‘जनतंत्र के मक्का‘ अमेरिका में रेल हड़तालों पर कानूनी शिकंजा
December 20, 2022जनतंत्र का दिखावा भी खत्म, सिर्फ नंगा पूंजीवादी अधिनायकत्व
संपादकीय, दिसंबर 2022
2 दिसंबर को दुनिया भर में जनतंत्र व मानवाधिकारों का चैंपियन होने का दावा करने वाले अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कांग्रेस के दोनों सदनों में ताबड़तोड़ ढंग से उसी दिन पारित संयुक्त प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए जिसके अंतर्गत 9 दिसंबर से हड़ताल पर जाने वाले रेल मजदूरों को हुक्म दिया गया कि उन्हें मालिक पूंजीपतियों द्वारा दिया गया समझौते का ऑफर हर हालत में मानना होगा और वे हड़ताल नहीं कर सकते। हस्ताक्षर के बाद बाइडेन ने अपने श्रम व यातायात मंत्रियों के साथ खड़े हो ऐलान किया कि “हम विनाशकारी रेल हड़ताल से बच गए हैं।” ऐसा 1926 के रेलवे लेबर कानून के तहत किया गया जिसमें कहा गया है कि श्रमिक हड़ताल कर सकते हैं मगर रेल सेवाओं को पटरी से नहीं उतार सकते। इसके पहले 1991 में भी रेल हड़ताल पर पाबंदी के लिए इस कानून का इस्तेमाल किया गया था। उधर ‘जनतंत्र की मातृ स्थली’ कहे जाने वाले ब्रिटेन में भी रेल मजदूरों द्वारा जारी हड़ताली कार्रवाइयों को रोकने के लिए ऋषि सूनक के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा ऐसा ही कानून बनाने का प्रस्ताव लाया गया है जिसके अंतर्गत लगभग हर हड़ताल असंभव व गैरकानूनी हो जाएगी। ‘उदार’ पूंजीवादी जनतंत्र असल में इतना ही ‘उदार’ होता है जिसमें कहने के लिए मजदूरों-मेहनतकशों के अधिकार पूंजीपतियों के समान होते हैं, मगर उन अधिकारों का इस्तेमाल वे तभी कर सकते हैं जब पूंजीपति व उनकी सरकार उन्हें ‘उदारतापूर्वक’ ऐसा करने की अनुमति दे दे।
अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे पुराने विकसित पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देशों में हाल के दिनों में हुईं या प्रस्तावित रेल मजदूर हड़तालें और भारी मुनाफे लूट रही रेलवे कंपनियों के पूंजीपतियों के पक्ष में हड़तालों को रोकने/कुचलने हेतु इन देशों की राज्यसत्ता व संसद में सारे दलों द्वारा मिलकर की गईं फौरी कानूनी कार्रवाइयां पूरी दुनिया के मजदूरों-मेहनतकशों के लिए अत्यंत गौरतलब व राजनीतिक तौर पर शिक्षाप्रद एवं आंखे खोलने वाली हैं। सुधारवादी अर्थवादी संशोधनवादी नेतृत्व द्वारा लंबे समय तक भ्रम में रखे गए मजदूर वर्ग को ये कानूनी कार्रवाइयां साफ-साफ बताती हैं कि वे किसी समान अधिकारों वाले काल्पनिक जनतंत्र में नहीं पूंजीपति वर्ग की सत्ता वाली शासन व्यवस्था में रहते हैं और मजदूरी, बोनस, भत्तों, छुट्टियों से कार्यस्थल की सामान्य सुविधाओं तक की उनकी मांग सिर्फ किसी पूंजीपति मालिक से होने वाली आर्थिक लड़ाई मात्र नहीं, बल्कि पूंजीपतियों व उनकी राजसत्ता से होने वाला राजनीतिक संघर्ष है, और इस संघर्ष में पूंजीवादी राजसत्ता – सरकार व संसद – में बैठी सभी राजनीतिक शक्तियां चाहे वे खुद को श्रमिकों का कितना ही हितैषी क्यों न कहतीं हों वे असल में सीधे-सीधे या मजदूरों को भ्रमित कर पूंजीपति वर्ग के स्वार्थों की हिफाजत की राजनीति ही करती हैं।
