रेलवे : पूंजीपतियों को मुनाफा, मेहनतकशों को यातना
July 5, 2024एम असीम
भारत की मेहनतकश व गरीब जनता के एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा के लंबे समय से सर्वाधिक उपलब्ध व सस्ते साधन रहे रेलवे की हालत आजकल ऐसी हो गई है कि 15 जून को एक मिडिल बर्थ टूट कर गिरने से लोअर बर्थ के एक यात्री की मृत्यु हो गई। कुछ दिन पहले ही हमने यह भी खबर देखी थी कि जनरल डिब्बे में भारी भीड़ की वजह से एक मुसाफिर का दम घुट गया और चिकित्सा सुविधा मिलने तक उसकी मृत्यु हो गई। विभिन्न गाडियों के जनरल व स्लीपर ही नहीं, एसी3 श्रेणी तक में भारी भीड़ के फोटो मीडिया में खूब आए हैं। यहां तक हालत है कि इस मई जून की भयानक गर्मी में भी यात्री हजारों किलोमीटर की यात्रा कोच को लिंक करने वाले स्थानों तथा शौचालयों तक में करने को मजबूर हो रहे हैं। इसका मतलब यह भी है यात्रियों के लिए इस गर्मी में इतनी भीड़ की वजह से शौचालयों का इस्तेमाल असंभव हो गया है जिसके स्वास्थ्य के लिए बहुत दुष्प्रभाव होते हैं। भीड़ का एक विडिओ तो ऐसा भी आया कि लखनऊ में भीड़ से परेशान होकर सैकड़ों की तादाद में मुसाफिर वंदे भारत गाड़ी में चढ़ गए।
किंतु रेल मुसाफिरों की बेहद तकलीफ पर इस सरकार का रवैया अत्यंत अमानवीय व तानाशाही भरा है। जब यात्रियों ने इस भीषण भीड़ व इसकी वजह से आरक्षित सीटों के न मिलने की शिकायत करनी आरंभ की तो रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मजबूर यात्रियों की भीड़ की समस्या का समाधान करने के बजाय रेलवे प्रशासन व पुलिस को आदेश दिया कि आरक्षित सीटों के बगैर यात्रियों को सख्ती से उतार दिया जाए। यह तब है जबकि इनमें से लगभग कोई भी यात्री बेटिकट नहीं है। इन सभी को रेलवे ने वेटिंग लिस्ट के या जनरल श्रेणी के टिकट जारी किए हैं मगर यात्रियों की संख्या की जानकारी होते हुए भी पर्याप्त संख्या में गाड़ियों व विभिन्न श्रेणी के कोचों की व्यवस्था नहीं की है जिससे इन्हें मजबूरी में यह घोर टार्चर व मुसीबत सहते हुए अपनी यात्रा पूरी करनी पड़ रही है। अर्थात यह तो रेलवे के कुप्रबंधन व कुप्रशासन का दंड इस सरकार द्वारा रेल मुसाफिरों को दिया जाना है।
रेलवे में यात्रियों की इतनी बड़ी भीड़ का एक मुख्य कारण तो विकास का मौजूदा पूंजीवादी मॉडल ही है। भारत की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था बेहद असमतल विकास का शिकार है। एक ओर तो औद्योगिक केंद्र संख्या में बहुत कम व भौगोलिक दृष्टि से अत्यंत सीमित क्षेत्र में हैं जबकि विशाल भूभाग आज भी बेहद पिछड़े हैं। दूसरी ओर तुलनात्मक रूप से विकसित क्षेत्रों में भी विशालकाय पिछड़े ग्रामीण महासागरों के बीच कुछ शहरी केंद्र ही रोजगार, बाजार, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि के केंद्र बने हुए हैं।
अतः अर्थव्यवस्था में प्रवासी श्रमिकों की एक बेहद बड़ी संख्या है। इनमें वो भी हैं जो अपने मूल स्थानों से हजारों किलोमीटर दूसरे राज्यों महानगरों में रहते हैं और जिन्हें जन्म, मृत्यु, विवाह, बीमारी, आदि की सूचनाओं पर या ऐसे भी अपने परिजनों से मिलने के लिए लंबी यात्राएं करना जरूरी हो जाता है। फिर एक बड़ी संख्या वह है जो लगभग हर रोज रोजगार, मजदूरी या अन्य छोटे काम धंधों के लिए बीस-पचास-सौ किलोमीटर का सफर तय करते हैं।
