इजारेदार पूंजी की सुपर मुनाफे की हवस से बढ़ती महंगाई

April 1, 2022 1 By Yatharth

एम असीम

पिछले एक साल से अधिक, दुनिया भर में हर क्षेत्र में महंगाई की दर बेहद उच्च स्तर पर बनी हुई है। कई अमरीकी-यूरोपीय देशों में तो यह 1980 के दशक के बाद से महंगाई का उच्चतम स्तर है। पूंजीवादी अर्थशास्त्री, विद्वान व मीडिया विशेषज्ञ इसके पीछे लागत में वृद्धि व आपूर्ति श्रृंखला में आई रुकावट को कारण बता रहे हैं, हालांकि हाल के दिनों में रूस-यूक्रेन युद्ध को इसका मुख्य कारण बताया जाने लगा है। उनके अनुसार कंपनियों ने बढ़ती लागत को अपने स्तर पर खपाने की हरचंद कोशिश की है पर वे इसे पूरी तरह सहन नहीं कर पाईं और अपनी मुनाफा दर को बचाए रखने के लिए उन्हें अपने उत्पादित माल की कीमतें बढ़ाकर इसे अंतिम उपभोक्ताओं तक पहुंचाना पड़ रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक भी अपनी मौद्रिक नीति में यही तर्क देते हुए कह चुका है कि कंपनियों द्वारा अपनी लागत का पूरा बोझ अंतिम खरीदारों पर डालने की गति धीमी होती देखी गई है और इससे महंगाई में वृद्धि की रफ्तार कम होने के आसार हैं।

               उपरोक्त तर्क के पक्ष में भारत का उदाहरण भी दिया जा रहा है जहां थोक मूल्य सूचकांक 10 महीने से अधिक से दहाई के ऊपर है (फरवरी माह का ताजा आंकड़ा 13.11% है) जबकि फुटकर/खुदरा मूल्य सूचकांक फरवरी में 6.07% पर पहुंच गया है। इसके आधार पर तर्क दिया जा रहा है कि थोक महंगाई दर ऊंची होते हुए भी खुदरा महंगाई दर कम है अर्थात पूंजीपति लागत में वृद्धि का पूरा प्रभाव आम खरीदारों तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं क्योंकि मांग कम है। लेकिन इन दोनों में तुलना करना पूरी तरह सही नहीं क्योंकि दोनों ठीक एक ही वस्तुओं पर आधारित नहीं हैं – थोक मूल्य सूचकांक 697 वस्तुओं के दामों पर आधारित है जिसमें मैनुफैक्चर उत्पाद अधिक हैं जबकि फुटकर मूल्य सूचकांक में स्थानीय बाजारों में बिकने वाले स्थानीय उत्पाद अभी भी एक बड़ी जगह रखते हैं। फुटकर मूल्य सूचकांक में तो बड़ी संख्या में ऐसी चीजें भी शामिल हैं जो अभी बाजार में खरीदी बेची ही नहीं जातीं, या नगण्य स्थान रखती हैं जैसे कैसेट, वीसीआर, नोकिया फोन, आदि। अतः इन दोनों मूल्य सूचकांकों के अंतर के आधार पर यह कहना उचित नहीं कि पूंजीपति बढ़ती लागत को खपा ले रहे हैं और अंतिम उपभोक्ता के लिए दाम कम बढ़ा रहे हैं। असल में थोक मूल्य सूचकांक उत्पादन लागत का कम, औद्योगिक पूंजीपतियों द्वारा व्यापारिक पूंजीपतियों को बिक्री मूल्य का सूचकांक अधिक है।

               यहां इस पहलू पर भी ध्यान देना जरूरी है कि ये मूल्य सूचकांक भी महंगाई की वास्तविक भयावह स्थिति की पूरी तस्वीर स्पष्ट नहीं करते। इसके लिए हम दिसंबर 2021 में समाप्त तिमाही के बिक्री आंकड़ों के सीएमआईई के विश्लेषण से एक उदाहरण लेंगे। इसके अनुसार इस तिमाही में गैर वित्तीय कारोबार करने वाली कंपनियों की आंकिक बिक्री 30.9% बढ़ी। किंतु इसमें से महंगाई या बढे मूल्यों के कारण हुई वृद्धि को निकाल दिया जाये तो बिक्री हुए माल की मात्रा में वास्तविक वृद्धि सिर्फ 7.1% ही थी जो दीर्घकालिक औसत बिक्री वृद्धि के अनुसार ही है। इसका अर्थ है कि बढ़ते दामों की वजह से बिक्री में वृद्धि औसत 7.9% से चार गुना अधिक तेजी से हुई। धातुओं, सीमेंट तथा पेंट आदि के कारोबार में लगी कंपनियों की बिक्री में बढ़े दामों के कारण हुई इस वृद्धि का प्रभाव खास तौर पर देखा गया। और इन ऊंचे दामों का फायदा इन क्षेत्रों की कंपनियों को ही हुआ।