दूसरी अहम बात यह समझने की है कि भाड़े के बुर्जुआ ‘विद्वान’ ही नहीं ये फर्जी श्रमिक व वामपंथी संगठन नेता भी मजदूरों को बहुत समय से बता रहे हैं कि अब कंप्युटर व इलेक्ट्रॉनिक्स के जमाने में काम रोबोट करने लगे हैं, स्वचालन हो गया है, पूंजीवाद बदल गया है, अब मार्क्सवाद असफल है क्योंकि मजदूरों की हड़ताल से पूंजीवादी उत्पादन में कोई रुकावट नहीं पड़ती। पर मजदूरों की हड़तालों का यह नया दौर शुरू होते ही पूंजीवादी सत्ताओं की फौरी घबराहट भरी प्रतिक्रिया सबूत है कि बिना श्रमिकों के न पूंजीवादी उत्पादन चल सकता है और न पूंजीपतियों की पूंजी पर एक पैसा भी मुनाफा हो सकता है। मुनाफे का स्रोत सिर्फ और सिर्फ मजदूरों के श्रम से पैदा वह मूल्य है जो मजदूरी के रूप में उन्हें प्राप्त होने के बजाय बेशी मूल्य या सरप्लस वैल्यू के रूप में पूंजीपतियों के खाते में जाता है। यह बात आज भी उतनी ही सच है कि मजदूर अपने बाजुओं को रोक दें तो पूंजीपतियों का पूरा सरंजाम ठप हो जाएगा। इसीलिए रेल मजदूरों की हड़ताल को विनाशकारी मानकर दुनिया के सबसे विकसित देशों की सत्ता भी हिल जा रही है और तुरंत उनके जनतंत्र व मानवाधिकारों की कलई खुल जा रही है। मजदूर वर्ग की वास्तविक क्रांतिकारी शक्तियां अगर इस घटनाक्रम की राजनीतिक शिक्षा को सही तरीके से मजदूर वर्ग के समक्ष पेश कर सकें तो यह उनकी वर्ग चेतना को उन्नत कर सामाजिक क्रांति की दिशा में एक अहम काम होगा।
ये वही देश हैं जिनका उदाहरण देकर पूंजीवाद की कामयाबी व पूंजीवादी जनतंत्र को सबको समानता व आजादी देने वाली सबसे उन्नत सामाजिक व्यवस्था होने का दावा किया जाता है। इन देशों में फासीवाद विरोधी दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जो तात्कालिक व अस्थाई आर्थिक विकास देखने में आया, उसके आधार पर ही पूरी दुनिया में मजदूर वर्ग के शुभचिंतक बने किस्म-किस्म के सामाजिक जनवादियों, जनतांत्रिक समाजवादियों, लेबर पार्टियों, आदि से लेकर संशोधनवादी संसदीय रास्ते से समाजवाद लाने वाली फर्जी कम्युनिस्ट पार्टियों ने मजदूरों के बीच पिछले कई दशकों से यह भ्रामक दुष्प्रचार चलाया था कि पूंजीवाद के उन्मूलन के लिए किसी क्रांतिकारी संघर्ष की आवश्यकता नहीं क्योंकि पूंजीवादी जनतंत्र में सभी को अभिव्यक्ति, संगठन बनाने व चुनाव लड़ने और अपनी पसंद के कानून बनवाने का समान अधिकार है। ऐसे में मजदूर वर्ग ट्रेड यूनियनों के जरिए वेतन, बोनस, आदि संघर्षों से अपना जीवन बेहतर कर सकता है और चुनावों के जरिए संसद में बहुमत प्राप्त कर सुधारों व मजदूर वर्ग के हित वाले कानून बनाकर समाजवाद लाया जा सकता है। अतः मजदूरों को पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने व सर्वहारा की सत्ता स्थापित करने के बजाय मौजूदा पूंजीवादी संवैधानिक जनतंत्र की रक्षा को ही अपना मुख्य कार्यभार समझना चाहिए। इस तरह इन सब किस्म की पार्टियों/समूहों ने मिलकर मजदूर वर्ग व मेहनतकशों को मौजूदा ‘जनतांत्रिक व्यवस्था’ के प्रति वफादार बनाने की राजनीति ही की।
