फासीवाद के खतरे को पहचानें और इसके खिलाफ कमर कसने की तैयारी करें! (पर्चा)
January 3, 2025– आईएफटीयू (सर्वहारा) | यथार्थ (सितंबर-दिसंबर 2024) |
मजदूर-मेहनतकश वर्ग से आह्वान – मजदूर-मेहनतकश साथियो!
फासीवाद क्या है? फासीवाद सांप्रदायिक नफरत, नस्लीय घृणा और उग्र राष्ट्रवाद पर आधारित एक घोर प्रतिक्रियावादी राजनीतिक मुहिम व आंदोलन का नाम है। फासीवादी तानाशाही क्या है? जब फासीवाद सतारूढ़ हो जाता है, तब फासीवादी तानाशाही का जन्म होता है। यह एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के सबसे लुटेरे, मानवद्रोही, निरंकुश एवं युद्धोन्मादी तत्वों के खुले आतंकी शासन का दूसरा नाम है। फासीवादी चुनाव जीत कर पहले सरकार में आ सकते हैं और फिर अंदर से धीरे-धीरे और एक-एक कर जनतांत्रिक निकायों पर कब्जा करते हुए (अर्थात अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण तरीके से) फासीवादी तानाशाही कायम कर सकते हैं जैसा कि भारत सहित पूरी दुनिया में करने की कोशिश की जा रही है, तो वे सीधे संसद पर बलात कब्जा करके भी (हिंसात्मक तरीके से) कर सकते हैं। लेकिन यह चाहे जैसे भी कायम हो, फासीवाद के सत्तारूढ़ होने की घटना कोई सामान्य घटना नहीं, अपितु बुर्जुआ (पूंजीवादी) जनतंत्र की खोल के अंदर से काम करने वाले सामान्य बुर्जुआ शासन (बुर्जुआ अधिनायकत्व) की जगह बुर्जुआ वर्ग के ही खुले व नंगे आतंकी शासन की स्थापना है जो एक विशेष परिघटना है। यह बुर्जुआ जनतंत्र के अंतर्गत प्रत्येक 4 या 5 सालों पर बुर्जुआ पार्टियों की जीत और हार के माध्यमों से सरकारों की होने वाली आम अदला-बदली तो कतई नहीं है। पिछली सदी के दूसरे व तीसरे दशक में फासीवाद के सत्तारूढ़ होने से निकला यह एक प्रमुख सबक है।
यह खतरा आ रहा है, हम कैसे पहचानेंगे? वैसे तो जनवादी अधिकारों पर हुए हर हमले से बुर्जुआ शासन की फासीवादी प्रवृत्ति मजबूत होती है और फासीवाद के लिए जमीन तैयार होती है, परंतु जब बड़े पूंजीपति वर्ग का हमला, मुख्यत: आर्थिक मंदी के बोझ को मेहतनकश जनता के कंधों पर डालने तथा इस तरह हर हाल में अपने सुपर मुनाफे को बनाये रखने और यहां तक कि बढ़ाने के लिए, इतना अधिक बढ़ जाए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित आम जनता व मजदूर वर्ग के समस्त जनतांत्रिक अधिकारों, यहां तक कि ट्रेड यूनियन अधिकारों का हनन आम बात (सर्वजनीन) बन जाए; सांप्रदायिक विद्वेष व नृवंशीय घृणा के वाहक तत्वों की राज्य मशीनरी में घुसपैठ इतनी अधिक हो जाए कि दोनों एकाकार हो जाएं और डीप स्टेट (राज्येत्तर राज्य) कायम हो जाए; जनतांत्रिक-संवैधानिक निकाय पूरी तरह से पंगु हो जाएं; मेनस्ट्रीम मीडिया पर कब्जा हो जाए और सरकार के संरक्षण में नस्लीय घृणा फैलाने वाली लंपट भीड़ द्वारा सड़कों पर किये जा रहे ‘न्याय’ (राज्येत्तर दमन) को सही ठहराना व नफरत को हवा देना इनका मुख्य काम हो जाए; एक तरफ नफरती अभियान चलाने वालों को सम्मानित किया जाए और दूसरी तरफ आंतरिक सुरक्षा का हौवा खड़ा