वित्तीय सट्टेबाजी से महंगे होते खाद्यान्न

जहां तक इस बढ़ती महंगाई के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध को ही मुख्य जिम्मेदार बताने का सवाल है तो यह बताना जरूरी है कि युद्ध ने इस वृद्धि को तेज करने में योगदान जरूर किया है पर यह मुद्रास्फीति व इसके बुनियादी कारण उसके पहले ही मौजूद थे। सुविज्ञात अर्थशास्त्री जयति घोष खाद्य मुद्रास्फीति को विशेष तौर पर चिंताजनक मानते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध के प्रभाव के महीनों पहले लिख रही थीं (https:// www.project-syndicate.org/ commentary/tacking-the-food-price-inflation-problem-by-jayati-ghosh-2022-01) कि “2021 के अंत में, संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का खाद्य मूल्य सूचकांक एक दशक में अपने उच्चतम स्तर पर था .. 2021 में औसतन 28% की वृद्धि हुई। इस उछाल का अधिकांश हिस्सा अनाज था, जिसमें मक्का और गेहूं की कीमतों में क्रमशः 44% और 31% की वृद्धि हुई थी। लेकिन अन्य खाद्य पदार्थों की कीमतों में भी वृद्धि हुई: वनस्पति तेल की कीमतें वर्ष के दौरान रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गईं, चीनी में 38% की वृद्धि हुई, और मांस और डेयरी उत्पादों की कीमतों में वृद्धि, हालांकि कम थी, फिर भी दोहरे अंकों में थी। खाद्य-मूल्य मुद्रास्फीति वर्तमान में समग्र मूल्य सूचकांक में वृद्धि से अधिक है, और कोविड महामारी के दौरान श्रमिकों की मजदूरी आय में उल्लेखनीय गिरावट को देखते हुए और भी अधिक खतरनाक है – विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देशों में। अधिक महंगे भोजन और कम आय का यह घातक संयोजन भूख और कुपोषण में भयावह वृद्धि को बढ़ावा दे रहा है। खाद्य कीमतों में तेजी के कई संभावित कारण हैं। कुछ व्यवस्था जनित हैं। आपूर्ति-श्रृंखला की समस्याएं – विशेष रूप से परिवहन संबंधी – कीमतों में बढ़ोतरी का एक प्रमुख कारक रही हैं। इस प्रकार, लगभग 2.8 बिलियन टन के रिकॉर्ड वैश्विक उत्पादन के बावजूद, अनाज की कीमतें 2021 में तेजी से बढ़ीं।”

               सरकारी नीतियों, नियमों व जमाखोरी के अतिरिक्त जयति घोष की नजर में खाद्य महंगाई के पीछे “अन्य महत्वपूर्ण कारक खाद्य बाजारों में वित्तीय सट्टेबाजी है, जो हाल के दौर में बढ़ी हैं। 2000 के दशक की शुरुआत में संयुक्त राज्य अमेरिका में वित्तीय विनियमन के बाद खाद्य वस्तुएं एक परिसंपत्ति वर्ग बन गईं, और इस बात के महत्वपूर्ण प्रमाण हैं कि इसने 2007-09 की खाद्य-मूल्य अस्थिरता को अस्थिर करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई। हाल के वर्षों में, ये जिंस निवेशकों के लिए कम आकर्षक हो गए थे, लेकिन महामारी के दौरान यह बदल गया। उच्च अस्थिरता के बावजूद, प्रमुख खाद्य वस्तु बाजारों में खरीदी जुआ (long position) 2021 अधिकांश मामलों में महत्वपूर्ण स्तर पर बढ़ी थी, यह संकेत देते हुए कि वित्तीय निवेशक कीमतों में वृद्धि की उम्मीद कर रहे थे। इस तरह के निवेश की मात्रा में पिछले साल काफी वृद्धि हुई, जो लगातार नियामक खामियों और वित्तीय संस्थानों को सस्ते ऋण की उपलब्धता के कारण मुमकिन हुई। मध्यम अवधि में खाद्य आपूर्ति और कीमतों को प्रभावित करने वाली कुछ अधिक प्रणालीगत ताकतों के विपरीत, नीति निर्माता आसानी से भंडारण और सट्टेबाजी के मुद्दों को संबोधित कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए सरकारों को यह स्वीकार करना होगा कि ये समस्याएं हैं, और उन्हें संबोधित करने के लिए इच्छाशक्ति जुटानी होगी। जब तक वे ऐसा नहीं करते, खाद्य-मूल्य मुद्रास्फीति दुनिया के गरीबों को सबसे ज्यादा प्रभावित करती रहेगी।” मोदी सरकार के कृषि कानूनों को इस बात के संदर्भ में भी समझना चाहिए।

बढ़ती महंगाई के पीछे – अधिक लागत या मुनाफा?