रेलवे इन प्रवासी मेहनतकशों के लिए जीवनरेखा की तरह रही है। मगर यह कभी भी उनके लिए सुविधाजनक नहीं रही। रेलवे ने हमेशा ही संपन्न यात्रियों के लिए सुविधाओं की व्यवस्था की है तो श्रमिकों के लिए औपनिवेशिक शासन के दौर से ही तीसरी श्रेणी बनाई गई जिसमें आम मेहनतकश जनता किसी तरह ठूंस ठांस कर सफर के लिए मजबूर होती रही है। किंतु इसमें भी नरेंद्र मोदी की बीजेपी सरकार के पिछले दस वर्ष का शासन उन पर कहर बनकर टूटा है। इस सरकार ने हर साल लाखों करोड़ रुपये के निवेश से विकास के बड़े-बड़े चौंधियाने वाले दावे व प्रचार किये हैं। स्टेशनों के विकास से लेकर वंदे भारत गाड़ियों के द्वारा रेलवे के वैश्विक स्तर के विकास पर खाए अघाए संपन्न लोग गर्व व्यक्त करते पाए जा सकते हैं।
नरेंद्र मोदी सरकार का बड़ा दावा था कार्यकुशलता व प्रोजेक्ट्स को समय पर पूरा करने का। किंतु प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन मंत्रालय की मार्च 2024 की रिपोर्ट बताती है कि केंद्र सरकार के 1817 प्रोजेक्ट्स में से 831 प्रोजेक्ट अर्थात 42% प्रोजेक्ट विलंबित हैं और 458 (24%) में लागत से अधिक खर्च हो चुका है। रेलवे में दुर्घटना रोकने के लिए चलाया जा रहा कवच प्रोजेक्ट तो इनमें से भी सबसे बदतर हालत वाले प्रोजेक्ट्स में से एक है क्योंकि इस सरकार के लिए पूंजीपतियों का मुनाफा सर्वोच्च प्राथमिकता पर है, इंसानी जिंदगी की कीमत उसके सामने कुछ भी नहीं है।
दुर्घटनाओं के क्षेत्र में तो हालत यह हो गई है कि पूरे रेलवे सिस्टम में यह स्पष्ट नहीं है कि ऑटोमेटिक सिगनल में किसी गड़बड़ी की स्थिति में क्या किया जाए, गाडियों को कैसे चलाया जाए। जोनल अधिकारी रेलवे बोर्ड से पूछ रहे हैं और आदेश जारी कर रद्द कर दिए जा रहे हैं। 2 जून 2023 को शालीमार चेन्नई कोरोमंडल एक्सप्रेस के साथ बालासोर, ओडिशा में हुए हादसे में 300 मुसाफिरों की मृत्यु हुई और 900 घायल हुए। 29 अक्टूबर 2023 को ईस्ट कोस्ट रेलवे में आंध्र प्रदेश में दो यात्री गाड़ियों के पिछले हिस्सों की टक्कर में 17 यात्रियों की मृत्यु हुई। गत 17 जून को कटिहार डिवीजन के रंगपानी में कंचनजंगा एक्सप्रेस के पीछे से मालगाड़ी की टक्कर से 10 मौतें हुईं।
विकास के दावों की हकीकत यह है कि रेलवे मंत्रालय ने एक आरटीआई का जवाब देते हुए बताया है कि 160 किमी प्रति घंटे की रफ्तार के प्रचार से शुरू की गई वंदे भारत गाड़ियों की औसत रफ्तार 2020-21 में 84.48 किलोमीटर प्रति घंटा थी। वह तीन साल बाद 2023-24 में घटकर 76.25 किमी प्रति घंटा ही रह गई। रेलवे अधिकारियों ने यह भी जोड़ा कि वंदे भारत ही नहीं, अन्य बहुत सी गाड़ियां भी “बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर कार्यों” की वजह से सावधानीपूर्वक गति (अर्थात धीमी गति) से चलाई जा रही हैं। तीन मार्गों पर तो यह लगभग 60 घंटे की औसत रफ्तार से ही चलती है। असल में दिल्ली-आगरा मार्ग पर एक छोटे से हिस्से में ही वंदे भारत गाड़ी 160 किमी की गति पकड़ पाती है। अब तो यह भी खबर आई है कि रेलवे आधिकारिक तौर पर ही वंदे भारत गाड़ियों की गति घटाने पर विचार कर रहा है।