कर के धर्म निरपेक्षता, सदभाव, सामाजिक बराबरी, प्रगति, समता व न्याय के विचारों को देशद्रोह तथा इनकी वकालत करने वालों को देशद्रोही बताकर जेलों में ठूंसा जाने लगे; संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए धर्म-संसद में खुलेआम अल्पसंख्यक समुदायों के नस्लीय सफाये के लिए बहुसंख्यक आबादी को उकसाया जाने लगे; मॉब लिंचिंग (भीड़ द्वारा धार्मिक-जातीय पहचान व पूर्वाग्रह, जैसे लव जिहाद, जनसंख्या जिहाद, वोट जिहाद, आदि के आधार पर लोगों के साथ हिंसा करना) आम बात हो जाए; एक तरफ धर्म-राष्ट्र की स्थापना की मांग व खुली वकालत करने के साथ-साथ जनतंत्र एवं इसकी हर संस्था व पहचान पर हमला तेज हो जाए और दूसरी तरफ देश का उच्चतम न्यायालय तथा दूसरी संवैधानिक संस्थाएं मूकदर्शक बनी रहें मानों उनकी पूंजीवादी-जनवादी अंतरात्मा मर चुकी हो; तो मजदूर वर्ग को समझ लेना चाहिए कि सत्ता में बैठी सरकार फासीवादी सरकार है, फासीवादी तानाशाही का खतरा सर पर मंडरा रहा है, बुर्जुआ जनतंत्र संकट में हैं और मजदूर वर्ग पर हो रहा हमला आम पूंजीवादी हमला नहीं फासीवादी हमला है।
भारत के मजदूर वर्ग को अपने जीवन के अनुभव से यह साफ हो जाना चाहिए कि एक विशेष समुदाय/समुदायों या अल्पसंख्यकों व आप्रवासियों के खिलाफ नफरती हमले से यह शुरू जरूर होता है लेकिन इसके निशाने पर मुख्य रूप से मजदूर वर्ग होता है। मजदूर वर्ग के पिछड़े तत्वों को अक्सर यह भ्रम होता है कि फासीवादी अल्पसंख्यकों पर हमला करते हैं तो हम इसका विरोध क्यों करें? कुछ लोग यह भी समझते हैं कि यह तो बुद्धिजीवियों पर हमला है, अलग से मजदूर वर्ग पर कोई हमला नहीं है। ये समझ गलत है। यह सही है कि फासीवादी विशेष समुदाय या समुदायों पर, जैसे कि भारत में मुसलमानों एवं इसाइयों पर, हमला करते हैं। यह भी सही है कि फासीवादी सत्ता शुरू में मजदूर वर्ग पर नहीं मजदूर वर्ग के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों व नेताओं पर हमला करती है। लेकिन क्योंकि फासीवादी सत्ता का असली उद्देश्य एकाधिकारी पूंजी की लूट को आगे बढ़ाना है, इसलिए मजदूरों का विरोध बढ़ते ही पूरे मजदूर वर्ग का दमन करना इनके लिए अंततोगत्वा आवश्यक हो जाता है। फासीवाद का एक और उद्देश्य पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का सर्वहरा क्रांति (मजदूर वर्ग की क्रांति), जिसकी वस्तुगत परिस्थितियां तेजी से परिपक्व हो रही हैं, से बचाव करना भी है। इसलिए भी फासीवाद मजदूर वर्ग के नेताओ को ही नहीं पूरे मजदूर वर्ग को अपना मुख्य दुश्मन मानता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत जैसे देश में यह सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों का ही नहीं, दलितों व आदिवासियों व कमजोर राष्ट्रीयताओं, महिलाओं का भी घोर उत्पीड़न करता है। जाहिर है वह सवर्ण जातियों व ब्राह्मणवाद का एक नव उभार पैदा कर रहा है। लेकिन इसके सयानेपन का आलम यह है कि सोशल इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना पेश करते हुए वह जाति व समुदाय आधारित पहचान की राजनीति को भी अपने पंखों में समेटे हुए (अपने में सहयोजित किये हुए) है और पहचान की राजनीति करने वाले दलों को मात देने में सफल रहा है। इस भारत का भी अनुभव यही बताता है कि फासीवाद अंततोगत्वा धर्म-संप्रदाय आधारित घृणा की आड़ में मजदूर वर्ग के खिलाफ छेड़ा गया एक निर्मम वर्ग-युद्ध के अलावा और कुछ नहीं है और इसे मजदूर वर्ग को एक क्षण के लिए भी अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहिए। पूंजीपति वर्ग खासकर धर्म, संप्रदाय, जाति, नस्ल, समुदाय व क्षेत्र का चोला पहनता ही इसलिए है कि उसे मजदूर वर्ग को भरमाये रखना और बांटे रखना है और अंतत: उसका दमन करना है। शासक वर्ग की हर पार्टी, खासकर जब पूंजीवाद आर्थिक संकट से गुजर रहा होता है, यह करती रही है। फासीवादी इसका उपयोग सबसे अधिक करते हैं, बल्कि यह कह कहना चाहिए कि वे इसे ही अपना वैचारिक व राजनीतिक हथियार बना लेते और आम बना देते हैं। मजदूर वर्ग को इससे दूर रहना चाहिए। मजदूर अगर आपस में इस तरह के भेदभाव करते हैं तो वे अपने पैरों के लिए बेड़ी तथा अपनी ही गुलामी के औजार तैयार करते हैं। उन्हें समझ लेना चाहिए कि धर्म-राष्ट्र मजदूर वर्ग के हित में नहीं है। किसी भी तरह की पहचान की राजनीति उनके लिए जहर है। अगर वे इसके पक्ष में खड़े होते हैं तो अपनी वर्तमान गुलामी को और मजबूत ही बनाते हैं।
फासीवादी धार्मिक होने का स्वांग करते हैं ताकि जनता उनसे जुड़ सके और उन्हें अपना समझे। मजदूरों को यह देखना चाहिए कि ये फासीवादी वास्तव में किस वर्ग की सेवा करते हैं या कर रहे हैं। जैसे कि हम अपने आप से यह पूछ सकते हैं कि मोदी सरकार किस वर्ग की सेवा कर रही है। हमें पता चलता है कि ये फासीवादी तो, जो जनता से जुड़ाव प्रदर्शित करने के लिए धार्मिक होने का स्वांग करते हैं, वास्तव में एकाधिकारी कॉर्पोरेट पूंजी के सेवक हैं। ये धार्मिक होने का स्वांग दरअसल इसलिए करते हैं कि वे जनता को दिखा सकें कि वे शुचितापूर्ण (स्वच्छ, निर्मल और निष्कलंक) जीवन जीते हैं। लेकिन अगर सच्चे तौर पर एक धार्मिक व्यक्ति से इनकी तुलना करें तो हम पाएंगे कि ये धुर अधर्मी लोग हैं। ये धार्मिक नहीं असल में घोर सांप्रदायिक लोग हैं। ये खूद दंगाई प्रकृति के होते हैं और दूसरों को भी दंगाई बनाते हैं ताकि वोटों का ध्रुवीकरण कर सकें और सत्ता तक पहुंच सकें।
फासीवादी जानवर प्रेमी होने का स्वांग भी करते हैं और मांसाहार तथा मांस व्यापार का भी विरोध करते प्रतीत होते हैं। वे बीफ खाने के विरोधी हैं। लेकिन बीफ का व्यापार तो नरेंद्र मोदी के शासन काल में ही काफी ऊंचाई तक बढ़ा है। बीफ के व्यापार में भी इनके नेता मुस्लिम नाम की कंपनी खोलकर लगे हैं। इसी तरह वे कभी-कभी प्रकृति प्रेम का दिखावा भी करते हैं। लेकिन इनसे पूछिये हसदेव जंगल को काटने के लिए किसने अडाणी को दिया? इसका विरोध कर रहे आदिवासियों पर लाठी और गोली किसकी सरकार बरसा रही है? पूरी दुनिया में प्रदुषण तो बड़े