लेकिन इस बढ़ती महंगाई के कारणों पर वापस आयें तो हर बार जब भी कोई पूंजीपति अपने मालों के दाम बढ़ाता है तो इसकी यही मुख्य वजह बताई जाती है कि उसकी उत्पादन लागत बढ़ गई है इसलिए दाम बढ़ाना मजबूरी है अन्यथा उनका अपना मुनाफा घट जायेगा। अतः इस बात की पड़ताल जरूरी हो जाती है कि महंगाई दर में रिकॉर्ड वृद्धि की इस व्याख्या में कितनी सच्चाई है। क्या वास्तव में ही कंपनियों के मुनाफे की दर पर कोई दबाव की स्थिति मौजूद है?

               सबसे पहले तो अगर हम ऊपर बढ़ती लागत को पूरी तरह खरीदारों पर न डाल पाने के इस बताये जा रहे तर्क को सही मान लें तो इसकी पुष्टि के लिए साथ ही हमें अधिकांश कंपनियों के मुनाफे में कमी या कम से कम उसके न बढ़ने का तथ्य भी सबूत के तौर पर मिलना चाहिए। किंतु कोरोना काल के पहले साल से ही आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती और अधिकांश जनता के जीवन में संकट के बावजूद हमने अधिकांश कंपनियों के मुनाफे में भारी वृद्धि का दौर देखा है। कंपनियों की मुनाफे की दर में पहले सालों में जो कमी आ रही थी, उसके बजाय साल 2020 व 2021 में कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के मुनाफों में तेजी आई है। भारत में कॉर्पोरेट मुनाफों की दर में हुई वृद्धि पर हम ‘यथार्थ’ में पहले ही लिख चुके हैं। कॉर्पोरेट मुनाफों में वृद्धि की ऐसी ही खबरें अन्य ऐसे पूंजीवादी देशों से भी हैं जहां महंगाई में तीव्र इजाफा हुआ है। अतः महंगाई के पीछे ऊंची लागत को जिम्मेदार ठहराने का तर्क पहली सरसरी नजर में ही गलत सिद्ध हो जाता है। असल में अंतिम उपभोक्ता वस्तुओं की जो लागत बढ़ी भी है उसके पीछे भी तो उनमें इनपुट के तौर पर लगने वाली वस्तुओं के दामों व माल भाड़े में व्यापार को नियंत्रित करने वाले इजारेदार पूंजीपति गिरोहों-गठजोड़ों द्वारा मिलीभगत व तिकड़मों से की गई वृद्धि ही है जिसके कुछ उदाहरण हम आगे देखेंगे। ये गठजोड़ कैसे काम करते हैं उसके लिए भारतीय टेलीकॉम उद्योग का उदाहरण हम सब की नजर में है कि कैसे लगभग पूरे बाजार पर नियंत्रण वाली तीनों कंपनियां (जिओ, एयरटेल व वी) एक साथ मिलकर दो बार मोबाइल सेवाओं के दाम बढ़ा चुकी हैं और तीसरी बार की तैयारी में हैं। दाम बढ़ाने के पहले एयरटेल का मुख्य पूंजीपति सुनील मित्तल कॉर्पोरेट मीडिया के पत्रकारों को बताता भी है कि उनकी आपसी बातचीत कैसी चल रही है और इससे पूरा टेलीकॉम उद्योग कैसे और भी अधिक लाभप्रद बन जायेगा। तब इसमें किसी कंपनी की लागत के बढ़ने से दाम बढ़ाने का संबंध ही कहां रह जाता है?

वास्तव में लागत और कॉर्पोरेट पूंजीपतियों द्वारा वसूले जाने वाले दामों में कितना संबंध होता है इसके लिए हम यहां सिर्फ एक चार्ट दे रहे हैं (https://timesofindia.indiatimes.com/india/hospital-in-wardha-shows-quality-healthcare-can-be-affordable-too/articleshow/79661350.cms) जिसमें कुछ चिकित्सकीय जांचों के लिए कॉर्पोरेट अस्पतालों में वसूले जाने वाले दामों की तुलना वर्धा में मात्र 160 करोड़ रु के सालाना बजट में एक गैर मुनाफा आधारित सामाजिक संस्था द्वारा संचालित मेडिकल कॉलेज (एमजीआईएमएस) द्वारा लिए जाने वाले शुल्क से की गई है।

