हिरोशिमा में जी-7 बैठक में गूंजा यूक्रेन को मदद जारी रखने का संकल्‍प, और स्‍पष्‍ट हुई विश्‍वयुद्ध की ओर सरकती दुनिया की आहट

May 25, 2023 0 By Yatharth

संपादकीय, अप्रैल-मई 2023

राष्‍ट्रपति बाइडेन ने मानी यूक्रेन को एफ-16 लड़ाकू विमानों की आपूर्ति करने व पायलटों के प्रशिक्षण की बात

जहां अमेरिका ने अपने सहयोगियों द्वारा यूक्रेन को 500 मील तक मार करने वाले उच्च मारक क्षमता से लैस एफ-16 लड़ाकू विमानों की स्पलाई करने और इसे हवा में उड़ाने के लिए यूक्रेन के अपने पायलटों को प्रशिक्षित करने में खुद के सहयोग देने की अपील मान ली है, वहीं रूस के रक्षामंत्री एलेक्जेंउर ग्रुस्कोव ने पश्चिम के देशों को इसकी कीमत चुकाने एवं भारी खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहने की धमकी दी है। रूस के रक्षामंत्री ने कहा है कि पश्चिम के देशों को इसकी जोखिम का अंदाजा नहीं है। रूसी रक्षामंत्री के अपने शब्दों में – ”यह उनके लिए भारी जोखिम का सबब है। हर हाल में, हम अपनी योजना बनाते समय इस बात का हिसाब रखेंगे, और हमारे पास वे सभी साधन हैं जिसके बल पर हम अपने तय लक्ष्य की पूर्तिकर सकेंगे।”

यूक्रेन को नाटो में एक सदस्य देश की तरह शामिल करने की प्रक्रिया के शुरू होने से रूस-चीन एवं अमेरिका के बीच के गर्म माहौल को इसने और गर्म कर दिया है। ज्ञातव्य हो कि पिछले एक महीने से यूक्रेन में जारी युद्ध को लेकर रूस-चीन और अमेरिका के बीच तनातनी बढ़ी हुई थी। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की इस बीच और हाल में भी हर सप्ताह पूरे यूरोप में घूम-घूम कर हथियारों की मदद मांगता रहा है ताकि आने वाले दिनों में रूस पर एक बड़ा हमला करने की कीव की योजना सफल हो सके। जर्मनी और यहां तक कि फ्रांस से भी इस बार बड़े पैमाने पर मदद मिलने की उम्मीद की जा रही है। दोनों देशों के राष्ट्रपति ने इसके लिए बाजाप्ता घोषणायें भी कर दी हैं। यह बात पूरी दुनिया को मालूम है कि यूक्रेन पूरी ताकत से एक बार अंतिमतौर पर रूस पर हमला बोलना चाहता है और युद्ध को यूक्रेन की धरती से रूस की धरती पर ले जाना चाहता है। एफ-16 विमानों की आपूर्ति होने के बाद यूक्रेन का यह सपना पूरा हो सकता है। लेकिन क्या इससे साम्राज्यवादी गुटों में बंटी दुनिया में तृतीय विश्वयुद्ध के खुलेआम शुरू हो जाने का खतरा नहीं उपस्थित हो जाएगा? जिस तरह से अमेरिका और इंगलैंड नाटो देशों की सहायता से रूस को पूर्वी यूरोप में घेरने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें क्या यह संभावना निहित नहीं है कि रूस ”मरता क्या न करता” की तर्ज पर आणविक युद्ध का फैसला कर ले? दूसरी तरफ लंबे काल से मंद विकास के अवसाद काल से पीड़ित विश्व की अर्थव्यवस्था क्या होगा हम अच्छी तरह जानते हैं। भुखमरी, बदहाली, कंगाली, बेरोजगारी और कर्ज में दबी दुनिया की जनता का क्या होगा, हम यह भी जानते हैं।        

