपक्वता से या उसकी ओर बढ़ने से पैदा होती है, नहीं खत्म होती है, तो इसे दुस्साहस कहने वाले कहां और किसके साथ खड़े हैं वे स्वयं सोच लें। बोल्शेविकों की सेंट्रल कमिटी में भी अंतिम समय तक क्रांति से हिचकिचाने वाले लोगों की कमी नहीं थी। यह लेनिन और उनके कुछ आगे बढ़े हुए साथियों की सुविचारित (सैद्धांतिक, राजनीतिक एवं व्यवहारिक) दृढ़ता ही थी जिसने बोल्शेविक क्रांति की परिकल्पना को साकार करने में सफलता पाई। हम उससे रोमांचित होते हैं, लेकिन उसकी हिम्मत दिखाने और उसके लिए तात्कालिक तौर पर अलगाव में पड़ने के खतरे उठाने से लेकर हर तरह के लांछन सहने के खतरे उठाने का वक्त आता है तो हम डर जाते हैं।

खैर, सवाल है कि क्या सर्वहारा क्रांति एक झटके में समाज को जातिवाद के जहर से मुक्त कर सकती है? जी हां, हम इसे मानते ही नहीं हैं, इस पर पूरा विश्वास भी करते हैं कि सर्वहारा क्रांति वास्तव में इसे एक झटके में खत्म कर सकती है। लेकिन सवाल यह है कि एक झटके को हम कैसे समझते हैं? इसे क्या समझते हैं?

क्या क्रांति चुपके से, किसी षड्यंत्र के तहत होगी और इसलिए इसके होने के पहले इसकी किसी को भनक भी नहीं लगेगी? क्या यह एकाएक स्वर्ग से धरती पर लगी सीढ़ी से उतरेगी? क्या यह किसी ईश्वरीय शक्ति की देन होगी? अगर हां, तब वैसी सर्वहारा क्रांति एक झटके में जाति को खत्म नहीं करेगी। हम अपनी बात वापस लेते हैं।

लेकिन अगर सर्वहारा क्रांति इसी धरती पर अपने दुश्मनों से लड़ते-भिड़ते होगी, दुश्मनों को हराते हुए होगी, यानी दुश्मनों की शक्ति को नष्ट करते हुए तथा उसकी वैचारिक श्रेष्ठता व बढ़त को भी परास्त करते व नष्ट करते हुए होगी, तो सर्वहारा क्रांति की विजय अवश्य ही एक झटके में जाति को खत्म कर देगी, क्योंकि इस एक झटके के पहले भी कई झटकों में, झटकों के एक सिलसिले के दौरान, यानी क्रांति के रास्ते में ही जातिवाद के ज्यादातर हिस्से को क्रांति खत्म चुकी होगी, क्योंकि ऐसा किये बिना क्रांति की विजय ही नहीं होगी। हम इस एक झटके को इस तरह समझते हैं और सही समझते हैं। हम इससे ज्यादा इस पर माथापच्ची नहीं करना चाहते, क्योंकि ऐसा करने का मतलब ही है कि हम पराजय के बोध से, इसलिए पराजय की मानसिकता और पराजय के भय से संचालित हो इस लड़ाई को शुरू करेंगे। इससे बेहतर है कि हम शुरू ही ना करें।

शोषण के सभी रूपों के खात्मे के क्रांतिकारी कार्यक्रम में जाति उन्मूलन एवं जातिवाद के विरुद्ध क्रांतिकारी लड़ाई वास्तव में किस तरह अंतर्गुंथित है, यह हमारे द्वारा ऊपर कही बातों में स्पष्ट होता है या हो जाना चाहिए। ऊपर कही हमारी बात में शोषण के सभी रूपों के विरुद्ध निर्णायक क्रांतिकारी लड़ाई और जाति-उन्मूलन व जाति को खत्म करने की लड़ाई अलग-अलग जगह पर खड़ी नहीं है। उसके प्रस्थान बिंदु अलग-अलग स्थित नहीं हैं। विचार के रूप में ये उन दो वैचारिक झरणों की तरह हैं जो एक ही चोटी से प्रस्फुटित हो रही जनधारा से बनी हैं। हम जातिवाद के एक रूप को जातिवाद के दूसरे रूप में अगर प्रतिस्थापित नहीं करना चाहते हैं, जो कि पुराने अंबेदकरवादी-आरक्षणवादी दलितवाद की मुख्य पहचान है, तो हमें इन दो झरणों को एक ही पहाड़ की चोटी से प्रस्फुटित हुआ मानना होगा, एक ही वैचारिक प्रकाशपुंज से निकली दो किरण पुंजों के रूप में इसे देखना व समझना होगा। दोनों को एक ही वैचारिक वृक्ष के फल के रूप में कल्पना करके चलना होगा, अन्यथा यह जाति को खत्म करने की लड़ाई नहीं, जातियों के एक गठबंधन के प्रभुत्व के विरुद्ध दूसरी जातियों के गठबंधन के प्रभुत्व की लड़ाई में तब्दील होगी, जैसा कि दिखनी शुरू भी हो चुकी है। गैर-अगड़ों में यादव बनाम दलित, दलितों में पासवान बनाम मुसहर या पूरे गैर-अगड़े में अन्य बनाम डोम की परिघटना आखिर क्या है? इसका सैद्धांतिक विश्लेषण आखिर और किस तरह किया जाएगा? उत्तर प्रदेश में जाटव या चमार बनाम अन्य के बीच जो प्रभुत्व की लड़ाई चलती है वह सूक्ष्म रूप में इसी सैद्धांतिक विश्लेषण में ही फिट बैठता है।

