अजय सिन्हा | ‘यथार्थ’ पत्रिका (जनवरी-मार्च 2025)
आम तौर पर 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार के दौर की आर्थिक नीतियों पर चर्चा होती है, तो प्राय: तत्कालीन भारतीय अर्थव्यवस्था के वास्तविक कार्यचालन (actual working) को उजागर करने पर हमारा ध्यान न के बराबर होता है। ध्यान महज नीतियों के अच्छे या बुरे होने पर या फिर उन्हें अच्छा या बुरा साबित करने पर टिक जाता है। इसलिए हम यहां इन आर्थिक नीतियों पर फिर से बात करना शुरू कर रहे हैं तो हमारी कोशिश है कि हमारा ध्यान मुख्यत: तत्कालीन भारतीय अर्थव्यवस्था के वास्तविक कार्यचालन पर केन्द्रित रहे। तभी हम यह समझ पाएंगे कि भारत में पूंजीवादी विकास के एक विशेष मोड़ पर इन नई आर्थिक नीतियों की आवश्यकता क्यों पैदा हुई और देश के पूंजीपति वर्ग को नेहरू-युग की आर्थिक नीतियों को क्यों त्याग करना पड़ा। जब हम इस दृष्टि से विचार करते हैं, तो हम पाते हैं कि नेहरू-युग की आर्थिक नीतियां 1990 के दशक के आगमन के पहले ही पूंजीपति वर्ग के उस समय के हितों को आगे बढ़ाने की दृष्टि से बेकार हो गईं थीं और बात यहां तक पहुंच गई थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह से संकटग्रस्त हो चुकी थी जिसका प्रस्फुटन भुगतान संतुलन के संकट (BoP Crisis) के रूप में हुआ था। दूसरे शब्दों में, भारत में अगले चरण के पूंजीवादी विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने में नेहरू-युग की नीतियां तब पूरी तरह विफल साबित हो चुकी थीं। इसलिए हम जब इस लेख में नई आर्थिक नीतियों पर चर्चा करेंगे, तो हम वास्तव में बाह्य आवरण (नीतियों) से परे भारतीय अर्थव्यवस्था के सार तक पहुंचने की कोशिश करेंगे, यानी ‘आजादी’ के बाद से लेकर अब तक के भारत के पूंजीवादी उत्पादन और उत्पादन प्रणाली के वास्तविक कार्यचालन और उनको तय करने वाले वास्तविक कारकों तक पहुंचने का प्रयास करेंगे। हमारा यही प्रयास नई आर्थिक नीतियों पर हमारे इस लेख का सार है। इस लेख को निर्देशित करने वाली मुख्य बात यही है।
दूसरी बात यह है कि हमारा यह लेख उस दृष्टिकोण के विरुद्ध संघर्ष करता है जो नई आर्थिक नीतियों को महज साम्राज्यवादी देशों द्वारा बाह्य रूप से थोपी गई आर्थिक नीति मानता है। यह दृष्टिकोण कहता और मानता है कि इन नीतियों को भारतीय पूंजीपति वर्ग के ऊपर बलपूर्वक लादा गया और इनमें भारतीय पूंजीपति वर्ग की प्रेरणा और उनको लाभ पहुंचाने वाला कोई तत्व या पक्ष मौजूद नहीं है। हम इस बात से इनकार नहीं करते कि इन नीतियों की शुरुआत अलग-अलग नामों से 1980 के दशक से ही मुख्य रूप से साम्राज्यवादी देशोंA द्वारा और उनकी संस्थाओं की देख-रेख में ही की गई। हम इससे भी इनकार नहीं करते कि साम्राज्यवादी देशों ने ही इन नीतियों को विश्व स्तर पर छल-बल से और दबाव डालकर तथा विकासशील देशों के कर्ज-संकट में फंसे होने का फायदा उठाते हुए लागू करने का बीड़ा उठाए। लेकिन इससे यह समझ लेना कि इन नीतियों में भारतीय पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने वाली कोई बात नहीं है या उन्होंने भारतीय पूंजीपतियों के हितों की पूरी तरह से अवहेलना करके या उनकी परवाह किये बिना ही इन नीतियों को बनाया और लागू किया, तो यह एक बेहद ही मूर्खतापूर्ण बात होगी। यह सोंच द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत बने अंतर्राष्ट्रीय हालात में तेजी से विकास करे रहे देशों, विशेष रूप से भारत व इस जैसे अन्य देशों, में हुए पूंजीवादी विकास के इतिहास के बारे में अज्ञानता को दर्शाती है।
दूसरी तरफ, इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि भारत की पूंजीवादी सरकार ने भारत में पूंजी के आगे विस्तार और विकास की ऐतिहासिक जरूरतों के आधार पर नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत की, लेकिन वहीं इसमें भी कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ऐसा उसने निश्चित रूप से विश्व पूंजीवाद की एक इकाई के रूप में, विश्वपूंजीवाद के एक हिस्सेदार देश के रूप में और पूंजीवादी-साम्राज्यवादी वैश्विक ढांचे की जरूरतों के अनुरूप तथा साम्राज्यवादी थिंक टैंकों से मदद लेते हुए व उसके लय-ताल में ही की। इसके अलावा भारत के पूंजीपति वर्ग के पास रास्ता भी तो नहीं था, खासकर तब जब पूंजीवादी विकास को और भी ऊंचे स्तर (एकाधिकारी चरण, जो स्वाभाविक है) पर ले जाना था। दरअसल दिक्कत यह है कि कुछ लोग यह सोंच लेते हैं कि भारत का पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवाद के उच्च मार्ग से अलग हटकर कोई और रास्ता ले सकता था और फिर वे इस चश्में से नई आर्थिक नीतियों का मूल्यांकन और विश्लेषण करना शुरू कर देते हैं जिससे वे एक निम्न-पूंजीवादी संकीर्णतावादी या बचकानेपन से भरे विमर्श और राष्ट्रीयतावदी भावुकता के दलदल में जा फंसते हैं। यह सच है कि साम्राज्यवाद के युग में पूंजीवादी विकास के राजनीतिक अर्थशास्त्र पर होने वाली चर्चाओं में आम तौर पर यही भावुकता हावी रहती है।
