उन्मुक्त स्त्रीत्व

March 13, 2023 0 By Yatharth

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर

रामवृक्ष बेनीपुरी

भाग – 1

सोवियत संघ में स्त्रीत्व ने एक नये संसार में प्रवेश किया है। सोवियत नारियां पुरुषों के साथ एक नयी समता का उपभोग करती हैं- चाहे वे जिस क्षेत्र में भी हों- शिक्षा में, राजनीति में, उद्योग में, पद-मर्यादा में, संस्कृति में। जारशाही से बढ़कर स्त्रियों को गुलाम बनाने वाला कोई राज्य संसार में नहीं था, सोवियत शासन से बढ़कर उन्हें उन्मुक्त करने वाली संसार में कोई शासन पद्धति नहीं है।

लेकिन यह मुक्ति उन्हें मुफ्त नहीं मिली है। उन्होंने यह कीमती चीज अपने हृदयरक्त के दाम पर खरीदी है।

1917 में क्रांति के जिस तूफान ने पुरानी इमारतों को ढहाकर, एक नयी इमारत की नींव के लिए जमीन खाली कर दी, वह आंधियों की लंबी जंजीर की एक कड़ी मात्र था। कितने दिनों से संघर्षों का एक सिलसिला जारी था, जिसमें स्त्रियों का हिस्सा मामूली नहीं था। कितनी ही बार उन्होंने पुरुषों का पथप्रदर्शन किया।

युगों से रूस की स्त्रियां गुलामी की बेड़ी से जकड़ी थीं। ईसा की पवित्र वेदी को छूने तक का उन्हें अधिकार नहीं था। शादी के मौके पर पुरुष सोने की अंगूठियों के हकदार थे, स्त्रियों को लोहे की काली अंगूठियों पर संतोष करना पड़ता था। रूस के पोप ने फरमान निकाला था- औरतें मर्दों की व्यक्तिगत सम्पति हैं। अगर कोई स्त्री अपने पति की बात नहीं मानती तो उसे कोड़ों से पीटा जाना चाहिए। कोड़ों की चोट पीड़ा देती है, वह तुरंत होश दुरुस्त करती और आगे के लिए चेतावनी बनती है।

लेकिन इन राक्षसी फरमानों के बावजूद रूस की औरतों में मानवी भावनाएं मरने नहीं पायीं। जारशाही के विरुद्ध जब लोगों के मन में विद्रोह भावना हुई, कितने ही बड़े-बड़े अफसर, कितने ही बड़े-बड़े विद्वान उस आंदोलन में आये। उन्हें साइबेरिया का वनवास मिला। उनकी पतिपरायण पत्नी घर छोड़, घर का वैभव, विलास और बच्चों तक को छोड़कर सीता की तरह उनके पीछे वनवासिनी हुई। साइबेरिया के संकटों को उनके पास रहकर हंसते-हंसते झेला।

पिछली शताब्दी के दूसरे हिस्से में कितनी ही पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने शहरों को छोड़, वहां की सुख-सुविधा, औज-मौज को छोड़, देहातों में गयीं और सूखी रोटी पर गुजर करती, लोगों की शिक्षा-दीक्षा में, उनमें जागृति पैदा करने में अपने को बिल्कुल खपा दिया। बैकुनिन के प्रभाव में आकर कितनी ही युवक-युवतियां विश्वविद्यालयों को छोड़कर जनता के बीच उससे ‘सबक सीखने’ गयीं।

जार के न्यायमंत्री ने 1877 में कहा था- “क्रांतिकारियों की सफलता का कारण उनके अंदर स्त्रियों का होना है।” पढ़ी-लिखी स्त्रियां कारखानों में सोलह घंटे काम करने के बाद मजदूरों के बारिक के गंदे, रूखे वातावरण में रहकर, क्रांतिकारी प्रचार में दिन-रात लगी रहतीं। जारशाही का दमन उनके दिल को कभी पस्त नहीं कर सका। मौत को उन्होंने हमेशा ही हिकारत और उपेक्षा की नजर से देखा। कठिनाइयां उनकी ताकत को बढ़ाती ही गयीं।

ये क्रांतिकारी स्त्रियां ज्यादातर नवयुवती थीं। पढ़ी-लिखी, दिमाग और दिल की धनी। कितनी ही अनिद्य सुंदरी और कला की भावना से ओतप्रोत। कोई भी युवक उनका हाथ लेकर अपने को धन्य मान सकता था। किंतु उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रेम को देशप्रेम में इस तरह परिणत कर दिया था कि शादी-ब्याह की उनके दिल में जगह ही नहीं रह गयी थी। उनका चरित्र दर्पण-सा उज्ज्वल; बलिदान भावना की आग में तपी वे कुंदन-सी चमकतीं!

