लेनिन (स्तालिन का भाषण)

लेनिन (स्तालिन का भाषण)

July 5, 2024 0 By Yatharth

साथियों, मुझे बताया गया है कि आपने आज शाम यहां लेनिन स्मृति सभा का आयोजन किया है और मुझे एक वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया है। मुझे नहीं लगता कि मुझे लेनिन की गतिविधियों पर भाषण देने की कोई जरूरत है। मुझे लगता है कि बेहतर होगा कि मैं खुद को कुछ तथ्यों तक सीमित रखूं ताकि एक व्यक्ति और एक नेता के रूप में लेनिन की कुछ विशेषताओं को सामने ला सकूं। हो सकता है कि इन तथ्यों के बीच कोई अंतर्निहित संबंध न हो, लेकिन जहां तक लेनिन के बारे में सामान्य जानकारी प्राप्त करने का सवाल है, यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। किसी भी हालत में, मैं इस अवसर पर उससे ज्यादा कुछ करने में असमर्थ हूं जिसका मैंने अभी वादा किया है।

पहाड़ी बाज

मैं पहली बार 1903 में लेनिन से परिचित हुआ। सच है कि यह परिचय व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि पत्राचार के माध्यम से हुआ था। लेकिन इसने मुझ पर एक अमिट छाप छोड़ी, जो पार्टी में मेरे पूरे काम के दौरान मुझसे अलग ना हो सकी। मैं उस समय साइबेरिया में निर्वासित था। नब्बे के दशक के अंत से, विशेषकर 1901 के बाद जब इस्क्रा[1] प्रकाशित हुआ, लेनिन की क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में मेरी जानकारी मुझे आश्वस्त कर चुकी थी कि लेनिन के रूप में हमारे पास असाधारण क्षमता वाला एक व्यक्ति था। उस समय मैं उन्हें केवल पार्टी का नेता नहीं, बल्कि इसका वास्तविक संस्थापक मानता था, क्योंकि केवल वही हमारी पार्टी के आंतरिक सार और तत्काल जरूरतों को समझते थे। जब मैं उनकी तुलना हमारी पार्टी के अन्य नेताओं से करता था, तो मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि वे अपने सहयोगियों – प्लेखानोव, मार्तोव, एक्सेलरोड और अन्य से कहीं बेहतर हैं; कि, इन सभी की तुलना में, लेनिन न केवल सभी नेताओं में से एक थे, बल्कि एक सर्वोच्च नेता थे, एक पहाड़ी बाज, जिसे संघर्ष से कोई डर नहीं था, और जिसने रूसी क्रांतिकारी आंदोलन के अनदेखे रास्तों पर पार्टी को साहसपूर्वक आगे बढ़ाया। इस धारणा ने मुझ पर इतनी गहरी पकड़ बना ली कि मैंने अपने एक करीबी दोस्त को इसके बारे में लिख भेजा, जो विदेश में एक राजनीतिक निर्वासित के रूप में रह रहा था, उससे अपनी राय देने का अनुरोध किया। कुछ समय बाद, जब मैं साइबेरिया में निर्वासन में था – यह 1903 के अंत की बात है – मुझे अपने उस दोस्त से एक उत्साही उत्तर और लेनिन का एक सरल लेकिन गहनता से भरा भावबोधक पत्र मिला, जिनको मेरे दोस्त ने मेरा लिखा पत्र दिखाया था। लेनिन का नोट तुलनात्मक रूप से छोटा था, लेकिन इसमें हमारी पार्टी के व्यावहारिक काम की एक साहसिक और निडर आलोचना थी, और निकट भविष्य में पार्टी के काम की पूरी योजना का एक उल्लेखनीय, स्पष्ट और संक्षिप्त विवरण था। केवल लेनिन ही सबसे जटिल चीजों को इतनी सरलता और स्पष्टता से, इतनी संक्षिप्तता और साहस के साथ लिख सकते थे कि मानो हर वाक्य बोलता नहीं बल्कि राइफल से निकली गोली की तरह गूंजता हो। इस सरल और साहसिक पत्र ने मेरी इस राय को और भी मजबूत कर दिया कि लेनिन हमारी पार्टी के पहाड़ी बाज थे। मैं खुद को माफ नहीं कर सकता कि एक पुराने भूमिगत कार्यकर्ता की आदत के कारण मैंने लेनिन के इस पत्र को, कई अन्य पत्रों की तरह, आग के हवाले कर दिया।

