गिरती आर्थिक वृद्धि व लाभ दर से तीव्र होते अंतर्विरोध फासीवादी तानाशाही को नग्न रूप लेने की ओर बढ़ा रहे हैं

गिरती आर्थिक वृद्धि व लाभ दर से तीव्र होते अंतर्विरोध फासीवादी तानाशाही को नग्न रूप लेने की ओर बढ़ा रहे हैं

January 3, 2025 0 By Yatharth

पूंजी का मानवद्रोही चरित्र ही ऐसा है कि उसका संकट उसे हमेशा ही ध्वंसात्मक दिशा में ले जाता है क्योंकि यह विनाश ही उसके लिए एक तात्कालिक राहत लाता है। कोविड के नाम पर निर्मम लॉकडाउन पूंजी के लिए ऐसी ही एक तात्कालिक राहत थी जब आर्थिक गतिविधियों के बंद होने से उसका अति-उत्पादन का संकट फौरी तौर पर हल हुआ था। इससे उसकी लाभ दर अस्थाई तौर पर बढ़ गई थी और खाली हुए गोदामों को एक बार फिर से भरने हेतु आर्थिक वृद्धि भी कुछ तेज हुई थी। किंतु वृद्धि का वह कृत्रिम स्पंदन कब का चुक गया। एक बार फिर जाहिर होता अति-उत्पादन का संकट और गिरती आर्थिक वृद्धि फिर से मंदी की आहट दे रही है। अतः वैश्विक एवं भारतीय पूंजीवाद ध्वंस व बर्बरता के एक और चरण की अपेक्षा कर रहे हैं। साम्राज्यवादी खेमों के बीच दुनिया के फिर से बंटवारे की तीक्ष्ण जद्दोजहद व युद्धों की शृंखला का वैश्विक घटनाक्रम तथा घरेलू राजनीति में बुर्जुआ अंतर्विरोधों के तीखा होते जाने से फासीवादी सत्ता व संसदीय विपक्ष के बीच बढ़ता टकराव इसी ओर इंगित कर रहे हैं।

इस संकट ने भारतीय पूंजीवाद के लिए सामान्य बुर्जुआ अधिनायकत्व अर्थात् संसदीय जनतंत्र की बाह्य परंपराओं व रीतियों को निभाना अब लगभग नामुमकिन कर दिया है और मौजूदा फासीवादी सत्ताधारी निरंतर इस बाह्य खोल को कमजोर करने में जुटे हुए हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में घटी संख्या ने पूंजीवादी जनतंत्र पर अपने आक्रमण में बीजेपी को जो तात्कालिक रूप से थोड़ा विराम लेने के लिए मजबूर किया था, वह विराम अब कभी का खत्म हुआ। अब वे बुर्जुआ जनतंत्र के इस बाह्य स्वरूप पर निरंतर हमलावर हैं और बुर्जुआ विपक्ष की जगह भी निरंतर सिकुड़ती जा रही है।

‘तुम जिस बात के गुनहगार हो उसका इल्जाम दूसरे पक्ष पर मढ़ दो।’ ~ नाजी गुरू जोसेफ गोएबेल्स

अदानी के खिलाफ न सिर्फ किसी जांच से इंकार बल्कि उस पर कुछ कहे जाने से भी रोकने की कोशिश, 1991 के उपासना स्थल कानून के ठीक विपरीत न्यायपालिका की मदद से देश भर में मुस्लिम धार्मिक स्थलों पर बोला गया हल्ला, ‘वन नेशन वन पोल’ विधेयक, चुनाव आयोग द्वारा पूरी बेशर्मी से बीजेपी पक्षीय व्यवहार तथा चुनाव की तमाम सूचनाओं के जाहिर होने पर रोक की कोशिशें, विरोधी खास तौर पर मुस्लिम मतदाताओं को वोट देने से जबरदस्ती रोका जाना, संसद में विपक्ष के बोलने के अधिकार को निरंतर संकुचित करना, विपक्ष पर जॉर्ज सोरोस आदि विदेशी शक्तियों से पैसा लेकर देश विरोधी काम करने के इल्जाम, शासक व विपक्षी सांसदों में सीधा शारीरिक टकराव तथा लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी सहित विपक्षी नेताओं पर हत्या, आदि के मुकदमे, राज्यसभा सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को चर्चा व मतदान तक के लिए स्वीकार न कर सीधे खारिज कर देना, वगैरह दिखाता है कि फासीवादी सत्ता सामान्य पूंजीवादी जनतंत्र के स्थान पर एकाधिकारी पूंजी की नग्न प्रतिगामी तानाशाही कायम करने की ओर कदम दर कदम बढ़ रही है।