मास्को से सुदूर साखालिन तक उनकी जंजीरों से झन-झनाता रहता। उन पर होने वाले अत्याचारों की गिनती नहीं। कठोर कारागारों और वनवासों में वे अपने युवक साथियों के साथ रहतीं। एक परिवार के व्यक्तियों की तरह एक-दूसरे के सुख-दुख में हाथ बंटातीं। सभी सामाजिक बंधन दमन की इस आग में जल-से गये। उनके बदले समानता के आधार पर बौद्धिक और हार्दिक सहमति और सहयोग की नींव पर एक नवीन सम्बंध पैदा हुआ। जंजीरों की झंकारों में पलने वाला यह सम्बंध ही, स्वाधीनता प्राप्त होने पर, स्त्री-पुरुष के परस्पर सम्बंध का मूलाधार हुआ। वहीं रहते, उनमें पढ़ने का चस्का बढ़ा। जो मूर्ख थीं उन्होंने लिखना पढ़ना सीखा, जो पीढ़ी पढ़ी-लिखी थीं; उन्होंने उच्च शिक्षा पर ध्यान दिया; जो विदुषी थीं उन्होंने भिन्न-भिन्न विषयों पर और अधिक व्युत्पन्नता प्राप्त की।

पढ़ी-लिखी युवतियों में क्रांतिकारी आंदोलन को बढ़ते देख 1887 में जार ने अपनी मंत्री को कहा- “अब अधिक शिक्षा नहीं।” स्त्रियों के जितने कॉलेज थे, सब बंद कर दिये गये। लेकिन इसका नतीजा? क्या स्त्रियों ने पढ़ना छोड़ा। नहीं; वे जर्मनी गयीं, जहां लिब्तक्नेख्त वगैरह साम्यवादियों के प्रभाव में आयीं। वेरा सैसुलिच स्विट्जरलैंड गयी और वहां मार्क्स और एंगेल्स के प्रभाव में आकर साम्यवादी बनी और अपनी जिंदगी के चालीसवें वर्ष में कितनी ही साम्यवादी पुस्तकों से रूस के साहित्य भंडार को भरा। अपनी जिंदगी का उसने अपने मित्र के पास पत्र में यों वर्णन किया — महीनों तक शायद ही मैंने किसी से बातें की हों। संगी-साथी से विहीन, एकांत और जनहीन कमरे में बैठी, कॉफी और चाय पी-पीकर मैंने अपना काम जारी रखा। रात के दो बजे के पहले शायद ही मैंने कभी आंखें झपकाई ।

जब रूस का औद्योगिक विकास हुआ और वहां मजदूर वर्ग का जन्म हुआ 1895 में मजदूर मुक्ति संघ का संगठन हुआ। लेनिन इसके एक सदस्य थे। उसकी कार्य समिति में चार स्त्रियां थीं। उनमें एक थी क्रुप्सकाया। क्रुप्सकाया ने ग्रामर स्कूल की शिक्षा समाप्त कर शिक्षा सम्बंधी सिद्धांतों का अध्ययन शुरू किया। इसी अध्ययन के दरम्यान उसका सम्पर्क क्रांतिकारी समूह से हुआ। मार्क्स के सिद्धांतों ने उसे ज्यादा प्रभावित किया। वह सेंटपीटर्सबर्ग के मजदूर कॉलेज में अध्यापिका का काम करने लगी। उसके कितने ही शिष्यों ने रूस के साम्यवादी आंदोलन में बड़ा भाग लिया। अंततः वह गिरफ्तार की गयी और तीन वर्षों के लिए साइबेरिया का वनवास उसे मिला। साइबेरिया में ही उस समय लेनिन भी वनवासी थे। दोनों में घनिष्टता बढ़ी, दोनों ने एक-दूसरे पर अपने को न्योछावर किया। छुटकारा मिलते ही लेनिन लंदन आए और वहां से अपना पत्र ‘इस्क्रा’ (स्फुलिंग) निकाला। क्रुप्सकाया भी वहां पहुंची और वह उसकी प्रबंध सम्पादिका बनी। पीछे वह क्रांति की माता की हैसियत से मशहूर हुई।

रूस में मजदूर आंदोलन बढ़ने पर उसमें औरतों ने बहुत बड़ा हिस्सा लिया। हड़ताल कराने में उनका मुख्य हाथ रहता था। सूती मिलें अशांति का अड्डा थीं, क्योंकि उनमें सस्ती मजदूरी पर औरतें काम में लगायी जाती थीं।

1905 में जो ‘खूनी रविवार’ हुआ उसमें औरतों का भाग कुछ कम नहीं था। जिस समय जुलूस जार के महल की ओर जाने की तैयारी में था, एक मजदूर औरत कैरेलीना ने कहा— “माताओ और देवियो! अपने बच्चों, पतियों और भाइयों को उचित और न्यायपूर्ण काम के लिए जान पर खतरा लेने से मत रोको। हमारे साथ बढ़ो। अगर हम पर चढ़ाई की जाये या गोलियां चलायी जायें तो रोओ मत, बिलखो मत। माता मैरी के नाम पर हंसते-हंसते गोलियां खाओ।” सभी स्त्रियों ने एक स्वर में कहा- हम सब तुम्हारे साथ हैं और वे साथ ही बढ़ीं। जार के भेड़ियों की गोलियों से जो एक हजार आदमी मारे गये थे, उनमें औरतों और उनके बच्चों की तादाद भी कम नहीं थी। एक स्त्री को चार गोलियां लगी थीं। मरते समय वह बोली- मुझे उसका अफसोस नहीं है, मैं सानंद मर रही हूं।