पिछले एक सप्ताह से नीदरलैंड और ब्रिटेन पूरे यूरोप में इस बात को लेकर लॉबी कर रहे थे कि यूक्रेन को एफ-16 लड़ाकू विमानों की सप्लाई हो जिसके लिए सर्वप्रथम अमेरिका की मंजूरी या अनुमति जरूरी थी। अमेरिका पिछले कई अरसे से इसके लिए तैयार नहीं था, खासकर इसलिए कि इससे रूस को टकराव तेज करने का मौका या बहाना मिल जाएगा। ज्ञातव्य हो कि यूरोप के जिन मुट्ठी भर देशों के पास एफ-16 विमान हैं उन्होंनें इसे अमेरिका से प्राप्त किये हैं और इसलिए वे देश (जिनमें एक नीदरलैंड भी है जो अपने कुछ एफ-16 विमान यूक्रेन को देने के लिए खुद से या किसी दबाव में तैयार है या देना चाहता है) अमेरिका से थर्ड पार्टी ट्रांसफर सर्टिफिकेट या अनुमति लेने की कोशिश कर रहे थे। कहा जाता है कि एफ-16 विमानों में काफी संवेदनशील अमेरिकी टेक्नोलॉजी लगी हुई है। उधर, जब से यूक्रेन-रूस युद्ध शुरू हुआ है, तब से ही यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की एफ-16 विमानों की आपूर्ति के लिए अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बनाने में लगे हुए थे।     

जब से रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ है, पूरी दुनिया दो साम्राज्यवादी गुटों या शिविरों में (एक तरफ रूस-चीन और आंग्ल-अमेरिका व नाटों के देश) बंट गया है। यूक्रेन, सीरिया तथा ताईवान इनका फ्लैश प्वाइंट बने हुए हैं। इसके अलावा भारत-प्रशांत क्षेत्र में भी इनके सामरिक हितों के टकराव बढ़ रहे हैं। काला सागर में तो अमेरिका चीन के साथ में टकराव की स्थिति में है ही, इंडो-पैसिफिक और साउथ चाइना समुद्र के क्षेत्र में भी ये दोनों जल्द ही एक दूसरे के साथ सीधे टकराव की स्थिति में आते जा रहे हैं। ज्ञातव्य है कि इंडो-पैसिफिक का पशिचमी किनारा अमेरिका से खींचते हुए भारत तक आता है। इस लिहाज से हिंद महासागर, दक्षिणी चीनी सागर और पूरबी चीनी सागर, जो पूरे दक्षिणी-पूरब ऐशिया को जोड़ता है, बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इसे पूरे क्षेत्र में अमेरिका अपने सहयोगियों जापान, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया और एक हद तक भारत की सहायता से सक्रिय है। हम ताइवान, जो पश्चिमी प्रशांत महासागर में जापान और फिलीपींस के नजदीक स्थित होने के कारण सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, को लेकर चीन और अमेरिका के बीच की तनातनी के बारे में हम जानते ही हैं।     

जापान के हिरोशिमा शहर में हो रही जी-7 देशों की बैठक में लगता है मुख्य मुद्दा ही यूक्रेन युद्ध में रूस को घेरने की रणनीति बनाना और रूस की सहायता दे रहे चीन की घेरेबंदी करना है। रूस और चीन की तरफ से इसके प्रत्युत्तर में कर्कश स्वरों में प्रतिक्रिया आयी है जो दिखाता है कि आने वाले दिनों में तृतीय विश्वयुद्ध, जो अभी परदे के पीछे से और मानसिक तैयारी के स्तर पर चल रहा है, का खुलकर आगाज हो सकता है। विश्व की मजदूर, मेहनतकश व गरीब आम जनता को इसके खिलाफ अभी से अपनी आवाज बुलंद करना शुरू कर देना चाहिए। आवाज बुलंद करने का इससे बढ़िया और क्या तरीका हो सकता है कि सभी साम्राज्यवादी देशों के मजदूर-मेहनतकश लोग अपने-अपने  पूंजीपति वर्ग और उनकी सरकारों को युद्ध से बाज आने के लिए कहें और अगर हो सके तो उन्हें सत्ता से बाहर कर दें। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद जब तक है तब तक युद्ध कुछ दिनों के लिए रूक सकता है या मुल्तवी हो सकता है लेकिन खत्म नहीं हो सकता है।

हम जानते हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध के एक साल के बाद साम्राज्यवादी खेमेबंदी के कारण पूरी दुनिया दो आपसी घाती-प्रतिघाती शिविरों में बंटती जा रही है या बंट चुकी है। जी-7 की बैठक में रूस व चीन के खिलाफ जिस तरह की घेरेबंदी करने की तैयारी की खबरें आ रही हैं उससे आग में घी डालने जैसी कार्रवाई ही मानी जानी चाहिए। अगर यह और आगे बढ़ता है तो इससे निश्चय ही तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा उपस्थित होगा। आइए इस खतरे के के प्रकट होने के छोटे इतिहास पर एक नजर डालें।