ऊंचे दाम व इजारेदार पूंजीवादी गठजोड़

इजारेदार पूंजीपतियों के गठजोड़ द्वारा मुनाफा वृद्धि के उदाहरण के तौर पर हम सबसे पहले उन कंटेनर जहाजरानी कंपनियों का उदाहरण लेते हैं जिनके बारे में सबसे पहले ये खबर फैलनी शुरू हुई थी कि कंटेनरों, जहाजों, बंदरगाहों, ट्रकों व गोदामों में माल लदान, ढुलाई तथा परिवहन में आ रही दिक्कत की वजह से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बाधित होने से माल सही वक्त पर नहीं पहुंच पा रहा है इसलिए महंगाई बढ़ने लगी है। लेकिन अगर यह बात सही होती तो इन कंपनियों के कारोबारी नतीजों पर इसका नकारात्मक असर पड़ना चाहिए था। लेकिन साल 2021 के पहले 9 महीनों में इस क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों के नतीजे बताते हैं कि इस दौरान इन्हें 80 अरब डॉलर का लाभ हुआ है जो इसके पहले के साल के मुकाबले 7 गुना है, अर्थात छप्पर फाड़ मुनाफा! असल में गौर किया जाये तो कंटेनर जहाजरानी क्षेत्र में सिर्फ 3 इजारेदार कंपनियों के गठजोड़ का विश्व भर के 80% समुद्री माल ढुलाई पर  दबदबा है और इन्होंने ही कंटेनरों में कमी का संकट पैदा कर अपने माल भाड़े में खूब वृद्धि की और भारी मुनाफा कमाया है। अमरीका में महंगाई की वजहों पर इधर जो बहस उठ खड़ी हुई है उसमें जो तथ्य सामने आए हैं उसके चलते खुद राष्ट्रपति जो बाइडेन को अपने सालाना स्टेट ऑफ द यूनियन भाषण में यह

स्वीकार करना पड़ा कि इन कंटेनर शिपिंग कंपनियों ने गठजोड़ या कार्टेल बना लिया है और मुनाफाखोरी के लिए ही मौजूदा संकट की स्थिति तैयार की है। इसी किस्म की बात बाइडेन प्रशासन को मीट पैकिंग उद्योग के संबंध में भी माननी पड़ी है। आम अमरीकियों के भोजन के प्रमुख अंश पैकेज्ड मीट के दाम भी कुछ कंपनियों ने गठजोड़ बनाकर तेजी से बढ़ा दिए हैं जबकि मुर्गी, मवेशियों, भेड़ों, सूअरों, आदि के दाम तुलनात्मक रूप से स्थिर बने हुए हैं।

               बाजार दामों को स्वाभाविक दाम बताने के बुर्जुआ अर्थशास्त्र के जड़सूत्र के विपरीत यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाच्युसेट्स एमहर्स्ट की अर्थशास्त्र की प्रोफेसर इजाबेला वेबर ने 29 दिसंबर 2021 को लंदन के गार्जियन अखबार में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि महंगाई दर 40 साल के रिकॉर्ड स्तर पर है और केंद्रीय बैंक इसमें हस्तक्षेप का भरोसा दिला रहे हैं। पर दामों में इस रिकार्ड उछाल के पीछे जिस प्रमुख कारण को लगभग पूरी तरह नजरअंदाज किया जा रहा है वह है मुनाफों में वृद्धि का विस्फोट। उनके अनुसार 2021 में गैर-वित्तीय कारोबार में मुनाफे का मार्जिन उस उच्च स्तर पर पहुंच गया है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दिनों के अतिरिक्त कभी नहीं देखा गया था। यह घटना कोई संयोग मात्र नहीं है। कोरोना महामारी पश्चात वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में गत विश्वयुद्ध पश्चात जैसी बाधाएं उत्पन्न हुई हैं और तब की ही तरह बड़े कॉर्पोरेट को बाजार में अपने दबदबे के कारण आपूर्ति में दिक्कतों का लाभ उठाकर कीमतें बढ़ा छप्पर फाडू मुनाफे कमाने का मौका मिल गया है। चुनांचे फेडरल रिजर्व जैसे केंद्रीय बैंकों द्वारा नकदी प्रवाह में कटौती या ब्याज दरें बढ़ाने जैसे मौद्रिक सख्ती के कदमों से इस समस्या का समाधान मुमकिन नहीं है और युद्ध पश्चात के दौर की ही तरह मूल्य नियंत्रण की रणनीति पर गंभीर विचार की जरूरत है।