लेनिन से मेरा परिचय उसी समय से है।

विनम्रता

मैं पहली बार लेनिन से दिसंबर 1905 में टैमरफोर्स (फिनलैंड) में बोल्शेविक सम्मेलन में मिला था। मैं हमारी पार्टी के पहाड़ी बाज़, उस महान व्यक्ति को देखने की उम्मीद कर रहा था जो न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि शारीरिक रूप से भी महान था, क्योंकि मेरी कल्पना में मैंने लेनिन को एक विशालकाय, भव्य और प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में चित्रित किया था। फिर आप सोच सकते हैं कि एक बहुत ही साधारण से दिखने वाले व्यक्ति को देख कर मुझे कैसी निराशा हुई होगी, औसत से कम ऊंचाई, किसी भी तरह से, सचमुच किसी भी तरह से, सामान्य मनुष्यों से अलग नहीं…

एक “महान व्यक्ति” का बैठकों में देर से आना एक सामान्य बात मानी जाती है ताकि सभा उसके आने का बेसब्री से इंतजार कर सके; और फिर, “महान व्यक्ति” के प्रवेश से ठीक पहले, चेतावनी की फुसफुसाहट सुनाई देने लगे : “चुप रहो! . . . चुप रहो! . . . वह आ रहे हैं।” यह अनुष्ठान मुझे अनावश्यक नहीं लगता था, क्योंकि यह एक प्रभाव पैदा करता है, सम्मान को प्रेरित करता है। फिर, मुझे यह जानकर कैसी निराशा हुई कि लेनिन प्रतिनिधियों से पहले सम्मेलन में आ गए थे, खुद को कहीं एक कोने में बैठा लिया था, और बिना दिखावे के बातचीत कर रहे थे, सम्मेलन में सबसे साधारण प्रतिनिधियों के साथ एक बहुत ही साधारण बातचीत। मैं आपसे यह नहीं छिपाऊंगा कि उस समय मुझे यह कुछ आवश्यक नियमों के उल्लंघन जैसा लगा था।

कुछ बाद में ही मुझे एहसास हुआ कि यह सादगी और विनम्रता, अदृश्य बने रहने का प्रयास, या कम से कम, खुद को विशिष्ट न बनाने और अपने उच्च पद पर जोर न देने का प्रयास, यह विशेषता, मानवता के “रैंक और फाइल” के सरल और साधारण जन के रूप में मौजूद जनता, एक नई जनता के नए नेता के रूप में, लेनिन की सबसे अहम विशेषताओं में से एक थी।

तर्क की शक्ति

इस सम्मेलन में लेनिन द्वारा दिए गए दो भाषण उल्लेखनीय थे : एक वर्तमान स्थिति पर था और दूसरा कृषि प्रश्न पर। दुर्भाग्य से, उन्हें संरक्षित नहीं किया गया है। प्रेरणा से भरे इन भाषणों ने पूरे सम्मेलन को तूफानी उत्साह के शिखर पर पहुंचा दिया। दृढ़ता की असाधारण शक्ति, तर्क की सरलता और स्पष्टता, संक्षिप्त और आसानी से समझ में आने वाले वाक्य, दिखावटीपन, चक्करदार हाव-भाव और प्रभाव डालने वाले नाटकीय वाक्यांश का ना होना – इन सभी ने लेनिन के भाषणों को सामान्य “संसदीय” वक्ताओं के भाषणों से सकारात्मक रूप से अलग बना दिया।

लेकिन उस समय मुझे जो आकर्षित कर रहा था वह लेनिन के भाषणों का यह पहलू नहीं था। मैं उनके भाषणों में तर्क की उस अदम्य शक्ति से मोहित था, जिसने, कुछ हद तक संक्षिप्त होने के बावजूद, श्रोताओं पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली, धीरे-धीरे उन्हें रोमांचित कर दिया और फिर, जैसा कि कोई कह सकता है, पूरी तरह से उन्हें अपने वश में कर लिया। मुझे याद है कि कई प्रतिनिधियों ने कहा था : “लेनिन के भाषणों का तर्क एक शक्तिशाली पंजे की तरह है जो आपको चारों ओर से घेरता है और आपको एक ऐसे शिकंजे में जकड़ लेता है जिसकी पकड़ से आप खुद को छुड़ाने में असमर्थ होते हैं : आपको या तो आत्मसमर्पण करना होगा या पूरी तरह से हार मान लेनी होगी।”