पूंजीपति ही फैलाते हैं। क्या ये पूंजीपतियों का इसके लिए विरोध करने की हिम्मत कर सकते हैं? जानवर, मुनष्य, पेड़, जंगल, पहाड़, धरती के अंदर की संपदा सभी प्रकृति के ही अंश और घटक हैं। अगर कोई प्रकृति प्रेमी है तो वह प्रकृति के सर्वोत्कृष्ट व सर्वोन्नत घटक मनुष्य से भी प्रेम करेगा। लेकिन ये तो नहीं करते। क्यों नहीं करते? अगर करते तब तो इन्हें इंसानियत के दुश्मन वर्गों और इंसानियत को खत्म करने वाली भौतिक परिस्थितियों – गैर-बराबरी, तानाशाही, श्रम की लूट, आदि जो लगातार बढ़ती ही जा रही है, को खत्म करने का बीड़ा उठाना चाहिए था। कम से कम ऐसा करने वालों का समर्थन करना करना चाहिए था। फिर ये गैर-बराबरी बढ़ाने वाले और श्रम व संपदा के लुटेरे एकाधिकारी पूंजीपतियों की चाकरी क्यों करते हैं, इनकी सरकार इन लुटेरे के पक्ष में क्यों खड़ी है? ये श्रम के लुटेरे पूंजीपतियों का दमन करने के बदले इन्हें संपत्ति का निर्माता क्यों कहते हैं जबकि संपत्ति तो श्रम करने वाले मजदूर पैदा करते हैं? इनमें तो मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए प्रेम और करूणा की किंचित मात्रा भी नहीं होती है। अगर ये प्रकृति प्रेमी होते तो ये इंसान और इंसानियत को धर्म के आधार पर बांटने का काम नहीं करते, अपितु मानवमुक्ति और प्रकृति की रक्षा में लगते।
कुछ मजदूर इस आधार पर फासीवादियों को भविष्योन्मुखी मानते हैं कि मोदी सरकार ने 2047 में विकसित भारत बनाने का लक्ष्य रखा है। मजदूर इससे प्रभावित पाये गये हैं। हम उनसे पूछना चाहते हैं, अभी तक भारत में जितना विकसित हुआ है उसमें उन्हें क्या मिला है कि वे 2047 के इंतजार में बैठे हैं? मजदूरों की तो बात ही छोड़ दीजिए, फासीवादी तो छोटी एवं मंझोली पूंजी (जैसे कि छोटे व्यापारी, कारखानेदार, छोटे भूस्वामी व किसान, आदि ) के भी हितैषी नहीं हैं। बड़ी पूंजी का हितैषी होते ही वे किसी और का हितैषी हो भी नहीं सकते हैं। अगर हम मान लें कि 2047 में भारत विकसित राष्ट्र हो जाएगा, तो वास्तव में क्या होगा? क्या मजदूर मजदूर नहीं रह जाएंगे? क्या पूंजी के छोटे मालिक बड़े मालिक हो जाएंगे? उल्टे हम पाएंगे कि समाज के अधिकांश दरमियानी तबके का संपत्तिहरण व स्वत्वहरण हो जाएगा। जो विकास होगा इन्हें उजाड़कर ही तो होगा। दरअसल यह जानना जरूरी है कि पूंजीवाद-साम्राज्यवाद में विकास का मतलब सबों का विकास नहीं होता है। विकास का अर्थ पूंजी का विकास (संकेद्रण) होता है। एकाधिकारी पूंजी छोटी पूंजी को निगलती है। यह अघोषित नियम हर पल काम करता है। यानी, पूंजीवादी विकास का मतलब पूंजीपति का मालामाल होना है तथा दूसरी तरफ अधिकांश आबादी का संपत्तिहरण और उनके बीच दारिद्रय का विस्तार है। सबों का विकास तो समाजीकरण के द्वारा ही, यानी समाजवाद में ही संभव है और इसके लिए पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का अंत एवं वर्तमान समाज का क्रांतिकारी रूपांतरण जरूरी है। ये फासीवादी इस तरह के रूपांतरण को रोकने के लिए ही शासन में