इकोनॉमिक सर्वे 2024 में से झांकती भारत की अर्थव्यवस्था की तस्वीर और बेरोजगारी की विकराल समस्या

इकोनॉमिक सर्वे 2024 में से झांकती भारत की अर्थव्यवस्था की तस्वीर और बेरोजगारी की विकराल समस्या

August 29, 2024 0 By Yatharth

एक संक्षिप्त विश्लेषणात्मक चर्चा

I

कुछ हफ्ते पुरानी बात है। देश के एक नामी-गिरामी बड़े पूंजीपति और दैत्याकार आईटी कंपनी इनफोसिस के संस्थापक एन. आर. नारायण मूर्ति पर जीएसटी इंटेलिजेंस के डायरेक्टर जनरल ने 32400 करोड़ की कर चोरी का आरोप लगाते हुए उसके खिलाफ पूछताछ का नोटिस जारी कर दिया। सुनने में अजीब लगा कि नारायण मूर्ति जैसे बड़े पूंजीपतियों द्वारा कर चोरी क्या इतनी बड़ी बात है, खासकर मोदी के शासन में, जो बड़े पूंजीपतियों की ही चहेती सरकार है? सरकार, कोर्ट, थाना, अफसर, मेन स्ट्रीम पत्रकार – इन दिनों सभी तो उनके ही चाकर हैं। कर चोरी क्या चीज है, वे कुछ भी डकार सकते हैं। फिर ऐसा क्या हुआ कि जीएसटी इंटेलिजेंस के डायरेक्टर ने उनके खिलाफ सीधे कर चोरी का नोटिस ही भेज दिया?

दरअसल बात यह है कि अभी कुछ हफ्ते पहले उन्होंने ‘ELCIA Tech Summit 2024’, में व्याख्यान देते हुए भारत की चीन से प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता, खासकर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में, के संबंध में मोदी सरकार के दावों पर शंका जाहिर की थी। जीएसीटी द्वारा जारी पूछताछ नोटिस इसी की सजा है। सजा तो क्या ही मिलेगी। बस चेतावनी दी गयी है कि मोदी के दावों की पोल खोलने की जुर्रत कोई न करे। याद कीजिए, ये वही नारायण मूर्ति हैं जिन्होंने सरकार को भारत में 70 घंटे के साप्ताहिक कार्यदिवस को लागू करने की गैर-मानवीय सलाह दी थी! तब मोदी सरकार को कोई दिक्कत नहीं हुई। लेकिन जैसे ही नारायण मूर्ति ने अपने लेक्चर में मोदी सरकार के इस दावे को कटघरे में खड़ा किया कि भारत जल्द ही चीन से आगे निकल दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब या विश्व की फैक्ट्री  (factory to the world) बन जाने वाला है तो जाहिर है मोदी को दिक्कत हो गई। दिक्कत यह हो गयी कि उन्होंने मोदी के दावे को एक दु:साहसिक (audacious) दावा कैसे कह दिया, कैसे मोदी के दावे को गलत करार दे दिया कि भारत चीन के बराबर पहुंच गया है और उसे टक्कर दे रहा है!  

नारायण मूर्ति की बात सच है। उनकी चिढ़ मोदी के बड़बोलेपन से इसलिए है कि वे और उनके जैसे देश के अन्य बड़े पूंजीपति यह मानते हैं कि इससे भारत और चीन के बीच के आर्थिक संबंध बेवजह खराब हो सकते हैं जबकि भारत को चीन से मिलजुल कर चलना चाहिए, न कि टकराव को बढ़ाना चाहिए। वे इसमें देश का (असल में अपना और अन्य बड़े पूंजीपतियों का) फायदा देखते हैं। इकोनॉमिक सर्वे 2024 ने भी चीन के प्रति भारत की रणनीति में एक बड़े परिवर्तन की बात की है। उसने कहा है कि भारत को अपने स्थानीय मैन्युफैक्चरिंग को मजबूत एवं उत्साहित करने के लिए चीन के सप्लाई चेन का हिस्सा बनना होगा और ऐसा करके ही भारत ग्लोबल सप्लाई चेन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा सकेगा। चीन से संबंध बिगाड़ने वाली बात करके यह संभव नहीं है। (The Economic Survey 2023–24 has said that it is inevitable that India plugs itself into China’s supply chain to boost local manufacturing and plug itself into the global supply chain.) देश के बड़े पूंजीपति भी यही चाहते हैं कि हमें सिर्फ एक मात्र चीन के आयात पर नहीं, इसके निवेश को भी आमंत्रित करना चाहिए, तभी हम अपना निर्यात बढ़ा सकते हैं। अधिकांश भीतर ही भीतर और कुछ खुलेआम इस बात को स्वीकारते हैं कि चीन पर इस अर्थ में हमारी निर्भरता है और इसे प्रधानमंत्री व सरकार को भी स्वीकारना चाहिए। भारत सरकार की तरफ से फिनांशियल टाइम्स (26 अगस्त 2024) के साथ एक बातचीत में इलेक्ट्रोनिक एवं आईटी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने यह स्वीकारा भी कि भारत इसके लिए तैयार है। नारायण मूर्ति इसकी शुरू से ही वकालत करते रहे हैं और देश के प्रधानमंत्री को इस सच को स्वीकारने के लिए अप्रत्यक्ष तौर पर कहते रहे हैं कि चीन मैन्युफैक्चरिंग में हमसे बहुत आगे है और हमें इससे मिलकर आगे बढ़ना होगा।

चीन का कुल निर्यात साइज 3.5 ट्रिलियन डॉलर है जबकि भारत की पूरी अर्थव्यवस्था का साइज ही 3.5 ट्रिलियन डॉलर है। चीन की जीडीपी भारत से 6 गुनी है। इसकी इकोनॉमी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी (लगभग 20 ट्रिलियन डॉलर की) इकोनॉमी है। चीन दुनिया की लगभग हर चीज बनाता है और इसलिए पूरे विश्व का मैन्युफैक्चरिंग हब और फैक्ट्री है। दुनिया के हर देश में मेड इन चाइना का सामान मिल जाएगा, जबकि भारत के बारे में हम ऐसा नहीं कह सकते हैं। अगर किसी देश में कपड़े लेने जाएंगे, तो मेड इन बांग्लादेश या मेड इन चाइना ही मिलेगा, न कि मेड इन इंडिया। भारत का दावा सॉफ्टवेयर निर्यात में रहा है लेकिन सच्चाई यही है कि इसमें भी चीन भारत से काफी आगे है। 17 अगस्त के इकोनॉमिक टाइम्स अखबार के अनुसार, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर होने वाले शीर्षस्थ 10 सम्मेलनों में भारत के द्वारा किये गये रिसर्च पेपर योगदान की बात करें तो यह 2018-2023 के बीच महज 1.4 प्रतिशत रहा है और इसलिए वर्तमान में पूरे विश्व में उसका स्थान 14वां है, जबकि चीन (पेपर योगदान में 22 प्रतिशत शेयर के साथ) अपने प्रतिद्वंद्वी और पेपर योगदान में 30.4 प्रतिशत शेयर के साथ शीर्ष स्थान पर काबिज अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर खड़ा है। यह दिखाता है कि अमेरिका और चीन में उच्च शिक्षा और शोध में कितना भारी निवेश किया जाता है। बीआईटीएस पिलानी (BITS Pilani) के वाइसचांसलर रामगोपाल राव कहते हैं कि “चीन जितना सिर्फ पेकिंग और शिन्हुआ विश्वविद्यालय पर खर्च करता है वह भारत के शिक्षा मंत्रालय के उच्चतर शिक्षा बजट के लगभग बराबर है।” (What China spends on Peking and Tsinghua Universities alone is around the Indian ministry of education’s higher education budget) हाल यह है कि भारत का एआई पेपर ग्रोथ रेट स्थिर और इसका ग्राफ चपटा हो चुका है जबकि एशिया के अन्य देश, जैसे कि हांगकांग, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया, अपने ग्रोथ रेट को तेज करने में सफल हो रहे हैं।      

‘द इकोनॉमिस्ट’ जैसी पत्रिका भी मानती है कि चीन का व्यापार वैश्विक आकार का है। यही नहीं, ग्लोबल साउथ में वह विदेशी ग्रीनफील्ड प्रत्यक्ष निवेश (160 बिलियन डॉलर का और पहले का तीन गुणा) और चीनी मालों की बिक्री (800 बिलियन डॉलर मूल्य का और 2016 की तुलना में चार गुणा) के क्षेत्रों में विकसित देशों को भी जल्द ही पीछे छोड़ देने की स्थिति में पहुंच गया है। वह पूरे दक्षिणी गोलार्ध में, मलेशिया से लेकर मोरक्को तक, फैक्टरियों का जाल ही नहीं बिछा रहा है, वहां अपने सामान भी बेच रहा है। वह जितना विकसित व धनी देशों में सामान बेचता है उससे कहीं अधिक वह ग्लोबल साउथ में बेचने लगा है। कुल मिलाकर ‘द इकोनॉमिस्ट’ कहता है कि चीन का व्यापार ग्लोबल रूप ले चुका है।[1]   