अंबेडकर के अपमान के प्रश्न पर फिलहाल जो विवाद खड़ा हुआ है, उसमें भी बीजेपी की दुर्नीति यही है। जाति व्यवस्था के अमानवीय जुल्म के विरोध, भारतीय संविधान में जनता द्वारा हासिल आरक्षण जैसे कुछ सीमित जनवादी अधिकारों से लेकर हिंदू विवाह कानून में स्त्रियों के पक्ष में कुछ आंशिक सुधारों तक अंबेडकर ने जिन भी जनवादी सुधारों के लिए काम किया, आरएसएस द्वारा उन सबका कटु एवं सख्त विरोध का एक लंबा इतिहास है। किंतु आज वे गोदी मीडिया सहित पूरे प्रचारतंत्र की ताकत से खुद को अंबेडकर की विरासत का चैंपियन तथा अन्य विपक्षी दलों को पूंजीवादी जनतंत्र व संविधान का शत्रु साबित करने की मुहिम छेड़े हुए हैं।

वैश्विक आर्थिक मंदी की आहट

विश्व आर्थिक फोरम (World Economic Forum) ने इस साल 10 सितंबर को प्रकाशित अपने आर्थिक एवं वित्तीय सर्वे में कहा है कि 2024 में वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर में पिछले साल की तुलना में “और अधिक” गिरावट आएगी। जापान ऋणात्मक विकास दर में प्रवेश करते हुए मंदी में फंस चुका है। ब्रिटेन और पूरा यूरोप “नरम मंदी” के शिकार हैं। अमेरिका में वृद्धि हो रही है, लेकिन बेरोजगारी तीन महीने के सबसे ऊंचे दर पर सवार है। ब्याज दर भी ऊंची बनी हुई है। ऊंचे ब्याज दर की “सॉफ्ट लैंडिंग” थ्योरी किसी काम की साबित नहीं हुई। ब्याज दर को लेकर क्या कदम उठाये जाएं इसकी अनिश्चितता आज भी बनी हुई है, क्योंकि “सॉफ्ट लैंडिंग” के अवसर के मौजूद होने के बावजूद विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं को घेर कर खड़े मंदी के बादलों की वजह से भविष्य का ठीक-ठीक अनुमान लगाना इनके लिये कठिन साबित हो रहा है। वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था की जुलाई से सितंबर 2024 तिमाही की वृद्धि दर पिछली कई तिमाहियों के सबसे निचले स्तर तक गिरकर 5.4% की वृद्धि दर तक पहुंची है। इससे 2024-25 में आर्थिक विकास दर के 7% रहने के आरबीआई के पूर्वानुमान को बड़ा झटका लगा है। वैसे बड़ी पूंजी के कई अखबारों ने खुलकर यह मान लिया है कि “मंदी कई तिमाहियों से खतरे की घंटी बजा रही है।”

पूरी दुनिया में आम लोगों की आय घट रही है, मजदूरों की वास्तविक मजदूरी गिरी है। इसकी वजह से उनके खर्च घट रहे हैं। फलस्वरूप उपभोक्ता मांग के साथ-साथ पूंजी निवेश भी गिर रहा है। यह इस बात का संकेत है कि आर्थिक मंदी आसपास मंडरा रही है। वृद्धि दर का लगातार कम बना रहना, यानी वैश्विक अर्थव्यवस्था का लगातार सुस्त और अवसादग्रस्त बना रहना, आर्थिक संकट और मंदी की ही निशानी है। इसका सीधा रिश्ता बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी, कुपोषण तथा कंगाली में होने वाली वृद्धि से है। मतलब साफ है कि मजदूर-मेहनतकश वर्ग तथा कम आय-वर्ग की जनता के लिए आने वाले दिन दुख-तकलीफ से भरे ही रहने वाले हैं।