लाए गये हैं। तो इनके भविष्योन्मुखी होने का क्या अर्थ है साफ हो जाना चाहिए। बाल्य व युवाकाल का पूंजीवाद उत्पादन पद्धति के रूप में शोषक पद्धति होते हुए भी समाज को आगे ले जाने में सक्षम था और इसलिए एक हद तक प्रगतिशील था, लेकिन आज का पूंजीवाद एकाधिकारी पूंजी के युग का पूंजीवाद है जो एक ऐसे दीर्घकालीन संकट में फंसा है जिससे निकलने की उम्मीद नहीं है। इसलिए राजनीतिक व सामाजिक तौर पर इसके भविष्योन्मुखी होने का आज सवाल ही पैदा नहीं होता है। वे वास्तव में प्रतिक्रियावाद के वाहक हैं और इसलिए पश्चगामी हैं। ‘भूतों’ की तरह उनके पांव पीछे की ओर मुड़े होते हैं। ये राम की बात क्यों करते हैं? इसलिए नहीं कि ये राम के तथाकथित महान पदचिन्हों पर चलना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि ये राजा और राजशाही को अपने दिल के करीब पाते हैं। स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा वाले पूंजीवाद के लिए जनतंत्र सबसे उपयोगी राजनीतिक खोल था और आज भी वे मजबूरी में इसमें रहने के लिए बाध्य हैं, जब तक कि इसके माध्यम से अपना आर्थिक वर्चस्व कायम रख्ने में सक्षम हो पा रहे हैं, लेकिन हमें लेनिन से सीखते हुए एक मिनट के लिए भी नहीं भूलना चाहिए कि पूंजी की जन्मजात प्रवृति राजशाही के साक्षात हथियारबंद संरक्षण में रहने की ही है। 22 जनवरी 2024 को अयोध्या राम मंदिर के उद्धाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी का भाषण याद कीजिए। वे मंच से रामराज्य और राम के विधान के आगमण और उसकी स्थापना की बात कर रहे थे, और उनके ठीक सामने बेठे कॉर्पोरेट पूंजीपति तालियां बजा रहे थे! जब पूंजी के लिए जनतांत्रिक तरीके से शासन करना, यानी सुपर मुनाफा प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है, तो वे बिना देरी किये ही एक तरह की एनिमल स्पिरिट से वशीभूत हो (राजशाही के फौजी संरक्षण में रहने की मूल जन्मजात प्रवृत्ति के वशीभूत हो) जनतंत्र को छोड़ निरंकुशता का वरण कर लेती है।
मजदूर साथियो!
फासीवाद के खिलाफ मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी लड़ाई का मर्म मजदूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन की इस बात से समझा जा सकता है कि मजदूर वर्ग की क्रांति का पहला कदम जनवाद (जनतंत्र) की लड़ाई को जीतने के लिए सर्वहारा वर्ग को शासक वर्ग के पद पर बैठाना है। यानी जनवाद की लड़ाई को जीतना मजदूर वर्ग की मुक्ति की लड़ाई की जीत की, और इसलिए फासीवाद की मुकम्मल पराजय की भी, शर्त है। यह चीज उसकी सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। आज हम क्या पाते हैं? हम पाते हैं कि निकट भविष्य में फासीवाद की विजय की संभावना ने भारत में ही नहीं पूरे विश्व में जनवाद की लड़ाई को जीतने का प्रश्न मजदूर वर्ग का फौरी राजनीतिक कार्यभार बना दिया है। जहां तक बुर्जुआ जनतंत्र की रक्षा करने का सवाल है, यह भी मजदूर वर्ग का एक महत्वपूर्ण कार्यभार है, क्योंकि बुर्जुआ जनतंत्र औपचारिक राजनीतिक