‘खूनी रविवार’ के कांड को फिर ओडेसा में दुहराया गया! ओडेसा के इस आंदोलन में स्मीदोविच नामक युवती का बड़ा हाथ था। उसकी हिम्मत की तरह ही उसकी सूझ भी थी। एक बार वह कीव में गिरफ्तार की गयी, जबकि वह ‘इस्क्रा’ की कापियां वितरण कर रही थी। गिरफ्तार कर वह थाने में लायी गयी। थाने में आकर उसने स्नानगृह में जाने की इजाजत मांगी। स्नानगृह में जाकर उसनें अपनी कीमती ऊनी पोशाक और टोपी झटपट उतार दी। सिर में रूमाल बांधा और इस पोशाक के नीचे ऐसी ही जरूरत के वक्त के लिए जो फटी-बिटी पोशाक वह पहने रहती थी, उसी को पहने वह निकल गयी। बात-की-बात में उसका भेस इतना बदल गया था कि बेचारे पुलिसवाले उसे पहचान भी नहीं सके। सौ वर्षों तक रूस की महिलाओं ने क्रांति के लिए जो असाध्य साधन किये थे उसी का यह नतीजा था कि क्रांति की सफलता के बाद ही उन्हें वह पद-मर्यादा प्राप्त हुई जो अन्य देशों में नहीं देखी जा सकती।

1917 की क्रांति में भी उनका कोई कम हिस्सा नहीं रहा है। स्त्रियों ने जो कुछ किया, उसका वर्णन क्रांति के आचार्य लेनिन के मुंह से ही सुनिये – “पेट्रोग्राद में, मास्को में, दूसरे शहरों और उद्योग-केंद्रों में, देहातों तक में स्त्रियां क्रांति की इस परीक्षा में सोलह आने सफल उतरी हैं। उनके बिना हम विजयी हो नहीं सकते थे या मुश्किल से होते। यह मेरा सोचा-समझा विचार है। उफ, वे कितनी बहादुर हैं! उनकी बहादुरी जिंदा रहे। जरा उनकी तकलीफों और संकटों की कल्पना कीजिए, जिन्हें उन्होंने हंसते-हंसते बर्दाश्त किया है। ऐसा उन्होंने क्यों किया? क्योंकि वे सोवियत कायम करना चाहती थीं, क्योंकि वे स्वाधीनता चाहती थीं।”

भाग – 2

ज्यों ही जारशाही खत्म हुई और साम्यवादी शासन का श्रीगणेश हुआ, त्यों ही स्त्रियों को मातहती या गुलामी में रखने वाले सभी पुराने कानूनों को कलम के एक ही झटके में रद्द कर दिया गया। लेनिन ने वज्रवाणी की – “साम्यवाद की क्या बात, सम्पूर्ण जनतंत्र भी तब तक सम्भव नहीं, जब तक स्त्रियां देश के राजनीतिक जीवन और समाज के सार्वजनिक जीवन में अपने न्यायोचित पद को स्थायी रूप से प्राप्त नहीं कर लेतीं।” बाईस वर्ष के बाद जब 1938 में सोवियत का नया विधान बना, उसमें उल्लेख किया गया-

“सोवियत संघ में स्त्रियों को आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में पुरुषों की बराबरी का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार के अनुसार स्त्रियों को मर्दों के समान ही काम करने, पारिश्रमिक पाने, आराम करने, शिक्षा पाने, सामाजिक बीमा की सुविधा उठाने के हकों के आलावा माताओं और बच्चों को राज्य का अभिरक्षण प्राप्त हैं, गर्भवती की हालत में छुट्टी और वेतन का बंदोबस्त है और मातृगृहों, शिशु भवनों और किंडरगार्डन का जाल संघ भर में बिछा हुआ है।”

इस उद्धरण से सोवियत संघ में औरतों का दर्जा साफ हो जाता है। यह केवल कागजी बात नहीं है, इसे बड़ी सख्ती से काम में लाया जाता है। स्त्रियों के बारे में जो बद्धमूल धारणाएं थी, उन पर विजय प्राप्त की जा चुकी है और उद्योग, अन्य पेशे, कला और विज्ञान- सबके दरवाजे स्त्रियों के लिए समान रूप से खुले हुए हैं।

शुरू से ही स्त्रियों ने अपने को इस बराबरी के दर्जे के योग्य साबित किया है। साथी की तरह वे मर्दों की बगल में जाकर खड़ी हुईं और अपने को उनकी योग्य साथी उन्होंने सिद्ध कर दिखाया है। जिस समय गृहयुद्ध जारी था, स्त्रियों ने अपने नाम सिपाही में लिखाये, घुड़सवारी की, मशीनगनें चलायीं। जब कार्निलोव अपनी फौज लिये लेनिनग्राद की ओर दौड़ा आ रहा था, दो लाख स्त्रियां मोर्चे पर जा डटीं। प्लौतनिकौवा उस समय बच्ची-सी ही थी। जोन ऑफ आर्क की तरह उसने उन्नीसवीं घुड़सवार पल्टन को भागते हुए से रोक लिया। अपने घोड़े को फंदाती, उछालती वह दुश्मन पर चढ़ दौड़ी। समूची पल्टन उसके पीछे हो ली। नतीजा? दुश्मन भागा, क्रांति की जय हुई। वह बेचारी इतनी घायल हो गयी थी कि उसे टांगकर छावनी में लाया गया।

