मणिपुर : पूंजीवाद में जनवादी राष्ट्रीय आकांक्षाओं के दमन और बहुसंख्यकवाद की त्रासदी

May 25, 2023 0 By Yatharth

एम असीम

3 मई को मणिपुर में भड़की भ्रातृघाती तबाही में 60 से ज्यादा की मौत हुई है, कई सौ लापता हैं (सरकार के मुताबिक भय से जगलों में या पड़ोसी म्यांमार में भाग गए हैं), कई हजार घर जला दिए गए हैं और लगभग 50 हजार लोग घर-बार आदि गंवाकर बेघर शरणार्थी बनने के लिए मजबूर हुए हैं। इसके लिए तात्कालिक ट्रिगर हाईकोर्ट द्वारा बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) के दर्जे की सिफारिश पर फैसला लेने के लिए राज्य सरकार को दिया गया निर्देश है, क्योंकि इसके बाद विरोध में जो ट्राइबल एकजुटता मार्च निकाला गया, उसी में हिंसा फूटी।

तात्कालिक ट्रिगर बना आरक्षण में हिस्सेदारी का मुद्दा भी बहुत विडंबना भरा है। भारत की मौजूदा संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था, और उसका भी बदतरीन सड़ा हुआ अति प्रतिगामी फासिस्ट अवतार देश की बहुसंख्यक मेहनतकश शोषित उत्पीड़ित आबादी को विकास तो बहुत दूर कुछ सांस लेने तक की राहत भी देने में पूरी तरह नाकाम साबित हो चुका है। बेरोजगारी चरम पर है। सरकारी नौकरियों में भर्ती लगभग बंद है। सभी सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण और उनमें छंटनी जोरों पर है। निजी क्षेत्र में तो रोजगार की सुरक्षा पहले से ही नहीं है। अधिकांश नियमित रोजगारों को कॉंट्रेक्ट के अस्थाई कामों में बदला जा रहा है। गिग इकॉनोमी के नाम पर तो और भी तीक्ष्ण शोषण जारी है। मेहनतकश उत्पीड़ित अवाम ने अपने संघर्षों से इस व्यवस्था में पहले जो थोड़े बहुत श्रम व जनवादी अधिकार तथा सुविधाएं हासिल की थी, उन्हें भी अब एक के बाद एक लगातार छीना जा रहा है। शिक्षा व रोजगार में आरक्षण को पहले ही लगभग निष्प्रभावी बनाया जा चुका है।

इसके अतिरिक्त पूंजीवाद में अनिवार्य असमतल विकास की वजह से बचे-खुचे उपलब्ध रोजगार भी कुछ सीमित तुलनात्मक रूप से विकसित क्षेत्रों में ही मौजूद हैं। पिछड़े राज्यों में स्थिति और भी बदतर है और उन्हें रोजगार के लिए देश के दूसरे हिस्सों में पलायन करना पड़ता है। वहां उन्हें श्रम के शोषण के साथ ही राष्ट्रीयता, नस्ल, जाति, भाषा, धर्म, आदि के आधार पर भी उत्पीड़न झेलना पड़ता है। उत्तर-पूर्व की जनता के साथ इस उत्पीड़न का सुविदित व पुराना इतिहास है। मणिपुर में भी बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय स्तर से दोगुनी है। इंडियन एक्सप्रेस (10 मई) के मुताबिक वहां के ग्रामीण इलाकों में 65% पुरुष तथाकथित स्वरोजगार में लगे हैं। दरअसल स्वरोजगार बेरोजगारी में जिंदगी चलाने के लिए किसी तरह कुछ करने की विवशता ही है। नरेंद्र मोदी के पकौड़े तलने वाले ऐसे ‘रोजगार’ में लगे अधिकांश मेहनतकश भारत के निम्न जीवन स्तर से भी नीचे के स्तर पर किसी तरह जिंदा रहने के लिए मजबूर हैं और औसत जीवन स्तर को गिराकर न्यूनतम मजदूरी दर को और भी गिराने के पूंजीपति वर्ग के लाभ के ‘काम’ में लगे हैं।  