विश्व युद्ध के महाविनाश पश्चात पुनर्निर्माण व वैश्विक पूंजीवादी विस्तार के पूंजीवादी ‘स्वर्णिम युग’ में बढ़ती उत्पादकता, मजदूरों की मांग व ऊंचे मुनाफों के एक अस्थाई दौर में निश्चय ही पूंजीपतियों के लिए यह संभव व लाभकारी दोनों था कि वे संगठित मजदूरों को हड़ताल से रोकने हेतु उनके वेतन व सुविधाओं में कुछ वृद्धि कर सकें। इस परिस्थिति में शासक वर्ग की पार्टियों को मजदूर वर्ग का नेतृत्व हासिल कर लेने का मौका मिल गया क्योंकि अगर संघर्ष के बजाय वार्ता व दबाव से ही यह करना था तो सत्ताधारी/विपक्षी पार्टियों के मंत्रियों/सांसदों के जरिए यह करवाना आसान था, यह बात मजदूरों को समझाई जा सकती थी। अतः शासक वर्ग की सत्ता संभालने वाली पूंजीवादी-साम्राज्यवादी पार्टियां ही मजदूर वर्ग के नेतृत्व पर भी काबिज हो गईं, जैसे अमरीकी डेमोक्रेटिक पार्टी, ब्रिटिश लेबर पार्टी, फ्रांसीसी समाजवादी पार्टी, जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, आदि।
किंतु यह ‘स्वर्णिम युग’ जल्द समाप्त हो गया और नवउदारवाद के रूप में मजदूर वर्ग पर पूंजीपति वर्ग का जबर्दस्त आक्रमण शुरू हुआ और 1980 के दशक से इन सभी देशों में बेरोजगारी चरम पर है, वास्तविक मजदूरी कम हुई है, मजदूरों की सुविधाएं घटी हैं और रोजगार की सुरक्षा लगभग खत्म हो गई है। इससे मजदूरों का जीवन स्तर अत्यंत तेजी से नीचे गिरा है। 2008 से आरंभ वैश्विक वित्तीय संकट से ही हालात खराब थी। परंतु कोविड, यूक्रेन युद्ध व आसमान छूती महंगाई ने तो इन देशों की तथाकथित ‘जन्नत’ की कलई पूरी तरह खोल दी है और अपने जीवन की दयनीय होती स्थितियों से मजबूर मजदूर वर्ग को फिर से संघर्ष के मैदान में उतरने के लिए विवश होना पड़ रहा है, हालांकि उनका ट्रेड यूनियन नेतृत्व उन्हें हर तरह से संघर्ष की ओर जाने से रोक रहा है, क्योंकि जैसा पहले ही कहा गया, यह नेतृत्व पूंजीपति वर्ग का खिदमतगार नेतृत्व है जो मजदूर वर्ग को भ्रमित कर उसका नेतृत्व हथिया बैठा है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें विभिन्न उद्योगों में नए सिरे से मजदूर यूनियनों में संगठित हो रहे हैं और मजदूर वर्ग संघर्षों व हड़तालों की एक नई लहर दुनिया भर में उठ खड़ी हुई है। हम ‘यथार्थ’ में इस पर लगातार लिखते रहे हैं।