गौरलब है कि ऐसा लगातार हो रहा है। भारत के संदर्भ में देखें तो जब आर्थिक वृद्धि के आंकड़े ऊपर जा रहे होते हैं तब भी बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई की मार जनता पर पड़ती रहती है। इससे पता चलता है कि आर्थिक विकास के आंकड़े फर्जी हैं, या फिर जो आर्थिक विकास हो रहा है उसका जनता के विकास से कुछ लेना-देना नहीं है, यानी आर्थिक विकास के आंकड़ों का जनता के विकास से संबंध-विच्छेद हो चुका है। असल में, दोनों ही बातें सच हैं। फर्जी आंकड़े परोसे जा रहे हैं और जीडीपी वृद्धि से जनता के विकास का रिश्ता भी काफी कम गया है। आर्थिक वृद्धि तो जहर बनाकर भी प्राप्त की जा सकती है लेकिन जहर जनता के किस काम आता है? एक साथ हजारों नहीं, लाखों का विनाश करने वाले जनसंहारक हथियारों का निर्माण करके भी जीडीपी बढ़ायी जा सकती है, बल्कि बढ़ाई जा रही है। लेकिन इससे तो जनता का विनाश ही हो सकता है, विकास नहीं। इसलिए सच तो यह है कि आंकड़े कुछ और कहते हैं जबकि जमीनी वास्तविकता कुछ और ही है।

विश्व पूंजीवाद का यह संकट अब एक आम संकट बन चुका है। मजदूर वर्ग को यह समझने की जरूरत है कि अगर उसे पूंजी के सहयोग यानी पूंजीवादी विकास में हिस्सेदारी के आधार पर अपने दुखों से मुक्ति पानी है तो यह आज संभव नहीं है। इसके लिए पूंजी के विकास में एक और उछाल के दौर (पूंजीवादी विकास के स्वर्णिम दौर) की जरूरत होगी जो अब संभव नहीं है। इसलिए पूंजी के साथ सहयोग, साहचर्य एवं सहयोजन की अवसरवादी नीति अब काम नहीं करने वाली है। इससे तात्कालिक तौर पर सुविधा पाने का कोई मुफीद समय अगर कभी था भी, तो उसकी वापसी अब संभव नहीं है। इसलिए पूंजीवाद को हटाना, पूंजी की सत्ता को पलटना और समाजवाद की स्थापना करना – यही रास्ता मजदूर-मेहनतकश वर्ग के लिए अपनी मुक्ति का एकमात्र रास्ता बचा रह गया है।

फासीवाद – पूंजी के शासन की हिफाजत का औजार

शासक पूंजीपति वर्ग ने भी इस स्थिति से सबक लिया है कि अब पूंजी के प्रभुत्व व शासन को बरकरार रखने के लिए संसदीय पूंजीवादी जनतंत्र के बाह्य खोल वाला सामान्य बुर्जुआ अधिनायकत्व पर्याप्त नहीं है। पूंजी के इस आम संकट के दौर में उसे सामान्य पूंजीवादी अधिनायकत्व के बजाय एकाधिकारी वित्तीय पूंजी द्वारा संचालित पूंजी का असाधारण या नग्न अधिनायकत्व अर्थात फासीवादी शासन जरूरी हो गया है।

पूंजी के इस आम संकट के दौर में जब वित्तीय पूंजी न सिर्फ मजदूरों-मेहनतकशों के शोषण की दर को अत्यंत ऊंचा कर चुकी है बल्कि माध्यमिक या दरमियाने वर्गों को भी संपत्तिच्युत करने का अभियान छेड़ चुकी है तब उसे पूंजीपतियों के विभिन्न हिस्सों के बीच होड़ वाली सामान्य पूंजीवादी तानाशाही के स्थान पर वित्तीय पूंजी की एकछत्र तानाशाही की जरूरत है। इस तानाशाही को स्थापित करने के मकसद से उसने समाज की सर्वाधिक प्रतिगामी सामाजिक शक्तियों अर्थात् ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के विचार वाली हिंदुत्व की शक्तियों के साथ पूर्ण गठजोड़ कर लिया है। परिणाम है कि देश में फासीवाद का उभार सर चढ़ कर बोल रहा है। मजदूर-मेहनतकशों के सारे अधिकार इसकी चपेट में आ चुके हैं। यही नहीं, अन्य वर्गों व तबकों पर तथा उनके भी हक-हकूक व जनवादी अधिकारों पर लगातार हमले हो रहे हैं।

फासिस्ट दल व इससे जुड़े संगठन बड़े पूंजीपतियों के हित में एक खूंखार शासन की व्यवस्था करने (फासिस्ट संगठनों का प्रचारतंत्र, अफवाहतंत्र, मीडिया व सूचनातंत्र, चुनावतंत्र, ट्रोल आर्मी जैसा विशाल तंत्र एवं सड़क से लेकर संसद तक विरोधियों से हर तरीके से निपटने में लगा तंत्र, यानी कुल मिलाकर एक राज्येत्तर राज्यतंत्र कायम करने) में जुटा हुआ है। इसके माध्यम से वे जनता के विशाल हिस्से को अपनी नफरत की राजनीति का शिकार बना उसे अपने सबसे बड़े दुश्मन को ही अपना तारणहार और देश का रक्षक समझने के भ्रम में उलझाने में लगे हैं। वोट झटकने के लिए जनता से लूटे गये धन से ही जनता को दी जाने वाली मामूली सुविधाएं व सहायता की बात छोड़ दें, तो मोदी सरकार ने जनता को दिया ही क्या है?