ऐसा दृष्टिकोण मुख्य रूप से आर्थिक विश्लेषण के आधार में उसके सार के बदले ऊपरी तौर पर यानी महज नीतियों में हो रहे परिवर्तन को रखने की वजह से पैदा लेता है। इसमें फंसे लोग एक ऐसे पूंजीवादी देश की कल्पना करते हैं जो साम्राज्यवाद के साथ हाथ मिलाकर नहीं चलेगा या समझौता नहीं करेगा और न ही उसकी नीतियों का पालन करेगा जो उनके खुद के लिए भी फायदेमंद हैं। वे कहीं दिल या दिमाग में यह भी माने बैठे होते हैं कि कोई ऐसा पूंजीवादी विकास भी हो सकता है जो मेहनतकशों और आम जनता के विकास के लिए होगा या विकास से जुड़ी उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने वाला होगा। जबकि हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यह एक निर्विवाद नियम है कि बुर्जुआ व्यवस्था के तहत पूंजीवादी विकास केवल शासक पूंजीपति वर्ग के लिए ही होता है। दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद में विकास का अर्थ पूंजी का विकास होता है न कि आम लोगों व प्रत्यक्ष उत्पादकों का। इसलिए ही बुर्जुआ सरकारों को अपने शासक पूंजीपति वर्ग के हित व उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए साम्राज्यवाद के साथ समझौता करने में कोई झिझक नहीं होती है। हालांकि टकराव भी होता है जो स्वाभाविक है। इसमें मेहनतकश जनता के लिए लाभ, यदि कोई होता है, तो केवल इसका उपोत्पाद या सह-उत्पाद के रूप में ही होता है। इसलिए साम्राज्यवाद के साथ समझौता करने की प्रवृत्ति से मुक्त, खासकर एक मजबूत विश्वव्यापी समाजवादी खेमे की गैर-मौजूदगी में, पूंजीवादी देश की कल्पना करना शुद्ध रूप से निम्न बुर्जुआ अभिलाषी (wishful) सोच है। लेकिन इन बातों के उजागर होने की शर्त है कि हम नई आर्थिक नीतियों की आलोचना करते वक्त इन नीतियों की सतह के नीचे उतर कर तत्कालीन नेहरू-युग के पूंजीवादी विकास को आगे बढ़ाने वाली अर्थव्यवस्था के वास्तविक कार्यचालन का विश्लेषण करने में सफल होंगे। तभी हम समझ सकेंगे कि वास्तव में (भारतीय) अर्थव्यवस्था के वास्तविक कार्यचालन में क्या हुआ या हो रहा था जिसने आर्थिक नीतियों में बदलाव को आवश्यक बना दिया। मार्क्स के शब्दों में कहें तो हमारी व्याख्या का प्रस्थान बिंदु उत्पादन और पुनरुत्पादन होना चाहिए और उत्पादन के विरोधाभासी पहलुओं के संबंध में ही नहीं उसके अन्य चरणों (वितरण, आदि) की व्याख्या करने को लेकर भी उत्पादन के चरण को निर्णायक मानकर चलना चाहिए।B
तीसरी बात यह है कि हम यह नहीं मानते हैं कि नई आर्थिक नीतियों का अर्थ समाजवाद का परित्याग या भारतीय पूंजीवाद के समाजवादी चरित्र का परित्याग (jettisoning) है। नई आर्थिक नीतियों ने महज यह किया कि इसने नेहरू के समय व युग की पूंजीवादी विकास की नीतियों को हटाकर खुद उसकी जगह ले ली और ऐसा सिर्फ इसलिए कि ऐसा किये बिना पूंजीवादी विकास को आगे ले जाना असंभव हो चुका था। ये ऐसी नीतियां हैं जो नए (विकसित) भारतीय पूंजीवाद की जरूरतों के अनुकूल थीं और हैं, इसके विकास को उच्चतर स्तर पर ले जाने के लिए जरूरी हो गईं थीं या हो गईं हैं।
हम पाते हैं कि पिछली सदी के अस्सी के दशक में, पूंजीवादी विकास का स्तर उद्योग और कृषि दोनों में ऐसे स्तर पर पहुंच गया थाC कि वह पुरानी जूतियों (नीतियों) में नहीं दौड़ सकता था। उसके पैर (विकास) उन पुराने जूतियों (नीतियों) से बड़े हो चुके थे। उसे नई जूतियों की जरूरत थी। मैं यहां इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि नेहरू-युग के भारतीय पूंजीवाद के समाजवादी होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है, क्योंकि इसमें कोई समाजवादी चरित्र या तत्व नहीं था, और हम इस बात को आगे की व्याख्या के लिए हाथ में लेंगे कि भारतीय संशोधनवादी वामपंथियों को ऐसा क्यों लगता है या लगता रहा है। फिर भी, फिलहाल हम इतना कह सकते हैं कि उन्हें ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि उन्होंने उत्पादन और पुनरुत्पादन प्रक्रिया के उत्पादन स्थल (production site) पर क्या हो रहा है उसे नजरअंदाज कर दिया, जहां लूट की एक व्यवस्था मुकम्मल तौर पर और विशुद्ध रूप से पूंजीपति वर्ग को विकसित करने और पूंजी की जड़ों को मजबूत करने के लिए ही सब कुछ हो रहा था या किया जा रहा था। लूट की व्यवस्था ने ऊपर से लेकर नीचे तक, नौकरशाही से लेकर अधिकारियों-कर्मचारियों एवं ठेकेदारों आदि के रूप में और उनके बीच में एक बुर्जुआ वर्ग का निर्माण किया और स्वाभाविक रूप से इस विकास के उपोत्पाद या सह-उत्पाद के रूप में