अमरीका में अक्टूबर 2021 के बाद पूरा साल ही लंबे समय के बाद सर्वाधिक संख्या में श्रमिकों की हड़तालों वाला साल बन गया। पर जिस एक हड़ताल की योजना ने अमरीकी शासक वर्ग को हिला दिया वह थी 16 सितंबर से रेलरोड कर्मियों द्वारा हड़ताल। स्वयं राष्ट्रपति बाइडेन और अमरीकी कांग्रेस के चौतरफा हस्तक्षेप से इसे टालने में सफलता मिल गई। 15 सितंबर को हड़ताल आरंभ के चंद घंटे पहले ही श्रम सचिव मार्टी वाल्श ने प्रबंधन और यूनियनों के बीच एक तात्कालिक तदर्थ समझौता करवा दिया। इसके तहत ऐलान किया गया कि कर्मचारियों की 14% वेतन बढ़ोतरी होगी और सिक लीव (अभी मजदूरों को एक भी सिक लीव नहीं मिलती) पर दंड देने का प्रावधान हटा दिया जाएगा। पर जब समझौते की शर्तें ठीक से सामने आईं तो श्रमिकों की आशाओं पर पानी फिर गया। पता चला कि उन्हें वास्तव में अधिक कुछ हासिल हुए बगैर ही उनके सुधारवादी-अर्थवादी यूनियन नेताओं ने समझौता कर लिया था।
यह हड़ताल कितनी गंभीर ‘विनाशकारी’ स्थितियों को जन्म देने वाली थी यह इसी से पता चलता है कि हड़ताल को टालने के लिए राष्ट्रपति बाइडेन को स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ा। अमरीकी कांग्रेस द्वारा पुराने हड़ताल रोकने वाले कानून को अमल में लाने और सेना तक को उतार दमन की घोषणा भी करनी पड़ी। इसने अमरीकी समाज में, जिसके बारे में वहां के आम लोगों के उन्नत और गरिमामय जीवन के बारे में कई तरह की किंवदंतिया मशहूर हैं मानो वह धरती का स्वर्ग हो, मजदूर वर्ग की अत्यंत विकट जीवन-स्थिति की पोल खोलकर रख दी है। मालवाहक रेलरोड कर्मचारियों के ऊपर वर्क लोड इतना अधिक और उसकी तुलना में महंगाई आदि को देखते हुए वेतन आदि इतना कम है कि वे नौकरी तक का परित्याग करने को तैयार हैं। दूसरी ओर सच्चाई यह है कि रेल रोड कंपनियां और उसके ठेकेदार कर्मचारियों और मजदूरों की पीठ पर सवारी करते हुए अकूत मुनाफा कमा रहे हैं। उनकी मांगें क्या हैं? यही कि वर्क लोड की तुलना में वेतन बढ़ाए जाने और काम के बोझ को कम करने की मांग ताकि वे भी कुछ वक्त अपने परिवार के साथ बिता सकें और बीमार होने पर आराम कर सकें। इंजीनियरों (लोको ड्राइवरों) एवं कंडक्टरों की हालत यह है कि वे चौबीसों घंटे ऑन कॉल ड्यूटी पर रहते हैं। जब वे छुट्टियों पर रहते हैं तब भी। इसका मुख्य कारण स्टाफ की संख्या में कमी है जिसकी पूर्ति मौजूदा कर्मचारियों से बहुत ज्यादा और तेजी गति से काम करा के की जाती है। अंतिम कांट्रैक्ट 2017 में किया गया था, तब से जो भी बड़े रेलरोड कंपनियां हैं उनमें पहले से ही 20 से 25 प्रतिशत कर्मचारी कम कर दिए गए हैं।
यूनियन के नेता सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि उनके कर्मचारी अब और अधिक बोझ सहने की सीमा के पार जा चुके हैं। एक यूनियन के अध्यक्ष ने तो यहां तक कहा कि यह उसकी अपनी पसंद या नापसंद का सवाल नहीं है; हमारे सदस्यों ने यह साफ और ऊंची आवाज में बता दिया है कि जो वर्तमान समझौता पत्र है, उसे वे पारित नहीं करेंगे। और वही हुआ, दलाल यूनियन नेतृत्व की सारी कोशिशों के बावजूद आम मजदूरों के बहुमत ने समझौते को रद्द कर दिया और पुनः हड़ताल की तैयारी शुरू हुई।
