सरमायेदारी निजाम, फौज व लुटेरे गिरोहों के बीच फंसी पाकिस्तानी अवाम की मुक्ति सर्वहारा क्रांति से ही मुमकिन

May 25, 2023 0 By Yatharth

एम असीम

सरमायेदारी निजाम, भूस्वामियों, फौज, सियासी गिरोहों, युद्धों की बरबादी, साम्राज्यवादी दखलंदाजी, विदेशी पूंजी की लूट और कट्टरपंथियों से जूझती पाकिस्तानी मेहनतकश जनता विनाशकारी बाढ़ झेलने के बाद अब कई महीनों से तीक्ष्ण आर्थिक संकट व विदेशी मुद्रा की कमी में आसमान छूती महंगाई, बेरोजगारी, खाद्य वस्तुओं व दवाओं के अभाव का सामना कर रही है। सरमायेदारों के हितों की हिफाजत में पाकिस्तानी शासक व आईएमएफ संकट का सारा बोझ आम जनता पर डाल रहे हैं। आईएमएफ की ‘सलाह’ पर पाकिस्तानी रुपये का भारी अवमूल्यन किया गया है। मगर अमीरों की विलासिता की चीजों का आयात बदस्तूर जारी है। जरूरी चीजों के दाम दो-तीन गुने बढ़ गए हैं। रमजान के दौरान जकात की खैरात व राशन वितरण के दौरान जरूरतमंदों की लंबी लाइनों की जद्दोजहद में कई मौतें हुईं।   

शासकों को इससे फर्क नहीं पड़ता। फौज द्वारा रुख बदलने पर प्रधानमंत्री बने शहबाज शरीफ ‘शराफत’ दिखाते हुए तकरीर करते हैं कि चाहे उनके खुद के लत्ते बिक जायें पर वे जनता को आटे की कमी नहीं होने देंगे। पर उनकी सारी शराफत इसी में दिखाई देती है कि शरीफ-भुट्टो कुनबों व मौलाना फजलुर्रहमान के नेतृत्व वाला पीडीएम अलायंस जनता की तकलीफों का हल निकालने की जरा भी कोशिश करने के बजाय पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के नेतृत्व वाली पीटीआई, फौजी जरनैलों, सुप्रीम/हाईकोर्ट जजों व अफसरों के गिरोहों के साथ सत्ता व लूट की होड़ में एक दूसरे के लत्ते फाड़ने के बेरहम खेल में ही लगा हुआ है। इन सभी गिरोहों का जनता के शोषण, दमन, उत्पीड़न, लूट व दुराचार का लंबा इतिहास है।

भ्रष्टाचार के आरोपों में इमरान की गिरफ्तारी पश्चात विरोध में फौज को हमलों का निशाना बनना पडा है। मगर जूडिशियरी व फौजी-सिविल अफसरशाही का एक हिस्सा इमरान के प्रति नरम है। इमरान फौज की मदद से हुकूमत में आए थे, मगर फौज से रिश्ते खराब होने के बाद पेटी बुर्जुआ तबके – पेशेवर बुद्धिजीवी, मध्य-उच्च मध्य वर्ग, छोटे मध्यम कारोबारी, मालिक व बंटाईदार किसानों वगैरह – के फौज विरोधी रूख को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने में कामयाब हो गए हैं। सत्तारूढ़ अलायंस की ओर से मौलाना फजलुर्रहमान की जेयूआई ने सुप्रीम कोर्ट को घेर रखा है। दोनों ओर से भड़काऊ तकरीरों का सिलसिला जारी है। मगर इनमें अवाम की दुख तकलीफ का कोई जिक्र नहीं। दोनों ने एक दूसरे के साथ क्या जुल्म किए वही बखान जारी है। दोनों ही लोकतंत्र व जनवादी अधिकारों की दुहाई देते हैं, मगर दोनों ही सत्ता में रहने पर फौजी व सिविल अफसरशाही तथा जूडिशियरी के साथ मिलकर जनवाद को कुचलते आए हैं। लब्बोलुआब ये कि दोनों ही पाकिस्तानी अवाम के खैरख्वाह नहीं है और मेहनतकश शोषित जनता इन दोनों गिरोहों के बीच फंसी हुई है। जिस रियल स्टेट पूंजीपति मलिक रियाज की मदद से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोप इमरान पर हैं उसे मदद पहुंचाने में शरीफ व भुट्टो कुनबे तथा फौजी-सिविल अफसरशाही भी पीछे नहीं रहे हैं।  

पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति, सत्ता के ढांचे व फौजी दखल को समझने के लिए इसे भूमि सुधार के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। तुलना करें तो 1947 में भारत में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया। उसने सामंती भूस्वामियों के शोषण से मुक्ति चाहने वाली जनता के साथ किए वादों को धता बताकर जमींदारों को अपनी जमीनों को बचाने का मौका देते हुए बहुत सीमित औपचारिक भूमि सुधार किए। यहां भूस्वामी वर्ग बस अपने हितों की सुरक्षा हासिल कर रहा था। वह पूंजीपति वर्ग की सत्ता को चुनौती पेश नहीं कर रहा था।

मगर पाकिस्तान की बुनियाद ही पंजाब में औपनिवेशिक सत्ता का आधार जमींदारों की यूनियनिस्ट पार्टी में फूट पड़ने के बाद मुस्लिम जागीरदारों के नेता सिकंदर हयात खान और जिन्ना का 1937 का लाहौर समझौता था। कांग्रेस के साथ जिन्ना नेतृत्व वाले मुस्लिम मध्य वर्ग का सांप्रदायिक विभाजन पहले हो चुका था। लेकिन मुस्लिम लीग ताकत तभी बनी जब मुस्लिम भूस्वामी भूमि सुधारों को कांग्रेस के वाम धडे द्वारा समर्थन के भय से मुस्लिम लीग के साथ आ गए। हिंदू-सिक्ख व मुस्लिम जमींदारों में यह विभाजन ही पंजाब में सांप्रदायिक राजनीति की नींव बना। नहरी सिंचाई और उपजाऊ भूमि वाले पश्चिम पंजाब में जमींदारों को पूंजीपति फार्मर बनाने की ब्रिटिश योजना अंतर्गत इन्हें और जमीनें आबंटित की गईं थीं। इन जमींदारों का पश्चिमी पंजाब के सामाजिक जीवन पर पूर्ण प्रभुत्व था। इनमें धार्मिक जमींदार (पीर व सज्जादानशीन) भी शामिल थे।

पाकिस्तानी सत्ता के औपचारिक मुखिया बुर्जुआ व मध्य वर्ग के प्रतिनिधि जिन्ना थे। मगर वास्तविक सत्ता जागीरदारों के हाथ में थी। पूंजीपति व मध्य वर्ग संवैधानिक जनतंत्र की आकांक्षा रखते थे और किसान भूमि सुधार चाहते थे, पर भूस्वामी तबके से सत्ता दखल करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं थे। भूस्वामी तबका जनवादीकरण और भूमि सुधारों को कतई स्वीकार नहीं करता था। बंगाल व पंजाब के भूस्वामियों में सत्ता पर प्रभुत्व के लिए परस्पर विरोध भी था। यही बांगलादेश की अलग राष्ट्र की आकांक्षा में प्रकट हुआ। अतः संविधान सभा 7 साल में भी संविधान नहीं बना पाने पर भंग करनी पड़ी। 1951 के चुनावों में पंजाब में 80% जमींदार ही चुन कर आए थे। इसके बाद नून, तिवाना व दौलताना जैसे बड़े जमींदारों ने मुस्लिम लीग की सरकार चलाई। इन्होंने भूमि सुधार के बजाय हिंदू-सिक्ख पलायन से खाली हुई 70 लाख एकड़ व सिंचाई के विस्तार से बनी नई सिंचित कृषि भूमि को भारत से गए मुस्लिम शरणार्थियों के बजाय अपने करीबी जमींदारों को ही अधिक आबंटित किया। 

1958 में बना संविधान बंगाल तथा अल्पसंख्यकों को स्वीकार्य नहीं था। इससे गहरे अंतर्विरोध खड़े हो गए। अस्थिरता के बहाने फौज ने सत्ता संभाली। फौजी अफसरशाही भूस्वामी तबके से ही आती है। 1947 तक तो भूस्वामी ही फौज में अफसर हो सकते थे। अयूब शासन ने जनतांत्रिक स्वीकार्यता हासिल करने के लिए ‘बेसिक डेमोक्रेसी’ स्थापित की। इलेक्टॉरल कॉलेज आधारित पार्टीविहीन चुनाव हुए। इनमें मजबूत हैसियत वाले प्रभुत्वशाली भूस्वामी ही चुने गए। भूस्वामी तबके से ही आई फौजी-सिविल अफसरशाही भी जमीनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। किसानों के असंतोष के चलते अयूब शासन में (1958) दिखावटी (500 एकड़ सिंचित और 1,000 एकड़ असिंचित लैंड सीलिंग) भूमि सुधार किए गए। बहुत अन्य छूट दी गई। भूस्वामियों को जमीनें बचाने का पूरा मौका मिला। फौजी शासन में जमींदारों, फौज-सिविल अफसरों तथा राजनेताओं का गठबंधन मजबूत हुआ। इन्हें बड़ी जमीन आबंटित की गई। जनरलों को रियायती दर पर ढाई-ढाई सौ एकड़ जमीनें मिलीं। 1968 में पंजाब असेंबली में बताया गया कि 1.05 लाख एकड़ जमीन आबंटित की गईं। गैरकानूनी कब्जे, जालसाजी, वगैरह अतिरिक्त थे।