बेरोजगारी की इसी बदतर स्थिति में शासक वर्ग मौके को अवसर में तब्दील कर रहा है और रोजगार हेतु आरक्षण के दायरे में उपलब्ध इन लगभग कुछ नहीं अवसरों में बढ़ी हिस्सेदारी देने का लोभ देकर विभिन्न समुदायों में परस्पर वैमनस्य बढ़ा उन्हें भ्रातृघाती खूंरेजी के लिए उकसा रहा है। सभी समुदायों- जातियों में बैठे सत्ता के एजेंट-दलाल, इन समुदायों-जातियों का शासक वर्ग में शामिल एक छोटा संपन्न हिस्सा, इस घृणित साजिश को अंजाम देने में लगे हैं। यह वही स्क्रिप्ट है जिसकी पहले हरयाणा, राजस्थान, गुजरात, आंध्र-तेलंगाना, आदि राज्यों में खूब रिहर्सल की जा चुकी है – जो जाति-समुदाय आरक्षण के बाहर है उसे आरक्षण में आने के लिए उकसाओ और जो ओबीसी में शामिल हैं उसे एससी या एसटी में शामिल करने का लालच देकर उकसाओ। मणिपुर में भी पहले ही ओबीसी/एससी श्रेणी में शामिल मैतेई समुदाय को 30% आरक्षण वाली एसटी श्रेणी में शामिल करने का ऐसा ही लोभ दिखाया गया। दूसरी ओर पहले से एसटी श्रेणी में शामिल जनजातियों में अपने हिस्से में कमी से रोष पैदा हुआ। यह मणिपुर की पहले से ही सामाजिक तनाव की स्थिति को उतना ज्वलनशील बनाने में कामयाब हुआ जिसमें आग भड़काने हेतु बस एक छोटी चिंगारी चाहिए थी। नतीजा यह भयंकर भ्रातृघाती हत्याकांड है।

मगर इस तात्कालिक ट्रिगर के पीछे पूर्वाग्रहों, असुरक्षा, असंतोष, तनाव, टकराव, संघर्ष का एक लंबा इतिहास है जिसके मूल में जाने के लिए हमें राष्ट्रीयता के सवाल को समझना होगा। आधुनिक राष्ट्र राज्य पूंजीवादी विकास की देन हैं। एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले समान भाषी लोगों के स्थिर समुदाय में एक समान आर्थिक जीवन व पूंजीवादी घरेलू बाजार के उभार के दौरान समान संस्कृति व एक राष्ट्र होने की मनोवैज्ञानिक मानसिकता तैयार हुई। इन राष्ट्रीयताओं के आधार पर राष्ट्र राज्य कायम करने की एक ऐतिहासिक प्रक्रिया चली।

किंतु भारत में जो राज्य अभी है वह ऐसे इतिहास की देन नहीं है। यहां पूंजीवादी विकास की प्रक्रिया में राष्ट्र राज्यों के उदय की संभावना के पहले ही ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन कायम हो गया। उस औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत आने वाले विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र के भिन्न भाषा-भाषी, भिन्न सांस्कृतिक, आर्थिक स्तर के समुदायों के औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के साझा राजनीतिक संघर्ष के आधार पर आज का यह राज्य कायम हुआ है जिसमें कई राष्ट्रीयताओं के लोग शामिल हैं। औपनिवेशिक शासन ने इस दौरान चीन, नेपाल, अफगानिस्तान, इरान के साथ मनमर्जी से अतार्किक सीमा रेखाएं खींचीं। औपनिवेशिक जरूरतों से मनमानी राजनीतिक व प्रशासनिक इकाइयां कायम की गईं। फिर बर्मा (म्यांमार), पाकिस्तान (व बांग्लादेश) वाले इतने ही अतार्किक मनमानी विभाजन हुए।