मैं समझता हूं कि लेनिन के भाषणों की यह विशेषता एक वक्ता के रूप में उनकी कला की सबसे सशक्त विशेषता थी।

कोई रोना-धोना नहीं

दूसरी बार मैं लेनिन से 1906 में पार्टी के स्टॉकहोम कांग्रेस[2] में मिला था। आप जानते हैं कि इस कांग्रेस में बोल्शेविक अल्पमत में थे और उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। यह पहली बार था जब मैंने लेनिन को पराजित की भूमिका में देखा था। लेकिन वे उन नेताओं की तरह बिलकुल भी नहीं थे जो हार के बाद रिरियाते हैं और हिम्मत हार जाते हैं। इसके विपरीत, हार ने लेनिन को दबी ऊर्जा के जल-स्रोत में बदल दिया जिसने उनके समर्थकों को नई लड़ाइयों और भविष्य की जीत के लिए प्रेरित किया। मैंने कहा कि लेनिन हार गए थे। लेकिन यह किस तरह की हार थी? आपको केवल उनके विरोधियों, स्टॉकहोम कांग्रेस के विजेताओं – प्लेखानोव, एक्सेलरोड, मार्तोव और बाकी लोगों का चेहरा देखना था। वे सही मायनों में विजेता की तरह नहीं लग रहे थे, क्योंकि लेनिन की मेन्शेविज्म की निर्दयी आलोचना ने उनके शरीर में कहने को एक भी हड्डी नहीं छोड़ी थी। मुझे याद है कि हम, बोल्शेविक प्रतिनिधि, एक समूह में इकट्ठे हो कर, लेनिन को देख रहे थे और उनकी सलाह मांग रहे थे। कुछ प्रतिनिधियों के भाषणों में थकान और निराशा झलक रही थी। मुझे याद है कि इन भाषणों पर लेनिन ने दांत पीसते हुए कहा था : “रोना-धोना बंद करो कॉमरेडों, हमारी जीत तय है, क्योंकि हम सही हैं।” रिरियाते हुए बुद्धिजीवियों से घृणा, अपनी ताकत पर भरोसा, जीत में विश्वास – लेनिन की इन्ही बातों ने हम पर प्रभाव डाला था। सब ने यह महसूस किया कि बोल्शेविकों की हार अस्थायी थी, और उनकी जीत निकट भविष्य में तय थी।

“हार पर रोना-धोना नहीं” – यह लेनिन की गतिविधियों की विशेषता थी जिसने उन्हें अपने चारों ओर एक ऐसी सेना जुटाने में मदद की जो अंत तक वफादार थी और अपनी ताकत में आश्वस्त थी।

कोई घमंड नहीं

1907 में लंदन में आयोजित अगले अधिवेशन[3] में बोल्शेविकों की जीत हुई। यह पहली बार था जब मैंने लेनिन को विजेता की भूमिका में देखा। जीत कुछ नेताओं के दिमाग को बदल देती है और उन्हें घमंडी और शेखी बघारने वाला बना देती है। वे ज्यादातर मामलों में घमंडी होने लगते हैं, अपनी उपलब्धियों के भरोसे बेफिक्र हो जाते हैं। लेकिन लेनिन ऐसे नेताओं से बिलकुल अलग थे। इसके विपरीत, जीत के बाद ही वे विशेष रूप से सतर्क और सावधान हो जाते थे। मुझे याद है कि लेनिन ने प्रतिनिधियों को जोर देते हुए कहा था : “पहली बात यह है कि जीत के नशे में न आएं और घमंड न करें; दूसरी बात यह है कि जीत को संगठित करें; तीसरी बात यह है कि दुश्मन पर अंतिम प्रहार करें, क्योंकि वह पराजित तो हुआ है, लेकिन कुचला नहीं गया है।” उन्होंने उन प्रतिनिधियों पर तीखा कटाक्ष किया जिन्होंने तुच्छतापूर्वक कहा था : “अब मेंशेविकों का अंत हो चुका है।” उन्हें यह दिखाने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि मेन्शेविकों की जड़ें अभी भी मजदूर वर्ग के आंदोलन में मौजूद हैं, कि उनसे कुशलता से लड़ा जाना चाहिए, और अपनी ताकत का अति-मूल्यांकन तथा विशेषकर दुश्मन की ताकत का कमतर-मूल्यांकन करने से बचना चाहिए।