डॉ अंबेदकर ने इस तरह की बात नहीं की है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उनके सिद्धांत में निहित कमजोरियों, जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है, का अंतिम ठौर यही हो सकता था। राजकीय संरक्षण में आरक्षणवाद की नीति में सामूहिकता विरोधी व्यक्तिपरक सोच ही होती है। सुधारों की हर सोच में यह व्यक्तिपरकता मौजूद होती है। जब हम सीमित रूप से जमीन की कोई एक लड़ाई जीतते हैं, जिसे जनवादी क्रांति में आधा ईश्वर माना जाता है, तो उसमें भी क्या यही नहीं होता है? लड़ाई जीतने तक जो सामूहिकता होती है वह जीत के बाद जमीन के बंटवारे के वक्त आपसी झगड़े में तब्दील हो जाती है, वह भी इस बात पर कि अमुक को मिलने वाली जमीन का वह छोटा पट्टा किनारे में हैं या बीच में, सड़क की ओर है या पीछे की ओर है, नहर की तरफ मुंह किये है कि उसके पीछे मुंह किये है।

इसलिए निजी संपत्ति एवं पूंजी विरोधी, तथा सामाजिक एवं सामूहिक स्वामित्व की भावना से ओतप्रोत सर्वहारा क्रांति के निकटतम स्टेज के रूप में, सर्वहारा क्रांति के निकटतम सानिध्य में होने वाली जनवादी क्रांति ही, जिसके पूंजीवादी कंटेंट को चारों ओर से सर्वहारा वर्गीय सोच (सामाजिक स्वामित्व की वैचारिक सोच) के द्वारा पूरी तरह घेर लिया गया हो, ही मजदूर वर्ग के अधिकतम महत्व की चीज हो सकती है। तकनीकी तौर पर इसका नेतृत्व कोई कम्युनिस्ट पार्टी कर रही है इससे सारे मामलों का हल नहीं हो सकता है। क्या इसकी संभावना स्वतः ही खत्म हो जाती है कि कम्युनिस्ट पार्टी जनवादी पार्टी में तब्दील हो जाए? ठीक यही चीज जाति-उन्मूलन के जनवादी कार्यक्रम के साथ भी लागू होती है। पूंजीवादी राज्य के संरक्षण में आरक्षण की नीति में व्यक्तिपरक सोच हर तरफ से और हर ओर से मौजूद रहती है। इतने सालों के अनुभव के बाद भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना एक कठोर और साफ-साफ दिखाई देने वाली सच्चाई से आंख मूंद लेना है। रतौंधी का इलाज मेडिकल सायंस में विटामिन ए की गोली देकर आसानी से किया जा सकता है, दिन में आंखें खुली होने पर दिखाई नहीं देने का कोई इलाज नहीं है। ये आंखें ठीक रहते हुए भी नहीं देख पान की बीमारी है। इसे परवरिश की बीमारी भी कह सकते हैं। अगर बचपन में आंखें रहते और दिन के उजाले में भी साफ-साफ देखने की आदत नहीं कायम हुई है, तो फिर इसका इलाज प्रौढ़ावस्था में शायद संभव नहीं है।

क्रांति के दूर होने का तर्क जाति-उन्मूलन के क्रांतिकारी कार्यक्रम से भागने का कुतर्क है

एक तर्क यह भी है कि सर्वहारा क्रांति तो अभी दूर है, दूर ही नहीं असंभव भी प्रतीत होती है, तो क्या जाति के विरुद्ध नहीं लड़ा जाए? हम कहना चाहते हैं कि ऐसे लोगों को ‘भगवान’ सद्बुद्धि दे! जरूर लड़िये, बिना इस पर विश्वास किये लड़िये कि कभी सर्वहारा क्रांति होगी। बस ईमानदारी से, पुराने दलितवाद से पूरी तरह नाता तोड़ते हुए, नये सिरे से और अनवरत जाति के विरुद्ध लड़िये, इसे अंतत: खत्म करने के उद्घोष के साथ लड़ाई शुरू कीजिये, तब तक लड़िये जब तक कि जाति खत्म न हो जाए। आपको जादू दिखेगा। पहले आप स्वयं सर्वहारा क्रांति के सबसे बड़े समर्थक हो जाएंगे और फिर उसी सर्वहारा क्रांति के नायक बन कर प्रकट होंगे जिसके होने के बारे में आपको कल तक संदेह था।

हमने ऊपर विस्तार से लिखा है कि सर्वहारा क्रांति और जाति-उन्मूलन एक दूसरे के सहचर हैं, एक से शुरू करके दूसरे में जाया जा सकता है। सर्वहारा क्रांति में जो ईमानदारी से और पूरा डटकर लगे हैं, उन्हें भी यही जादू दिखेगा। वे देखेंगे कि जाति उन्मूलन जैसी उलझी चीज एकदम साफ चीज का नाम है, बशर्तें हम सर्वहारा क्रांति एवं जाति उत्पीड़न की लड़ाई से भाग खड़े हुए गद्दारों को नजदीक न फटकने दें, और जनवादी क्रांति की भिन्न-भिन्न धाराओं के उलझन में अपने आपको न डालें। दोनों चीजें, यानी सर्वहारा क्रांति और जाति-उन्मूलन, अगर ही एक ही वृक्ष के फल हैं, शोषण के हर रूप को उखाड़ फेंकने की एक ही वैचारिक वक्षस्थल से निकली आग हैं, एक ही संगीत के दो सूर हैं, तो दोनों चीजें वास्तव में दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं, नहीं हो सकती हैं। जो इसे एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करते हैं या इसमें पुराने दलितवाद और अंबेदकर को घुसाकर घालमेल करते हैं, वे भी जाति-उन्मूलन के कार्यक्रम के भगोड़े हैं। उन्हें इसी नाम से पुकारने का समय आ चुका है।