एक और कड़वी सच्चाई यह है कि टेक्सटाइल और गारमेंट उद्योग के मामले में हम चीन से तो क्या बांग्लादेश से भी काफी पीछे हैं। टेक्सटाइल और गारमेंट उद्योग, जो मनमोहन सिंह और उनके द्वारा शुरू की गई उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के समय से ही काफी पीछे छूट चुका था, पिछले 10 सालों से प्रधानमंत्री के बड़े से बड़े दावों के बावजूद बांग्लादेश से काफी पीछे बना हुआ है। इस बारे में मोदी के दावों की फेहरिस्त काफी लंबी है, जैसे कि “हम हिंदुस्तान को वापस टेक्सटाइल और गारमेंट का किंग बना देंगे। 75 टेक्सटाइल पार्क ही नहीं 75 नए त्रिचुर बनाएंगे। पांच ऐसे टेक्सटाइल पार्क खोलेंगे जो दुनिया में अद्वितीय होंगे”, आदि। पिछले साल मोदी ने कहा था कि “हम टेक्सटाइल और गारमेंट्स के क्षेत्र में हिंदुस्तान को बांग्लादेश बना देंगे।” लेकिन आज हम देख सकते हैं कि सच्चाई क्या है। सच्चाई यह है कि गारमेंट और टेक्स्टाइल में चीन के बराबर आने की बात भी नहीं करते। ज्यादा से ज्यादा बांग्लादेश से अपनी तुलना करते हैं।

लेकिन आज बांग्लादेश की तुलना में भी भारत की क्या स्थिति है? बांग्लादेश दुनिया के कुल गारमेंट उद्योग के 7 से 10 प्रतिशत पर काबिज है, जबकि भारत सिर्फ 2 से 4 प्रतिशत पर। भारत के गारमेंट व टेक्सटाइल उद्योग की यहां चर्चा इसलिए हो रही है कि कभी यह उद्योग मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का एक ऐसा उद्योग था जो सबसे ज्यादा जॉब देता था। आज यह उद्योग मर रहा है। बांग्लादेश के टेक्सटाइल और गारमेंट उद्योग में “डायरेक्टली” लगभग 40 से 50 लाख लोग काम करते हैं और “इनडायरेक्टली” करीब डेढ़ से दो करोड़ लोग काम करते हैं और उसमें से आधी से ज्यादा महिलाएं हैं। इधर का हाल क्या है यह इस बात से पता चल जाता है कि भारत के लगभग आधे गारमेंट एवं टेक्सटाइल मैन्युफैक्चरर्स बांग्लादेश से कपड़े बनवाते हैं। तिरुपुर में पहले 8 लाख लोग काम करते थे, अब वहां 4 लाख लोग काम करते हैं। वहां के जॉब बांग्लादेश चले गए। माना जाता है कि इंडिया के पास बांग्लादेश से बेहतर इनोवेशन नहीं है। हालांकि असली बात यह है कि बांग्लादेश में गरीबी-बेरोजगारी-कंगाली के भयंकर विस्तार एवं इसके तीव्रीकरण के कारण अत्यधिक सस्ते श्रम का एक विशाल कुंड मौजूद है। इसकी एक अहम और बड़ी भूमिका है।[2] भारत में भी श्रम अधिकारों पर हमले करके सस्ते श्रम कुंड का विस्तार किया गया है लेकिन अन्य चीजों में, खासकर चीन की मदद से बांग्लादेश को प्राप्त तकनीकी इनोवेशन के कारण भारत के पूंजीपति सस्ते श्रम को निचोड़ने मे बांग्लादेश के पूंजीपतियों से पिछड़ गये। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चीनी सप्लाई चेन का बांग्लादेश एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इस नाते वह चीन के ग्लोबल सप्लाई चेन की भी एक अहम कड़ी है, खासकर साउथ ऐशिया में।          

परंतु, आइए इस लेख की मूल विषयवस्तु, यानी भारत की अर्थव्यवस्था की तस्वीर और बेरोजगारी की विकराल समस्या पर लौटें। हमारी चर्चा के मुख्य सवाल ये हैं: हमारे देश में वर्तमान में कुल वर्क फोर्स कितना है? उनमें से कितने लोगों के पास काम है? अर्थव्यवस्था का हाल वास्तव में क्या है? इसके मद्देनजर, भविष्य में बेरोजगारी के कम या दूर होने की संभावना कुछ बची है या पूरी तरह खत्म हो चुकी है? हम पाते हैं कि इन सारे सवालों का ठोस जवाब और कोई नहीं भारत सरकार द्वारा जारी इकोनॉमिक सर्वे ही दे देता है। कहीं और कोशिश करने की जरूरत नहीं है। इकोनॉमिक सर्वे के माध्यम से मोदी सरकार ने, जाने या अनजाने, अप्रत्यक्ष रूप से ही सही लेकिन यह खूद ही स्वीकार कर लिया है कि भविष्य में बेरोजगारी के दूर होने की संभावना न के बराबर है। वहीं यह भी सच है कि बजट में वही मोदी सरकार बेरोजगारी दूर करने की कोशिशों के बारे में ही नहीं, देश की अर्थव्यवस्था के विकास के बारे में भी, एक अत्यंत ही आकर्षक गुलाबी तस्वीर पेश करती है। यानी, वह इकोनॉमिक सर्वे में जिसे स्वीकारती है उसके ठीक विपरीत दावे वह बजट में पेश करती है। यहां तक कि, जैसा सभी को ज्ञात है, देश को 2047 तक आर्थिक तरक्की के शिखर पर ले जाने का ढोल भी पीटती है। लेकिन सच्चाई क्या है? व्यापक जनता की वास्तविक उन्नति के अर्थ में ही नहीं, पूंजीवादी विकास के अर्थ में भी यह पूरी तरह एक झूठी और असत्य बात है।  

सवाल है, यह अंतर्विरोध देश को कहां ले जाएगा? हमनें फूटनोट 2 में बांग्लादेश में व्यापक छात्र व जन विद्रोह के फूट पड़ने से हुए तख्तापलट और प्रधानमंत्री शेख हसीना के मुल्क छोड़कर भाग जाने की बात संक्षेप में की है। कुछ ही दिनों पूर्व श्रीलंका में भी ऐसा ही हुआ था। तो क्या हम मान सकते हैं या कह सकते हैं कि पूरे दक्षिण ऐशिया में ही, जिसमें भारत भी शामिल है, किसी न किसी तरह के जन विद्रोह की चिंगारी सुलग रही है? क्या भारत में भी कोई छात्र आंदोलन, मजूदर आंदोलन या कोई अन्य आंदोलन अचानक उग्र रूप ले जन विद्रोह भड़का सकता है? वस्तुगत रूप से देखें, तो गैर-बराबरी, बेरोजगारी, गरीबी, कंगाली व भुखमरी की स्थिति और सामान्य लोगों के जीवन-जीविका पर जो स्थाई संकट छाया हुआ है, उससे स्थिति इतनी विस्फोटक तो हो ही गई है कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। यहां भी कुछ भी हो सकता है। भारत में सीआईए जैसी एजेंसियां भी शुरू से ही सत्ता के गलियारे में गहरे पैठ कर काम करती रही हैं और वे मौका पाते ही, खासकर तब जब कि देश की सच्ची तथा सुसंगत जनवादी ताकतें कमजोर तो हैं ही और सजग भी नहीं हैं, ऐसी किसी जन विद्रोह की स्थिति का फायदा भारत पर अपनी पकड़ को और मजबूत करने के लिए उठा ही सकती हैं। लेकिन स्थितियां विस्फोटक हैं और देश की जनता का गुस्सा कभी भी फूट पड़ सकता है। इससे इनकार करना मुश्किल है। 