जहां तक चुनावी फायदे के लिए जनता को दी जाने वाली मामूली सरकारी सहायता की बात है, तो वह सभी पार्टियां देती हैं। जब तक चुनाव से सरकारें बनेंगी, तब तक सत्ता के लिए पार्टियों के बीच की प्रतिस्पर्धा रहेगी और ऐसी छोटी सुविधाएं जारी रहेंगी। बड़ा पूंजीपति वर्ग सत्ता के लिए पार्टियों के बीच इस चुनावी होड़ के खिलाफ है। वह अब जनता को चुनावी जरूरत के लिए कुछ सुविधाओं को देने के पक्ष में भी नहीं है। अब वह इसे मुफ्त की रेवड़ियां बता मजबूरी में ही इसे मान रहा है जिसे समाप्त करने के लिए ही ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का कानून पेश किया गया है। जैसे ही फासीवाद की अंतिम विजय होगी और ‘जनतंत्र’ व विपक्षी पार्टियों को ये खत्म कर देंगे वैसे ही यह मजबूरी भी समाप्त हो जाएगी। भाजपा सरकारी एजेंसियों की मदद के अलावे अपने हिंदुत्व के एजेंडे की मदद से अन्य सभी पार्टियों को जल्द से जल्द खत्म करने के साथ एकतांत्रिक फासिस्ट शासन की स्थापना करने में लगी है। हिंदू-राष्ट्र के एजेंडा का मकसद है –

पहला, धार्मिक भावना को भड़का कर जनता के दिलोदिमाग में इतना धार्मिक जहर घोल देना जिसके नशे में उसे अपना हित एकमात्र हिंदू-धर्म की रक्षा में ही दिखे और उसे अपने ऊपर हो रहे आर्थिक-सामाजिक हमले नहीं दिखाई पड़े। यानी महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी तथा अप्रत्यक्ष टैक्स और दमनकारी कानूनों की मार तथा शिक्षा-स्वास्थ्य-परिवहन के क्षेत्र में सार्वजनिक सुविधाओं का पूर्ण खात्मा, आदि उसे दिखाई नहीं दे। यह एक बड़ा कारण है कि वे आसानी से जनता पर हमला करने के साथ में ही चुनाव भी जीत पा रहे हैं।

दूसरा, इस एजेंडे का विरोध करने वाली हर पार्टी को हिंदू विरोधी घोषित करना। अगर मोदी सरकार और भाजपा कल को धर्म-रक्षा के नाम पर हिंदुत्व के एजेंडे, जिसका असली उद्देश्य अन्य धर्मों के लोगों के खिलाफ नफरत की राजनीति करना है, को आगे करने में पूरी तरह सफल हो जाती है, तो स्वाभाविक है कि वह जनतंत्र को भी पूरी तरह से खत्म करने में सफल हो जाएगी, क्योंकि धर्म-राष्ट्र की विचारधारा और धर्मनिरपेक्षता व जनतंत्र की विचारधारा एक दूसरे के धुर विरोधी हैं। जहां धर्म-राष्ट्र की विचारधारा खुली नंगी तानाशाही और राजशाही की ओर जाती है, वहीं जनतंत्र की विचारधारा जनताशाही और उससे होते हुए मजदूरशाही तक जाती है।