मगर इन वंदे भारत गाड़ियों के कारण अन्य गाड़ियों की गति धीमी पड़ गई है क्योंकि वंदे भारत को प्राथमिकता से आगे निकालने के लिए अन्य गाड़ियों को दो-तीन स्टेशन दूर ही रोक दिया जाता है। उदाहरण स्वरुप चेन्नई मदुरै रूट पर 1 अक्टूबर 2023 से अन्य गाड़ियों को धीमा कर उनका यात्रा समय 15 मिनट बढ़ा दिया गया ताकि वंदे भारत समय से चल सके। इस प्रकार पूरे रेलवे सिस्टम की गति धीमी हो गई है और विशाल निवेश व विकास के दावों के बावजूद यह पहले से कम यात्री व माल भाड़ा वहन कर पा रहा है। आवश्यकता के मुताबिक नई गाड़ियां चलाना दूर पहले की कई गाड़ियां अब तक बंद हैं, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों के लिए चलने वाली पैसेंजर या साधारण गाड़ियां। जहां ये दोबारा शुरू भी की गई हैं, इन्हें स्पेशल करार देकर एक्सप्रेस गाड़ी का यात्री भाड़ा वसूला जा रहा है।
परिणाम यह है कि दावों में तो दस साल से ट्रेनों की रफ्तार बढ़ती ही जा रही है, मगर असल में वो रफ्तार धीमी हो गई है। नवंबर 2023 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल-सितंबर 2022 में सभी यात्री गाड़ियों की औसत रफ्तार 47.6 किमी प्रति घंटा थी। अप्रैल-सितंबर 2023 में यह औसत घटकर 42.3 किमी प्रति घंटा ही रह गई। अर्थात 5 किमी प्रति घंटा कम! मालगाड़ियों की रफ्तार भी 31.7 किमी से घटकर 25.8 किमी प्रति घंटा ही रह गई। तो ऐसा भी नहीं है कि मालगाड़ियों को निकालने के लिए यात्री गाड़ियां धीमी हुई हों। असल में बुलेट ट्रेन और वंदे भारत के शोर के बीच रेलवे का पूरा सिस्टम ही तबाह हो गया है। रेलवे भीड़ से निपटने के लिए अतिरिक्त तो दूर कोविड दौर के पहले वाली नियमित गाड़ियां भी चलाने में नाकाम हो गया है। गाड़ियों की बेहद लेटलतीफी और भयंकर भीड़ इसका ही नतीजा है।
दस सालों से रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर में चमत्कारिक विकास के ऐलानों व उदघाटनों की झड़ी लगी है पर नतीजा उलटा यह है कि खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मालगाड़ियों तथा यात्री गाड़ियों दोनों की न सिर्फ औसत गति पहले से कम हो गई है, बल्कि उनकी माल व यात्री वहन क्षमता भी घट गई है। ऊपर से रेलवे एक ओर तो नियमित गाड़ियां चलाने के बजाय महंगी स्पेशल गाड़ियां चलाने पर जोर दे रहा है। फिर नियमित गाड़ियों में भी जनरल व स्लीपर कोच बहुत कम कर दिए गए हैं। उधर एसी श्रेणी के भाड़े कई तरह से इतने ऊंचे कर दिए गए हैं कि आम यात्रियों खास तौर पर प्रवासी मजदूरों के लिए वहन कर पाना नामुमकिन हो गया है और उन्हें इतनी भयावह भीड़ की हालत में सफर करने को मजबूर होना पड़ता है।
दावा किया जाता है कि रेलवे में सालाना 2.6 लाख करोड़ रुपये का निवेश किया जा रहा है। पर नतीजा क्या है? रेल दुर्घटनाओं को रोकने के लिए प्रभावी बताए जाने वाले कवच सिस्टम की हालत यह है कि तीन साल पहले जो 1400 किलोमीटर इसके अंतर्गत लाया गया था, अगले तीन साल में उसमें एक किलोमीटर की भी वृद्धि नहीं हुई है। रेलवे बोर्ड कारण बताते हुए कहता है कि संबंधित उद्योगों के पास जरूरी उत्पादन क्षमता का अभाव है। लेकिन तब दस साल से अत्यंत सफलता के दावों के साथ लागू किए जा रहे मेक इन इंडिया व प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव योजनाओं का क्या हुआ जिन पर कई लाख करोड़ रुपये खर्च किया जा चुका है?