अगर मान लें कि जाति नहीं मिटेगी तो सर्वहारा क्रांति भी नहीं होगी, तो हम उनके जवाब में दावा ठोक कर कहना चाहते हैं कि तब जाति भी खत्म नहीं होगी। उसी तरह कुछ लोग यह कहते हैं कि अगर सर्वहारा क्रांति नहीं होगी तो जाति भी नहीं खत्म होगी, हम पूरी विनम्रता से उनसे कहना चाहते हैं कि ऐसा बोलने से पहले यह देख लीजिये कि आप दोनों को अलग-अलग प्रस्थान बिंदु से प्रस्फुटित होते तो नहीं देखते हैं। अगर हां, तो आप किसी काम के नहीं हैं, आप घालमेल करने वाले हैं। एक को दूसरे से अलग करने वाले हैं। लेकिन अगर आप ऐसा करने वालों में शामिल नहीं हैं तो फिर ठीक है, आपकी बात में कुछ दम है। बस बारीकी से यह समझना बाकी है कि यह दोनों के एक ही प्रस्थान बिंदु से प्रस्फुटित होने का ठीक-ठीक अर्थ क्या है। इसका अर्थ यह है कि एक की जीत की प्रक्रिया में दूसरे की जीत भी परवान चढ़ती रहती है, लेकिन अंत में सर्वहारा क्रांति की विजय ही है जो जाति पर फाइनल हथौड़ा चलाएगी। जाति-उन्मूलन पर विजयी सर्वहारा वर्ग के राज्य की जीत की मुहर लगनी जरूरी है। इस दोहरी लड़ाई में सर्वहारा क्रांति की विजय को सुनिश्चित करना इस अर्थ में, अंततोगत्वा के अर्थ में, आवश्यक है कि इस लड़ाई की परिणति या तो सर्वहारा राज्य के उदय में होगी या फिर बीच में ही पूंजीवादी राज्य की पुनर्स्थापना में। यानी, अगर सर्वहारा क्रांति विजयी नहीं हो पाती है या सर्वहारा राज्य को हमारी अपनी कमजोरियों या बाह्य कारणों से अंतत: पराजित होना पड़ता है, तो फिर जाति-उन्मूलन की विजय पूरी होकर भी पूरी नहीं हो सकेगी। जीती हुई विजय को भी घात लगाकर वार करने के जरिये से, दुश्मन को ठीक-ठीक नहीं पहचानने के फलस्वरूप, दुश्मन को दोस्त समझने की गलती की वजह से भी, पलटी जा सकती है। अनुभव बताता है कि खुली लड़ाई में वे हमें नहीं हरा सकेंगे।

सुधार व सुधारवाद; युद्धनीति के बतौर इसकी समझदारी

आरक्षण, भूमि सुधार या इसी तरह की कोई अन्य मांग पूंजीवाद को ध्वस्त करने के पहले की एक अंतरिम जनपक्षीय और जनवादी मांग है। लेकिन इसे महज मांग नहीं मानना चाहिए। यह गलती हो चुकी है और इससे होने वाली क्षति भी। कोई भी अंतरिम मांग शासक वर्ग बनने के लिए संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की (जी हां शासक वर्ग बनने में संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की ही, गद्दार महाशयों, चौंकिये मत!) अपनी शक्ति को मंजिल तक सुरक्षित रखने, आगे बढ़ने एवं फाइनल जीत तक कैसे जाया जाये, इसके लिए एक युद्धनीति भी होती है। यह पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने वाली क्रांति के संपन्न होने के पहले उसी पूंजीवादी व्यवस्था से कुछ सुधार करने की मांग होती है जिसके कई अर्थ होते हैं। यही स्थिति पूंजीपति वर्ग की होती है। उसके द्वारा किये गये सुधार भी उसकी युद्धनीति होती है।

सुनने में कुछ अजीब लग रहा है? हम जानते हैं इस तरह के प्रेजेंटेशन से कुछ लोगों को बहुत दिक्कत होती है। कोई बात नहीं। हम शांत चित्त हो चर्चा कर सकते हैं। हम सुधार की मांग करते हैं, इसका मतलब है कि हमारी यह एक ऐसी युद्धनीति है जिसके तहत हम दुश्मन से ही अपने लिए कुछ सुधार की मांग करते हैं। सवाल है, भला हमारा दुश्मन क्यों मानेगा? इसी प्रश्न में और इसके जवाब में सब कुछ छुपा हुआ है। बहुत लोग तो यह भी बोलेंगे कि इसमें क्या नई बात है। कम्युनिस्ट तो सुधारों के लिए लड़ने की घोषणा मार्क्स के जमाने से ही कर रहे हैं। लेकिन हम कहना चाहेंगे कि मार्क्स और लेनिन की बातों के प्रेजेंटेशन में ही तो विवाद का मूल है।

हम दुश्मन से ही सुधार की मांग करते हैं, और जब हम अपनी अंतरिम मांग जीत लेते हैं तो इसके बारे में एक प्रचलित धारणा यह है कि दुश्मन दबाव में आकर हमारी सुधार की मांग मानता है। ठीक है, एक हद तक यह सही भी है, लेकिन यही पूरी बात नहीं है। वह सिर्फ दबाव में आकर ही सुधार की मांग नहीं मानता या सुधार करता है। मूल बात यह है कि वह सुधार की मांग को अपने दुश्मन को, यहां हम क्रांतिकारियों के आंदोलन को, अपने में समाहित व सहयोजित करने की एक सुविचारित युद्धनीति का पालन भी करता है, जबकि हम महज यह मानते रहे हैं कि हमारा दुश्मन हार मानकर हमारी मांग मानता है। साफ है कि हम सुधार के लिए होने वाली जंग में शुरू से ही एक महत्वपूर्ण हथियार छोड़ कर लड़ने के लिए खड़े होते हैं। हम अपने दुश्मन को कम कर के आंकते हैं। मूल बात यह है कि अपने दुश्मन की युद्धनीति को समझने की कोशिश यहां गायब नहीं तो अनुपस्थित जरूर हो जाती है।