कुछ लाभ मेहनतकशों को भी मिले। लेकिन संशोधनवादियों ने चीजों को निम्न बुर्जुआ चश्मे से देखा और सोचा कि नेहरू-महालैनोबिस नीति द्वारा स्थापित बुर्जुआ राज्य की नियंत्रणशुदा प्रणाली समाजवाद है। स्वाभाविक रूप से, जब उन्होंने नई आर्थिक नीतियों को देखा तो उनमें हाहाकार का माहौल पैदा हो गया मानो नई आर्थिक नीतियों ने जिसे प्रतिस्थापित किया वो समाजवाद जैसी कोई बेहद कीमती चीज थी। विडंबना यह है कि वे (संशोधनवादी) राज्यों में जहां भी सत्ता में थे, उन्होंने वही किया जो इन नीतियों को लाने वालों ने किया या कर रहे थे। क्यों? क्योंकि बुर्जुआ व्यवस्था के आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में सत्ता में होने के नाते, उन्हें उस समय वही करना था जो पूंजी के विकास के लिए सबसे उपयुक्त हो। उन्हें नई आर्थिक नीतियों को लागू करना था और उन्होंने घुमाफिराकर ठीक वही किया। इसलिए उभरते भारतीय पूंजीवाद के नेहरूवादी मॉडल में समाजवाद महज एक शब्द या एक आवरण भर था। हम इसे छलावरण (camouflage) कह सकते हैं। इसलिए यहां यह समझना एक काम है कि इसकी जरूरत क्यों पड़ी और यह आवरण वास्तव में समाजवाद से ठीक-ठीक किस तरह मेल खाता था जिससे ये सारा भ्रम पैदा हुआ। हम इस पर भी आगे विस्तार से बात करेंगे। फिर भी, इतना तो अभी कहा ही जा सकता है कि यह विचलन वितरण व वितरण संबंधी नीतियों के पहलू पर जोर देने और उत्पादन और पुनरुत्पादन के पहलुओं को नजरअंदाज करने से पैदा हुआ जो सच कहें तो मार्क्सवादियों के बीच फैले कीन्सवाद के प्रभाव का नतीजा था और वामपंथी सोच पर कल भी हावी था तथा आज क्रांतिकारी हिस्सों व हलकों में भी जाने या अनजाने बहुत हद तक हावी है।
इससे एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि अर्थव्यवस्था की बुर्जुआ प्रणाली मजदूरों-मेहनतकशों के गुस्से से बच गयी, उनके हमलों के निशाने पर पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली नहीं आ पाई, और सारा ध्यान केवल या मुख्य रूप से इसके वितरण के पहलुओं पर ही केंद्रित हो गया। इसलिए चारो तरफ भ्रम का जाल फैल गया और मेहतनकशों ने उत्पादन की व्यवस्था को बदलने का सवाल अपने दिल-दिमाग से निकाल दिया और इसे पूरी तरह से छोड़ दिया, और एकमात्र वितरण की नीतियों पर जोर दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि संशोधनवादियों ने इसे चुनाव में जीत और इसी पूंजीवादी व्यवस्था में ‘कम्युनस्टि’ सरकार या ‘वाम’ सरकार बनाने के लक्ष्य से जोड़ दिया। परिणामस्वरूप क्रांति या वर्ग-संघर्ष पीछे चला गया। वर्ग-सहयोग की दिशा व बात हावी हो गई। हम बंगाल, केरल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में दशकों तक कायम रहे ‘वाम’ सरकारों के कृत्यों-कुकृत्यों को देख चुके हैं जिसका कुल निचोड़ यह हुआ कि मजदूर क्रांति की बात ही भूल गये और इसकी सजा के रूप में फासीवाद के उभार को झेल रहे हैं।
दिक्कत यह है कि फासीवाद के दिनोंदिन खुले रूप लेते जा रहे हमलों से लड़ने में भी वही संशोधनवादी सोंच हावी है, जबकि हम देख रहे हैं कि मुट्ठी भर बड़े पूंजीपतियों के हाथों में धन व पूंजी का विशाल और अविश्वसनीय संकेन्द्रण हो चुका है। जाहिर है, इसे ही और आगे बढ़ाने के लिए फासीवाद का आगमन हुआ है। यहां कींसवादी-संशोधनवादी सोंच इस रूप में हावी है कि कुछ क्रांतिकारी कम्युनिस्ट फासीवाद का विकल्प न्यू डील में देखते या पाते हैं। वे बहसों में यह कहते पाये जाते हैं कि विश्वपूंजीवाद का संकट फासीवाद को ही नहीं न्यू डील (अमेरिका में 1933-34 में राष्ट्रपति फयोदोर रूजवेल्ट द्वारा कींसवाद के अनुसरण के फलस्वरूप अपनायी गई आर्थिक नीतियां) को भी जन्म देता है। ऐसा वे कब और क्यों कहते हैं? ऐसा वे फासीवाद विरोधी रणनीति पर तथा फासीवादी विरोधी पर्चे तैयार करने के वक्त होने वाली बहसों में करते हैं। जहां तक ‘क्यों’ का सवाल है तो ऐसा वे एक तो विश्वपूंजीवाद के अंतहीन संकट को और दूसरा, वे इस संकट से नाभिनालबद्ध फासीवाद के खतरे को कमतर बताने के लिए और इसके साथ-साथ यह कहने के लिए भी करते हैं कि अगर फासीवाद का खतरा संकटजनित है भी तो इसे रोकने के लिए क्रांतिकारी संघर्ष, जो फासीवाद विरोधी कार्यक्रम आधारित किसी अंतवर्ती चरित्र वाली क्रांतिकारी सरकार में अपना ठोर पा सकता है, से ज्यादा न्यू डील वाली सरकार (जैसा कि राहुल गांधी की नीतियों में कुछ-कुछ दिखता है) का महत्व है। इस तरह हम देख सकते हैं कि किस तरह यहां आकर संशोधनवादियों और तथाकथित क्रांतिकारियों के बीच का एक अंतिम और बहुत महत्वपूर्ण भेद भी पूरी तरह से भेद मिट जता है। (आगे जारी…)
एंडनोट –
A. पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों, विशेषकर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा।