ढाई दशक में ही जमींदारों, नेताओं, सिविल व फौजी अफसरों के गठजोड़ वाला शासक तबका तैयार हो चुका था। हरित क्रांति के भी सारे लाभ इन्हें मिले। इन्हीं में से पूंजीपति फार्मर व उद्योगपति तबका उभरा। यह शीर्ष तबका परस्पर अहसानों, पुराने नातों व वैवाहिक बंधनों आदि से भी जुड़ा हुआ था। पंजाब (व सिंध) के ये अमीर परिवार ही आज तक राजनीति, व्यवसाय, फ़ौज व सिविल अफसरशाही में प्रभावशाली हैं। तीनों प्रमुख पार्टियों व धार्मिक जमातों के नेता भी इसी तबके से आते हैं। शीर्षस्थ फौजी-नागरिक अफसरशाही, पूंजीपति, नेता, भूस्वामी गठजोड़ अपने भ्रष्ट तंत्र को बचाने हेतु जनतांत्रिक आकांक्षाओं को कुचलता आया है। निर्वाचित सरकारें भी आती रहीं, पर नेशनल असेंबली में इसी गठजोड़ का नियंत्रण रहा है। जनवादी अधिकारों की मांग ने जोर पकड़ा तो फौज मार्शल लॉ लगाकर सत्ता अपने हाथ में लेती रही है।      

1971 युद्ध बाद फौज को सत्ता छोड़नी पड़ी। फौजी हुकूमत में मंत्री रहने के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी बनाकर फौजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले बडे भूस्वामी भुट्टो सत्ता में आए और खुद को किसानों, मजदूरों, मध्य वर्ग के बुद्धिजीवी पेशेवरों आदि के मसीहा बतौर प्रस्तुत किया। भुट्टो ने कुछ उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया और भूमि सुधारों का कार्यक्रम लिया। 1972 में लैंड सीलिंग को 150 व 300 एकड़ और 1977 में 100 व 200 एकड़ किया गया। कानून के बावजूद भूस्वामियों व अफसरशाही के दबाव तथा पटवारियों के असहयोग से भूमि सुधार आंशिक ही लागू हुए। फिर भी भूस्वामी वर्ग व फौजी-सिविल अफसरशाही पीपुल्स पार्टी से बेहद रुष्ट थी और भुट्टो को इसकी सजा सत्ता और जान देकर चुकानी पड़ी।

जिया उल हक नेतृत्व में फौज ने भुट्टो का तख्ता पलट दिया। इस फौजी शासन का सामाजिक आधार भी पंजाबी भूस्वामी तबका ही था। जब्त जमीनों को लीज पर पुराने मालिक जमींदारों को लौटा दिया गया। बाद में शरई अदालत ने भूमि सुधार को गैर इस्लामी घोषित कर ये कानून रद्द कर दिए। उसके मुताबिक सारी संपत्ति अल्लाह की है और अल्लाह ने जिसे दी है उसका इस पर पूर्ण अधिकार है। राज्य इसमें दखल नहीं दे सकता। इस प्रकार भूमि सुधार पूर्णतया खत्म कर दिए गए और भूस्वामी जमीनों के मालिक बने रहे। यही भूस्वामी अभिजात वर्ग और इससे जुड़ी अफसरशाही व पूंजीपति ही पाकिस्तानी सत्ता तंत्र पर काबिज हैं। मुशर्रफ के फौजी शासन का आधार भी यही पंजाबी भूस्वामी तबका बना।