आरक्षण की मांग और आरक्षणवाद में वही अंतर है जो सुधार और सुधारवाद में है। लेकिन यह तो महज एक सूत्र है। इससे कैसे समझा जाए? सुधार क्रांति विरोधी नहीं भी होता है, लेकिन सुधारवाद क्रांति विरोधी चीज है। दूसरी बात तो साफ है, लेकिन पहली बात उलझी हुई है। सुधार तब क्रांति विरोधी हो जाता है जब हम यह भूल जाते हैं या उससे आंख मूंद लेते हैं कि इसकी जीत में पूंजीपति वर्ग की एक युद्धनीति शामिल है। हमारे आंदोलन और व्यवहार को देखिये, हम जो कहना चाहते हैं समझ में आ जाएगा। यह आंख मूंद लेना इतना प्रचलित रहा है कि आज पीछे मुड़कर देखने पर आश्चर्य ही आश्चर्य होता है।

कुछ सुधार पूंजीवाद स्वयं परिस्थितियों का आकलन करते हुए (जिसमें आंदोलन की शक्ति की गणना भी एक अवयव के रूप में अवश्य शामिल रहता है) लागू करता है। आरक्षण की नीति और इसके पैरोकार डॉ अंबेदकर कर देखें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि आरक्षण की नीति पूंजीपति वर्ग द्वारा ऊपर से लागू किया जाने वाला सुधार या सुधारात्मक कदम था जिसे खूब सोच-समझकर उठाया गया था। जब यह ऊपर से या इसके अपने (पूंजीवादी) सिद्धांतकारों के दबाव में लागू हुआ है, तो फिर हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि इसे लड़ाई से जीता गया है, हालांकि अप्रत्यक्ष रूप से हर सुधार लड़ाई का ही नतीजा होता है। इस बात में निहित सरलीकरण से बचना चाहिए। इसी तरह का एक और सुधार भूमि सुधार था या है। हम मान सकते हैं कि इसमें प्रत्यक्ष रूप से तेलंगाना किसान आंदोलन का प्रभाव काम कर रहा था, लेकिन हम तब भी कहेंगे कि इसके पीछे भारत में पूंजीवादी विकास कराने की एक सोची समझी रणनीति रही है। आरक्षण और भूमि सुधार दो ऐसे सुधार रहे हैं जिनके पीछे एक खास तरह की वर्गीय रणनीति थी जिसका मुकाबला करने में हमारा आंदोलन इसलिए सफल नहीं हो सका क्योंकि इसे आंदोलन की जीत के अतिसरलीकृत रूप में देखा व समझा गया, इसके वर्गीय स्वरूप को समझते हुए शुरू से ही इसका मुकाबला करने की कोई रणनीति हमारे पास नहीं थी। इसी का परिणाम हुआ कि भारत में क्रांतिकारी परिस्थिति के होते हुए भी क्रांति नहीं हो पाई। यहां यह इंगित करना जरूरी है कि सुधारों के वर्गीय स्वरूप को नहीं समझने की गलती सिर्फ सीपीआई या सीपीएम ने की बात, ऐसी बात नहीं है। लगभग पूरे आंदोलन की एक ही नियति बनी। नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के नेता चारू मजुमदार ने भूमि सुधार के वर्गीय चरित्र को जरूर समझा और शायद इसीलिए राजनीतिक सत्ता का सवाल उन्होंने शुरू से उठाया, लेकिन वह युग तो एक तरह के नहीं भिन्न-भिन्न तरह के अभिशापों से भरा था। वह इतने तरह के आवेगों से भरा था कि ठहर कर पूरी परिस्थिति और रणनीति पर बात करने की किसी को न तो फुर्सत थी न ही तमन्ना। भूमि सुधारों के वर्गीय स्वरूप को समझने की शुरुआती चेतना बाकी तरह के अति वाम भटकावों में कहां गुम हो गई आज तक किसी को पता नहीं चला। 1980 का दशक आते-आते हम पाते हैं कि पूरा आंदोलन वाम भटकाव से हट कर अंदर ही अंदर दक्षिणपंथ पर सवार हो चुका था। यह ठीक-ठीक कब और कैसे हुआ? इस पर जैसे तब बात करना मुश्किल था, आज भी मुश्किल ही है। पूरे भटकाव का संज्ञान न उस समय के सूरमाओं को हो पाया, न ही आज के सूरमाओं को है।

जिस तरह दलित उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ना दलितवाद नहीं है, वैसे ही आरक्षण के लिए लड़ना आरक्षणवाद नहीं है। लेकिन आरक्षण की वैचारिकी खुद के विकास (व्यक्तिपरक विकास) के गैर-जनपक्षीय सिद्धांत की वैचारिकी है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अंबेदकरवाद में निहित एकांगीपन के कारण दबे-कुचलों का आंदोलन नौकरी पाने, प्रोन्नति और पोस्टिंग के लिए संगठन बनाने की सीमा वाली वैचारिकी में पतित हो कर रह गया। वैसे इसके इस तरह से खड्ड में जा गिरने को वैचारिकी कहना भी कितना सही है यह विचार करने योग्य है।