दरअसल जब दबी-कुचली आम जनता विद्रोह करती है, तो वह देश व दुनिया की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में बुनियादी बदलाव के लिए विद्रोह करती है। लेकिन साम्राज्यवादी ताकतें, जो सत्ता पक्ष और विपक्ष में ही नहीं, सत्ता के गलियारे में हर जगह पैठ बनाई हुई होती हैं, ऐसे जन विद्रोहों का पीछे से अपने एजेंटों के माध्यम से नेतृत्व करने की कोशिश करती हैं। उनका लक्ष्य होता है – आंदोलन या जन विद्रोह को उसके सकारात्मक लक्ष्य से भटकाना और समाज में बुनियादी परिवर्तन लाने की जनता की कोशिशों के मंजिल पर पहुंचने के पहले ही उसकी शक्ति को दंगे भड़काने एवं जनता को आपस में ही लड़ा देने में लगा देना और इस तरह आंदोलन को छिन्न-भिन्न कर देना और उसकी भ्रुण हत्या कर देना। उदाहरण के लिए, बदलाव के लिए उठ खड़ी हुई जनता को सांप्रदायिक हिंसा में झोंक देना, जैसा कि बांग्लादेश में कर देने की कोशिश की जा रही है। इस तरह जनता की इच्छाओं व चाहतों को फिर से कुचल दिया जाता है। साम्राज्यवादियों का दूसरा लक्ष्य होता है इसका इस्तेमाल अपनी पिट्ठु सरकार को बैठाने के लिए करना और फिर उसके माध्यम से अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को देश व देश की जनता पर थोपने की कोशिश करना। जिस देश में ऐसा कोई जन विद्रोह होता है, वहां की सच्ची जनपक्षीय ताकतों को इसका पूरा ख्याल रखना चाहिए ताकि साम्राज्यवादी ताकतें इनका इस्तेमाल नहीं कर सकें और जन विद्रोह को उसके असली लक्ष्य से भटका नहीं सकें।  

II

मोदी सरकार कहती रही है कि नौकरी या जॉब देना हमारा काम नहीं है। उसकी यह फिलॉसफी है कि नौकरी देना सरकार का नहीं उद्योग का काम है। इसमें यह बात भी जोड़ लीजिए कि ये उद्योग चलाना भी सरकार का नहीं पूंजीपतियों का काम मानते हैं। इसलिए सरकार पब्लिक सेक्टर के उद्योगों को निजी पूंजीपतियों को कौड़ियों के भाव में बेच रही है। लेकिन मोदी सरकार ढपोरशंखी सरकारों में भी सबसे ज्यादा ढपोरशंखी सरकार है। लिहाजा वह दो कदम आगे बढ़ते हुए कहती है कि वह लोगों को नौकरी मांगने वाला नहीं, नौकरी देने वाला बनाना चाहती है और इसके लिए बाजाप्ता वह युवाओं व छात्रों को एंटरप्रोन्योर (उद्यमी) बनने का आह्वान करती है। सवाल है, क्या सभी लोग एंटरप्रोन्योर बन सकते हैं? अगर सभी लोग एंटरप्रोन्योर बनेंगे, तो फिर उनमें काम कौन करेगा और तब कोई एंटरप्राइज चलेगा कैसे? यह ठीक वैसे ही है कि सब लोग पकौड़े ही तलने लगेंगे तो उसे खरीदेगा या खाएगा कौन? खैर, इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि देश की इस गंभीर समस्या के प्रति मोदी सरकार गंभीर तो नहीं ही है, संवेदनशील भी नहीं है। इसलिए ही उसकी तरफ से आत्मनिर्भर बनने का नारा आया। लेकिन फिलहाल तो प्रश्न यह है कि जब नौकरी देने का काम उद्योग का है, तो फिर उद्योग से ही पूछा जाए कि वह नौकरी क्यों नहीं दे रहा है? सरकार ने इसका चुपके से जवाब देने की कोशिश इकोनॉमिक सर्वे 2024 के जरिए की है जिस पर हम आगे बात करेंगे।     

देश में वर्तमान में कितने लोगों के पास काम है, इसका भी जवाब इकोनॉमिक सर्वे 2024 देता है। उसके अनुसार, भारत में कुल वर्क फोर्स 90 करोड़ है। यानी, 90 करोड़ लोग काम करने लायक हैं और 50 करोड़ लोग वैसे हैं जो काम नहीं करते या कर नहीं सकते। वे बच्चे हैं या फिर 60-65 साल के बुर्जुग। कुछ वैसे भी होंगे जो शारीरिक रूप से पूरी तरह अक्षम होंगे। फिर वह यह भी कहता है कि 90 करोड़ में से सिर्फ 56 करोड़ लोगों के पास ही काम है या जॉब कर रहे हैं। बाकी काम नहीं करते हैं क्योंकि उनके पास जॉब नहीं है या फिर कोई अपना छोटा-मोटा धंधा करते हैं और उसी पर आश्रित होंगे। इस तरह सरकार खुद मानती है कि 34 करोड़ लोगों के पास काम नहीं है। हालांकि दूसरे सर्वे बताते हैं कि 90 में से 40 करोड़ लोगों के पास काम नहीं है और 56 के बदले 50 करोड़ (36 करोड़ पुरुष और 14 करोड़ महिलाएं) ही काम करते हैं और उनके पास जॉब है। फिर भी हम सरकारी आंकड़े के आधार पर ही आगे बात करेंगे।

इन 56 करोड़ कार्यरत लोग कहां और किन क्षेत्रों में जॉब करते हैं? पूरी तस्वीर इस तरह है –

कृषि45%25 करोड़
मैन्युफैक्चरिंग उद्योग11%6 करोड़
कंस्ट्रक्शन13%7 करोड़
सेवा क्षेत्र28%16 करोड़
अन्यान्य3%2 करोड़

साथ में, इकोनॉमिक सर्वे 2024 एक और कठोर सत्य उद्घाटित करता है। वह कहता है कि 56 करोड़ जॉबधारकों में से लगभग 11 करोड़ ही लोग हैं जिन्हें नियमित वेतन मिलता है। इनमें से कुछ सरकारी क्षेत्र में काम करते हैं और कुछ प्राइवेट क्षेत्र में। बाकी के 45 करोड़ लोगों, जो कार्यरत वर्क फोर्स के 80 प्रतिशत हैं, को नियमित वेतन नहीं मिलता है। यह एक भयावह चित्र है। यह भारत की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था का ही परिणाम है लेकिन यही जारी रहा तो जल्द ही ये भारतीय अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ले डूबेगा।

सवाल है, क्या इसमें सुधार की उम्मीद है? इकोनॉमिक सर्वे 2024 अर्थव्यवस्था का जो चित्र और उसकी जो दिशा प्रस्तुत करता है उसके अनुसार ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से तथा स्वयं इकोनॉमिक सर्वे 2024 बताता है कि उसके अनुसार इस स्थिति में सुधार अर्थव्यवस्था के निम्नलिखित चार इंजनों पर निर्भर करता है –  

  1. सरकार द्वारा पूंजीगत खर्च (गवर्नमेंट कैपिटल एक्सपेंडिचर)
  2. निजी पूंजीगत खर्च (प्राइवेट कैपिटल एक्सपेंडिचर)
  3. निजी खपत (प्राइवेट कंसम्पशन)
  4. निर्यात

हर किस्म के निर्माण पर जो सरकार खर्च करती है वह गवर्नमेंट कैपिटल एक्सपेंडिचर कहलाता है और जो निजी पूंजीपति खर्च करते हैं वह प्राइवेट कैपिटल एक्सपेंडिचर कहलाता है। पूंजीवादी व्यवस्था में सरकार आम तौर पर आधारभूत क्षेत्र में, जैसे कि सड़कों, हाईवेज, एक्सप्रेस हाईवे, टनल, सुरंगों, पुलों, हॉस्पीटल्स, रेलवे, बंदरगाह, एयरपोर्ट, भारी एवं आधारभूत उद्योग जिसमें मशीनों का निर्माण होता है, आदि के निर्माण में कैपिटल एक्सपेंडिचर करती है। लेकिन आज कल सरकार ने मूलत: सड़कों, हाईवेज, एक्सप्रेस हाईवे, टनल, सुरंगों, पुलों, आदि तक अपने को सीमित कर लिया है। बाकी को निजी पूंजीपतियों के हाथों बेच रही है। यहां तक कि रेलवे, डिफेंस उत्पादन, एयरपोर्ट, बंदरगाह और भारी उद्योगों का भी निजीकरण करने में तेजी से लगी है। पूंजीपति मूलत: फैक्टरियां, कल-कारखाने और उद्योग खड़े करने में कैपिटल एक्सपेंडिचर करते हैं। यहां भी परिवर्तन है। अब वे स्टॉक में और वित्तीय परिसंपत्तियों में पूंजी लगा रहे हैं।