B. देखें ‘राजनीतिक अर्थव्यवस्था की आलोचना में योगदान’ का परिशिष्ट, 1859.
C. आदित्य मुखर्जी लिखित पुस्तक ‘नेहरूज़ इंडिया’ (Nehru’s India 2024) देखें। हालांकि भारत में हुए पूंजीवादी विकास के आंकड़ों के लिए स्रोतों की कमी नहीं है, फिर भी यह पुस्तक सबसे नई है और संक्षेप में कई तरह के आंकड़ों को पूरी सफाई से और बहुत ही बेबाकी से पूंजीवादी दृष्टिकोण से पेश करती है। वे लिखते हैं – “पहली तीन पंचवर्षीय योजनाओं (1951-65) के दौरान, भारत में उद्योग 7.1 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ा। यह 19वीं सदी की विऔद्योगीकरण प्रक्रिया और 1914-47 के बीच धीमी औद्योगिक वृद्धि से बहुत दूर था। यह 1951 और 1969 के बीच औद्योगिक उत्पादन के समग्र सूचकांक में तीन गुनी वृद्धि, उपभोक्ता वस्तु उद्योगों में 70 प्रतिशत वृद्धि, मध्यवर्ती वस्तुओं के उत्पादन में चौगुनी वृद्धि और पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में दस गुनी वृद्धि का परिणाम थी। … औद्योगिक विकास के इस पैटर्न ने एक संरचनात्मक परिवर्तन को जन्म दिया… ऐसी स्थिति से, जहां भारत में कोई भी पूंजी निवेश करने के लिए वस्तुतः संपूर्ण उपकरण (90 प्रतिशत) आयात करना पड़ता था, उपकरण के रूप में कुल निश्चित निवेश में आयातित उपकरणों का हिस्सा 1960 में घटकर 43 प्रतिशत और 1974 में मात्र 9 प्रतिशत रह गया जबकि इस अवधि (1960-74) में भारत की अर्थव्यवस्था लगभग ढाई गुना बढ़ी।”
मुखर्जी बिल्कुल सही फरमाते हैं कि “यह औपनिवेशिक ढांचे की असंरचना (un-structuring) थी जिसने बाद में भारत को वैश्वीकरण की प्रक्रिया में भाग लेने के योग्य बनाया और इससे उसे काफी लाभ हुआ… चूंकि स्वतंत्रता के समय भारत के पास पूंजीगत माल उद्योगों (कैपिटल गुड्स इंडस्ट्रीज) के विकास के विशाल कार्य को करने के लिए पर्याप्त रूप से बड़ा स्वदेशी निजी क्षेत्र नहीं था, इसलिए एकमात्र अन्य विकल्प था सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से इसे विकसित करना… सार्वजनिक क्षेत्र को स्पष्ट रूप से, व्यापक राय से जिसमें पूंजीपतियों और वामपंथियों की राय शामिल थी, विदेशी पूंजी प्रभुत्व के विकल्प के रूप में देखा गया था। सार्वजनिक क्षेत्र ने जल्द ही भारत में औद्योगिक और ढांचागत परिदृश्य को बदल दिया। नेहरू के समय में, राउरकेला, भिलाई, दुर्गापुर और बोकारो में चार प्रमुख इस्पात संयंत्र सार्वजनिक क्षेत्र में आये। बड़ी संख्या में पूंजीगत माल उद्योग (कैपिटल गुड्स इंडस्ट्रीज), ढांचागत परियोजनाएं और अन्य क्षेत्र, जिनमें बड़े निवेश की आवश्यकता होती है और जिन्हें विकसित करना उस समय के भारतीय निजी क्षेत्र के बस में नहीं था, सार्वजनिक क्षेत्र में शुरू किए गए। उदाहरण के रूप में इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज, भाकरा डैम, दामोदर वैली कारपोरेशन और हीराकुद डैम 1947-48 में ही शुरू हो गए थे; हिंदुस्तान मशीन टूल्स (एचएमटी), भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, हिंदुस्तान शिपयार्ड, भारत पेट्रोलियम, हेवी इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स, हिंदुस्तान इंसेक्टिसाइड्स, नागार्जुन सागर डैम, नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन 1950 के दशक में शुरू किए गए थे और नेशनल बिल्डिंग एंड कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन, इंडियन ड्रग्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड, फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन ऑफ इंडिया, शिपिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, भारत अर्थ मूवर्स 1960 के दशक के प्रारंभ में शुरू किए गए थे। यह बताना महत्वपूर्ण है कि नेहरू के समय में ये सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम घाटे में चलने वाले ‘सफेद हाथी’ नहीं थे जो राष्ट्रीय संसाधनों पर बोझ बन कर काम कर रहे थे, जो कि उनमें से कुछ बाद के दशकों में बन गए। इसके विपरीत, उन्होंने महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता बनाने के अलावा भारत में संसाधन जुटाने में भी योगदान दिया। 1950-51 से 1964-65 तक नेहरूवादी काल में सार्वजनिक क्षेत्र की बचत निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र की तुलना में काफी अधिक थी। नेहरू 1961 में दूसरे एचएमटी कारखाने का उद्घाटन करते हुए गर्व से घोषणा कर सकते थे कि ‘यह कारखाना पुरानी हिंदुस्तान मशीन टूल्स फैक्ट्री के मुनाफे या अधिशेष से बनाया गया है।’ आज के नवउदारवादी जो अंधाधुंध निजीकरण पर जोर देते हैं, वे इस पहलू को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हैं। स्वदेशी निवेश करने के लिए विदेशी पूंजी और तकनीक पर निर्भरता कम करना देश की संप्रभुता हासिल करने और उसे बरकरार रखने का एक तरीका था, इसके साथ ही अन्य रणनीतियां भी अपनाई गईं। भारत ने अपने विदेशी व्यापार में विविधता लाने की एक सोची-समझी रणनीति अपनाई ताकि किसी एक देश या देशों के समूह पर उसकी निर्भरता कम हो जाए। नतीजतन, विदेशी देशों के साथ व्यापार का भौगोलिक संकेन्द्रण सूचकांक (ज्योग्राफिकल कंसंट्रेशन इंडेक्स या जीसीआई) तेजी से गिरा। भारत के निर्यात का जीसीआई 1947 में 0.69 से घटकर 1975 में 0.22 हो गया। आयात के मामले में भी जीसीआई में इसी तरह की गिरावट आई। गौरतलब है कि जीसीआई में गिरावट का नतीजा यह हुआ कि पश्चिम के महानगरीय देशों की हिस्सेदारी, जो पहले भारत के व्यापार पर हावी थी, में तेजी से गिरावट आई। उदाहरण के लिए, भारत के निर्यात में यूके और यूएस की हिस्सेदारी, जो 1947 में 45 प्रतिशत थी, आधे से भी अधिक घट गई, और 1977 तक यह केवल 20 प्रतिशत रह गई। यह आंशिक रूप से समाजवादी ब्लॉक (जिसने वस्तु विनिमय और रुपया व्यापार की अनुमति देकर भारत को उस समय बचाया जब वह विदेशी मुद्रा की अत्यधिक कमी से जूझ रहा था) और अन्य अविकसित देशों के साथ भारत के व्यापार में वृद्धि के कारण हासिल हुआ।”
इससे यह भी पता चलता है कि भारत का उपरोक्त पूंजीवादी विकास साम्राज्यवाद पर निर्भरता को कम करने के लक्ष्य को दृष्टि में रखकर जरूर हुआ लेकिन यह साम्राज्यवाद के उच्च मार्ग पर चलकर और उसके सामान्य वातावरण में ही हुआ व हो सकता था, किसी और रास्ते से नहीं। आदित्य मुखर्जी तीर्थंकर रॉय और मेघनाथ साहा जैसे नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों की आलोचना करते हुए आगे लिखते हैं – “उनके आंकलन में नेहरूवादी काल में औपनिवेशिक काल की तुलना में विकास के सभी संकेतकों, प्रति व्यक्ति जीडीपी, उद्योग, कृषि, बचत, निवेश या घरेलू पूंजी निर्माण में हुई भारी वृद्धि की अनदेखी की गई है। साथ ही, वे इस तथ्य की भी अनदेखी करते हैं कि नेहरू के समय भारत में विकास के पैरामीटर ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, चीन और जापान सहित विकास के समान चरण में दुनिया के अन्य देशों की तुलना में बेहद अनुकूल थे। हालांकि मैंने आजादी के बाद नेहरू के समय में विकास के मापदंडों की औपनिवेशिक काल के साथ-साथ अन्य देशों के साथ तुलनात्मक स्तर पर विस्तृत तुलना की है। मैं यहां कुछ सूचकांक का उल्लेख करता हूं। भारत की राष्ट्रीय आय या सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी) 1951 से 1964-65 के बीच, तीसरी पंचवर्षीय योजना के अंतिम वर्ष यानी 1965-66 को छोड़कर जिसमें अभूतपूर्व अकाल और युद्ध का सामना करना पड़ा था, प्रति वर्ष लगभग 4 प्रतिशत की औसत दर से बढ़ी। यह औपनिवेशिक शासन की पिछली आधी सदी के दौरान हासिल की गई विकास दर का लगभग चार गुना था। स्वतंत्रता के बाद भारत द्वारा हासिल की गई विकास दर की तुलना उन्नत देशों द्वारा तुलनीय चरण में, यानी उनके शुरुआती विकास के दौरान हासिल की गई दरों से करने पर भारत का प्रदर्शन अच्छा है। प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर केएन राज कहते हैं: ‘जापान को आमतौर पर एक ऐसा देश माना जाता है जिसने 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी की पहली तिमाही में तेजी से विकास किया; फिर भी, 1893-1912 की अवधि में जापान में राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर 3 प्रतिशत प्रति वर्ष से कुछ कम थी और अगले दशक में भी 4 प्रतिशत प्रति वर्ष से अधिक नहीं बढ़ी। इस तरह के मानदंडों के आधार पर भारत में पिछले डेढ़ दशक (1950-65) में हासिल की गई विकास दर निश्चित रूप से कुछ संतोष की बात है।’ इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में प्रति व्यक्ति आय में भी ऐसी ही प्रभावशाली वृद्धि होती है। औपनिवेशिक काल में, प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि या तो शून्य थी या बहुत कम थी, जो 1820 और 1913 के बीच अमेरिका, जापान और यूरोप के स्वतंत्र देशों से काफी नीचे रही। उपनिवेशवाद के पूर्ण प्रभाव के बाद औपनिवेशिक शासन के अंतिम दशकों में, भारत में प्रति व्यक्ति आय वास्तव में 1913-50 के बीच 0.22 प्रतिशत की वार्षिक दर से घटी। दूसरी ओर, आजादी के बाद, पहले कुछ दशकों में यह सालाना 1.4 प्रतिशत की दर से बढ़ी (उपनिवेशवाद के तहत सबसे अच्छे चरण, 1870-1913 से लगभग तीन गुना तेज)। स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक दशकों में उपनिवेशवाद की असंरचना (un-structuring) ने प्रति व्यक्ति आय में बहुत तेज वृद्धि का आधार तैयार किया, जो अगले तीस वर्षों में, 1973-2001 तक 3.01 प्रतिशत वार्षिक रही (यह दर पश्चिमी यूरोप, अमरीका या जापान द्वारा हासिल की गई दर से काफी अधिक थी) और 2003-04 से 2006-07 के बीच आश्चर्यजनक रूप से 7 प्रतिशत रही (यह 