नए क्रिमिनल कानून : पुराने औपनिवेशिक काल के आपराधिक कानूनों से ज्यादा दमनकारी साबित होंगे नए फासीवादी काल के कानून
July 5, 2024सिद्धांत
भारत में आपराधिक कानून प्रणाली को संचालित करने हेतु मुख्यतः तीन कानून हैं – भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (इंडियन एविडेंस ऐक्ट)। मोदी सरकार ने संसद के 2023 मानसून सत्र के अंतिम दिन लोक सभा में देश की आपराधिक (क्रिमिनल) कानून प्रणाली का “कायापलट” करने के दावे के साथ तीन नए विधेयक प्रस्तुत किए थे जो उपरोक्त तीन कानूनों को प्रतिस्थापित करेंगे – आईपीसी के बदले “भारतीय न्याय संहिता”, सीआरपीसी के बदले “भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता” और इंडियन एविडेंस ऐक्ट के बदले “भारतीय साक्ष्य अधिनियम”।
हालांकि इन्हें तब संसदीय स्टैंडिंग कमेटी में भेज दिया गया था, लेकिन कुछ छोटे बदलावों के साथ नए विधेयकों को दिसंबर 2023 में संसद में बिना बहस के आनन-फानन में पारित करवा दिया गया। जनवरी 2024 में इन्हीं कानूनों में ‘हिट एंड रन’ के अत्यधिक कठोर प्रावधान के खिलाफ ट्रक व अन्य वाहन चालकों की हुई जोरदार व्यापक हड़ताल के कारण सरकार को इनके कार्यान्वयन को टालना पड़ा था, लेकिन अब 1 जुलाई 2024 से ये कानून पूरे देश में लागू होने वाले हैं।
इन कानूनों के जन-विरोधी चरित्र तथा खतरनाक प्रावधान राजसत्ता व पुलिस को नागरिक समाज तथा आम मेहनतकश जनता के अभिव्यक्ति, संगठित/इकट्ठा होने, प्रदर्शन/हड़ताल करने आदि के अधिकारों पर नियंत्रण व दमन हेतु अत्यधिक व अनुचित शक्ति देते हैं। पुलिस प्रशासन के हाथों पहले से ही हो रही दमनकारी कार्रवाइयां, जिन्हें अब तक ताकत का दुरुपयोग या ज्यादती कहा जाता था, इन कानूनों के जरिए अब वैध कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा बन जाएंगी। अतः जनता के सक्रिय हिस्सों से लेकर विपक्षी दलों द्वारा इन्हें वापस लेने की आवाजें उठ रही हैं। इस संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि इन कानूनों में क्या ठोस बदलाव प्रस्तावित हैं और उसके क्या मायने हैं।
प्रथम दृष्टया गौरतलब बात यह है कि तीनों विधेयकों के नाम केवल हिंदी में हैं। यह अभूतपूर्व है कि संसद में पेश विधेयकों के नाम केवल हिंदी में प्रस्तुत हुए हैं जबकि संविधान के अनुछेद 348 में यह निर्दिष्ट है कि संसद से पारित सभी अधिनियम अंग्रेजी भाषा में होंगे। अतः यह नामकरण असंवैधानिक तो है ही, साथ ही विविध भाषाओं व राष्ट्रीयताओं से समावेशित इस देश में “हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान” के फासीवादी अजेंडे के तहत एक भाषा थोपने का ही एक और उदाहरण है।
अगर प्रावधानों की संख्या की बात करें, तो आईपीसी की 511 धाराओं के बदले भारतीय न्याय संहिता में कुल 358 धाराएं हैं। वहीं नागरिक सुरक्षा संहिता में सीआरपीसी की 478 धाराओं के बदले 531 धाराएं हैं, तथा साक्ष्य विधेयक में पुराने अधिनियम की 167 धाराओं के बदले 170 धाराएं हैं। हालांकि “कायापलट” और औपनिवेशिक “गुलामी की मानसिकता को तिलांजलि देने” के दावे के साथ लाए गए इन तीन कानूनों में ज्यादातर प्रावधान पुराने कानूनों से हूबहू लिए गए हैं। लेकिन जो परिवर्तन या जोड़ किए गए हैं वह महत्वपूर्ण और गंभीर हैं।