जब गृहयुद्ध समाप्त हुआ, स्त्रियां उसी उत्साह से साम्यवाद के निर्माण में जुट पड़ीं। वे कारखाने में घुसीं। महीन कारीगरी के कामों में भी उन्होंने अपनी धाक जमायी। घर में काम करते रहने के कारण उनमें अनुशासन का माद्दा इतना अधिक रहता है कि उद्योग में, जहां अनुशासन की बड़ी जरूरत है, वे खूब काम की सिद्ध हुई। पुराने मैनेजरों या कारीगरों को, जिनके मन में यह धारणा थी कि औरतों में टेक्निकल काम करने की योग्यता नहीं है, उन्हें अपनी राय बदलनी पड़ी। एक उदाहरण। 1925 में लेनिनग्राद के ट्रैक्टर के कारखाने में मजदूरों की कमी हुई। मजदूर भरती करने वाले विभाग ने स्त्रियों को वहां भेजा। मैनेजर झल्ला उठा-ये नाजुक कलाइयां, क्या इतना भारी काम कर पायेंगी? लेकिन भरती विभाग ने जोर दिया, इन्हीं से काम लेना होगा। वे काम में ली गयीं। पहले तो बहुत दिक्कत हुई, किंतु इन स्त्रियों में धुन थी, पकड़ थी। एक दिन आया और वह दिन तुरंत ही आया, जब मैनेजर ने लिखा- “इन स्त्रियों के काम की सिफ्त या तादाद के बारे में कोई शिकायत करने की गुंजाइश नहीं रह गयी। वे अपने काम में मुस्तैदी से डटी रहती हैं और कल-पुर्जों की देख-रेख बड़ी होशियारी से करती हैं।”

स्त्रियों ने अपनी योग्यता बड़ी तेजी से बढ़ायी। 1937 में उद्योग-धंधों के पेशों की उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों में स्त्रियों की संख्या इक्तालीस फी सैकड़े थी। एक लाख से ज्यादा स्त्रियां इंजीनियर या टेकनीशियन के पदों पर सोवियत संघ के भिन्न-भिन्न उद्योग-धंधों में काम करती हैं। इतनी ही संख्या उन स्त्रियों की होगी जिन्होंने काम की प्रतियोगिताओं में मर्दों के साथ सम्मान या विशेषत्व प्राप्त किया है। दौस्सिया और मैरोसिया स्त्रियां थीं न, जिन्होंने सूती उद्योग में पैदावार बढ़ाने का श्रेय प्राप्त किया है। हर एकड़ में बीस टन मीठी चुकंदर पैदा कर के मैरिया ने कृषि क्षेत्र में नाम पाया है।

स्त्रियों के लिए सब कामों का दरवाजा खोलने के साथ-ही-साथ उनके लिए पुरुषों के बराबर ही पारिश्रमिक का प्रबंध किया गया है। संसार में रूस ही ऐसा देश है, जहां स्त्रियों को पुरुष के बराबर मजदूरी और मुशाहरा मिलता है। इस बराबरी को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए जरूरी यह समझा गया कि जब स्त्री गर्भवती हों, तो न सिर्फ उन्हें लंबी छुट्टी मिले, बल्कि पूरा मुशाहरा भी भत्ते के रूप में मिले। सोवियत संघ अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिए मातृत्व को प्रोत्साहन देता है। विवाहित स्त्रियों के लिए अन्य देशों की तरह कुछ पेशे वर्जित नहीं हैं। हां, भारी बोझ उठाने आदि के कामों में, उनके स्वास्थ्य को दृष्टि में रखकर उन्हें नहीं लगाया जाता। बच्चा होने का खर्च ही सोवियत बर्दाश्त नहीं करती, बच्चों के लालन-पालन के लिए भी वह कुछ उठा नहीं रखती है। जगह-जगह ऐसे शिशुगृह हैं, जहां काम के वक्त स्त्रियां अपने बच्चों को रख सकें। वहां चतुर दाइयां बच्चे की देखभाल करतीं हैं। बड़े-बड़े सार्वजनिक भोजनालय कायम करके औरतों को घरेलू झंझटों से मुक्ति दिलाने का भी आयोजन किया गया है।

काम करने, बराबर वेतन पाने, घरेलू झंझटों से छुटकारा पाने के साथ-ही-साथ सोवियत संघ ने स्त्रियों के लिए और भी कितने ही उपयोगी काम किये हैं।

विवाह करने या नहीं करने के बारे में स्त्रियों को पूरी आजादी दी गयी है। शादी के साथ रुपये या परिवेश के सम्बंध को बिल्कुल खत्म कर दिया गया है। शादी को प्रेम की पवित्र नींव पर वहां प्रतिष्ठित किया गया है। रुपये या जीविका की झंझटों के कारण विवाह में वहां रुकावट नहीं होती। विवाह के चलते वहां स्त्रियों की जीविका नहीं छीनी जाती। पति-पत्नी विवाह के बाद भी अपने-अपने पेशे में लगे रहते हैं। पति सम्पादक का काम कर रहा है, पत्नी पथप्रदर्शिका का। दोनों कमाते हैं। जरूरत होने पर एक-दूसरे से हाथ-फेरे करते हैं। आर्थिक दृष्टि से दोनों स्वतंत्र हैं।