2006-07 में 8 प्रतिशत से अधिक थी), जो जापान द्वारा 1950-73 के बीच हासिल की गई विस्फोटक दरों (हालांकि बहुत ही विशेष परिस्थितियों में) के बराबर थी। … पूंजी निर्माण की दर, जो आर्थिक विकास की कुंजी है, औपनिवेशिक काल के दौरान बहुत धीमी गति से बढ़ी। वास्तव में भारत में जो कुछ निवेश किया गया था, उसका बराबर या उससे अधिक अनुपात भारत ब्रिटेन को अपव्यय या नजराने के रूप में दे कर खो रहा था। … अगर हम औपनिवेशिक पूंजी विनियोजन को नज़रअंदाज़ भी कर दें, जिसे शुरुआती राष्ट्रवादियों ने drain कहा था, तो हम पाते हैं कि औपनिवेशिक शासन के आखिरी पचास सालों (1901-46) में अर्थव्यवस्था में सकल पूंजी निर्माण सालाना जीडीपी के 6 से 7 प्रतिशत के आसपास रहा, जबकि आज़ादी के बाद के पहले पचास सालों में पूंजी निर्माण की दर लगातार और तेज़ी से बढ़ी। 1955 और 1970 के बीच यह औपनिवेशिक दर से दोगुना था, जो 2005-06 में 33.8 प्रतिशत की दर पर पहुंच गया, जो औपनिवेशिक दर से लगभग पाँच गुना ज़्यादा था। कुछ बुनियादी ढाँचे और सामाजिक लाभों की उपलब्धता में भी प्रति व्यक्ति तेज़ी से वृद्धि हुई क्योंकि आज़ादी के तुरंत बाद आबादी की तुलना में ये लाभ कई गुना तेज़ी से बढ़े। 1950-51 की तुलना में 1965-66 में बिजली की स्थापित क्षमता 4.5 गुना अधिक थी, बिजली से लैस कस्बों और गांवों की संख्या चौदह गुना अधिक थी, अस्पताल के बिस्तरों की संख्या 2.5 गुना अधिक थी, स्कूलों में नामांकन तीन गुना से थोड़ा कम था और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि डिग्री और डिप्लोमा स्तर पर तकनीकी शिक्षा (इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी) में प्रवेश क्षमता क्रमशः 6 और 8.5 गुना अधिक थी। यह तब हुआ जब इस अवधि में जनसंख्या में केवल 37.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई।”
आंकड़ों के लिहाज से उपरोक्त उद्धरण से प्राप्त सूचनाएं काफी महत्वपूर्ण हैं जो बताता है कि नेहरू-युग की नियंत्रणकारी अर्थव्यवस्था क्यों जरूरी थी और किस तरह उसके माध्यम से भारत में विकसित स्तर की पूंजीवादी व्यवस्था ने आकार ग्रहण किया। आदित्य मुखर्जी आगे यह खुलकर बताते हैं कि किस प्रकार नेहरू-युग की नीतियों के माध्यम से हुए विकास ने आगे चलकर वित्त पूंजी की पीएलजी (प्राइवेटाइजेशन, लिबरलाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन, जो नई आर्थिक नीतियों के सार हैं) नीति को दोनों हाथों से पकड़ने का बड़ा अवसर प्रदान किया। वे बड़ी सफाई से कहते हैं – “नेहरू के नव-उपनिवेशवादी, नवउदारवादी आलोचक, जैसे तीर्थंकर रॉय और मेघनाद देसाई, स्वतंत्रता के बाद हुई इस बड़ी सफलता को नजरअंदाज करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप संरचनात्मक परिवर्तन हुए… साथ ही, वे वैश्विक संरचनात्मक संदर्भ को देखने में भी विफल हो जाते हैं जब वे नेहरू को स्वतंत्रता के बाद 1991 के बाद की आर्थिक रणनीति नहीं अपनाने के लिए दोषी ठहराते हैं। यदि 1991 के बाद की रणनीति 1950 के दशक में अपनाई गई होती, तो भारत निश्चित रूप से एक ‘बनाना रिपब्लिक’ बन गया होता। इसी तरह से, 1990 के दशक में, जब भारतीय अर्थव्यवस्था सहित वैश्विक अर्थव्यवस्था की प्रकृति में बुनियादी बदलाव हो गये हैं, 1950 की आर्थिक रणनीति का कोई मतलब नहीं होगा।”
इस तरह नेहरू के इतने बड़े समर्थक यह साफ-साफ कहते हैं कि किस तरह नेहरू-युग की आर्थिक नीतियों ने ही आज की नई आर्थिक नीतियों की दूरंदेशी से नींव रखी थी। यानी, नेहरू भी आज होते तो वे भी नई आर्थिक नीतियों का ही अनुसरण करते। वे आगे कहते हैं – “नेहरूवादी युग ने विरासत में मिली औपनिवेशिक संरचना के कई पहलुओं को बदलकर यानी un-structuring करके [और साथ ही साथ कृषि-संरचना में पूंजीवादी विकास के प्रशियाई जमींदार-बुर्जुआ मार्ग के माध्यम से पूर्व-पूंजीवादी संरचनाओं को बदलकर यानी un-structuring करके, जिसे वे बल-प्रयोग के बिना किया गया भूमि सुधार और यहां तक कि सामूहिकीकरण कहते हैं – लेखक] भविष्य के ‘खुलेपन’ और विकास के लिए परिस्थितियां निर्मित की।” उन्होंने आगे और बेबाकी से कहा है – “अन्य उत्तर-औपनिवेशिक देशों को भी खुलने से (opening up) पहले तीस से चालीस साल तक इस तरह की अव्यवस्था (un-structuring) की आवश्यकता थी। 1970 के दशक के अंत में डेंग द्वारा किया गया खुलापन (opening up) संभव होने से पहले चीन को माओवादी दौर से गुजरना पड़ा था। आज का भारत स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती दशकों में नेहरूवादी आम सहमति (consensus) द्वारा रखी गई नींव के कारण संभव हुआ है; ना कि इसके बावजूद।” एक नेहरू समर्थक के मुंह से ही नेहरू-युग के नीतियों के विशुद्ध पूंजीपक्षीय विशेषताओं व चरित्र के बारे में इससे बेहतर स्वीकारोक्ति और क्या हो सकती है?