“विजय पर घमंड न करना” – यह लेनिन के चरित्र की विशेषता थी जिसने उन्हें दुश्मन की ताकत का गंभीरतापूर्वक मूल्यांकन करने और संभावित झटकों के विरुद्ध पार्टी को सुरक्षित रखने में मदद की।

सिद्धांतों के प्रति निष्ठा

पार्टी के नेता को अपनी पार्टी के बहुमत की राय को महत्व देना होता है। बहुमत एक ऐसी शक्ति है जिसके सामने नेता झुकने को बाध्य होता है। लेनिन इस बात को किसी भी अन्य पार्टी के नेता से कम नहीं समझते थे। लेकिन लेनिन कभी भी बहुमत के मोहताज नहीं हुए, खासकर तब जब उस बहुमत के पास कोई सैद्धांतिक आधार न हो। हमारी पार्टी के इतिहास में ऐसे कई मौके आए हैं जब बहुमत की राय या पार्टी के क्षणिक हित सर्वहारा वर्ग के बुनियादी हितों के साथ टकराए हैं। ऐसे मौकों पर लेनिन कभी नहीं हिचकिचाए और उन्होंने पार्टी के बहुमत के खिलाफ सिद्धांत के समर्थन में दृढ़ता से अपना पक्ष रखा। इसके अलावा, ऐसे मौकों पर वह सचमुच सबके खिलाफ अकेले खड़े होने से नहीं डरते थे, क्योंकि वह अक्सर कहते थे कि “सिद्धांत पर आधारित नीति ही एकमात्र सही नीति है।”

इस संबंध में निम्नलिखित दो तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

पहला तथ्य। यह 1909-11 का दौर था, जब प्रतिक्रांति से तबाह पार्टी पूरी तरह से बिखरने की प्रक्रिया में थी। यह पार्टी में अविश्वास का दौर था, एक ऐसा दौर जहां न केवल बुद्धिजीवी बल्कि एक हद तक मजदूर भी पार्टी का साथ छोड़ भाग खड़े हो रहे थे, एक ऐसा दौर जब अवैध संगठन की आवश्यकता को नकारा जा रहा था; परिसमापनवाद (liquidationism) और पतन का दौर। न केवल मेन्शेविक, बल्कि बोल्शेविकों में भी तब कई तरह से गुट और प्रवृत्तियां मौजूद थीं, जो अधिकांशतः मजदूर वर्ग के आंदोलन से कटी हुई थी। आप जानते हैं कि ठीक इसी दौर में अवैध संगठन को पूरी तरह से खत्म करने और मजदूरों को एक वैध, उदार स्टोलिपिन पार्टी में संगठित करने का विचार पनपा था। उस समय लेनिन ही एकमात्र व्यक्ति थे, जिन्होंने इस व्यापक महामारी के आगे घुटने नहीं टेके और पार्टी सिद्धांत का झंडा बुलंद रखा, पार्टी की बिखरी और विखंडित हो चुकी ताकतों को आश्चर्यजनक धैर्य और असाधारण दृढ़ता के साथ एकजुट किया, मजदूर वर्ग के आंदोलन के भीतर प्रत्येक पार्टी-विरोधी प्रवृत्ति का मुकाबला किया और असामान्य साहस और अद्वितीय दृढ़ता के साथ पार्टी सिद्धांत की रक्षा की।

हम जानते हैं कि पार्टी सिद्धांत की इस लड़ाई में बाद में लेनिन विजयी साबित हुए।

दूसरा तथ्य। यह 1914-17 का दौर था, जब साम्राज्यवादी युद्ध पूरे जोरों पर था, और जब सभी या लगभग सभी सामाजिक-जनवादी और समाजवादी पार्टियां सामान्य देशभक्ति के उन्माद के आगे झुक गई थीं और अपने-अपने देशों के साम्राज्यवाद की सेवा में खुद को समर्पित कर चुकी थीं। यह वह दौर था जब द्वितीय इंटरनेशनल ने पूंजीवाद के सामने घुटने टेक दिए थे, जब प्लेखानोव, काउत्स्की, गेड और बाकी नेता भी अंधराष्ट्रवाद की लहर का सामना करने में असमर्थ थे। उस समय लेनिन अकेले या लगभग अकेले व्यक्ति थे, जिन्होंने सामाजिक-अंधराष्ट्रवाद और सामाजिक-शांतिवाद के खिलाफ एक दृढ़ संघर्ष छेड़ा, गेड और काउत्स्की के विश्वासघात की  खुलेआम भर्त्सना की और बीच-बीच वाले “क्रांतिकारियों” के अन्दर मौजूद आधे-अधूरेपन को चिह्नित और उजागर किया। लेनिन जानते थे कि उनके पीछे केवल एक नगण्य अल्पमत ही था, लेकिन वह इसके कारण निर्णय लेने में पीछे नहीं हटे, क्योंकि वे जानते थे कि भविष्य के लिए एकमात्र सही नीति सुसंगत अंतर्राष्ट्रीयता की नीति थी, और सिद्धांत पर आधारित नीति ही एकमात्र सही नीति होती है।