कोई भी देख सकता है कि गवर्नमेंट का कैपिटल एक्सपेंडिचर असल में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से प्राइवेट कैपिटल एक्सपेंडिचर को ही फायदा पहुंचाता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि सरकार के कैपिटल एक्सपेंडिचर का वित्तीय भार जनता (सभी तरह के करों के द्वारा सरकारी खजाने को भरकर) उठाती है और इसका फायदा पूंजीपति वर्ग उठाता है। अगर सरकार के खर्च से नियमित रोजगार नहीं मिलता है और बाकी सुविधाओं व सामाजिक सुरक्षा पर होने वाले खर्च में भी सरकार कटौती करती जाती है, तो इसका मतलब यह है कि गवर्नमेंट कैपिटल खर्च का पूरा का पूरा फायदा निजी पूंजीपतियों के लिए होता है। आम जनता को इससे नहीं के बराबर फायदा होता है। वह भी तब जब उसकी जेब में कुछ पैसा बचता हो। पूंजीवाद में निजी पूंजीपति वर्ग अक्सर सरकार से यह मांग करता है कि सरकार आधारभूत संरचना पर खर्च करे ताकि वो मालों के उत्पादन पर खर्च कर सके। अगर दोनों तरह के एक्सपेंडिचर में वृद्धि होती रहती है, तो यह माना जाता है कि इससे लोगों के हाथ और दिमाग को काम मिलता रहेगा और बेरोजगारी की विकराल समस्या नहीं पैदा होती है। उत्पादन का एक छोटा हिस्सा ही सही लेकिन जनता को भी मिलता रहता है।

उद्योग खड़े होते हैं तो निजी उपभोग की चीजें बनती हैं और वो बाजार में बिक्री के लिए आती हैं। इसकी खपत तभी होगी जब इसके लिए जनता के पास जेब में पैसा हो। पूंजीपति वर्ग भी निजी उपभोग करता है और उसके पास भी इसके लिए पैसा भी अथाह मात्रा में होता है। लेकिन वह जनसंख्या का एक अत्यंत ही छोटा हिस्सा है। इसलिए उपभोग सामग्रियों के उत्पादन के अनुपात में खपत बढ़े इसके लिए जनसंख्या की विशाल आबादी के निजी उपभोग में वृद्धि होना जरूरी है।

लेकिन यहां यह समझना जरूरी है कि उद्योगों के उत्पादन के एक बड़े हिस्से का उपभोग स्वयं पूंजीपति वर्ग पूंजीगत खपत के रूप में करता है, अन्यथा पूंजी का संचय रुक जाएगा। निजी उपभोग पर हुए खपत मात्र से पूंजी संचय नहीं बढ़ सकता है। यानी, मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा नये उद्योगों व मशीनों के निर्माण पर खर्च होना होता है। इससे उत्पादन के साथ-साथ उत्पादकता भी बढ़ती है। और साथ में नयी तरह की नौकरियां भी बढ़ती है। जॉब के बड़े अवसर पैदा होते हैं। अगर यह नहीं हो, जो कि नहीं हो रहा है, और साथ में निजी उपभोग में भी वृद्धि नहीं हो, उल्टे इसमें भी गिरावट हो, जैसा कि हो रहा है, तो फिर मौजूदा उत्पादन को जारी रखना भी संभव नहीं रह जाता है। नये उद्योग तो नहीं ही लगेंगे, जो लगे हुए हैं वे भी सुस्त पड़ जाते हैं या बंद हो जाते हैं। इस तरह पूंजी के विनष्टीकरण की प्रक्रिया शुरू होती है जिससे पूंजी के बड़े पैमाने के नाश के साथ-साथ बेरोजगारी की विकराल समस्या खड़ी हो जाती है।

कैपिटल एक्सपेंडिचर के संबंध में और भारत की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उपरोक्त चार इंजिनों की हालत के बारे में इकोनॉमिक सर्वे क्या कहता है? इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार, इनमें से तीन इंजिन ध्वस्त हो चुके हैं। बस एक इंजिन (गवर्नमेंट कैपिटल एक्सपेंडिचर वाला इंजिन) काम कर रहा है और अच्छा-खासा काम कर रहा है। केंद्र सरकार लगभग 10 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से इस इंजिन को चलाये रखने पर इस उम्मीद में लगातार खर्च किये जा रही है कि बाकी के इंजिन भी काम करना शुरू करेंगे। लेकिन अब तक अन्य इंजिन सुस्त ही पड़े हैं। खासकर निजी पूंजीगत खर्च का इंजिन बुरी तरह से सुस्त पड़ा हुआ है।

पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र निजी कंसम्पशन (निजी उपभोग) पर बहुत जोर देता है। वह मानता है कि इसी से अर्थव्यवस्था तेज गति से आगे बढ़ेगी। हम पाते हैं कि वर्तमान में प्राइवेट उपभोग जीएसटी का महज 58 प्रतिशत है और पिछले कई सालों से इसके आसपास बना हुआ है, आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहा है। आखिर बढ़े भी तो कैसे? बेरोजगारी-महंगाई चरम पर है। लगातार करों में वृद्धि करके सरकार लोगों की जेबों में से पैसा निकाल ले रही है। एक बड़ी आबादी (कुल आबादी की 45 फीसद) कृषि में लगी है जो बहुत ही कम आमदनी पर जिंदा है और इसलिए उपभोग पर बहुत ज्यादा खर्च नहीं करती है। यह क्षेत्र वैसे भी जीडीपी में महज 15 से 16 प्रतिशत का योगदान देता है। यह बहुत दशकों से संकट में है और इस पर निर्भर आबादी की आय भी संकट में है। इसलिए यहां से कोई उम्मीद नहीं है।

जहां तक मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार प्राप्त लोगों की बात है, तो इसका भी जीडीपी में योगदान महज 15 प्रतिशत है। जॉब में इसका योगदान भी काफी कम (11 प्रतिशत) है। ज्यादातर जॉब कम वेतन वाली है। जीडीपी के बाकी बचे 70 प्रतिशत में सर्विसेज यानी सेवा क्षेत्र का हिस्सा है, लेकिन वह रोजगार में महज 28 प्रतिशत का योगदान देता है। इसलिए कृषि, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज तीनों को मिलाकर भी देखें, तो भविष्य में भी निजी खपत में वृद्धि होने की गुंजाइश कम है। निर्माण क्षेत्र में लगे मजूदरों के पास रेगुलर काम नहीं है, तो इस क्षेत्र में लगे लोगों की तरफ से भी निजी खपत में वृद्धि की गुंजाइश नहीं है।

भारत के पूरे निजी क्षेत्र में जो नियमित वेज वर्कर्स और कर्मचारी हैं, उनमें से 80 प्रतिशत वैसे हैं जिनका वेतन काफी कम है। इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार, उनका मासिक वेतन 20000 के आसपास है। इसके अलावे इनकम टैक्स के आंकड़ों से निष्कर्ष निकालने वाले बताते हैं कि भारत के अंदर लगभग 115 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनकी मंथली आय 20000 या इससे कम है। वह 15 हजार भी हो सकती है और 8 हजार, 5 हजार या 2 हजार भी हो सकती है। यह भी याद रखें कि यह परिवार की आय है अकेले एक व्यक्ति की नहीं है। हम समझ सकते हैं कि कोई गंभीर बीमारी के इलाज के लिए भी ऐसे लोगों के पास पैसा नहीं होता है, क्योंकि ऐसे लोगों के पास अक्सर जमा पूंजी भी नहीं रहती है। समझ में आता है कि करोड़ों लोगों के लिए स्थिति कितनी भयावह हो चुकी है। मान लीजिए कि कोई बड़ा खर्च आ जाता है, तो एकमात्र कर्जा लेना ही आखिरी सहारा बच जाता है। ऐसे में लोग खर्च करने के प्रति कितने उत्साहित होंगे, समझा जा सकता है। रिजर्व बैंक ने हाल ही में एक कंज्यूमर कंफिडेंस के आंकड़े जारी किये हैं जो बताते हैं कि कंज्यूमर कंफिडेंस पहले की तुलना में गिरता जा रहा है। इसके कुछ ही दिन पहले की बात यह है कि आरबीआई ने इस बात की चिंता जताई है कि लोग पिछले तीन सालों से गोल्ड गिरवी रखकर लोन ले रहे हैं। यह भी दिखाता है कि लोगों के पास उचित खर्च के लिए पैसे नहीं हैं। इसलिए यहां से भी निजी उपभोग में बहुत बड़ा योगदान होने वाला नहीं है।