स्त्रियां अधिक-से-अधिक बच्चे पैदा करने में आजाद हैं। बड़े परिवार की आर्थिक झंझटों से बचने के लिए संतान निग्रह की शरण में जाने की जरूरत नहीं। सोवियत उनके बच्चों की यथार्थ माता है और उसे ज्यादा-से-ज्यादा कमाऊ पूतों की जरूरत है। रूस में जन्म का रेट यूरोप भर से अधिक है। प्रारम्भिक वर्षों में जो युद्ध के अवसाद से माता-पिता खिन्न थे, जब अकाल का दौर था, गर्भपात को कानूनी जायज करार दिया गया था – बशर्ते कि वह स्वास्थ्यकर ढंग से और प्रकट रूप में हो। लेकिन 1936 में उसे कानूनन रोक दिया गया है और यह जनता की सहमति से।

सोवियत को कमाऊ पूतों की जरूरत है, इसलिए अधिक बच्चों की माताओं को अतिरिक्त आर्थिक सहायता दी जाती है। छः बच्चों की मां को इसके बाद हर बच्चे पर जहां दो हजार रुबल सालाना वजीफा भी वर्षों तक मिलता है, वहां दस बच्चों की मां को इसके बाद हर बच्चे पर पांच हजार की भेंट बच्चे के जन्म के अवसर पर और तीन हजार रूबल सालाना वजीफा चार वर्षों तक मिलता है। 1937 के पांच महीने में सोवियत संघ के अंदर तेरह लाख पचहत्तर हजार बच्चों का जन्म हुआ। पूरे फिनलैंड की जनसंख्या इससे ज्यादा नहीं है।

स्त्रियों को पति छोड़ने या तलाक देने का पूरा अधिकार प्राप्त है। लेकिन ऐसा करने से उन्हें यथासंभव रोका जाता है। पति या पत्नी दोनों में से किसी एक के चाहने पर कानूनन तलाक तुरंत मिल जाता है, लेकिन बार-बार के तलाक और पुनर्विवाह की सख्त निंदा की जाती है और जब बच्चे हों तब दोनों को उनका खर्च बर्दाश्त करने को बाध्य किया जाता है। रूस में तलाकों की संख्या दिनों-दिन कम हो रही है। पारिवारिक जीवन की कद्र करने पर जोर दिया जाता है। साम्यवादी सरकार बच्चों के लिए कुछ करने से बाज नहीं आती, तो भी माता-पिता को अपने कर्तव्य पालन के लिए उत्साहित किया जाता है। अगर माता-पिता इस कर्तव्य में त्रुटि करते हैं तो उन पर मुकदमा तक चलाया जाता है और कैद की सजा तक उन्हें भुगतनी पड़ती है।

वेश्यावृत्ति का तो वहां नामोनिशान तक नहीं है।

एक पत्नीव्रत या एक पतिव्रत को हर तरह से उत्साहित किया जाता है। इसके बारे में लेनिन की राय बड़ी ही उपदेशप्रद है। नये नैतिक नियम के नाम पर उच्छृंखल प्रेम या भ्रमरवृत्ति को वह बुरी नजर से देखते थे और उसे पूंजीवादी वेश्यावृत्ति का नया संस्करण मात्र मानते। काम पिपासा की शांति तो प्यास लगने पर एक गिलास पानी पीने की तरह एक मामूली-सी बात है, जो लोग इस प्रकार की बहकी बातें करते फिरते थे, उन लोगों को उन्होंने जवाब दिया था – “क्या कोई स्वस्थ आदमी, होश-हवाश दुरुस्त रहते, प्यास लगने पर गलीज में घुसकर नाबदान का पानी पियेगा? या वह एक ऐसे गिलास में पानी पीयेगा, जिसमें कितने ही होठों के लार और थूक लगे हों!” यह तो साम्यवाद के दुश्मनों का काम था कि वे संसार में “स्त्रियों के समाजीकरण” या “एक ही कम्बल के अंदर सभी” के झूठे नारे देकर लोगों को इस प्रथम साम्यवादी राज्य की ओर मुखातिब होने से रोकें।

बात तो यह है कि वहां के सामाजिक जीवन में स्त्री-पुरुष का सहवास अपनी रोमांचक रंगीनियां सदा के लिए खो चुका है। एक साथ की शिक्षा के कारण सोवियत युवक-युवतियों में यह सहवास अपने खिंचाव-तनाव को खोकर, अपनी आंखमिचौनियों का परित्याग कर, एक स्वाभाविक आकर्षण मात्र रह गया है। युवतियां शारीरिक दृष्टि से काफी मजबूत और तंदुरुस्त होती हैं। उन्हें किसी के सहारे या थपकियों की जरूरत नहीं होती। वे अपनी हैसियत युवकों की बराबरी में समझती हैं। उनके दिल और दिमाग में, बचपन से ही एक नये आदर्श का सपना और कामना भर दी जाती है। ये चीजें काम-वासना को कहीं पीछे ढकेल देती हैं। एक स्वस्थ, स्वाभाविक जीवन वे बिताना चाहती हैं। क्षणिक सौंदर्य और चाक्चिक्य के स्थान पर एक उच्च और दिव्य भावना उन्हें प्रेरित करती है। ‘कली-कली रस ले’ का छिछोरापन वे क्यों चाहें, कैसे बर्दाश्त करें? नतीजा यह है कि प्राचीन स्त्रीत्व नये वैज्ञानिक रूप में वहां फिर प्रतिष्ठित हो रहा है।