परंतु “अमरीकी इतिहास में सर्वाधिक श्रम हितैषी” होने का दावा करने वाले जो बाइडेन तथा डेमोक्रेटिक व रिपब्लिकन दोनों पार्टियां मजदूरों को मालिकों का प्रस्ताव मानने के आदेश के हड़ताल विरोधी कानून पर एकमत हो गईं। खुद को मजदूर वर्ग व समाजवाद का बड़ा हितैषी बताने वाले बर्नी सैंडर्स, ‘प्रगतिशील’ एलिजाबेथ वारेन व डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट ऑफ अमरीका की अलेकजांडरिया अकासीओ-कोरटेज आदि छद्म वामपंथियों ने भी इस मजदूर विरोधी कानून को पारित करने में अपनी भूमिका बेशर्मी से निभाई। निचले सदन हाउस में हड़ताल विरोधी कानून और मजदूरों को भ्रमित करने के लिए 7 दिन की सिक लीव का प्रस्ताव अलग-अलग पारित किए गये। सीनेट में इसको बिना बहस तुरंत पारित करने के लिए सभी 100 सदस्यों की सर्वसम्मति की आवश्यकता थी। बर्नी सैंडर्स व वारेन दोनों यह सहमति देने में शामिल थे। यहां सैंडर्स ने अपना 7 दिन सिक लीव का प्रस्ताव हड़ताल विरोधी कानून पर संशोधन के रूप में पेश किया, जो पराजित हो गया, जबकि हड़ताल विरोधी कानून 15 के मुकाबले 80 मतों से पारित हुआ। हाउस में जानबूझकर सिक लीव प्रस्ताव हड़ताल विरोधी कानून से अलग पारित किया गया था। अतः वह सीनेट में पास न होने से खुद ब खुद समाप्त हो गया और समान हड़ताल विरोधी कानून दोनों सदनों में पारित हो गया। अगर हाउस में सिक लीव मूल कानून में जोड़ी जाती और सीनेट में नहीं तो अलग होने से कानून को वापस हाउस में भेजना पड़ता। पर अब दिखावे के लिए पारित सिक लीव प्रस्ताव खत्म हो गया और हड़ताल विरोधी कानून दोनों सदनों में पारित हो जो बाइडेन के पास गया, जिसने इसे उसी दिन मंजूर कर लागू कर दिया। इस तरह डेमोक्रेटिक पार्टी के तथाकथित श्रम हितैषियों व डेमोक्रेटिक सोशलिस्टों ने पूंजीपति वर्ग की सेवा में अपनी बेशर्म भूमिका अदा की।
सबसे पुराने पूंजीवादी ‘उदार जनतंत्र’ ब्रिटेन में भी जून में तीन दशक बाद रेलवे श्रमिकों द्वारा एक बड़ी हड़ताल हुई और तीन दिन में ही इस ‘महान’ जनतंत्र की कलई पूरी तरह खुल गई। जिस बीबीसी की मीडियाई स्वतंत्रता व निष्पक्षता की तारीफों के दम भरते लिबरल पत्रकार व कुछ अन्य लोग थकते तक नहीं, उसके स्टूडियो में चर्चा कराई जाने लगी कि क्या मजदूरों की हड़ताल कुचलने के लिए फौज बुला ली जाये। स्कॉटलैंड के रेल मजदूरों ने 10 व 29 अक्तूबर को फिर से दो बार 24 घंटे की हड़ताल की है। इंग्लैंड के रेल श्रमिक भी 13 दिसंबर से हड़ताल की नई शृंखला आरंभ कर रहे हैं।
इन हड़तालों को रोकने हेतु ब्रिटिश संसद में यातायात हड़ताल (न्यूनतम सेवा स्तर) विधेयक नामक दमनकारी कानून पेश किया गया है। इसके अनुसार हड़ताल करने से पहले यूनियन को प्रबंधन से समझौता करना होगा कि हड़ताल की स्थिति में कितनी न्यूनतम सेवाएं जारी रखी जाएंगी। इसकी जिम्मेदारी यूनियन की होगी। परस्पर समझौता न होने पर मामला केंद्रीय पंचाट कमिटी में जाएगा जो न्यूनतम सेवा स्तर तय कर देगी। उदाहरण के तौर पर पंचाट फैसला दे सकता है कि रेल हड़ताल के बावजूद 50 या 70 या 90% सेवाएं चलाई जायें। पंचाट को कहा गया है कि वह इस बात पर ध्यान न दे कि यूनियन बनाना या हड़ताल करना मौलिक अधिकार है या हड़ताल को जनता का समर्थन हासिल है। पंचाट बस यह देखेगा कि शिक्षा या काम के स्थान पर किसी का भी जाना बाधित न हो तथा अर्थव्यवस्था को कोई भी हानि न हो।