जहां तक एक्सपोर्ट्स के जरिए उत्पादित मालों की खपत को बढ़ाने की बात है, तो इसमें वृद्धि लगभग 10 सालों से ठहराव की शिकार है। पिछले एक दशक में कुल मिलाकर इसमें 30 प्रतिशत की ग्रोथ हुई है। यानी, प्रति वर्ष औसत वृद्धि दर 3 प्रतिशत है। दूसरे शब्दों में, एक दशक में कुल निर्यात का मूल्य सवा तीन सौ बिलियन डॉलर से बढ़कर सवा चार सौ बिलियन डॉलर तक ही पहुंच पाया है। इसका कारण भी स्पष्ट है। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था संकट में है, अधिकांश दूसरे देशों में बेरोजगारी की दर ऊंची बनी हुई है, लगभग हर देश में लोगों की आय गिरी है और इसलिए उनका उपभोग भी कम हुआ है। इसलिए एक्सपोर्ट भी कम रहा है या बहुत ही सुस्त पड़ा है। इसमें प्रतिस्पर्धा भी बहुत अधिक है। भारत में ही नहीं विकसित देशों में भी यही हाल है। ऑटोमेशन से मुनाफा दर नीचे की ओर प्रवृत्त है और इसके कारण पूंजी निवेश पर काफी नकारात्मक असर पड़ा है, तो दूसरी तरफ बरोजगारी बढ़ने से निजी उपभोग पर भी बहुत बुरा असर पड़ा है। चारों ओर उद्योगों का संकुचन हो रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आगमण के बाद पुराने तरह की सभी नौकरियां खतरे में है। इससे बड़े पैमाने पर निजी उपभोग पर असर पड़ा है और पड़ने वाला है।   

तो हम देख सकते हैं कि इकोनॉमी का एक ही इंजिन यानी गवर्नमेंट कैपिटल एक्सपेंडिचर ही एकमात्र ऐसा इंजिन है जो काम कर रहा है। पिछले पांच सालों से प्रति वर्ष 10 लाख करोड़ की दर से जनता की गाढ़ी कमाई इसमें इस उम्मीद से झोंकी जा रही है कि निजी पूंजीपति उद्योग में निवेश करेंगे, कैपिटल एक्सपेंडिचर करेंगे, उद्योग की संख्या बढ़ाएंगे, उत्पादन बढ़ाएंगे, लोगों को जॉब देंगे, आदि आदि। लेकिन निजी पूंजीपति कैपिटल एक्सपेंडिचर नहीं कर रहे हैं। क्यों? इसलिए कि न तो निजी उपभोग बढ़ रहा है और न ही मुनाफा की दर में इजाफा हो रहा है जिससे निजी पूंजीगत खपत बढ़ सके। पूंजी निवेश की मुख्य प्रेरणा मुनाफा दर में वृद्धि है। हम पाते हैं कि यह लगातार पूरी दुनिया में गिर रही है। इस तरह किसी भी तरह की डिमांड नहीं बढ़ रही है। तो क्या निकट भविष्य में निजी उपभोग और निजी पूंजीगत खपत की डिमांड के बढ़ने की कोई उम्मीद है? विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में लगभग स्थाई रूप से व्याप्त संकट को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। वर्तमान आर्थिक संकट की खास बात यह है कि यह लंबे दिनों से थोड़े-बहुत रिकवरी के साथ ठहराव और अवसाद की शिकार बनी हुई है जिससे पूंजी निवेश की प्रेरणा प्रभावित हुई है। 

इस परिप्रेक्ष्य में जब जॉब्स की बात करेंगे तो हम सबको मानना पड़ेगा कि जॉब की स्थिति बहुत ही नाजुक है। अगर देश और दुनिया में दोनों तरह की डिमांड (निजी उपभोग और पूंजीगत उपभोग की डिमांड) ठहराव या गिरावट की शिकार है तो जाहिर है नौकरियां नहीं मिलेंगी, क्योंकि पैदा ही नहीं हो रही हैं। जो स्थिति है उसमें न तो उपभोगता सामग्रियों का उत्पादन और न ही मशीनों के निर्माण में लगे भारी उद्योगों का उत्पादन बढ़ने वाला है। इसका असर सारे दूसरे सेक्टर पर भी पड़ना लाजिमी है, क्योंकि नया मूल्य इसी क्षेत्र से पैदा होता है। अगर यह नहीं हो रहा है तो किसी भी सेक्टर का प्रसार नहीं होगा और न ही नौकरियां पैदा होंगी।

लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि अगर सरकार अपने स्तर पर इतनी बड़े पैमाने पर आधारभूत संरचना को खड़ा करने एवं उसके निर्माण पर पूंजीगत खर्च कर रही है, तो उसमें भी नौकरियां क्यों नहीं मिल रही हैं? नौकरियां मिल रही हैं, लेकिन नियमित नौकरी एक भी नहीं पैदा हो रही है। यह सरकार का रवैया है जो दिखाता है कि निजी उपभोग बढ़ाने के बारे में वह चिंतित ही नहीं है। वह दरअसल पूंजीपति वर्ग के मुनाफे की दर बढ़ाने में लगी है ताकि वह निवेश करे। लेकिन मुनाफा बढ़ने के बावजूद निजी पूंजीपति उद्योगों में निवेश नहीं कर रहे है, क्योंकि जो अकूत मुनाफा उसे मुहैया सरकार करा रही है उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा पूंजीपति वर्ग वित्तीय सेक्टर में लगा रहा है। दोनों क्षेत्रों के निवेश दर में बहुत भारी अंतर है। उद्योगों के विकास में निवेश दर 30 से 35 प्रतिशत है तो वित्तीय क्षेत्र में, खासकर रियल एस्टेट सेक्टर में 105 प्रतिशत है। रियल एस्टेट में इसलिए कि वहां नियमित नौकरी नहीं देनी पड़ती है, या कहें नौकरी ही नहीं देनी पड़ती है। वहां ठेकेदारी प्रथा पर मजदूर और इंजीनियर काम करते हैं।      

इकोनॉमिक सर्वे कहता है कि सरकार जो कैपिटल एक्सपेंडिचर कर रही है उसमें कहीं भी कोई नियमित जॉब पैदा नहीं हो रहा है, एक भी नियमित जॉब पैदा नहीं हो रहा है। मजदूर ही नहीं, हर कैटेगरी के कामगार, यहां तक कि इंजिनियर भी, ठेके पर आते हैं। वे काम करते हैं और चले जाते हैं। काम एक जगह खत्म होता है, फिर दूसरी जगह पर शुरु होता है, लेकिन किसी को नियमित वेतन वाली नौकरी नहीं मिलती है। किसी के लिए भी नियमित जॉब नहीं पैदा हो रहा है। रेलवे लाइन बनाने से लेकर एयरपोट और बंदरगाह तथा हाइवेज, और न जाने क्या-क्या बन रहा है, लेकिन किसी को कोई नियमित काम नहीं है। यानी, साफ है कि सरकार भी नियमित जॉब्स देने को तैयार नहीं है। व्यवस्था की यही नीति है कि परमानेंट या नियमित जॉब नहीं देना है। इसलिए अगर निजी पूंजीगत खर्च जो भी थोड़ा-बहुत हो रहा है, तो उससे भी नियमित जॉब पैदा नहीं हो रहा है, क्योंकि नियमित जॉब देना ही नहीं है। जब सरकार ही नहीं दे रही है तो पूंजीपति क्यों देंगे। श्रम कानूनों को तो सरकार ने ही पूरी तरह से बदल दिया गया है ताकि ठेका प्रथा को पूरी तरह से लागू किया जा सके।

फिर भी, पूजीपति निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं यह सवाल है। ऑटोमेशन के कारण उत्पादित मालों में संपूर्णता में जिंदा मानव श्रम कम लग रहा है। इससे एक दूसरी ही स्थिति पैदा हो रही है या हो चुकी है। वह यह कि इससे मुनाफे की दर में गिरावट के साथ-साथ कुल मुनाफे में भी कमी आने लगी है। इसका असर यह हुआ है कि पूंजीपति वर्ग पूंजी निवेश ही नहीं करना चाहता है। यह प्रवृत्ति पूरी दुनिया में देखी जा रही है। भारत में भी ठीक यही प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। कुल मिलाकर, बेरोजगारी के घटने की नहीं, अपितु इसके बढ़ने की ही संभावना दिखती है। बेरोजगारी की समस्या के दूर होने की संभावना सुदूर भविष्य में भी नहीं दिखती है, जब तक कि कोई विनाशकारी घटना, जैसे कि महायुद्ध या कोई भीषण प्राकृतिक विपदा, इस स्थिति में कोई बड़ा फेर-बदल न कर दे।