वास्तविकता यह है कि हम पूंजीवादी व्यवस्था में रहते हैं जिसमें उत्पादन योजनाओं का संचालन पूंजीपतियों के अधिकतम व सुपर मुनाफों के मकसद से किया जाता है। सामाजिक आवश्यकता से इसका कोई वास्तविक रिश्ता नहीं होता। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी की प्रिय डिजीटलीकरण व इंटरनेट ऑफ थिंग्स जैसी योजनाओं के नाम पर रेलवे स्टेशनों के सिस्टम, इंजनों, बोगियों से लेकर गाड़ियों के चक्कों तक में तमाम किस्म के चिप व माइक्रोप्रोसेसर लगाए गए हैं। इनके लिए कई पूंजीपतियों को भारी भुगतान हुआ है। ये डिजिटल उपकरण भारी मात्रा में डाटा उत्पादित भी करते हैं। मगर इस डाटा का उपयोग मात्र बाद में कारोबार संबंधी विश्लेषणों या लागत घटाने के लिए रेलवे कामगारों पर दबाव बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। इन डिजिटल उपकरणों के प्रयोग से दुर्घटना रोकने हेतु रिअल टाइम अलर्ट जारी किये जा सकते हैं। किंतु वह इस पूरी व्यवस्था के लिए कहीं प्राथमिकता में ही नहीं है। दुर्घटना होने पर इसे मानवीय गलती कहकर पीछा छुड़ा लिया जाता है।
कंचनजंगा एक्सप्रेस के हालिया हादसे में रेलवे मैनेजमेंट ने तुरंत ऐलान कर दिया कि मालगाड़ी के दोनों लोको पाइलट की मृत्यु हो गई है और गलती उनकी थी कि वे रेड सिग्नल पार करते गए। पर बाद में पता चला कि असिस्टेंट लोको पायलट जीवित हैं और उन्होंने बताया कि उन्हें गाड़ी आगे बढ़ाने के लिए मेमो मिला था और उन्होंने जब तक आगे वाली गाड़ी देखी तब तक ब्रेक लगा गाड़ी रोक पाना असंभव हो चुका था। अब जिम्मेदारी स्टेशन मास्टर पर डाल दी जाएगी जबकि जैसा हमने ऊपर कहा कि जोनल रेलवे सिग्नल खराबी की स्थिति में कैसे काम किया जाए इस पर कतई स्पष्ट नहीं हैं। ईस्टर्न रेलवे ने पहले रेड सिग्नल पर गाड़ी आगे बढ़ाने के लिए मेमो देने का आदेश निकाला था। दुर्घटना के बाद उसे रद्द कर दिया गया है। लेकिन पूरी रेलवे व्यवस्था नीचे के कामगारों को दुर्घटना के लिए जिम्मेदार ठहरा कर इस रेड सिग्नल से आगे बढ़ जाएगी।
बालासोर हादसे पर ध्यान दें तो इसके कई महीने पहले 8 फरवरी 2023 को ही मैसूर के पास सिगनल सिस्टम की गड़बड़ी सामने आ चुकी थी, मगर सावधान लोको पायलट ने बालासोर जैसी दुर्घटना होने से बचा ली थी। उस रेलवे जोन के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर ने तुरंत भयंकर दुर्घटना की आशंका व सिगनल सिस्टम की गड़बड़ी रेलवे बोर्ड को रिपोर्ट कर इसे सुधारने की जरूरत स्पष्ट कर दी थी।