दबे-कुचले समुदाय की लड़ाई के मोर्चे पर ‘क्रांतिकारी’ भटकाव

इस मोर्चे पर दिक्कतों की भरमार है। एक जाती है तो दूसरी आ जाती है। नई दिक्कत, जो अब पुरानी पड़ चुकी है, उत्तरआधुनिकतावाद (post-modernism) की तरफ से आने वाली दिक्कत है। कुछ क्रांतिकारी भी इसके प्रभाव में आकर जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ाई को एकांगी बनाने में लगे हैं। जहां डॉ अंबेदकर की सीमा शुरू होती है वहां से उनकी वैचारिकी के एकांगीपन को उत्तरआधुनिकतावाद की विचारधारा आगे नये आयाम में ले जाती है जिसके आगोश में स्वयं हमारे देश के ‘क्रांतिकारियों’ का एक बड़ा हिस्सा आ चुका है। जो कोई भी जाति प्रश्न का हल, व्यवहार में या सिद्धांत में, समग्रता में नहीं, टुकड़ों में देखते हैं या टुकड़ों में देखने के आदी हो चुके हैं वे सभी उत्तरआधुनिकतावाद के छुपे या खुले प्रभाव में आ चुके हैं। इसलिए जाति प्रश्न पर क्रांतिकारी पहुंच की बात आते ही यह संघर्ष क्रांतिकारी खेमे के अंदर के एक विशद सैद्धांतिक संघर्ष में बदल जाता है। हमें इस संघर्ष को चलाने लायक बनना होगा, अन्यथा शिकायत करना, रोना-धोना, फालतू में समय की बर्बादी है। जाहिर है, हम प्रवृत्तियों की बात करेंगे और किसी का नाम लेकर बात नहीं रखेंगे। जिन क्रांतिकारी संगठनों ने जाति प्रश्न को अपने कार्यक्रम का विशेष हिस्सा बनाया है, उनकी त्रासदी यह है कि उनमें से अधिकांश पर डॉ अंबेदकर के नाम एवं प्रतिष्ठा के उपयोग की सोच हावी है जिससे हमारा आंदोलन इस समस्या के हल से और दूर ही हुआ है। या यह कह सकते हैं कि जाति-उन्मूलन की लड़ाई से जुड़ी समस्या और अधिक उलझ गई है।

हम पाते हैं कि आज जब पुराना दलितवाद पूंजीवाद-फासीवाद से अपने विलय के बाद वास्तविक जीवन के संघर्ष से बाहर आ रहा है, और एक नये क्रांतिकारी दलितवाद (मूलतः पूंजीवाद विरोधी और मजदूर वर्ग का सहचर) के उभार की जरूरत पैदा हो गयी है, ठीक उसी वक्त पर उत्तरआधुनिकतावादी सोच के प्रभाव में आये क्रांतिकारी संगठन अंबेदकर और मार्क्स को मिलाकर एक अवसरवादी कॉकटेल तैयार कर मैदान में कूद गये। इसका उद्देश्य डॉ अंबेदकर की विचारधारा का उपयोग करना नहीं (उसमें अब उपयोग लायक कुछ बच नहीं गया है), अपितु इससे भी नीचे जा कर उनकी प्रतिष्ठा का उपयोग करना है जो वास्तव में एक छल है। इसलिए इसका प्रत्युत्तर भी एक पुराने छल से दिया गया। अंबेदकरवादी-आरक्षणवादी दलितवाद के समर्थक एकाएक धुर मार्क्स-विरोधी बन बैठे, कम्युनिस्टों पर निम्नतम स्तर के लांछन लगाने लगे। दलित वर्ग से आए बुद्धिजीवियों के बीच एक जबरदस्त कम्युनिस्ट-विरोधी उभार पैदा हुआ। इस कम्युनिस्ट-विरोधी उभार से पैदा हुए आवेग ने पुराने दलितवाद को पूंजीवाद-फासीवाद के पाले में जाने का एक और बहाना दिया, या उलट कर कहें तो फासिस्टों को इन्हें अपने में समाहित करने में और सहूलियत हुई। हम इसे एक षड्यंत्र (मार्क्स और अंबेदकर को मिलाकर दबे-कुचले लोगों के वोटों को हड़पने के षड्यंत्र) के विरुद्ध एक पुराने छल (आरक्षणवादी दलितवाद द्वारा दबे-कुचलों की मुक्ति का झूठा प्रचार) के बीच का निम्नस्तरीय संघर्ष कह सकते हैं जिसमें बलि का बकरा मार्क्सवाद को बनाया गया। जब उपयोगितावाद के टर्फ पर जाकर मार्क्स और अंबेदकर को आपस में मिलाने का प्रोजेक्ट प्रकट हुआ, तो यह सर्वप्रथम एक षड्यंत्र ही था जिसका उपयोग फासिस्ट, छद्म क्रांतिकारी एवं हर तरह के अवसरवादी ने शुरू कर दिया है। मार्क्स और अंबेदकर को मिलाना उपयोगितावाद का एक अवसरवादी सिद्धांत है जिसे दलितों का वोट झटकने वाला षड्यंत्र कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। स्वाभाविक तौर पर इसका पुराने दलितवाद के अंदर से तीखा विरोध हुआ या हो रहा है। इसका जो अंश फासिस्टों के साथ गया, उसकी कपाल क्रिया इतिहास स्वयं कर देगा या कर रहा है। बाकी की सड़ांध दशकों से प्रकट हो रही है। इससे अलग से लड़ने की कोई खास जरूरत नहीं है, सिवाय इसके कि दबे-कुचलों की लड़ाई तेज की जाए। तीसरे को ‘क्रांतिकारी’ ले उड़ने की फिराक में हैं। बाकी के अंश भिन्न-भिन्न तरह के अवसरवादी, जिनमें संशोधनवादी शामिल हैं, पहले से ही ले उड़े हैं। कहने का अर्थ है कि अनुपयोगी हो चुके हिस्से खप चुके हैं। उसके बाद जो पुराने दलितवाद में उपयोगी बचा है उस पर से पड़ी उत्तरआधुनिकतावाद की गंदगी की सफाई करते हुए बचे हुए हिस्से का पूरा परिमार्जन करना है जिसका भार क्रांतिकारी मजदूर वर्ग को लेना होगा। यानी, पुराने दलितवाद में जो कुछ भी ऊर्जावान व क्रांतिकारी एवं उज्ज्वल था और है, उसकी रक्षा करना एवं उसकी द्वंद्वात्मक सैद्धांतिक विवेचना कर उसे मजदूर वर्ग के सहचर व एक अनन्य मोर्चे के रूप में विकसित करने का काम एक अहम काम है जिसे हमें करना होगा।

वस्तुगत परिस्थितियां किस पक्ष में हैं, और इसका क्या अर्थ है?