इस यथास्थिति को तोड़ा है लगातार जारी वैश्विक आर्थिक संकट ने जिससे बहुत से देशों में वित्तीय संकट पैदा हो गया है। निर्यात मुश्किल हो गए हैं। श्रमिकों का निर्यात व उनके द्वारा भेजी गई विदेशी मुद्रा पाकिस्तान के लिए अहम थी। श्रीलंका की तरह पाकिस्तान में भी इस विदेशी मुद्रा का आना कम हो गया है। अस्थिरता व आतंकवाद की वजह से पर्यटन आय समाप्त हो गई है। किंतु शासक वर्ग लग्जरी आयात कम करने के लिए तैयार नहीं है। विदेशी मुद्रा का संकट अत्यंत गंभीर है। जिओ पॉलिटिक्स में पाकिस्तान के घटे महत्व की वजह से आईएमएफ भी लंबी वार्ताओं के बावजूद कर्ज नहीं डे रहा है। अमरीकी खेमे में शामिल होने से पाकिस्तान को बड़ी आर्थिक व सैन्य मदद मिलती रही है। यह मदद भी शासक तबके द्वारा हजम की जाती रही है। परंतु अब अमेरिकी खेमे के लिए पाकिस्तान का महत्व घट गया है और भारतीय पूंजीपति वर्ग के साथ रणनीतिक निकटता बढ़ी है। इससे पाकिस्तान को सैन्य व नागरिक आर्थिक सहायता लगभग बंद हो गई है। यह भी संकट की तीव्रता का एक कारण है।   

इन संकटों ने शीर्ष पर काबिज गठजोड़ के बीच अंतर्विरोध तीक्ष्ण कर दिए हैं। नई स्थितियों में सभी के हित पूरे करना असंभव है। इससे बने परस्पर विरोधी धड़ों में फौज-सिविल अफसर, उद्योगपति, भूस्वामी, नेता सभी शामिल हैं। ये सभी इस भ्रष्ट तंत्र में शामिल हैं जिसमें भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर एक दूसरे के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। इन्हीं अंतर्विरोधों की वजह से सत्ता के लिए रोज नए समीकरण व गलाकाट होड जारी है। मुशर्रफ शासन के बाद से इस प्रक्रिया को लगातार तीव्र होते हुए देखा जा सकता है।

इसी तबके से आने के बावजूद इमरान खान सघन प्रचार व भाषणों से खुद को पीड़ित बतौर प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्होंने खुद को संपन्न पाकिस्तानी उच्च व मध्य वर्ग, अनिवासी पाकिस्तानियों, बुद्धिजीवी पेशेवरों की नजर में एक ‘नए पाकिस्तान’ की आकांक्षाओं के प्रतीक बतौर पेश किया है। नरेंद्र मोदी के ’60 साल में कुछ नहीं हुआ’ की तर्ज पर लंबे समय तक शासन करने वाली फौज तथा शरीफ-भुट्टो परिवारों को पाकिस्तानी जनता की तकलीफों का जिम्मेदार ठहराते हुए इमरान खान खुद को मुक्तिदाता की तरह पेश करते हैं। हालांकि उनकी अपनी कोई जनपक्षधर नीति नहीं है, न ही उनके तीन साल के कार्यकाल में कोई ऐसा सुधार हुआ। पर त्रस्त जनता को वे बता रहे हैं कि उन्होंने बहुत कोशिश की पर निहित स्वार्थों ने उन्हें काम ही नहीं करने दिया।

पहले उन्होंने खुद को हटाए जाने के लिए अमेरिकी दबाव का इल्जाम लगाया क्योंकि वे स्वतंत्र विदेश नीति अपना रहे थे। अब अमेरिका का जिक्र बंद है। फौज से भी उनका विरोध यही है कि उन्हें फौज के नेतृत्व में अपनी पसंद के अफसर चाहिए। वे खुद को ‘शहीद’ के रूप में पेश कर रहे हैं जबकि खुद उनके पीछे शासक तबके का एक सशक्त हिस्सा है और शरीफ-भुट्टो सरकार व फौज मिलकर भी उन्हें जेल भेज पाने में असफल है। इमरान खान ‘नया पाकिस्तान’ का भ्रामक सपना दिखाकर एक लोकरंजक दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी आंदोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं। पर इस आंदोलन के पीछे कोई वैचारिकी और संगठित शक्ति मौजूद नहीं है। इमरान खान की लोकप्रियता ही इसका आधार है और इसका बिखर जाना भी उतना ही अचानक संभव है। यह भी संभव है कि फौज के साथ उनका गठजोड़ फिर से बन जाए। इमरान तात्कालिक लाभ के लिए जनतंत्र की बातें जरूर कर रहे हैं पर जारी टकराव दो प्रतिक्रियावादी शासक वर्गीय शक्तियों का द्वंद्व ही है।

शासक वर्ग के इस परस्पर संघर्ष के बजाय पाकिस्तान के मौजूदा सरमायेदारी निजाम, जिसमें बड़े भूस्वामी-सरमायेदार हावी हैं, का उन्मूलन ही एकमात्र वास्तविक विकल्प है। इसके लिए पाकिस्तानी मजदूर वर्ग व समस्त मेहनतकश जनता की शक्तियों को अपना क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश करते हुए हस्तक्षेप करना और खुद को वास्तविक विकल्प के रूप में पेश करना होगा।