भारतीय न्याय संहिता
संसद में गृहमंत्री अमित शाह द्वारा इन विधेयकों को पेश करते हुए दिए गए बयानों में जो सबसे अधिक प्रचलित हुआ वो था राजद्रोह (सेडिशन) कानून रद्द करने के ऊपर। यह सच है कि नई न्याय संहिता में राजद्रोह का जिक्र नहीं है, परंतु धारा 152 में भारत की “संप्रभुता, एकता व अखंडता” को खतरे में डालने वाली गतिविधियों के खिलाफ जो प्रावधान लाया गया है, वह पुराने राजद्रोह कानून से भी अधिक दमनकारी साबित होगा। पहली बात कि अन्य प्रावधानों की तरह इसे भी अस्पष्ट बनाया गया है। इतना ही स्पष्ट बताया गया है कि “अलगाववादी गतिविधि, सशस्त्र विद्रोह, “विनाशक” (subversive) गतिविधि या ऐसी गतिविधि जिससे भारत की “संप्रभुता, एकता व अखंडता” को खतरा पहुंचे” में शामिल होना या भड़काना अपराध है जिसपर 7 वर्षों तक या आजीवन कारावास की सजा होगी। एक तरफ तो “अलगाव” और “अलगाववादी गतिविधियों की भावना को बढ़ावा देने” को अपराध घोषित कर के पहले से ही जिन राष्ट्रीयताओं के आत्म-निर्णय के अधिकार को दमन के बल पर कुचल देने की कार्रवाई जारी थी उसे कानूनीजामा पहनाया गया है, वहीं दूसरी तरफ यह अस्पष्ट छोड़ दिया गया है कि अलगाव व सशस्त्र विद्रोह के अलावा आखिर किस गतिविधि को “संप्रभुता, एकता, अखंडता” को खतरा पहुंचाने वाला माना जाएगा और किसे विनाशक (“subversive”) माना जाएगा। इसके साथ ही, नए राजद्रोह प्रावधान में उपरोक्त गतिविधि को भड़काने में शामिल होने के अर्थ को भी विस्तार दिया गया है। इसके तहत केवल भौतिक/शारीरिक रूप से गतिविधि में उपस्थित व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि ऑनलाइन लिखने वालों या महज आर्थिक सहयोग करने वालों को भी गतिविधि भड़काने में शामिल माना जाएगा!
जनतांत्रिक न्याय व्यवस्था का यह सामान्य नियम है कि आपराधिक कानून संकीर्णतम शब्दों में परिभाषित हों ताकि न्याय प्रक्रिया व्यक्तिपरक न हो कर वस्तुगत व निष्पक्ष रहे, अन्यथा कानूनों को अस्पष्ट छोड़ देने से पूरी प्रक्रिया जज, वकील, पुलिस आदि के विवेक पर निर्भर हो जाती है। कुल मिला कर ऐसे प्रावधानों के रहने से पुलिस के पास किसी को भी गिरफ्तार कर लेने की पूरी छूट मिल जाती है। आज जब जनतंत्र के लगभग सभी संस्थाओं व निकायों पर सत्तासीन आरएसएस-भाजपा का भीतर से कब्जा हो चुका है, तो ऐसे में किसी भी व्यक्ति को इन अस्पष्ट लेकिन खतरनाक कानूनों के जरिए दबोचा जा सकता है और इसका मुख्य नियंत्रण राज्य के हाथों में होगा।