मगर हालत यह कि 2 जून 2023 को ही उच्च रेलवे प्रबंधकों के ‘चिंतन शिविर’ में रेल मंत्री ने सेफ्टी के मुद्दे को इतना कम समय दिया कि सिर्फ एक जोन को ही इस संबंधी बात कहने का मौका मिला। अधिकांश समय वंदे भारत चलाने और उसके उदघाटन की योजनाओं पर बात करने में चला गया। ‘चिंतन शिविर’ खत्म होते होते बालासोर में 300 की जान चली गई। मरने वाले अधिकांशतः प्रवासी मजदूर थे जो ट्रेनों में थोड़े से बचे स्लीपर व जनरल डिब्बों में ठूंस ठूंस कर भरे हुए थे। उधर अमीरों के लिए रेलवे फ्रांस से 100 वंदे भारत आयात करने वाला है। प्रधानमंत्री द्वारा इन सब के उदघाटनों पर ही हजारों करोड़ का खर्च आएगा। सुरक्षा इंतजामों या तीन लाख से अधिक खाली पड़े पदों पर नियुक्ति को कौन पूछता है।
पिछले दस साल से रेलवे में लाखों करोड़ रुपये के निवेश से इसके जबरदस्त आधुनिकीकरण की बातों से अखबारों के पन्ने रंगे जाते रहे हैं। नई नई लाइनें, पुल, वगैरह बनने, मालगाड़ी के लिए अलग लाइन बनाने का जबरदस्त प्रचार चल रहा है। पर सच्चाई ये कि आज रेलवे किराए दोगुने से चार गुना करने के बावजूद उतनी गाड़ियां भी नहीं चला पा रहा जितनी आज से चार साल पहले चल रही थीं। वे भी लेट लतीफ चलती हैं। घनघोर अकुशलता और भ्रष्टाचार ने जड़ जमाई ही है। स्टेशन विकास के नाम पर पूंजीपतियों की पौ बारह करना और महामानव के गुणगान करते रहने से ही रेलवे अफसरों का प्रोमोशन का काम चल रहा है। बुनियादी कामकाज, देखभाल, मेंटेनेंस करने को कौन पूछता है? बस चमकदार काम चाहिए। यह सब कहीं तो सजा देता ही है, हालांकि सजा अपराधियों को नहीं, निर्दोष मेहनतकश गरीब लोगों को ही मिलती है इस ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’ वाली व्यवस्था में।
जिन प्रवासी मजदूरों के श्रम पर पूरी अर्थव्यवस्था टिकी है और जिनके पास ये गाड़ियां भी यात्रा का साधन कम और टार्चर अधिक थीं, अब उनके लिए और अधिक मुश्किल होने वाली है। किसी तरह मजदूरी से कुछ बचाते हैं। उसका भी बड़ा हिस्सा रेलवे वसूल रहा है उन्हें महंगी एसी गाड़ियों में चलने के लिए मजबूर कर। पर अब वो गाड़ियां भी और अधिक धीमी व लेटलतीफ कर दी जाएंगी ताकि वंदे भारत चलाई जा सके।
एक सीट की जगह के लिए कई यात्रियों को महंगे टिकट लेकर चलने के मजबूर करने के बावजूद रेलवे घाटे में चला गया है। बताया जा रहा है कि यात्री लागत का आधे से भी कम भाड़ा चुकाते हैं और प्रति टिकट बाकी रकम रेलवे उन्हें सबसिडी देता है। परंतु इसकी गहराई में जाएं तो घाटे का कारण कम भाड़ा नहीं निजीकरण है जिसके जरिए रेलवे की कमाई निजी पूंजीपतियों व ठेकेदारों को हस्तांतरित कर दी जाती है जिसकी वजह से रेलवे की लागत ऊंची हो जाती है।
पिछले दस साल में निजीकरण की यह प्रक्रिया बेहद तेज हुई है। इसके अंतर्गत रेलवे की व्यवसायिक व रिहायशी जमीनें, इमारतें, होटल, रेस्टोरेंट, स्टेशन, सफाई, खानपान, आदि ही नहीं उसके मूलभूत कार्यों जैसे रेल पटरी व पुल निर्माण, मेंटेनेंस, आदि को भी निजी ठेकेदारों को हस्तांतरित किया जा रहा है।