हम जिस दशक में हैं और पूंजीवाद जिस तरह के विश्वव्यापी संकट में फंसा है, उससे पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर से चिंगारियां निकल रही हैं। वे चिंगारियां क्रांतिकारी परिस्थिति लाने में सक्षम होंगी कि नहीं, इस पर बहस करना बेकार है। मुख्य बात चिंगारियां ही हैं जिसकी ताप में वृद्धि संकट के और ज्यादा गहरा होने से होगी। यह बात अपने आप में वस्तुगत परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तन की ओर इशारा करती है। और इसलिए जो हमले हो रहे हैं और जिस तरह से इन हमलों के बढ़ने की आशंकाएं प्रकट हो रही हैं, उससे नये क्रांतिकारी दलितवाद के उभार की जमीन के बनने के आसार पैदा हो रहे हैं। एक क्रांतिकारी की तरह हम इन वस्तुगत परिस्थितियों पर भरोसा करते हैं। जहां तक आत्मगत तैयारियों की बात है तो वे कमजोर हैं लेकिन अनुपस्थित नहीं और वस्तुगत परिस्थितियों के उभार से वे मजबूत होंगी या उनके मजबूत होने की परिस्थिति पैदा होगी, क्योंकि पुराने दलितवाद का पूंजीवाद-फासीवाद समर्थक चेहरा और भी तेजी से बेनकाब होगा। जहां तक मार्क्सवाद की बात है तो हमारे पास द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जैसा विज्ञान है और हमारे आंदोलन में उसके उपयोग की क्षमता व बुद्धि दोनों मौजूद है। इन परिस्थितियों के भरोसे इस काम को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, हमें इसका पूरा भरोसा है। 

दूसरा भरोसा पुराने दलितवाद के अंदर का बढ़ता क्षरण है जिसकी गति फासीवादी हमलों के दौर में और तेज होगी। उसी से यह बात भी निकलती है कि अंबेदकर के उपयोग के सिद्धांत के तहत मार्क्स और अंबेदकर को मिलाने की परियोजना भी कामयाब नहीं होने वाली है। आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि पुराने दलितवाद की क्रांतिकारी एवं वैज्ञानिक तरीके से सैद्धांतिक एवं राजनीतिक कपाल क्रिया की जाए ताकि हम पूर्ण क्रांतिकारी बदलाव की विचारधारा और राजनीति से प्रेरित एक नये क्रांतिकारी दलितवाद को जन्म देने की पीड़ा का भार उठा सकें। इसके संपूर्ण अस्तित्व के निर्माण का  बीड़ा उठाना एक लंबी और कठिन लड़ाई शुरू करना है। लेकिन इसकी जिम्मेवारी लेने का समय ठीक वैसे ही आ चुका है जैसे कि चुनौतियों से भरे इस दशक में क्रांतिकारी आंदोलनों के उभार को जन्म देने का समय आ चुका है।

क्रांतिकारी दलितवाद की वैचारिकी की कुछ अन्य पूर्व शर्तें

अगर क्रांति हुई होती, तो जाति को अब तक नष्ट कर दिया गया होता। इतिहास के अजायबघर में पहुंचा दिया गया होता। लेकिन विडंबना यह है कि दबे-कुचले समुदाय से आये बुद्धिजीवी ही पूछते हैं – कम्युनिस्ट शासन या कम्युनिज्म, जिसका सार मजदूर वर्ग का राज्य और पूंजीपति वर्ग का नाश है, आज कहां और किस देश में टिका? वे दलितवादी नेता और बुद्धिजीवी बड़े शान से कहते हैं, हम अंबेदकर के सिपाही हैं। यह सच भी है, वर्तमान दौर पुराने दलितवाद का चरमोत्कर्ष काल है। अंबेदकर जितना आजादी के समय लोकप्रिय नहीं थे आज लोकप्रिय हैं। यहां तक कि गोलवलकर और सावरकर के वंशज भी उनका नाम शान से लेते हैं। पुराने दलितवाद के लिए यह एक उत्सव का माहौल है। दूसरी तरफ मजदूर वर्ग की ऐतिहासिक हार का वक्त है, मजदूर वर्ग की पराजय का चरमोत्कर्ष है! क्या हम इसका अर्थ समझते हैं? इसका एक अर्थ यह है कि पुराने दलितवाद के चरमोत्कर्ष का आधार मजदूर वर्ग की हार है। दलितवाद की जीत में मजदूर वर्ग की हार है, जबकि दलित ही मजदूर वर्ग का 99 फीसदी हिस्सा है। भला यह कैसे संभव हुआ? यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि दलितवाद पूंजीवादी विचारधारा है जिसका काम दलितों को पूंजीवाद से बांधे रखना है। तभी तो दलितवाद के चरमोत्कर्ष के साथ मजदूर वर्ग की हार हुई है। इसलिए जैसे ही मजदूर वर्ग की हार की पूर्णाहुति का वक्त आयेगा, जो कि आ चुका है, यानी जैसे ही मजदूर वर्ग विजयी रथ पर सवार होगा एवं पूंजीपति वर्ग को परास्त करने के कगार पर पहुंचेगा और लूट व शोषण के पूंजीवादी संबंधों को ही नहीं तमाम पुराने प्राक-पूंजीवादी संबंधों को नेस्तनाबूद करते हुए मजदूर वर्ग शासक वर्ग बनने की ओर उन्मुख होगा, पुराने दलितवाद, जो पूंजीवाद का दुर्ग बन चुका है, का अंत हो जाएगा। वह पुराने की जगह एक नये और क्रांतिकारी दलितवाद के उदय का समय होगा, जो दबे-कुचले समुदायों को पूंजीवाद से नहीं मजदूर वर्ग से ‘बांधेगा’। वास्तव में तो वह दलितवाद नहीं होगा, क्योंकि मजदूर वर्ग के राजनीतिक उत्कर्ष में दलितवाद की अलग से जरूरत नहीं होगी। लेकिन जिस हद तक जातीय उत्पीड़न है, उस हद तक क्रांतिकारी दलितवाद की प्रासंगिकता भी है और रहेगी। और तब चरमोत्कर्ष पर खड़े पुराने दलितवाद का अगला पग वहीं होगा जहां पूंजीवाद की कब्र होगी, यानी पूंजीवाद और उसका सहचर दलितवाद दोनों की हस्ती अब मिटने वाली है। विश्वव्यापी संकट से घिर चुके पूंजीवाद को इसके इस हस्र से अब कोई नहीं बचा सकता, स्वयं यह दलितवाद भी नहीं।  