नई न्याय संहिता की धारा 113 में पहली बार “आतंकवादी गतिविधि” को परिभाषित किया गया है। इस प्रावधान की बनावट भी इतनी व्यापक है कि इसका इस्तेमाल जनता के जुझारू आंदोलनों, रैलियों, जुटानों आदि को कुचलने और आंदोलनकारियों व नेतृत्वकारी तत्वों व संगठनों को आतंकवादी घोषित कर आजीवन कारावास की सजा देने के लिए किया जा सकता है। अगर इसकी उदार व्याख्या करें तो “भारत की एकता, अखंडता, संप्रभुता, सुरक्षा या आर्थिक सुरक्षा को खतरे में डालने या जनता के किसी हिस्से में आतंक फैलाने की मंशा से” किसी भी व्यक्ति को चोट पहुंचाने या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने लायक क्रिया भी आतंकी गतिविधि कही जा सकती है। यदि कोई संगठन “आतंवादी गतिविधि” में शामिल होता है तो उसके सारे सदस्यों को आजीवन कारावास की सजा हो सकती है! गौरतलब है कि इस व अन्य कुछ प्रावधानों की अंतर्वस्तु यूएपीए जैसे काले जन-विरोधी कानूनों से काफी हद तक ली गई है।
न्याय संहिता की धारा 226 के तहत आत्महत्या के प्रयास से किसी भी पब्लिक सर्वेंट के आधिकारिक कर्तव्य में बाधा डालने से एक साल तक की जेल हो सकती है। अर्थात अब अपनी अन्याय के खिलाफ अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए भूख हड़ताल या अनशन जैसे विरोध के शांतिपूर्ण तरीके भी अपराध बन जाएंगे।
न्याय संहिता में कुछ नए अपराध भी परिभाषित किए गए हैं।
मॉब लिंचिंग को रोकने के नाम पर धारा 103(2) और 117(4) जोड़ी गई है जिसके तहत “4 से अधिक लोगों के समूह द्वारा नस्ल, जाति, समुदाय, लिंग, जन्मस्थान भाषा, या व्यक्तिगत आस्था” के आधार पर की गई हत्या या पहुंचाई गई गंभीर चोट को अलग अपराध माना गया है। गौरतलब है कि इनमें ‘धर्म’ का आधार गायब है जबकि नग्न सत्य यही है कि मोदी सरकार के केंद्र में आने के बाद से लगभग सभी मॉब लिंचिंग की घटनाओं में पीड़ित मुस्लिम आबादी के गरीब लोग ही रहे हैं और इसके पीछे संगठित रूप से हिंदुत्ववादी फासीवादी गुंडा-वाहिनियों का हाथ रहा है।
यह विडंबना ही है कि जिस आरएसएस-भाजपा की सरकार ने नफरत के आधार पर एक पूरे प्रतिक्रियावादी सामाजिक आंदोलन को खड़ा किया है जिसके लिए मॉब लिंचिंग अपने अजेंडे को आगे बढ़ाने का ही एक साधन है, वह आडंबरपूर्ण रूप से इन्हीं गतिविधियों के खिलाफ कानून ला रही है। इसका तत्काल कारण सुप्रीम कोर्ट और नागरिक समाज द्वारा ऐसे कानून की स्थापना को लेकर बने दबाव को बताया जा रहा है, लेकिन असल में यह सत्तासीन फासीवादी ताकतों द्वारा जनतंत्र के बचे-खुचे परदे को थोड़ा साफ करने भर की कोशिश है, ताकि आम जनता और समाज के न्यायपक्षीय बुद्धिजीवी तबके के समक्ष जनतंत्र के सुरक्षित होने का झूठा दावा बरकरार रखा जा सके। यही कारण है कि सेडिशन कानून का सबसे आक्रामक इस्तेमाल करने वाली, यूएपीए को और भी दमनकारी बनाने वाली, श्रम कानूनों, आरटीआई, जैसे जनवादी कानूनों को निरस्त करने वाली, और जनपक्षीय आवाजों/आंदोलनों को बर्बर रूप से कुचलने वाली यह सरकार सेडिशन कानून को “निरस्त” करते हुए संसद में कहती है कि “यहां लोकतंत्र है और सबको बोलने का अधिकार है”। जैसे 2013 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर बने कड़े कानूनों के बावजूद उसके बाद महिलाओं के खिलाफ अपराध और बढ़ गए, कुछ वैसा ही हाल इन कानूनों के साथ भी होता हुआ दिखने की पूरी संभावना है।