आइए, कुछ और आंकड़ों को लें। जहां तक कृषि में विकास के साथ-साथ शोध और आविष्कार के माध्यम से ज्ञान में क्रांति का सवाल है, वे लिखते हैं – “औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय कृषि स्थिर हो गई थी और यहां तक कि इसमें गिरावट भी आई थी। 1911-41 के दौरान प्रति व्यक्ति कृषि उत्पादन वास्तव में 0.72 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से गिरा। प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन में और भी अधिक तेजी से, यानी 1.14 प्रतिशत प्रति वर्ष की गिरावट आई, यानी इस पूरी अवधि में 29 प्रतिशत की गिरावट। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि स्वतंत्रता के समय भारत को तीव्र खाद्यान्न कमी और कई क्षेत्रों में अकाल की स्थिति का सामना करना पड़ा था। 1946 और 1953 के बीच चौदह मिलियन टन खाद्यान्न आयात करना पड़ा था। यदि भारत अपने अस्तित्व के लिए खाद्य सहायता पर निर्भर होता तो संप्रभुता [हालांकि जहां तक संप्रभुता का सवाल है इसे साम्राज्यवाद के युग के सापेक्ष देखना चाहिए – लेखक] की कोई जगह ना होती। भारतीय कृषि में क्रांति की आवश्यकता थी और नेहरू ने युद्ध स्तर पर इस कार्य को हाथ में लिया। जैसा कि नेहरू ने 15 दिसंबर 1952 को संसद में स्पष्ट रूप से कहा था: ‘हम निश्चित रूप से उद्योग को महत्व देते हैं, लेकिन वर्तमान संदर्भ में हम कृषि और खाद्य तथा कृषि से संबंधित मामलों को कहीं अधिक महत्व देते हैं। अगर हमारी कृषि की बुनियाद मजबूत नहीं है तो हम जो उद्योग खड़ा करना चाहते हैं उसका आधार भी मजबूत नहीं होगा। इसके अलावा, आज देश में स्थिति ऐसी है कि अगर हमारा खाद्यान्न मोर्चा दरका तो बाकी सब भी दरक जाएगा। इसलिए हमें अपने खाद्यान्न मोर्चे को किसी हाल में कमजोर नहीं करना चाहिए। अगर हमारी कृषि मजबूत हो जाती है, जैसा कि हम उम्मीद करते हैं, तो हमारे लिए औद्योगिक मोर्चे पर तेजी से प्रगति करना अपेक्षाकृत आसान होगा, जबकि अगर हम केवल औद्योगिक विकास पर ध्यान केंद्रित करते हैं और कृषि को कमजोर स्थिति में छोड़ देते हैं तो हम अंततः उद्योग को कमजोर कर देंगे। इसीलिए कृषि और खाद्यान्न पर प्राथमिक ध्यान दिया गया है और मुझे लगता है कि वर्तमान समय में भारत जैसे देश में यह आवश्यक है।”
हालांकि मुखर्जी के आशय से कोई असहमत हो सकता है, लेकिन नेहरू के विचार के बारे में उनका यह स्पष्ट बयान कि वे कृषि में पूंजीवादी विकास की कल्पना कैसे करते हैं, बहुत प्रशंसनीय है। देखिए वे क्या कहते हैं – “नेहरू ने भारत में भूमि सुधारों के अत्यंत कठिन कार्य को आगे बढ़ाया… सोवियत संघ और चीन में जबरन किए गए भूमि सुधारों, जिसमें लाखों लोगों की जान चली गई, या जापान में सेना के कब्जे के तहत किए गए भूमि सुधारों के विपरीत यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी [यह उन लोगों के लिए है जो नेहरू के भारत में समाजवाद देखते हैं – लेखक] 1952 में, उन्होंने अपनी पार्टी के सामने घोषणा की: ‘देश के सामाजिक और आर्थिक ढांचे में शांतिपूर्ण और सहयोगात्मक रूप से आवश्यक बदलाव लाने के इस कार्य के लिए, कांग्रेस को अब अपनी पूरी ताकत से खुद को संबोधित करना चाहिए… जबकि राष्ट्र को सभी मोर्चों पर आगे बढ़ना चाहिए, लेकिन तत्काल कार्य ज़मींदारी, जागीरदारी … भूमि स्वामित्व की ऐसी प्रणालियों को समाप्त करना है, और इस प्रकार भारत में कृषि क्रांति को आगे बढ़ाना है।” [भारत की कृषि में पूंजीवादी विकास का वही जमींदार-पूंजीपति मार्ग जो वास्तव में क्रांति तो कतई नहीं थी – लेखक]
मुखर्जी आगे कहते हैं – “1957 तक 150 साल से भी पुरानी जमींदारी प्रथा की कमर टूट चुकी थी। [यह आंशिक रूप से सच है, यानी पूरी तरह सच नहीं है। जहां तक बिचौलिये का सवाल है उनकी सरकार ने इसका उन्मूलन कर दिया था। लेकिन जमींदारी प्रथा सिर्फ यही नहीं थी। यह प्रथा इस रूप में टूटी कि उनकी सरकार ने उन्हीं पुराने जमींदारों को मुआवजे के तौर पर बड़ी रकम देकर पूंजीवादी जमींदारों व बड़े किसानों में बदल दिया, जिसका मतलब यह था कि कृषि में इसके अवशेष, बाह्य आवरण के साथ अंतर्य दोनों में बहुत दिनों तक बने रहे और इस तरह पुरानी जमींदारी प्रथा आधारित सामंती संबंधों को एकमात्र धीरे-धीरे और शनै: शनै: तोड़ने का रास्ता लिया गया जिससे गरीब देहाती आबादी पर अनकहे दुखों के