स्त्रियों को देश के शासन और सार्वजनिक जीवन में हिस्सा बंटाने की पूरी आजादी है। सोवियत संघ की बड़ी सोवियत के सदस्यों में एक सौ नवासी स्त्रियां हैं। संसार के किसी देश की पार्लियामेंट में औरतों का यह अनुपात नहीं होगा। यही नहीं, आठ बड़े-बड़े सरकारी ओहदों को भी वे सुशोभित करती हैं। शायद ही कोई कचहरी हो, जहां न्याय के आसन पर औरतें नहीं बैठी हैं। स्त्री जजों के इंसाफ में सिर्फ बदले की भावना नहीं काम करती, मातृत्व का हृदय भी अपना असर डालता है ।

सांस्कृतिक जीवन में भी स्त्रियां पीछे नहीं हैं। बच्चियों और युवतियों में पढ़ने का जो चाव है, उसे क्या कहना? बूढ़ी दादियों ने भी, जिंदगी के आखिरी दिनों में, अपने को शिक्षिता बनाया है। स्त्रियों की पत्रिकाओं और अखबारों में उनकी पाठिकाओं के जो लेख, कविता, कहानी, शब्दचित्र आदि छपा करते हैं, उनके पढ़ने से वहां की स्त्रियों के मानसिक क्षितिज के विस्तार का पता लग सकता है। एक नये ढंग की ग्राम – कविता का वहां जन्म हो रहा है। इसको रचनेवाली स्त्रियां हैं। स्त्रियों ने रूस के प्राचीन वीर-काव्यों के ढर्रे पर, नये विषयों पर, गेय कविताओं की रचना शुरू की है, बहत्तर वर्ष की उम्र की मार्या क्रीवोपोल्मेनोवा अपनी जन्मभूमि आरचेंजल के देहातों में गांव-गांव घूमकर ऐसी कविताएं सुनाया करती थी। अब साम्यवादी सरकार की गुणग्राहकता से उसकी कविता की मास्को के रंगमंचों पर धूम मची रहती है।

साहित्य की तरह कला में भी स्त्रियों ने कमाल दिखलाया है। मूर्ति निर्माण में तो वे मर्दों से बाजी मार ले गयी हैं। उनकी बनायी मूर्तियां सबल और सजीव दीखती हैं। सिर्फ संगमरमर की ही नहीं, लकड़ी की मूर्तियां बनाने में भी उन्होंने बड़ा नाम कमाया है।

लोग कहा करते हैं, सोवियत ने पारिवारिक जीवन को खत्म कर दिया है। यदि पारिवारिक जीवन का अर्थ हो पति काम करे, कमाये और पत्नी उसी के आश्रय पर घर की गंदगी में मरती रहे या धनी विलासी पति के दिल को लुभाने के लिए तरह-तरह के श्रृंगार और ढोंग बनाये, तो निस्संदेह सोवियत ने पारिवारिक जीवन का खात्मा कर दिया है। लेकिन यदि पारिवारिक जीवन का मानी हो, पति- पत्नी बराबरी की हैसियत से, बिना एक-दूसरे पर बोझ बने, पारस्परिक सहयोग भावना लिए हुए, शुद्ध प्रेम के आधार पर, सानन्द, सोल्लास जीवनयात्रा तय करें तो संसार में अगर कहीं पारिवारिक जीवन है तो सोवियत रूस में ही।

भाग – 3

स्त्रियों की यह स्वाधीनता, यह समता सिर्फ यूरोपीय रूस तक ही सीमित नहीं। सुदूर उत्तर के स्कीमो, चकची, कोरियाक जातियां और सुदूर दक्षिण के आरमेनियन, जॉर्जियन, उजबेक जातियां भी स्त्रियों की इस महान जागृति से अछूती नहीं हैं। सब जगह एक महान हलचल है, स्त्रियों में एक नवीन जागरण है।

पूर्वीय देशों की स्त्रियां सदियों से गुलामी के बंधनों में जकड़ी थीं। पुरुष उन पर तरह-तरह के अत्याचार करते थे और उन्हें सिर झुकाकर सब बर्दाश्त करना पड़ता था। यह बर्दाश्त अंततः एक आदत में बदल गयी थी। समता या स्वाधीनता की कल्पना भी उनमें नहीं रह गयी थी।

तुर्कमान, उजबेक और कजाक जातियों ने इस्लाम कबूल कर लिया था। स्त्रियों की स्वाधीनता वहां सदा के लिए खत्म हो चुकी थी। शादी तो एक व्यापार बन चुका था। बाल-विवाह आम बात थी। स्त्रियां मर्दों की काम-वासना की तृप्ति की पात्र मात्र समझी जाती थीं। जैसा कि ऐसी हालत में होता है, स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा काम वासना है, यह बात मान ली गयी थी। स्त्रियां अपवित्र समझी जाती थीं। उन्हें या तो एकांत कमरे में रहना चाहिए या घने बुरके के अंदर। कुरानशरीफ ने स्त्रियों के कितने ही हकूक दे रखे हैं, लेकिन यह तो किताबी बातें हुई, व्यवहार की बात यह थी कि स्त्रियां गुलाम थीं।