ऐसे न्यूनतम सेवा स्तर के बाद हड़ताल बेमानी हो जाएगी। अगर पंचाट के फैसले के बाद यूनियन अपने सदस्यों को इतनी सेवाएं चलाने का निर्देश न दे तो हड़ताल तुरंत गैरकानूनी हो जाएगी। अर्थात इसके बाद यूनियन पदाधिकारियों की कानूनी जिम्मेदारी हड़ताल कराने के बजाय हड़ताल तोड़ने की हो जाएगी! स्पष्ट है कि यह हड़ताल के अधिकार पर रोक लगाए बगैर हड़ताल पर रोक है। अर्थात ‘उदार जनतंत्र’ में मजदूरों को कोई अधिकार या आजादी नहीं होगी। यह नया कानून पहले के यूनियन व मजदूर विरोधी कानूनों के अतिरिक्त होगा। कंजरवेटिव पार्टी पहले ही कह चुकी है कि वह श्रमिकों को ‘न्याय’ सुनिश्चित करेगी, पर यूनियनों को दूसरों के साथ अन्याय नहीं करने देगी!
उधर प्रमुख विपक्षी दल व आगामी चुनाव में सत्ता की आकांक्षी लेबर नामधारी पार्टी ने भी चुनाव जीतकर सत्ता में आने पर इस कानून को रद्द करने से इंकार कर दिया है। लेबर पार्टी ने मारग्रेट थैचर की सरकार द्वारा बनाए गए हड़ताल विरोधी कानूनों को भी रद्द नहीं किया था हालांकि वह तब से दस साल सरकार में रह चुकी है। बल्कि लेबर पार्टी तो खुल कर रेल मजदूर हड़ताल के विरोध में है क्योंकि उसे लगता है कि हड़ताल से नाराज होकर उच्च व मध्य वर्ग अगले चुनाव में उसे वोट नहीं देगा। लेबर पार्टी के नेता देश पर आर्थिक संकट की दुहाई देते हुए मजदूरों से भी ‘बराबर’ बलिदान करने का आह्वान करते हुए पेट पर बेल्ट कसने की अपीलें कर रहे हैं। पर एक सदी पहले ही मजदूर वर्ग से गद्दारी कर शासक वर्ग में शामिल हो चुकी पार्टी से और उम्मीद ही क्या की जा सकती है?
फ्रांस में भी ऊंची महंगाई से त्रस्त मजदूर अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में सितंबर-अक्टूबर से ही हड़तालें करते रहे हैं। मजदूर आंदोलन के जवाब में फ्रांस की ‘उदार जनतांत्रिक’ सरकार भी निजी कंपनियों के श्रमिकों को काम पर जबर्दस्ती बुलाने के लिए फौजी इमर्जेंसी कानूनों की मदद ले रही है। इनके अंतर्गत काम पर न आने पर जुर्माने और जेल की सजा की धमकी दी जा रही है। उधर फ्रांस की सरकार संवैधानिक चोर दरवाजे का प्रयोग कर 2023 का सालाना बजट भी संसद में चर्चा कराए बगैर पास करने के प्रयास कर रही है क्योंकि इसमें बहुत से जनविरोधी श्रमिक विरोधी पूंजीपतिपरस्त कदम लागू किये जाने हैं। यह तो पूरे ‘महान’ फ्रांसीसी जनतंत्र की ही कलई खोल देता है कि जनता द्वारा चुनी गई संसद मात्र दिखावे के लिए है। असली फैसले तो कहीं और ही लिए जाते हैं।