पहाड़ टूटे – लेखक] सहकारी और संस्थागत ऋण ने साहूकारों की पकड़ को काफी कमजोर कर दिया। ऐसी संस्थाओं द्वारा दिए गए ऋण में पंद्रह गुना से भी ज्यादा की वृद्धि हुई, जो 1950-51 में 0.23 बिलियन (23 करोड़ रुपये) रुपये से बढ़कर 1965-66 में 3.65 बिलियन (365 करोड़ रुपये) रुपये हो गए [लाभ उठाने वाले ज्यादातर मध्यम और अमीर किसान थे, जिनकी संख्या पूंजीवादी कृषि के एजेंट के रूप में इस रास्ते से बढ़ाने की कोशिश की गई – लेखक]। ऐसे संस्थागत सुधारों के साथ-साथ वैज्ञानिक कृषि अनुसंधान, सिंचाई और बिजली परियोजनाओं में भी बड़े निवेश किये गये। नेहरू ने कृषि और उद्योग के बीच कोई झूठा विरोधाभास नहीं पैदा किया। इस बात को भली-भांति समझते हुए कि औद्योगिक और ढांचागत परिवर्तन अर्थात बिजली, ट्रैक्टर, पंप, रासायनिक उर्वरक आदि के बिना कृषि परिवर्तन संभव नहीं है, उन्होंने कृषि सुधारों के साथ-साथ औद्योगिक परिवर्तन पर भी जोर दिया। उदाहरण के लिए, 1950 से 1965 के बीच उनके मार्गदर्शन में बिजली उत्पादन में 1300 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई। संस्थागत परिवर्तनों (भूमि सुधार) और बड़े पैमाने पर राज्य प्रायोजित तकनीकी परिवर्तन के संयोजन ने भारतीय कृषि को तेजी से परिवर्तित किया। पहली तीन योजनाओं के दौरान (अकाल के वर्ष 1965-66 को छोड़कर), भारतीय कृषि 3 प्रतिशत से अधिक की वार्षिक दर से बढ़ी, जो भारत में उपनिवेशवाद के अंतिम चरण की आधी सदी (1891-1946) के दौरान हासिल की गई 0.37 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से आठ गुना अधिक थी।”
कुल मिलाकर इसमें जो वर्णन है वह इस बात की तस्दीक करता है कि जो भूमि सुधार और कृषि सुधार हुए उनका चरित्र जमींदार-पूंजीपति पक्षीय था और इसके मूल में पुराने जमींदारों को ही आधुनिक कृषि का मुख्य एजेंट बनाना था। वे आगे कहते हैं – ”कभी-कभी नेहरू की तुलना उनके उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री से करने की कोशिश की जाती है, जिन्हें अपने बहुत ही छोटे कार्यकाल में हरित क्रांति की रणनीति शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। लेकिन वास्तविकता इससे कुछ अलग है। यह स्पष्ट था कि पचास के दशक के अंत और साठ के दशक की शुरुआत में, भारतीय परिस्थितियों में किए जा सकने वाले भूमि सुधारों से लाभ चरम पर पहुंचने लगे थे और कृषि के विस्तार, यानी अधिक क्षेत्र को खेती में लाने के आधार पर कृषि विकास की संभावनाएं भी अपनी सीमा तक पहुंचने लगी थीं। इसलिए, नेहरू का ध्यान अनिवार्य रूप से तकनीकी समाधानों की ओर चला गया। यहां तक कि हरित क्रांति से जुड़ी नई कृषि रणनीति, जिसमें पैकेज कार्यक्रम (आईएडीपी या गहन कृषि जिला कार्यक्रम) के साथ गहन विकास के लिए कुछ प्राकृतिक लाभ वाले चुनिंदा क्षेत्रों को चुना गया था, को नेहरू के जीवनकाल में तीसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान प्रायोगिक आधार पर पंद्रह जिलों में शुरू किया गया था, प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक। यह एक अभ्यास था जिसे कुछ वर्षों बाद बड़े पैमाने पर सामान्यीकृत किया जाना था। जैसा कि हरित क्रांति के प्रमुख विद्वानों में से एक, जीएस भल्ला ने कहा: ‘भारत में गुणात्मक तकनीकी परिवर्तन – हरित क्रांति … उनके जीवनकाल में नहीं बल्कि उनकी मृत्यु के तुरंत बाद हुई। लेकिन तकनीकी विकास की नींव नेहरू के समय में रख दी गई थी।’ इस प्रकार नेहरू ने न केवल भारतीय कृषि में प्रमुख संस्थागत सुधार (भूमि-सुधार) किए, बल्कि उन्होंने तकनीकी सुधारों की नींव भी रखी, जो ‘हरित क्रांति’ का आधार था, जिसने भारत को उल्लेखनीय रूप से कम समय में खाद्य अधिशेष वाला देश बना दिया। कोई आश्चर्य नहीं होता जब स्वतंत्रता के बाद से भारतीय कृषि के सबसे उत्सुक पर्यवेक्षकों में से एक डैनियल थॉर्नर कहते हैं: ‘कभी-कभी यह कहा जाता है कि (प्रारंभिक) पंचवर्षीय योजनाओं ने कृषि की उपेक्षा की। इस आरोप को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। तथ्य यह है कि भारत की स्वतंत्रता के पहले इक्कीस वर्षों में कृषि में बदलाव को बढ़ावा देने के लिए अधिक काम किया गया और वास्तव में पिछले दो सौ वर्षों की तुलना में अधिक बदलाव हुए हैं।’ (‘नेहरुज़ इंडिया’, अध्याय 6: लोकतंत्र और संप्रभुता के साथ आर्थिक विकास)