इन कदमों का कोई विरोध न कर सके, इसके लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है। इसमें राजकीय मशीनरी के साथ ही फासिस्ट गुंडावाहिनियां भी लगी हैं। सरकार की किसी जनविरोधी नीति व कार्रवाई के विरोध में कोई कुछ बोला नहीं कि उसे सबक सिखाने के लिए देश की एकता और अखंडता को तोड़ने का अपराधी घोषित करने वाला कानून तैयार है। अगर कोई जनपक्षीय पत्रकार, कलाकार, कार्टूनिस्ट, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर, छात्र, मानवाधिकार कार्यकर्ता या वकील आम जनता या मजदूर वर्ग का पक्ष लेते हुए सरकार की आलोचना कर दे, या यह लिख दे कि जनता के अधिकार और जनतंत्र खतरे में है, तो उस पर मुकदमा चला दिया जा सकता है। भाजपा आईटी सेल की ट्रोल आर्मी उनके पीछे पड़ जाएगी। बजरंग दल जैसे संगठन उन पर टूट पड़ेंगे। अगर भाजपा शासित राज्य में दंगा हो जाये, पुलिस किसी समुदाय विशेष की भीड़ पर गोली चला दे या किसी जनतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन पर बर्बर लाठी-चार्ज कर दे, तो वहां कोई राजनीतिक दल या स्वतंत्र पत्रकार खोज-खबर लेने, शांति की अपील करने और पीड़ित पक्ष को सहानुभूति दिखाने या उसके आहत मन पर मरहम लगाने भी नहीं जा सकता है। विरोध मार्च की तो बात ही छोड़ दीजिए, कोई शांति-मार्च भी नहीं निकाल सकता। जब भी ऐसा होता है भाजपा सरकार पूरे एरिया को घेर कर सील कर देती है और फिर जो चाहती है करती है।

पूंजीवादी संसदीय व्यवस्था को पूरी तरह खोखला किया जा चुका है

संसदीय व्यवस्था का बुनियादी सिद्धांत था बुर्जुआ वर्ग के हर हिस्से के प्रतिनिधियों को अपनी बात बिना किसी भय के अबाध रूप से कहने व पारित कराने का मौका प्राप्त होना। यूं तो इस सिद्धांत पर भारतीय संसदीय व्यवस्था आरंभ से ही बहुत कमजोर थी जिसमें विपक्ष के द्वारा उठाये गए किसी मुद्दे पर चर्चा कराया जाना सरकार की सदाशयता पर निर्भर था। बहरहाल शून्यकाल-प्रश्नकाल में तथा शोर मचाकर व कार्यवाही में बाधा डालकर विपक्षी सदस्य अपनी बात कहने तथा उन पर चर्चा कराने का प्रयास करते थे। किंतु वित्तीय पूंजीवाद को अब इतना भी मंजूर नहीं।

विभिन्न दलों के बीच इस होड़ के पंच बतौर सभी पक्षों की सम्मति वाले लोकसभा अध्यक्ष व राज्यसभा सभापति की व्यवस्था को पूंजीवादी जनतंत्र में आवश्यक माना गया है। किंतु ओम बिड़ला तथा जगदीप धनखड़ की खुली सत्तापक्षीय भूमिका सबके समक्ष है। ऐसे में अगर एक पक्ष पंच के प्रति ही अविश्वास व्यक्त करे तो सब काम छोड़कर पहले इसका फैसला करना एक बुनियादी सिद्धांत रहा है। किंतु विपक्ष के 60 सदस्यों ने राज्यसभा के सभापति धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का जो नोटिस दिया था, उस पर चर्चा व मतदान के बजाय उपसभापति हरिवंश ने वर्तनी की गलतियां व नेकनीयती की कमी बताते हुए नोटिस को ही खारिज कर दिया है। अर्थात नोटिस धनखड़ के बारे में ही नहीं, मौजूदा पूरी संसदीय व्यवस्था के बारे में ही सही है, उसमें विपक्षी दलों के लिए कोई अधिकार की गुंजाइश नहीं है, इसे खुलेआम कह दिया गया है।

असल बात यह है कि ऐसी सब परंपराओं आदि का अर्थ सिर्फ उनके लिए है जिनमें बुर्जुआ जनतांत्रिक कायदों के पालन मुताबिक कुछ शर्म-लिहाज बाकी हो। किंतु शर्म-लिहाज ही होता तो वो फासिस्ट क्यों कहे जाते? फासीवाद तो जैसा दिमित्रोव ने बताया था मोनोपॉली वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिगामी, सबसे साम्राज्यवादी (दूसरे शब्दों में कहें तो सबसे प्रभुत्ववादी) हिस्से की नग्न तानाशाही है। वैसे तो पूरा पूंजीवादी जनतंत्र ही पूंजीपतियों की तानाशाही है जिस पर जनवाद का मुलम्मा चढ़ा रहता है। लेकिन फासीवाद वह नग्न तानाशाही है जिस पर से निष्पक्षता व लिहाज का वह मुलम्मा भी उतार फेंक दिया जाता है। अर्थात मजदूर मेहनतकश जनता का विरोध ही नहीं, खुद पूंजीपति वर्ग का विपक्ष भी इस दौर में नाकाबिले बर्दाश्त बन जाता है।