               इस लेख को लेकर बुर्जुआ विद्वानों में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और प्रोफेसर वेबर को नकली अर्थशास्त्री व ‘वामपंथी’ (बुर्जुआ विद्वानों के लिए सबसे बड़ी गाली के तौर पर) तक कहा जाने लगा। इस कटु गाली-गलौज भरी प्रतिक्रिया में पॉल क्रुगमैन आदि नामी व नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध विद्वान तक शामिल थे। इससे ही पता चलता है कि उनके आका पूंजीपति वर्ग के लिए आम लोगों द्वारा इस सच्चाई को जानना कितना घातक है। इन सब विद्वान अर्थशास्त्रियों का कहना था कि पूंजीपतियों द्वारा दाम निर्धारण पर कोई रोकटोक नहीं होनी चाहिए क्योंकि खुले बाजार की प्रतियोगिता से निर्धारित हुए दाम ही स्वाभाविक व प्राकृतिक दाम होते हैं। ये प्राकृतिक दाम आर्थिक विकास को तीव्र करते हैं जबकि इनके अनुसार मूल्य नियंत्रण ‘अप्राकृतिक’ होने के कारण आर्थिक विकास को बाधित करता है और मुद्रास्फीति और अधिक बढ़ जाती है। इनका तर्क होता है कि जहां दाम ज्यादा होंगे वहां मुनाफा ज्यादा होगा तो पूंजीपति उस क्षेत्र में अधिक पूंजी लगाएंगे जिससे आपूर्ति बढ़ने से दाम खुद ब खुद गिर जाएंगे और आर्थिक विकास तेज होगा। किंतु आज के समय में यह तर्क जानबूझकर की गई धोखाधड़ी से अधिक कुछ नहीं है क्योंकि आज के उत्पादन की वैश्विक व देशी आपूर्ति श्रृंखलाओं के युग में मात्र अपवादस्वरूप ही किसी अत्यंत छोटे व सरल स्तर के उत्पादन में ही नए पूंजीपतियों द्वारा प्रवेश कर उत्पादन को बढ़ाने का काम संभव है। अत्यधिक पूंजी संकेद्रण व इजारेदारी पूंजीवाद के समय में अधिकांश क्षेत्र में ऐसा होना नामुमकिन है। टेलीकॉम व जहाजरानी उद्योग के दो उदाहरण हमने ऊपर दिए। क्या दाम बढ़ने की वजह से ऐसा मुमकिन है कि नए पूंजीपति इन क्षेत्रों में आकर आपूर्ति को इतना बढ़ा दें कि दाम गिर जायें?

बाजार व राजनीति दोनों पर काबिज इजारेदार पूंजीपति

इजारेदार पूंजीवाद के युग में अनियंत्रित होड़ द्वारा दाम न गिरने का कारण मात्र आर्थिक ही नहीं है। यही इजारेदार पूंजीपति राजसत्ता को भी नियंत्रित करते हैं और उसके द्वारा आर्थिक होड़ को रोकने के लिए मनमर्जी से नियम-कानून बनवाने, अदालती फैसले

करवाने व पुलिस-अपराधियों तक का इस्तेमाल करने में भी सक्षम हैं। टेलीकॉम, हथियार, आईटी, खुदरा व्यापार, ई-कॉमर्स, आदि बड़े उद्योगों में ही नहीं, बीजेपी सरकारों ने पूरे मांस उद्योग तक की तस्वीर भी अपनी नीतियों से जबरदस्ती बदल डाली है और अभी मांस उद्योग में बड़े पैमाने पर कुछ इजारेदार पूंजीपतियों का नियंत्रण कायम होता जा रहा है क्योंकि बड़ी संख्या में छोटे मांस उत्पादकों-विक्रेताओं को इससे कानून, पुलिस व अपराधी गिरोहों के बल पर बाहर कर दिया गया है। अंबानी, अदानी, टाटा, रामदेव जैसे पूंजीपति अपने मुनाफे के लिए पूरे सत्ता तंत्र के साथ ही गैर-कानूनी समानांतर सत्ता का कैसे प्रयोग करते हैं यह अब इतना सुविज्ञात है कि इसके बारे में बहुत उदाहरण देने की जरूरत भी नहीं है। 

                 गौरतलब है कि मोदी सरकार द्वारा कृषि कानूनों में संशोधन के जरिए कृषि व्यापार को कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हवाले करने व उत्पादों के भंडारण पर पूर्व में आयद सीमाओं को हटाने के पीछे भी बुर्जुआ आर्थिक विशेषज्ञों ने ऐसे ही तर्क दिए थे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के रूप में पूरे समाज से लगान वसूलने वाले (rentier) धनी किसानों व लघु-मध्यम व्यापारियों के हाथ से अनाज व्यापार निकल कर इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हाथ में चले जाने पर आम लोगों के लिए अनाज व खाद्य वस्तुएं सस्ती व सुलभ होंगी। हालांकि ‘यथार्थ’ में हम सरसों सहित खाद्य तेलों के दामों को आसमान पर पहुंचाने में जिम्मेदार अदानी व अन्य इजारेदार पूंजीपतियों की भूमिका पर पहले ही विस्तार से लिख चुके हैं, लेकिन कुछ ‘विद्वान’ ऐसा भ्रम फैलाते रहते हैं कि भारत में तो ऐसा पूंजीवाद के विकृत रूप क्रोनी कैपीटलिज्म की वजह से होता है एवं सही तरीके से पूंजीवादी होड़ वाला नियमबद्ध पूंजीवादी बाजार हो तो ऐसा नहीं होगा। चुनांचे हम पूंजीवादी ‘मुक्त बाजार’ व ‘होड़’ के मक्का माने जाने वाले अमरीका में हाल के घटनाक्रम से कुछ उदाहरण देना भी जरूरी समझते हैं कि आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं के बाजारों पर कॉर्पोरेट इजारेदार पूंजी का नियंत्रण कैसे नतीजे देता है और इससे आम लोगों को कैसा और कितना लाभ होता है।