कुछ लोग बड़े शान से यह पूछते हैं कि क्या मजदूर वर्ग के राज्य में, यानी कम्युनिज्म में जातिवाद नहीं रहेगा? वे समझते हैं यह इतना भारी सवाल है कि हम इसका जवाब ही नहीं दे सकते हैं। हम कहना चाहते हैं कि नहीं, कम्युनिज्म में जातिवाद क्या, कोई श्रम विभाजन और उस पर आधारित शोषण नहीं बचा रहेगा। हां, कम्युनिज्म की प्रथम अवस्था में पूंजीवाद के युग के अवशेष के रूप में यह हो सकता है कि जातिवाद के जहर का कुछ अंश बचा रह जाये। लेकिन कुछ अंश ही, नाम मात्र के ऐतिहासिक अवशेष के रूप में, एक विशालकाय पुराने किले के खंडहर के बतौर ही। इससे ज्यादा नहीं। हां, यह हो सकता है कि इस खंडहर में भी कुछ बड़े शातिर जातिवादी तत्व छुपे रह सकते हैं। लेकिन खंडहर में छुपने की जगह सीमित होती है। हम इसके बारे में पहले ही लिख चुके हैं कि अगर क्रांति के बाद भी जातिवाद बहुत हद तक बचा रह जाता है, तो फिर एक ही बात हो सकती है। वह यह कि क्रांति एक वास्तविक क्रांति नहीं थी। उसके वास्तव में होने पर ही प्रश्न उठेगा। बोल्शेविक क्रांति जैसी क्रांति भारत में सफल होती है, तो इसका एक ही मतलब होगा, वह यह कि क्रांति अपनी जीत के दौरान ही, जीत के रास्ते में ही, जीत की तूफानी क्रांतिकारी प्रक्रिया में ही इसे पूरी तरह बहा ले जाएगी। अगर नहीं, तो फिर भारत में क्रांति भी नहीं होगी। इसे किये बिना अगर क्रांति होगी, तो फिर पूरा शक किया जाना चाहिए कि सच में क्रांति हुई है या नहीं।