यही वजह है कि संसद, कोर्ट, चुनाव (आयोग), आदि फासिस्टों को पराजित करने का मंच नहीं हो सकते क्योंकि इनके प्रयोग के लिए भी तो कम से कम पूंजीपति वर्ग के ही विभिन्न पक्षों के बीच एक न्यूनतम निष्पक्षता की जरूरत होती है। फासीवाद की पराजय के लिए तो जनसंघर्ष व जनउभार के दबाव में बनी एक ऐसी सरकार की जरूरत होती है जो इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजी व सामाजिक प्रतिक्रिया की शक्तियों (भारत में ब्राह्मण-सवर्ण प्रभुत्ववाद आधारित हिंदुत्व) के नियंत्रण से मुक्त हो। इस शर्त को पूरा किए बिना तात्कालिक उतार चढ़ाव तो दिख सकते हैं, जैसे गत लोकसभा चुनाव में दिखा था, पर फासीवाद की पराजय नहीं हो सकती।

न्यायपालिका – फासीवाद का कारिंदा

अदानी पर मुकदमे एवं अर्थव्यवस्था में मंदी की खबर के बीच मस्जिदों के नीचे मंदिर ढूंढने का सांप्रदायिक उन्माद फैलाने में न्यायपालिका (कार्यपालिका व गोदी मीडिया की मदद से) फासीवाद का कारिंदा बन चुकी है। देश भर की ऐतिहासिक मस्जिदों-दरगाहों के नीचे मंदिर मूर्तियां ढूंढ़ने का फासीवादी ज्वार पूरे जोरों पर है। कहीं एक व्यक्ति (निश्चय ही कोई भी व्यक्ति नहीं, बल्कि एक खास सियासी मुहिम का कारकून) उठता है, स्थानीय कोर्ट में एक आवेदन डालता है कि फलां मस्जिद या दरगाह के नीचे एक टूटा हुआ प्राचीन मंदिर है क्योंकि किसी मुगल या मुसलमान शासक के आदेश पर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी। जज या मैजिस्ट्रेट तुरंत आदेश जारी करता है कि प्रशासन पुरातत्व विभाग की मदद से इस स्थान का सर्वे करा पता लगाए कि क्या वहां वास्तव में मंदिर मौजूद था। स्थानीय अखबारों-चैनलों से लेकर राष्ट्रीय गोदी मीडिया तुरंत इसे देश का सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर पेश करने लगते हैं। यह तो स्वयं सिद्ध तथ्य के रूप में ही पेश कर दिया जाता है कि मंदिर तोड़ा गया था और उस पर मस्जिद बनाई गई थी। बीजेपी-संघ कुनबे के तमाम नेताओं व ‘संतों’ के बयान आने लगते हैं कि ऐतिहासिक अन्याय का परिष्कार जरूरी है। और सर्वे के बहाने उन्मादी भीड़ मस्जिद पर चढ़ाई कर देती है। विरोध करने वाले मुस्लिमों के उग्र होने, पत्थर फेंकने, कानून व्यवस्था बिगाड़ने के नाम पर पुलिस कार्रवाई की जाती है। और, इसके खिलाफ कानून होते हुए भी इस सबका रास्ता खोला है संविधान व जनतंत्र के रक्षक कहे जाने वाले सुप्रीम कोर्ट व इसके मशहूर लिबरल चीफ जस्टिस ने।

इस प्रकार भारत की न्यायपालिका ने बुर्जुआ जनतंत्र में ओढ़ा गया निष्पक्षता व न्याय का ऊपरी दिखावटी मुखौटा खुद ही नोंच फेंका है और अब यह फासीवादी सत्ता को स्थापित करने व उसके रास्ते में आने वाली कानूनी अड़चनों को मिटाने का खुला औजार बन गई है। दरअसल वर्ग विभाजित समाज में राजसत्ता वर्ग शासन का औजार है जिसका अनिवार्य अंग शासित वर्गों का दमन है। न्यायालय भी इस वर्ग राजसत्ता का ही एक अंग हैं। आज पूंजीपति वर्ग का शासन है जिसे बुर्जुआ जनतंत्र कहते हैं अर्थात यह जनतंत्र निजी संपत्ति व मुनाफों के लिए काम करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था की राजसत्ता को बनाए रखने का यंत्र है। अतः बुनियादी तौर पर तो यह मजदूर वर्ग पर पूंजीवादी वर्ग का अधिनायकत्व ही है।