उपरोक्त प्रक्रिया में कई समान भाषा-भाषी, आर्थिक जीवन व संस्कृति वाले समुदाय व जनजातियों को मनमाने ढंग से जबर्दस्ती खींची गई अतार्किक सीमा रेखाओं के द्वारा बांट दिया गया तो कई कतई अलग भाषा-संस्कृति, असमान आर्थिक जीवन व राजनीतिक इतिहास वाले समुदायों को उतने ही मनमाने ढंग से एक ही राजनीतिक-प्रशासनिक इकाई में विलय कर दिया गया। इसने जनता के बीच ऐतिहासिक संकीर्णता, स्थानिक पूर्वाग्रहों, संसाधनों के बंटवारे जनित असंतोष ने वैमनस्य के बहुत से बीज बोए हैं। कश्मीर से तमिलनाडु हो या गुजरात-राजस्थान से त्रिपुरा तक इसके नतीजे देखे जा सकते हैं। भारत की सत्ता में आए बीमार संकटग्रस्त पूंजीपति वर्ग ने भी इन पूर्वाग्रहों और असंतोष को जनवादी ढंग से सुलझाने के बजाय धर्म, जाति, भाषा के साथ ही राष्ट्रीयता के भी आधार पर जनता में भ्रातृघाती वैमनस्य को बढ़ावा देने और बहुसंख्यकवादी उत्पीड़न की ही नीति अपनाई है। 

आज के मणिपुर को देखें तो इसकी इम्फाल घाटी के समतल कृषि क्षेत्र में मैतेई समुदाय की अपनी भाषा, धर्म व राजतंत्र का सुदीर्घ इतिहास है। इसके चारों ओर नगा, लुशाई, चिन, कचार, मिजो, जोमी, आदि पहाड़ियों में रहने वाले जनजाति समुदाय कभी इस राज्य का अंग नहीं थे। उनकी भाषा, संस्कृति, धर्म, आर्थिक जीवन, राजनीतिक इकाईयां इससे बिल्कुल अलग थीं। लेकिन औपनिवेशिक शासन ने अपनी सुविधा व मनमर्जी से इन पहाड़ियों के बीच मनमानी रेखाएं खींचीं। कुछ बर्मा में जा गिरे, कुछ आज के बांग्लादेश में, कुछ मौजूदा भारत के अन्य राज्यों में और कुछ मणिपुर रियासत में मिला दिए जाने से आज के मणिपुर में आ पहुंचे हैं। वर्तमान स्थिति है कि मणिपुर राज्य के भौगोलिक क्षेत्र के 10% इम्फाल घाटी में लंबे समय से कृषि करने वाला आबादी का 53% बहुसंख्यक मैतेई समुदाय रहता है जबकि इसके चारों ओर के 90% पहाड़ी वन क्षेत्रों में कुकी, चिन, मिजो, जोमी, नगा, आदि अल्पसंख्यक बना दी गई जनजातियां रहती हैं।

इससे पैदा जटिल समस्या के हल के लिए संविधान सभा ने संविधान की 6ठी अनुसूची द्वारा पुराने अविभाजित असम की विभिन्न जनजातियों को सीमित स्वायत्तता व स्वशासन की व्यवस्था की थी। असम से विभाजन के बाद बने उत्तर पूर्व के राज्यों में यह व्यवस्था जारी रही। लेकिन पहले से अलग रियासत के रूप में भारत में विलय होने वाले मणिपुर व त्रिपुरा में यह व्यवस्था नहीं की गई। 1985 में त्रिपुरा के जनजाति इलाकों में भी यह व्यवस्था कर दी गई। पर लंबे समय से इस मांग के बावजूद मणिपुर को फिर भी छोड़ दिया गया। बहुसंख्यक मैतेई प्रभाव वाले मणिपुर की पहाड़ियों की विभिन्न जनजातियों में इस वजह से असुरक्षा और असंतोष की भावना रही है और उनकी अंडरग्राउन्ड सशस्त्र सेनाएं इसे लेकर संघर्ष चलाती रही हैं। अतः इस स्थिति में जरा भी परिवर्तन की आशंका इस राज्य में उबाल लाती रही है। 2015 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जब भूमि, मकान, दुकान, आदि संपत्तियों वाले 3 कानून बनाने का प्रयास किया तब भी विरोध प्रदर्शनों व सामुदायिक झड़पों में 9 व्यक्तियों की मौत हुई थी, हालांकि प्रोसीजर के नुक्तों को लेकर ये कानून अंततः लागू नहीं हो पाए।