यूक्रेन-रूस जंग के बाद इजारेदार वित्तीय पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए दुनिया भर के संसाधनों की बंदरबांट के लिए दो साम्राज्यवादी खेमों का उभार स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है। अब विश्व में खुले रूप से दो धुरी अस्तित्व में है। एक धुरी आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में यूरोप के नाटो देशों सहित जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया आदि देशों की है जिसे आम तौर पर ‘पश्चिम’ कहा जाता है। दूसरी धुरी रूस-चीन के इर्द-गिर्द बन चुकी है जिसमें ईरान भी इसकी केंद्रीय भूमिका में है। पूरी दुनिया के पुन: बंटवारे के लिए इन दोनों धुरियों के बीच अब एक सतत होड़ की स्थिति बन चुकी है। रूस व चीन एवं ईरान की धुरी अपने साथ दुनिया के और भी कई देशों को जोड़ने में जुटी है। इससे दुनिया में एक और विनाशकारी वैश्विक जंग का खतरा बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है।   

यूक्रेन में जारी युद्ध में अब तक नाटो यूक्रेनियों को आगे कर ही रूस से लड़ता रहा है। मगर 14 मार्च को क्रीमीया के पास काले सागर में दोनों के बीच एक सीधी झड़प भी हो गई जिसमें रूसी युद्धक विमानों ने एक अमरीकी पाइलटविहीन जहाज को मार गिराया था। अमरीकी जहाज के गिराए जाने पश्चात अमरीकी जंगखोर सीनेटर लिंजे ग्राहम ने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अमरीका की ओर आते रूसी विमानों को निशाना बनाने का आह्वान किया, रूस ने इसे खुद पर सीधे अमरीकी हमले का ऐलान बताया। ऐसा लगा मानो दोनों गुटों के बीच सीधी जंग कभी भी शुरू हो सकती थी। इसी तरह 25 फरवरी को ताइवान तट के करीब भी चीनी-अमरीकी जहाज लगभग टकराव की स्थिति में आ चुके हैं। इसके कुछ दिन पहले ही अमरीकी खोजी पत्रकार सीमूर हर्ष ने खुलासा किया था कि रूसी गैस को जर्मनी पहुंचाने वाली नॉर्डस्ट्रीम पाइपलाइन को अमरीकियों ने ही विस्फोट से नष्ट किया था, हालांकि सीधे रूस से जंग की स्थिति से बचने हेतु अमरीकी अब तक इससे इंकार कर रहे हैं और जासूसी एजेंसियों के करीबी बड़े अमरीकी अखबार अब खबर फैला रहे हैं कि ऐसा यूक्रेन समर्थक किसी ‘स्वतंत्र’ गुट ने किया। जबकि सच्चाई सबको पता है कि इसमें वास्तव में किसका हाथ है। 

संक्षेप में, अमरीकी खेमे के नियंत्रण वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा संचालित तथाकथित ‘नियम आधारित विश्व व्यवस्था’ (rules based world order) के स्थान पर एक नई वैश्विक व्यवस्था के उदय की संभावना प्रबल हो गई है। इस पुरानी विश्व व्यवस्था का मतलब था पश्चिमी साम्राज्यवाद का एकाधिपत्य व मनमानी जिसमें इनके वित्तीय व औद्योगिक पूंजीपतियों के हित पर आंच आते ही (जैसे किसी देश द्वारा अपने प्राकृतिक संसाधनों का राष्ट्रीयकरण कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा दोहन पर नियंत्रण) इन देशों में बेरोकटोक तख्तापलट, राष्ट्रप्रमुखों की हत्याएं, गृहयुद्ध छिड़वाना, भाड़े की टुकड़ियों या सीधे अपनी फौजों द्वारा दखलंदाजी के साथ ही साथ उन्हें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से बाहर करने वाली पाबंदियां व लंदन-न्यूयॉर्क आदि के बैंकों में जमा उनका विदेशी मुद्रा व सोना जैसे खजाने को जब्त कर लेना आम हो गया था। क्यूबा, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला, बोलीविया, निकरागुआ, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया, इराक, सर्बिया, आदि कई दर्जन देश इस साम्राज्यवादी धींगामस्ती का शिकार बन चुके थे और उन्हें इसके सामने झुकना पड़ता था।