न्याय संहिता की धारा 69 में “कपटपूर्ण साधनों” से यानी पहचान छुपा कर यौन संबंध बनाने को अलग अपराध घोषित किया गया है जिसके लिए दस साल तक की सजा रखी गई है। स्पष्ट दिखता है कि इस प्रावधान का इस्तेमाल “लव जिहाद” के झूठे फासीवादी नैरेटिव को और तेज करने तथा अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले आम लोगों को कानूनी रूप से उत्पीड़ित करने के लिए किया जाएगा।
धारा 106(2) के तहत ‘हिट एंड रन’ कानून लाया गया है। इसके तहत वाहन दुर्घटना होने पर चालाक द्वारा बिना पुलिस प्रशासन को रिपोर्ट किए घटनास्थल से भागने के लिए 10 साल की जेल और जुरमाना का प्रावधान किया गया है। लेकिन इस बात को कहीं संबोधित नहीं किया गया है कि ट्रांसपोर्ट की कठिन नौकरी कर रहे बड़े वाहन चालकों द्वारा दूसरे राज्यों में हुई सड़क दुर्घटनाओं में (जो अकसर इंफ्रास्ट्रक्चर में कमियों के कारण भी घटित होते हैं) उनके घटनास्थल पर रुकने पर कई बार स्थानीय लोगों द्वारा उनकी पिटाई व लिंचिंग तक हो गई है। ऐसे में इस नए प्रावधान का मतलब है चालकों के लिए एक तरफ पिटाई/लिंचिंग को सहना और दूसरी तरफ जेल जाना। यही वजह है कि जनवरी 2024 में इस प्रावधान के खिलाफ चालाक/ट्रांसपोर्ट संघों द्वारा देशव्यापी जोरदार हड़ताल हुई थी, परंतु इसके बाद भी कानून में कोई बदलाव नहीं किया गया, और यहां तक कि इस विषय पर एक राष्ट्रीय आयोग बना कर इसे हल करने की मांग को भी सरकार द्वारा अनसुना कर दिया गया है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता
सीआरपीसी की जगह लेने वाली नागरिक सुरक्षा संहिता में कई नए खतरनाक प्रावधान जोड़े गए हैं। जैसे धारा 172 के तहत पुलिस को आम कानूनी दिशा-निर्देश जारी करने का एकतरफा अधिकार दिया गया है और वह इन निर्देशों को नहीं मानने या नजरअंदाज करने वाले किसी भी व्यक्ति (चाहे वह उस मामले से कोई संबंध न रखता हो) को अपने मन-मुताबिक हिरासत में ले सकती है।
नागरिक सुरक्षा संहिता में सबसे खतरनाक प्रावधानों में से एक है पुलिस हिरासत की समयसीमा का विस्तार, जो धारा 187 में है। यह सर्वविदित है कि पुलिस द्वारा हिरासत के दौरान अभियुक्त से जबरन दोष-स्वीकृति (confession) या सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाने हेतु अमानवीय यातनाओं का इस्तेमाल किया जाता है। सीआरपीसी के तहत पुलिस हिरासत की अधिकतम समयसीमा गिरफ्तारी से 15 दिनों तक की थी, लेकिन सुरक्षा संहिता में इसे अपराध के अनुसार 60 से 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकेगा।
अन्य समय सीमाओं को भी प्रस्तावित किया गया है जैसे दलील प्रक्रिया संपन्न हो जाने के 30 दिनों के भीतर न्यायालय द्वारा फैसला सुना देने की सीमा। परंतु वर्तमान पूंजीपरस्त न्याय प्रक्रिया, जो आर्थिक गैर-बराबरी के आधार पर खड़ी है, जिसमें करीब 5 करोड़ केस लंबित हैं, जजों की भारी कमी है, न्यायपालिका पर कार्यपालिका (सरकार) का भारी दबाव व हस्तक्षेप है, में बिना कोई संरचनात्मक सुधार के महज कानून में प्रावधान जोड़ते जाने से कोई बदलाव संभव नहीं है।