हम जानते हैं कि नये इंटरनेशनल के लिए इस संघर्ष में भी लेनिन विजयी सिद्ध हुए।

“सिद्धांत पर आधारित नीति ही एकमात्र सही नीति होती है” – यह वह सूत्र था जिसके सहारे लेनिन ने आक्रामक तरीके से नए “अभेद्य” पोजीशन लिए और सर्वहारा वर्ग के सर्वोत्तम तत्वों को क्रांतिकारी मार्क्सवाद के पक्ष में कर लिया।

जनता में विश्वास

सिद्धांतकार और पार्टियों के नेता, जो राष्ट्रों के इतिहास से परिचित हैं और जिन्होंने क्रांतियों के इतिहास का आरंभ से अंत तक अध्ययन किया है, कभी-कभी एक शर्मनाक बीमारी से पीड़ित होते हैं। इस बीमारी को जनता का डर, जनता की रचनात्मक शक्ति में अविश्वास कहा जाता है। यह कभी-कभी नेताओं में जनता के प्रति एक प्रकार का अभिजातवर्गीय रवैया पैदा करता है, जो भले ही क्रांतियों के इतिहास में पारंगत नहीं होती है, लेकिन पुरानी व्यवस्था को नष्ट करने और नई व्यवस्था बनाने के लिए पूर्वनिर्दिष्ट होती है। इस तरह का अभिजातवर्गीय रवैया इस डर से पैदा होता है कि लोग कहीं अनियंत्रित ना हो जाएं, कि जनता “बहुत अधिक विनाश” ना कर दे; यह एक ऐसे गुरु की भूमिका निभाने की इच्छा के कारण होता है जो किताबों से जनता को सिखाने की कोशिश करता है, लेकिन जो जनता से सीखने के लिए अनिच्छुक होता है।

लेनिन ऐसे नेताओं के बिल्कुल उलट थे। मैं किसी दूसरे क्रांतिकारी को नहीं जानता जिसकी सर्वहारा वर्ग की रचनात्मक शक्ति और उसकी वर्गीय प्रवृत्ति की क्रांतिकारी प्रभावकारिता में लेनिन जितनी गहरी आस्था थी। मैं किसी दूसरे क्रांतिकारी को नहीं जानता जो “क्रांति की अराजकता” और “जनता की अनधिकृत हिंसक कार्रवाई” के दंभी आलोचकों को लेनिन जितनी बेरहमी से दंडित कर सके। मुझे याद है कि जब बातचीत के दौरान एक कॉमरेड ने कहा कि “क्रांति के बाद चीजों का क्रम सामान्य होना चाहिए,” तो लेनिन ने व्यंग्यात्मक ढंग से टिप्पणी की : “यह अफसोस की बात है कि जो लोग क्रांतिकारी बनना चाहते हैं वे भूल जाते हैं कि इतिहास में चीजों का सबसे सामान्य क्रम चीजों का क्रांतिकारी क्रम है।”

इसलिए, लेनिन उन सभी मगरूर लोगों के प्रति घृणा का भाव रखते थे जो जनता को नीची नजर से देखते थे और उन्हें किताबों से पढ़ा देने की कोशिश करते थे। और इसलिए, लेनिन का निरंतर उपदेश था : जनता से सीखो, उनकी कार्रवाइयों को समझने की कोशिश करो, जनता के संघर्षों के व्यावहारिक अनुभव का ध्यानपूर्वक अध्ययन करो।

जनता की रचनात्मक शक्ति में विश्वास – यह लेनिन की गतिविधियों की विशेषता थी जिसने उन्हें स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया को समझने और उसके आंदोलन को सर्वहारा क्रांति की दिशा में निर्देशित करने में सक्षम बनाया।