इससे पूरी दुनिया में एक पश्चिमी साम्राज्यवाद विरोधी मानसिकता पहले से तैयार हो चुकी थी और सभी उभरते पूंजीवादी देश इसके प्रति चौकन्ने थे। रूस, चीन, भारत, ब्राजील, तुर्की, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, सऊदी अरब, ईरान, मेक्सिको, आदि कई गैर पश्चिमी उभरते देश दो दशक पहले ही इस जाल से मुक्त होने की तैयारियां आरंभ कर चुके थे। इन तैयारियों में नए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की संभावनाएं टटोलने, ऊर्जा, तकनीक व सैन्य उत्पादन में आत्मनिर्भर होने या एक खेमे पर निर्भरता घटाने से लेकर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, वित्त, भुगतान, इ-कॉमर्स, सोशल मीडिया, आदि तक में पश्चिमी खेमे पर निर्भरता से बाहर निकलने की तैयारियां शामिल थीं। भारतीय पूंजीवाद का ही उदाहरण लें तो स्विफ्ट के मुकाबले अपना वित्तीय मेसेजिंग सिस्टम, वीजा/मास्टर कार्ड के मुकाबले अपना रुपे कार्ड व यूपीआई, अमेजन व वालमार्ट के मुकाबले अपना स्वतंत्र ओएनडीसी इ-कॉमर्स से लेकर हथियार आयात को कम करने के कदम दो दशक के दौर में देखें जा सकते हैं। चीन ने तो अपना पूरा इंटरनेट प्लेटफॉर्म ही अमरीकी टेक कंपनियों से मुक्त रखा है, कुछ हद तक रूस ने भी। इसी तरह की कोशिशें इन सभी उभरते देशों ने की है। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोकोवी ने तो 16 मार्च को ही जकार्ता में कहा -“बहुत सावधान रहें। हमें अमेरिका द्वारा रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों को याद रखना चाहिए। वीजा और मास्टरकार्ड एक समस्या हो सकती है।” असल में रूस के 600 अरब डॉलर को अमरीका द्वारा जब्त कर लिए जाने से सभी बड़े पूंजीवादी देश ब्लैकमेल के इस जोखिम से बेहद चौकन्ने हो गए हैं।

यूक्रेन युद्ध के बाद चीन ने तेल पर G-7 प्राइस कैप को खारिज कर उसका सबसे बड़ा आयातक बन गया है और रूस को राजनयिक कवर देता है। ईरान ने भी रूस से व्यापार बंद नहीं किया है, उसने बदले में रूस को बड़ी संख्या में कामिकाजे ड्रोन भेजे और 100 बैलिस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम) का भी करार किया है। पिछले एक वर्ष के दौरान तीन देशों अर्थात चीन, रूस और ईरान के बीच राजकीय यात्राओं के बाद, इनके अधिकारियों ने भी अनुसरण किया। पिछले साल जुलाई में रूस के राष्ट्रपति पुतिन ईरान और तुर्की के नेताओं से बात करके तेहरान गए थे। इन तीनो देशों के राष्ट्रपति लगातार एक दूसरे के यहां जाकर मिलते रहे हैं। और आपसी संबंधों को मजबूत करने में लगे हैं। सीरिया में भी ऐसा देखा गया था कि ये किस तरह एक दूसरे के साथ आ रहे थे। ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी इन मामलों में रूस और ईरान के संबंध को ठीक करने में लगे हैं। ईरान पुतिन के आगमन को छुपा नहीं रहा बल्कि रेड कार्पेट बिछा स्वागत किया। ईरान के तेल मंत्री खुद पुतिन को मॉस्को जाकर अभिवादन किया था। पिछले नवंबर में रूसी सुरक्षा अधिकारी ईरान गए थे जिसका उद्देश्य दोनों देशों के ऊपर “पश्चिमी दबाव को कम करने” पर चर्चा था।