वर्तमान सीआरपीसी में भी अभियुक्त के विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में रहने की समयसीमा तय है जो अधिकतम 60 से 90 दिन है, जिसके बाद उसे बेल का अधिकार मिल जाता है। लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि आज देश में कुल कैदियों में से 77% विचाराधीन कैदी हैं! इनमें से एक बड़ा हिस्सा कई सालों से जेल में कैद हैं, केवल इसलिए क्योंकि उनके ऊपर आरोप है और न्याय प्रक्रिया उस आरोप पर फैसला नहीं कर पा रही है। यह खबरें भी आम बन गई हैं कि न्यायालय द्वारा रिहाई का फैसला आने पर वो मासूम लोग दोषमुक्त साबित हो कर जेल से अंततः बाहर आए जो 10 से 20 सालों तक विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में कैद थे, और जिनमें से कुछ की गिरफ्तारी के वक्त उम्र 18 वर्ष से भी कम थी! समयसीमा की नजर से अन्य प्रावधानों को देखें तो मृत्युदंड रोकने हेतु राज्यपाल व राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर करने पर भी 30 व 60 दिनों की समयसीमा लगा दी गई है।
धारा 37 के तहत पुलिस द्वारा सभी गिरफ्तार व्यक्तियों (चाहे उनका दोष सिद्ध न भी हुआ हो) की निजी जानकारी (नाम, पता, अपराध आदि) को फिजिकल व डिजिटल रूप में थानों में “प्रमुख रूप से प्रदर्शित” किया जाएगा। धारा 43 के तहत गंभीर आरोपों में पुलिस को गिरफ्तारी में हथकड़ियों का इस्तेमाल करने का अधिकार दिया गया है जो सीआरपीसी में नहीं था और जिसे अदालतों द्वारा ही अनेक बार अमानवीय और इंसानों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार करने के समरूप बताया गया है।
धारा 173(3) के तहत 3-7 साल की सजा वाले अपराधों में पुलिस को प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) नहीं दर्ज करने की छूट दे दी गई है। पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी) की अनुमति से मामले में प्राथमिकी दर्ज करने के बजाए थानाध्यक्ष 14 दिन तक “प्रारंभिक जांच” करवा सकता है कि मामला प्राथमिकी दर्ज करने लायक है या नहीं। आज सीआरपीसी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं होने के बावजूद हाल यह है कि जितनी प्राथमिकियां दर्ज होती हैं लगभग उतनी ही संख्या में पुलिस द्वारा प्राथमिकी नहीं दर्ज की जाती है, मुख्यतः उन मामलों में जहां शिकायतकर्ता मजदूर, दलित, महिलाएं व उत्पीड़ित तबके से होते हैं और आरोपी ताकतवर तबकों से। इस प्रावधान के जरिए प्राथमिकी अस्वीकार करने की प्रथा को कानूनी जामा पहना दिया गया है जो घोर अन्याय को बढ़ावा देगा।
यह भी उल्लेखनीय है कि इसी दिशा में आपराधिक कानूनों में एक और “सुधार” मोदी सरकार ने एक वर्ष पहले ही संसद से आपराधिक दंड प्रक्रिया (पहचान) बिल पारित करवा कर किया था (जो अब कानून बन चुका है)। यह कानून पुलिस व जांच एजेंसियों को ना सिर्फ दोषियों से बल्कि महज गिरफ्तार हुए व्यक्तियों (जिनका दोष सिद्ध होना या न होना बाकी है) से भी बायोमेट्रिक एवं व्यवहारिक डाटा (जैसे फिंगरप्रिंट, रेटिना स्कैन, लिखावट, हस्ताक्षर, तथा अन्य भौतिक व जैविक सैंपल) इकट्ठा करने का अधिकार प्रदान करता है, जिसे 75 सालों तक संग्रहीत किया जा सकता है!