जब तक पूंजीवाद में होड़ का तत्व प्रभावी था और इजारेदार पूंजी का राजसत्ता पर प्रभुत्व नहीं था, तब तक पूंजीवादी जनतंत्र के संसद व न्यायालय आदि अंगों में भी इस होड़ के लिए जरूरी स्वायत्तता व तुलनात्मक निष्पक्षता का एक पक्ष रहता था, जिसके लिए ही व्यक्ति व नागरिक स्वतंत्रताओं का विचार बुर्जुआ जनतंत्र में आया था। इस तुलनात्मक स्वायत्तता व निष्पक्षता का लाभ उठाते हुए मजदूर वर्ग व अन्य उत्पीड़ित जनता भी अपने अधिकारों के लिए जनवादी संघर्ष का एक स्थान इस व्यवस्था में तब तक पा जाती थी, जब तक वह पूंजीवादी व्यवस्था के लिए ही जोखिम न बन जाए। इसीलिए मजदूर वर्ग हमेशा न सिर्फ जनवादी अधिकारों की हिफाजत के लिए संघर्ष करता आया है बल्कि बुर्जुआ जनतंत्र में हासिल जनवादी अधिकारों के दायरे को विस्तृत करने का वास्तविक गौरव मजदूर वर्ग के दीर्घ संघर्षों को ही जाता है।

किंतु जैसे ही पूंजीवाद में इजारेदारी का उभार हुआ और खास तौर पर 1970 के दशक से इसने मजदूर वर्ग पर हमलावर होकर नवउदारवादी नीतियों के रूप में पूंजीवादी लूट को तीक्ष्ण किया है, बुर्जुआ राजसत्ता की तुलनात्मक स्वायत्तता व निष्पक्षता अधिकाधिक दरकती गई है और अब यह इजारेदार वित्तीय पूंजी के एजेंट, सेल्समैन व बाउंसर की भूमिका में आ गई है एवं इसमें जनवादी अधिकारों की गुंजाइश निरंतर सिकुड़ती गई है। यही समस्त पूंजीवादी देशों में और सभी बुर्जुआ राजनीतिक समूहों में बढ़ती फासीवादी प्रवृत्ति का आधार है। किंतु इसमें भी जब एक संगठित फासीवादी पार्टी सत्ता में आ जाती है तो समस्त जनवादी अधिकारों पर चौतरफा हमले का रुझान ही मुख्य प्रवृत्ति बन जाता है। मौजूदा दौर में सभी बुर्जुआ समूह व संस्थान फासीवादी रुझान से ग्रस्त हैं इसलिए आज बुर्जुआ जनतंत्र की हर संस्था फासीवादी उभार में अड़चन बनने के बजाय उसके लिए सहायक बन गईं हैं। भारत में भी संसद व मीडिया के साथ ही न्यायपालिका का मौजूदा आचरण नाजी हरमन गोरिंग की वह बात याद दिलाता है कि, “कानून व फ्यूहरर की इच्छा एक ही बात है।” या फिर प्रमुख नाजी कानूनविद कार्ल श्मिट की बात कि “कानून एक वस्तुगत कायदा नहीं, फ्यूहरर की इच्छा का स्वतःस्फूर्त प्रस्फुटन है।” इसी का अनुसरण करते हुए वीएचपी के कार्यक्रम में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर यादव ने कहा है, “भारत अपने बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार चलेगा।”

भागवत का बयान – संघ-बीजेपी में फर्क की बात मात्र भ्रम

एक बार फिर से आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयानों के आधार पर संघ-बीजेपी में फर्क का नैरेटिव गढ़ा जा रहा है। अस्सी के दशक में भी सर्व धर्म समभावी ‘शरीफ सेकुलरों’ की एक पूरी जमात ऐसी थी जो हिंदु-मुसलमानों के बीच में पंच बनने का दावा करते हुए कहते थे कि हिंदु बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं की इज्जत करते हुए मुसलमान बाबरी मस्जिद से या अयोध्या काशी मथुरा की तीन जगहों से अपना दावा छोड़ दें तो मामला हल हो सकता है, भाईचारा, मोहब्बत व गंगा जमुनी तहजीब बच सकती है। दिखावे के लिए भद्र होने का दिखावा करते कुछ मीठी जबान संघी भी इसमें हां में हां मिला देते थे।