‘              यदि आपको किराने के सामान, दवाओं, आदि से लेकर किराये-भाड़े और तेल-गैस की कीमतों तक हर चीज की ऊंची कीमतों से हाल ही में झटका लगा है, तो आप शायद सोच रहे होंगे कि इन आसमान छूती लागतों के पीछे असल वजह क्या है। कॉर्पोरेट निगम इस वास्तविक महंगाई के लिए कोरोना महामारी या यूक्रेन में युद्ध पर दोष देने के लिए अति तत्पर हैं, लेकिन इरादा मुख्य दोषी को छिपाना है : उनकी अपनी खुद की मुनाफाखोरी। मुक्त बाजार के सबसे बड़े चैंपियन अमरीका में जहां यह सब काम अधिक खुलकर होता है इस पर कुछ अध्ययन सामने आए हैं।’ उपरोक्त बात से शुरू होती वर्कर्स टुडे की एक रिपोर्ट (https://workers.today/its-not-just-inflation-its-price-gouging/) इस संबंध में बताती है।

               कानूनन साल में चार बार इन निगमों को अपने पूंजी निवेशकों और पूंजीपति वर्ग के विश्लेषकों को बिक्री और मुनाफे के मामले में अपनी स्थिति पर अद्यतन जानकारी देनी होती है। इन्हें “कमाई रिपोर्ट” (अर्निंग कॉल्स) कहा जाता है क्योंकि कंपनियां आमतौर पर निवेशकों/विश्लेषकों को नवीनतम रिपोर्ट पर जानकारी देने के लिए कॉल (फोन बैठक) आयोजित करती हैं। ग्राउंडवर्क कोलैबोरेटिव नामक संगठन ने हाल ही में ऐसी सैंकड़ों अर्निंग कॉल्स के शब्दशः विवरण (ट्रांसक्रिप्ट्स) हासिल कर उनका विश्लेषण किया। और आपको विश्वास नहीं होगा कि इन कंपनियों के सीईओ किस बारे में शेखी बघार रहे हैं। यह जानते हुए कि मौजूदा मुद्रास्फीति का उफान एक सुविधाजनक बलि का बकरा है, ये कंपनियां अपने लाभ मार्जिन को कम करने के लिए ग्राहकों से और भी अधिक ऊंचे दाम/शुल्क वसूल रही हैं। वे इसे केवल स्वीकार ही नहीं कर रहे हैं – वे खुले तौर पर निवेशकों से डींग मार रहे हैं कि यह दामों में अधिकतम वृद्धि का कितना अच्छा मौका है। लोकप्रिय किराना ब्रांडों के निर्माता हॉरमेल के मुख्य वित्त अधिकारी (सीएफओ) ने दावा किया, “मुझे लगता है कि हमने अपने मूल्य निर्धारण के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम किया है।” “मुझे लगता है कि यह बहुत प्रभावी रहा है।” क्योंकि जैसे ही कीमतें बढ़ीं, कंपनी ने 2021 की तुलना में 2022 की पहली तिमाही में अपनी परिचालन आय में 19% का सुधार किया। मॉडलों और कोरोना नामक पॉपुलर बियर की मालिक कंपनी कॉन्स्टेलेशन ब्रांड्स भी नग्न मुनाफाखोरी में लिप्त है। अपनी जनवरी कॉल में, कॉन्स्टेलेशन के सीएफओ ने मुनाफाखोरी के साथ नस्लवाद को भी मिलाते हुए स्वीकार किया कि उसका उपभोक्ता आधार “हिस्पैनिक अधिक” है और कंपनी उनसे “जितना ज्यादा वसूल ले सकती है” उतना वसूल रही है।

               और अब, यूक्रेन में संघर्ष तेल और गैस कंपनियों के लिए अपनी ‘निचली रेखाओं’(लाभ-हानि के हिसाब में मुनाफे को निचली रेखा कहा जाता है) को मोटा करने का एक और अवसर प्रदान कर रहा है। “पूर्वी यूरोप में जो हो रहा है, वह दुखद है” फरवरी के अंत में एक तेल कंपनी के मुख्य कार्यकारी ने कहा। “लेकिन ये उच्च कीमतें, अस्थिरता, ही तो और भी अधिक ऊर्जा सुरक्षा और दीर्घकालिक अनुबंध का आधार हैं।” लेकिन मुनाफाखोरी की यह महामारी उपभोक्ताओं, श्रमिकों और छोटे व्यवसायों पर भारी पड़ रही है। कम आय वाले अमेरिकी अपने परिवारों को खिलाने और अपने बिलों का भुगतान करने के लिए एक-एक दमड़ी बचाने की कोशिश कर रहे हैं। और जबकि मेगा कंपनियां कीमतें बढ़ाने और रिकॉर्ड मुनाफा कमाने के लिए अपनी बाजार शक्ति का दुरुपयोग कर सकती हैं, छोटे व्यवसाय और स्वतंत्र खुदरा विक्रेता अपने कारोबारों के दरवाजे खुले रखने मात्र के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं।