फिर भी सरकार जो पूंजीगत खर्च कर रही है, उससे चुनावी राजनीति के मैदान में गाल बजाने और जनता को बरगलाने का मौका मोदी सरकार को मिल जा रहा है। वह कहती है, हम विकास के लिए 10 लाख करोड़ हर साल खर्च कर रहे हैं। इससे सरकार को वाहवाही जरूर मिलती है लेकिन लोगों को नियमित जॉब नहीं मिलती है जिससे उसका जीवन ढंग से चल पाये। सरकार और निजी पूंजीपति, दोनों जो जॉब्स दे रहे हैं, वे सिर्फ टेंपररी जॉब हैं। लोगों को जो नौकरी हाथ लग रही है, वो सब की सब टेंपररी जॉब्स हैं, जिससे गुजारा नहीं चलने वाला है। इसका कुल असर यह होगा कि न तो निजी उपभोग के क्षेत्र का और न ही पूंजीगत उपभोग के क्षेत्र का विकास होगा। समग्रता में किसी भी क्षेत्र का विकास नहीं होगा, जबकि पूंजी की कहीं कोई कमी नहीं है। यह एक दुष्चक्र की तरह है जिसमें छात्र, युवा और मजदूर सभी पिस रहे हैं। घुमा फिराकर बात वहीं पहुंचती है कि नौकरी नहीं मिलेगी। उल्टे, जो हैं वे भी कालक्रम में कम ही होने वाली हैं। हम इसे होते देख भी रहे हैं।  

III

जब टेंपररी जॉब्स की ही बात है, तो भी पूंजीपति वर्ग क्यों नहीं दे रहा है, इस पर भी विचार करना चाहिए। निजी सेक्टर टेंपररी जॉब्स भी क्यों नहीं पैदा कर रहा है? दूसरा, सरकार प्राइवेट कैपिटल एक्सपेंडिचर के लिए पूंजीपतियों पर दबाव क्यों नहीं बना रही है? क्या पूंजीपति वर्ग सरकार से ज्यादा पावरफूल है? हां, यही बात है। सरकार इन्हीं पूंजीपतियों की है। सरकार इन्हीं की प्रबंधन कमिटी है। इनके ही हितों की देखरेख करने के लिए सरकार होती है। असली बात यही है। बाकी जिसे हम सरकार की ताकत या शक्ति कहते हैं, वह आवरण है। उसका उपयोग जनता पर होता है।

 पूंजीवादी उत्पादन पद्धति पर खड़े समाज में सरकार पूंजी के तर्क से ही काम करेगी। सरकार कभी-कभी पूंजीपतियों पर भी डंडा चलाती है, लेकिन यह भी उनके हित के लिए ही किया जाता है। सरकार ऐसा तब करती है जब पूंजीपति मनमानी करके अपने लिए ही यानी पूंजी संचय के लिए ही एक ऐसी स्थिति पैदा कर लेते हैं जिसे नहीं रोका जाएगा तो पूंजीवादी व्यवस्था ही चरमारा जाएगी। इसे पूंजी पर सरकारी नियंत्रण कहा जाता है। यह नियंत्रण पूंजी के हित में ही लागू किया जाता है। जब जन क्रांति या जन विद्रोह का भय समाज में मौजूद न हो, तो सरकारें इन पर नियंत्रण करने की जरूरत भी नहीं समझती है। अभी की स्थिति को लें, तो हम देख सकते हैं कि पूंजी की लूट चरम पर पहुंच गयी है। इस लूट के साम्राज्य को बनाये रखने के लिए फासीवादी तानाशाही लादी जा रही है। इससे विद्रोह भड़क सकता है। लेकिन फिलहाल वह इससे बेफिक्र है।

एक उदाहरण लेते हैं। निजी पूंजीगत खर्च वाले इंजिन को फंक्शनल बनाने के उद्देश्य से अभी हाल में सरकार के शीर्षस्थ अधिकारियों के साथ इंडस्ट्री के बड़े लीडरों के बीच एक मीटिंग हुई। सरकार ने इंडस्ट्री के लीडरों से फैक्टरी लगाने के लिए कहा तो ऐसी रिपोर्ट है कि इंडस्ट्री के लोगों ने पलट कर कहा कि पहले डिमांड बढ़ा के दिखाइए। ऊपर हम देख चुके हैं कि डिमांड क्यों नहीं है और क्यों इसके पैदा होने की संभावना भी नहीं है।

हम जानते हैं, महज निजी उपभोग को बढ़ाकर नये उद्योगों का जाल नहीं बिछाया जा सकता है और पूंजी संचय की प्रक्रिया सतत रूप से आगे नहीं बढ़ सकती है। लेकिन अगर थोड़े समय के लिए हम यह बात मान भी लें, तो सरकार निजी उपभोग बढ़ाने के लिए भी कुछ नहीं कर रही है। उल्टे, इसे बढ़ाने के बजाय घटाने का उपक्रम कर रही है। सरकार ने कॉर्पोरेट टैक्स को 35 से कम कर के 22 प्रतिशत तक नीचे कर दिया है जबकि गैर-कॉर्पोरेट टैक्स इनकम टैक्स 35 प्रतिशत तक है। दूसरी तरफ, जीएसटी और वैट है, जिसके माध्यम से गरीब से गरीब लोगों की जेबों से पैसा निकाला जा रहा है। ऐसा लगता है कि जैसे बड़े पूंजीपतियों के पक्ष से सरकार मजदूरों, किसानों से लेकर दरमियानी पूंजीपति वर्ग के हितों पर लगातार कुठाराघात करने का निर्णय ले चुकी है। ऐसा परिदृश्य दिखाई देता है मानो सरकार बड़ी पूंजी की ओर से जनता पर युद्ध थोप रही है।[3]

यहां यह बात साफ हो जानी चाहिए कि प्राइवेट सेक्टर के पूंजीपति इसलिए पूंजी निवेश नहीं कर रहे हैं कि उनके पास पैसा नहीं है या कम है। खासकर बड़े पूंजीपतियों के पास पैसा बहुत है। पैसों की बिल्कुल ही कमी नहीं है। उसने बहुत पैसा कमाया है। मोदी सरकार ने उसकी पूरी मदद भी की है। खुलकर मदद की है। जब कोरोना महामारी में लोग दाने-दाने को मोहताज थे, तब भी उन्होंने खूब कमाया। लेकिन फिर भी वे इंडस्ट्री खड़ा नहीं कर रहे हैं। वह यही सोचते हैं कि वह नये मशीन या इंडस्ट्री क्यों लगाएं अगर निजी उपभोग में होने वाली वृद्धि से निकलने वाली डिमांड और साथे-साथ मुनाफे की दर भी गिर रही है। यही पूंजीवादी उत्पादन पद्धति है।

ऐसे में, इंटर्नशीप प्रोग्राम से जनता, खासकर युवाओं को क्या हासिल होगा? कोई बड़ा प्राइवेट पूंजीपति या बड़ी कंपनी, जिसका उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा बेशी मूल्य हड़पना है, न कि लोगों के उपभोग के लिए उपयोग मूल्य पैदा करना, वह क्यों साल में 6000 रुपये देकर युवाओं को इंटर्नशिप देने में रूचि लेगा? तो मोदी का युवाओं को इंटर्नशीप प्रदान करने वाली बात या वायदा का मर्म क्या है? हम जानते हैं कि मोदी सरकार के बजट में इंटर्नशीप की जिम्मेवारी 500 बड़ी कंपनियों को दी गई है। अगर एक क्षण के लिए मान लें कि ये कंपनियां मोदी के कहने पर, जिसने उन्हें करोड़ों नहीं हजारों करोड़ कमाने का अवसर दिया है, इतना छोटा आर्थिक भार सहन कर लेंगी, तब भी इसका जवाब क्या है कि एक साल के बाद जो युवा इंटर्नशीप पूरा करके निकलेंगे उन्हें नौकरी कौन देगा? उनकी भर्ती कहां होगी?