इन सभी पूंजीवादी जनतंत्रों में बताया जाता है कि इनमें सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं और वे परस्पर कान्ट्रैक्ट के लिए स्वतंत्र हैं। सरकार व राज्यसत्ता सभी वर्गों के ऊपर व निष्पक्ष होती है तथा वह सभी के प्रति कानून के शासन अनुसार न्याय सुनिश्चित करती है। लेकिन वास्तविकता है कि जब भी मजदूर मालिकों के साथ कान्ट्रैक्ट के लिए अपनी शर्तें पेश करते हैं या मालिकों की शर्तों पर काम करने से इंकार करते हैं और मालिकों का मुनाफा बाधित होता है तो मालिकों की ओर से सरकार ही उन्हें मालिकों की शर्तें मानने के लिए बाध्य करती है। इसके लिए पहले वह कानून बनाती है। फिर भी मजदूर विरोध या हड़ताल की पेशकदमी लें तो उनके दमन के लिए राज्य की पूर्ण शक्ति से हिंसा व दमन का सहारा लेती हैं। क्यों? मजदूर वर्ग को इस प्रश्न का उत्तर जानना-समझना होगा। असल में पूंजीवाद में सरकारें पूंजीपति वर्ग की प्रबंधन कमिटी होती हैं, न कि आम जनों के भले की कोई संस्था। जनतंत्र तो बस पर्दा है और वह भी पूरी तरह फट चुका है। मजदूर वर्ग को अगर अपनी जीवन की स्थिति सुधारने हेतु पूंजीपतियों के शोषण से मुक्त होना है तो उन्हें पूंजीपति वर्ग की प्रबंधन समिति के बजाय अपने वर्ग की प्रबंधन समिति को सत्ता में लाना होगा। अर्थात मजदूर वर्ग के हितों की कोई भी लड़ाई सिर्फ आर्थिक लड़ाई नहीं, राजनीतिक व सत्ता की लड़ाई है। जिस दिन मजदूर वर्ग इसे समझ लेगा और चाह लेगा, तो वह न सिर्फ पूंजीपति व उसकी सत्ता को झुका सकता है बल्कि निस्संदेह उखाड़ फेंक भी सकता है।
वर्गीय चेतना के आभाव के कारण, शोषक वर्ग अपने ही हितों को सुरक्षित बनाए रखने के लिए अधिक सचेत है । शोषित वर्ग के भीतर ही सेध लगा कर उसका अधिक वर्गीकरण कर रखा है , ताकि चेतनायुक्त स्थिति विकसित ना हो सके । शब्दों का भ्रम जाल अधिक फैलाया गया है ।
निश्चय ही आपकी बात सही है कि शोषक वर्ग अपने वर्ग हित के लिए अधिक सचेत है और उसने मेहनतकश जनता को अपने दुष्प्रचार के भ्रमजाल में उलझा रखा है। पर इतना ही सच यह भी है कि शासक वर्ग से इसके अतिरिक्त और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। आखिर तो मजदूर वर्ग के अगुआ दस्ते उसकी वर्ग पार्टी को ही इससे लड़ते हुए मजदूर वर्ग की चेतना उन्नत करनी होगी। अगर हम नहीं कर पा रहे हैं तो इसकी वजह हमारे आपने बीच संशोधनवादी-सुधारवादी भ्रमों का प्रभाव है। मजदूर वर्ग समूहों को खुद इससे मुक्त होना बहुत jaरूरी है। उसके लिए एक और खुली बहसों-चर्चाओं में उतरना होगा तो दूसरी ओर मजदूर आंदोलनों को अर्थवाद से आगे राजनीतिक रूप से सचेत व जुझारू बनाने के कदम उठाने होंगे।
पूंजीवादी व्यवस्था समय समय पर बेनक़ाब होती रही है और अब तो पूरे विश्व में इस (तथाकथित लोकतंत्र – समता ,समानता ) का ।नँगा और वीभत्स रूप उजागर हो गया है।
बावजूद इस सच्चाई के मुखौटे धारी वामपंथी ( जिनमें पूंजीवादी सत्ताओं द्वारा उत्पन्न कठपुतली वामी नेतृत्व भी बढ़चढ़ कर अपनी भूमिका भूमिका निभा रहा है) ,किंतु दुखद सत्य कि मुद्दा ज़ेरे बहस है कि मजदूरों की सत्ता के लिए सही दिशा क्या हो (?)