बराबरी देने के कारण मजदूर वर्ग के संघर्ष के लिए एक खुला स्पेस – तमाम तरह के प्राक-पूंजीवादी झाड़-झंखाड़ों से मुक्त वर्ग-संघर्ष का एक खुला मैदान – प्रदान कराता है। इसलिए आज जब फासीवादी ताकतें बुर्जुआ जनतंत्र पर प्राणघातक हमला कर रही हैं तो इसे बचाना जरूरी है, गोकि इसे बचाना मजदूर वर्ग का एकमात्र तथा दूरगामी लक्ष्य नहीं हो सकता है। फासीवाद के संदर्भ में जहां बुर्जुआ जनतंत्र की रक्षा करना शामिल है, वहीं सबसे प्रमुख कार्यभार जनवाद की लड़ाई को निर्णायक रूप से जीतने के लिए सर्वहारा वर्ग को, इसके सहयोगियों सहित, शासक वर्ग के पद पर बैठाना है। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि फासीवाद से बुर्जुआ जनतंत्र की रक्षा के संदर्भ में भी मजदूर वर्ग का काम एकाधिकारी पूंजी की मातहत विपक्षी बुर्जुआ पार्टियों के पीछे-पीछे चलना और अपने लक्ष्य को बुर्जुआ जनतंत्र को बचाने मात्र तक सीमित करना कतई नहीं हो सकता है। ठोस रूप में कहें, तो मजदूर वर्ग का मुख्य काम एकाधिकारी पूंजी द्वारा बाधित, सीमित एवं उत्तरोत्तर पंगु बना दिये गये बुर्जुआ जनतंत्र की तुलना में पूंजी की बादशाहत से मुक्त जनतंत्र, जो निस्संदेह ज्यादा विस्तारित, गहरा तथा वास्तविक होगा, के लिए लड़ना और अग्रिम मोर्चे पर खड़े तमाम फासीवाद विरोधी ताकतों को एक लड़ाकू केंद्र से जोड़ते हुए एक ऐसी फौरी क्रांतिकारी सरकार के गठन के लिए आहूत संघर्ष में उनका नेतृत्व करना है जिसका न्यूनतम कार्यक्रम फासीवाद का समूल नाश हो ताकि सर्वप्रथम फासीवाद के खतरे से देश, सामज व मानवजाति को बचाया जा सके। फासीवाद से जनतंत्र की रक्षा करने और जनवाद की लड़ाई जीतने, दोनों के संदर्भ में मजदूर वर्ग के समक्ष यही सबसे फौरी व ठोस और स्पष्ट कार्यभार है।
फासीवाद के खिलाफ खड़ी शक्तियों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यही है कि बुजुआ विपक्ष के साथ जाने के अलावा किसी अन्य तरीके के विकल्प, जो ठोस और स्पष्ट होने के साथ-साथ मौजूदा गाढ़े वक्त को एड्रेस करते हुए फौरी तौर पर हाथ में लेने योग्य हो, के बारे में स्पष्टता नहीं है। दूसरी तरफ, भाजपा को हटाने में लगी विपक्षी पार्टियां क्या हैं? वे भी एकाधिकारी पूंजी के हितों से बंधी पार्टियां ही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि उनके एजेंडे में हिंदू-राष्ट्र बनाने का लक्ष्य नत्थी नहीं है। लेकिन यह भी सही है कि वे स्वयं जनता को बांटने की विधि से ही चुनाव जीतती हैं। चाहे जिसकी भी सरकार हो, न तो फासीवादियों पर नकेल लग सकता है और न ही हमले रुकने का नाम लेते हैं। यहां तक कि विपक्षी सरकारें आम जन समस्याओं का मामूली हल भी नहीं देती हैं। इसलिए निराश जनता को थक हार कर, क्रांतिकारी विकल्प के अभाव में, एक बार फिर से फासीवादियों के शरण में ही जाना पड़ता है। भ्रम की सही, कम से कम उन्हें फासीवादियों के साथ रहने में धार्मिक व राष्ट्रवादी गर्व का अहसास करने की अनुभूति तो मिलती ही है। आखिर विपक्षी ताकतें भी