               हम इस वक्त जिस भयावह मूल्य वृद्धि और एकाधिकारवादी व्यवहार को देख रहे हैं, वह हमारे श्रमिकों और आपूर्ति श्रृंखला, अत्यधिक कॉर्पोरेट शक्ति, और वित्तीय बाजारों में अल्पकालिक लाभ को अधिकतम करने के मामले में दशकों का शीर्षतम उदाहरण है। इजारेदारों के नियंत्रण वाली मौजूदा व्यवस्था ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि मांग में जरा सी वृद्धि होते ही उन्हें ऊंचे दामों व मुनाफाखोरी का खुला मौका मिल गया है। जरा भी गलतफहमी में न रहें : अगली बार जब आपको किसी स्टोर की चेकआउट लाइन में सख्त झटके का अनुभव होता है, तो यह एक पक्की बात है कि कॉर्पोरेट प्रबंधक और पूंजी मालिक शेयरधारक आपको लगे इस

झटके से पुरस्कार प्राप्त कर अमीर हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि लोग इस बात को पकड़ नहीं पा रहे हैं। डेटा फॉर प्रोग्रेस एंड ग्राउंडवर्क के एक नए सर्वेक्षण में पाया गया है कि 63% मतदाताओं का मानना ​​​​है कि “बड़े निगम उपभोक्ताओं पर बोझ बढ़ाने हेतु गलत तरीके से कीमतें और मुनाफा बढ़ाने के लिए महामारी का फायदा उठा रहे हैं।”

               आम लोग भी इस बात को समझ रहे हैं, ठीक इसी वजह से सरकार व नीति निर्माता भी इस बात का नोटिस लेने को मजबूर हो रहे हैं। न्यूयॉर्क के अटॉर्नी जनरल के कार्यालय ने हाल ही में ऊंची खून चूसू कीमतें ऐंठने की जांच के नए नियमों की घोषणा की है। राष्ट्रपति जो बाइडेन को भी महामारी के बहाने कीमत बढ़ाने पर कार्रवाई का वादा करने के लिए मजबूर होना पड़ा है । इसके कुछ दिनों बाद, कांग्रेस के निरीक्षण पैनल ने तीन प्रमुख महासागर शिपिंग गठबंधनों की जांच शुरू की है। ये गठबंधन लगभग 80% समुद्री माल यातायात को नियंत्रित करते हैं और पिछले वर्ष की तुलना में उनके मुनाफे में सात गुना वृद्धि देखी गई है। पर अभी वास्तविकता यही है कि प्रतिस्पर्धा, मजबूत विनियमन और नियंत्रण के अभाव में, बड़े कॉर्पोरेट निगम कीमतों को बढ़ाने और अपने लाभ मार्जिन को ऊंचा रखने के लिए महामारी का उपयोग करने में सफल हैं, और उच्च कीमतें अभी कम होने वाली नहीं हैं।

               जैसा ऊपर जिक्र किया गया न्यूयॉर्क के अटॉर्नी जनरल लेटिशिया जेम्स ने घोषणा की है (https://prospect.org/economy/new-york-begins-rulemaking-to-stop-corporate-profiteering/) कि उनका कार्यालय राज्य के सामान्य व्यापार कानून के तहत नए नियम लिखेगा, जिसका उद्देश्य उच्च मुद्रास्फीति के समय अवसरवादी मूल्य-वृद्धि को रोकना है। कॉर्पोरेट अर्निंग कॉल्स से प्राप्त साक्ष्य की बढ़ती मात्रा बताती है कि कंपनियां मुद्रास्फीति का उपयोग आपूर्ति श्रृंखला व्यवधानों के कारण इनपुट लागत में वृद्धि की बात को कीमतों को बढ़ाने के लिए एक बहाने के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं। घोषणा में बीफ, डायपर, टूथपेस्ट, कॉफी और अन्य रोजमर्रा के जरूरी सामानों की अवसर का लाभ उठाकर की गई मूल्य वृद्धि के साथ-साथ वैश्विक महासागर शिपिंग और ऊर्जा कंपनियों के बढ़ते मुनाफे पर प्रकाश डाला गया है। जेम्स ने एक बयान में कहा, “पूरी महामारी के दौरान, मेहनती न्यूयॉर्कर अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन बड़े निगम रिकॉर्ड तोड़ मुनाफे का जश्न मना रहे हैं।” “यह सही नहीं है। मेरा कार्यालय ऊंची कीमतें ऐंठने और महामारी के वक्त मुनाफाखोरी पर नकेल कसने के लिए हमारे टूलबॉक्स में मौजूद हर उपकरण का उपयोग करने के लिए तैयार है। ”