लेकिन हम मानते हैं कि जिस हद तक भी जाति रह जाएगी उस हद तक एक विशेष लड़ाई बाकी रहेगी। इसलिए ही हम क्रांतिकारी दलितवाद के एक नये उभार, जो मजदूर वर्ग के उभार के साथ ही साथ आकार लेगा, की बात कर रहे हैं। इसलिए ही जिस हद तक इस कोढ़ के बने रहने की संभावना है, उस हद तक एक नये क्रांतिकारी दलितवाद का अस्तित्व भी रहेगा जिसकी बात हम करते आ रहे हैं। वह क्रांतिकारी मजदूर वर्ग का ही एक अन्य मोर्चा होगा जिसकी जरूरत भारत में है हम यह मानते हैं। क्रांति की जीत के बाद इसके अवशेषों से निपटने का काम यही क्रांतिकारी दलितवाद सत्तासीन मजदूर वर्ग के साथ मिल के करेगा। ठीक वैसे ही जैसे सोवियत यूनियन में कार्यरत वर्कर्स एंड पेजेंट्स इंस्पेक्शन कमिटी (workers’ & peasants’ inspection committee) ने, जिसमें लेनिन मजदूर वर्ग के राज्य के कार्यकारी नियंत्रण के एक शक्तिशाली यंत्र की छवि देखते थे, ने किया था। इसका काम यह देखना होगा कि जातिवादी कोढ़ से बीमार लोग राजनीति से लेकर स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, खेल के मैदानों, संस्कृति एवं साहित्य के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों तथा स्वयं राज्य सत्ता के निकायों में, जिसका हिस्सा शुरू से ही काफी घट जाएगा क्योंकि प्रशासन का अधिकांश काम स्वयं हथियारबंद सर्वहारा एवं मेहनतकश वर्ग के जिम्मे होगा, कहां छुपकर मजे से आसन लगाये बैठे हैं। पूरा मेहनतकश वर्ग, जिसमें ज्यादातर वे ही होंगे तो कल के दबे-कुचले समुदाय के हिस्से थे, इसकी पड़ताल में लग जाएगा कि जाति की पुरानी बीमारी कहां और किस रूप में बची है। यह नहीं भूलना चाहिए कि कल के दबे-कुचले लोग ही मजदूर वर्ग के रूप में समाज और सत्ता के मालिक व नियंता होंगे। ऐसे में, अगर कुछ जातिवादी लोग कुछ गड़बड़ करते पाये जाते भी हैं तो वर्कर्स एंड पेजेंट्स इंस्पेक्शन की तरह ही जाति उन्मूलन के लिए बनी एक शक्तिशाली कमिटी, जो सर्वहारा राज्य सत्ता का एक अंग होगी, को यह शक्ति प्राप्त होगी कि वह तत्काल उन्हें सजा दे सके और उनकी उपस्थिति को भविष्य में भी अपरिहार्य रूप से असंभव बना दे। जाहिर है इस मोर्चे पर भी मजदूर वर्ग के वैसे सर्वोत्तम सपूत होंगे जो कल तक दबे-कुचले थे और नई परिस्थिति में समाज के सामूहिक स्वामी हैं। तब अल्पमत का नहीं, जैसा कि आज है, बहुमत सर्वहारा, मेहनतकश वर्ग, और कल के दबे-कुचले समुदाय से निकले मजदूर वर्ग का राज्य होगा। इस नजर से देखें, तो क्या ‘जाति’ से निपटना वास्तव में इतना मुश्किल होगा? नहीं, कतई नहीं। जो आज वास्तविक लड़ाई के मोर्चे पर हैं, उन्हें पता है कि छोटी लड़ाई की जीत से भी जातिवाद का जहर गायब होने लगता है, तो क्रांति की जीत के बाद तो इसे सर्वव्यापी रूप से और तत्काल ही खत्म किया जा सकता है। क्रांति के ज्वार में यह जहर भला कैसे बचा रहेगा? आज के जनतंत्र की तरह मात्र कानून नहीं होगा, कानूनों को लागू करने का हथियार भी होगा और ये हथियार भी आज के इन्हीं दबे-कुचलों (जो कल के स्वामी होंगे) के पास होगा। कानून को बनाने एवं लागू करने का काम, यानी दोनों कामों को स्वयं मेहनतकश मजदूर वर्ग करेगा। अफसरशाही की भूमिका खत्म हो जाएगी। शासन, प्रशासन और न्याय सब कुछ मजदूर वर्ग और उसके मानवमुक्ति अभियान के मातहत होगा, न कि मुनाफे के हितों के मातहत। कोई पूंजीपति नहीं होगा, न कोई जमींदार होगा। न कोई ठेकेदार होगा, न कोई मालिक। न मजदूर वर्ग चौराहों पर खड़ा अपने को बेचेगा, न ही उसकी श्रमशक्ति को कोई खरीदने वाला कोई मालिक ही होगा। सर्वहारा राज्य के अंतर्गत मजदूर वर्ग का अस्तित्व पुराने अर्थों में मिट जाएगा इसीलिए दबे-कुचले वर्ग का अस्तित्व भी अपने पुराने अर्थ में खत्म हो जाएगा। वह नये हालात में सामूहिक रूप से समाज का नेता और मालिक होगा। क्रांति इसी को कहते हैं। इसके बिना मजदूर क्रांति का कोई अभिप्राय नहीं हो सकता है। इसे ही हम एक झटके में जातीय उत्पीड़न तथा ब्राह्मणवाद का सफाया भी कहते हैं। इसीलिए एकमात्र क्रांति ही एक झटके में समाज को सुधार सकती है, और जातिवाद तथा ब्राह्मणवाद की कोढ़ से मानवजाति को मुक्ति दिला सकती है।

आइए, क्रांति के सहचर एक रूप में नये दलितवाद के उभार की तैयारी करें। आज का दलितवाद पूंजीवाद-ब्राह्मणवाद का सहचर है। नया दलितवाद नया ही नहीं मजदूर वर्ग का सहचर दलितवाद भी होगा। यानी यह पूरी तरह नया दलितवाद होगा। पुराने के दिन लद चुके हैं। नये के आगमन का वक्त है। जिस पीड़ा से दबे-कुचले वर्ग यानी मजदूर वर्ग गुजर रहा है, वह दरअसल एक नये क्रांतिकारी दलितवाद के जन्म के समय होने वाली प्रसव पीड़ा ही है। हमें इस प्रसव पीड़ा का एक नये युग के आगमन के पहले होने वाली पीड़ा के रूप में सामना करना होगा, ठीक वैसे ही जैसे हम इस दशक को क्रांति का दशक बनाने के लिए हर कष्ट और दमन झेलने की तैयारी करने की घोषणा कर चुके हैं। इसी अर्थ में हम पुरातन पर नये की जीत की बात कर रहे हैं; पूंजीवाद पर मजदूर वर्ग और क्रांतिकारी दलित उभार की मुकम्मल जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं।

साथियों, आज के चरम प्रतिक्रियावादी पूंजीवाद के दौर में अंतत: वही चीज जनपक्षीय है जो क्रांति विरोधी नहीं है। इस सूत्र को ही नहीं, इसके मर्म को भी ठीक से समझने की जरूरत है। कम से कम नयी पीढ़ी के युवा क्रांतिकारियों को तो इसे पूरे तौर पर समझना ही चाहिए। क्रांतिकारी आंदोलन के पुराने योद्धाओं पर इतिहास के पूर्वाग्रहों से पिंड छुड़ाने का दोहरा भार है, इसलिए उन्हें हम कुछ नहीं कहना चाहते हैं, लेकिन आज के उभरते युवा क्रांतिकारी साथियों से हम विशेष रूप से यह कहना चाहते हैं कि अगर वे भी इतिहास के उन्हीं आवेगपूर्ण पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहते हैं, या उनसे मुक्त व स्वतंत्र होकर नहीं सोचते हैं, मार्क्सवाद-लेनिनवाद की क्रांतिकारी भावना के प्रति पूर्ण निष्ठा और लगन के साथ-साथ नई परिस्थिति में नए तरीके से नहीं सोचते हैं, हालांकि इसमें झूले का इस पार से उस पार चले जाने का खतरा भी है, तो आने वाले भविष्य में वे भारी आलोचना के पात्र होंगे। और मैं यह काम अभी से कर रहा हूं, और पूरे डंके की चोट पर कर रहा हूं।