इन स्त्रियों की जिंदगी की सख्तियां सीमा पार कर चुकी थीं। वे आदमी तक नहीं समझी जाती थीं। स्त्रियों की मौत पर आंसू बहाना मना था। बच्चा पैदा होने के समय जब वे पीड़ा से छटपटाती थीं, कोई सहानुभूति नहीं दिखाता था। जॉर्जिया की कुछ पहाड़ी जातियों में बच्चा पैदा होने के लगभग दो सप्ताह पहले ही स्त्रियों को घर के बाहर, किसी एकांत कमरे में रख दिया जाता था। जहां वे घोड़ियों को बच्चा पैदा होने के समय अस्तबल से दालान में ले आते, वहां अपनी स्त्रियों को घर से निकालकर अस्तबल में रख देते। कालयुक लोग अपनी स्त्रियों को बच्चा पैदा होने के समय घूरे पर रख आते। उत्तर में माताओं को गंदे, बर्फीले तम्बू में अकेले बच्चा पैदा करने के लिए छोड़ दिया जाता था।

उजबेक और ताजिक लड़कियां यह जान भी नहीं पाती, कि लड़कपन की रंगरलियां क्या चीज हैं? आठ-नौ वर्ष की उम्र में ही उनकी शादी कर दी जाती। तुर्कमान जाति में शादी के वक्त दूल्हा, दुलहिन को कोड़े से पीटता। आस्काबाद में कोहबर रात में दुलहिन को दूल्हे का जूता खोलना पड़ता और उस बेचारी को परेशानी में डालने के लिए फीते में तरह-तरह की पेंच और गिरह बना दी जाती। उजबेक पत्नियों को जमीन पर सोना पड़ता और पतिदेव पलंग-गद्दे पर मौज करते। उजबेकिस्तान, तजाकिस्तान और तुर्कमानिस्तान में स्त्रियों को न सिर्फ घर के बल्कि खेत-खलिहान के सभी काम करने पड़ते।

उजबेकिस्तान और तजाकिस्तान में बुरका घोड़े के बाल से बनाया जाता- भद्दा, काला, तकलीफदेह। सूर्य की रोशनी भी उससे होकर नहीं जा सकती।

पश्चिमी रूस की तरह कलम के एक झटके में पूर्वीय रूस की स्त्रियों के सभी बंधनों को खत्म कर दिया गया और उन्हें भी पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया गया। लेकिन कानून की किताब में कोई बात लिख देना एक बात है और उसे काम में लाना दूसरी बात। सोवियत सरकार को इसके लिए कठिन परिश्रम करना पड़ा है। 1925 में जब मध्य एशिया की सभी जातियों को साम्यवादी शासन के अंदर लाया गया, तब जाकर इस ओर प्रभावशाली कदम बढ़ाया जा सका।

जीनत खेस्मीतोवा की शादी बचपन में ही हो गयी थी। पति के अत्याचारों से ऊबकर वह साम्यवादियों के पास भाग आयी। लेकिन किसी तरह वह बेचारी फिर उस जालिम के पंजे में आ गयी। उसने पीटते-पीटते उसे नीला-काला कर दिया, फिर उसकी जीभ काट ली और सिर्फ उसका मुंह ऊपर रखकर उसे जिंदा जमीन में गाड़ दिया। साम्यवादियों ने उसका उद्धार किया। बेचारी अब तक मास्को के अस्पताल रखी गयी है। जब हाल ही उसकी जन्मभूमि ताशकंद की सोवियत की अध्यक्षा मास्को गयी थी और उसे देखा था, तब उसने कहा था- उफ, क्या था, पहले मेरा देश! मैं तो उसे देखकर तीन दिनों के लिए बीमार हो गयी!

साम्यवादी राज्य ने अनिवार्य विवाह को रोक दिया। बाल-विवाह, जबरदस्ती विवाह, स्त्रियों की बिक्री आदि के लिए सख्त सजायें रख दीं। सहगमन की उम्र सोलह वर्ष कर दी, रूस में यों तो अब सहगमन के लिए अठारह वर्ष की उम्र प्रचलित है।

कानून के अलावा पूर्वीय स्त्रियों में प्रचार करने का भी विस्तृत आयोजन किया गया और इसके लिए नये-नये उपाय काम में लाये गये। स्त्रियों के क्लबघर, लाल गोशे, लाल नार्वे, लाल खीमे- जिनमें प्राय: बिजली और रेडियो लगे होते और सिर्फ स्त्रियां ही प्रवेश पा सकतीं- इन पिछड़े प्रदेशों के कोने-कोने में देखे जाने लगे। इनके द्वारा औरतों को शिक्षित किया जाता, उन्हें कानूनी मदद दी जाती, उनके लिए पेशे का प्रबंध किया जाता।

इस प्रचार में शिक्षिता रूसी नारियों का बड़ा भाग रहा। उन्होंने नयी भाषाएं सीखी, इन पिछड़े प्रांतों की रीति-नीति की जानकारी हासिल की, गंदे जीवन और जान के खतरे की परवाह छोड़कर वहां पहुंची, उनमें से कितनी स्त्रियों ने तो खुद अपने मुंह पर घोड़े के बाल के बने ‘पारांजा’ नामक नकाब को डाल लिया, जिससे उनके घरों में बेखटके प्रवेश वे पा सकें।