               लेकिन संघीय स्तर पर अभी भी इस बात को लेकर तीखी बहस चल रही है कि बुनियादी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के लिए ऐसे कॉरपोरेट दाम निर्धारण का कितना योगदान है। व्हाइट हाउस ने कुछ मौकों पर उस स्थिति में किराने में मीट की कीमतें बढ़ाने के लिए मीटपैकिंग इजारेदार निगमों को फटकारने की बातें बोली हैं, जबकि मवेशियों,  सूअरों और मुर्गियों की कीमतें स्थिर रही हैं। न्याय विभाग श्रम लागत को कम करने के लिए श्रमिक मजदूरी पर जानकारी साझा करने वाली पॉल्ट्री कंपनियों की भी जांच कर रहा है। स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन में, राष्ट्रपति बाइडेन ने महासागर शिपिंग कार्टेल के रिकॉर्ड मुनाफे पर नकेल कसने की भी घोषणा की है। लेकिन बाइडेन प्रशासन के अन्य लोग व्हाइट हाउस की इस प्रतिक्रिया को खारिज करने का संदेश दे रहे हैं, हालांकि कॉर्पोरेट अर्निंग कॉल पर सीईओ द्वारा अपनी “मूल्य निर्धारण शक्ति” के बारे में दावा करने के बहुत से उदाहरण सामने आ चुके हैं, जिसका अर्थ होता है ग्राहकों की जेब की हद तक कीमतें बढ़ाने की क्षमता। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने ही सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली 100 बड़ी कंपनियों की पहचान की है, जो 2019 के स्तर की तुलना में कम से कम 50 प्रतिशत अधिक लाभ मार्जिन का आनंद ले रही हैं। संघीय आर्थिक डेटा भी 2020 में कॉर्पोरेट मुनाफे में एक महत्वपूर्ण वृद्धि दर्शाता है।

               न्यूयॉर्क अटार्नी जनरल द्वारा प्रस्तावित नियम बनाने की सूचना में कहा गया है कि न्यूयॉर्कर्स ने 2021 में गैसोलीन के लिए कीमतों में 39.6 प्रतिशत की वृद्धि देखी; पुरानी कारों के लिए 41.6 प्रतिशत और नई कारों के लिए 18.4 प्रतिशत; मांस और अंडे के लिए 16 प्रतिशत; और घरेलू ऊर्जा के लिए 21.4 प्रतिशत। … नोटिस में विशेष रूप से बीफ और महासागर शिपिंग उद्योगों का हवाला दिया गया है। सुपरमार्केट, फास्ट फूड, ऑटो डीलर, तेल और गैस, और लकड़ी, आदि के क्षेत्र भी इसमें संदर्भित हैं। नोटिस में कहा गया है कि अधिक संकेंद्रित उद्योगों के पास मुद्रास्फीति को बहाने के रूप में इस्तेमाल करते हुए कीमतें बढ़ाने की अधिक क्षमता है, क्योंकि उपभोक्ताओं के पास कई मामलों में आवश्यक सामान के लिए और कोई विकल्प नहीं है अर्थात इन क्षेत्रों में कुछ कॉर्पोरेट पूंजीपतियों की इजारेदारी है। संभावित कॉर्पोरेट मूल्य-निर्धारण से निपटने के लिए राज्य स्तर पर नियम बनाने का यह पहला उदाहरण है। वजह है कि ओपिनियन पोल्स से पता चलता है कि अधिकांश जनता मुनाफाखोरी के लिए इजारेदार कॉर्पोरेट निगमों को जिम्मेदार ठहराती है।

               स्पष्ट है, महंगाई के मौजूदा दौर के लिए लागत बढ़ने की बात सिर्फ एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल की जा रही है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था में लागत अंततः मानव श्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं है। एक उद्योग में लगने वाले इनपुट्स को देखें तो अंततोगत्वा वे कुछ प्राथमिक उत्पादन जैसे खनन, कृषि, जल-जंगल, आदि की उपज से आरंभ होते हैं जिनका मूल्य सिर्फ मानव श्रम की वजह से होता है। उत्पादन के हर चरण में इनमें जुड़ते मानव श्रम से ही इनका मूल्य बढ़ता जाता है अर्थात प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं में अंतिम चरण तक जुड़ा मानव श्रम ही कुल लागत का आधार है। अतः पूंजीवादी आर्थिक तर्क (दाम=लागत+मुनाफा) के नजरिए से देखें तो पूरी अर्थव्यवस्था के तौर पर लागत व दामों में वास्तविक वृद्धि तभी मुमकिन है जब उसमें लगे श्रम के लिए चुकाया गया दाम बढ़ा हो। पर हम जानते हैं कि कोविड महामारी के दौर में बेरोजगारी भी बढ़ी है और मजदूरी में भी कुछ अपवादों को छोड़कर कोई वास्तविक वृद्धि नहीं देखी गई है। इसके बावजूद अगर महंगाई इतनी तेजी से बढ़ रही है तो इसका एकमात्र कारण अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने वाले इजारेदार पूंजीपतियों के सुपर मुनाफे की बढ़ती हवस है।