सीरिया एक उदाहरण है जहां रूसी और ईरानी हित एक दूसरे के करीब हैं। वर्षों से यह देश कोशिश कर रहे हैं की सीरिया के शासक बशर अल असद शासन में बने रहे। दोनों देशों का एकमात्र उद्देश्य अमेरिकन हितों को सीरिया में आगे बढ़ने से रोकना है। सप्ताह भर पहले अमेरिका ने ईरानी ड्रोन को मार गिराया जो सीरिया में पाया गया। रूस-यूक्रेन युद्ध में फंसे होने के बावजूद सीरिया में अपना सैन्य अड्डा बनाए हुए है। यह दिखा रहा है कि रूस सीरिया से वापस आने के लिए तैयार नहीं है। सीरिया में रूस और ईरान के आपसी सहयोग की बरसों पुरानी कहानी दिखेगी। रूस सीरिया में ईरानी और सीरियाई दोनों देशों के सैन्य बलों को बैक व हवाई कवर देता है।

2021 में चीन और ईरान के बीच 25 सालों का “स्ट्रेटेजिक कंप्रीहेंसिव पार्टनरशिप” घोषित किया गया है। यह ऐसा समझौता है जिससे चीन को ईरान में बड़ा फुट होल्ड मिलेगा। इसे इस तरीके से भी बोला जाता है कि ईरान ने अपने को चीन को बेच दिया है। हालांकि ईरान का नेतृत्व इसे इस प्रकार से नहीं देखता है, क्योंकि इसके बदले ईरान को ‘शंघाई सहयोग संगठन’ में स्थायी सदस्य के रूप में शामिल कर लिया है। सिर्फ आबादी ही नहीं, भौगौलिक पैमानों व  वैश्विक जीडीपी के अनुसार यह सबसे बड़ा क्षेत्रीय संगठन है। रूस पहले से ही इस संगठन में शामिल है। ईरान को इसमें मिली स्थायी सदस्यता बताती है कि ईरान अब रूस और चीन के करीब हो गया है। वहीं इससे पश्चिमी साम्राज्यवाद को चुनौती देने की उसकी वैधता काफी बढ़ जाती है।

जहां तक भारत का सवाल है – इसका रूस के साथ ऐतिहासिक गठबंधन रहा है और ईरान के साथ भी सौहार्दपूर्ण संबंध रहा है। चीन के साथ भारत के संबंध अच्छे नहीं रहे हैं। लेकिन यह भी सही है कि शी जिनपिंग और मोदी ने मिलकर तनाव को अधिक बढ़ने नहीं दिया। ऐसे में क्या भारत के लिए यह तिकड़ी चिंता का कारण है? ऐसा कुछ लगता नहीं है क्योंकि चीन को छोड़कर रूस और ईरान के साथ भारत के अच्छे रिश्ते रहे हैं। इसलिए भी भारत चीन विरोधी पक्ष नहीं लेगा। असल में इस गठबंधन से भारत को कोई विशेष लेना देना नहीं है। इस गठबंधन का स्वरूप पश्चिम विरोधी है न कि भारत विरोधी और इसका मुख्य उद्देश्य पश्चिम के एकाधिपत्य, प्रभुत्व और इसके आत्मकेंद्रित युद्धों के खिलाफ है। बल्कि देखें तो भारतीय शासक इस स्थिति का लाभ उठाकर दोनों पक्षों से सौदेबाजी कर अपने लिए लाभ उठाने में लगे हैं।

बाकी समीकरण चाहे जो भी, लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े हो चुके इस साम्राज्यवादी गुट के उभार ने दुनिया में विश्वयुद्ध का बिगुल तो फूंक ही दिया है। बहुत जल्द ही पूरी दुनिया में इस अंतरविरोध के परिणाम देखने को मिलेंगे। विश्वयुद्ध के आणविक बन जाने के खतरे के कारण इतना साफ है कि दोनों ही गुट निर्णायक युद्ध में उतरने से अपने को रोकेंगे। नतीजा एक लंबा अनिर्णायक और घिसाव-थकाव भरा युद्ध होगा जिसके वित्तीय बोझ से विश्वअर्थव्यवस्था का संकट और गहरा होगा। इसका बोझ जनता पर पड़ेगा तो जनाक्रोश भी फूटेगा। फासीवाद के उभार के कारण जनता पर शोषण व दमन और तेज होगा, जिसका परिणाम अंतत: क्रांतिकारी होगा।