उधर रेलवे कर्मियों की संख्या निरंतर घटाई जा रही है और लाखों की तादाद में पद समाप्त कर दिए गए हैं। बड़ी संख्या में अनियमित व संविदा कर्मियों की भर्ती की गई है। फिर भी तीन लाख से अधिक पद खाली हैं। इनके काम का दबाव भी अन्य कामगारों पर पड़ रहा है। यह भी रेलवे में बढ़ती दुर्घटनाओं व लेट लतीफी का एक महत्वपूर्ण कारण है। अंततः यह भी यात्रियों की भीड़ की समस्या को और अधिक गंभीर बनाता है।
ट्रेन परिचालन के निजीकरण के चरित्र की एक खास बात समझने लायक हैं। आम तौर पर कोई कारोबार शुरू करते हुये पूंजीपति को सबसे बड़ी राशि जड़ (fixed) पूंजी में लगानी पड़ती है जिसकी वापसी कई सालों में थोड़ा-थोड़ा कर होती है। इसके ऊपर एक राशि चालू (circulating) पूंजी में लगती है जो कारोबार की प्रकृति के अनुसार सावधिक तौर पर अपना चक्र पूरा करती रहती है, इसमें मजदूरी और कच्चा माल होते हैं।
रेलवे जैसे उद्योग में जड़ पूंजी की बहुत बड़ी मात्रा चाहिये जिसकी वापसी में 15-20 साल तक लगते हैं। मगर सिर्फ किसी ट्रेन का परिचालन हाथ में लेने में जड़ पूंजी की लगभग नगण्य मात्रा का ही निवेश करना पड़ेगा – भूमि, ट्रैक, रेल, स्टेशन, विद्युत-सिगनल, नियंत्रण व्यवस्था सब में सार्वजनिक पूंजी ही रहेगी। निजी ऑपरेटर ट्रेन के चक्कर के हिसाब से शुल्क देगा या कुल कमाई का एक हिस्सा, कुछ कर्मचारी रखेगा और भाड़ा वसूल कर अपना मुनाफा काट लेगा। बिना किसी खास जोखिम पक्का मुनाफा। घाटे का लगभग सारा जोखिम सार्वजनिक क्षेत्र में ही रहेगा। इस तरह सार्वजनिक पूंजी के बल पर निजी पूंजीपति मुनाफा कमाता और पूंजी संचयन करता जायेगा और एक दिन खुद रेलवे के एक हिस्से को खरीदने लायक पूंजी एकत्र कर लेगा।
ऐसा नहीं कि यह पहली बार हो रहा है। 1943 में ही ‘बॉम्बे प्लान’ के जरिये टाटा, बिड़ला, साराभाई, श्रीराम, पुरुषोत्तम दास, आदि उस वक्त के बड़े पूंजीपतियों ने स्वतंत्र भारत में बड़ी मात्रा में जड़ पूंजी में निवेश वाले उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में रखने की योजना यूं ही तो प्रस्तुत नहीं की थी। सार्वजनिक क्षेत्र अब तक भी विभिन्न रूपों में यही करता आया है और उसके द्वारा पूंजी संचयन करने वाले पूंजीपति अब उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में उसे पीछे छोड़ चुके हैं। इसके लिए सार्वजनिक उपक्रमों के प्रत्येक क्षेत्र में निजी ठेकेदारों की भूमिका देखी जा सकती है। अब यह प्रक्रिया सिर्फ तेज होकर धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर मालिकाना स्थानांतरण की ओर बढ़ रही है।