तो जाति और धर्म की जोड़तोड़ की छुपी राजनीति ही तो करती हैं। इसलिए विपक्षियों के पास तो गर्व करने लायक अलग से जब कुछ भी नहीं है, तो फिर जनता के पास फासीवादियों के साथ ही रहने के अलावा रास्ता क्या बचता है। कहने का अर्थ है, एक फौरी क्रांतिकारी ठोस नारे की जरूरत है जिसके इर्द-गिर्द क्रांतिकारी भावना ओस की बूंदों की तरह अमूत से मूर्त रूप ले सके। इसके लिए जरूरी है कि फासीवादी हमलों की नीरस तरीके से फेहरिस्त गिनाने, जिसे मजदूर वर्ग हर दिन वैसे ही दोहराता और झेलता रहता है, के बदले इन हमला करने वाली व्यवस्था को ठिकाने लगाने हेतु ठोस नारे पेश किया जाए। इसके अतिरिक्त मजदूर वर्ग को न सिर्फ अपना संघर्ष तेज करना चाहिए अपितु जनता के अन्य हिस्सों के संघर्षों के साथ एकजुट भी होना चाहिए और उसकी अगुआई करनी चाहिए। फासीवाद के खिलाफ जन उभार का पैदा होना लाजिमी है। फासीवाद पर जीत भी होकर रहेगी। धरती न्याय और प्रगति के लिए लड़ने वाले वीरों से खाली नहीं हुई है। मुख्य बात है मजदूर वर्ग ऊपर और नीचे, दोनो छोर से ठोस नारे पेश करे। फासीवाद के खिलाफ सिर्फ नीचे से दवाब बनाने का तरीका ऐसा है कि इसका फायदा एकाधिकारी पूंजी से ही जुड़े दूसरे राजनीतिक दल उठा ले जाते हैं और आगे भी ले जाएंगे। दूसरी तरफ, मजदूर वर्ग को यह बात अच्छे से समझ लेनी चाहिए कि अगर वह फासीवाद पराजित नहीं करता है तो उसे और भी बर्बर हमले झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए।
अंत में, हम यह कहना चाहते हैं कि मजदूर वर्ग सामाजिक मुक्ति का, और अंततोगत्वा मानव मुक्ति का झंडाबरदार है। इस अर्थ में मजदूर वर्ग की यात्रा बुर्जुआ क्षितिज के पार उस सुदूर लक्ष्य की यात्रा है जहां एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के बीच के सारे भेद, प्राकृतिक भेदों को छोड़कर, तथा एक मनुष्य के द्वारा दूसरे के शोषण के तमाम रूप मिट जाएंगे। मजदूर वर्ग इस लक्ष्य को सामने रखे बिना अपनी स्थाई मुक्ति का पथ प्रशस्त नहीं कर सकता है। हम यहां देख सकते हैं कि मजदूर वर्ग की फासीवाद से मुक्ति की लड़ाई इसकी मुक्ति की यात्रा का महज एक छोर है। यहां से शुरू होने वाली इसकी यात्रा का अंत तभी होगा जब हम अधिकारों के मामले में बुर्जुआ क्षितिज को पार कर जाएंगे। तब हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार समाज को देगा और अपनी जरूरत के अनुसार ले लेगा। यह इस यात्रा का अंतिम ठौर होगा, जब प्रकृति का सर्वोत्कृष्ट घटक मनुष्य प्रकृति के साथ सहोदराना संबंध में रहते हुए तमाम तरह के दोयम पहचानों (वर्ग, जाति, धर्म, क्षेत्र,आदि) से पूरी तरह से मुक्त हो एक संपूर्ण मनुष्य के रूप में प्रकट होगा। यही मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है, जिसके मार्ग में फासीवाद आज सबसे बड़ी बाधा बन कर आ खड़ा हुआ है। आइए, मजदूर वर्ग की जीत पर पूर्ण भरोसे के साथ इस बाधा को दूर करने के संघर्ष के लिए कमर कसें।
[आईएफटीयू (सर्वहारा) का फासीवाद पर आगामी पर्चे का मसविदा।]