वास्तविकता तो यही है कि जो पहले से नौकरी में हैं, उन पर छंटनी का खतरा मंडरा रहा है। सभी कंपनियां कर्मचारियों व मजदूरों को निकाल रही हैं। इसमें मानो कंपटीशन चल रहा है। तो क्या यह संभव नहीं है कि कंपनियां मोदी की बात इसलिए मान लेंगी क्योंकि ये कंपनियां पुराने कामगारों, जिनकी सैलरी ज्यादा है, को हटाकर इन्हें ही काफी कम सैलेरी पर रखने का विचार कर रही हैं या करेंगी? बेरोजगारी के मारे ये इंटर्नशीप की डिग्री लिये युवा कुछ कर भी नहीं पाएंगे। तो अंत में हमें यह पता चलता है कि मोदी सरकार का इंटर्नशीप प्रोग्राम युवाओं को नहीं बड़े पूंजीपतियों और बड़ी कंपनियों को दिया गया तोहफा है। कोई भी सही दिमाग का आदमी इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि मोदी ने देश के बेरोजगार युवाओं को एक बार फिर से धोखा देने का ही काम किया है। 

इतने के बाद सरकार कहती है हम मुद्रा लोन देकर लोगों को एंटरप्रोन्योर बना रहे हैं। तो मोदी सरकार इस बजट के साथ-साथ इकोनॉमिक सर्वे में भी मुद्रा लोन की मुद्रा में दिखी। मुद्रा लोन 5 लाख रुपये तक दिया जा सकता है, लेकिन यह कहने की बात है। ठोस बात की जाये तो इस पर बात करनी होगी कि दिये गये मुद्रा लोन कितने रुपये के हैं। हमें पता चलता है कि जो मुद्रा लोन दिये गये हैं, उनमें से अधिकांश 50000 रुपये वाले शिशु मुद्रा लोन हैं। ढाई लाख या 5 लाख के मुद्रा लोन कुछ चुनिंदा लोगों को ही मिले हैं। ऐसे लोग इक्के-दुक्के हैं।

सरकार का दावा है कि 20 करोड़ लोगों को मुद्रा लोन दिया गया है और इसलिए उनका दावा है कि उन्होंने 20 करोड़ लोगों को अपने पैरों पर खड़ा किया है। 50000 वाले शिशु लोन से एक अच्छा बड़ा ठेला भी खरीदना मुश्किल है। तो क्या मोदी जी इसे ही अपने पैरों पर खड़ा होने वाला या दूसरों को नौकरी देने वाला एंटरप्रोन्योर कहते हैं? सुनने में शर्म आती है। लेकिन सरकार को ऐसी बकवास बोलने में शर्म नहीं आती है। फिर भी इकोनॉमिक सर्वे कम से कम यह कहता है कि मुद्रा लोन से जॉब नहीं पैदा होते, कोई एंटरप्रोन्योरशिप पैदा नहीं हो सकती या कोई सफल बिजनेसमेन नहीं पैदा हो सकता है। इकोनॉमिक सर्वे तो यह भी स्वीकारता है कि ‘नियमित जॉब का कोई विकल्प या सब्स्टीट्यूट नहीं है और साथ में यह भी कहता है कि सिर्फ बड़ी कंपनियां या बड़ी फैक्ट्रियां ही नियमित जॉब दे सकती हैं। सर्वे ने यह भी साफ-साफ कह दिया है कि मुद्रा लोन और स्मॉल जॉब्स एक कंप्लीट और नियमित जॉब का विकल्प नहीं हो सकते हैं।

लोग कहेंगे कि जब सरकार ने यह मान लिया तो वह नियमित जॉब के लिए परिस्थितियां क्यों नहीं बनाती है? कारण वही है, पूरी विश्व-अर्थव्यवस्था संकट में है और बड़े पूंजीपतियों को सुपर मुनाफा या अधिकतम संभव मुनाफा चाहिए। अगर सरकार नियमित जॉब देगी या उसकी बात करेगी तो वह बड़े पूंजीपतियों की सेवा कैसे करेगी। इसलिए ही सरकार खुद जहां खर्च करती है वहां भी वह नियमित जॉब नहीं देती है, क्योंकि अगर वह ऐसा करेगी तो इससे अर्थव्यवस्था की मौजूदा दिशा पर असर पड़ेगा। फिर पूरे तौर पर नियमित एवं परमानेंट जॉब की मांग होगी और यह पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध जाएगा। इसलिए सरकार ऐसा नहीं करती है और न ही ऐसा कर सकती है।

इसके अतिरिक्त इकोनॉमिक सर्वे कहता है कि बड़ी फैक्ट्रियों और कंपनियों तथा एमएसएमई को मिला कर भारत में जॉब की वार्षिक ग्रोथ रेट लगभग 3.6 प्रतिशत है। अगर हमारा जीडीपी ग्रोथ रेट 8 प्रतिशत से अधिक है, जैसा कि सरकार दावा करती है[4], और जॉब ग्रोथ रेट 3.6 प्रतिशत ही है, तो प्रश्न उठता है कि जीडीपी ग्रोथ से जो मुनाफा हो रहा है, वह किसकी पॉकेट में जा रहा है; दूसरा, मुनाफा जिस भी पॉकेट में जा रहा है, लेकिन वह उसकी पॉकेट से फिर किधर जा रहा है, कहां लग रहा है?

पहले का जवाब कठिन नहीं है। कोरोना काल के दौरान जब लोग दो जून की रोटी के लिए जूझ रहे थे, तब अदानी और अंबानी जैसे धन्नासेठों की आय 70 करोड़ से लेकर 100 करोड़ प्रति घंटा बढ़ रही थी। इकोनॉमिक सर्वे का कहना है कि भारत में 33000 बड़ी कंपनियां हैं जिन्हें कोविड के दौरान और बाद में पहले की अपेक्षा चार गुणा मुनाफा हुआ। पहले इनका मुनाफा 5 लाख करोड़ वार्षिक था जो बढ़कर 20 लाख करोड़ वार्षिक हो गया। इसी के साथ पूरे प्राइवेट सेक्टर का भी मुनाफा नॉमिनल जीडीपी का तीन गुणा हो गया। फिर वही पुरानी बात, इन्होंने जॉब कितने दिये? कुछ भी नहीं दिये।

कॉर्पोरेट टैक्स में की गई कमी के अलावे इन्हें मिलने वाली अन्य छूटों की बात करें तो पता चलता है कि हर महीने 33000 बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों को मोटा-मोटी डेढ़ लाख करोड़ का कंसेशन दिया गया। इकोनॉमिक सर्वे कहता है कि कुल मिलाकर 8.8 लाख करोड़ का प्रॉफिट कंसेशन के रूप में पिछले पांच साल में प्राइवेट बड़ी कंपनियों को दे दिया गया। लेकिन उन्होंने कोई जॉब पैदा नहीं किया। कोई रिसर्च फैसिलिटी नहीं बढ़ाया। एक मात्र उद्देश्य प्राइवेट मुनाफा कमाना था और वही किया। तो जीडीपी ग्रोथ से पैदा मुनाफा कहां जा रहा है ये पता चलता है। बिना आंकड़ों के भी गैर-बराबरी की बढ़ती खाई देखने से इसका अंदाजा हो जाता है।

दूसरे प्रश्न का जवाब यह है कि ये जो बेशुमार मुनाफा हो रहा है वह ज्यादा से ज्यादा वित्तीय परिसंपत्तियों में लग रहा है। इकोनॉमिक सर्वे का ही यह आंकड़ा है कि पिछले कुछ सालों में प्राइवेट सेक्टर के द्वारा कुल मिलाकर उद्योग में इन्वेस्टमेंट दर 30 से 35 प्रतिशत तक सीमित रहा है, जबकि रियल एस्टेट में उनका निवेश 105 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। यानी, मुनाफा कमाने वाले प्राइवेट सेक्टर के बड़े पूंजीपति उद्योग खड़ा करने के बदले मकान और बिल्डिंग्स बनाने में पैसा लगा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें बेशुमार मुनाफा तो होता ही है, नियमित नौकरी नहीं देनी पड़ती है, जैसा कि पहले भी कहा गया है। इस तरह भारत में निवेश की मुख्य दिशा वही होती जा रही है जो विकसित देशों में पहले से ही जारी है। इसका नतीजा है कि मजदूर वर्ग के श्रम की लूट के साथ-साथ दरमियानी पूंजीवादी वर्गों की कीमत पर बड़ी पूंजी की लूट जारी है तथा जारी रहेगी और इसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी की विकराल समस्या और विकराल बनती जाएगी। 

इस समय सरकार के अंतर्गत लाखों नहीं करोड़ों में वन टाइम वैकेंसी खाली पड़ी हैं। रेलवे, डिफेंस, सेंट्रल गवर्नमेंट, अस्पताल, टीचर्स, प्रोफेसर्स, पुलिस, यानी सब मिलाकर कहा जाता है कि एक करोड़ से ज्यादा वैकेंसी खाली है। हालांकि सिर्फ इनके लिए लड़ाई को सीमित करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है, लेकिन इस पर भी बात करने की जरूरत है।

मुख्य बात यह समझना है कि पूंजीवादी व्यवस्था, जो मुनाफे पर आधारित उत्पादन पद्धति है, की इस समय की मुख्य प्रवृत्ति यह है कि मैन पावर नहीं चाहिए और इसलिए जो बेरोजगार हैं और जिनके पास अर्जित संपदा नहीं है जिससे वे व्यापार में आगे बढ़ सकें, वे चाहे तो मर जाएं, लेकिन सरकार इसकी जिम्मेवारी नहीं लेगी।