किंतु जिन्हें फासिस्ट कुटिलनीति का जरा भी इतिहास पता है वे तब भी इस बात को मंजूर नहीं कर पाते थे। आज तो सच्चाई सबके सामने जाहिर ही है। फासिस्ट हमेशा से ऐसी दस मुंही बातें अपने असल मकसद को छिपाकर विरोधी पक्ष को भ्रमित व प्रतिरोध की शक्ति को बिखेरने के लिए करते आए हैं। आज भी कुछ ऐसा ही ‘तर्क’ दिया जा रहा है। पर निश्चय ही आज इस बात पर विश्वास करने वाला कोई नहीं है, न खुद फासिस्ट दल के अपने समर्थक, न ही विरोधी, क्योंकि असल मकसद क्या है, थोड़ी भी समझ रखने वाले सबको पता है।

फासीवाद की पूर्ण पराजय की वास्तविक राह

आज भी बहुतों पर गंगा जमुनी तहजीब या मोहब्बत की दुकान वाली भली लगने वाली बातों के आसान रास्ते से फासीवाद से लड़ने की कल्पना हावी है। पर यह महज एक हसीन सपना ही है जिसके मनोहर भ्रमजाल से निकलकर न सिर्फ पुराने बुर्जुआ जनवाद को बचाने बल्कि वास्तविक जनवाद स्थापित करने हेतु एक मजदूर वर्गीय तथा जनपक्षधर कार्यक्रम पेश करने तथा मेहनतकश जनता का उभार खड़ा करने की जरूरत का कोई विकल्प नहीं है। निश्चित रूप से ही यह धैर्य व कठिन परिश्रम मांगने वाला कष्टसाध्य उपाय है, पर जनसंघर्षों की राजनीति ही फासीवाद की जहरीली सियासत का एकमात्र जवाब बन सकती है। हर देश में फासीवाद की एक बड़ी ताकत उसके विरोधियों की सिद्धांतहीनता, ढोंग, मौकापरस्ती, ढुलमुलपन, आदि रहा है। अतः फासीवाद की अंतिम पराजय के लिए दृढ़, सिद्धांतनिष्ठ, सुसंगत मजदूर वर्गीय विरोध का कोई विकल्प नहीं है।

इस विकट परिस्थिति से निकलने का रास्ता यही है कि मजदूर वर्ग आगे बढ़कर इसे रोकने के लिए और इस शासन को हटाकर दूसरे तरह के शासन, जो वास्तव में मेहनतकश जनता का शासन हो, को कायम करने का आह्वान देश के समूचे शोषित-वंचित एवं उत्पीड़ित अवाम से करे और इसके लिए कोई ठोस नारा पेश करते हुए आगे बढ़कर उसका नेतृत्व करे। अन्य कोई वर्ग इस काम को मुकम्मल तौर पर नहीं कर सकता। निश्चय ही विपक्षी पूंजीवादी पार्टियां भी इस हमले का प्रतिकार करने की कोशिश कर रही हैं, क्योंकि फासीवादी ताकतें पूंजीवादी शासन व लूट में उनकी हिस्सेदारी को खत्म करने में लगी हैं। लेकिन वे स्वयं भी प्रतिक्रियावादी चरित्र की हैं और बड़ी पूंजी की थैली के ही चट्टे-बट्टे हैं। वे खुद इस बात के कायल हैं कि जब भी पूंजी के शासन पर संकट आएगा तो पूंजी खुली तानाशाही और निरंकुशता का सहारा लेगी और ले सकती है। इसलिए भले ही वे अपनी हिस्सेदारी को लेकर फासीवादी भाजपा का विरोध करती हैं, लेकिन फासीवाद की पराजय के लिए वे जनता और खासकर मजदूर वर्ग का खुला आह्वान नहीं कर सकती हैं। मजदूर वर्ग अवाम का नेतृत्व करे, यह तो इनके लिए दु:स्वप्न से कतई कम नहीं है। चुनांचे फासीवाद का एक ही जवाब है – इसकी पूर्ण पराजय अर्थात् एक ऐसी सरकार की स्थापना जो एकाधिकारी पूंजी व प्रतिगामी सामाजिक शक्तियों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त हो, और यह एकमात्र मजदूर-मेहनतकश तबके के नेतृत्व में समस्त उत्पीड़ित जनता की फौलादी एकता के बल पर ही संभव है।