धीरे-धीरे उन्होंने मूढ़धारणाओं पर विजय प्राप्त की। वहां की स्त्रियां अपने घर साफ-सुथरा रखना, साबुन का व्यवहार करना, तरकारियां पैदा करना, बच्चों का वैज्ञानिक ढंग से पालन-पोषण करना सीख गयीं। अड़तीस जंगली जातियों को लिपि का ज्ञान दिया गया, क्योंकि उनके पास अपनी भाषाएं तो थीं भी, लिपि का वे नाम भी नहीं जानती थीं।

मध्य एशिया भर में जो परदा विरोधी दिवस 8 मार्च 1928 को मनाया गया था, उसका दृश्य क्या कभी भूला जा सकता है?

उस दिन हजारों-हजार स्त्रियां परांजा और चाच्वान से जकड़ी, पतली गलियों, चौराहों, और बाजारों से खौफनाक आंधी की तरह निकलीं। न उनके मुंह दिखायी पड़ते, न आंखें। हां, उनके इन मनहूस चेहरों के ऊपर, हवा में लहराता, लाल झंडा अवश्य दिखायी देता। सूखे मैदान में एकाकी खिले गुलाब की तरह उनमें कहीं-कहीं एकाध ऐसी युवतियां जब-तब दिखायी पड़तीं जिनके मुंह खुले थे और लाल रूमाल से जिनके बाल बंधे थे। उनके पैर दृढ़ता से उठते। वे अग्रदूतिकाएं थीं, जिन्होंने बुरके को कब का फाड़ फेंका था।

बाजे-गाजे के बीच वे लेनिन की मूर्ति के निकट आ पहुंचीं और उसे चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं। उनके साथ कुछ बच्चे और कुछ पुरुष भी थे, जो अलग खड़े थे। लेनिन की मूर्ति को भी लाल झंडों और लाल कालीनों से उस दिन सजा दिया गया था। वे स्त्रियां वहां सांस रोके खड़ी, आगे की कार्रवाई की प्रतीक्षा कर रही थीं। हृदयवेधी, गुरु-गंभीर वाणी में वक्ताओं ने परदा प्रथा की बुराइयों पर प्रकाश डाला और इसे फाड़ फेंकने के लिए जोरदार अपील की। साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय गान हुआ। गाना समाप्त होते-होते, बुरके उतारकर फेंके जाने लगे। पहले थरथराते हाथों से; फिर उत्तेजना और मजबूती से। परांजा, चाच्वान और बादरा-स्त्रियों की गुलामी के ये पुराने चिह्न-स्त्रियों ने इन्हें बात-ही-बात में उतार फेंका। इन्हें इकट्ठा किया गया, इन पर तेल छिड़का गया, चिंगारी छुलाई गयी – और थोड़ी देर में ही वे धू-धू कर जलने लगे। उनके धुएं ने उनकी कालिमा को सदा के लिए आसमान पर फेंक दिया; उनकी ज्वाला से स्त्रियों के चेहरे चमक बैठे!

आज समूचे बुखारा में आप घूम आइये, कहीं आपको बुरके का नामोनिशान नहीं मिलेगा। मुल्लाओं और मर्दों का विरोध उन्हें गुलामी में नहीं रख सका। स्त्रियां एक ही छलांग में चौदहवीं सदी से बीसवीं सदी में पहुंच चुकी हैं।

बारह वर्ष की उम्र के पहले ही, बगैर देखे सुने आदमी से शादी कर लेने को बाध्य किये जाने, परिवार भर के मर्दों और मेहमानों के पांवों को धोने, उनके सामने हमेशा खड़ी रहने और जूठे-रूखे भोजन पर ही संतोष करने वाली युवती आज अपने पति के साथ मास्को के पूर्वीय विश्वविद्यालय में पढ़ती है। उसके साथ ही उसकी वह सहेली भी पढ़ रही है जिसकी मां ने कभी नया कपड़ा नहीं देखा, कभी जूता नहीं पहना, जो हमेशा खुली जमीन पर सोती रही और कभी अपने पति पर नाराजगी जाहिर करने की गुस्ताखी नहीं कर सकी।

जो स्त्रियां पुरुषों की काम-वासना की तृप्ति की साधन मात्र समझी जाती थीं या बच्चा पैदा करने की मशीन मात्र, वे ही अपने पति को कामरेड (साथी) कहकर पुकारती हैं। स्त्रियां अब उद्योग-धंधों में प्रवेश करती और राजनीति में अपना हिस्सा बंटाती हैं। जो अब तक चुप थी, वे चहकने लगी हैं। जिनकी कमर झुकी थी, वे आकाश में उड़ती और पैराशूट से कूदती हैं। मध्य एशिया के सर्वप्रमुख शहर ताशकंद की सोवियत की अध्यक्ष एक ऐसी औरत है, जो पहले परांजा में मुंह छिपाए दासी का काम करती थी। बुखारा के ट्रेनिंग कॉलेज की अध्यक्षा की छः वर्ष की पुत्री उस दिन उससे पूछ रही थी- “अम्मा, परांजा किसे कहते हैं?”