एक पहलू यह भी है कि 19वीं सदी में मैतेई राजवंश धर्म परिवर्तन कर वैष्णव बन गया और उसने बांग्ला लिपि अपना ली। इसे लेकर खुद मैतेई समुदाय में आंतरिक द्वंद्व है और पिछले दशकों में उनका एक बड़ा हिस्सा अपने पुराने धर्म और भाषा-लिपि की ओर वापस जाने की मुहिम चला रहा है। लेकिन हिंदुत्ववादी बीजेपी के इस बीच सत्ता में आने और हिंदुत्व आधारित बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने के लिए वैष्णव मैतेई राजाओं के महिमामंडन से स्थिति और जटिल हो गई है। बीजेपी सरकार ने कुकी बहुसंख्यक आबादी वाले चूड़ाचन्द्रपुर जिले के बेहियांग में 19वीं सदी के मैतेई राजा चन्द्रकीर्ति सिंह का स्मारक बनाया, हालांकि यह इलाका कभी भी मैतेई राज्य का हिस्सा नहीं रहा था। इसने आग को और भड़काया।

इसके बाद रिजर्व फॉरेस्ट में गांवों को अनधिकृत ढंग से बढ़ने से रोकने, अतिक्रमण हटाने, गैरकानूनी कहकर चर्चों को हटाने, वन क्षेत्रों में मैतेई को जमीन खरीदने के अधिकार के प्रस्ताव, आदि से जनजाति समुदायों में असुरक्षा व असंतोष भड़क कर चरम पर पहुंच गए हैं। म्यांमार में फौजी शासन के दमन से कुछ चिन लोग (कुकी-चिन भ्रातृ समुदाय हैं) सीमा पार कर आए तो उन्हें विदेशी नागरिक कहकर बीजेपी सरकार द्वारा रोकने व प्रताड़ित करने से भी कुकी समुदाय विक्षुब्ध था। इस बीच दो बीजेपी मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह ने दो सशस्त्र सेनाओं के साथ चल रहे युद्धविराम व समझौता वार्ता को भी छोटे से विवाद को मुद्दा बनाकर तोड़ दिया।

यही वह परिस्थिति है जिसमें एसटी आरक्षण श्रेणी में मैतेई को शामिल करने से गुस्सा इतना भड़क गया और बड़े पैमाने पर झड़पें, दूसरे समुदायों के बीच रह रहे मैतेई व कुकी और अन्य जनजाति दोनों ही अल्पसंख्यकों के घर जलाए गए, हत्याएं हुईं और उन्हें जान बचाकर शरणार्थी बनना पड़ा है। अब 10 जनजाति विधायकों ने बयान जारी किया है कि कुकी-चिन-मिजो-जोमी जनजातियों की मणिपुर में रहने की स्थिति समाप्त हो चुकी है और राज्य से विभाजन ही शांति का एकमात्र तरीका है।                

साफ है कि यह समस्या अनसुलझे ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों, पूंजीवाद में असमान विकास, जनवादीकरण की गैरमौजूदगी, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पर्याप्त सुरक्षा के अभाव की है। भारत की विभिन्न पूंजीवादी सरकारों ने इसे समय पर हल करने के बजाय इसे नासूर बनने दिया ताकि वे जनता के बीच परस्पर वैमनस्य भड़काकर उनके जनवादी अधिकारों का दमन करते रहें और पूंजीपति वर्ग इसका लाभ उठाता रहे। हिंदुत्ववादी फासिस्ट बीजेपी ने बहुसंख्यकवाद को और भी बढ़ावा देकर इसे विस्फोटक स्थिति में बदल दिया। नतीजा हालिया दुखद घटनाएं हैं। 

भारत के पूंजीवादी जनतंत्र में पहले ही जनवाद अत्यंत अल्प मात्रा में था। जनवादी आकांक्षाओं को पूरा करना तो दूर उसकी अभिव्यक्ति तक के लिए यहां बहुत कम मौके थे। इसकी सड़न के बाद आई फासीवादी पार्टी की सत्ता के दौर में तो ऐसी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति तक को देशद्रोह व आतंकवाद बताया जाने लगा है। पूंजीवाद में अब अन्य ऐसी समस्याओं की तरह राष्ट्रीय उत्पीड़न के समाधान की गुंजाइश समाप्त हो चुकी है। मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता की एकता के बल पर सर्वहारा के नेतृत्व में समाजवादी व्यवस्था में ही इनके समाधान का एकमात्र विकल्प है।