निष्कर्ष
पूंजीवाद की स्थापना के बाद से ही निजी संपत्ति (पूंजी) की रक्षा और उसकी शोषण पर टिकी उत्पादन व्यवस्था के सुचारु परिचालन हेतु ही पहले विकसित राज्यों और बाद में औपनिवेशिक शासनों से मुक्त हुए देशों में एक सामान्य न्याय प्रणाली (न्यायालय, कानून, पुलिस आदि) की स्थापना की गई थी। उसके तहत ही आईपीसी, सीआरपीसी जैसे कानून भारत में आए। पूंजीवाद के संकट में पड़ने यानी बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे पर संकट छाने की स्थिति में इस प्रणाली का इस्तेमाल भी जनता पर और आक्रामक रूप से किया जाता रहा। परंतु आज जब पूरे विश्व में पूंजीवादी व्यवस्था एक अनुत्क्रमणीय संकट में फंस चुकी है तो शासन और शोषण करने के पुराने तरीके काम नहीं आ रहे हैं। इसी संकट का नतीजा है कि मजदूर मेहनतकश वर्ग का शोषण और तेज करने तथा जनता के प्रतिरोध को पूरी तरह कुचलने हेतु भारत सहित पूरे विश्व में घोर दक्षिणपंथी तथा फासीवादी सरकारें शासन में आ रही हैं और जनतंत्र संकुचित या समाप्त होने के कगार पर पहुंच रहा है। इसी “विकास” का परिचायक है जनतांत्रिक निकायों पर कब्जा, श्रम कानूनों को ध्वस्त कर लेबर कोड का आगमन, कृषि कानूनों का कार्यान्वयन, और अब आपराधिक कानून में यह “सुधार”।
हालांकि गहराते संकट के दौर में क्योंकि मोदी सरकार भी जनता का जीवनस्तर थोड़ा भी बेहतर करने में असमर्थ है, इस कारण से धार्मिक नफरत, अंधराष्ट्रवाद, और औपनिवेशिक काल विरोधी लफ्फाजी (rhetoric) इसके आखिरी सहारे बन गए हैं। राम मंदिर, नया संसद भवन, राजपथ के बदले कर्तव्य पथ, शहरों/सड़कों/भवनों का नव नामकरण, और अब आईपीसी सीआरपीसी के बदले यह भारतीय संहिताएं आदि इसी एजेंडा के तहत लाए जा रहे हैं। जबकि असलियत है कि इन आपराधिक संहिताओं (जिनका अधिकतर हिस्सा उन्हीं औपनिवेशिक कानूनों से हूबहू लिया गया है) में औपनिवेशिक कानूनों से भी दमनकारी और खतरनाक प्रावधान जोड़े गए हैं जो, श्रम संहिताओं की तरह ही, मजदूर वर्ग, नागरिक समाज और उत्पीड़ित जनता को जनतांत्रिक समाज से सैकड़ों साल पीछे धकेल नागरिक से प्रजा में तबदील करने की क्षमता रखते हैं और इसी मंशा से लाए गए हैं। इन कानूनी सुधारों, जिसमें आपराधिक कानूनों सहित लेबर कोड, खारिज हुए कृषि कानून, और नए यूएपीए भी शामिल हैं, और साथ ही पूरे जनतंत्र को फासीवादी धर्मतंत्र में तबदील करने की भाजपा-आरएसएस की मुहिम का मुखर विरोध और जनवादी अधिकारों की पूर्ण बहाली का संघर्ष आज मजदूर वर्ग व समस्त नागरिक समाज के लिए सबसे जरूरी कार्यभार है। और यह इस तरह से लड़ा जाना होगा कि हम इस पूंजी की बेड़ियों से बंधे संकुचित जनतंत्र, जिसमें हमेशा ही फासीवादी तानाशाही के थोपे जाने की जमीन बनी रहती है, में वापस लौटने के बजाए उससे आगे एक वास्तविक जनतंत्र और शोषणविहीन समाज की ओर बढ़ सकें।