क्रांति के महानायक

लेनिन का जन्म क्रांति के लिए हुआ था। वे सच में क्रांतिकारी उभारों के महारथी थे और क्रांतिकारी नेतृत्व की कला में दक्ष थे। वे क्रांतिकारी उथल-पुथल के दौर में सबसे ज्यादा स्वतंत्र और प्रसन्न महसूस करते थे। इससे मेरा यह मतलब नहीं है कि लेनिन सभी क्रांतिकारी उथल-पुथल को समान रूप से स्वीकार करते थे, कि वे हर समय और हर परिस्थिति में क्रांतिकारी उभार की वकालत करते थे। बिलकुल नहीं। मैं यह कहना चाहता हूं कि लेनिन की गहरी दूरदर्शिता कभी इतनी सम्पूर्णता और स्पष्टता से प्रकट नहीं होती जितनी क्रांतिकारी उभार के दौरान होती थी। क्रांतिकारी उभार के दिनों में वे खिल उठते, मानो भविष्यवक्ता बन गए हों, वर्गों के आंदोलन और क्रांति के संभावित टेढ़े-मेढ़े रास्तों को पहले से ही, अपनी हथेली की रेखाओं की तरह, देख लिया करते थे। यह यूं ही नहीं था कि हमारे पार्टी हलकों में यह कहा जाता था कि “इलिच क्रांति की लहरों में पानी में मछली की तरह तैरते है।”

इसलिए लेनिन के कार्यनीतिक नारों में “अद्भुत” स्पष्टता और उनकी क्रांतिकारी योजनाओं में “शानदार” दिलेरी थी।

मुझे दो विशेष तथ्य याद हैं, जो लेनिन की इस अनोखी विशेषता को उजागर करते हैं।

पहला तथ्य। अक्टूबर विद्रोह से पहले का समय, जब लाखों मजदूर, किसान और सैनिक, पीछे और सामने से आने वाले संकट से पीड़ित होकर, शांति और स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे; जब सेनापति और पूंजीपति वर्ग “युद्ध को कटु अंत तक” जारी रखने के लिए सैन्य तानाशाही की तैयारी कर रहे थे; जब पूरा तथाकथित “जनमत”, सभी तथाकथित “समाजवादी दल” बोल्शेविकों के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अख्तियार किये हुए थे, उन पर “जर्मन जासूस” होने का आरोप लगा रहे थे; जब केरेन्स्की बोल्शेविक पार्टी को भूमिगत करने की कोशिश कर रहा था, जिसमें उसे कुछ हद तक सफलता भी मिली; जब ऑस्ट्रो-जर्मन गठबंधन की अभी भी शक्तिशाली, अनुशासित सेना का सामना हमारी थकी हुई बिखरती सेनाएं कर रही थी, और जब पश्चिमी यूरोपीय “समाजवादी” “युद्ध को अंतिम विजय तक” जारी रखने के उद्देश्य से अपनी सरकारों के साथ खुशहाल गठबंधन में रह रहे थे…”

ऐसे समय में विद्रोह शुरू करने का क्या मतलब था? ऐसी परिस्थितियों में विद्रोह शुरू करने का मतलब था सब कुछ दांव पर लगाना। लेकिन लेनिन जोखिम लेने से नहीं डरे, क्योंकि वह जानते थे, उन्होंने अपनी भविष्यदर्शी आंखों से देखा था, कि विद्रोह अपरिहार्य था, कि विद्रोह विजयी होगा, कि रूस में विद्रोह साम्राज्यवादी युद्ध को समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त करेगा, कि रूस का यह विद्रोह युद्ध से थकी हुई पश्चिमी देशों की जनता को जगाएगा, कि रूस में विद्रोह साम्राज्यवादी युद्ध को गृहयुद्ध में बदल देगा, कि विद्रोह सोवियत गणराज्य को जन्म देगा, कि सोवियत गणराज्य पूरी दुनिया के क्रांतिकारी आंदोलन के लिए एक गढ़ का काम करेगा।

यह सर्वविदित है कि आगे लेनिन की क्रांतिकारी दूरदर्शिता की अभूतपूर्व सटीकता के साथ पुष्टि हुई।

