‘सरमाया-दारी’ (नज़्म) – मजाज़

‘सरमाया-दारी’ (नज़्म) – मजाज़

January 3, 2025 0 By Yatharth

प्रगतिशील कवि असरार-उल-हक़ ‘मजाज़’ (19 अक्टूबर 1911 – 5 दिसंबर 1955) की याद में उनकी नज़्म

कलेजा फुंक रहा है और जबां कहने से आरी है
बताउं क्या तुम्हें क्या चीज ये सरमाया-दारी है

ये वो आंधी है जिस की रौ में मुफ्लिस का नशेमन है
ये वो बिजली है जिस की जद में हर दहकां का खिर्मन है

ये अपने हाथ में तहजीब का फानूस लेती है
मगर मजदूर के तन से लहू तक चूस लेती है

ये इंसानी बला खुद खून-ए-इंसानी की गाहक है
वबा से बढ़ के मोहलिक मौत से बढ़ कर भयानक है

न देखे हैं बुरे इस ने न परखे हैं भले इस ने
शिकंजों में जकड़ कर घूंट डाले हैं गले इस ने

बला-ए-बे-अमां है तौर ही इस के निराले हैं
कि इस ने गैज में उजड़े हुए घर फूंक डाले हैं

कयामत इस के गम्जे जान-लेवा हैं सितम इस के
हमेशा सीन-ए-मुफ्लिस पे पड़ते हैं कदम इस के

कहीं ये खूं से फर्द-ए-माल-ओ-जर तहरीर करती है
कहीं ये हड्डियां चुन कर महल ता’मीर करती है

गरीबों का मुकद्दस खून पी पी कर बहकती है
महल में नाचती है रक्स-गाहों में थिरकती है

ब-जाहिर चंद फिरऔ’नों का दामन भर दिया इस ने
मगर गुल-बाग-ए-आलम को जहन्नम कर दिया इस ने

दरिंदे सर झुका देते हैं लोहा मान कर इस का
नजर सफ्फाक-तर इस की नफस मकरुह-तर इस का

जिधर चलती है बर्बादी के सामां साथ चलते हैं
नहूसत हम-सफर होती है शैतां साथ चलते हैं

ये अक्सर लूट कर मासूम इंसानों को राहों में
खुदा के जमजमे गाती है छुप कर खानकाहों में

ये डाइन है भरी गोदों से बच्चे छीन लेती है
ये गैरत छीन लेती है हमिय्यत छीन लेती है
ये इंसानों से इंसानों की फितरत छीन लेती है

ये आशोब-ए-हलाकत फित्ना-ए-इस्कंदर-ओ-दारा
जमीं के देवताओं की कनीज-ए-अंजुमन-आरा

हमेशा खून पी कर हड्डियों के रथ में चलती है
जमाना चीख उठता है ये जब पहलू बदलती है

गरजती गूंजती ये आज भी मैदां में आती है
मगर बद-मस्त है हर हर कदम पर लड़खड़ाती है

मुबारक दोस्तो लबरेज है अब इस का पैमाना
उठाओ आंधियां कमजोर है बुनियाद-ए-काशाना