बैंकों का उदाहरण लें। हम पाते हैं कि बैंकों का मुनाफा बढ़ा, लेकिन फिर भी नौकरियां घट गयीं। कुछ दिन पहले आरबीआई का यह आंकड़ा आया कि बैंकों में पहले 25 प्रतिशत ऑफिसर होते थे और 75 प्रतिशत वर्कर्स या वर्किंग स्टॉफ, जैसे कि क्लेरिकल स्टाफ एवं असिस्टेंट, आदि। अब, आरबीआई का कहना है, स्थिति उलट गई है। 75 प्रतिशत ऑफिसर हो गए हैं और 25 प्रतिशत वर्किंग स्टाफ बचे हैं। आज से सात-आठ साल पहले बैंक के किसी एक ब्रांच में 10 आदमी काम करते थे, अब चार आदमी काम करते हैं। यह स्थिति तब है जब हम पाते हैं कि बैंकों का मुनाफा बढ़ा है। इस तरह प्रॉफिट के बावजूद कोई जॉब देने को तैयार नहीं है। प्राइवेट कंपनियां सरकारी पार्टी को डोनेशन दे रही हैं। बस उसका काम खत्म हो जाता है।

इकोनॉमिक सर्वे में अंत में सरकार पूरी तरह कन्फ्यूज्ड हो जाती है और बकवास करने लगती है। जब उसे यह पता चल जाता है कि वह नौकरी नहीं दे सकती है जबकि यह देश का मुख्य मुद्दा बन चुका है, तो सरकार जनता को धोखा देने के लिए एक और बकवास से भरा शिगुफा छोड़ती है। उसने कह दिया कि कृषि अर्थव्यवस्था का ग्रोथ इंजन बनेगी। कमाल की बात है। जो क्षेत्र जीडीपी में मात्र 15 प्रतिशत योगदान के बल पर 45 प्रतिशत आबादी को रोजगार दे रहा है, वह अर्थव्यवस्था के विकास का इंजिन बनेगा! यह समाधान के नाम पर सरासर झांसा देना है।

इकोनॉमी में एग्रीकल्चर का हिस्सा सिर्फ 15 प्रतिशत है। फिर भी वह 45 प्रतिशत आबादी को, यानी 25-26 करोड़ लोगों को रोजगार मुहैया कराता है, तो इसका मतलब सिर्फ इतना है कि कृषि क्षेत्र अत्यधिक दबाव से चरमरा रहा है। एक मजबूरी है जो इसलिए जारी है कि मैन्युफैक्चरिंग और अन्य क्षेत्र में भी काम नहीं है ताकि कृषि में से बेशी आबादी को बाहर निकाला जा सके। तो यह मजबूरी है। इसे सरकार समाधान बनाकर पेश करना चाहती है। पेश तो नहीं कर रही है, इसलिए कि बजट में यह बकवास नहीं दोहराया गया है। लेकिन कनफ्यूज्ड स्थिति में वह बकवास जरूर कर रही है, ताकि लोगों को झूठा दिलासा या भरोसा दिलाया जा सके। कहने को सरकार के पास कुछ है इसका अहसास कराया जा सके।

यह कितनी बड़ी बकवास है इससे पता चलता है कि अगर कृषि क्षेत्र ग्रोथ इंजिन है तो कृषि क्षेत्र में और लोगों को लगाया जाएगा या इसके बारे में निर्णय हो सकता है। इस पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है। कुछ दिनों पहले तक सरकार कहती है कि वहां से सरप्लस लोगों को निकालना पड़ेगा और फैक्ट्रियों, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र और सर्विसेस में लाना होगा। इकोनॉमिक सर्वे भी अब से पहले तक यही कहता रहा है, लेकिन यहां पर आकर इकोनॉमिक सर्वे 2024 बिल्कुल उल्टी बात कहने लगता है, जो दिखाता है कि सरकार बुरी तरह कन्फ्यूज्ड हो गयी है। उसे बिल्कुल ही पता नहीं है कि क्या किया जाए।

अगर यह मान भी लें कि सरकार कन्फ्यूज्ड है लेकिन मंशा सही है, तो फिर बजट में वह इसके लिए कुछ भी बड़ा क्यों नहीं करती है। उल्टे, बजट में सरकार उद्योग के विकास की रट क्यों लगाती है। क्या मजाक है! असल बात यही है कि सरकार को यह बात समझ में आ गई है कि अब कुछ होने वाला नहीं है और इसलिए सीधे हाथ खड़ा करने के बजाय जनता को समाधान दिखाने के नाम पर चोरी-छुपे धोखा देने में लगी है। सरकार को पता है कि बेरोजगारी और नौकरियों की कमी का मुद्दा एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। इतना बड़ा मुद्दा कि इससे कोई बहुत बड़ा राजनीतिक विस्फोट भी हो सकता है। लेकिन सरकार कुछ भी नहीं कर पा रही है। हर जगह छंटनी और ले ऑफ हो रहे हैं। एयरटेल ने अपने लोग कम कर दिये। टीसीएस और इनफोसिस ने जॉब्स से लोगों को निकाल दिया। बाद में विप्रो ने भी जॉब कम कर दिये। आईटी सेक्टर में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस नौकरियां खा रहा है। रिलायंस में छंटनी हो रही है। इस तरह अब कहीं से कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए सरकार इस बात से डरी हुई है कि अगर यह बात कि नौकरी नहीं मिल सकती है, नौजवानों को पता चल जाएगी तो पता नहीं क्या होगा। लेकिन दूसरी तरफ नौजवानों एवं देश की आम जनता को भी यह समझना होगा कि जब तक पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था है और संपूर्णता में पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का शासन कायम है, तब तक बेरोजगारी का कोई बुनियादी समाधान संभव नहीं हो सकेगा। उसे अपने आंदोलन की दिशा और उसका लक्ष्य दोनों ठीक से तय करना होगा। तभी उनके आंदोलन का कोई सकारात्मक फल निकल सकेगा। अन्यथा, सरकारों की अदला-बदली होती रहेगी और समस्याएं जस की तस बनी रहेंगी। रंग-बिरंगी पार्टियां वायदों की झड़ी लगा कर सत्ता में आती और फिर सत्ता से जाती रहेंगी, और लोग ठगे जाते रहेंगे। हमें इस चक्रव्यूह से निकलने के बारे में और बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के बारे में गहराई से सोचना पड़ेगा।


[1] देखें लंदन स्थित अंग्रेजी पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ का ताजा अंक (3 से 9 जुलाई, 2024)

[2] बांग्लादेश में जो व्यापक छात्र आंदोलन हुआ, जो अंत में व्यापक जनआंदोलन के एक दावानल में तब्दील हो गया और तख्तापलट तक को अंजाम दिया, उसके कारणों की तलाश में जाएंगे तो हम पाएंगे कि कम मजदूरी, व्यापक रूप से गहराती बेरोजगारी, गरीबी का भयानक विस्तार, कंगाली और भुखमरी, आदि ने आम बांग्लादेशी नागरिकों के अंदर व्यापक अंसतोष और विक्षोप पैदा कर दिया था, जिसका इस्तेमाल, जाहिर है क्रांतिकारी शक्तियों के कारगर हस्तक्षेप के अभाव में, अमेरिकी सीआईए व अन्य एजेंसियों ने इंडो-पैसिफिक और दक्षिण ऐशिया में अमेरिकी साम्राज्यवादियों को अपने धुर विरोधी व प्रतिद्वंद्वी चीन को पटखनी देने के लिए किया। ज्ञातव्य हो कि चीन और बांग्लादेश के आपसी रिश्ते अच्छे रहे हैं और यही कारण है कि अमेरिकी दबाव के बावजूद शेख हसीना ने न तो क्वाड में शामिल होने और न ही अपने सेंट मार्टिन द्वीप पर अमेरिका को एयर बेस बनाने को मंजूरी देने के लिए ही तैयार हुई। चीन के ग्लोबल सप्लाई चेन का भी बांग्लादेश एक अहम कड़ी रहा है।      

[3] इसी अंक में बजट पर एक और लेख देखें। 

[4] असल में तो जीडीपी के नॉमिनल ग्रोथ रेट में कोई वृद्धि नहीं है। फूड इनफ्लेशन के वेट को 54 प्रतिशत से 34-35 प्रतिशत तक ले आया गया है जिससे डिफ्लेटर कम हो जाता है और फिर नॉमिनल ग्रोथ रेट में से इसे घटाकर प्राप्त किया गया जीडीपी ग्रोथ रेट बढ़ा हुआ दिखाया जाता है।