दूसरा तथ्य। यह अक्टूबर क्रांति के शुरुआती दिनों की बात है, जब पीपुल्स कमिसार्स की परिषद विद्रोही कमांडर-इन-चीफ जनरल दुखोनिन को जर्मनों के साथ शत्रुता समाप्त करने और युद्धविराम हेतु बातचीत शुरू करने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रही थी। मुझे याद है कि लेनिन, क्रिलेंको (भविष्य के कमांडर-इन-चीफ) और मैं दुखोनिन से सीधे तार द्वारा बात करने के लिए पेत्रोग्राद में जनरल मिलिट्री मुख्यालय गए थे। स्थिति बहुत तनावपूर्ण थी। दुखोनिन और फील्ड मुख्यालय ने पीपुल्स कमिसार्स की परिषद के सैन्य आदेशों को पूरा करने से स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया। सेना के अधिकारी पूरी तरह से फील्ड मुख्यालय के प्रभाव में थे। सैनिकों की बात करें तो कोई भी नहीं बता सकता था कि डेढ़ करोड़ की यह सेना किसका पक्ष लेगी, क्योंकि यह तथाकथित सेना संगठनों के अधीन थी जो सोवियत सत्ता के विरोधी थे। पेत्रोग्राद में ही, जैसा कि सर्वविदित है, जूंकर्स[4] का विद्रोह परिपक्व हो रहा था। इसके अलावा, केरेन्स्की पेत्रोग्राद पर मार्च कर रहा था। मुझे याद है कि टेलीग्राफ तार पर कुछ देर रुकने के बाद लेनिन के चेहरे पर एक असाधारण चमक आ गई थी। यह स्पष्ट था कि वह किसी निर्णय पर पहुंच गए थे। “चलो वायरलेस स्टेशन पर चलते हैं,” उन्होंने कहा, “यह हमारे फायदे में होगा। हम जनरल दुखोनिन को बर्खास्त करने के लिए एक विशेष आदेश जारी करेंगे, उनकी जगह कॉमरेड क्रिलेंको को कमांडर-इन-चीफ नियुक्त करेंगे और अधिकारियों को दरकिनार करते हुए सीधे सैनिकों से अपील करेंगे कि – जनरलों को घेर लें, सैन्य अभियान रोक दें, ऑस्ट्रो-जर्मन सैनिकों से संपर्क स्थापित करें और शांति का मुद्दा अपने हाथों में ले लें।”

यह “अंधेरे में छलांग” थी। लेकिन लेनिन इस “छलांग” से पीछे नहीं हटे; बल्कि उन्होंने उत्सुकता से यह छलांग लगाई, क्योंकि वह जानते थे कि सेना शांति चाहती है, कि वह शांति हासिल करेगी और शांति के अपने रास्ते से हर बाधा को दूर करेगी; वे जानते थे कि शांति स्थापित करने का यह तरीका ऑस्ट्रो-जर्मन सैनिकों पर प्रभाव अवश्य डालेगा और बिना किसी अपवाद के हर मोर्चे पर शांति की चाहत को पूरी तरह बल मिलेगा।

यह सर्वविदित है कि इस अवसर पर भी लेनिन की क्रांतिकारी दूरदर्शिता की बाद में अत्यंत सटीकता के साथ पुष्टि हुई।

शानदार दूरदर्शिता, आसन्न घटनाओं के आंतरिक अर्थ को तेजी से पकड़ने और समझने की क्षमता – यह लेनिन की विशेषता है जिसने उन्हें क्रांतिकारी आंदोलन के निर्णायक बिंदुओं पर सही रणनीति और स्पष्ट आचरण की रूपरेखा तैयार करने में सक्षम बनाया।

(यह लेख सबसे पहले प्रावदा, अंक-34, फरवरी 12, 1924 में प्रकाशित हुआ था।
साभार : marxists.org

अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद : आकांक्षा


[1] इस्क्रा (स्पार्क) – पहला अखिल रूसी अवैध मार्क्सवादी समाचार पत्र, जिसकी स्थापना दिसंबर 1900 में वी.आई. लेनिन ने की थी। इसे विदेश में प्रकाशित किया गया और गुप्त रूप से रूस में लाया गया।

[2] स्टॉकहोम पार्टी कांग्रेस – आर.एस.डी.एल.पी. की चौथी (“एकता”) कांग्रेस जो 10-25 अप्रैल 1906 को हुई थी।

[3] आर.एस.डी.एल.पी. की पांचवीं (लंदन) कांग्रेस 30 अप्रैल से 19 मई (13 मई से 1 जून – नया कैलेंडर), 1907 के बीच हुई थी।

[4] सैन्य कैडेट